हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #228 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 228 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए। 

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 344 ⇒आचार्य देवो भव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आचार्य देवो भव ।)

?अभी अभी # 344 ⇒ आचार्य देवो भव? श्री प्रदीप शर्मा  ?

संस्कृत में आचार्य को गुरु भी कहते हैं। तब गुरुकुल होते थे, आज संकुल होते हैं। आचार्य का संबंध शिक्षा से है। आज की भाषा में हम इन्हें शिक्षक, टीचर, प्रोफेसर, डॉक्टर और रीडर भी कह सकते हैं।

मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव। यानी माता को देवता समझो, पिता को देवता समझो, आचार्य को देवता समझो, अतिथि को भी देवता समझो। माता पिता और आचार्य तक तो ठीक है, लेकिन अतिथि को भी देवता समझना, कुछ हजम नहीं होता।।

जहां जहां भी देव और असुर आमने सामने हुए हैं, असुरों के गुरु शुक्राचार्य जरूर बीच में आए हैं। द्वापर में कौरव पांडव दोनों के गुरु द्रोणाचार्य ही थे। जो आचार्य अमात्य होते थे, वे राजाओं के सलाहकार होते थे। आज वे ही मंत्री कहलाते हैं। जो शिक्षा प्रदान करे वह शिक्षक यानी आचार्य और जो नीति बनाए, वह अमात्य अर्थात् मंत्री।

शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में आचार्यों की कोई कमी नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, और सर्व श्री आचार्य नंददुलारे बाजपेई, जैसे विद्वान साहित्यकारों ने अगर साहित्य की विधा को संपन्न किया है तो वल्लभाचार्य, निंबाकाचार्य ने पुष्टिमार्ग और द्वैताद्वैत मार्ग का प्रतिपादन किया। आदि शंकराचार्य और आज के शंकराचार्यो की यशकीर्ति से कौन परिचित नहीं।।

शिक्षा के क्षेत्र में आज आपको आचार्य ही नहीं प्राचार्य भी नजर आ जाएंगे। आचार्यों में भी विशेषज्ञ होते हैं ; मसलन, आयुर्वेदाचार्य, व्याकरणाचार्य और ज्योतिषाचार्य। योगाचार्य, धर्माचार्य तो एक ढूंढों हजार मिलेंगे। याद आते हैं आचार्य कृपलानी जैसे लोग। मंगल कार्य संपन्न करवाने वाले भी पहले आचार्य और जोशी ही कहलाते थे। पंडित, पुजारी शब्द में वह गरिमा कहां, जो आचार्य शब्द में है।

जब से उपाधियों का अलंकरण होने लगा है, लोग डॉक्टर, प्रोफेसर और साहित्यरत्न कहलाना अधिक पसंद करने लगे हैं। कहीं आचार्य नाम के आगे शोभायमान है तो कहीं पीछे। आज आपको डा .भोलाराम आचार्य भी नजर आ जाएंगे और योग गुरु आचार्य बालकृष्ण भी।

कुछ आचार्य बिना पेंदे के लोटे की तरह भी होते हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 191 ☆ सिरमौर विरंचि विचार सँवारे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सिरमौर विरंचि विचार सँवारे। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 191 ☆ सिरमौर विरंचि विचार सँवारे

भारतीय संस्कृति का आधार जिसने समझ लिया उसके लिए जीवन एक उत्सव की तरह हो जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जब हमारे भीतर समाहित होगा तब हम व्यक्ति से ज्यादा समष्टि को महत्व देने लग जाते हैं। कण- कण में भगवान को महसूस कर, धरती को माँ मानकर नदियों से अमृत स्वीकार कर, गीता का ज्ञान हृदय में बसा कर कर्म तो करते हैं पर फल की चिंता नहीं करते।

मैं (अहंकार) का भाव जब तक तिरोहित नहीं होगा तब तक सब कुछ सहजता से स्वीकार करना आसान नहीं होता। व्यक्ति क्रोध, लोभ मोह, माया से ग्रसित हो पृथ्वी लोक में भटकता रहेगा।

कर्म हमेशा सही योजना बनाकर करें। राह और राही दोनों को सत्यमार्ग का वरण करते हुए सहजता से आगे बढ़ना चाहिए जिससे प्रकृति का आनन्द उठाते हुए नर्मदा के कण- कण में शंकर बसते हैं इसे आप जी सकें, महसूस कर सकें अमृत तुल्य निर्मल जल की उद्गम धारा को आत्मसात कर सकें। किसी भी विशाल वृक्ष को देखें उसमें पंछी कितने उन्मुक्त भाव से अपने जीवन को बिताते हैं, प्रातः दूर आकाश में उड़ान भरते हुए अपने भोजन की तलाश में जाते हैं और शाम होने से पहले अपने घोसले में वापस आते हैं।

इसी तरह ऋतुओं का बदलाव भी कितना सहजता से होता है बिल्कुल बच्चे की मुस्कान जैसे, जो खेलते हुए चोट लगने पर रोता तो है पर माँ के पुचकारने से पुनः आँसू पोछता हुआ खेलने भाग जाता है। क्या हम ऐसा जीवन नहीं जी सकते ? आकाश की विशालता, पंछी की उन्मुक्तता, बच्चों की सहजता, धरती से धीरज, वृक्षों से निरंतर देते रहने का, प्रकृति से परिवर्तन का भाव ग्रहण कर सहजता से मानव धर्म का पालन करते हुए जीवन नहीं जी सकते ?

अभी भी समय है ये सब चिंतन हमें अवश्य करना चाहिए जिससे हमारा और भावी पीढ़ी का जीवन सरल होकर हर्षोल्लास में व्यतीत हो।

कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा ? बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत ही न करना।

ऐसा अक्सर लोग करते हैं पर वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।

द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या कोई लाभ मिला ?

यकीन मानिए इसका उत्तर, शत- प्रतिशत लोगों का न ही होगा। अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप अपने हृदय व सोच को विशाल करेंगे सारी समस्याएँ अपने आप हल होने लगेंगी।

सारी चिंता छोड़ के, चिंतन कीजे काज।

सच्चे चिंतन मनन से, पूरण सुफल सुकाज।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 343 ⇒ विचारों का आखेट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारों का आखेट।)

?अभी अभी # 343 ⇒ विचारों का आखेट? श्री प्रदीप शर्मा  ?

शेर को जंगल का राजा कहा गया है। एक जंगल हमारे विचारों का भी है, और हम ही उस जंगल के राजा हैं। एक शेर की तरह हम अपने विचारों के जंगल में निर्विघ्न घूमते हैं, जब भी हमें भूख लगती है, हम अपने ही विचारों का आखेट कर लेते हैं।

हमारे विचारों के इस जंगल में प्रवेश तो कोई भी कर सकता है, लेकिन हमारे अदृश्य विचारों का शिकार नहीं कर सकता। विचार हमारे मन के आंगन में निर्द्वंद्व विचारा करते हैं। एक उड़ती चिड़िया की तरह हमें अपने ही विचारों को शब्दों और लेखनी के पिंजरे में कैद करना पड़ता है। आप चाहें तो हमारे मन को विचारों का चिड़ियाघर अथवा अजायबघर भी कह सकते हैं।।

आत्मा की तरह ही विचार भी अमर हैं। विचार प्रकट और अप्रकट दोनों होते हैं, प्रकट विचारों का कोई कॉपीराइट नहीं होता। लेकिन पुस्तक के रूप में प्रकट विचारों का कॉपीराइट हो सकता है।

मनुष्य के अप्रकट विचार एक ऐसा अक्षुण्ण भंडारगृह है, कुबेर का खजाना है, गोडाउन है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता।

हमारी विचार गंगा कहां से निकलती है, कोई नहीं जानता, इसका कोई गोमुख नहीं, लेकिन इस ज्ञान रूपी गंगासागर के गर्भ में कितने मोती हैं, कोई नहीं जानता।

जो प्रकट है, वह अनमोल मोती है, और जो अभी अप्रकट है, उसकी कोई थाह नहीं।।

एक ऐसा नंदन कानन है हमारा मन, जिसमें स्मृतियों और संकल्प विकल्पों के बीच नए विचार भी पनप रहे हैं। इधर मन ने संस्कार संचित किया उधर विचार पीछे पीछे चले आए बाराती की तरह। अमृत मंथन की तरह हमारे विचारों का भी मंथन चलता रहता है। अफसोस, अमृत तो सभी चाहते हैं, लेकिन यहां किसी नीलकंठ विषपायी का नितांत अभाव है।

पृथ्वी के गर्भ की तरह ही हमारे विचारों और संस्कारों के गर्भ में क्या है, कौन जानता है। जब विचारों का निर्झर बाहर आता है, तब ही पता चलता है, यह गुप्तगंगा है अथवा कोई ज्वालामुखी। कहीं प्रेम की गंगा तो कहीं नफरत का ज्वालामुखी।

विचारों में आग भी है, ठंडक भी, अमृत भी है और जहर भी। हमारे मन के नंदन कानन में केवल फूल ही खिले, कांटे नहीं, प्रेम और अमृत ही संचित हो, नफरत का ज़हर नहीं, इसका केवल एक ही उपाय है, नीलकंठ महादेव की शरण ;

हे नीलकंठ, हे महादेव

ऐसी कृपा अब कर दो।

मेरे मन में जहर भरा है

उसको अमृत कर दो।।

हे नीलकंठ, हे महादेव , ,

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 276 ☆ आलेख – सच्चे सम्मान का असम्मान सर्वथा अस्वीकार्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख सच्चे सम्मान का असम्मान सर्वथा अस्वीकार्य। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 276 ☆

? आलेखसच्चे सम्मान का असम्मान सर्वथा अस्वीकार्य ?

सीधे सरल अर्थ में साहित्यिक  सम्मान साहित्यकार की रचना धर्मिता के प्रति किसी संस्था के कृतज्ञता बोध का प्रतीक होना चाहिए। जिसका असम्मान सर्वथा अनुचित है। किंतु, वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में साहित्यकारों को प्रदान किए जाने वाले सम्मान कई तरह से दिए जा रहे हैं।

कहीं साहित्यकार से संस्था की सदस्यता या अन्य बहाने से राशि लेकर, तो कहीं सिफारिश के आधार पर चयन होता दिखता है। कहीं किसी स्वनाम धन्य बड़े अफसर या प्रभावी व्यक्तित्व से कोई अप्रत्यक्ष लाभ की प्रत्याशा में सम्मान किया जाता है, तो कहीं पुरुस्कार राशि वापस ले कर सौदेबाजी देखने मिल रही है। इस तरह के सम्मान स्वतः ही कालांतर में अपनी साख खो देते हैं।

राजनैतिक कारणों से लिए दिए गए सरकारी सम्मानों की वापसी के प्रकरण पढ़ने सुनने को मिलते रहे हैं, स्पष्टतः पुरस्कारों के ये असम्मान नैतिक क्षुद्रता के भौंडे प्रदर्शन हैं। 

संक्षिप्त में कहें तो साहित्यकारों के सच्चे सम्मान उनके सारस्वत कृतित्व को और जिम्मेदार बनाते हैं, और ऐसे सम्मान का असम्मान नितांत गलत है।

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 342 ⇒ चरण पादुका… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चरण पादुका।)

?अभी अभी # 342 ⇒ चरण पादुका? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो पांव में पहनी जाए, वो चरण पादुका ! वैसे पादुका का शाब्दिक अर्थ खड़ाऊ है। आज की बोलचाल की भाषा में इसे जूता कहते हैं। कड़क धूप से जलते पांवों को बचाने के लिए और कांटे कंकड़ से सुरक्षित रखने के लिए जूता पहना जाता है। पांव में जूता और सर पर छाता गर्मी हो या बरसात, रहता सदा साथ। भले ही गर्मी बरसात न हो, आप पैदल नहीं कार में हों, आज के युग में जूता आपके पांव में ज़रूर होगा।

भले ही सर पर टोपी ना हो, पांव में जूता होना जरूरी है। कितना मतलबी है आज का इंसान, बाहर जिस जूते से उसकी शान है, उसे घर में कोई सम्मान नहीं है। पड़ा रहता है, घर के बाहर किसी कोने में। न उसे रसोई में प्रवेश है, न ही मंदिर में। जूता है, उसकी औकात पांव तक ही है, उसे सर पर नहीं बिठाया जाता।।

आखिर सुविधा भी कोई चीज है। हमने घर के लिए एक रबर की चप्पल को अनुमति दे दी है कि वह सीमित क्षेत्र में हमारे चरणों की शोभा बढ़ा सकती है। हमने उसे स्लिपर नाम दे दिया है। हमने आजकल जमीन पर बैठना बंद कर दिया है। हम भोजन टेबल पर करते हैं, सोफे पर बैठते हैं, डबल बेड पर सोते हैं और कमोड ही आजकल हमारा दिशा मैदान है। कलयुगी पादुका स्लिपर इन अवसरों पर हमारे चरण कमल को सुशोभित करती है। जो संस्कारी लोग हैं, वे स्लिपर को इतना सम्मान भी नहीं देते।

इंसान की आधी शान तो उसके जूतों में है।

अगर सूट महंगा है, तो शूज़ भी ढंग के ही होने चाहिए। निर्मल बाबा की मानें तो किरपा भी ब्रांडेड प्रोडक्ट्स में ही छुपी होती है। वैसे भी आजकल सभी ब्रांड एक ही इंसान पर मेहरबान हैं।।

दूरदर्शन पर रामायण चल रही है। भरत अपने भाई मर्यादा पुरुषोत्तम को प्रणाम कर रहे हैं और उनकी चरण पादुका को सर पर धारण किए हुए हैं। चरण पादुका का राज्याभिषेक होता है। भगवान राम की चरण पादुका ही अयोध्या पर राज करेगी और भरत कुटिया में रहकर सेवक की भांति राजपाट संभालेंगे।

चरण पादुका को इतना सम्मान शायद पहली बार मिला होगा। बड़ों के चरण छूना आज भी हमारे संस्कार में है। शुभ कार्य के वक्त पूजा पाठ करवाने वाले पंडित जी के भी पांव छूते हैं। गुरु की चरण वंदना भी करते हैं। जिन्होंने महात्मा भरत की भांति सब कुछ अपने सदगुरु को अर्पण कर दिया है, वे गुरुदेव की पादुका पूजन भी करते हैं। जो महत्व गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहब का है, वही महत्व गुरु परम्परा में गुरु पादुका का है।।

यह भाव का खेल है, किसी की गुलामी का नहीं। जिसकी गुलामी में सुबह जल्दी उठे, कभी खाना खाया, कभी नहीं खाया, झटपट तैयार हुए, जूते पहने और निकल पड़े कर्तव्य के पथ पर।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्रीराम जन्म का उत्सव – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ श्रीराम जन्म का उत्सव ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

प्रिय पाठकगण, नमस्कार

आज श्री राम प्रभु के धरती पर अवतरण का शुभ दिन है। आज की तिथि में मध्यान्ह प्रहर का सुमंगल सुमुहूर्त साधते हुए आकाश में देव सभा अवतरित हुई है, जबकि तेजोनिधि सूर्य उनके रथ के आवेग को रोकते हुए, ‘मुझसे तेजस्वी भला और कौन हो सकता है?’ कहते हैं, इसी सोच में वह कई महीनों तक ठिठक गया! यह तो अति आश्चर्यजनक बात हुई| अगर हम जैसे सामान्य लोगों का मन रामजन्म के क्षण में ऐसे आनंद के सागर में विचरण कर रहा है, तो इसमें आश्चर्य क्या है कि, सिद्धहस्त साहित्यिक महाकवि कालिदास की भावनाएँ रामजन्म की कल्पना के साथ कोटि कोटि उड़ानें भरती हैं!

महाकवि कालिदास के महाकाव्य ‘रघुवंशम्’ के दसवें सर्ग में राम जन्म के प्रसंग का अति सुंदर वर्णन किया गया है।

देवादिकों और भूमाता ने यह प्रार्थना करके विष्णु स्तुति शुरू की कि, भगवान विष्णु धरती और स्वर्ग के देवताओं को बोझ बने उन्मादी रावण का अंत करने के लिए मानव रूप में पृथ्वी पर अवतार लें। भूतल पर चल रहे रावण के सभी अत्याचारों को भगवान विष्णु पहले से ही जानते थे| उन्होंने देवताओं से कहा, ‘हे देवों! जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष साँप को आलिंगन में भरते हुए उसे निर्भय वृत्ति से धारण करता है, उसी प्रकार मैं इस रावण में ब्रह्मा के वरदान से उत्पन्न हुए उन्माद को सहन कर रहा हूँ। अब मैं स्वयं ही दशरथ के पुत्र के रूप में मनुष्य जन्म लूंगा और अपने अक्षय बाणों से इस रावण के मस्तक रूपी कमल समूह को युद्धभूमि की पूजा करने के लिए बाध्य कर दूंगा!’ यथासमय महान तपस्वी ऋष्यश्रृंग मुनि के मार्गदर्शन में दशरथ के हाथों पुत्र कामेष्टि यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। उस यज्ञ की ज्वाला से एक अत्यंत तेजस्वी दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उस दिव्य पुरुष को उस सुवर्ण कुम्भ के पायस (चरु) को सम्हालना कठिन जा रहा था क्यों कि, उस चरु में स्वयंभू भगवान विष्णु पहले ही प्रवेश कर चुके थे| जैसे ही दिव्य यज्ञ पुरुष उस सुवर्ण कुम्भ के साथ अग्नि से प्रकट हुआ, वह सभी के लिए दृश्यमान हो गया। राजा दशरथ ने उसे बड़ी श्रद्धा से स्वीकार किया।

मित्रों, तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु ने शक्तिशाली और धर्मात्मा राजा दशरथ से जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की, इसलिए हमें इस बात पर विचार करना होगा कि इस ‘देव पिता’ दशरथ में कितने देव समान गुण थे। जिस प्रकार वासरमणि (सूर्य) आकाश और पृथ्वी को अपनी प्रभात बेला की धूप का दान प्रदान करता है, उसी प्रकार उस राजा दशरथ ने विष्णु के चरु (तेज) को अपनी दोनों रानियों (कौशल्या और कैकेयी) के बीच समान रूप से विभाजित किया। चूँकि कौशल्या दशरथ की जेष्ठ पटरानी थी और केकय देश की राजकुमारी कैकेयी उनकी प्रिय रानी थी, इसलिए वह इन दोनों रानियों के माध्यम से उनके हिस्से में से एक हिस्सा दान करके सुमित्रा का सम्मान करना चाहते थे। वे दोनों पतिव्रता स्त्रियाँ (कौसल्या और कैकेयी) पृथ्वी पति दशरथ के सारे मनोभावों को उनके बिना बताये ही जान लेती थीं| उन्होंने बड़े प्रेम से प्राप्त चरु में से आधा आधा भाग रानी सुमित्रा को दे दिया। जिस प्रकार भ्रामरी को हाथी के दोनों गण्डस्थल से प्रवाहित होने वाली मदजल की दोनों धाराएँ समान रूप से प्रिय होती है, उसी तरह अति सद्गुणी रानी सुमित्रा, अपनी दोनों सौतों (कौशल्या और कैकेयी) से समान रूप से प्रेम करती थी। जिस प्रकार सूर्य अपनी अमृता नामक नाड़ियों के माध्यम से जलयुक्त गर्भ (वाष्प के रूप में) धारण करता है, उसी प्रकार तीनों रानियाँ प्रजा की उन्नति हेतु विष्णु के तेज से प्रकाशित उस दीप्तिमान गर्भ को धारण किया। जिस प्रकार नवीन फल धारण की हुई फसलें पीत वर्ण की कांति से सुशोभित हो जाती हैं, उसी प्रकार वें तीनों रानियाँ जो एक ही समय गर्भवती थीं और जिनकी कांति गर्भावस्था के कारण थोड़ी फीकी लग रही थी, अब गर्भतेज के अत्युत्कृष्ट लक्षणों से युक्त होकर और अधिक सौन्दर्यशालिनी प्रतीत हो रहीं थीं|

तीनों गर्भवती रानियों ने एक अलौकिक स्वप्न देखा। शंख, चक्र, गदा, तलवार और धनुष आदि सभी आयुधों से सुसज्जित देवतुल्य पुरुषों द्वारा उन तीनों को सुरक्षा प्रदान की जा रही है। साक्षात पक्षीराज गरुड़ अपने तेजस्वी एवं मजबूत पंखों द्वारा अपने प्रकाशपुंज के साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाते हुए आकाश के बादलों को आकर्षित कर बड़ी तीव्र गति से उड़ान भरते हुए उन्हें आकाश में उड़ाकर ले जा रहा है। बड़े ही अभिमान से भगवान विष्णु द्वारा उपहार में दी गई कौस्तुभ माला को अपने वक्षस्थल पर धारण करने वाली देवी लक्ष्मी उन्हें कमलरूपी पंखे से हवा दे रही है। आकाशगंगा में अन्हिक कर पवित्र हुए सप्तर्षि, अर्थात सात ब्रह्मर्षि, अंगिरस, अत्रि, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि और वशिष्ठ परब्रम्ह के नाम का जाप करते हुए उन्हें वंदन कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि, ये तीनों पूजनीय देव माता होने वाली हैं। जब उन रानियों ने दशरथ को उस अलौकिक स्वप्न के बारे में बताया, तो वह उसे सुनकर बहुत खुश हुआ और अपने आप को जगत्पिता के पिता के रूप में जानकर सर्वोत्तम और धन्य माना| जिस प्रकार चंद्रमा का प्रतिबिंब निर्मल जल में विभाजित हुआ दिखता है, वैसे ही एकरूप सर्वव्यापी महा विष्णु ने उन तीन रानियों के उदरों में विभाजित होकर निवास किया।

ऐसा माना जाता है कि, जब सूर्य का अस्त होता है तो वह अपना तेज वनस्पतियों में रखकर जाता है| इसीको आधार बनाते हुए महाकवि कालिदास कहते हैं कि, जैसे रात्रि के अंधियारे में वनस्पति उस तम को नष्ट करने वाला तेज प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ की पतिव्रता पटरानी कौशल्या को तमोगुण का विनाशक एक पुत्र प्राप्त हुआ| इसी कौशल्यासुत के ‘अभिराम’ देह अर्थात अत्यंत मनोहर रूप से प्रभावित होकर पिता ने इस बालक का नाम ‘राम’ रखा, जो सर्वप्रथम मंगलस्वरूप के नाम से सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हुआ। राम शब्द का अर्थ है ‘कल्याणकारी’। ‘राम’ नाम प्राप्त किया हुआ यह बालक (अर्थात् रघुकुल का दीपक) अद्वितीय, अनुपम एवं तेजस्वी दिख रहा था। प्रसूति गृह में सुरक्षात्मक दीपक ऐसे निस्तेज लग रहे थे, मानों इस नवजात बालक के रूप तेज के समक्ष होने के कारण उन्होंने अपना तेज खो दिया हो। क्या मनोहर दृश्य है! अभी अभी कौशल्या ने बाल राम को जन्म दिया है| वह उसके समीप शांति से सो रहा है। उनके जन्म के बाद, माता कौशल्या (उदर रिक्त होने के कारण) कृशोदरी प्रतीत हो रही है। कौशल्या माता ऐसे शोभा पा रही थीं मानों शरद ऋतु में रेतीले तट ने कमल का उपहार प्राप्त किया हो| कैकेयी ने भरत नामक शीलसंपन्न पुत्र को जन्म दिया। जिस प्रकार लक्ष्मी विनय से सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार भरत ने अपनी जन्मदात्री (कैकेयी) को विनय को आभूषण के रूप में अर्पित किया। यदि कोई व्यक्ति योग्य प्रकार से साधना करता है, तो वह इंद्रियों पर विजय (जितेंद्रियता) प्राप्त कर सकता है और दर्शन के संपूर्ण आशय को भी आत्मसात कर सकता है, उसी तरह सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक जुड़वां बालकों को जन्म दिया।

इन गुणनिधान बच्चों के जन्म के बाद, सम्पूर्ण जगत सूखे की चिंताओं से मुक्त हुआ और हर स्थान स्वास्थ्य, समृद्धि आदि गुणों से समृद्ध हो गया। यह तो ऐसा हुआ मानों, स्वर्ग की सुखसम्पन्नता विष्णु के पगचिन्हों का अनुसरण करती हुई महाविष्णु के पीछे-पीछे पृथ्वी पर अवतरित हुई। परन्तु राम के जन्म के समय ही उधर लंका में दशानन रावण के मुकुट के मौक्तिकमणि धरती पर गिर पड़े। मानों इसके जरिये राक्षसों की ऐश्वर्य लक्ष्मी आँसू बहाने लगी। निस्संदेह, मुकुट के रत्नों का गिरना अमंगल था। जैसे ही यह निश्चित हो गया कि, रावण की मृत्यु राम के हाथों होगी, रावण की वैभवशाली ऐश्वर्य लक्ष्मी अश्रुपात करने लगी। अयोध्या में पुत्रप्राप्ति से धन्य हुए राजा दशरथ के चारों पुत्रों के जन्म के मुहूर्त पर स्वर्ग में मंगल वाद्य बजने का शुभारम्भ हुआ। वहां देवताओं ने नगारे बजाना प्रारम्भ किया। राजा दशरथ के भव्य महल पर स्वर्ग के कल्प वृक्ष के दिव्य सुमनों की बौछार हुई|  इस पुष्पवर्षा के साथ ही पुत्र-जन्म के लिए आवश्यक मंगलमय उपचारों का प्रारम्भ हुआ।

जातक अनुष्ठान से संस्कारित वे तीनों बालक धात्री का दूध पीते हुए, मानों उनसे किंचित पहले जन्मे उनके जेष्ठ भ्राता (राम) के साथ परमानंद से अभिभूत पिता की छत्रछाया में बड़े हो रहे थे| जिस प्रकार आहुति प्राप्त होते हुए घृत (घी) द्वारा अग्नि का तेज सहज ही वृद्धिंगत होता है, वैसे ही इन बालकों के सद्गुण और विनम्र स्वभाव उन्हें प्राप्त संस्कारों और शिक्षा से और भी विकसित हो गए थे। आश्चर्य की बात यह है कि, उन चारों भाइयों में सम समान प्रेम संबंध थे, फिर भी जैसे राम और लक्ष्मण की अनायास ही जोड़ी बन गई, वैसी ही भरत और शत्रुघ्न की भी जोड़ी बनी| अखिल पृथ्वी के स्वामी दशरथ के ये चार शिशु मानों चार प्रकारों से सुशोभित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सजीव अवतारों के जैसे शोभायमान प्रतीत होने लगे।

मित्रों, इस प्रकार महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंशम्’ में श्रीराम जन्म के इस पुण्य पावन पर्व का बड़े रसीले तथा भक्ति भाव से वर्णन किया है। आइए, रामनवमी के इस परम पवित्र दिन पर हम प्रभु श्रीराम के चरणों में नतमस्तक होते हुए उनके महान गुणविशेषों को आत्मसात करने का प्रयास करें!

टिप्पणी –  प्रभू श्रीराम का स्तवन करने वाले दो गाने शेअर करती हूँ| (लिंक के न चलने पर यू ट्यूब पर शब्द डालें|)

‘ठुमक चलत रामचंद् बाजत पैंजनिया’

गायिका-मैथिली ठाकूर- रचना-गोस्वामी तुलसीदास

‘रामचंद्र मनमोहन नेत्र भरून पाहीन काय’

गायिका- माणिक वर्मा, गीत-ज. के. उपाध्ये, संगीत – व्ही. डी. अंभईकर

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 341 ⇒ चंदू पारखी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चंदू पारखी।)

?अभी अभी # 341 ⇒ चंदू पारखी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर हमारे जीवन में टीवी और फिल्म जैसा माध्यम नहीं होता, तो क्या हम चंदू पारखी जैसी प्रतिभाओं को पहचान पाते। मराठी रंगमंच और हिंदी सीरियल व्योमकेश बख्शी से अपनी पहचान बनाने वाले इस कलाकार की कल २६वीं पुण्यतिथि थी।

इंदौर में जन्मे इस शख्स के बारे में मैं केवल इतना ही जानता हूं कि सन् ६४-६५ में हम दोनों एक ही स्कूल श्री गणेश विद्या मंदिर के छात्र थे। मुझे याद नहीं, कभी हमारी आपस में बातचीत भी हुई हो, क्योंकि चंदू एक अंतर्मुखी और एकांतप्रिय छात्र था। हमेशा कमीज पायजामा पहनने वाला, अक्सर उदासीन और कम बोलने वाला और अपने काम से काम रखने वाला।।

स्कूल कॉलेज में कौन आपका दोस्त बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन कुछ नाम और चेहरे किसी खासियत के कारण स्मृति पटल पर कायम रहते हैं। उचित अवसर पर कुछ प्रकट हो जाते हैं, और शेष जाने कहां गुम हो जाते हैं ;

पत्ता टूटा डाल से

ले गई पवन उड़ाय।

अबके बिछड़े कब मिलेंगे

दूर पड़ेंगे जाय।।

और यही हुआ। चंदू पारखी जैसे कई साथी जीवन के इस सफर में कहां खो गए, कुछ पता ही नहीं चला। वह तो भला हो कुछ हिंदी टीवी सीरियल का, जिनमें अचानक चंदू पारखी वही चिर परिचित अंदाज में दिखाई दिए। पहचान का भी एक रोमांच होता है, जो किसी भी परिचित चेहरे को ऐसी स्थिति में देखकर महसूस किया जा सकता है। अरे ! यह तो अपना चंदू है, ठीक उसी अंदाज में, जैसे हमारे प्रदेश के बाहर हमें कोई MP 09 वाला वाहन देखकर होता है, अरे यह तो अपने इंदौर की गाड़ी है।

उनके पौत्र यश पारखी के अनुसार ;

चंदू पारखी 150 रुपए लेकर मुंबई की ओर निकल पड़े थे… चंदू पारखी का जीवन कठिनाइयों से भरा था। कलाकार ने अपने अंदर के अभिनय प्रतिभा को उम्दा तरीके से समझ लिया था। उन्होंने ठान लिया था कि अब अपना जीवन रंगभूमि को समर्पित करूंगा। मात्र 150 रुपए अपने कपड़े की झोली में रखकर अपनी मंजिल को पाने के लिए चल दिए। वे कला की नगरी मुंबई पहुंच गए। नए लोग और नई चुनौतियों के बीच हमेशा ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम गुनगुनाते थे। इस गाने का उन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। वे कपड़े की झोली में लहसुन की कलियां रखते थे। जब भी भूख लगती एक-दो कलियां खा लिया करते थे। मायानगरी में पहला नाटक आचार्य अत्रे द्वारा लिखित तो मी नव्हेच में काम करने का मौका मिला। इसमें प्रमुख भूमिका में नटश्रेष्ठ #प्रभाकर_पणशीकर थे। नाटक में चंदू पारखी जी ने न्यायाधीश की भूमिका निभाई थी। उन्हें असली पहचान निष्पाप नाटक के बाद मिली।

बड़ी कठिन है डगर अभिनय की। अवसर कभी दरवाजे पर दस्तक नहीं देते। प्रतिभाओं को ही अवसर तलाशना पड़ता है। जिन दर्शकों ने टीवी पर जबान संभाल के सीरियल देखा है, उन्हें चंदू परखी की प्रतिभा के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मराठी सस्पेंस फिल्म अनपेक्षित में भी चंदू पारखी के अभिनय को बहुत सराहा गया।।

आज जब मैं टीवी सीरियल जबान संभाल के, के चंदू पारखी के रोचक और मनोरंजक पात्र चतुर्वेदी के किरदार को देखता हूं, और स्कूल के सहपाठी चंदू से उसकी तुलना करता हूं, तो दोनों में जमीन आसमान का अंतर होते हुए भी, कहीं ना कहीं, अभिनय की संभावनाओं का अनुभव तो हो ही जाता है।

बस चंदू पारखी को कोई नटश्रेष्ठ प्रभाकर पणशीकर जैसा पारस मिल जाए, तो वह सोना क्या हीरा हो जाए। अफसोस, इन प्रतिभाओं की उम्र विधाता कम ही लिखता है। १४ अप्रैल १९९७ को मेरा यह भूला बिसरा सहपाठी, मुझसे मिले बिना ही बिछड़ गया। बस स्मृति शेष में केवल श्रद्धा सुमन ही बचते हैं ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 275 ☆ आलेख – शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 275 ☆

? आलेख – शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती ?

हाँ हाँ अभिमन्यु की माँ सुभद्रा की सम धर्मिणी हूं मैं विद्यावती ! हाँ मैं सम गामिनी हूं रानी लक्ष्मीबाई की माँ की, तात्याटोपे की माँ की, नाना साहेब की माँ की, मंगल पांडे की माँ की उन जाने अनजाने वीर राजपूतो, योद्धाओ की माताओं की जो युगो युगो से देश की माटी के लिये आक्रांताओ से लड़ते अपने बेटों की शहादत की राह में कभी रोड़ा नहीं बनीं. मैं उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हूं जहाँ भाषा, नदियाँ, देश, गाय, तुलसी जैसे पौधे, मंदिरो में विराजित देवी सबको माँ निरूपित किया गया है. माँ निहित स्वार्थो से परे व्यापक कल्याणी होती है. सृष्टि के बाद कोई अन्य यदि सृजन की क्षमता रखता है तो वह केवल माँ है. मुझे गर्व है अपने माँ होने पर, अमर शहीद भगत सिंह की माँ होने का मतलब है, बेटे की शहादत की अनुगूंज से राष्ट्र कल्याण.

देश के लिये कुर्बानी देने वालो के प्रति श्रद्धा और सम्मान  तो बहुत होता है. देश कुर्बानी मांगता है. राष्ट्रध्वज में लिपटे, गौरव गाथायें कहते, शौर्य कथायें समेटे वीर युगो से शहीद होते रहे हैं. वीर रण बांकुंरे किसी न किसी प्रयोजन, किसी आदर्श पर कुर्बान होते हैं. शहीदो को देर सबेर तमगों से सम्मानित करती रही है सत्तायें. क्या सचमुच शहीद के परिवार को उसके  घर के मुखिया या बेटे की मृत्यु से वरण पर कुछ आर्थिक लाभ देकर  देश, सरकार या समाज शहादत के ॠण से मुक्त हो सकता है ?
शहीदों की चिता के शोले समय के साथ ठंडे होने लगते हैं. शहीद जीवनियां बनकर सजिल्द किताबों में समा जाते हैं. फिर कुछ वर्षो में किताबो पर भी धूल जमा होने लगती है. इतिहास बनाने वाले शहीद स्वयं ही इतिहास में तब्दील हो जाते हैं. यदि कौम सक्षम होती है तो शहीद की शहादत को किसी स्मारक में संजो कर याद करती है. शहादत स्थल राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाता है. शहीद की जन्म तिथि व पुण्य तिथि पर समारोह होते हैं. नई पीढ़ी को शहीद की वीरता के किस्से, पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ाये जाते हैं. शहीद होने वाले कथाओं में नायक बन कर राष्ट्रभक्ति के भाषणो में, अमर हो जाते हैं . शहीदों पर फिल्में बनती हैं, देश भक्ति के गीत लिखे जाते हैं. नई पीढ़ी के बच्चे सूरज की नई किरण के साथ प्रभात फेरियों में शहीद की जय जय कार के नारे लगाते हैं. पर फिर भी अधिकांश यही सोचते हैं, देश के लिये शहीद हों तो, पर मेरे घर से नहीं हाँ मुझे आप पन्ना धाय भी कह सकते हैं. मैने खुद अपने बेटे को शहादत का पाठ पढ़ने दिया. मैं चाहती तो नन्हें भगत को तब ही रोक सकती थी जब उसने घर की क्यारी में जुल्मी अंग्रेजो से लड़ने के लिये, खिलौने की पिस्तौल बीजो की तरह बोई थी जिससे वह क्रांति के लिये हथियार उपजा सके. मैं चाहती तो तब ही उसे रोक सकती थी जब वह दुनियां भर की क्रांति की किताबें पढ़ता था और जुल्मी साम्राज्यवाद से लड़ने की बातें करता था. मैं चाहती तो जबरदस्ती भगत की शादी करवा देती और उसके जीवन के लक्ष्य बदल देती पर इसके लिये  मुझे अपने ही बेटे से प्रतिद्वंदिता करनी पड़ती. मैं भला कैसे सह सकती थी मेरा बेटा आजीवन अपने आपसे ही लड़ता रहे, छटपटाता रहे. सब कुछ कैसा निस्तब्ध था ! कितना व्याकुल था ! हम दोनो माँ बेटे बिना एक शब्द एक दूसरे से कहे कितनी बातें करते रहे थे रात भर. मैंने उसे अपने आगोश में भर लिया था और फिर जो उसे पाश मुक्त किया तो वह सीधा भारत माँ की गोद में जा बैठा, अपने  क्रांतिकारी भाईयों के संग.

मैं तो उस वीर शहीद भगतसिंह की माँ हूँ, जिसने युवाओ में क्रांति के बीज बोये वह भी तब, जब भारत माँ की धरती पर शोषण की फसलें पक रही थी. सर्वहारा बेसहारा खण्ड खण्ड था. मेरे बेटे ने नारा दिया मजदूरो एक हो ! मेरे बेटे ने नारा दिया इंकलाब जिंदाबाद ! मेरे भगत ने यह सब किया बिना किसी अपेक्षा के. बिना किसी प्रतिसाद की कामना के. जानते हैं  मुझे उससे शहादत की सुबह मिलने तक न दिया गया, क्योकि जुल्मी सरकार मेरे बेटे की ताकत पहचान गई थी. मेरे बेटे ने जो नारा लगाया था कैद खाने से, फांसी के फंदे पर चढ़ने से पहले “इंकलाब जिंदाबाद” उसकी अनुगूंज सारे हिंदुस्तान में हो रही है. लगातार बार बार “इंकलाब जिंदाबाद”, इंकलाब जिंदाबाद !

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 79 – देश-परदेश – आप कैमरे👁️ की नज़र में हैं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 79 ☆ देश-परदेश – आप कैमरे👁️ की नज़र में हैं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस प्रकार की चेतावनी सार्वजनिक स्थानों के अलावा निज़ी घरों के बाहर भी पढ़ने को मिल ही जाती है।

कुछ दिन पूर्व किसी महानगर के यातायात पुलिस ने एक महिला को स्कूटर नियमों के उल्लंघन पर एक लाख छत्तीस हज़ार रूपे जुर्माने के साथ सी सी टीवी कैमरे की दो लाख से अधिक क्लिपिंग्स भी भेज दी हैं। ये तो वो ही बात हो गई, होटल में खाया पिया कुछ नहीं, और ग्लास तोड़ा बारह आने। जितने का स्कूटर नहीं, उससे अधिक तो जुर्माना हो गया।

सीसी टीवी कैमरा लगवाने के खर्च में कटौती हो जाने के कारण इसका चलन भी बढ़ गया हैं। कुछ दिन पूर्व एक मित्र को बाज़ार में दूर से देख लिया, परंतु संपर्क नहीं हो सका था। दूसरे दिन उनको दूरभाष से सूचित किया की फलां फलां समय पर आपके घर आए थे, ताला लगा हुआ था। मित्र तुरंत लपक कर बोले, हम बाज़ार गए हुए थे, और वापस आकर सीसी टीवी कैमरा भी खंगाला था। आगंतुकों में आपका चेहरा तो नहीं दिखा। झूठ बोलकर हम फंस गए, क्योंकि कैमरा झूठ नहीं बोलता।

विगत माह एक मित्र के परिवार में विवाह के बाद वो शेष बच गई मिठाई” सोनपापड़ी” का डिब्बा लेकर हमारे घर आए थे। हमने उनसे अपनी शुगर की बीमारी का हवाला देकर मिठाई को सम्मान सहित अस्वीकार कर दिया। हमारी घनिष्ठ मित्रता बचपन से है, उन्होंने हमारी बात का मान रखते हुए धीरे से बताया, कि उनके यहां रात्रि भोज में मेरे खाने की प्लेट में दो गुलाब जामुन और गाजर के हलवे को विवाह की वीडियो में देखा जा सकता हैं। श्रीमतीजी ने भी ये बात सुन ली, और तब से हमारे खाने पीने पर अपनी नज़रों की चौकसी और पुख्ता कर दी है।

हम सब को घर से बाहर हमेशा चौकस और सावधान रहने की आवश्यकता है। अनेक जगह कैमरे तो लगे रहते है, पर उस बाबत कोई सूचना नहीं लिखी मिलती है। इसी प्रकार से कुछ स्थानों पर कैमरे तो लगे हुए है, परंतु काम नहीं करते है। हमारा काम था, आपको सचेत करना, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈