हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 25 ☆ कविता – छोटी बहन ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “छोटी बहन”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 25 ✒️

?  कविता – छोटी बहन — डॉ. सलमा जमाल ?

(एकल परिवार के इकलौते बच्चौं को समर्पित)

अगर मेरी छोटी बहन होती,

बहुत ही लाड़- लड़ाता मैं ।

रक्षाबंधन के त्यौहार पर,

उससे राखी बंधवाता मैं ।।

 

आंगन में वह नन्ही सी गुड़िया,

ठुमक- ठुमक ,छम -छम चलती,

गिरकर उठती, उठकरगिरती,

चलकर बार- बार फिसलती,

नए- नए बहाने से रोती,

गोदी ले बहलाता मैं ।

रक्षाबंधन ————-।।

 

 रोक-टोक उसको नासुहाती,

 सब से नाराज़ हो जाती,

 मम्मी पापा पूछें, क्या है ?

 इशारे से वह बतलाती,

 खेल- खिलौने सब दे-देता,

 घोड़ा बन पीठ बिठाता मैं ।

 रक्षाबंधन—————।।

 

 नई-नई बस्ता बोतल होती,

 सुबह बुआ टिफिन लगाती,

 दादी कहे स्कूल ना जा,

” सलमा”जबरन पहुंचाती,

 जूता, मोजा, ड्रेस, वह टाई,

 पहना शाला ले जाता मैं ।

 रक्षाबंधन—————-।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गज़ल – टूट जाता है रोज रात में… ☆ श्री श्याम संकत ☆

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है आपकी एक गज़ल –  ‘टूट जाता है रोज रात में…’

☆ कविता ☆ गज़ल –  टूट जाता है रोज रात में…☆ श्री श्याम संकत ☆ 

किसी के पेट में जब आग कहीं जलती है

भूख नागिन सी वहां केचुली बदलती है

 

मिलेगा क्या वहां लज़ीज़ भाषणों के सिवा

भीड़ की जीभ जहां स्वाद को मचलती है

 

किसी के घर में चहकती है उजालों की किरण

किसी के आंगने दर्दों की शाम ढलती है

 

टूट जाता है रोज रात में सपनों का महल

नींद उम्मीद में खुद जब भी उठ के चलती है

 

जिंदगी को न समझ लेना एक भोली बिटिया

चंद बोसे और खिलौनों से जो बहलती है।।

 

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (1 – 5) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

कुश से पाया कुमद ने पुत्र ‘‘अतिथि’’ तब आप्त।

जैसे ब्राह्म मुहूर्त से बुद्धि करे सुख प्राप्त।।1।।

 

जैसे दोनों अयन रवि से होते हैं शुद्ध।

तैसहि दोनों कुल हुये पाके ‘‘अतिथि’’ प्रबुद्ध।।2।।

 

योग्य पिता ने अतिथि को पढ़ा कुलोचित पाठ।

करा दिया परिणय उचित कुमारियों के साथ।।3।।

 

कुश ने पाकर पुत्र को निज सम शूर जितेन्द्रिय।

माना उसका ही है वह युवा रूप एक अन्य।।4।।

 

निज कुल के अनुरूप कर कुश ने इन्द्र-सहाय।

संहारे दुर्जय असुर, पर गये मारे हाय।।5।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 31 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 31 – मनोज के दोहे

(बरजोरी, चूनर, अँगिया, रसिया, गुलाल)

बरजोरी

बरजोरी हैं कर रहे, ग्वाल-बाल प्रिय संग।

श्याम लला भी मल रहे, गालों पर हैं रंग।।

 

चूनर

चूनर भीगी रंग से, कान्हा से तकरार।

राधा भी करने लगीं, रंगों की बौछार।

 

अँगिया

फागुन का सुन आगमन, होती अँगिया तंग।

उठी हिलोरें प्रेम की, चारों ओर उमंग।।

 

रसिया

रसिया ने फिर छेड़ दी, ढपली लेकर तान।

ब्रज में होरी जल गई, गले मिले वृजभान।।

 

गुलाल

रंगों की बरसात हो, माथे लगा गुलाल।

मिले गले फिर हैं सभी, करने लगे धमाल।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 12 – वे अनजान रिश्ते… ☆ श्री हेमन्त बावनकर ☆

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 12 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ वे अनजान रिश्ते…

अभी तो सूखे भी नहीं

वे आँसू

जिसने विदा किए थे

पल दर पल

एक के बाद एक

कितने ही रिश्ते

जाने अनजाने रिश्ते।

 

कई रिश्ते तो बचा गए

कुछ अनजान फरिश्ते

और

कुछ बदनसीब रिश्तों को

प्लास्टिक में लपटे कर

कंधा दे गए

पीपीई किट में

कुछ अनजान रिश्ते

और

इस तरह निभा गए

इंसानियत का फर्ज़  

पता नहीं

किसके माथे था

न जाने किसका

किस जन्म का कर्ज़?

 

अभी तो सूखी भी नहीं

वह स्याही

जिससे लिखी थी

कई दर्द भरी कहानियाँ

जो आई थी

हर एक के हिस्से

जाने अनजाने, देखे सुने

इंसानियत के बेहिसाब किस्से।

 

बड़े अजीब

और हर दिल अजीज थे

वे अनजान रिश्ते

न हमने उनसे कभी पूछा

और

न उनने हमें कभी बताया

कि – क्या पढ़ निभाए थे 

वे अनजान रिश्ते

गीता, गुरुग्रंथ साहिब, कुरान, बाइबल…

या ढाई अक्षर प्रेम के…!

 

आज चाहिए

कुछ जेसीबी और बुलडोजर

जो बना सके मज़बूत नींव 

सर्वधर्म समभाव के पाठशाला की   

पढ़ने-पढ़ाने ढाई अक्षर प्रेम के

जो बना सके मज़बूत नींव 

दवाखानों की    

ताकि इंसानियत सुकून से जी सके।

 

वक्त हर जख्म भर देता है

वरना

हम कैसे भूल जाते

इतनी जल्दी

वे इंसानियत के किस्से

वे अनजान रिश्ते ?

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

3 मई 2022

मो 9833727628

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (86-88)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (86 – 88) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

यों कहते भूषण नृपति कर में देते, कन्या को कुश को समर्पित दिया कर।

कुश ने कहा-अब है आत्मीय मेरे सभी आप मन में न रक्खें कोई डर।।86।।

 

अग्नि को साक्षी बना ब्याह विधि से, ऊनी वलय मंगल सूत्र धारी।

कुमुदवती को तब ब्याह कुश ने अपनी विवाहिता पत्नी स्वीकारी।

 

होते ही ऐसा बजी दुदंभी, सब दिशाओं में मनहर मधुर ध्वनि छाई।

आकाश में मेघों ने आके सहसा, सुगंधित सुमन शुभ की वर्षा कराई।।87।।

 

इस विधि राम के आत्मज कुश को नाग कुमुद ने बना बहनोई,

राम के रूप श्री विष्णु के वाहन गरूड़ से भी निर्भीकता पाई।

 

तक्षक पुत्र कुमुद हुए साले, राज्य के सब के भयों से बचाया।

हो निश्चिंत तो कुश ने प्रजाप्रिय शासक बन कर राज्य बढ़ाया।।88।।

 

सोलहवां सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 86 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 86 –  दोहे ✍

प्रेम तत्व गहरा गहन, जिसका आर न पार।

शब्दों से भी है परे, अर्थों का विस्तार ।।

 

प्रेम प्यार में फर्क है, जैसे छाया धूप ।

यह तो होता निर्गुणी ,लेकिन उसका रूप।।

 

आयत कहता हूं उसे, कहता उसे कुरान।

मेरे लिखे प्रेम है गीता वेद पुरान।।

 

मैं करता हूं इबादत ,रखकर पूजा भाव।

होती जैसी भावना, दिखना वही प्रभाव।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 89 – “रही पूस की रात और…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – रही पूस की रात और।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 89 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “रही पूस की रात और”|| ☆

कम्बल एक चार लोगों

को जिसे ओढ़ सोना।

तिस पर हैं आश्वस्त एक

मिल जायेगा कोना ।।

 

रही पूस की रात और

मावठ  का भी गिरना।

तिस पर टपरे के कोने

से पानी का रिसना।

 

मर्यादा को लाँघे था

दुख, ब्यालू नहीं मिली।

चाट-चाट खा गये

प्रसादी में पाया दोना ।।

 

इधर कभी बेटी खींचे

तो पुत्र उघडता था ।

उधर खींच लेती मुनरी

तो बिरजू चिढ़ता था।

 

और कर्ज के सख्त तकाजे

सी थी शीत  लहर ।

हिला-हिला जाती

बिरजू को जो आधा- पौना।।

 

बोरा फटा बचा सकता

था थोड़ा बहुत इन्हें ।

गीला किया मावठे ने

संकट में डाल उन्हे ।।

 

सहने की क्षमता से

बाहर हुई ठण्ड बेहद।

सिसके माँ,ठिठुरे बापू

तय बच्चों का रोना।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-04-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पारदर्शी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पारदर्शी ??

तुम कहते हो शब्द,

सार्थक समुच्चय

होने लगता है वर्णबद्ध,

तुम कहते हो अर्थ,

दिखने लगता है

शब्दों के पार भावार्थ,

कैसे जगा देते हो विश्वास?

जादू की कौनसी

छड़ी है तुम्हारे पास..?

सरल सूत्र कहता हूँ-

पहले जियो अर्थ,

तब रचो शब्द..,

न छड़ी, न जादू का भास,

बिम्ब-प्रतिबिम्ब एक-सा विन्यास,

मन के दर्पण का विस्तार है,

भीतर बाहर एक-सा संसार है।

© संजय भारद्वाज

रात्रि 12.13 बजे, 22.9.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 79 ☆ # मजदूर दिवस # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# मजदूर दिवस #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 79 ☆

☆ # मजदूर दिवस # ☆ 

एक नारा गूंज रहा था कानों में

कहीं कहीं कुछ प्रतिष्ठानों में

मजदूर मजदूर भाई भाई

मैंने कहा-

सब बकवास है

सब अलग-अलग बंट गये है

स्वा‌र्थके लिए अलग-अलग छट गये है

पूंजीपतियों ने इनको तोड़ा है

अपनी अपनी तरफ मोड़ा हैं

अब कहां हड़ताल होती है

सरकार मस्त तानकर सोती है

मजदूरों के कल्याण की बात बेमानी है

नेताओं के आंखों का मर गया पानी है

दिखावे का मजदूर दिवस मनाते है

मीडिया से अपना फोटो खिंचवाते है

इतिहास गवाह है

भूखे पेट ही होती है क्रांति

तभी आती है दुनिया में शांति/

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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