हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #275 ☆ शब्द-शब्द साधना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्द-शब्द साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 275 ☆

☆ शब्द-शब्द साधना… ☆

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है/ शब्द शब्द में सार। शब्द सदा ऐसे कहो/ जिन से उपजे प्यार।’ वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है जीवन का संदेश…इसलिए सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेम भाव प्रकट हो। कबीरदास जी का यह दोहा ‘ऐसी बानी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ ख़ुद भी शीतल होय’ …उपरोक्त भाव की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं; जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि ‘शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म। शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम’ शब्द में निहित हैं ख़ुशी व ग़म के भाव– परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है।

वास्तव में शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहाँ वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं; वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है और शब्द ही मरहम है। शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर कारग़र दवा का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस मन:स्थिति में किन शब्दों का प्रयोग किस अंदाज़ से करते हैं।

‘हीरा परखै जौहरी/ शब्द ही परखै साध। कबीर परखै साध को/ ताको मतो अगाध’ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत्य वचनों अर्थात् सत्संग को ही महत्व प्रदान करता है और आनंद प्राप्त करता है। वह उनके संदेशों को जीवन में धारण कर सुख व संतोष प्राप्त करता है; स्वयं को भाग्यशाली समझता है। परंतु कबीरदास जी उस साधु को परखते हैं कि उसके भावों व विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है; उसकी सोच कैसी है और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है; वह उचित है या नहीं? वास्तव में संत वह है; जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और उसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते; उसे सत्मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते–वही श्रद्धेय है, पूजनीय है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व सपाट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, तो अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाएं अर्थात् कुत्सित भावनाओं व विचारों को अपने मनोमस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें, क्योंकि ये दोनों मानव के अजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को तो हानि पहुंचाता ही है; वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में न जाने क्या-क्या कह जाता है; जिसके लिए उसे बाद में प्रायश्चित करना पड़ता है। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के ज़ख्म कभी नहीं भरते; वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहाँ मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं; वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपका दु:खी व आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और वह स्वयं को अकेला व असहाय अनुभव नहीं करता। उसे ऐसा लगता है कि आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति के लिए अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना करना भी अनिवार्य है… सोच- समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी ग़लती का एहसास दिलाना है, तो उससे एकांत में बात करो, क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है। अक्सर उस स्थिति में दोनों के अहं का टकराव होता है। अहं से संघर्ष का जन्म होता है और उस स्थिति में वह दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हो जाता है। गुस्सा चाण्डाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं। परशुराम का क्रोध में अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का अहिल्या का श्राप देना आदि हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना अर्थात् तोलना चाहिए। उस विषम परिस्थिति में कटु व अनर्गल शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए; जिसे सहन करने की क्षमता आप में है। सो! आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना व दुष्भावनाएं मत रखिए, बल्कि बोलने से पहले उसके औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर उसके प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों-सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं और उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता। बिना सोच-विचार के किए गए कर्म केवल आपको ही हानि नहीं पहुंचाते; परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि ग़लत हों, तो गुमराह कर देते हैं; यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त उक्ति हमें आग़ाह करती है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरु होता है; जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको ग़लत मार्ग व ग़लत दिशा की ओर जाने पर सचेत करता है तथा आपकी उन्नति को देख कर प्रसन्न होता है; आप को उत्साहित करता है। पुस्तकें मानव की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छे मित्र के साथ न होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है।

हाँ! सबसे बड़ी है मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे के भावों से परिलक्षित होता है और व्यवहार उसके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, सहानुभूति आदि  को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना को दूर से सलाम कीजिए, क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु यदि वह उन असामान्य परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोता; दु:खी नहीं होता, बल्कि उससे सीख लेता है तो वह अपनी मंज़िल को प्राप्त कर अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि ‘सुख- दु:ख तो अतिथि हैं’…’जो आया है, अवश्य जाएगा’ को अपना मूल-मंत्र स्वीकार संतोष से अपना जीवन बसर करता है। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए, ताकि दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपके सत्मार्ग पर चलने में बाधा उपस्थित न करें अर्थात् आपको ग़लत राह का अनुसरण न करने दें। वास्तव में पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देते हैं और उससे उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव अमानुष। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है। इसलिए ऐसा स्थान यश व लक्ष्मी को रास नहीं आता और वे वहां से रुख़्सत हो जाते हैं।

सो! जहां सत्य है; वहां धर्म है, यश है और वहीं लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है; सौहार्द व सद्भाव है; मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है और वहां कलह, अशांति, ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवेश पाने का साहस नहीं जुटा सकते। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है; उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय बनें, क्योंकि हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 676 ⇒ आप मुझे अच्छे लगने लगे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आप मुझे अच्छे लगने लगे।)

?अभी अभी # 676 ⇒ आप मुझे अच्छे लगने लगे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब हम अच्छे होते हैं, हमें अपने आसपास सब कुछ अच्छा अच्छा ही लगता है। हम सब, स्वभावतः होते तो अच्छे ही हैं, लेकिन कभी कभी हमें सब कुछ अच्छा नजर नहीं आता। हमारे मन की अवस्था के अनुसार हमारा स्वभाव बनता, बिगड़ता रहता है।

समय और परिस्थिति भी तो कहां हमेशा एक समान होती है।

जब मन चंगा होता है, तो गंगा नहाने का मन करता है। एकाएक सब कुछ अच्छा नजर आने लगता है। शायद फील गुड फैक्टर को ही अच्छा लगना कहते होंगे। मन की ऐसी उन्मुक्त अवस्था में, कोई व्यक्ति विशेष हमें अधिक पसंद आने लगता है, और हम अनायास ही कह उठते हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। ।

कभी कभी आत्ममुग्ध अवस्था में हम भी अपने प्रियजनों से प्रश्न कर लिया करते हैं, मैं कैसा/कैसी लग रहा/लग रही हूं। मां बेटे से, बेटी मां से, पत्नी पति से, और एक सहेली दूसरी सहेली से, अक्सर यही तो प्रश्न करती रहती है। अगर वह अच्छा दिखेगा तो किसी को अच्छा लगेगा भी। तारीफ करना और सुनना किसे पसंद नहीं।

अगर आप किसी को अच्छे लग रहे हैं, तो अवश्य आपमें कुछ विशेष आकर्षण होगा। हमें भी यूं ही तो कोई नहीं भा जाता। अगर हम निश्छल और अलौकिक प्रेम की बात करें, तो अच्छा लगना एक ईश्वरीय अनुभूति है। मोहिनी मूरत, सांवली सूरत किसे पसंद नहीं। जहां सलोनापन, सादगी और भोलापन है, वहां शब्दाडंबर नहीं होता, अतिशयोक्ति नहीं होती, कोई अलंकार, रूपक, उपमा नहीं, बस मन से यही उद्गार प्रकट होते हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। ।

ऐसी अनुभूति के क्षण हम सबके जीवन में आते रहते हैं। अगर हमारे चित्त परस्पर शुद्ध हों, तो शायद यह अनुभूति और अधिक व्यापक रूप से हम सभी के हृदय में जगह बना ले।

आज का हमारा जीवन इतना जटिल हो चुका है कि अच्छे और बुरे का तो भेद ही समाप्त हो गया है।

क्या अच्छे दिन, अच्छे लोगों के साथ ही समाप्त हो गए हैं।

अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है, पड़ोस की एक दो वर्ष की कन्या मुझे तलाशती हुई कमरे में प्रवेश करती है। मुझे मानो मेरे प्रश्न का समाधान मिल गया हो। वह बोलती नहीं, लेकिन इशारों इशारों में सब कुछ कह जाती है।

उस बच्ची की आँखें मुझे देख मानो कह रही हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। और मेरा भी उसको यही जवाब है, आप भी मुझे अच्छे लगने लगे। मैं यह भली भांति जानता हूं, मुझसे अच्छे इस दुनिया में कई लोग होंगे, लेकिन उस प्यारी दो वर्ष की कन्या जैसा अच्छा कोई हो ही नहीं सकता।

तुमसे अच्छा कौन है ?

आप मुझे अच्छे लगने लगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 349 ☆ आलेख – “सेना और सरकार ही नहीं, नागरिक सहयोग से ही संभव है आतंक का मुकाबला…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 349 ☆

?  आलेख – सेना और सरकार ही नहीं, नागरिक सहयोग से ही संभव है आतंक का मुकाबला…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

भारत ने हाल ही में पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर ऑपरेशन सिंदूर के तहत सटीक मिसाइल हमलों से पकिस्तान के कश्मीर में किए आतंक का सटीक बदला लिया। यह कार्रवाई न केवल भारतीय सेना की सैन्य कुशलता का प्रतीक है, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ देश की स्पष्ट नीति को भी दर्शाती है। प्रगट रूप से यह ऑपरेशन एक सैन्य कार्यवाही है। किंतु आतंक के विरुद्ध इस तरह के आपरेशन सफल तभी होते हैं जब सेना, सरकार और नागरिकों के बीच समन्वय का एक सशक्त ढाँचा मौजूद हो। आतंकवाद से लड़ाई केवल बंदूकों और मिसाइलों से नहीं, बल्कि जनता की सजगता, सहयोग और राष्ट्रभक्ति से भी जीती जाती है।

 सीमाओं का कवच

भारतीय सेना है। जिसने ऑपरेशन सिंदूर जैसे अभियानों के माध्यम से यह साबित किया है कि वह भारत पर किसी आक्रमण या आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है। सेना की यह ताकत केवल हथियारों की ताकत नहीं, बल्कि उच्चस्तरीय रणनीति, खुफिया जानकारी और साहस का परिणाम है। सेना के जवान सीमाओं पर दिन-रात तैनात रहकर देश की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसे ऑपरेशन इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने आतंकवाद के प्रति भारत की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति को रेखांकित किया। ऑपरेशन सिंदूर देश की उसी नीति का हिस्सा है। नीति निर्माण से लेकर वैश्विक कूटनीति और सेना को छूट देना

सरकार का दायित्व है। सेना को राजनीतिक और तकनीकी समर्थन जनता की ताकत और एकजुटता ही प्रदान करती है। ऑपरेशन सिंदूर जैसे मिशन के पीछे सरकार की मंशा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिशें और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक गठजोड़ बनाने की रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

नागरिक सहयोग सुरक्षा का तीसरा स्तंभ है।

यदि सेना और सरकार देश की रीढ़ हैं, तो नागरिक उसकी आत्मा। आतंकवाद से लड़ाई में नागरिकों की भूमिका कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है। सूचना और खुफिया सहयोग स्थानीय निवासी ही दे सकते हैं। सूक्ष्म निरीक्षण तथा सतर्क रहने से आतंकियों की गतिविधियों के बारे में नागरिकों को जमीनी जानकारी हो सकती है। उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर में कई बार ग्रामीणों ने सुरक्षा बलों को आतंकवादियों के ठिकानों की जानकारी देकर बड़ी घटनाओं को रोका है। ‘आवाम की आवाज’ जैसे अभियान इसी सहयोग को बढ़ावा देते हैं।

सामाजिक जागरूकता और एकता आतंकवाद की सबसे बड़ी हार है। 2008 के मुंबई हमले के बाद देशभर में एकजुटता का जो स्वर उभरा, उसने आतंकवादियों के मनोबल को तोडा। नागरिकों का यही साहस आतंकवाद को विफल बनाता है।

बदलते परिवेश में तकनीकी और डिजिटल सतर्कता, सोशल मीडिया पर सतर्कता बरतने की जरूरत है। आतंकी समूहों का प्रचार-प्रसार रोकने में नागरिकों की भूमिका अहम है। झूठी खबरों को रिपोर्ट करना, युवाओं को कट्टरपंथी विचारों से बचाने के लिए जागरूकता फैलाना, और साइबर स्पेस में सक्रिय रहना—ये सभी आधुनिक समय की आवश्यकताएँ हैं।

केरल जैसे राज्यों में मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी किया। ऐसी पहलें समाज के अंदर से ही आतंकवाद की विचारधारा को चुनौती देती हैं।

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आतंकवाद से लड़ना सबके सम्मिलित प्रयासों से ही संभव है। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद, उनके आंतरिक असंतोष का प्रभाव है। सीमा पार से होने वाली घुसपैठ जैसी समस्याएँ जटिल हैं। इनका समाधान तभी संभव है जब नागरिक सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिलकर काम करें। उदाहरण के लिए, ‘मेरी चौकी, मेरी सुरक्षा’ जैसे कार्यक्रमों के तहत सीमावर्ती गाँवों के लोगों सदा सजग रहने को प्रशिक्षित किया जा सकता है।

ऑपरेशन सिंदूर की सफलता इस बात का प्रमाण है कि भारत आतंकवाद के प्रति नरम नहीं रहेगा। लेकिन दीर्घकालिक जीत के लिए सेना, सरकार और नागरिकों को एक टीम की तरह लगातार काम करना होगा। जब कोई बच्चा स्कूल में देशभक्ति की कविता सुनाता है, कोई युवा सोशल मीडिया पर सच्चाई फैलाता है, या कोई ग्रामीण संदिग्ध गतिविधि की रिपोर्ट करता है—तभी आतंकवाद की जड़ें कमजोर होती हैं। आतंक का बदला केवल मिसाइलों से नहीं, बल्कि हर नागरिक के संकल्प से लिया जा सकता है। सभी धर्मों के नागरिकों की यही समग्रता भारत की सच्ची ताकत भी है। सेना और सरकार ही नहीं, आतंक का मुकाबला नागरिक सहयोग से ही संभव है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 243 ☆ संकल्प का प्रकल्प… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना संकल्प का प्रकल्प। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 243 ☆ संकल्प का प्रकल्प

कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता किंतु  अंकुरित होकर, पौध बनकर पुनः नवसृजन का चक्र चलाते हुए अनगिनत चने उत्पन्न कर सकता है। जहाँ एकता में बल होता है वहीं एक व्यक्ति भी संकल्प शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकता है। अतः किसी भी हाल में निराश होने की आवश्यकता नहीं होती है। आपको पूरी हिम्मत के साथ लक्ष्य के प्रति सजग होना चाहिए तभी मंजिल आ कदम चूमेंगी और लोग आपके साथ होंगे।

आइए संकल्प लें-

गौरैया की देखभाल करेंगे

दाना पानी रख दिया, चहक- चहक कर बोल ।

आँगन गौरैया दिखी, मुस्काती मुँह खोल ।।

*

आहट पाते ही उड़े, गौरैया घर दूर।

फिर चुपके से आ चुगे, दाने सब भरपूर ।।

*

बना घोसला पेड़ पर, हरी भरी सी छाँव।

कलरव से जग गूँजता, चलो चलें हम गाँव ।।

*

खुशियों से जीवन भरा, रहे हमेशा आस ।

इनकी सेवा से बढ़े, जीवन में विश्वास ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 675 ⇒ मस्तक ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्तक।)

?अभी अभी # 674 ⇒ मस्तक ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सिर से पांव तक, अगर पूछा जाए, कि हमारे शरीर में, सबसे ऊंचा स्थान कौन सा है, तो शायद मस्तक ही कहलाएगा। मस्तक ऊंचा ही अच्छा लगता है, मस्तक झुका और इंसान झुका। मस्तक गर्व, गौरव, अभिमान और स्वाभिमान का सूचक है।

एक और प्यारा सा शब्द है, मुखमंडल, कुछ कुछ सुनने में कमंडल सा प्रतीत होता है। मुख कहां से शुरू होता है और कहां खत्म, किस मुंह से कहा जाए। मुख मस्तक, ओंठ, नासिका, शुभ्र दंत पंक्ति और गोरे गोरे गाल, तिस पर दो नैना मतवाले, हम पर जुलम करे। इसी चेहरे पर कहां भाल, ललाट, भौंह और भ्रू मध्य ! किसे माथा कहें, कहां निकालें मांग, कहीं टीका, तिलक, तो कहीं माथेरी बिंदी। बस यही सब तो है हमारे व्यक्तित्व का आभामंडल।।

मुंह, मुख, मुखड़ा, सूरत, और चेहरे के दायरे से क्या अलग है हमारा मस्तक !

जिसे हम मन मस्तिष्क कहते हैं, वह भी तो यहीं कहीं स्थित है। कुछ सोचने अथवा चिंतन की अवस्था में अनायास ही हमारा हाथ हमारे माथे पर चला जाता है। ज्ञान और विवेक का भंडार यह मस्तक, क्या भरोसा किसके आगे झुक जाए।

क्या मत्था, मस्तक से अलग है। कितना सुकून मिलता है, किसी पवित्र स्थान पर मत्था टेकने पर।

किसी के मस्तक अथवा सर पर हाथ रखने का क्या महत्व होता है, महिलाएं बिंदी, और पुरुष टीका, मस्तक के बीचों बीच क्यूं लगाते हैं, ऐसे प्रश्न कभी नहीं पूछे जाते, क्योंकि शायद सभी इसका महत्व जानते हैं, अथवा, बिना जाने ही मान बैठते हैं।।

हमारे मस्तक के ऊपर पहले हमारा ही सर अथवा खोपड़ी है, जिसके ऊपर भले ही सुंदर केश अथवा रेशमी जुल्फें हों, लेकिन अंदर भेजे में, न जाने क्या क्या भरा रहता है। ऊपर भले ही आकाश हो, चिदाकाश भी यहीं कहीं अवस्थित रहता है। क्या हमारा मन, मस्तिष्क अथवा बुद्धि ही हम पर शासन भी करती है, हमें नियंत्रित कर हम पर हुक्म चलाती है।

यह आज्ञा चक्र का क्या चक्कर है, कुछ समझ में नहीं आता।

कभी हम मस्त रहते हैं तो कभी तनावयुक्त ! मस्तक ऊंचा अगर आत्म विश्वास, विजय और गर्व का प्रतीक है तो झुका सर निराशा, पराजय और अवसाद की निशानी। हम अगर खड़े रहें तो पर्वतराज की तरह, किसी ठूंठ की तरह नहीं, और अगर झुकें तो किसी फलदार वृक्ष की भांति, किसी कमजोर अल्पमत वाली सरकार की तरह नहीं। हर व्यक्ति का मस्तकाभिषेक ज्ञान, बुद्धि, विवेक और वैराग्य से हो, स्वाभिमान हो तो सबके लिए मान सम्मान भी हो। अस्त व्यस्त से मस्त तक, सदा चमकता रहे हमारा मस्तक। हम नतमस्तक ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 674 ⇒ अंतर्ज्ञान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंतर्ज्ञान।)

?अभी अभी # 674 ⇒ अंतर्ज्ञान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

= INTUITION =

जानने की प्रक्रिया को ज्ञान कहते हैं। इसके लिए ईश्वर ने हमें एक नहीं पांच पांच ज्ञानेंद्रियां प्रदान की हैं। पांच ही कर्मेंद्रियों से मिल जुलकर इस मनुष्य का यह विलक्षण व्यक्तित्व बना है।

चेतन शक्ति, आप जिसे चाहें तो प्राण भी कह सकते हैं, हमारे पंच तत्वों से निर्मित शरीर में सततप्रवाहित होती रहती है।

हमारा उठना, बैठना, सोना, जागना, ऊंघना, हंसना, रोना, देखना, सुनना, बोलना, चखना, छूना जैसी सभी नियमित क्रियाएं मन मस्तिष्क द्वारा संचालित होती है। हमें लगता है, हम ही सब कुछ कर रहे हैं। जब कि सब कुछ अपने आप ही ही रहा है।

अगर आप ही कर्ता हैं, सब कुछ कर रहे हैं, तो रोक दीजिए सब कुछ। आँखें खुली रखिए और कुछ मत देखिए, मत सुनिए कुछ भी इन दोनों कानों से, सांस तो आप ही ले रहे हैं न। मत लिजिए एक दो दिन सांस, क्या बिगड़ जाएगा।

भूख प्यास का क्या है, रह लेंगे कुछ दिन भूखे प्यासे।

आते जाते विचारों पर भी पहरा बिठा दीजिए। अगर विचार अतिक्रमण करते हैं, तो उन पर बुलडोजर चला दीजिए।।

मन, बुद्धि और अहंकार भी आपका नहीं है। इसलिए अब मान भी जाइए, आपका अपना कुछ भी नहीं है। आपको इस पावन धरा पर उतारा गया है और आप अपने आप में एक सर्वगुण संपन्न, एक मानव हैं। A perfect human being creation of God, The Almighty!

मनुष्य जब पैदा होता है तो एक अबोध बालक होता है। शारीरिक विकास के साथ साथ ही उसका मानसिक विकास भी होता चला जाता है। सीखने की प्रवृत्ति उसकी जन्मजात ही होती है। परिवार और परिवेश के अलावा स्कूल वह स्थान होता है, जहां से वह सीखता है, ज्ञान अर्जित करता है। अनुशासित ज्ञान को अध्ययन कहते हैं। ज्ञान के स्तर को डिग्री में विभाजित किया गया है।

आप पढ़ते रहें, डिग्रियां हासिल करते रहें।

अध्ययन के लिए हमें ट्यूशन भी लेनी पड़ती है जो आज की भाषा में कोचिंग कहलाती है। सीखना एक सतत प्रक्रिया है जो अनुशासित डिग्रियां हासिल करने के पश्चात भी कभी खत्म नहीं होती। बाहरी ज्ञान की कोई सीमा नहीं। नौकरी धंधे और कामकाज में लग जाने के बाद कौन इंसान बाल भारती भाग १ और फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी पढ़ता है। अब काहे की पढ़ाई, काहे की ट्यूशन और काहे की परीक्षा। अब तो गाड़ी चल निकली।।

ट्यूशन अगर बाहरी ज्ञान है, तो इन्ट्यूशन अंतर्ज्ञान ! एक ज्ञान का भंडार हमारे अंदर भी है जिसका बाहरी ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता। हम सोचते, समझते ही नहीं, चिंतन मनन भी करते हैं। हमारी कुछ आंतरिक प्रतिभाएं समय और परिस्थिति के साथ उभरकर बाहर आती हैं।

साहित्य, संगीत और अन्य ललित कलाओं को बस एक बार अवसर मिला और टूटे बांध की तरह वह प्रवाहित होने लगती है।

धुन, ध्यान और अंतर्ज्ञान को आप अलग नहीं कर सकते। बाहरी प्रकृति और हमारे अंदर की सृजन की प्रवृत्ति का जब मेल होता है तो एक महाकाव्य की रचना होती है। संगीत की कोई धुन किसी किताब अथवा साज से नहीं निकाली जाती, वह धुन अंदर से प्रकट होती है बाहर तो सिर्फ उसका स्वरूप ही दिखाई देता है।

टैगोर की गीतांजलि किसी शब्दकोश अथवा थिसारस या इनसाइक्लोपीडिया की उपज नहीं, यह कवि का अंतर्ज्ञान है जो सरिता की तरह सतत प्रवाहित होता रहता है।।

विश्व के अधिकांश वैज्ञानिक प्रयोग, खोज हों या अविष्कार, धुन, ध्यान और अंतर्ज्ञान का ही परिणाम हैं। कितनी विचित्र विधा है यह अंतर्ज्ञान ! ज्ञान पहले अंदर गया और बाद में कोई सिद्धांत बनकर बाहर निकला। एक चेतन मन तो है ही, एक अवचेतन मन भी है, जिसकी स्मृति के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। चेतना के ऊपर पराचेतना का भी अस्तित्व है। अंतर्दृष्टि और अंतर्ज्ञान असीमित है।

एक गीत है, एक आवाज है, एक धुन है। हमें सिर्फ सुनाई देती है लेकिन उसका प्रभाव देखिए, आंख खोलकर नहीं, आंख बंद कर कर, कान खोलकर ;

मेरी आंखों में बस गया कोई रे, मैं क्या करूं …

क्या यह अतिक्रमण नहीं। रोक सकें तो रोकिए इसे। चलाइए बुलडोजर। यह धुन है, ध्यान है, अंतर्ज्ञान है। नमन उन अनंत विलक्षणप्रतिभाओं को जिनका प्रकाश सूर्य की तरह सदा, सर्वत्र दैदीप्यमान है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 130 – देश-परदेश – दुल्हन वही जो पिया मन भाए ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 130 ☆ देश-परदेश – दुल्हन वही जो पिया मन भाए ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सत्तर के दशक में इस नाम से एक फिल्म आई थी। समय हमेशा की तरह बदलता रहता है। शताब्दी पूर्व तो घर के बड़े पुरुष ही विवाह तय कर दिया करते थे। पचास के दशक से घर की बड़ी महिलाएं भी बच्चों के विवाह तय करने में अपनी दलीलें देने लगी थी। शिक्षा का प्रसार बढ़ा, तो सत्तर के दशक से विवाह पूर्व भावी वर और दुल्हन की राय भी पूछी जाती थी। समाज में समय के चलन को देखते हुए “दुल्हन वही जो पिया मन भाए” फिल्म बना कर, एक संदेश भी था, कि लड़के और लड़की को भी एक दूसरे को एक बार तो मिलना ही चाहिए।

समय की करवट के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने पर विवाह पूर्व भावी जोड़े अनेकों बार मिलने लग गए थे। फोन पर घंटों बातें कर या पत्राचार के माध्यम से भी एक दूसरे को पहचानने के प्रयास होते आ रहे हैं। लड़कियां विगत तीन दशकों से अधिक समय से अपने घर से बहुत दूर और विदेश तक में नौकरी करने लग गई हैं। “लिव इन रिलेशन” जैसे संबंध, विवाह जैसे पवित्र सामाजिक संस्कार का विकल्प बन कर उभर रहा है।

विवाह को परिवार द्वारा तय किए जाने का चलन अभी भी अस्सी प्रतिशत से अधिक है। प्रेम विवाह को आजकल “अंतरजातीय विवाह” की संज्ञा दी जाती है। वर्तमान में विवाह भी  नए प्रकार हो चले हैं, कुछ निम्नानुसार हैं:-  

  1. Companionate Marriage.
  2. Living Apart Together Marriage.
  3. Open Marriage.
  4. Marriage of Convenience.
  5. Renewable Contracts.

उपरोक्त विवाह के प्रकार जानकर तो ऐसा लगा, जैसे “इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट 1872 ” में दिए गए, भागीदारी के विभिन्न प्रकार हों। वैसे विवाह भी तो एक भागीदारी ही है। हमे तो पांच दशक से इंतजार है, जब बॉलीवुड “दूल्हा वही जो प्रियतमा मन भाए” के नाम से फिल्म बनाएगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 673 ⇒ लंगोटिया और …  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 673 ⇒ लंगोटिया और …  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ दिनों से एक शब्द ने नाक में दम कर रखा है, एक ऐसा शब्द, जो पहले कभी नहीं सुना। अपने अज्ञान पर शर्म से अधिक हंसी भी आई, जब तलाश करने पर पता चला कि यह तो एक नामी गिरामी यूनिवर्सिटी का नाम है और यह और कहीं नहीं, यमुना एक्सप्रेसवे, ग्रेटर नोएडा पर स्थित है। वैसे इसकी मूल संस्था गलगोटियास शैक्षणिक संस्थान है, और जिसके कुलपति डॉ.के.मल्लिकार्जुन बाबू हैं।

जो संस्कारी मातालंगोटिया और …  पिता ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज की जगह संस्कारी और सनातन गुरुकुल अथवा नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में अपने बच्चों को ज्ञानार्जन करवाना चाहते हैं, उनके लिए गलगोटिया एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।

अचानक हमें हमारा बचपन याद आ गया और स्मृति पटल पर तैरने लगे, कुछ लंगोटिया यार, हम जिनके गले में बांहें डाल गोटियां खेला करते थे। शिक्षा कभी हमारी दोस्ती में आड़े नहीं आई। साथ साथ बस्ता उठाए, गले में हाथ डाले स्कूल जाते थे, और साथ साथ ही वापस आते थे। ।

कुछ दोस्तों ने आगे स्कूल और कॉलेज में भी साथ दिया, तो कुछ ने आर्थिक अभाव के कारण पढ़ना ही छोड़ दिया। उम्र के इस पड़ाव में, आज भी जब, साठ साल के अंतराल के बाद, कोई लंगोटिया यार नजर आ जाता है, तो सबसे पहले हम गले मिलते हैं।

भरत मिलाप से कम भावुक दृश्य नहीं होता वह। सब याद आता है, लड़ना झगड़ना, रूठना मनाना।

कच्ची मिट्टी के घड़े थे तब, नियति ने सबको अलग अलग शक्लो सूरत और नसीब में ढाला।

जहां कॉलेज है, वहां छात्र संगठन हैं, राजनीति है, ग्रुपबाजी है। स्कूल में मॉनिटर और कॉलेज में क्लास रिप्रेजेंटेटिव होता था। स्कूल में जहां बुद्धिमान छात्रों को मॉनिटर चुना जाता था, वहीं कॉलेज तक आते आते यह बागडोर कथित नेताओं और दादाओं के हाथ में आ जाती थी। दो पैनल मैदान में खड़े हो जाते थे। और प्रचार प्रसार के अलावा अन्य राजनीतिक हथकंडे भी अपनाए जाते थे। ।

एक समय था जब कॉलेज की नेतागिरी को राजनीति का चस्का नहीं लगा था, इक्के दुक्के नेता चुनाव के वक्त आते थे और चले जाते थे लेकिन समय के साथ कॉलेज भी राजनीति का अखाड़ा बनते चले गए। शिक्षा का राजनीति से भले ही कोई संबंध नहीं हो, लेकिन शिक्षा पर राजनीति का पूरा दखल है। चाहे शिक्षकों की नियुक्ति हो अथवा ट्रांसफर, नेता और मंत्री तक किसे भागदौड़ नहीं करनी पड़ती।

जब यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ही सूटकेस लेकर राजभवन पहुंच जाते हैं, तो शिक्षा कैसे राजनीति के चंगुल से बच सकती है।

कल के सभी महाविद्यालय आज आदर्श महाविद्यालय हो गए हैं। असली पढ़ाई तो आजकल कोचिंग संस्थानों में हो रही है, फिर भी कॉलेज ही नहीं, पान की दुकान की तरह, जगह जगह, हर ओर विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं। विश्व कीर्तिमान के नजदीक ही होंगे हम।  

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 287 – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 287 भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बायीं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 672 ⇒ ऑर्गेनिक केमिस्ट्री ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ऑर्गेनिक केमिस्ट्री।)

?अभी अभी # 672 ⇒ ऑर्गेनिक केमिस्ट्री  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे शास्त्र और विज्ञान में कोई खास रुचि नहीं रही। मैं अन्य विद्यार्थियों की तरह विज्ञान का अध्ययन करता रहा, करता रहा, लेकिन करत करत अभ्यास के, कभी जड़मति से सुजान नहीं बन पाया। खाने में भले ही मेरी पसंद चलती हो, मेरे भविष्य की चिंता मुझसे ज्यादा मेरे बड़े भाई साहब को रहती थी। वे मुझे एक अच्छा पढ़ा लिखा इंसान बनाना चाहते थे और तब यह विज्ञान के अध्ययन से ही संभव था।

पढ़ाई में मैं कमज़ोर रहा, क्योंकि मेरा गणित ही कमज़ोर था। जिनका गणित अच्छा होता है, वे छात्र बुद्धिमान कहलाते हैं, फटाफट आगे बढ़ जाते हैं। मैने सिन्हा और रॉय चौधरी की फिजिक्स भी पढ़ी, और भाल और तुली की केमिस्ट्री भी। ए.सी.दत्ता की बॉटनी और आर. डी.विद्यार्थी की ज़ूओलाजी जैसी मोटी मोटी किताबें मैने पढ़ी हैं ! I am B.Sc. return. Appeared but never cleared.

जिन लोगो को विज्ञान में रस था, वे डॉक्टर इंजिनियर बन गए, कॉमर्स वाले सी.ए. और आर्ट्स वाले वकील बन गए। कोई पुलिस में भर्ती हो गया तो कोई फौज़ में चला गया। जब हम कुछ न बन सके तो, बैंक में बाबू बन गए। ।

रस, रसायन और रसिक का आपस में कितना संबंध है, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे साहित्य और संगीत में रस ही रस नजर आता है। मेरी केमिस्ट्री किसी रसिक की भले ही ना हो, मुझे संतोष है, राम रसायन मेरे पास है, और मैं रघुपति का दास हूं।

रसायन शास्त्र को अंग्रेजी में केमिस्ट्री कहते हैं। केमिस्ट्री भी दो होती है, ऑर्गेनिक और इन -ऑर्गेनिक। बचपन में कभी ध्यान नहीं दिया, हमारा भोजन ऑर्गेनिक है कि नहीं। क्योंकि तब भोजन में स्वाद था। खेत के छोड़ और ताज़े मीठे बटलों के स्वाद की तो पूछिए ही मत। गाजर, मूली, टमाटर और दांतों से छीला हुआ गन्ना। न कभी पेट भरता था, न कभी पेट दुखता था। कंकर पत्थर सब हजम। तब हम नहीं जानते थे, जो कुछ हम खा रहे हैं, सब ऑर्गेनिक फूड है। यही रसायन है और यही हमारे शरीर को पुष्ट बना रहा है। ।

हमने भले ही विज्ञान नहीं पढ़ा, लेकिन विज्ञान प्रगति करता रहा। अगर विज्ञान प्रगति नहीं करता, तो शायद मैं इतनी आसानी से विज्ञान की तारीफ भी नहीं कर पाता। भला हो आज की टेक्नोलॉजी का, फेसबुक का, जो मुझसे रोज पूछती रहती हैं, एक शुभचिंतक दोस्त की तरह, आप क्या सोच रहे हैं। यहां कुछ लिखें। और मैं आग्रह का कच्चा, रोज कुछ न कुछ लिख देता हूं।

आज प्रदूषण और पर्यावरण के साथ प्रदूषित, केमिकल फर्टिलाइजर वाले खाद्य पदार्थों का भी जिक्र हो रहा है, जिससे मनुष्य का शरीर बीमारियों का घर बना हुआ है। कीटनाशक दवाइयों का भोजन जब फसल को ही परोसा जाएगा, तो वह वही तो देगी, जो उसे हवा और दाना पानी में मिलाकर दिया गया है। एक गाय भी अच्छा दूध तभी देती है, जब उसका दाना पानी ठीकठाक हो। जर्सी गाय दूध अधिक देती है, लेकिन उसकी गुणवत्ता वह नहीं होती। जमीन को भी खाद के रूप में वही दिया जाए, जो जमीन से ही पैदा हुआ हो। हमारी धरती आजकल अन्न, फल और सब्जियां नहीं, जहर उगल रही है और वह जहर हम निगल रहे हैं। ।

विज्ञान ने हमें बड़ा ज्ञानी और बुद्धिमान बना दिया। झट से दो मिनिट में मैगी और पास्ता बनाकर अगर आज की पीढ़ी पढ़ लिखकर आगे बढ़ रही है, तो क्या गुनाह कर रही है। हर अवसर पर केक, पेस्ट्री, कोक और आइसक्रीम उपलब्ध है तो कौन घर में चूल्हा फूंके।

जब केमिस्ट्री पढ़नी थी, तब कभी पढ़ी नहीं, लेकिन लगता है अब अपने शरीर की केमिस्ट्री एक बार पढ़नी पड़ेगी। उसके नफे नुकसान के बारे में भी सोचना पड़ेगा। एक जैविक हथियार जब हवा में से ऑक्सीजन तक इस हद तक कम कर सकता है कि हर स्वस्थ व्यक्ति को एक बीमार की तरह ऑक्सीजन का सिलेंडर लगाना पड़े, तो समझ लीजिए, कयामत का दिन नज़दीक है। अगर वातावरण में जहर है, तो अपने अंदर के जहर को बाहर निकालें। अपनी प्रतिरक्षा शक्ति (इम्यून सिस्टम) बढ़ाएं। योग, प्राणायाम करें और हां आज नहीं तो कल, अपने शरीर की केमिस्ट्री समझें और….

GO ORGANIC ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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