सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।

ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में आपकी कविता स्पंदन शीर्षक से प्रकाशित की गई थी जिसे पाठकों का भरपूर प्रतिसाद मिला। आपके जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद जो सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकेंगे। )  

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -2 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

माँ और पिताजी को तूफानी संकटों का सामना करना पडेगा। इसका मुझे पूरा पता चल गया था। उन्होने संकटों को पूरी तरह से समझ लिया था। मेंरे सामने उन तूफानी संकटों के बारे में कुछ भी, कोई भी चर्चा नहीं  करते थे। मेंरे भाई बहन के समान ही मुझे समझते थे।

पाठशाला में भी रहन सहन बातें करने में बहुत ही मर्यादा का पालन करना पडता था। पाठशाला में जब मैं जाती थी बहुत छोटी थी। ऐसा आज मैं बता सकती हूँ। इतनी समझ उस वक्त मुझे नहीं  आई थी। यह सब कमियाँ लिख नहीं सकती। सहेलियों को मैं नहीं  देख सकती थी। उनका मुँह देख नहीं  सकती थी, टीचर को भी नहीं  देख सकती थी। ग्राउंड पर भी नहीं  जा सकती थी। मालूम नहीं होता था सुंदर कलाकृति का डिझाईन उसका रंग भी कभी नहीं  देख सकती थी। बहुत सी मर्यादाओं का सामना करना पडता था। इतना सब होते हुए भी मेंरे पिताजी ने पाठशाला में भाषण करने के लिए वक्तृत्व स्पर्धा में भाग लेने की मुझे सलाह दी। बहुत सी स्पर्धाओं में मैंने बक्षीस लिया| मेंरे गाल खिल जाते थे | चेहरे पर बहुत बडी मुस्कान आती थी। यह खुशियाँ मुझे बहुत दूर तक ले गई थी। पापा के चेहरे पर चांद की मुस्कान आती है, हम खुशी मनाते थे , फिर भी पापा ने बताया था की कौन सी भी स्पर्धा में हार जीत तो होगी ही, बक्षीस के लिए अगर तुम पात्र नहीं होती तो भी रोना धोना नहीं करना, नाराज नहीं  होना| मेंरे व्यक्तित्व की खाली जगह वक्तृत्व ने भर दी। आज भी मुझे नया सुनने का, ध्यान में रखने का, लोगों के सामने सादर करने का बहुत शौक है।

साधारण तौर पर मैं तीसरी चौथी कक्षा में थी पापा के प्रोजेक्ट और स्लाईडस बक्षीस के तौर पर मिले थे| उस वक्त मुझे थोडा धुंधला सा दिखाई देता था। पर्दे के उपर की आकृती, थोडे थोडे रंग, मेंरे मन पर अच्छी तरह से उमड़ते थे। भारत में अनेकानेक नृत्य प्रकार की पहचान थी| वहीं नृत्यांगना अच्छे-अच्छे पहनावे, सुंदर सुंदर अलंकार, लाल लाल रंग के हाथ, सभी मेंरे आखो के सामने और मन के सामने अच्छी तरह से दिखाई देते थे। यह सभी नृत्य देख देख कर गानों की धुन सुनकर अपने आप ही नृत्य करने लगी| खुद ही गुलमोहर के फूल जैसी सुंदर मुझे ही मैं देखती थी। मिरज शहर की सुप्रसिद्ध विद्या गद्रे की कन्या प्रतिमा मुझे मिली| उसने मुझे गाने की धुन सुनकर नृत्य सिखाया| कठपुतली का नृत्य प्रतिमा ने मुझसे करवा लिया। सौभाग्य से ये नृत्य मुझे पाठशाला के स्टेज पर करने को मिला और सबको बहुत अच्छा लगा। लोगों ने तालियाँ बजा बजा कर मुझे प्रोत्साहन दिया| फिर भी उस वक्त मेंरे पापा ने बहुत गुस्सा किया क्योंकि नाचने से पहले उन्होने मेंरी पहचान नृत्यांगना शिल्पा कहकर कर दी थी। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा| मैंने दो तीन दिन तक पापा के साथ बोलना छोड दिया था। उनको सब बातों को पता चला। पापा के साथ बाते भी नहीं  की,  उनको इन  बातों का बाद में पता चला|

कहने की बात यह है कि, मुझे किस बात का डर नहीं लगता था| यह सब पापा को बाद में समझ आया| घर में भाई बहन जैसे करते थे, वैसा करना|  यह मैंने तय किया था| मुझे जो करना है वह मैं करके ही रहती थी| मेंरा हठ था,  मैंने भगवान के सामने में दिया जलाया था| सब हाथ से समझकर| मेंरे चाचा मेंरा ये दिया जलाना कैसा किया देख रहे थे| घर में मॅगी बनाकर करने का मैंने तो तय किया था| मुझे खुशी भी लगती थी| एक बार माँ घर में नहीं  थी| तब मैंने एक बर्तन में पानी लेकर के गॅस पर उबालने के लिए रख दिया| मॅगी का पॅकेट फोडा| तुरंत माँ आ गई| मुझे बहुत पीटा और खुद रोने लगी, प्यार के ही कारण|

मेरी किताबे, मेरा कंपास, सब जगह पर रखने की मेरी आदत थी| मेंरे भाई और बहन को ये सब मालूम था| उनका कुछ भी सामान नहीं मिला तो चुपके से मेरे कंपास से लेकर जाते थे| मेरे ध्यान में आने के बाद मैं गुस्सा करूंगी, ये समझकर मैं डटूँगी, ये सब मस्ती में ही चलता था|

सांगली शहर के गांधी लायब्ररी की वक्तृत्व स्पर्धा मुझे अभी भी याद है| पाँचवी दसवी कक्षा तक प्रतिवर्ष मैं स्पर्धा की सदस्य रहती थी| लगभग पचास-सत्तर लडके लड़कियां स्पर्धा में भाग लेते थे| दसवी कक्षा तक मुझे नंबर नहीं मिला| फिर भी मेंरा भाषण इतना सुंदर हुआ कि परीक्षकों को मुझे नंबर देना पडा, ऐसा तो नहीं, उन्हे मेंरी आवाज, मेंरे शब्द बहुत अच्छे लगे|

पाठशाला से ही मुझे राईटर लेकर परीक्षा देने की आदत लग गई| दसवी कक्षा में वनिता वडेर, मेंरी प्यारी सहेली बन गई| पढाई में तो मुझे बहुत बहुत मदद करती थी| मुझे सब पढा कर दिखाती थी मैं सभी को ध्यान में रखती थी| अस्सी पर्सेंट मार्क्स मिल गये| वनिता को गणित में मुझसे सात मार्क्स जादा थे|

ग्यारवी कक्षा में मैंने कन्या महाविद्यालय में प्रवेश लिया| सच तो मेंरे लिये आर्ट साइड ही ठीक थी| मैंने बहुत स्पर्धाओं में भाग लिया था| सभी अध्यापकों की भी लाडली थी| सभी सहेलिया मुझे बहुत बहुत मदद करती थी| एक दिन कॉलेज को जाते वक्त मुस्लिम सहेली ने अपने ड्रेस की ओढणी मेंरे माथे पर डालने के लिए दे दी| कितना प्यारा लगा था,  उसमें मुझे यही मानवता दिखाई दी|

उस दिन से मुझे पता चला, मीठी मीठी बातें करने से समाज के सब लोग आप की मदद करते हैं| मुझे भी माँ के काम में मदद करने की खूब इच्छा थी| जैसे सब्जी काटना, रोटी बनाना, मेंरा ऐसा काम देख कर पड़ोसियों का दृष्टिकोण बदल गया| मुझे काम करते हुए देखकर आश्चर्य से देखने लगे| हमें खुद को चुंबकीय शक्ति निर्माण करनी चाहिये| ऐसा ही मैंने तय कर लिया, कॉलेज में मैंने जो अच्छी बातें और विचार हैं, मन में लिख कर रखे थे| सब पीरियड्स का मैं लाभ उठाती थी| अध्यापक मुझ पर ध्यान रखते थे| लोगों, अध्यापकों, सहेलियों और माता पिता जी के अच्छे विचार सुनकर मेंरा हर दिन, हर पल, बहुत अच्छा चल रहा है| आगे भी मैं चलूंगी अच्छी तरह| यही मेरी उम्मीद है| मयूरी जैसी नाचूंगी, गाऊंगी, हसूंगी| बड़ी बनकर अच्छा काम करूंगी| अपना नाम जग में फैलाऊंगी|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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