हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 671 ⇒ लव मैरिज ♥ प्रेम-वि…वाह  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लव मैरिज ♥♥ प्रेम-वि…वाह  ।)

?अभी अभी # 671 ⇒ लव मैरिज ♥♥ प्रेम-वि…वाह  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमने शादियां तो कई देखी हैं, आज तक प्रेम विवाह नहीं देखा ! जहां भी हमें शादी ब्याह का मंडप नजर आता, घर हो, धर्मशाला हो या किराए पर लिया गया कोई स्कूल, कॉलेज, छोटी बड़ी होटल अथवा मैरिज गार्डन, हमें वहां सुसज्जित, रोशनी से झिलमिलाते प्रवेश द्वार पर शुभ विवाह ही लिखा नज़र आता। आजकल तो सुविधा के लिए, वर वधू, दोनों पक्षों का नाम, स्वागत द्वार पर ही आसानी से पढ़ा जा सकता है। लो, अपन सही जगह आ गए।

सन् 1959 में देवानंद और माला सिन्हा की एक फिल्म आई थी, लव मैरिज, जिसमें एक प्यारा सा गीत था, धीरे धीरे चल, चांद गगन में। ईश्वर झूठ ना बुलवाए, पहली बार तब ही यह शब्द लव मैरिज, कानों में पड़ा था। यह आसमान वाला चांद, न जाने क्यों, दो प्यार करने वालों का हमेशा गवाह तो होता है, लेकिन गवाही देने कभी नहीं आता। आए भी तो कैसे, अच्छे भले दो दो आंखों वाले प्रेमी को एक रात में दो दो चांद नजर आते हैं, एक घूंघट में और एक बदली में। अब हमारे दिलीप साहब को ही ले लो। फरमाते हैं, एक चांद आसमान में है, एक मेरे पास है। तकदीर देखिए, आज वही चांद इस धरती पर मौजूद है, और यूसुफ साहब, आसमान में तशरीफ ले गए। ।

ये कहां आ गए हम ! बस इसी तरह शायद लोग प्यार में खो जाते होंगे, और एक दूसरे के हो जाते होंगे। फलसफा प्यार का हम क्या जानें, हमने कभी प्यार ना किया, हमने इंतजार ना किया। बस जहां, मां – बाबूजी ने रिश्ता तय किया, एक अच्छे बच्चे की तरह, सर झुकाकर, स्वीकार किया मैने। हां, शादी के बाद, मैने भी प्यार किया !प्यार से कब इंकार किया।

जाहिर है, जिससे शादी की, उससे ही प्यार किया।

आज की भाषा में उसे अरेंज्ड मैरिज कहते हैं।

जब कॉलेज में प्रवेश किया, तब तक प्यार के अलावा, पढ़ाई के सभी सबक सीख लिए थे। कुछ लोग कॉलेज में पढ़ने आते थे, और कुछ प्यार का सबक सीखने। जाने अनजाने, असली नकली, कहीं चोरी छुपे तो कहीं खुले आम, जोड़ियां भी बन जाती थी। कुछ शैतान छात्र, ब्लैक बोर्ड पर संभावित जोड़े का नाम भी लिख देते थे। कुछ जोड़ों को कॉलेज कैंटीन में साथ साथ जाते भी देखा जाता था। कॉलेज को प्रेम की पाठशाला यूं ही नहीं कहा जाता। ।

आज समय बदल गया है।

आज की पीढ़ी को, एक दूसरे को समझने बूझने और करीब आने के कई अवसर मिलते हैं। पसंद, नापसंद आजकल माता पिता के साथ साथ बच्चों की भी होती है। जहां वास्तविक प्रेम है, आपसी समझ है, परिवारों में तालमेल है, संस्कारों में आपसी समझ और उदारता है, वही प्रेम विवाह है।

जिस विवाह में कोई विवाद ना हो, मियां बीवी के साथ साथ काजी भी राजी हो, माता पिता और बड़ों बूढ़ों का आशीर्वाद हो, हंसी खुशी हो, धूमधाम हो, वहां फिर कैसे प्रेम का अभाव हो, बस अंतर अभी भी इतना ही है, हम प्रेम को शुभ तो मानते हैं, लेकिन उसे शुभ विवाह का ही नाम देते हैं। प्रेम ! जान लो, तुम तब ही शुभ हो, जब अग्नि के सात फेरों के बंधन से शुद्ध और संस्कारित हो। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #274 ☆ वक्त और उलझनें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 274 ☆

☆ वक्त और उलझनें… ☆

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 670 ⇒ बड़ी और बड़ा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़ी और बड़ा।)

?अभी अभी # 670 ⇒ बड़ी और बड़ा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बड़ी और बड़े में कौन बड़ा ? अगर यह सवाल पूछा जाए तो इसका उत्तर तो सवाल में ही निहित है। दिखने में तो बड़ा ही बड़ा लगता है और बड़ी छोटी ! लेकिन ऐसा है नहीं ! दोनों बड़े हैं, बड़ी में तो मात्रा भी बड़ी की ही है जब कि बड़े में कभी आ की मात्रा लग जाती है तो वह बड़ा भी बन जाता है। लेकिन बिग बी में भी बड़ी की मात्रा है फिर भी वह बड़ी नहीं बना, बिग बी ही बना रहा।

हमें हमेशा यही सिखाया गया है कि बड़ों का सम्मान करो, किसी ने नहीं कहा, बड़ी का भी सम्मान करो। बड़ी में मात्रा तो एक ही होती है लेकिन अगर वह बड़ी होती है तो बहुत बड़ी भी हो सकती है। एक बिग बी ने केवल बड़ी का ही नहीं, बहुत बड़ी का भी यह अधिकार छीन लिया और जया को इतना छोटा कर दिया। जया भी अब बड़ी है, कोई ऋषिकेश मुखर्जी की गुड्डी नहीं, कुछ बोलती क्यों नहीं।।

कल मैंने बड़ी खाई। कुछ लोग उसे मुंगौड़ी भी कहते हैं। यह बड़े से छोटी होती है। इसे बनाकर सुखाया जाता है जब कि बड़े को तलकर पानी में भिगोया जाता है। जो सूख गई वह बड़ी बन गई, जो बड़ा भीग गया, उसके दिमाग का दही हो गया। वह अब जोशी का दही बड़ा हो गया। अब उसका नमक, मिर्ची, भुना हुआ धनिया और इमली की चटनी के साथ अभिषेक होगा। नसीब अपना अपना।

जो जीवन में केवल बड़े रह जाते हैं, उन्हें भी बेसन, प्याज और मसालों के साथ कड़ाही में तल लिया जाता है। बड़े जल भुन जाते हैं बेचारे, लेकिन युवा पीढ़ी क्या चटखारे ले लेकर उनके मज़े लेती है। वे भी सोचते होंगे, काश हम बड़े न होते तो ये दिन तो न देखना पड़ते।।

हमारी बड़ी की दास्तान बड़ी विचित्र है। वह मूंग की बड़ी यूं ही नहीं कहलाती। एक ज़माने में उसे सिल बट्टे पर नमक, हींग, अदरक, हरा धनिया और खड़ी लाल मिर्ची के साथ दरदरा पीसा जाता था। दरदरा पीसने में बड़ी को दर्द नहीं होता। बाद में वह पहले नाज़ुक, सधे हुए हाथों से एक महीन से कपड़े पर तोड़ी जाती है फिर ठंड की तेज धूप में सुखाई जाती है। अंतर देखिए बड़े और बड़ी में। बड़ा बेचारा कढ़ाई में तला जा रहा है और उधर हमारी बड़ी गुनगुनी धूप में विटामिन डी ग्रहण कर रही है।

रोज छत पर धूप आते ही बड़ी आराम से धूप में पसर जाती है। उसे कोई लाज शरम नहीं। उसी के पास कुछ कांच की बरनियों में नीबू मिर्ची के अचार भी धूप खा रहे होते हैं। अच्छा वक्त कट जाता है।।

बड़ा होना जितना आसान है, बड़ी बनना इतना सरल नहीं। धूप में कड़ी तपस्या के बाद ही बड़ी सुरक्षित पात्र में संजोकर रखी जाती है। उसे सालों साल गृहस्थी चलाना है। बड़ों जैसा नहीं, कि घर से बाहर, होटलों में, खोमचों में मटकते फिरें। इधर कढ़ाई से उतरे, उधर साफ।

जिस घर में बड़ा – बड़ी, दोनों होते हैं, वहां बड़ा तो यार दोस्तों में उलझा रहता है। घर में ज़्यादा टिकता नहीं। जब भी घर आता है, बड़ी पर हुक्म चलाता है। जब कि बड़ी चूंकि अब बड़ी हो गई है, उसे कायदे से रहना पड़ता है।

वह घर से बाहर कदम नहीं रख सकती। वह घर की इज्जत है। जिस दिन घर में कोई सब्जी नहीं होती, घर में बड़े की नहीं, बड़ी की ही पूछ होती है।।

बड़ी को सबके साथ मिल जुलकर रहने की आदत है। वह आलू, टमाटर तो ठीक उबल हुए देसी चनों के साथ भी तालमेल बिठा लेती है। आप कुछ भी कह लें, घर की बड़ी बाहर के बड़े से लाख गुना बेहतर है, स्वादिष्ट है, गुणी है। अगर बड़ा, बड़ा है तो बड़ी, बड़ी है, कभी पिसी, तो कभी खड़ी है। हमें हमेशा बड़ों का ही नहीं, अपनों से बड़ी का भी आदर करना चाहिए …!!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ || गोरखपुर दर्शन || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ || गोरखपुर दर्शन || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

घाघरा एवं राप्ती नदी के किनारे नेपाल सीमा के समीप बसा हुआ आधुनिक इतिहास के अनुसार गोरखपुर की शुरुआत 1829 में हुआ। गोरखपुर को इसी नाम का एक डिवीजन घोषित किया गया।

हिंदू प्रसिद्ध संत गोरखनाथजी के नाम पर पड़ा शहर जो योगी मत्स्येन्द्रनाथ जी के शिष्य थे।

इतिहास के अनुसार गोरखपुर एक महत्वपूर्ण मुस्लिम छावनी एवं डिवीजन मुख्यालय हुआ करता था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शहर के आसपास के क्षेत्रों पर अपना अधिकरण किया। कभी मुगल शासक अकबर के अधीन हुआ शहर 1934 में आये भूकंप से क्षतिग्रस्त हो गया था।

वर्तमान गोरखपुर

कृषि उत्पादन, उद्योग व्यवस्था के साथ साथ कपड़ा निर्माण, छपाई, चीनी मिलों से परिपूर्ण नज़र आता हैं। गोरखपुर परिवाहन केन्द्र अन्य शहर को जोड़ने का प्रमुख कार्य कर रहा है।

नदी के समीप स्थित होने के साथ ही गोरखपुर तटबंध शहर को बाढ़ के खतरे से हमेशा सुरक्षित रखता है।

यहाँ का दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय एवं पुरातत्व संग्रहालय शहर के अस्तित्व में चार चाँद लगाते हैं।

गोरखपुर शहर में आये पर्यटकों के लिए घूमने के लिए विभिन्न स्थान है।

गोरखपुर मंदिर, गीताप्रेस जहाँ गौरव गाथा हैं वहीं दूजी ओर भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के महत्वपूर्ण चौरीचौरा स्मारक एवं इमामबाड़ा की ऐतिहासिक इमारत नज़र आती है।

शहर के बीचों बीच सौन्दर्य में सिमटे रामगढ़ ताल हृदय को प्रफुल्लित करता है वही  नक्षतशाला आकर्षण का केन्द्र है। तरकुलहा मंदिर एवं बुढियाँ माँ का मंदिर स्थानीय लोगों की आस्था का केंद्र है।

बुद्ध के मृत्यु का स्थान  गोरखपुर के पास होने के वजह से शहर में भीड़ जुटाने में हमेशा संक्षम रहा है।

मगहर- लुम्बिनी बुद्ध से जुड़ा हुआ है वही अखिल भारतीय आयुविज्ञान संस्थान गोरखपुर की नींव है। यहाँ दूर दराज़ के लोग उपचार हेतु आतें है।

गोरखपुर छावनी के पास कुसम्ही जंगल है जहाँ हरियाली और जीव जन्तुओं की रक्षा हेतु सरकार की बहुत बड़ी परियोजना है वही शहर में चिड़िया घर पर्यटन का केंद्र है।

यहाँ की प्रमुख मिठाइयों में खाजा, बेसन के लड्डू, पेड़े और कलाकंद लोगों को लुभाते नज़र आते हैं।

गोरखपुर आने वाले पर्यटक ज्यादातर नेपाल भी घूमने चले जाते हैं गोरखपुर एयरपोर्ट की सुविधा हमेशा  विदेशों से लोगों को जोडकर रखता है।

यहाँ का रेलवे जंक्शन खुद एक उपलब्धि है।

गोरखपुर का मौसम यंत्र जहाँ पूर्व के अनुमान बता देते हैं वही नौकाविहार प्राकृतिक सुंदरता एवं आनंद मुम्बई और गोवा कि याद दिला देते हैं

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ लुगदी साहित्य व छद्म लेखन –की दुनिया… ☆ श्री यशवंत कोठारी ☆

श्री यशवंत कोठारी

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री यशवन्त कोठारी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आपके लगभग 2000 लेख, निबन्ध, कहानियाँ, आवरण कथाएँ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, नवज्योती, राष्ट्रदूत साप्ताहिक, अमर उजाला, नई दुनिया, स्वतंत्र भारत, मिलाप, ट्रिव्यून, मधुमती, स्वागत आदि में प्रकाशित/ आकाशवाणी / दूरदर्शन …इन्टरनेट से प्रसारित। अमेज़न KINDLE , pocket FM .in पर ऑडियो बुक्स व् Matrbharati पर बुक्स उपलब्ध। 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। सेमिनार-कांफ्रेस:– देश-विदेश में दस राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों में आमंत्रित / भाग लिया। राजस्थान साहित्य अकादमी की समितियों के सदस्य 1991-93, 1995-97 , ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार की राजभाषा समिति के सदस्य-2010-14.)

आलेख ☆ लुगदी साहित्य व छद्म लेखन –की दुनिया… ☆ श्री यशवंत कोठारी ☆

पिछले दिनों यू ट्यूब पर लुगदी साहित्य व प्रेत लेखन के बारे में कुछ नई जानकारियां मिली. यशवंत व्यास ने इस क्षेत्र में कई लोगों से मुलाकात की और कई जानकारियां जुटाई. एक पुरानी दुनिया से नया साक्षात्कार हुआ, उसी पर एक श्रोता –दर्शक के रूप में मेरी यह टीप.

इस क्रम में मैंने सुरेन्द्र मोहन पाठक, मिथिलेश गुप्ता आबिद सुरती, योगेश मित्तल, वेद प्रकाश काम्बोज, वेद प्रकाश शर्मा, परशुराम शर्मा, प्रदीप चन्द्र, फारूख अर्गली, सुबोध भारतीय, एस हुसैन जैदी, जैसे पल्प लेखकों, उनके जीवन, प्रकाशकों के किस्से भी सुने.

दिल्ली मेरठ, मुंबई, बेंगलोर भी चर्चा में आये. योगेश जी की पुस्तक –प्रेत लेखन भी देखी. गुलशन नंदा, चेतन भगत का भी जिक्र आया. 300 -400 उपन्यासों के लेखन के बाद भी लेखकों की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं हो पाई. एक प्रकाशक ने तो तीस रूपये में ही उपन्यास ले लिया. प्रकाशक लेखक से किताब ले कर अपने ट्रैड मार्क से छाप लेते थे. उपन्यासों में चरित्र तक कोपी राइट करते थे, नक़ल करना मामूली बात थी. मिलते जुलते नामों से सेकड़ों किताबें छपती थी. पाठक जी के अलावा कोई भी कोर्ट में नहीं गया. पाठक जी ने केस जीते.

भारतीय फिल्मों, पत्रकारिता व मंचीय कविता में घोस्ट राइटिंग तो लम्बे समय से चल रहा है. अख़बारों की दुनिया में भी प्रेत लेखन चलता है. सॉफ्ट वेयर में भी कोपी राईट के मामले आये हैं.

योगेश मित्तल तो गायक भी है संगीत की भी जानकारी रखते हैं, अभिनय भी किया है, सब से खास बात ये की पाठक जी के अलावा सभी स्वतंत्र लेखक है, मसिजीवी रहे हैं, आज इस की कल्पना भी नहीं की जा सकती. छद्म लेखन की यहीं कहानी हर बार दोहराई जाती है.

प्रेत लेखकों का कहना था की जो किताब हमारे नाम से नहीं छपती और बिकती वहीँ किताब रजिस्टर्ड लेखकों के नाम से बिकती थी. मेरठ में तो सेकड़ों पॉकेट बुक्स के प्रकाशक हो गए, लेकिन अब यह सब समाप्ति की ओर है, लेकिन मिथिलेश के अनुसार ये सभी अब ऑडियो के रूप में चल सकते हैं, ऑडियो बुक्स या पॉडकास्ट का भविश्य है एफएम रेडियो इसी लाइन पर काम कर रहे हैं लेकिन पाठक अलग था और आज का श्रोता अलग है नए पाठक या नए श्रोता ढूँढना कोई आसान काम नहीं है.

कुकूएफएम व अन्य सेकड़ों एफएम बाज़ार में हैं कई दैनिक पत्र पत्रिकायें भी पॉडकास्ट पर काम कर रहे हैं. शिविका झरोखा व मातृभारती ने भी काम किया है. कुछ लोग गूगल की मदद से पोड कास्ट बना रहे हैं लेकिन गुणवत्ता कमज़ोर है.

भविष्य में किताबों की ऑडियो सी डी चलेगी, जो आवाज़ में होंगे.

मुख्य धारा का साहित्य ओर लोकप्रिय साहित्य की यह बहस आगे भी चलती रहेगी. देवकी नंदन खत्री, कुशवाहा कान्त, दत्त भारती, मस्तराम, पम्मी, संगीता और ऐसे सेकड़ों नाम जेहन में आते हैं, कर्नल रणजीत, मेजर बलवंत का नाम भी खूब चला था. पॉकेट बुक्स के वे दिन भी क्या दिन थे?. गुलशान नंदा ने जो झंडे गाड़े उन का क्या कहना. उनके बारे में एक किस्सा मशहूर है की वे दिल्ली एयर पोर्ट पर उतरते तो प्रकाशक अटेची ले कर खड़े रहते थे, जिसको पाण्डुलिपि दे देते वो प्रकाशक निहाल हो जाता.

साक्षरता बढ़ी, जनसँख्या बढ़ी आय बढ़ी लेकिन पाठक श्रोता नहीं बढे. नयी वाली हिंदी का शोर तो खूब है लेकिन आधार कमज़ोर है, इस क्षेत्र के लेखक दूसरी तीसरी किताब तक आने में ही हांफने लग जाते हैं.

छद्म लेखकों का कहना है की किताब तेयार करने में बहुत ज्यादा होम वर्क करना पड़ता है, लेकिन मिलता क्या है ? यही सब से बड़ा यक्ष प्रश्न है. आबिद सुरती तो सब किस्मत पर छोड़ देते हैं. पल्प फिक्शन पर फिल्म भी बनी है.

हिंदी व भारतीय भाषाओँ में पल्प साहित्य पर बहुत काम करने की आवश्यकता है.

(यशवंत व्यास के यू ट्यूब चैनल पर आधारित)

©  श्री यशवन्त कोठारी

संपर्क – 701, SB-5, भवानी सिंह रोड, बापू नगर, जयपुर -302015 मो. -94144612 07

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 670 ⇒ अपेक्षा और उपेक्षा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपेक्षा और उपेक्षा।)

?अभी अभी # 670 ⇒ अपेक्षा और उपेक्षा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अपेक्षा अगर अवसाद की जननी है, तो उपेक्षा अपमान की जड़ है। अपनों से ही अपेक्षा होती है, परायों की अक्सर उपेक्षा होती है।

क्षण खुशी के हों, या दुःख के, सबसे पहले अपने ही याद आते हैं। थोड़ी भी परेशानी हुई, सबसे पहले अपनों को याद किया जाता है। कभी कभी संकोच भी होता है, समस्या बताने में ! तो कहा जाता है, अपनों से कैसी शर्म, कैसा संकोच। खुलकर कहो, क्या बात है। अपनों से बेतकल्लुफी का यह आलम होता है कि शायर तो कह उठता है, शर्म अपनों से करोगी तो शिकायत होगी।

अपेक्षा का दूसरा नाम उम्मीद है, भरोसा है। मुसीबत में अपना ही काम आता है। कितनी भी बेटी बचा लो, वंश तो बेटा ही चलाता है। बुढापे की लाठी होता है बेटा। लड़की तो पराई जात है।।

लेकिन जब अपने ही काम नहीं आते, बुढापे की लाठी, वंश को चलाने वाला, एकमात्र सहारा, जब पत्नी को लेकर काम के बहाने परदेस चला जाता है, तो अपेक्षा, मन मसोसकर रह जाती है। अकेलापन काटने को दौड़ता है। इससे तो लड़का नहीं होता तो अच्छा था। इसी दिन के लिए बेटा पैदा किया था।

लोग बहुत समझाते हैं, सबकी अपनी अपनी मज़बूरियां हैं लेकिन मन को तसल्ली नहीं होती। लोग दोस्तों से उम्मीद लगाए बैठते हैं। दोस्त वही, जो मुसीबत में काम आए। A friend in need, is a friend indeed. जो मुसीबत में काम नहीं आया, वह काहे का दोस्त ! आज से दोस्ती ख़त्म।।

जहाँ से हमें अपेक्षा हो, वहाँ से बदले में अगर उपेक्षा मिले, तो मन न केवल दुःखी और विक्षिप्त होता है, हम अपमानित भी महसूस करते हैं। अपेक्षित व्यवहार तो अपनों, परायों सब से होता है। आप जिससे अच्छी तरह परिचित हैं, अगर दस लोगों के बीच वह आपकी उपेक्षा करेगा, तो आपको बुरा तो लगेगा ही। यह व्यवहार-कुशलता का तकाजा है कि परिचित लोगों से मिलने पर औपचारिक कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान न सही, कम से कम अभिवादन तो किया ही जाए।

दफ़्तर में सुबह जाते ही, गुड मॉर्निंग से एक दूसरे का अभिवादन किया जाता है। अगर आपको अपने अभिवादन का प्रत्युत्तर नहीं मिलता, तो आप उपेक्षित महसूस करते हैं। आगे से आप भी उसे गुड मॉर्निंग कहना छोड़ देंगे। ताली दो हाथ से बजती है। हम जैसा व्यवहार लोगों से करेंगे, वैसा ही व्यवहार हमें उनसे मिलेगा। उपेक्षा और अपमान में ज़्यादा अंतर नहीं होता।।

अपेक्षा एक मानवीय गुण है और उपेक्षा एक असहज स्थिति ! मेहनत के बाद फल की अपेक्षा स्वाभाविक ही है। अब तो बेलि फैल गई, आणंद फल होई। यही आस, यही उम्मीद, भक्त को भगवान से और आत्मा को परमात्मा से मिलाती है। आस ही अपेक्षा है, निरास अवसाद की स्थिति। इन दोनों से इंसान को गुजरना पड़ता है। उसकी उपेक्षा भी होती है, उसका अपमान भी होता है।

अपेक्षा किसी से न करें ! जो मिल गया, उसे मुकद्दर समझें, जो खो गया, मैं उसको भुलाता चला गया। पुरानी फ़िल्म दुश्मन (1939) में कुंदनलाल सहगल का एक गीत है, जिसमें आशा और निराशा, अपेक्षा और अवसाद, दोनों स्थितियों का बड़ा सुंदर वर्णन किया गया है। करूँ क्या आस, निरास भयी की स्थिति से कहो ना आस निरास भयी, तक का, मानवीय संवेदनाओं का, सुंदर चित्रीकरण है यह अमर गीत।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 669 ⇒ सर, जी सर और सर जी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सर, जी सर और सर जी।)

?अभी अभी # 669 ⇒ सर, जी सर और सर जी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिन्हें आप देशकाल और भाषा के दायरे में नहीं बांध सकते। आदमी जहां जाता है, वहां अपनी भाषा साथ ले जाता है, लेकिन जब वापस आता है, तो कुछ छोड़कर आता है, और कुछ लेकर जाता है। शायद इसीलिए भाषा और संस्कृति का भी आपस में गहरा संबंध होता है।

अंग्रेज चले गए, अंग्रेजी छोड़ गए, लेकिन वे साथ में हमारी भाषा और संस्कृति का कुछ हिस्सा भी साथ गए। अच्छाई को कौन देश और दायरे के बंधन में बांध पाया है। भाषा भी बड़ी सरल और मासूम होती है, बड़ी आसानी से परिस्थिति के अनुसार ढल जाती है। ।

हमारे श्रीमान, महाशय, जनाब कब सर हो गए, हमें पता ही नहीं चला। सरकारी स्कूल के उपस्थित महोदय, समय के साथ प्रेजेंट सर और येस मेम हो गए। अगर आप श्री रविशंकर लिखते हैं, तो मन में सितार बजने लगता है, और अगर श्रीश्री रविशंकर लिखते हैं, तो आपके अंदर सुदर्शन क्रिया शुरू हो जाती है।

आजादी के पहले सर उपाधि भी होती थी। याद कीजिए सर जगदीशचंद्र बसु, सर यदुनाथ सरकार और सर शादी लाल। सरकार शब्द में सर का कितना योगदान है, यह शोध का विषय हो सकता है, क्योंकि हमारे यहां तो राज होता था, राजा महाराजा होते थे, उनके राज्य होते थे।।

आजादी के बाद, बोलचाल में भी सर ऐसा सरपट दौड़ा कि फिर उसने कहीं रुकने का नाम ही नहीं लिया। छोटा अफसर हो, बड़े बाबू हों या चपरासी, सब सर के आसपास ही सर सर कहते फिरते रहते थे। दफ्तर में आते वक्त गुड मॉर्निंग सर, और जाते वक्त, गुड नाईट सर मानो प्रोटोकॉल हो गया हो।

पता ही नहीं चला कि सर कब, जी सर हो गया। हां में हां मिलाना ही तो जी सर, जी सर होता है। वैसे भी नौकरशाही में तो जी सर, तकिया कलाम ही हो चला है। बात बात में जी सर सुनकर बड़ी कोफ्त होने लगती है।।

तीतर के दो आगे तीतर की तरह, सर के भी आगे जी लग जाता है तो कभी पीछे जी। दफ्तर का जी सर, कब घर में आते ही सर जी हो गया, कुछ पता ही नहीं चला। कॉलेज के प्रोफेसर को भी तो हम सर ही कहते हैं। थीसिस अधूरी पड़ी है, सर को फुर्सत नहीं है। कभी परीक्षा तो कभी चुनाव और शिक्षा के सेमिनार अलग। जब भी घर पर फोन करो, यही जवाब मिलता है, सर जी तो अभी आए ही नहीं।

शिक्षा के क्षेत्र में तो वैसे भी सरों का ही बोलबाला है। प्राइमरी के भी सर और यूनिवर्सिटी के भी सर, सब सर बराबर। कोचिंग इंस्टीट्यूट में तो गुप्ता सर, माहेश्वरी सर और बंसल सर। सभी टॉप के सर, और क्या टॉप का रिजल्ट।।

होटल में सर जी आप क्या लेंगे तो ठीक, लेकिन जब ऑटो वाला भी पूछता है, सर जी, कहां जाना है, तो मन में अच्छा ही लगता है। जो अपनापन, प्रेम और सम्मान सर जी में है, वह जी सर में कहां ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 129 – देश-परदेश – सड़क संगीत ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 129 ☆ देश-परदेश – सड़क संगीत ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सड़क पर यातायात रोक कर कई स्थानों पर संगीत की महफिलें सजाई जाती हैं। अभी विवाह का सीजन भी चल रहा है, बैंड वादक सड़कों पर नागिन, भांगड़ा, ट्विस्ट और लोक संगीत की धुनें खूब बजती हैं।

उपरोक्त समाचार पढ़ा तो मन अत्यंत प्रसन्न हुआ, कि अब कान फाड़ू, तीखे और प्रैशर हॉर्न नहीं बजेंगे। उसके स्थान पर अब बांसुरी, तबला, वीणा और हारमोनियम जैसे भारतीय वाद्य यंत्रों की धुनों वाले हॉर्न बजेंगे।

कितना अच्छा समय होगा, आप को जब संगीत सुनने का मन कर रहा हो, किसी भी लाल बत्ती के पास किनारे पर खड़े होकर संगीत का लाभ ले सकते हैं। हम तो विचार कर रहें है, कि अपना निवास किसी हाइवे के पास ले लेवें। अभी नई योजना है, बाद में तो हाइवे के आसपास के घरों की कीमत बेहतशा बढ़ जाएगी।

आप कल्पना कीजिए सड़क पर एक गाड़ी तबला बजा रही है, तो दूसरी हारमोनियम क्या जुगलबंदी का माहौल बन जाएगा।

घर के बाहर जब कोई वीणा की आवाज सुनाई देगी या दूसरी कोई वाद्य यंत्र की आवाज ही उसकी पहचान बन जाएगी। हम बच्चों को बता सकेंगे कि तुम्हारा बांसुरी वाला दोस्त आया था या तबले वाली कुलीग आई थी। मोहल्ले में लोग आपके बच्चों के वाहन में लगे हुए वाद्य यंत्र के हॉर्न से पहचाने जाएंगे। हारमोनियम वाले का बाप या तबलची की अम्मा इत्यादि।

हमारे मोबाइल की ट्यून कब भारतीय वाद्य यंत्रों पर आधारित होगी, इंतजार हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 668 ⇒ पेन पेंसिल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पेन पेंसिल ।)

?अभी अभी # 668 ⇒ पेन पेंसिल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन, पढ़ने लिखने का नाम, पढ़ते रहो सुबहो शाम ! हमारे जमाने में ऐसी कोई नर्सरी राइम नहीं थी।

हम जब पैदा हुए थे, तब सुना था, हमारी मुट्ठी बंद थी, और हमसे यह पूछा जाता था, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, तब तो हम जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि उनके पास अपना खुद का जवाब मौजूद था, मुट्ठी में है, तकदीर हमारी। लेकिन हमने तो जब हमारी मुट्ठी खोली तो उसमें हमने पेन – पेंसिल को ही पाया।

न जाने क्यों इंसान को अक्षर ज्ञान की बहुत पड़ी रहती है। जिन बच्चों के हाथों में झुनझुना और गुड्डे गुड़िया होना चाहिए, उन्हें अनार आम, और एबीसीडी भी आनी ही चाहिए। सबसे पहले एक गिनती वाली पट्टी आती थी, जिसमें गोल गोल प्लास्टिक की रंग बिरंगी गोलियां दस तार वाले खानों में जुड़ी रहती थी। एक से सौ तक की गिनती उन प्लास्टिक की गोलियों से सीखी जाती थी और पट्टी, जिसे स्लेट कहते थे, पर चार उंगलियों और एक अंगूठे के बीच मिट्टी की कलम, जिसे हम पेम कहते थे, पकड़ा दी जाती थी। जब तक आप ढंग से पेम पकड़ना नहीं सीख लेते, आपकी अक्षर यात्रा शुरू ही नहीं हो सकती।।

ढाई अक्षर तो बहुत दूर की बात है, जिन हाथों में हमारी तकदीर बंद है, वह जिन्दगी की स्लेट पर एक लकीर ढंग से नहीं खींच पा रहा है। आज जिसे इमोजी कहा जा रहा है, ऐसे कई इमोजी बन जाने के बाद, जब तक, अ अनार का, A, एबीसीडी का, और चार अंक, १, २, ३, ४ के नहीं लिख लिए जाते, भैया होशियार नहीं कहलाए जाते थे। एक, दो, तीन, चार, लो भैया बन गया होशियार।

तुमने कितनी पेम तोड़ी है, और कितनी पेम खाई है, आज हमसे कोई हिसाब भले ही ना मांगे, लेकिन हमने पेम भी खाई है, और मार भी खाई है। मिट्टी में पैदा हुए, अपने देश की मिट्टी ही खाई है, कोई रिश्वत नहीं खाई। ।

लेकिन हम पेम वालों को समय रंग बिरंगे पेन और पेंसिलों से ज्यादा दूर नहीं रख पाया। हमारे हाथ में स्लेट और पेम पकड़ाकर जब बड़ा भैया कागज पर पेन पेंसिल से लिखता था, तो हम सोचते थे, कल हम भी बड़े होंगे, शान से पट्टी पेम की जगह, कॉपी में पेंसिल पेन से लिखेंगे। लेकिन हमारे भैया ने कभी हमें कभी पेन पेंसिल को हाथ नहीं लगाने दिया। गर्व से डांटकर कहता, तुम अभी बच्चे हो, तोड़ डालोगे। और हमारा दिल टूट जाता।

पेम से ढाई आखर सीखने के बाद, हमारी नर्सरी में कागज और पेंसिल का प्रवेश होता था। बहुत टूटती थी, पेंसिल की नोक, तब हम शार्पनर नहीं समझते थे। नादान थे, ब्लेड से पेंसिल छीलने पर उंगली भी कटती थी, और मार भी खाते थे।

तकदीर का लिखा तो खैर, कौन मिटा सकता है, लेकिन पेंसिल का लिखा, जरूर इरेज़र से मिटाया जा सकता है।।

हम तब तक पेन के बहुत करीब आ गए थे। कलम दवात, पेन का ही अतीत है। पुरातन और सनातन तक हम नहीं जाएंगे, बस सरकंडे की कलम थी, जो बाद में होल्डर बन गई और स्याही दवात में बंद हो गई।

पेन, पेंसिल और होल्डर में एक समानता है, इनमें नोक होती है। बस यही नोक ही लेखन की नाक है। पेंसिल की नोक की तरह पेन देखो, पेन की धार देखो।

Pen is mightier than sword. किसी ने लिख मारा। और पढ़े लिखे लोगों में आपस में तलवारबाजी चलने लगी। ।

आज के इस हथियार को जब हम कल देखते, तो बड़ा आश्चर्य होता था, ढक्कन वाला पेन, जिसमें एक स्टैंड भी होता था, खीसे में लगाने के लिए। पीतल की, स्टील की अथवा धारदार निब,

जिसके नीचे एक सहारा और बाद में आंटे वाला हिस्सा, जिसे खोलकर पेन में ड्रॉपर से स्याही, यानी camel ink, भरी जाती थी। गर्मियों में कितने हाथ खराब हुए, कितने कंपास, बस्ते और कपड़े इस पेन के चूने से खराब हुए, मत पूछिए। आज कोई यकीन नहीं करेगा।

पेन पेंसिल का साथ जितना हमें मिला, उतना आज की पीढ़ी को नहीं मिल रहा। सुंदर लेखन, स्वच्छ लेखन और शुद्ध लेखन, मन और विचार दोनों को बड़ा सुकून देता है। बिना पढ़े लिखे, कोई हस्ताक्षर कभी बड़ा नहीं बनता। समय का खेल है। Only Signatories become Dignitaries.

आज हो गए हम डिजिटल, पढ़ लिख लिए, ईको फ्रेंडली हो गए, कागज़ बचाने लग गए, घर में ही एंड्रॉयड प्रिंटिंग स्टूडियो और फोटो स्टूडियो खोलकर बैठ गए। आप चाहो तो घर में ही एकता कपूर बन, एक फिल्म प्रोड्यूस कर नेटफ्लिक्स पर डाल दो।

अपने अतीत को ना भूलें। बच्चों को पट्टी पेम, काग़ज़, किताबें और पैन पेंसिल से भी जोड़े रखें। स्कूल भी ब्लैक बोर्ड और चॉक खड़ू (crayon) से जुड़े रहें। ऑनलाइन से कभी कभी ऑफलाइन भी हो जाएं।

जीवन में थोड़ा नर्सरी, के.जी. भी हो जाए। पट्टी के साथ पहाड़ा भी हो जाए ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 286 – संवेदनशून्यता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 286 ☆ संवेदनशून्यता… ?

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में आतंकियों ने 28 निहत्थे लोगों की नृशंस हत्या कर दी। इस अमानुषी कृत्य के विरुद्ध देश भर में रोष की लहर है। भारत सरकार ने कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को घेरना शुरू कर दिया है। तय है कि शत्रु को सामरिक दंड भी भुगतना पड़ेगा।

आज का हमारा चिंतन इस हमले के संदर्भ में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर हमारी सामुदायिक चेतना को लेकर है।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी अभिव्यक्ति / उपलब्धियों / रचनाओं को साझा करने का सशक्त एवं प्रभावी माध्यम हैं। सामान्य स्थितियों में सृजन को पाठकों तक पहुँचाने, स्वयं को वैचारिक रूप से अभिव्यक्त करने, अपने बारे में जानकारी देने की मूलभूत व प्राकृतिक मानवीय इच्छा को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है।

यहाँ प्रश्न हमले के बाद से अगले दो-तीन दिन की अवधि में प्रेषित की गईं पोस्ट़ों को लेकर है। स्थूल रूप से तीन तरह की प्रतिक्रियाएँ विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर देखने को मिलीं। पहले वर्ग में वे लोग थे, जो इन हमलों से बेहद उद्वेलित थे और तुरंत कार्यवाही की मांग कर रहे थे। दूसरा वर्ग हमले के विभिन्न आयामों के पक्ष या विरोध में चर्चा करने वालों का था। इन दोनों वर्गों की वैचारिकता से सहमति या असहमति हो सकती है पर उनकी चर्चा / बहस/ विचार के केंद्र में हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं सुरक्षा पर हुआ यह आघात था।

एक तीसरा वर्ग भी इस अवधि में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय था। बड़ी संख्या में उनकी ऐसी पोस्ट देखने को मिलीं जिन्हें इस जघन्य कांड से कोई लेना-देना नहीं था। इनमें विभिन्न विधाओं की रचनाएँ थीं।  इनके विषय- सौंदर्य, प्रेम, मिलन, बिछोह से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक आदि थे। हास्य-व्यंग के लेख भी डाले जाते रहे। यह वर्ग वीडियो और रील्स  का महासागर भी उँड़ेलता रहा। घूमने- फिरने से लेकर हनीमून तक की तस्वीरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर की जाती रहीं।

यह वर्ग ही आज हमारे चिंतन के केंद्र में है। ऐसा नहीं है कि किसी दुखद घटना के बाद हर्ष के प्रसंग रुक जाते हैं। तब भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि मोहल्ले में एक मृत्यु हो जाने पर मंदिर का घंटा भी बांध दिया जाता है। किसी शुभ प्रसंग वाले दिन ही निकटतम परिजन का देहांत हो जाने पर भी यद्यपि मुहूर्त टाला नहीं जाता, पर शोक की एक अनुभूति पूरे परिदृश्य को घेर अवश्य लेती है। पड़ोस के घर में मृत्यु हो जाने पर बारात में बैंड-बाजा नहीं बजाया जाता था। कभी मृत्यु पर मोहल्ले भर में चूल्हा नहीं जलता था। आज मृत्यु भी संबंधित फ्लैट तक की सीमित रह गई है। राष्ट्रीय शोक को सम्बंधित परिवारों तक सीमित मान लेने की वृत्ति गंभीर प्रश्न खड़े करती है।

इस वृत्ति को  किसी कौवे की मृत्यु पर काग-समूह के रुदन की सामूहिक काँव-काँव सुननी चाहिए। सड़क पार करते समय किसी कुत्ते को किसी वाहन द्वारा चोटिल कर दिए जाने पर आसपास के कुत्तों का वाहन चालकों के विरुद्ध व्यक्त होता भीषण आक्रोश सुनना चाहिए।

हमें पढ़ाया गया था, “मैन इज़ अ सोशल एनिमल।” आदमी के व्यवहार से गायब होता यह ‘सोशल’ उसे एनिमल तक सीमित कर रहा है। संभव है कि उसने सोशल मीडिया को ही सोशल होने की पराकाष्ठा मान लिया हो।

आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

( 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

कठोपनिषद, सामुदायिकता को प्रतिपादित करता हुआ कहता है-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

ऐसा नहीं लगता कि सोशल मीडिया पर हर्षोल्लास के पल साझा करनेवाले पहलगाम कांड पर दुखी या आक्रोशित नहीं हुए होंगे पर वे शोक की जनमान्य अवधि तक भी रुक नहीं सके। इस तरह की आत्ममुग्धता और उतावलापन संवेदना के निष्प्राण होने की ओर  संकेत कर रहे हैं।

कभी लेखनी से उतरा था-

हार्ट अटैक,

ब्रेन डेड,

मृत्यु के नये नाम गढ़ रहे हम,

सोचता हूँ,

संवेदनशून्यता को

मृत्यु कब घोषित करेंगे हम?

हम सबमें सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ अंतर्निहित हैं। वांछनीय है कि हम तटस्थ होकर अपना आकलन करें, विचार करें, तदनुसार क्रियान्वयन करें ताकि दम तोड़ती संवेदना में प्राण फूँके जा सकें।

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 6:57 बजे, शनिवार 26 अप्रैल 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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