हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मातृदिन) – एक पहलू ऐसा भी…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ “अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मातृदिन) – एक पहलू ऐसा भी…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठकगण,

अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मई महीने का दूसरा रविवार) अर्थात मातृदिन की सबको शुभकामनाएं! 🌹

यह मातृदिन आज के ही दिन क्यों मनाया जाता है, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए मुझे कुछ दिलचस्प और साथ ही विचारणीय जानकारी हाथ लगी| मदर्स डे का सबसे पुराना इतिहास ग्रीस के साथ जुड़ा है| वहाँ ग्रीक देवी देवताओं की माता की आदर सहित पूजा की जाती थी| माना जाता है कि, यह मिथक भी हो सकता है | परन्तु आज अस्तित्व में रहे मदर्स डे की शुरुवात करने का श्रेय ज्यादातर लोग अॅना रीव्ह्ज जार्विस (Anna Reeves Jarvis) को ही देते हैं| उसका अपनी माता के प्रति (अॅन मारिया रीव्ह्ज- Ann Maria Reeves) अत्यधिक प्रेम था| जब उसकी माता का ९ मई १९०५ को निधन हुआ, तब अपनी माता तथा सभी माताओं के प्रति आदर और प्रेम व्यक्त करने हेतु एक दिन होना चाहिए ऐसा उसे बहुत तीव्रता से एहसास होने लगा| इसलिए उसने बहुत अधिक प्रयत्न किये और वेस्ट व्हर्जिनिया में आन्दोलन की शुरुवात की| तीन साल के बाद (१९०८) अँड्र्यूज मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च में प्रथम अधिकृत मदर्स डे सेलिब्रेशन का आयोजन किया गया| वर्ष १९१४ को अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष वुड्रो विल्सन ने अॅना जार्विस की कल्पना को मान्यता देते हुए मई महीने के प्रत्येक दूसरे रविवार को राष्ट्रीय अवकाश (छुट्टी) को मान्यता देनेवाले विधेयक पर हस्ताक्षर किये| फिर यह दिन धीरे धीरे अमरीका से युरोपीय और अन्य देशों में और बाद में सारे जगत में अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे के रूप में मान्य किया गया|

कवी तथा लेखिका ज्यूलिया वॉर्ड होवे (Julia Ward Howe) ने इस आधुनिक मातृदिन के कुछ दशक पहले अलग कारण के लिए ‘मातृशांति दिन’ मनाये जाने के लिए प्रचार किया। अमरीका और युरोप में युद्ध के चलते हजारों सैनिक मारे गए, अनेक प्रकार से जनता ने कष्ट और पीड़ा झेली और आर्थिक हानि हुई सो अलग| इस पार्श्वभूमि पर एकाध दिन युद्धविरोधी कार्यकर्ताओं ने एक साथ आकर मातृदिन मनाये जाने की कल्पना जग में फैलनी चाहिए, ऐसा ज्यूलिया को लग रहा था| उसकी कल्पना यह थी कि, महिलांओं को वर्ष में एक बार चर्च या सोशल हॉल में एकत्रित होने के लिए, प्रवचन सुनने के लिए, अपने विचार प्रकट करने के लिए , ईश्वरभक्ति के गीत प्रस्तुत करने के लिए और प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और उनके लिए ऐसा एकाध दिन तय करना चाहिए। इस कृति से शांति में वृद्धि होगी और युद्ध का संकट टल जायेगा, ऐसा उसे लग रहा था|

परन्तु ‘एकसंध शांतता-केंद्रित मदर्स डे’ मनाये जाने के ये प्रारंभिक प्रयत्न पीछे रह गए क्योंकि, तब तक व्यक्तिगत रूप से मातृदिन मनाया जाने की दूसरी संकल्पना ने जोर पकड लिया था| इसका कारण था व्यापारीकरण! नॅशनल रिटेल फेडरेशन द्वारा २०१९ में प्रकाशित हुए आंकड़ों के अनुसार आजकल मदर्स डे अमरीका में $२५ अरब जितना महँगा अवकाश का दिन बन गया है| वहाँ लोग इस दिन मां पर सबसे अधिक खर्चा करते हैं| ख्रिसमस और हनुक्का सीझन (ज्यू लोगों का ‘सिझन ऑफ जॉय’) को छोड़ मदर्स डे के लिए सब से अधिक फूल खरीदे जाते हैं| आलावा इसके गिफ्ट कार्ड, भेंट की चीजें, गहने, इन पर $५ अरब से भी अधिक खर्चा किया जाता है| इसके अतिरिक्त विविध स्कीम के अंतर्गत स्पेशल आउटिंग भी बहुत लोकप्रिय है|

अॅना रीव्ह्ज जार्विस को इसी कारण मातृप्रेम पर आधारित उसकी कल्पना के बारे में दुःख हो रहा था| उसके जीवन काल में, वह फ्लोरिस्ट्स (फूल बेचने वाली इंडस्ट्री) के आक्रमक व्यापारीकरण के विरोध में अकेले लडी. परन्तु दुर्भाग्य ऐसा था कि, इस बात के लिए उसे ही जेल जाना पडा| इस अवसर पर माता के प्रति भावनाओं का गलत तरीके से राजनितिक लाभ उठाना, धार्मिक संस्थाओं के नाम पर निधि इकठ्ठा करना, ये बातें भी उसकी आँखों के सामने घटित हो रही थीं|  जार्विस ने वर्ष १९२० में एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया| उसने कहा, ‘यह विशेष दिन अब बोझिल और फालतू बन गया है| माँ को महंगे गिफ्ट देना, यह  मदर्स डे मनाने का योग्य मार्ग नहीं है|’  वर्ष १९४८ में, ८४ की उम्र में, जार्विस की एक सॅनेटोरियम में एकाकी रूप में मृत्यु हुई| तब तक उसने अपना सारा पैसा मदर्स डे की छुट्टी के व्यापारीकरण के खिलाफ लडने के लिए उपयोग कर खर्च कर दिया था| इस बहादुर और उन्नत विचारों की धनी वीरांगना स्त्री को आज के मातृदिवस पर मैं नतमस्तक हो कर प्रणाम करती हूँ| उसका छायाचित्र लेख के साथ जोडा है|

मित्रों, जब मैंने यह जानकारी पढी तब मेरे मन में विचार आया कि, क्या सचमुच ही माँ की ऐसी महँगी अपेक्षाएं रहती हैं? सच में देखें तो, अपेक्षा रहित प्रेम करना ही स्थायी मातृभाव होता है| फिर उसे व्यक्त करने के लिए इस खालिस व्यापारिक रवैये को बढ़ावा देकर पुष्ट करना क्या ठीक है? बहुतांश माताओं को ऐसा लगता है कि, इस दिन उनके बच्चों ने उन्हें केवल अपना समय देना चाहिए, उनसे प्रेम के दो शब्द बोलना चाहिए, माँ के साथ बिताए सुंदर क्षणों की यादें ताज़ातरीन करनी चाहिए। गपशप करना और साथ रहना, बस! इसमें एक ढेले का भी खर्चा नहीं होगा। मेरे विचार में यहीं सबसे बहुमूल्य गिफ्ट होगा आज के मदर्स डे का अर्थात मातृदिन का!

धन्यवाद!  🌹

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

दिनांक – १४ मई २०२३

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

(टिपण्णी- इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी उपयोग किया है| कृपया लेख को अग्रेषित करना हो तो मेरा नाम एवं फोन नंबर उसमें रहने दें!)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 40 ⇒ लाखों का सावन…☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लाखों का सावन ।)  

? अभी अभी # 40 ⇒ लाखों का सावन? श्री प्रदीप शर्मा  ?  ०००

 एक वह भी ज़माना था, (आप समझ गए) हाँ, वह कांग्रेस का ज़माना था, जब सावन लाखों का होता था, और नौकरी दो टके की, यानी 90-ढाई की ! मास्टर गाँव में पड़ा रहता था, और नई नवेली बहू शहर में सास-ससुर की सेवा करते हुए आनंद बक्षी का यह गीत सुनकर पति-परमेश्वर को कोसा करती थी।

उसे भी अपने मायके के सावन के झूले याद आया करते थे।

अब वह न घर की थी, न नाथ की।

समय बदलते देर नहीं लगती।

जो नौकरी कभी टके की थी, वह लाखों की हो गई, और लाखों का सावन टके का हो गया। सावन लगने पर किसी को आज उतनी खुशी नहीं होती, जितनी तनख्वाह में इन्क्रीमेंट लगने पर होती है।

तब भी सावन लगने से ज़्यादा खुशी हमें गुरुवार को शहर के थिएटर में नई फिल्म लगने पर होती थी। आज भी अच्छी तरह से याद है कि आया सावन झूम के जब रिलीज़ हुई थी, तो झूमकर बारिश हुई थी। जिनके पास छाते नहीं थे, वे सावन का मज़ा झूमकर ही नहीं भीगकर भी ले रहे थे। ।

कितनी फुरसत थी, जब सावन आता था ! श्रावण सोमवार को गाँधी-हॉल का बगीचा खचाखच महिलाओं और बच्चों से भर जाता था। पेड़ों पर झूले बाँध दिये जाते थे, जिन पर युवतियां जोड़े से झूला करती थी। ऊपर जाना, नीचे आना, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव को हँसते-हँसते झेलना, यही तो ज़िन्दगी का मेला होता था। बच्चों के लिए तो पुंगी और फुग्गे ही काफी थे। घास में लोटना और कोड़ा-बदाम छाई खेलना। घर की बनाई पूरी/पराँठे के साथ आलू/भिंडी की सब्जी, प्याज-अचार, और गाँधी-हॉल के गेट से दो रुपये का नमकीन मिक्सचर। बगीचे की घास पर मूँगफली के बचे हुए छिलके थे। बस, यही लाखों का सावन था।

समय ने करवट बदली ! सियासत ने अपना रंग बदला, ढंग बदला।

सावन की जगह बदले का मौसम आ गया। 60 साल से सोलह साल तक का पागल मन तलत का यह गीत गुनगुनाने लग गया !

बदली, बदली दुनिया है मेरी। वह बादल की बदली की नहीं, डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, वह सावन की बारिश में भीगकर बंद एटीएम तक नहीं जाना पसंद करता। paytm का आनंद लेता है, और  रेडियो मिर्ची पर मन की बात सुना करता है।

आजकल की फिल्मों ने भी सावन का दामन छोड़ दिया है,

संगीत ने मधुरता खो दी है,

तो गानों ने अर्थ खो दिया है।

व्यर्थ की फिल्में करोड़ों कमा रही है तो पद्मिनी पद्मावत बनी जा रही है। सावन कहीं प्यासा है तो  कहीं अभी से ही सावन-भादो की झड़ी लगी जा रही है। संगीत की स्वर-लहरियां मेरे कानों में गूँज रही हैं। नेपथ्य में फ़िल्म आया सावन झूम के का गाना बज रहा है। मन भी आज यही कह रहा है, सावन आज भी लाखों का है, सावन को आने दो।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 190 ☆ जानना और मानना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 190  जानना और मानना ?

मनुष्य अन्वेषी प्रवृत्ति का है। इसी प्रवृत्ति के चलते कोलंबस ने अमेरिका ढूँढ़ा, वास्को-डी-गामा भारत तक आया। शून्य का आविष्कार हुआ। मनुष्य ने दैनिक उपयोग के अनेक छोटे-बड़े उपकरण बनाए। खेती के औज़ार बनाए, कुआँ खोदने के लिए, कुदाल, फावड़ा बनाए। स्वयं को पंख नहीं लगा सका तो उड़ने के अनुभव के लिए हवाई जहाज और अन्यान्य साधन बनाए। समय के साथ वर्णमाला विकसित हुई, संवाद के लिए पत्र का चलन हुआ। शनै:- शनै: यह तार, टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल तक पहुँचा। कोरोनावायरस में ऑनलाइन मीटिंग एप बने। आँखों दिखते भौतिक को जानना चाहता है मनुष्य और जानने के बाद मानने लगता है मनुष्य।

विसंगति देखिए कि विचार या दर्शन के स्तर पर, बहुत सारी बातें जानता है मनुष्य पर मानता नहीं मनुष्य। कुछ-कुछ हैं जो मानने लगते हैं पर इस प्रक्रिया में लगभग सारा जीवन ही बीत जाता है। अधिकांश तो वे हैं जिनकी देह की अवधि समाप्त हो जाती है पर भीतर की जड़ता सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होती। झूठ बोलने वाला जीवन भर अपने असत्य को स्वीकार नहीं करता। आलसी अपने आलस को अलग-अलग कारणों का जामा पहनाता है लेकिन खुद को आलसी ठहराता नहीं। अहंकारी अपनी सारी साँसें अहंकार को समर्पित कर देता है पर जताता यों है, मानो उस जैसा विनम्र धरती पर दूसरा ना हो। अटल मृत्यु का सच प्रत्येक को पता है। हरेक जानता है कि एक दिन मरना होगा लेकिन इस शाश्वत सत्य को जानते हुए भी व्यक्ति इतने पाखंडों में जीता है, जैसे कभी मरेगा ही नहीं…और जब मरता है तो जीवन का हासिल शून्य होता है। अर्थात मरा भी तो ऐसे जैसे कभी जिया ही न हो। सच तो यह है कि जानने से मानने तक का प्रवास मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करता है। मनुष्यता ही आगे संतत्व का द्वार खोलती है।

गुजरात के भूकंप के समय की घटना किसी परिचित ने सुनाई थी। सेवानिवृत्त एक उच्च पदाधिकारी अपनी हाईक्लास हाऊसिंग सोसायटी के पीछे स्थित झोपड़पट्टी से बहुत ख़फ़ा थे। उच्चवर्गीय क्षेत्र में यह झोपड़पट्टी उन जैसे संभ्रांतों के लिए धब्बा थी। नगरनिगम को बीच-बीच में इसके अनधिकृत होने और हटाने के लिए पत्र लिखते रहते थे। भूकम्प में उनका भी घर ध्वस्त हुआ। बेहोश होकर वे एक झोपड़ी पर जाकर गिरे। सरकारी सहायता पहुँचने तक झोपड़ी में रहनेवाले परिवार ने चावल का माँड़ पिलाकर उन्हें जीवित रखा। बाद में अस्पताल में उनका इलाज हुआ।

मनुष्य कुल के अद्वैत को जानते तो वे भी होंगे पर मानने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। दैनिक जीवन में यह और इस जैसे अनेक उदाहरण हमारे सामने आते हैं।

हमारे पूर्वज विषय के विभिन्न आयामों को समझने के लिए शास्त्रार्थ करते थे। सामनेवाले विद्वान से शास्त्रार्थ में यदि पराजित हो जाते तो उसके तत्व को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते थे। यह जानने से मानने की ही यात्रा थी।

बहुत कुछ है, जो हम जानते हैं, बस जिस दिन मानना आरंभ कर देंगे, जीवन की दिशा बदल जाएगी। जानना सामान्य बात है, मानना असामान्य। स्मरण रहे, मनुष्य जीवन सामान्य के लिए नहीं अपितु असामान्य होने के लिए मिला है। निर्णय हरेक को स्वयं करना है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृत्रिम बुद्धिमत्ता।)  

? अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमने साधारण और असाधारण बुद्धि के लोग तो देखे थे, सामान्य और विशिष्ट की भी हमें पहचान थी, लेकिन असली और नकली की पहचान कहां इतनी आसान थी। जिसे आज आर्टिफिशियल कहा जाता है, हम कभी उसे बनावटी और कृत्रिम ही तो कहा करते थे। प्राकृतिक और सामान्य जीवन में तब कहां कृत्रिमता का स्थान होता था। गुरुदत्त ने कागज़ के फूल में यह भोगा है। असली फूल और शुद्ध जल का आज भी इंसाफ के मंदिर में कोई विकल्प नहीं है।

बनावटी हंसी, इमिटेशन के नाम पर आर्टिफिशियल ज्वेलरी, बनावटी चेहरे और बनावटी मुस्कान वैसे भी हमें एक कृत्रिम जीवन जीने को मजबूर कर रही है। ।

हमारी पीढ़ी किताबों से पढ़ी, पाठ्य पुस्तकों से पढ़ी, कुंजी, गैस पेपर, गाइड और नकल से नहीं। मेरे एक मित्र ने कॉलेज में अंग्रेजी विषय तो ले लिया, लेकिन अंग्रेजी में उसका हाथ तंग था। अच्छे खासे पहलवान थे, एक दिन हमें घेर लिया, आप कब फ्री हो, अंग्रेजी की इस किताब की गाइड नहीं छपी है, किसी दिन बैठकर इसे शुद्ध हिंदी में समझा दें। वे सबको शुद्ध हिंदी में ही समझाते थे, हमने भी उन्हें शुद्ध हिंदी में समझा दिया, वे परीक्षा की वैतरिणी अन्य कृत्रिम संसाधनों की सहायता से आखिर पार कर ही गए। वे आगे जाकर वकील बने और हम बैंक के बाबू ! इसे कहते हैं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल।

हम कितने ओरिजनल थे कभी, औलाद नहीं हुई, नीम हकीम, मंदिर, मन्नत, ताबीज, गंडे, टोटके और व्रत उपवास क्या नहीं किए और अगर ईश्वर को मंजूर नहीं था, तो किसी बच्चे को गोद ले लिया, उसे अपने बच्चे जैसा प्यार दिया, लेकिन कभी कृत्रिम गर्भाधान और टेस्ट ट्यूब बेबी की ओर रुख नहीं किया। पहले यशोदा भी मां होती थी, आजकल सरोगेट मदर भी होने लग गई। ।

पहले बच्चे ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरुकुल जाते थे, गुरु सेवा करते थे, उनकी सेवा ही गुरु दक्षिणा होती थी, गुरु का गुण देखिए, गुरु गुड़ और सत्शिष्य शक्कर निकल आता था। कितने खुश होते हैं हमारे जीवन को संवारने वाले पुराने शिक्षक, जिनके ज्ञान के झरने में स्नान कर आज की पीढ़ी विश्व में उनका नाम रोशन कर रही है।

अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जो आपको आसानी से प्रभावित कर देती है। आर्टिफिशियल शब्द डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप और शाइनिंग इंडिया की तरह इतना प्रचलित हो गया है, कि इसके आगे सामान्य, नैसर्गिक, और असली शब्द बौने नजर आने लगे हैं। चार्ल्स शोभराज और नटवरलाल से लगाकर किंगफिशर तक, शुरू से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का ही तो राज रहा है। जब घी सीधी उंगली से नहीं निकलता, तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है। साइबर क्राइम का जमाना है, आर्डिनरी इंटेलिजेंस इनका कोई इलाज नहीं। ।

हमारे टीवी, मोबाइल, लैपटॉप और गूगल सर्च सब आर्टिफिकल इंटेलिजेंस ही तो है। संसार को आगे बढ़ना है, तो रोबोट को चौराहे पर खड़ा होना ही है। अ, आ, इ, ई और abcde सब आजकल a और i पर आकर रुक गए हैं। आज की दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया है, इसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता कहकर जलील ना करें। कभी a कहीं का असिस्टेंट होता था, वह भी आजकल आर्टिफिशियल हो गया है। ।

बहुत ही जल्द विश्व का कोई विश्वविद्यालय जब मास्टर ऑफ एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री प्रदान करेगा, तब विपक्ष के कलेजे में ठंडक पहुंचेगी। अगर हिम्मत है तो जाओ और चैलेंज करो एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री को, यू आर्टिफिशियल देशभक्त और असली देशद्रोही विपक्ष। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “’एक्स्पायर’ व्हायच्या अगोदरच् ‘आऊटडेटेड’…” लेखक – श्री सचिन  लांडगे ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ “’एक्स्पायर’ व्हायच्या अगोदरच् ‘आऊटडेटेड’…” लेखक – श्री सचिन  लांडगे ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

हळूहळू किती खर्च आपण वाढवून घेतलेत काही कल्पना आहे का? सकाळी उठल्यापासून.. “टूथपेस्ट में नमक” असायला पाहिजे, चारकोल असायला पाहिजे.. लवंग दालचिनी विलायची अजून काय काय टाकतील..! दात घासायचेत, का दातांना फोडणी द्यायचीय, काय माहिती !

आणि सगळ्याच टूथपेस्ट “डेंटिस्ट का सुझाया नंबर वन ब्रँड” असतात.. रातभर ढिशूंम ढिशूंम..

टूथब्रशच्या ब्रिसल्सवर जितके संशोधन झालेय तितके संशोधन ‘नासा’त तरी होतेय का नाही कुणास ठाऊक ! कोनेंकोनें तक पहुँचने चाहिए म्हणून मग आडवे तिडवे उभे सगळे प्रकार आहेत.. असोत बापडे.. पण त्या डेंटिस्टच्या गळ्यात स्टेथो का असतो, हे मला अजून समजलं नाही..!

आंघोळीचा साबण वेगळा, चेहरा धुवायचा वेगळा.. जेल वेगळं.. फेसवॉश वेगळं.. दूध, हल्दी, चंदन आणि बादामने अंघोळ तर क्लिओपत्राने पण केली नसेल, पण आता गरिबातली गरीब मुलगी पण सहज करतेय..

आधी शिकेकाईने पण काम भागायचं, मग शॅम्पू आला.. मग समजलं की, शॅम्पू के बाद कंडिशनर लगाना भी जरुरी हैं..

भिंतीला प्लास्टर करणं स्वस्त आहे, पण चेहऱ्याचा मेकअप फार महागात पडतो.. पण तो केलाच पाहिजे.. नाहीतर कॉन्फिडन्स लूज होतो म्हणे.. “दाग अच्छे हैं” हे इथं का नाही लागू होत काय माहिती.?!

मी “गॅस, नो गॅस” करत सगळे डिओ वापरून बघितले.. पण “टेढ़ा हैं, पर मेरा हैं” म्हणत एक पण पोरगी कधी जवळ आली नाही.. खरंच.. सीधी बात, नो बकवास..

केस सिल्की हवेत, चेहरा तजेलदार हवा, त्वचा मुलायम हवी, रंग गोरा हवा, आणि परफ्यूमचा सुगंधी दरवळ हवा बस्स.. बाकी शिक्षण, संस्कार, बॉडी लँग्वेज, हुशारी हे गेलं चुलीत..!

मला तर वाटतं, काही दिवसांतच सगळीकडे संतूर गर्ल, कॉम्प्लॅन बॉय, रॉकस्टार मॉम, आणि फेअर अँड हॅन्डसम डॅड दिसतील..

साबुनसे पण किटाणू ट्रान्सफर होतें हैं म्हणे..!!

(हे म्हणजे, कीटकनाशकालाच् कीड़े लागण्यासारखं आहे!)

आता, तुमचा साबण पण स्लो असतो.. मग काय.. धुवत रहा, धुवत रहा, धुवत रहा..

टॉयलेट धुवायचा हार्पिक वेगळा, बाथरूमसाठीचा वेगळा..! मग त्यात खुशबुदार वाटावं म्हणून ओडोनिल बसवणं आलंच.. जसं काय मुक्कामच करायचाय तिथे..

हाताने कपडे धुणार असाल तर वॉशिंग पावडर वेगळी, मशीनने धुणार असाल तर वेगळी.. नाहीतर, तुम्हारी महँगी वॉशिंग मशीन भी बकेट से ज्यादा कुछ नहीं, वगैरे…

आणि हो, कॉलर स्वच्छ करण्यासाठी वॅनिश तर पाहिजेच, आणि कपडे चमकविण्यासाठी “आया नया उजाला, चार बुंदोवाला”.. विसरून कसं चालेल..?

“अगं पण दुधातलं कॅल्शियम त्याला मिळतं का?” हा प्रश्न तर एकदम चक्रावून टाकणारा आहे..

म्हणजे आदिमानवापासून जे जे फक्त दूध पीत आलेत ते सगळे वेडे.. आणि त्यात हॉर्लिक्स मिसळणारेच तेवढे हुशार !! ह्यांनाच फक्त दुधातलं कॅल्शियम मिळतं..

… आणि वर, मुन्ने का हॉर्लिक्स अलग, मुन्ने की मम्मी का अलग, और मुन्ने के पापा का अलग…

“इसको लगा डाला, तो लाईफ़ झिंगालाला” म्हणून मी टाटा स्काय लावलं खरं.. पण ते एचडी नाहीये.. म्हणून मग मी घरात टिव्ही बघत असलो, की लगेच दार लावून घेतो.. न जाणो, कुठूनतरी पाच-सात पोरं नाचत येतील आणि “अंकल का टिव्ही डब्बा, अंकल का टिव्ही डब्बा”.. म्हणून माझ्या ४००००च्या टिव्हीला चक्क डब्बा करतील.. याची धास्तीच वाटते..

“पहले इस्तेमाल करो, फिर विश्वास करो”च्या जमान्यात आपणच खरे इस्तेमाल होतोय..  काल घेतलेल्या वस्तू, ‘एक्स्पायर’ व्हायच्या अगोदरच् ‘आऊटडेटेड’ होताहेत.. 

माणसांचंही तसंच आहे म्हणा…. असो..

लेखक : – डॉ सचिन लांडगे

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 38 ⇒ || जुगाली ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जुगाली”।)  

? अभी अभी # 38 ⇒ || जुगाली ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

भोजन करने के बाद भी दिन भर चरते रहने को जुगाली करना कहते हैं। खाली पेट जुगाली नहीं होती। गाय, बैल और भैंस जैसे पालतू घास चरने वाले चौपाया जानवर पर्याप्त घास चरने के बाद दोपहर को सुस्ताते हुए जुगाली किया करते हैं। यह वह पाचन प्रक्रिया है, जिसमें पहले से चबाया हुआ चारा ही मुंह में रीसाइकल हुआ करता है, जिससे आनंद रस की निष्पत्ति होती है और जिसकी तुलना सिर्फ पंडित रविशंकर के सितार वादन और तबला वादक अल्ला रखा के तबला वादन की जुगलबंदी से ही की जा सकती है।

आदमी बंदर की औलाद तो है लेकिन वह नकल में अकल का इस्तेमाल नहीं करता। वह पहले तो पेट भर स्वादिष्ट भोजन कर लेता है, फिर उसके पश्चात् भी दिन भर कुछ न कुछ तो चरा ही करता है।

मानो उसका पेट, पेट नहीं, कोई चरागाह हो। वैसे समझदार लोग स्वादिष्ट और संतुष्ट भोजन के पश्चात् भी एक मीठे पत्ते पान का सेवन करना नहीं भूलते। यह वाकई उन्हें जुगलबंदी का अहसास करवाती है। भोजन के पश्चात् तांबूल सेवन जुगाली नहीं, जुगलबंदी ही तो है। ।

लेकिन ऐसे लोगों का क्या किया जाए जो खाली पेट ही सुबह से शाम तक पान, गुटखा और तंबाकू की जुगाली किया करते हैं। रस, रस तो सब आत्मसात कर लिया करते हैं और चारा चारा बाहर, यत्र यत्र सर्वत्र, थूक दिया करते हैं। बड़े भोले भंडारी होते हैं ये जुगाली पुरुष, अनजाने ही गरल को अमृत समझ पान किया करते हैं। कैसे नादान हैं, कैंसर को हवा दिया करते हैं।

जो इंसान लोहे के चने नहीं चबा सकता, वह एक चौपाए की नकल कर खाली पेट दिन रात च्यूइंग गम चबाया करता है। क्या करें ऐसे इंसानों का, जो दिन भर या तो जुगाली किया करते हैं, या बस किसी को बेमतलब गाली दिया करते हैं। जो व्यर्थ का कचरा, ना तो चबाया जा सकता है, और ना ही पचाया जा सकता है, वही विष तो इंसान के मुख से गाली बनकर बाहर आया करता है। जुगाली और गाली में शायद बस इतना ही अंतर है। ।

शायद इसीलिए मनुष्य, मनुष्य है, और पशु पशु। पशु केवल एक जानवर है, जब कि इंसान अक्लमंद, समझदार, बुद्धिमान! पशु संघर्षरत रहते हुए, प्रकृति के नियमों का पालन करता है जब कि इंसान अपने नियम खुद बनाता है, पशुओं को गुलाम बनाता है। वह तो इतना पशुवत है, कि इंसानों को भी गुलाम बनाने से नहीं चूकता।

एक चौपाये और हमारे पाचन तंत्र में जमीन आसमान का अंतर है। पशुओं के लिए कोई गाइडलाइन नहीं, कोई कोड ऑफ कंडक्ट नहीं, फिर भी वे अपने दायरे में रहते हैं। जो प्राणी शाकाहारी है, वह शाकाहारी है, और जो मासाहारी, वो मांसाहारी। जंगल में शेर है तो मंगल है। शहर में इंसान है तो दंगल है, हिंसा है डकैती है, अनाचार, व्यभिचार है।

आज संसार को हिंसक पशुओं से खतरा नहीं, इस इंसान से ही खतरा है। जंगल में सिर्फ लड़ाई होती है, जब कि इंसानों के बीच, विश्व युद्ध। ।

जितना पचाएं, उतना ही खाएं। एक पशु जो खाता है, उसी को जुगाली के जरिए पचाता है, जो इंसान भरपेट भोजन के बाद भी कुछ चरता रहता है, वह केवल अपने साथ अत्याचार करता है। यह कोई स्वस्थ जुगलबंदी नहीं, अक्लमंदी नहीं, फिर क्या है, जुगाली करें, खुद जान जाएं..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #182 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 182 ☆

☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द 

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 37 ⇒ हनुमान और अनुमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हनुमान और अनुमान “।)  

? अभी अभी # 37 ⇒ हनुमान और अनुमान ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हम जिसे मानते हैं, उसके बारे में अनुमान नहीं लगाते ! मर्यादा राम अयोध्या में पैदा हुए, यह हमारी मान्यता नहीं, केवल विश्वास नहीं, एक शाश्वत, सनातन सत्य है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। रामजी के हृदय में हनुमान जी का वास है, यह स्वयंसिद्ध है, इसलिए उनके जन्म-स्थान के प्रति हम बिल्कुल चिंतित नहीं है। जब कोई बाबर पैदा होगा, तब देखा जाएगा।

हनुमान चालीसा से यह सिद्ध हो गया है कि वे एक जनेऊधारी  थे, जिनने बचपन में सूर्य का, बिना किसी मुआवजे के, अधिग्रहण कर लिया था। हनुमान वानर नहीं, वानर-श्रेश्ठ थे, वे अंजनिसुत पवनपुत्र थे, और ज्ञान-गुण-सागर थे, कोई शक ?

किसी के हृदय में वास करना इतना आसान भी नहीं ! अपनी शक्ति के अहंकार की जब माइक्रो-चिप बनती है, इंसान लघु से लघुतम होता चला जाता है, तब जाकर कोई विशाल-हृदय उसे स्वीकार कर पाता है। प्रभु श्रीराम के हृदय में स्थान पाने के लिए, न केवल हीरे-मोती-रत्न-जड़ित माला को तोड़कर फेंकना पड़ता है, दंभयुक्त  56 इंच सीने को फुलाना नहीं, गलाना पड़ता है, चीरकर दिखाना भी पड़ता है। प्रभु श्रीराम का जन्म कहीं भी हुआ हो, उनके हृदय को ही अपनी जन्म-स्थली मानने वाला, कोई विरला भक्त हनुमान ही हो सकता है।

जाति ना पूछिए साधु की ! संकट मोचक बजरंग बली न केवल वानर-श्रेष्ठ हैं, वे सभी संतों के आदर्श सर्वश्रेष्ठ रामकथा के श्रोता भी हैं। जहाँ भी रामकथा होती है, वे सदा वहाँ मौजूद रहते हैं। क्या आपको किसी चुनावी सभा में कभी हनुमान जी के दर्शन हुए। ।

मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है ! अपने स्वार्थ की खातिर वह कभी एक साधारण इंसान को भगवान का दर्जा दे देता है, तो कभी भगवान को राजनीति में घसीट लाता है। भगवान के नाम पर भीख माँगने और वोट माँगने में कोई खास अंतर नहीं। जिनका आपको आशीर्वाद लेना है, जो जन जन के आराध्य हैं, उन्हें किसी विशेष जाति का मसीहा सिद्ध करना, दिमाग का दिवालियापन नहीं तो और क्या है।

‌प्रभु श्रीराम और रामभक्त हनुमान का आपस में वही संबंध है जो नंदी और त्रिपुरारी शंकर का है। राम, लक्ष्मण जानकी का जब नाम लिया जाता है, तो हनुमान जी की भी जय बोली जाती है। राम दरबार में जो भी सेंध मारने की कोशिश करेगा, उसका हनुमान क्या हश्र करेंगे, अनुमान लगाना मुश्किल  नहीं। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “चरित्रकार वीणा…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “चरित्रकार वीणा…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

काही व्यक्तींची ओळख त्यांनी केलेल्या कार्यावरुन होते.बरेचदा त्या व्यक्ती आणि त्यांनी केलेले कार्य हे जणू समीकरणच बनतं.असच एक समीकरण म्हणजे वीणा गवाणकर आणि “एक होता कार्व्हर”.

हे जग खूप म़ोठ आहे. ह्या जगाच्या कानाकोपऱ्यात सुध्दा कर्तृत्ववान,हुशार मंडळी वास करीत असतात. त्यांच्या कर्तृत्वाची महती संपूर्ण जगासमोर आणण्याचे काम काही व्यक्ती आपल्या लिखाणातून करीत असतात. कोणाचेही सद्गुण हेरून ते मनोमन कबूल करून ,जाहीररीत्या सगळ्या लोकांपर्यंत पोहोचविण्याचा प्रयत्न करणे हे तसे कठीण काम. कारण मानवी वृत्तीने आधी दुसऱ्या चे सद्गुण हेरून त्याची महती मान्य करणं हे खरंच एक अफलातून कामं.पण अशाही काही व्यक्ती असतात त्या हा घेतलेला वसा लोकांपर्यंत पोहोचविण्याचे काम आपल्या चरित्रासम लिखाणातून पार पाडीत असतात ,ते ही निःस्पृह भावनेने.

अशाच काही लेखनकार्यात भरीव कामगिरी करून ते आपल्या लेखनाद्वारे लोकांपर्यंत सातत्याने पोह़चविणा-या लेखकांपैकी प्रामुख्याने वीणा गवाणकर ह्यांचे नाव चटकन नजरेसमोर येतं. वीणा गवाणकर ह्यांनी लिहीलेली खूप सारी चरित्रे प्रसिद्ध आहेत . पण कसं असतं नं आपली एखादी कलाकृतीच खूप स्पेशल ठरुन जणू तीच आपली ओळख बनून जाते.वीणा गवाणकर म्हंटलं की चटकन आठवतं “एक होता कार्व्हर”.

त्यांचा जन्म 6 मे 1943 चा. स्वतः ग्रंथपाल, उत्तम चरित्रकार असलेल्या वीणाताईंनी लिहीलेली अनेक नावाजलेल्या व्यक्तींची चरित्र लोकप्रिय आहेत.”एक होता कार्व्हर”ह्या अफाट गाजलेल्या चरित्राने त्यांना घराघरांत पोहोचविले.ह्या पुस्तकाची मोहिनीच तशी विलक्षण आहे.

“एक होता कार्व्हर”,”आयुष्याचा सांगाती”,  “डॉ. आयडा स्कडर”,सर्पतज्ञ डॉ रिमांड डिटमार्स,शाश्वती भगिरथाचे वारस,डॉ खानखोजे,नाही चिरा नाही पणती,डॉ सलीम अली,लीझ माईटनर,राँबी डिसील्व्हा,रोझलिंड फ्रँक्वीन,इ.अनेक उत्तमोत्तम चरित्रपर लेखन प्रसिद्ध आहे.

ह्यांचा जन्म लोणी काळभोरचा व पुढील शिक्षण चौल,मनमाड, इंदापूर येथील मराठी शाळेतून झाले. थोडक्यात काय तर माणसाला सुसंस्कृत, उच्चशिक्षित व्हायचं असेल तर लहान गावातून,मराठी शाळांतूनही होता येत हे ह्यांनी सिद्ध केलयं.पुढे फर्ग्युसन महाविद्यालयातून पदवी, पुणे विद्यापीठातून ग्रंथपाल ही पदवी घेतली.1964 पासून औरंगाबादच्या महाविद्यालयात ग्रंथपाल म्हणून कार्याची सुरवात केली.

…वाचनाची आवड, शिक्षकांचे प्रोत्साहन ह्याने अनेक उत्तमोत्तम साहित्य त्यांच्या वाचनात आले, फूटपाथवर अर्ध्या किमतीत मिळणाऱ्या पुतकामध्ये त्यांना कार्व्हर चे पुस्तक हाती लागले.त्यांनी ते झपाटल्यागत वाचून त्यांचे हे चरित्र खास मराठी लोकांसाठी “एक होता कार्व्हर” ह्या पुस्तकाच्या रुपात आणले आणि ह्या पुस्तकाने एक इतिहासाच घडविला.

जन्माने गुलाम असलेल्या अनाथ, कृष्णवर्णीय,अमेरिकन कृषीशास्त्राच्या धडपडीची, मानवी जीवनाचे मोल वाढविणा-या प्रयत्नांनी वेध घेणारी,चरित्र कहाणी”एक होता कार्व्हर”,मानवी जीवनाची सेवा करण्यासाठी, भारतातील ग्रामीण आरोग्याच्या स्तर उंचावण्यासाठी आपले ज्ञान वापरणा-या कर्तव्यनिष्ठ अमेरिकन महिला डॉक्टर ची जीवनकथा “डॉ आयडा स्कडर”,सर्पतज्ञ डॉ रेमंड डिटमार्स ह्यांची साप पाळण्याच्या छंदातून जागतिक किर्तीचे सर्पतज्ञ होण्यापर्यंत चा प्रवास, डॉ सलीम अली ह्या आंतरराष्ट्रीय किर्तीच्या पक्षीतज्ञाच्या जीवनकार्याचा वेध, महान क्रांतिकारक ते श्रेष्ठ कृषीतज्ञ हा प्रवास, आँस्ट्रीयन अणूशास्त्रज्ञ स्त्री “लीझ मायटनर”, भडीरथाचे वारस विलास साळुंखे हा पाणी ही राष्ट्रीय संपत्ती आहे हे ठणकावून सांगणारा अभियंता, इ.वीणाताईंनी ह्यांची चरित्रे आपल्या प्रभावी लेखणीद्वारे लोकांसमोर आणलीयं. त्यांनी जवळपास 30 चरित्रंलेखन दिवाळी अंकामध्ये प्रसिद्ध केलयं. तरी  “एक होता कार्व्हर” हे पुस्तक म्हणजे जणू त्यांची ओळखच बनली.

नुकत्याच  झालेल्या त्यांच्या वाढदिवसाच्या निमित्ताने खूप सा-या शुभेच्छा देऊन आजच्या पोस्टची सांगता करते.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 36 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी सूरत तेरी आँखें”।)  

? अभी अभी # 36 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अज़ीब अंधेरगर्दी है ! हमें अपनी आँखों से ही अपनी सूरत दिखाई नहीं देती। हमें या तो दूसरों की आँखों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर किसी आईने का !

‌आईने के सामने घण्टों सजने-संवरने के बाद जब सजनी अपने साजन से पूछती है, मैं कैसी लग रही हूँ? तो, किसी किताब में गड़ी आँखों को बिना उठाए, वह जवाब दे देते हैं, ठीक है ! और वह पाँव पटकती हुई किचन में चली जाती है। थोड़ी ही देर में चाय का प्याला लेकर वापस आती है। मिस्टर साजन चाय की पहली चुस्की लेते हुए जवाब देते हैं, हाँ, अब ठीक लग रही हो।।

‌जिन आँखों से आप पूरी दुनिया देख चुके हो, उन आँखों से अपनी ही सूरत नहीं देख पाना तो उस कस्तूरी मृग जैसा ही हुआ, जो उस कस्तूरी की गंध की तलाश में है, जो उसकी देह में ही व्याप्त है। अगर आईना नहीं होता, तो कौन यक़ीन करता कि, मैं सुंदर हूँ।

‌इंसान से कई गुना सुंदर पशु-पक्षी इस प्रकृति पर मौजूद है, जिनके बदन पर कोई अलंकारिक वस्त्र-आभूषण मौजूद नहीं, लेकिन इसका उन्हें कोई भान-गुमान नहीं। उनके पास प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुंदरता को निहारने का कोई आईना ही नहीं ! जब किसी सुंदर पक्षी के सामने आईना रख दिया जाता है, तो वह उसे कोई अन्य पक्षी समझ आईने पर चोंच मारता है। उसे अपनी ‌सुंदरता का कोई बोध ही नहीं। जब कि उसने कई बार अपनी परछाई पानी में अवश्य देखी होगी।।

‌अगर आईना नहीं होता, तो क्या सुंदरता नहीं होती ! आईना सुंदर नहीं ! आईने का अपना कोई अक्स नहीं। क्या आपने ऐसा कोई आइना देखा है, जिसमें कुछ भी नज़र नहीं आता? जब भी आप ऐसा आईना देखने जाएँगे, अपने आप को उसमें पहले से ही मौजूद पाएँगे।

‌केवल शायर ही नहीं, ऐसे कई इंसान हैं जो किसी की आँखों में खो जाते हैं, उन आँखों पर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। तेरी आँखों के सिवा, दुनिया में रखा क्या है। तीर आँखों के, जिगर से पार कर दो यार तुम। क्या करें ! तेरे नैना हैं जादू भरे।

‌यही हाल किसी मासूम सी सूरत का है ! हर सूरत कितनी मशहूर है। तेरी सूरत से नहीं मिलती, किसी की सूरत ! हम जहां में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं। सूरत तो सूरत, तस्वीर तक को सीने से लगाकर रखने वाले कई आशिक मौजूद हैं, इस दुनिया में।।

‌अगर इस खूबसूरत से चेहरे पर आँखें ही न होती तो क्या होता ! आँखें ही रौशनी हैं, आँखें ही नूर हैं। आँखों में परख है, इसीलिए तो हीरा कोहिनूर है। सूरत और आँखों को आप एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते।

‌ऐसा नहीं ! चेहरे बदसूरत भी होते हैं, आँखें कातिल ही नहीं डरावनी भी होती हैं। क्यों कोई हमें फूटी आँखों नहीं सुहाता, क्यों हम किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहते? अरे! कोई कारण होगा।

‌हमारी इन दो खूबसूरत आँखों के पीछे भी आँखें हैं, जो हमें इन आँखों से दिखाई नहीं देती, वे मन की आँखें हैं। ‌वे मन की आँखें सूरत को नहीं सीरत को पहचानती हैं। ‌मन की आँखों ही की तरह हर सूरत में एक सीरत छुपी रहती है। वही अच्छाई है, आप चाहें तो उसे ईश्वरीय गुण कहें या ख़ुदा का नूर।।

‌संसार ऐसी कई विभूतियों से भरा पड़ा है, जो जन्म से ही दृष्टि-विहीन थे। भक्त सूरदास से लगाकर रवींद्र जैन तक कई जाने-अनजाने नेत्रहीनों का सहारा रही हैं, ये मन की आँखें ! इस दिव्य-दृष्टि के स्वामी को कोई अक्ल का अंधा ही अंधा कहेगा।

‌यारों, सूरत हमारी पे मत जाओ ! मन की आँखों से हमें परखो। हम दिल के इतने बुरे भी नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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