हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 20 ☆ स्पेसवासी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “स्पेसवासी।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी ने सिद्ध कर दिया कि शब्दों के खेल से कुछ भी रचा जा सकता है और यह आलेख शब्दों के खेल का ही कमाल है। इस शब्दशिल्प के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 20 ☆

☆ स्पेसवासी

अरे भई  किस स्पेस की बात कर रहे हैं, आजकल तो स्पेस ही स्पेस है,  दयाशंकर जी ने कहा।

सो तो है,  राघव जी ने कहा।

दोनों बचपन के दोस्त हमेशा ही व्यंग्य के माध्यम से ज्वलन्त मुद्दों पर बातचीत करते- रहते थे।

0पहले स्पेस में जाकर बसने की प्लानिंग थी, पर  एक ही झटके में धरती पर सबको पर्सनल स्पेस मिल गया, राघव जी ने कहा ।

हाँ भाई, अब तो स्पेस के बिना कोई कार्य ही नहीं होता। मास्क लगा कर, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए इसे मेंटेन कीजिए, दयाशंकर जी ने मुस्कुराते हुए कहा।

सो तो है, बहुत  दिनों से युवा पीढ़ी इसी स्पेस को लेकर जद्दोजहद कर रही थी, ऐसा मालुम होता है कि ईश्वर ने इनकी सुन ली, अब तो घर में रहकर चैन से इसके मजे लूटते रहो, बाहर निकलने पर खातिरदारी होती है, राघव जी ने कहा।

हँसते हुए दयाशंकर जी ने कहा  आखिरकार किसी न किसी तरह चीनी कृपा से हम स्पेशवासी हो ही गये।

बिल्कुल जब पूरे घर, यहाँ तक कि सारे त्योहारों पर चीनी सामान का राज था; तो ऐसे दिन तो देखने ही पड़ेंगे, राघव जी ने कहा।

हाँ भई, जब विदेशी मदद से स्पेस में पहुँचने की चाह हो तो ऐसा ही होता है। इसे कहते हैं लेना एक न  देना दो ।

अब तो इसी के साथ जीना सीखना होगा,दयाशंकर जी ने कहा।

एक दूसरे ही ओर देखकर, फीकी मुस्कान बिखेरते हुए दोनों अपनी – अपनी राह पर चल दिए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 50 ☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  ऑनलाइन बहस पर आधारित  एक अतिसुन्दर सेल्फी पर आधारित व्यंग्य  “ऑनलाइन बहस का मौसम।   श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 51 ☆ 

☆ व्यंग्य – ऑनलाइन बहस का मौसम

 लाकडाउन ने और कुछ दिया हो या न दिया हो पर घड़ी की सुई के साथ, नम्बरो और भौतिकता के इर्द गिर्द रुपयों के लिये भागमभाग करती जिंदगी को मजबूरी में ही सही पर खुद से मिलने के मौके जरूर दिये हैं. खुली जेल की नजरबंदी के मजे लेने की सोच जिसके पास है, उसने सारी परेशानियों के साथ, बिना कामवाली बाई के भी, काम करते हुये मेरी तरह जिंदगी के मजे भी लिये हैं. लोग सुबह तब काम पर निकल जाते थे जब बच्चे सो रहे होते थे, और तब थके हारे लौटते थे जब बच्चे सो चुके होते थे, मतलब वे बच्चो को लेटे हुये ही बढ़ता देख रहे थे. ऐसे सभी लोगों को भी अपनी जमीन, अपना गांव याद आ गया. लाकडाउन से परिवार के साथ समय बिताने का, खुद से खुद को मिलने का मौका मिला.

इस कोरोना काल का साहित्यकारो ने भरपूर रचनात्मक उपयोग किया. सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा कर लोगो ने नये यूट्यूब चैनल्स बनाये, इंस्टाग्राम और फेसबुक एकाउन्ट बनाये. युवाओ ने टिकटाक बनाये.  जो पहले से फेसबुक पर थे उन्होनें फेसबुक की मित्र मण्डली की छटनी कर डाली. इतना सब तो पहले लाकडाउन तक ही कर डाला गया. पर कहा जाता है न कि मनुष्य का दिमाग ऐसा सुपर कम्प्यूटर है जिसकी पूरी क्षमता का दोहन ही हम कभी नही कर पाते. जब सरकार को कोरोना से बचने का और कोई उपाय नही सूझा तो लाकडाउन दो लागू कर दिया गया. बुद्धिजीवी लोगो की बुद्धि बिना गोष्ठियों के अखल बखल होने लगी. जब तक गर्मागरम बहस न हो, देश के लोगों का खाना अच्छी तरह नही पचता. यही कारण है कि शाम होते ही सारे खबरिया चैनल अपने पर्दे पर बे सिर पैर की बहसों के आयोजन करते हैं. कथित विशेषज्ञ बातो के लात जूतो से एक दूसरे की लानत मलानत पर उतर आते हैं. भले ही बहस का कोई परिणाम नही निकलता पर सारे देश को भरोसा हो जाता है कि हमारा लोकतंत्र जिंदा है और हमारी अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी पूरी तरह बरकरार है.

जिन लोगों को किसी व्यस्तता के चलते टीवी पर यह बहस सुलभ नही हो पाती उनके लिये देश में चाय और पान के टपरे हैं. जहां लोकल दैनिक से लेकर साप्ताहिक अखबार और सांध्य समाचार के पन्ने उपलब्ध होते हैं. यहां अपनी अपनी रुचि के अनुरूप लोग पसंदीदा खबर पर किसी भी जाने अनजाने उपस्थित अन्य चाय पीते व्यक्ति से टाइमपास बहस शुरू कर सकता है. इस तरह बहस से सारे देश का हाजमा हमेशा दुरुस्त बना रहता है. बुद्धिजीवियो को ऐसी प्रायोजित बहसो में मजा नही आता, उन्हें अपना खाना पचाने के लिये मौलिक बहसों की जरूरत होती है. इस वजह से वे काफी हाउस में एकत्रित होकर मुद्दे तलाशते हुये फिल्टर काफी पीते हैं. लगे हाथ चुगली, चाटुकारिता आदि भी हो जाती है, और अकादमी पुरस्कारो की साठ गांठ भी चलती रहती है.

एक और वर्ग होता है जिसे खाना पचाऊ बहस के लिये रात का समय ही मिल पाता है, यह वर्ग चखना के साथ स्वादानुसार पैग तैयार कर मित्र मण्डली से बहस करता है और लोकतंत्र को अपना समर्थन देते हुये मदहोश सुखद स्वप्न संसार में खो जाता है.

लाकडाउन ने चाय पान की गुमटियां गुम कर रखी थी,काफी हाउस और बार बन्द थे, इसलिये स्वाभाविक रूप से बिना बहस लोग अखल बखल थे. लोगों का हाजमा खराब हो रहा था. ऐसे समय में काम आये मोबाईल के वे मीटिंग एप जिनके जरिये हम ग्रुप्स में जुड़ सकते हैं, सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक संस्थाओ ने प्लेटफार्म दिये, ग्रुप एडमिन्स ने आनलाईन बहस के मुद्दे ढ़ूंढ़ लिये और लोग नियत समय पर आनलाईन कविता पाठ, व्यंग्यपाठ, देश की एकता, लाकडाउन हो या न हो, यदि मोदी की जगह कोरोना काल में राहुल प्रधानमंत्री होते तो, जैसे अनेकानेक विषयो पर आनलाईन बहस में जुटे हुये हैं. सबका हाजमा ठीक हो रहा है.अपनी बस यही गुजारिश है कि सरकार खाने के लिये आटा और उसे पचाने के लिये आनलाईन डाटा देती रहे, फिर कोई चिंता नही है, लाकडाउन तीन, चार, पांच चलता रहे जनता धीरे धीरे कोरोना के साथ जीना सीख ही लेगी.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 4 ☆ लॉकर से प्रशस्त होती लॉकर-रूम की राह ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक, एवं बच्चों की परवरिश पर आधारित विचारणीय व्यंग्य “लॉकर से प्रशस्त होती लॉकर-रूम की राह ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #4 ☆

☆ लॉकर से प्रशस्त होती लॉकर-रूम की राह

 

“प्रणाम गुरुवर. बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक कैसे आगमन हुआ आपका ?” – सेठश्री धनराज ने अट्टालिका में असमय पधारे गुरुजी से पूछा.

“क्षमा करें श्रेष्ठीवर्य. मुझे आपके सुकुमार के बारे में कुछ आवश्यक चर्चा करना है.”

“कहिये गुरुवर.”  – उनकी आवाज़ में रूखी औपचारिकता थी.

“आपको तो पता ही है, सुकुमार युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े हैं. इस समय उनका अध्ययन से ध्यान भटकना अनुचित है.”

जिस प्रसंग की ओर गुरुजी संकेत कर रहे थे वो सेठश्री की जानकारी में पहले ही आ चुका था. नगर कोतवाल ने बताया ही था. कोतवाल भरोसेमंद आदमी है. उसे शीशे में उतार लिया गया है. लेकिन इस गुरु का कुछ करना पड़ेगा. उन्होंने सोचा पहले इसे कह लेने देते हैं, फिर देखते हैं – “विस्तार से बतायें गुरुवर.”

“इन दिनों सुकुमार अशोभनीय कार्यों में लिप्त रहने लगे हैं. वे अपने सहपाठी मित्रों के साथ कामक्रीड़ा सम्बन्धी चर्चा करते हैं. जैसे, अनावृत्त युवतियाँ कैसी दिखती हैं, उनके साथ संसर्ग कैसे किया जा सकता है, संसर्ग-प्रसंग की फेंटेसी साझा करते हैं. जबकि, अभी तो उनकी मसें पूरी तरह भीगी भी नहीं है.”

“मसें भीगने की समस्या है…..ओके. वो हम भिगवा देंगे.”

“नहीं नहीं श्रीमन्, तात्पर्य यह कि किशोर अवस्था में ही उन्होंने रति सुख की चर्चा का आनंद पाने के लिये लॉकर-रूम का निर्माण किया है.”

“बेवकूफ है वो. हमारे यहाँ हर कमरे में लॉकर हैं, फिर लॉकर के लिये नया रूम क्यों बनाना. मैं बात करूंगा उससे.” – अंजान दिखने का छद्म भाव चेहरे पर लाते हुवे उन्होंने कहा.

“वैसा नहीं श्रीमन्, वर्चुअल लॉकर. जिस पर वे सहपाठी कन्याओं को संसर्ग करने का प्रस्ताव देते हैं. जो कन्यायें उनके दबाव के आगे समर्पण नहीं करतीं उन्हें फूहड़ और आवारा करार देते हैं, उनकी तस्वीरें निर्वस्त्र तस्वीरों में मिलाकर सार्वजानिक करने की धमकी देने लगते हैं. चिंता का गहरा पक्ष तो यह उभर कर आया कि सुकुमार सहपाठियों के साथ मिलकर किसी कन्या से बलात् संसर्ग करने की योजना पर पिछले दिनों कार्य कर रहे थे.”

अब सेठश्री ने मन ही मन धृतराष्ट्र का स्मरण किया, और बोले – “सुकुमार ने तो सिर्फ चर्चा भर की है, बलात् संसर्ग किया तो नहीं. अपराध तो तब न माना जायेगा जब वे सचमुच ऐसा कर गुजरें. वह भी तब जबकि वे पीछे सबूत छोड़ने की गलती करें. आप अनावश्यक चिंतित न हों गुरुवर, अभी हमारे लॉकर लबालब भरे हैं.”

“मैं तो नैतिक शिक्षा की बात कर रहा था.”

“सो तो आपने बचपन में पठा दी. उसका पारिश्रमिक आपको मिल चुका. अब भूल जाईये. युवावस्था आनंद का समय है. प्लेजर सुकुमार का पर्सनल राईट है.”

“हे महाभाग, कन्याओं के माता पिता ने नगर कोतवाल से शिकायत भी की है.”

“उसका बंदोबस्त हमने कर लिया है. इतना रसूख तो जेब में धर के चलते हैं हम. बताईये, सुकुमार या उसके किसी साथी का मिडिया में कहीं नाम आ पाया क्या ? स्कूल का नाम किसी को पता चला क्या ? सिस्टम हमारे लॉकर में बंद एक  आइटम है.”

“सो तो है श्रीमन्, लेकिन स्कूल के प्रसाधन कक्षों में सुकुमार के धूम्रपान करने की पुष्टि हुई है. प्राप्त जानकारी के अनुसार वे कभी कभी मद भी ग्रहण करते हैं.”

“गुरूवर, आपकी परेशानी ये है कि आप अपनी मिडिल क्लास मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रहे. अमीरों-उमरावों का आनंद आपसे देखा नहीं जाता. स्कूल गर्ल को मलयाली मूवी में आँख मारते नहीं देखा आपने ? फिलवक्त, आपके पेट में दर्द का कोई उचित कारण नहीं जान पड़ता.”

“क्या कहूं महाभाग, वे विद्यालय की शिक्षिकाओं के बॉडी पार्ट्स बारे में भी अशोभनीय बातें करते हैं, सो आपके पास चला आया.”

“मॉडर्न सोसायटी से सामंजस्य बैठाईये गुरुवर. तार्किक मानव विचार का दौर समाप्त हुआ. ये वर्जनाओं के टूटने का दौर है, ये उपभोग का दौर है, मस्ती का दौर है, आनंद का दौर है. सुकुमार इस उम्र में एन्जॉय नहीं करेंगे तो कब करेंगे.”

“जैसा आप उचित समझें श्रीमन्, लेकिन नारी सम्मान एक महत्वपूर्ण विषय है. ये सिर्फ सुकुमार के लॉकर रूम की बात नहीं है,”

“गुरुवर, हम आपका आदर करते हैं, लेकिन घूमफिर कर आप बार बार सुकुमार के विरूद्ध आयं-बायं बोलने लगते हैं. हमने उन्हें कितना डोनेशन देकर आपके फाइव स्टार स्कूल में प्रवेश दिलवाया है. सुकुमार फ़्लूएंट इंग्लिश स्पीकिंग बॉय है. कमाल है, आप उनमें और हिंदी बोलने वाले देहाती लड़कों में फर्क नहीं कर पाते.”

“जी, लेकिन…”

“बहुत हुआ गुरुवर, आप अपनी नौकरी बचाने की चिंता करिये. परिवार का पालन-पोषण करिये और इस प्रकरण को यहीं भूल जाईये. शेष हम देख लेंगे….. और हाँ, अगर आपके लिये इसे भूल पाना संभव न हो तो हम स्कूल प्रबंधन से आपके एक्जिट लेटर का प्रबंध करने को कह देते हैं…. खड़े क्यों हैं ? अब जाईये भी.”

धृतराष्ट्र के बारे में गुरुजी अब तक कक्षाओं में पढ़ाते रहे, आज मुलाकात भी हो गई. और गांधारी मॉम ? वो भी तो खड़ीं थी सेठश्री के पीछे – आँखों पर पट्टी बांधे, सिले होंठ के साथ. आँखों में निष्कासन का तैरता भय लिये गुरूजी अब निज घर के रास्ते पर हैं.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 48 ☆ व्यंग्य – शी शी और मेहमानवाजी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  व्यंग्य – शी शी और मेहमानवाजी। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 48

☆ व्यंग्य –  शी शी और मेहमानवाजी ☆ 

 

गजबेगजब करते हो यार…. दोस्ती का नाम लेकर दगाबाजी करते हो। जब दो साल पहले हम वुहान आये रहे तो तुमने झील के किनारे खूब झूला झुलाय कर खूब दोस्ती का नाटक करे रहे। हालांकि कि सयाने लोग बताइन रहन कि सन्  बासठ में भाई भाई कहके खूब पिटाई कर दिए रहे और हमार जमीन भी हथिया लिए थे। तुमको थोड़ी शरम नहीं आई कि जब हम दो साल पहले वुहान में रुके रहे तब तुमने हमखों वुहान लैब नहीं घुमाया रहा जब तुमने तीन चार साल पहले से जे वालो वायरस अपने फ्रिज में छुपाये रहे, तो हमखों भी वो लैब घुमा देते। सबै लोग बतात रहे कि दो तीन दिनन तक टीवी वालों ने तुमको और हमको खूब दिखाया रहा, टीवी  देख देख के कई लोग कहत रहे कि ऐसन लगत रहो जैसे दो विश्वसनीय दोस्त विचारों का बढ़िया आदान-प्रदान कर रहे हों। पर तुम तो एक नंबर के बदमाश और दगाबाज़ निकले, घर लौटत ही डोकलाम में अपने आदमी दंड पेलने भेज दिये रहे, बेशर्मी की हद होती है भाई…… वुहान में तुमने हमार शानदार स्वागत काहे को किया रहा, मुंह में राम और बगल में छुरी……..

हमारे गांव के लोग तुम्हें इसीलिए याद करते हैं कि तुम लोग खूब संतान पैदा करते हैं हालांकि हम लोग भी ऐसा करते हैं पर तुम लोग बाजी मार ले जाते हो। वुहान के रात्रि भोज में तो तुमने कहा रहा कि अपन आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर काम करेंगे पर रातोंरात तुम आतंकवादी की मदद करते रहे …….. , यार तुम्हीं बताओ कि तुम पर कैसे विश्वास करें। हम चमगादड़ से नफरत करते हैं और तुम हो तो उसको पूजते हो, उसका सूप पीते हो।

दोस्ती  का नाटक करके हमारी दिलेरी का फायदा इत्ते जल्दी उठा लेते हो कि सब त्यौहारों में तुम्हीं तुम छाये रहते हो। बीमारी असली वाली देते हो और बीमारी ठीक करने के उपकरण नकली देते हो। हमारे कुटीर उद्योग बर्बाद करके बेरोजगारों की फौज खड़ी कर देते हो।

यार तुम्हारी दगाबाजी और बेशर्मी से तो हमखों शर्म आती है। वुहान में तुमने तो कहा रहा कि अपन समान दृष्टिकोण, बेहतर संवाद, मजबूत रिश्ता, साझा विचार और साझा समाधान पर गले मिलते रहेंगे। क्या यार कहते कुछ हो करते कुछ हो। सच कहा गया है कि कुत्ता की पूंछ पुंगरिया में डालो जब भी निकालो तो टेड़ी ही निकलेगी। किस टाइप के आदमी हो यार, गले मिलने का बहाना करके जेब में वायरस डाल देते हो।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 51 ☆ व्यंग्य – गुरू का प्रसाद ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘गुरू का प्रसाद ’। वास्तव में समय ही हमें जीवन जीना सीखा देता  है और वही हमें जीवन का अनुभव भी देता है। व्यक्ति पहले शोषित होता है फिर वही शोषण करने लगता है। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 51 ☆

☆ व्यंग्य – गुरू का प्रसाद ☆

रात आठ बजे घर पहुँचा तो पता चला गुरुदेव का बुलावा आया था। दिमाग में खटका हुआ, क्योंकि गुरुदेव बिना मतलब के याद नहीं करते।

दरबार में हाज़िर हुआ तो गुरुदेव ने मुस्कराकर ध्यान दिलाया, ‘याद रखना, तुम मेरे पुराने शिष्य हो। ‘

मैंने कहा, ‘चाहूँ तो भी नहीं भूल सकता, गुरुदेव। योग्य सेवा बताइए। ‘

वे हँसकर बोले, ‘सेवा भी बताएंगे। थोड़ी बातचीत तो करें। ‘

थोड़ी देर बाद कॉफी पेश हुई। मैंने कहा, ‘गुरुदेव, मैं रात में कॉफी नहीं पीता। नींद खराब हो जाती है। ‘

गुरुदेव कृत्रिम क्रोध से बोले, ‘चुप! गुरू के प्रसाद को इनकार करता है? पीनी पड़ेगी। ‘

एक कप ख़त्म होने पर गुरुदेव ने दूसरा भर दिया। बोले, ‘गुरू का चमत्कार देखना। बढ़िया नींद आएगी। ‘

एक घंटे बाद चलने को हुआ तो गुरुदेव ने एक पैकेट पकड़ा दिया। बोले, ‘इसमें बी.ए. की पचास कापियाँ हैं। आज रात में जाँच डालो। अर्जेन्ट काम है। तुम्हारे लिए थोड़ा सा ही रखा है। बाकी दूसरों को दिया है। ‘

मैं गुरुदेव की गुरुआई देखते देखते घाघ हो गया था। घर आकर पैकेट एक कोने में फेंका। कॉफी के असर से नींद नहीं आयी तो एक उपन्यास चाट गया।

दूसरे दिन जब दोपहर तक मैं नहीं पहुँचा तो गुरुदेव हाँफते हुए मेरे घर पर अवतरित हुए। बोले, ‘कापियाँ जँच गयीं?’

मैंने कहा, ‘क्षमा करें, गुरुदेव। रात को नींद आ गयी। सो गया। ‘

गुरुदेव ने माथे पर हाथ मारा। करुण स्वर में बोले, ‘दो कप कॉफी पीकर भी नींद आ गयी?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 50 ☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर सेल्फी पर आधारित व्यंग्य  “आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी। मेरी समवयस्क पीढ़ी ने फोटोग्राफी के लगभग सभी दौर देखे हैं तब जाकर सेल्फी  की दुनिया देखने को मिली।  नई पीढ़ी की फोटोग्राफी तो जन्म से लेकर  ही प्रारम्भ हो जाती है।  ऐसी में आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी कितनी जरुरी है इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 50 ☆ 

☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी

 “स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त जी की पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले  कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.

अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूं, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े  और पिताजी के इकलौते बेटे का  बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.

यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल, कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मानीतर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.

कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे  कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.

डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है.  ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं. हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये. शायद इस भावना से भी कि सामने वाला  भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.

सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.

जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ  सेल्फी लोड करने  पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं. कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से,   तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये  किसी पहाड़ की चोटी,  बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फीलेते किसी की जान न जावें.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 19 ☆ जोड़ – तोड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “जोड़-तोड़।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी का कथन जीवन जल की तरह अनमोल है कदाचित सत्य है और वास्तव में इसे सहेज कर रखना ही चाहिए। इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 19 ☆

☆ जोड़-तोड़

बड़े धूमधाम से  मिलन समारोह का आयोजन हुआ, लोग मुस्कुराते हुए  फूले नहीं समा रहे थे;  पर इस सब में भी कुछ चेहरे ऐसे थे जो जोड़ – तोड़ करने में लगे हुए  थे ।  क्या केवल जोड़ से ही जीवन अच्छा बन सकता है ???

कभी नहीं, जोड़ बिना  तोड़ के अधूरा  है ;   ठीक उसी प्रकार जैसे फूल बिना काँटे के, रेगिस्तान बिना मृगमरीचिका के, पनघट बिना पनिहारिन के, भगवान बिना भक्त के , आकाश बिना तारे के और धरती बिना हरियाली के कुछ अधूरी- अधूरी सी लगती  है ।

खैर जब कुटिलता पीछे  पड़  जाए तो यथार्थ पर आना ही पड़ता है, सो  मिठाई की टेबल छोड़कर लोग चल दिये पानी पूरी व चाट के स्टाल की ओर, मैं तो  अवलोकन करते हुए  न जाने कितनी कॉफी पी गयी, फिर ध्यान आया अरे  टेस्ट  तो करूँ, सो एक बड़ी सी प्लेट में ढेर सारा अंकुरित अनाज भर कर,  चल दी तबा  फ्राय से  भरवां करेला लेने, मेरा एक उसूल है;  मीठा हो लेकिन कड़वे के साथ, अब बारी थी मिठाई के तरफ बढ़ने की सो वहाँ पहुँची और जम कर  चमचम व खोये की जलेबी  का आनन्द लिया क्योंकि मुझे मालुम है उत्सव के बाद कुछ  कड़वाहट तो  फैलेगी ही सो तैयार रहो  ।

सबसे जरूरी बात कि  मीठा रोग होता है जबकि कड़वा  भोग होता है जिसने कटुता को जी कर राह  बनायी उसका बाल बाँका कोई नहीं कर पाया  वो शिखर पर स्थापित हो  पूज्य हुआ अतः जीवन में मीठे और कड़वे दोनों अनुभवों को सहेजें क्योंकि  ये जीवन अनमोल है जल की तरह, इसे बचाएँ , हरियाली की तरह फ़ैलाएँ झूमें और गायें खुशियाँ मनाएँ क्योंकि बीता  समय लौट कर नहीं आता । अवसर का उपयोग करें पर अवसरवादी बनना है या नहीं ये आप पर निर्भर करता है ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 49 ☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर गॉसिप आधारित व्यंग्य  “ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 49 ☆ 

☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल

सोसायटी में स्टेटस सिंबल के मापदण्ड समय के साथ बदलते रहते हैं. एक जमाना था जब घर के बाहर खड़ी मंहगी गाडी घर वालों का स्टेटस बताती थी.मंहगे बंगले से समाज में व्यक्ति की इज्जत बढ़ती थी. महिलायें क्लब में घर की लक्जरी सुविधाओ जकूजी बाथ सिस्टम, बरगर एलार्म, सी सी टीवी, वगैरह को लेकर या अपनी मंहगी गाड़ी के नये माडल को लेकर बतियातीं थी.जिस बेचारी के पति मारुति ८०० में चलते, वह पति की ईमानदारी के ही गुण गाकर और उनहें मन ही मन कोसकर संतोष कर लेती थी. ननद, भाभियों, बहनो, कालेज के जमाने की सखियों में लम्बी लम्बी मोबाईल वार्ता के विषय गाड़ी, बंगले, फ्लैट रहते थे. पर जब से ई एम आई और निन्यानबे प्रतिशत लोन पर गाडीयो की मार्केटिंग होने लगी है, केवल सैलरी स्लिप पर लाइफ इंश्योरेंस करके बड़े बड़े होम लोन के लिये बैंक स्वयं फोन करने लगे हैं बंगले और गाड़ियां स्टेटस के मुद्दे नही रह गये. फिर  मंहगी ब्रांडेड ज्वेलरी, मंहगी घड़ियां,सिल्क और हैण्डलूम की मंहगी साड़ियां चर्चा के विषय बने. किस पार्टी में किसने कितनी मंहगी साड़ी पहनी से लेकर, अरे उसने तो वह साड़ी अमुक की शादी में भी पहनी थी, फेसबुक पर फोटो भी है. हुंह, उसका वह डायमण्ड सैट ब्रांडेड थोड़े था पर बात होने लगी किंतु किश्तों में ज्वैलरी स्कीम्स से वह मजा भी जाता रहा. स्टेटस सिंबल की महिला गासिप  फारेन ट्रिप पर केंद्रित हुई,नेपाल, भूटान, मालदीव ट्रिप वाले, देहरादून, शिमला, कुल्लू मनाली से स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे.  वे अगले बरस एनीवर्सरी पर दुबई, सिंगापुर, बैंकाक  की प्लानिंग की बातें करते नही थकते थे.  बड़े लोग यूरोप, आस्ट्रेलिया,पेरिस ट्रिप से शुरुवात ही करते थे. हनीमून पर बेटी दामाद को लासवेगास की ट्रिप के पैकेज गिफ्ट करना स्टेटस का द्योतक  बन गया था.

पहले विदेश यात्रा और फिर उसके फोटो व्हाट्सअप के स्टेटस, इंस्टाग्राम पर चस्पा करना सोसायटी में डील करने के लिये जरूरी हो गया था. आयकर विभाग ने भी इस प्रवृति को संज्ञान में लेकर इनकम टैक्स रिटर्न में फारेन ट्रिप के डिटेल्स भरवाने शुरू कर दिये. इन सब भौतिकतावादी अमीरी के प्रदर्शक स्टेटस सिंबल्स के बीच बुद्धिजीवी परिवारों ने बच्चो की एजूकेशन को लेकर स्टेटस के सर्वथा पवित्र मापदण्ड स्वयं गढ़े. बच्चे किस स्कूल में पढ़ रहे हैं ? मुझे क्या देखते हो मेरे बच्चो को देखो, के आदर्श आधार पर बच्चों के रेसिडेंशियल काण्वेंट स्कूल से प्रारंभ हुई  स्टेटस की यह दौड़ बच्चो को हायर एजूकेशन के लिये सीधे अमेरिका और लंदन ले गई. किसके बच्चे ने मास्टर्स विदेश से किया है,और अब कितने के पैकेज पर किस मल्टी नेशनल में काम कर रहा है,  यह बात बड़े गर्व से माता पिता की चर्चा का हिस्सा बन गई. बच्चे विदेश गये तो घरो में काम करने वाले मेड् और ड्राईवर, शोफर और उन गरीब परिवारो को मदद की चर्चा भी स्टेटस सिंबल बना. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल थोड़ा तकनीकी टाईप के नेचर वाली महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से रहे.बड़ी ब्रांड के सेंट, साबुन, कास्मेटिक्स, सौंदर्य प्रसाधन, स्पा, मसाज की बातें भी खूब हुईं.

पर पिछले दो महीनो में स्टेटस सिंबल एकदम से बदले हैं. कोरोना ने दुनियां को घरो में बन्द कर दिया है. नौकरो की सवैतनिक छुट्टी कर दी गई है. बायें हाथ को दाहिने हाथ से कोरोना संक्रमण का डर सता रहा है. ऐसे माहौल में लोग व्यस्त भी हैं और फ्री भी. वर्क फ्राम होम चल रहा है. महीनो हो गये महिलायें सज धज ही नहीं रही. पति पूछ रहे हैं कि सजना है मुझे सजना के लिये वाले गाने में सजना मैं ही हूं न ? ब्रांडेड ड्रेसेज पहने महीनो बीत गये हैं.लूज घरू कपड़ों में दिन कट रहे हैं. इन दिनों घर के कामों में किसके पति कितना हाथ बटांते हैं, यह लेटेस्ट स्टेटस चर्चा में चल रहा है. घर के कामों में पति की भागीदारी से उसका प्यार नापा जा रहा है.  किचन के किस आटोमेटिक उपकरण से क्या नई डिश बनी, उसमें पति की कितनी भागीदारी रही, और उसका स्वाद किस फाइवस्टार होटल की किस डिश के समान था यह आज का स्टेटस डिस्कशन पाईंट था. मुझे भरोसा है कि जल्दी ही इन तरह तरह की डिसेज से भी मन ऊब ही जायेगा, और यदि तब भी लाकडाउन और क्वेरंटाईन जारी रहा तो चर्चा के नये विषय होंगे ब्रांडेड झाडू और पोंछे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 3 ☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #3 ☆

☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का

आप रम्मू को नहीं जानते.

अरे वोई, जो एक जमाने में कंठाल चौराहे पर, साईकिल खड़ी करके, दोपहर का अखबार चिल्ला चिल्ला कर बेचा करता था. यस, वोई. इन दिनों एक न्यूज चैनल में एडिटर-इन-चीफ हो गया है. प्राईम टाईम के प्रोग्राम कम्पाईल करता है. मुझे भी नहीं पता था.

कुछ दिनों पहले, मैं चैनल बदल रहा था तो जोर की आवाज पड़ी कान में. अरे ये तो अपना रम्मू है. ध्यान से देखा तो वोई निकला. कैसा तो मोटा हो गया है. नाक नक्श में भी थोड़ा बदलाव आया है. चश्मा भी लगने लगा है, इसीलिए पहिचानने में देर लगी. लेकिन मैं आवाज से पहचान गया. चिल्लाने की वैसी ही अदा, वही आवाज़ हॉकरों वाली, उतनी ही लाउड. ख़बरों की वैसी ही अदायगी – ‘महापौर के अवैध सम्बन्ध उजागर. छुप छुप के मिलने की कहानी का पर्दाफ़ाश’. आज वो स्टूडियो के न्यूज रूम से पूरे देश के सामने मुखातिब है. क्या शानदार तरक्की की है रम्मू ने!!!

समाचारों की दुनिया में रम्मू के प्रवेश की छोटी सी मगर दिलचस्प कहानी है. शुरू शुरू में रम्मू अपनी साईकिल पर हांक लगाकर खटमलमार पावडर बेचा करता था. क्या तो हाई पिच गला उसका और क्या मज़बूत फेफड़े पाये उसने!! बंसी काका की उस पर नज़र पड़ी, उन्होंने उसे साथ-साथ ‘जलती मशाल’  अखबार बेचने के लिये राजी कर लिया. शहर का सबसे पॉपुलर टैब्लॉयड, क्राईम की खबरों से भरपूर. रम्मू उसमें से ह्त्या, बलात्कार, डकैती की किसी खबर को बुलंद आवाज़ में दोहराता और सौ-दो सौ प्रतियाँ बेच लेता था. ‘आज की ताज़ा खबर’ की उसकी हांक इतनी जोरदार होती थी कि चार किलोमीटर दूर टॉवर चौराहे पर खड़े लोग जान जाते कि कोई सत्तर साल की वृद्धा बीस साल के युवक के साथ भाग गयी है.

एक दिन बंसी काका ने संपादन का दायित्व भी थमा दिया. वो सुबह सुबह प्रूफरीडर होता, फिर एडिटर, फिर हॉकर. ‘तीन ग्रामीणों की पीट पीट कर हत्या’ जैसी खबर नागालैंड से होती, मगर उसकी गूँज से लगता कि क़त्ल अभी अभी इसी चौराहे पर हुआ है. सनसनी वो तब भी बेचता रहा, अब भी. असल जनसरोकारों से उसे तब भी कोई लेना देना नहीं रहा, अब भी. सरोकार में कमाई, टारगेट में बिक्री. नलियाबाखल से मंडीहाउस तक के उसके सफ़र में ‘जलती मशाल’ की झलक हर पायदान पर महसूस की जा सकती है.

देखिये ना, आज वो विचार भी उसी शिद्दत से बेच लेता है जिस शिद्दत से कभी खटमलमर पावडर बेचा करता था. पोलिटिकल लीनिंग और लाईनिंग वो पजामे की तरह बदलता रहता है. थाने की दलाली का कौशल उसे नेशनल केपिटल में पॉलिटिकल पार्टीज के साथ डील करने में मददगार साबित हो रहा है. वो न्यूज का अल्केमिस्ट है. खबर को बाज़ारी से बाजारू बना देने के हुनर को उसने महारथ में जो बदल लिया है. पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये रम्मू ‘यलो जर्नलिज्म’ की एक फिट केस स्टडी है. वो राई को पहाड़ और पहाड़ को राई बना सकता है. निर्मल बाबा जैसे प्रोडक्ट उसी ने बाज़ार में चलाये हैं. वो राधे माँ, हनी प्रीत, कंगना रानौत-ह्रितिक रोशन प्रसंगों पर घंटों बहस कर सकता है. बिना जमीर के पत्रकारिता करने की उसने एक नायाब नज़ीर कायम की है. प्राईम टाईम की शुरुआत वो गालियों से करता है, और ताली बजा बजा कर इंफोटेनमेंट का सर्कस जमा लेता है. वो पैनलिस्टों से बौद्धिक बहस नहीं करता उन्हें नचवा लेता है. वो इंटेलेक्चुअल्स को शट-अप बोलने का शऊर रखता है. अपनी आवाज़ के दम पर बीस बीस पैनलिस्टों पर अकेला भारी पड़ता है. कभी-कभी उसके पैनलिस्ट सुनील वाल्सन की तरह होते हैं – वे टीम में चुने तो जाते हैं, मैच नहीं खेल पाते. उनके मुंह खोले बिना ही डिबेट पूरी हो जाती है.  उज्जैन में था तो पाड़े लड़वाता था, अब पैनलिस्ट.

पढ़ने में फिसड्डी रहने का स्याह अध्याय वो बहुत पीछे छोड़ आया है. आज वो किसी भी विषय पर बहस करा लेता है. उसका ज्ञान से कोई लेना देना नहीं. वो विज्ञान, समाजशास्त्र, पर्यावरण, कला-साहित्य जैसे विषयों को बिना पढ़े भी खींच तो ले जाता है मगर सुकून उसे हिन्दू-मुसलमां डिबेट में ही मिलता है. वो अपनी बात किसी भी पैनालिस्ट के मुंह में ठूंस सकता है, उगलवा सकता है, निगलवा सकता है, स्टूडियो में उल्टी करने को मजबूर कर सकता है. ‘जलती मशाल’ तो कभी स्तरीय बना नहीं पाया, अलबत्ता नेशनल न्यूज को उसने ‘जलती मशाल’ के स्तर पर ला खड़ा किया है. वो एक ऐसा कीमियागर है जिसने मामूली खबर को निरर्थक बहस से प्रॉफिट के ढेर में तब्दील करने की तकनीक विकसित की है.

वो रात नौ बजे पड़ोसी मुल्क के पैनालिस्टों के विरुद्ध अपनी कर्णभेदी आवाज़ में जंग का बिगुल बजा देता है दस बजते बजते विजय की दुंदुभी बजाकर उठ जाता है. ‘बूँद बूँद को तरसेगा….’ से ‘कुत्ते की मौत मरेगा ….’ जैसे केप्शन्स भरी चीख़ उसे टीआरपी दिलाती है और टीआरपी विज्ञापन. इन सालों में उसने बहुत कुछ सीखा है, अब वो चैनल में ही कचहरी लगा लेता है. जज, ज्यूरी, एक्सीक्यूशनर सब वही रहता है. घंटे-आधे घंटे में फैसले सुनाने लगा है. फैसले जिनके पार्श्व में सिक्के खनकें तो, मगर सुनाई न दें.

उसका अगला लक्ष्य राज्यसभा की कुर्सी है. रम्मू एक दिन होगा वहां. उस रोज़ हम नलियाबाखल में मिठाई बाँट रहे होंगे और आतिशबाजी तो होगी ही. अब इससे ज्यादा, रम्मू के बारे  और क्या जानना चाहेंगे आप ?

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47 ☆ माइक्रो व्यंग्य – ईगो का ईको ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47

☆ माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको ☆ 

बीस साल पहले हम साथ साथ एक ही आफिस में काम करते थे। पर वे हमारे सुपर बाॅस थे, गुड मार्निंग करो तो देखते नहीं थे, नमस्कार करो तो ऐटीकेट की बात करते थे। जब हेड आफिस से हमारे नाम पुरस्कार आते तो देते समय सबके सामने कहते कि इनके यही सब दंद फंद के काम है बैंक का काम करने में इनका मन लगता नहीं। हेड आफिस से प्रशंसा पत्र आते तो दबा के रख लेते।

जब तक रिटायर नहीं हुए तब तक फेसबुक में हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट को इग्नोर करते रहे। हार कर जब रिटायर हुए तो बेमन से हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। पिछले दो साल से उन्हें फेसबुक में लिखा आने वाला वाक्य “हैपी बर्थडे टू यू” बिना श्रम के हम भेज देते थे। वे पढ़ कर रख लेते थे। कुछ कहते नहीं थे रिटायरमेंट के हैंगओवर में रहते।  इस बार से हमने न्यु ईयर की हैप्पी न्यु ईयर भी भेजने लगे। थैंक्यू का मेसेज तुरंत आया हमें बहुत खुशी हुई। मार्च माह में इस बार गजब हुआ जैसई हमनें “हैपी बर्थ डे टू यू” भेजा वहां से तुरंत रिप्लाई आई, “आपका हैप्पी बर्थडे का संदेश ऊपर भेजा जा रहा है। साहब का अचानक हृदयाघात से निधन हो गया था जाते-जाते कह गये थे कि सब मेसेज ऊपर फारवर्ड कर देना फिर मैं देख लूंगा।  जाते समय वे आपको याद कर रहे थे और उनकी इच्छा थी कि आप भी उनके साथ चलते……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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