(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “मुहताज हुए लोग…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 55 ☆ मुहताज हुए लोग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Ministser of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poemHeart to Heart…. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
☆ Heart to Heart… ☆
☆
Never could I explain the condition of my heart
Nor could I ever express my honest feelings
*
Though he keeps writing letters to me every day
But only to tear them apart, never to post
*
I keep returning after knocking at your door
You’re always fast asleep, never woke you up
*
Though I managed to seal my lips, aptly;
But the wretched tears always ditch me, sorely
*
He has organized a big musical gathering today
But hasn’t invited any reveller for fun and frolic..!
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर…“)
नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपना देस…“।)
अभी अभी # 375 ⇒ अपना देस … श्री प्रदीप शर्मा
हमारे राष्ट्र में महाराष्ट्र भी है और गुजरात प्रदेश में सौराष्ट्र भी ! एक देश के वासी होते हुए भी सबका अपना अपना देस है। बरसों से लोग रोजी रोटी के लिए, देस को छोड़ परदेस जाते रहे हैं। जिसे हम आज प्रदेश कहते हैं, उसका ही अपभ्रंश है यह देस।
जब लड़की की शादी के बाद बिदाई होती है तो अमीर खुसरो का यह विदाई गीत महिलाएं गाती हैं ;
काहे को ब्याहे बिदेस,
अरे लखिय बाबुल मोरे,
काहे को ब्याहे बिदेस
आखिर तब देस होता ही कितना छोटा था !
ये गलियां ये चौबारा
यहां आना ना दोबारा।
पनघट और अमराई और सावन के झूले बचपन के संगी साथी जब छूटते थे, तो मन बरबस कह उठता था;
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना
ये घाट, ये बाट कहीं भूल न जाना।
निरगुन कौन देस को बासी !
देस वह स्थान है, जहां हम पैदा हुए, बड़े हुए, खेले कूदे। हम जिस नदी में नहाए, हमने जिस कुएं का पानी पीया, ज़िन्दगी भर आप चाहो तो उसे भूल जाओ, आखरी समय वह जरूर याद आता है।
ऐसा माना गया है कि जब हम देह त्यागते हैं तो हमें अपने बचपन की तस्वीरें खुली आंखों से दिखाई देती हैं। हमारे परिवार के वे वरिष्ठ जन, जिनकी गोद में आपने बचपन गुज़ारा है, आपको पुकार रहे हैं। लोग समझते हैं, आप भावुक होकर प्रलाप कर रहे हैं। लेकिन अंतिम समय में अतीत ही साथ जाता है, वर्तमान से नाता टूट जाता है।
उड़ जाएगा हंस अकेला।
जग दर्शन का मेला। ।
हम कितना भी देश विदेश में प्रवास कर लें। रोजी रोटी किस इंसान को कहां फेंकती है, कुछ कहा नहीं जाता। होते हैं कई बदनसीब, जो वापस अपने देस नहीं लौट पाते। जिन्हें अपनी माटी से लगाव होता है, वे हमेशा उस पल की तलाश में रहते हैं, जब वे एक बार फिर अपने जन्म स्थान के दर्शन कर लें।
माटी से यह लगाव, माटी की उस खुशबू का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। आखिर यह तन ही तो हमारा वतन है। जिस माटी से पैदा हुआ है, उसे उसमें ही मिल जाना है। हम इस माटी का कर्ज चुका पाएं, उसे अंतिम प्रणाम कर पाएं, शायद इसीलिए माटी का मोह हर अमीर गरीब को, मजदूर किसान को अंतिम समय में, सैकड़ों मील दूर, अपने देस की ओर खींचता है, आकर्षित करता है। ।
आप एक नन्हे बालक से उसका खिलौना छीनकर देखिए। उसे पैसे का, सोने चांदी का लालच देकर देखिए। एक मिट्टी के खिलौने में उसकी जान बसी है। वह उसके साथ उठता, बैठता, सोता खाता है। उसका खिलौना टूटता है, वह मचल जाता है। उसकी दुनिया बिखर जाती है।
इंसान की दुनिया भी जब एक बार बिखर जाती है, तो उसे समेटना इतना आसान नहीं होता। आज हर जगह सब बिखरा बिखरा सा है। इसे समेटना, संभालना, संवारना बहुत ज़रूरी है। केवल भरोसा और विश्वास ही हमें वापस अपनी माटी से जोड़ सकता है, हमें बिखरने से बचा सकता है। शायद तब ही जो दर्द की सरगम हमें सुनाई दे रही है वह थमेगी। कहीं कोई अभागा फिर यह दर्द भरा गीत गाने को विवश ना हो ;
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अधूरी ख्वाहिश।)
मन में तो गुस्सा भरा है पर मीठी आवाज में बोल रेनू ने अब प्यार से अपने पति मयंक से कहा- देखो जी मम्मी आजकल मेरे मेकअप के समान को लेकर रोज शाम को क्या करती है, सारा सामान इधर-उधर भी बिखेर देती हैं। मुझे तो मेकअप करने की कभी-कभी जरूरत पड़ती है पर ये रोज शाम को तैयार होकर कभी घर में या कभी किसी के यहां जाकर नाचना गाना, वीडियो रील्स, बनाना जाने क्या-क्या करती हैं? आप समझा दो ऐसा नहीं चलेगा या इन्हें कुछ देर के लिए कहीं छोड़ आओ मैं थोड़ी देर शांति से रहना चाहती हूं।
मम्मी जी थोड़ी देर के लिए मंदिर में क्यों नहीं जाती है लोग कहते हैं की बहू के आने के बाद और एक उम्र के बाद पूजा पाठ करना चाहिए या इन्हें तीर्थ यात्रा पर भेज दो। अब तो पूरे मोहल्ले का डेरा यहीं आंगन में रहता है। कुछ दिनों बाद यह घर धर्मशाला न बन जाए?
पति ने उसकी ओर आंखें बड़ी करके देखा और कहा मुझे पता है इस उम्र में क्या शोभा देता है?
मां ने टीवी मोबाइल और जाने कितने बदलते दौर को देखा है।
तुम्हें भी कभी किसी काम करने को, तुम्हारे कपड़ों को। किसी भी तरह का तुम्हारे ऊपर भी अंकुश नहीं लगाया है मां ने दादा-दादी के साथ भी रही है और हम सबको दो भाई बहनों को पालकर बड़ा किया। आज अगर वह खुश रहती हैं और अपने जीवन जीने का कोई रास्ता ढूंढा है तो तुम उसमें क्यों बांधा डाल रही हो? तुम्हारी तरह उनकी भी तो एक जिंदगी है।अपना सामान उन्हें सारा मेकअप का दे दो तुम ऑनलाइन ऑर्डर कर लो या मेरे साथ चलकर खरीद लो।
अधूरी ख्वाहिश पूरी तो करके देखो क्या सुख मिलता है वह तुम स्वयं समझ जाओगी।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा: 2“।)
अविनाश और कार्तिकेय की ज्वाइंट मैस अपनी उसी रफ्तार से चल रही थी जिस रफ्तार से ये लोग बैंकिंग में प्रवीण हो रहे थे. दालफ्राई जहाँ अविनाश को संतुष्ट करती थी, वहीं चांवल से कार्तिकेय का लंच और डिनर पूरा होता था पर फिर भी पासबुक की प्रविष्टियां अधूरी रहती थी.
यह क्षेत्र उत्कृष्ट कोटि की मटर और विशालकाय साईज़ की खूबसूरत फूलगोभी के लिये विख्यात था जो अपने सीज़न आने पर पूरे शबाब पर होती थी. सीज़न आने पर इसने पाककला के प्राबेशनर द्वय को मजबूर कर दिया कि वो किसी भी तरह से इसे भी अपने भोजन में सुशोभित करें. यूट्यूब की जगह उस वक्त पड़ोस की गृहणियां हुआ करती थीं जिनसे सामना होने पर, “नमस्कार भाभीजी” करके आवश्यकता पड़ने पर पाककला को मजबूत बनाने में सहयोग की क्रेडिट लिमिट सेंक्शन कराई जा सकती थी।धीरे धीरे इसी लिमिट के सहारे आत्मनिर्भरता पाने पर लंच और डिनर की प्लेट्स दोनों को संतुष्टि और गर्व दोनों प्रदान करने लगी. उसी तरह की ललक और निष्ठा बैंकिंग में दक्ष बनाने की ओर अग्रसर होती चली गई और शाखा प्रबंधक सहित शेषस्टाफ को इन दोनों में बैंक का और शाखा का उज्जवल भविष्य नजर आने लगा.
शाखा के ही कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने जो खुद CAIIB Exam नामक वायरस से अछूते और विरक्त थे, इन्हें बिन मांगी और बिना गुरुदक्षिणा के यह सलाह दे डाली कि यह एक्जाम पास करना बैंक में अपना कैरियर बनाने की रामबाण दवा है. जबरदस्ती शिष्य का चोला पहनाये गये इन रंगरूटों द्वारा जब यह पूछा गया कि आपने क्यों नहीं किया तो पहले तो सीनियर्स की तरेरी आंखों ने आंखों आंखों में उन्हें धृष्टता का एहसास कराया गया और फिर उदारता पूर्वक इसे इस तरह से अभिव्यक्ति दी कि”हम तो अपने कैरियर से ज्यादा बैंक और इस शाखा के लिये समर्पित हैं और इस विषय में तुम दोनों की प्रतिभा परखकर और उपयुक्त पात्र की पहचान कर तुमलोगों को समझा रहे हैं।इस सलाह को दोनों ने ही पूरी तत्परता से अपने मष्तिकीय लॉकर में जमा किया और इस परीक्षा को पास करने का तीसरा टॉरगेट बना डाला क्योंकि पहले नंबर पर समय पर भोजन करना और दूसरे नंबर पर व्यवहारिक बैंकिंग को अधिक से अधिक सीखना थे।
गाड़ी अपने ट्रेक पर जा रही थी पर नियति और नियंता ने दोनों के रास्ते अलग करने का निश्चय कर रखा था. रास्ते अलग होने पर भी ये लगभग तय था कि दोस्ती पर तो आंच आयेगी नहीं पर जिसे आना था वो तो आई अर्थात अवंतिका जोशी एक सुंदर कन्या जिसके इस शाखा में बैंक की नौकरी ज्वाइन करते ही, रातों रात अविनाश और कार्तिकेय सीनियर बन गये थे. नियति के इस वायरस ने ही इन नवोन्नत सीनियर्स पर अलग अलग प्रभाव डाले. बेकसूर अविनाश अपने पेरेंटल डीएनए के शिकार बने तो कार्तिकेय अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज कर ऐसे विश्वामित्र बने जो मेनका और उर्वशी के प्रभाव को बेअसर करते कवच से लैस थे।
जहाँ अविनाश अपनी पेरेंटल विरासत को प्रमोट करते हुये शाखा में नजर आने लगे वहीं कार्तिकेय ने लगातार बेस्ट इंप्लाई ऑफ द मंथ की रेस जीतने का सिलसिला जारी रखा।शायद यही तथ्य भाग्य नामक मान्यता को प्रतिपादित करते हैं कि शाखा में एक ही दिन आने वाले, एक घर में रहने वाले, एक किचन में सामूहिक श्रम से भोजन बनाने और खाने वालों के रास्ते भी अलग अलग हो सकते हैं।
लहानपणी रोज संध्याकाळी प्रार्थना, श्लोक आणि पाढे म्हणताना सर्व प्रथम गणपती स्तोत्र म्हणायचो. मग मारुति स्तोत्र, रामरक्षा, इतर प्रार्थना, काही श्लोक, शेवटी पाढे म्हणायचे असे शिस्तीत ठरलेले असेल ते म्हणावेच लागे. हे सर्व म्हटल्याशिवाय जेवण नाही असा आजोबांचा नियम असे. त्याचा अर्था काय, ते कोणी लिहिले आहे किंवा असे कुठलेही प्रश्न त्या वयात पडत नव्हते. फक्त शिस्त पाळायची एव्हढं कळायचं. पण हे सर्व खूप मोठ्ठं झाल्यावर कळायला लागलं. नारद पुराणात लिहिलेलं हे गणपती स्तोत्र नारद मुनींनी लिहिलेलं आहे हे कळलं. नारद म्हणजे आम्हाला फक्त पौराणिक चित्रपट किंवा कथांमधून दिसले आहेत. पण पत्रकारितेचे उच्च शिक्षण घेताना चिपळ्या आणि वीणाधारी नारदांचे एक वेगळे रूप समजले. ते म्हणजे,आद्य पत्रकार नारद ऋषि. नारायण नारायण !
नारायण नारायण .. असे विणेच्या झंकाराच्या पार्श्वभूमीवर उद्गार ऐकले की नारद मुनींचा प्रवेश होणार हे लगेच कळायच. जणू काही एंट्रीला may i come in असेच विचारत असतील आणि ज्या लोकांमध्ये एंट्री घेतली ते सर्व लोक साहजिकच सावध होत असणार. आज पत्रकारांना ओळखपत्र/ अॅक्रिडिटेशन दाखवून प्रवेश घ्यावा लागतो.
देव ऋषि नारद आणि त्यांची परंपरा –
भगवान विष्णुंचे परम भक्त, ब्रह्मदेवाचे मानसपुत्र देवऋषि नारद. नारद मुख्यत: भक्ति मार्ग प्रवर्तक आणि कीर्तन संस्थेचे आद्य प्रवर्तक मानले जातात. तरी ते धर्मज्ञ, तत्वज्ञ, राजनीति तज्ञ आणि संगीतज्ञ होते. ते बृहस्पतीचे शिष्य होते.
आपण पाहिलेल्या पौराणिक चित्रपटात एका हातात वीणा, दुसर्या हातात चिपळ्या घेऊन, नारायण नारायण असा उच्चार करणारे, स्वर्गलोक, पाताळलोक आणि मृत्यूलोक अशा त्रिलोकात मुक्तपणे संचार करणारे नारदमुनि यांच्याबद्दल खूप उत्सुकता वाटायची. यांना सगळं माहिती आहे, सगळीकडे यांचा वावर आहे, देव, दानव आणि मानव यांच्या जगात काय चाललय, हे कसं काय याचं आश्चर्य वाटायचं. पण त्यांना वरदान मिळालं होतं ते कधीही कुठल्याही लोकांत संचार करू शकत. त्यामुळे ते सतत भ्रमण करत असायचे. तिथल्या सर्व सूचना आणि बित्तम बातम्या भगवान विष्णुपर्यन्त पोहोचवायच्या. दानवांच्या कारवायांना आळा घालायचा, मानवांना दिशा द्यायची आणि देवांना माहिती द्यायची, सल्ला द्यायचा अशी लोककल्याणाबरोबर वार्ता प्रसाराची कामे नारदमुनी करत असत. शस्त्रांमध्ये त्यांना देवाचे मन असेच म्हटले आहे. म्हणून सगळीकडेच त्यांचं महत्वपूर्ण स्थान आहे. देवतांप्रमाणेच दानवांनी पण नारदांचा नेहमीच आदर केला आहे. भगवान श्रीकृष्णांनी सुद्धा हे महत्व मान्य केल्याचं भागवत पुराणात सांगितलं आहे.
त्यांच्यात देवत्व आणि ऋषित्व यांचा समन्वय होता असे म्हणतात. या तिन्ही लोकांत समन्वय साधायचा हे ही कार्य ते करत. म्हणून त्यांना आद्य पत्रकार म्हटले जाते. अध्यात्म, राजनीती, धर्म शास्त्र, यज्ञ प्रक्रिया, संगीत अशा अनेक विषयांचे त्यांना ज्ञान होते. त्यांना भूतकाळ, वर्तमानकाळ आणि भविष्यकाळ या तिन्ही काळांचे ज्ञान होते. देव आणि माणूस यांच्यातला दुवा म्हणजे नारद मुनि होते. सत्ययुग, त्रेतायुग आणि द्वापार युगातही नारदमुनि देव व मानव यांच्यातील संवादाचे माध्यम होते. त्यांनी वार्ता प्रसारित करताना सद्गुणांची कीर्ती सांगणे हे काम हेतुत: केले. मुख्य म्हणजे खडानखडा माहिती नारदांना असायची.
लोकांना न्याय मिळवून देण्याचीच त्यांची भूमिका असयची. पृथ्वी आणि पाताळ लोकातील भक्तांची खरी भक्ति भगवान विष्णु पर्यन्त पोहोचविणे, त्यांना न्याय मिळेल असा प्रयत्न करणे, लोकांवर होणार्या अन्यायाची माहिती देवांपर्यंत पोहोचविणे असे काम नारद करत असत. याचं आपल्याला माहिती असणारं उदाहरण म्हणजे भक्त प्रल्हाद,ध्रुव बाळ आणि अंबरीश यांच्या कथा. नारद मुनींनी या सर्वांचं म्हणणं अनेक वेळा नारायणापर्यन्त पोहोचविले होते. त्यांना न्याय मिळवून देण्यात मदत केली होती. एव्हढच नाही तर, दु:खी दरिद्री लोकांचे दु:ख निवारण करणे, दुष्ट, अभिमानी, लोभी आणि भ्रष्टाचारी लोकांचा नायनाट करण्याचे उपाय पण ते सांगत.
हिन्दी पत्रकारितेच्या विश्वात पहिले हिन्दी वृत्तपत्र ‘उदंत मार्तंड’ हे जुगलकिशोर सुकुल यांनी ३० मे १८२६ रोजी साप्ताहिक स्वरुपात सुरू केले. त्यावर पहिल्या पानावर नारदांचा उल्लेख असे.
नारदमुनी ऋग्वेदातील एक सूक्तकार म्हटले जातात. त्यांच्या ठिकाणी देवत्व आणि ऋषित्व यांचा समन्वय झालेला होता म्हणून त्यांना देवर्षी म्हणतात. असं म्हणतात की वायु पुराणात एकूण आठ देवर्षी असल्याचा उल्लेख आहे, त्यापैकी नारद हे अग्रगण्य आहेत. देवर्षी नारद यांच्याबद्दल अनेक पुराण ग्रंथात माहिती आहे. नारद पुराण हे नारदांनी रचलेले पुराण आहे . अठरा पुराणांमद्धे हे पुराण सर्व श्रेष्ठ मानले गेले आहे.
देवर्षी नारद समजले की त्यांचं कार्य समजेल आणि त्यांना विश्वातला पहिला पत्रकार आणि पत्रकारीतेतला आदि पुरुष का म्हटलं आहे ते कळेल. लोकशाहीचा चौथा स्तंभ म्हणून जे पत्रकारिता क्षेत्राला संबोधले जाते, जे स्थान दिलं जातं, तसेच भारतीय देवतांमध्येही ब्रह्मा, विष्णु, महेश यांच्या नंतर नारद यांचंच स्थान आहे.
देवर्षी नारद यांची गुण वैशिष्ठ्ये लक्षात घेतली तर आजच्या पत्रकारांचीच ती वैशिष्ठ्ये आहेत हे लक्षात येते म्हणूनच हे गुण कोणते आहेत हे आजच्या पत्रकारिता क्षेत्रात काम करणार्यांनी समजून घ्यायला हवेत. सर्वत्र संचार करता करता तिथल्या घटनांनी आपलं ध्येय विचलित होऊ न देता पत्रकाराने आपलं कर्तव्य पूर्ण केलं पाहिजे. सतत सत्याचा शोध घेतला पाहिजे, चौकस दृष्टी, निरीक्षण शक्ति, जिज्ञासा, संवाद कौशल्य, बहुश्रुतता, याबरोबरच मैत्री आणि वैर बाजूला ठेवून सत्य, न्याय आणि वस्तुनिष्ठता आंगीकारली पाहिजे. पत्रकारिता करताना ती प्रामाणिकपणे केली पाहिजे, निर्भयपणे केली पाहिजे.
त्यासाठी आज वर्तमानाचे भान ठेवणे, समस्या माहित असणे, संबंधित विषयाचे मूलभूत ज्ञान असणे, आपल्या जीवन मूल्यांची ओळख असणे आणि महत्वाचं म्हणजे आपली परंपरा, आपले प्राचीनत्व, आपली संस्कृती काय आहे याचही ज्ञान असणे आवश्यक आहे, आपल्या मातृभाषा आणि राष्ट्रीय भाषा माहिती असणेही आवश्यक आहे. असे सर्व विशेष गुण नारद यांच्यामध्ये होते. आजच्या पत्रकारितेत काम करणार्या सर्व नव पत्रकारांनी /विद्यार्थ्यानी या नारद जयंती निमित्त ‘नारद- एक पत्रकार’ म्हणून समजून घ्यावेत आणि पत्रकारिता एक व्यवसाय म्हणून, नोकरी म्हणून न करता एक ध्येय म्हणून करावी, मग नक्कीच माध्यमांचे चित्र पालटेल .