हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (21 – 25) ॥ ☆

सर्गः-13

उत्सुक निकले हाथ से छूता धन जब आप।

लगता विद्युत वलय वह देता है चुपचाप।।21।।

 

वल्कल धरती तपस्वी बहुत दिनों के बाद।

फिर से जनस्थान में निर्भय अब आबाद।।22।।

 

यही तुम्हारी खोज में बढ़ते दुख के साथ।

पड़ा हुआ नूपुर मुझे मौन लगा था हाथ।।23।।

 

मौन लतायें यहीं प्रिय मुझे खड़ी समवेत।

झुकी डाल से हरण-पथ का तव की संकेत।।24।।

 

विकट परिस्थिति तुम्हारी से जब था अनजान।

इन हरिणों ने तब दिया दर्भ त्याग दिशिज्ञान।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र #99 ☆ बाल कविता – माँ सरस्वती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  “माँ सरस्वती”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 99 ☆

☆ बाल कविता – माँ सरस्वती ☆ 

माँ मुझे सद्बुद्धि देना

कर सकूँ जग में भलाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

सब पढ़ेंगे, सब लिखेंगे

पुष्प – सा हर मुख खिलाना।

नहीं भूखा रहे कोई

और बिछुड़ों को मिलाना।

 

मान सँग सम्मान देना

मित्र हों सब बहन – भाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

द्वेष, मद से दूर रखना

और ईर्ष्या से बचाना।

सत्य का आलम्ब देकर

ज्ञान का दीपक जलाना।

 

हर मनुज को छत भी देना

नहीं रहे निर्वस्त्र भाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

भक्ति कर हम धन्य हो लें

आप दो उर में सरलता।

वैर, रागों को हटाकर

भरें वाणी में मधुरता।

 

कर्म को सन्मार्ग देना

दूर कर आलस जंभाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

भेदभावों को मिटाकर

प्रेमपूरित भाव करना।

और तम सारा हटाकर

पीर के सब घाव भरना।

 

यश बढ़े, वह गान देना

विषमता की पटे खाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (16 – 20) ॥ ☆

सर्गः-13

 

पुष्परेणु ला कर रहा तव आनन-श्रृंगार।

दिशालीक्षि यह तट पवन आकार बारम्बार।।16अ।।

 

तब विम्बाधर के लिये मेरे मन की प्यास।

देर न हो शायद उसे है इसका आभास।।16ब।।

 

लो क्षण में हम यान से गये सागर पार।

जहाँ रेत पै मोती हैं, तट तरूपूग कतार।।17।।

 

पीछे देखो मृगनयनि धरा हरी भरपूर।

दिखती सागर से उदित ज्यों ज्यों जाते दूर।।18।।

 

यह पुष्पक चलता सुमुखि मम रूचि के अनुसार।

कभी देव, घन, विहंग के पथ में कर संचार।।19।।

 

ऐरावत मदगंध से नभगंगा संस्कार।

वायु पोंछती स्वेद तव मुख का बारम्बार।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#121 ☆ बैठे-ठाले – चुनावी चहलकदमी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय कविता  “बैठे-ठाले – चुनावी चहलकदमी….”)

☆  तन्मय साहित्य  #121 ☆

☆ बैठे-ठाले – चुनावी चहलकदमी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

प्रेम की गंगा बहाने आ गए

पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए।

 

डोर से अब तक बँधे थे

गाँठ उसकी खुल गई

जुड़े थे पूरब से कल तक

हो गए अब पश्चिमी,

डुबकियाँ उस तट लगा

इस तट नहाने आ गए

पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए….।

 

सगे बन कल तक जहाँ

जमकर उड़ाई रसमलाई

हो गई जब बंद आवक

दिव्य दृष्टि तभी पाई,

साफगोई के कुतर्की

सौ बहाने आ गए

पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए….।

 

 तत्वदर्शी चिर युवा

 हिंदुत्व बूढ़ों को सिखाए 

 इधर कुछ श्रीराम के

 नारे लगा उनको भुनाए,

 साथ भेड़ों को लिए फिर

 खेत खाने आ गए

 पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए

 प्रेम की गंगा बहाने आ गए।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#14 ☆ नज़्म – नफ़रत के बीज –☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  नज़्म “नफ़रत के बीज–”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 14 ✒️

?  नज़्म – नफ़रत के बीज– —  डॉ. सलमा जमाल ?

नफ़रत के बीज कैसे ,

मोहब्बत उगाऐंगे ।

काँटे बोके फूल कहाँ से ,

हम पाएंगे ।।

 

ज़िदगी का क्या भरोसा ,

हो जाए कब फ़ना ,

नेकी का बहे दरिया ,

रब की हम्दो सना ,

इंसानियत का हक़ हम ,

अदा करके जाएंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

पत्ते हैं हम ख़िज़ां के ,

हमको ढकेगी ख़ाक ,

मिट्टी में मिल जाएंगे या ,

एक मुट्ठी राख ,

ज़मीन में दफ़न होंगे या ,

हवा में उड़ जाएंगे ।

काँटे  ———————- ।।

 

इंसाफ़े जहांगीरी का अब ,

वक़्त आ गया ,

दहशतगर्दी से व़तन में ,

अंधेरा छा गया ,

नाकाम हुए तो क्या ,

हिम्मत जुटाऐंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

दुनिया को छोड़कर फ़िक्रे ,

मेहशर की कीजिए ,

फ़िरका परस्ती को हवा ,

ना और दीजिए ,

ख़ाली हाथ ख़ुदा को क्या ,

मुँह दिखाएंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

आठ सौ साल हम पर रहा ,

मुग़लों का शासन ,

तब भी ना बन सका यहाँ ,

इस्लामी प्रशासन ,

लोकतंत्र से भारत को ,

‘ सलमा ‘ सजाएंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (11 – 15) ॥ ☆

सर्गः-13

 

देखो उछल विभाजते जल को ये गज-ग्राह।

फेन कि जिनके कान पै दिखता चमर-प्रवाह।।11।।

 

सर्प तरंगों दीर्घ सम वायुपान हित तीर।

आये दिखते चमकते मणि से वृहद् शरीर।।12।।

 

तव अधरों सी शोभती मूँगों की चट्टान।

पर तरंगहत दीखते कम हैं शंख महान।।13।।

 

भँवरवेग से भ्रमित धन करते से जलपान।

देख है आता मंदराचल से मन्थन का ध्यान।।14।।

 

ताल वृक्ष की छाँव से नीलउदधि तट हार।

दिखता दूर है, चक्र के तट ज्यों जंग प्रसार।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 22 – सजल – मौन खड़ी है अब तरुणाई… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “मौन खड़ी है अब तरुणाई… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 22 – सजल – मौन खड़ी है अब तरुणाई … 

समांत- आई

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

नैतिकता की हुई धुनाई।

मौन खड़ी है अब तरुणाई

 

गली मुहल्ले घूम रहे हैं,

जिनने सबकी नींद उड़ाई।

 

जीवन जीना नर्क बन गया,

शैतानों ने खोदी खाई।

 

सज्जनता दुबकी है बैठी,

दुर्जनता के बीच लड़ाई।

 

आताताई हैं मुट्ठी भर

बहुसंख्यक की नहीं सुनाई।

 

डंडा लिए खड़े रखवाले,

पता नहीं किसकी परछाई।

 

कष्टों की पहनाई माला,

नेताओं ने खूब निभाई ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

11 जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (6 – 10) ॥ ☆

सर्गः-13

 

युग समाप्ति पर विष्णु जी कर जग का संहार।

सोते इसमें होता तब ब्रह्मा का अवतार।।6।।

               

शत्रु त्रस्त ज्यों भीत नृप, महाबली नृप पास।

जाते वैसे, विवश नगर कई का यह आवास।।7।।

 

जब वछाह बन विष्णु ने किया धरा-उद्धार।

तब पृथ्वी-घूंघट बना इस का जल विस्तार।।8।।

 

अधर दान में पान हित कुशल नदी ज्यों नारि।

को चुंबन हित तरंगित यह उलटा व्यवहार।।9।।

 

पी जीवों संग सरित-जल जलचर विविध प्रकार।

कर मुखमीलित छोड़ते शीशछिद्र से धार।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 78 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 78 –  दोहे ✍

असहायों को लूट कर, बनते श्री संपन्न ।

आँसू  उन्हें गरीब के, पल में करें विपन्न।

 

 आँसू निकले हर्ष में, आँसू  कहे विषाद ।

आँसू  का मतलब कभी अपने प्रिय की याद ।।

 

आँसू का क्या उत्स है, या पीड़ा या प्यार।

आँसू में ही भीग कर, चलता है संसार ।।

 

आँसू क्यों जन्मा भला, क्या कुछ थी दरकार।

 आँसू  निकलें जीत के, बतलाते हैं हार।।

 

जतलाता है अश्रु ही, परमात्मा का प्यार।

जड़ जीवन को सौंपता, सत्य शील, श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 78 – “एक पहेली माँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “एक पहेली माँ  …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “एक पहेली माँ  …”|| ☆

कैसे भी दिन हों,  सिरहाने-

रखे हथेली माँ ।

संतति की रक्षा का संबल

एक अकेली माँ ।।

 

ठंड पड़े  तो रात देखती

क्या उघडा है तन-

बेटे का, सूखा रखती है

किसी तरह सावन

 

मौसम की हर उठा-पटक

से उसे बचाती है,

बरसों से ही सर्द-गर्म की

रही सहेली माँ ।।

 

जीवन की कठिनाई की

कितनी ही तलवारें

या कि  रोज-मर्रा की

टेढ़ी-मेढ़ी दरकारें

 

जो भी होनी-अनहोनी

सब उसकी छाती पर

अचल-अडिग झेला

करती है बनी नवेली माँ ।।

 

झुका कमर बिन थके

लगी रहती है कामों में

उसकी गिनती भाग्यवान

कितने ही नामों में

 

घूमा करती है पहिये सी

बिना रुके, शायद

पुरातत्व के लिये अनौखी

एक पहेली माँ ।।

 

शहर-दर-शहर पीड़ाओं का

समाहार करती

लोग-कई उपमाएँ देते

कहते हैं धरती

 

है उदाहरण भारी-भरकम

ममता के ऋण का

फिर लखनऊ में,काशी में

या रहे बरेली माँ  ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

09-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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