हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मलिहाबाद की आमसभा ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

श्री तीरथ सिंह खरबंदा

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री तीरथ सिंह खरबंदाजी का हार्दिक स्वागत। आपने विधि विषय में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की है। व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सतत सक्रिय, विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन-प्रकाशन तथा हलफनामा, इक्कीसवीं सदी के अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार एवं हमारे समय के धनुर्धारी व्यंग्यकार, साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। वर्ष 2023 में पहला व्यंग्य संग्रह “सुना है आप बहुत उल्लू हैं” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2024 में दूसरा व्यंग्य संग्रह “झूठ टोपियाँ बदलता रहा” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2022 में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा स्पंदन साहित्य सम्मानसंप्रति : इंदौर में विधि एवं साहित्य के क्षेत्र में सतत सक्रिय। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – मलिहाबाद की आमसभा।)

☆ व्यंग्य ☆ मलिहाबाद की आमसभा ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

आज मलिहाबाद के आमबाग में पहली आमसभा होने जा रही थी। यह आमतौर पर होने वाली किसी नेता की आमसभा से अलग थी। सही अर्थों में यह एक अनूठी और सच्ची आमसभा थी। इस आमसभा की अध्यक्षता का दायित्व सहारनपुर से पधारे हाथीझूल आम के मजबूत कंधों पर डाला गया था। जिन्हें लोग प्यार से नूरजहां कहकर भी बुलाते थे। यह एक अकेला आम चार-पाँच किलो पर भी भारी था। अनूठे डील-डौल वाला उसका व्यक्तित्व अध्यक्ष पद के सर्वथा अनुकूल और प्रभावशाली था। मंचासीन, कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सिंदूरी आम मंच की शोभा बढ़ाने के साथ ही चर्चा का भी विषय बने हुए थे।

अध्यक्ष ने आमबाग की महती आमसभा को संबोधित करते हुए कहा – साथियों हम यह बात हमेशा याद रखें कि- हम सबकी, पहली और असली पहचान है कि हम सब आम हैं। हममें कोई भी खास नहीं है।

हमारी दूसरी असल पहचान है कि हम सब एक हड्डी से बने जीव हैं इन्सानों की रीढ़ से कहीं ज्यादा मजबूत हमारी एक ही हड्डी है। यदि हम गुणों की बात करें तो दुनिया में हमारा मीठापन हमारी मूल पहचान है। हम इस दुनिया में अपने गुणों के कारण ही जाने और पहचाने जाते हैं और इसी की बदौलत दुनिया में हमारा मान है।

यह हमारी पहली आमसभा है। अभी तक हमने इन्सानों की जनसभाओं के बारे में सुना था जिसे वे आमसभा कहते नहीं थकते हैं। दरअसल वे अभी तक हमारे नाम का दुरुपयोग कर लोगों को भ्रमित करते रहे हैं।

दुनिया भर में हमारी सैकड़ों जातियाँ-प्रजातियाँ पाई जाती हैं और पता नहीं कितनी ही जंगली और बीजू प्रजातियाँ भी हमारे वृहद परिवार का एक अटूट हिस्सा हैं। किन्तु हमें गर्व है कि हमारी अलग-अलग, जातियां-प्रजातियां होने के बावजूद हम सबकी राशि और गुण एक समान हैं। हम यूं ही फलों के राजा नहीं कहलाते हैं। हम हमारी मिठास और खुशबू के कारण दुनिया में जाने जाते हैं। हमारा इतिहास जितना पुराना है उससे कहीं ज्यादा वह मीठा और सरस है।

हमारे इस वृहद्द परिवार के कुछ सिद्धान्त हैं – पहला सिद्धान्त है कि हम रंगों के आधार पर आपस में कभी कोई भेदभाव नहीं करते हैं। जहां हरा रंग हमारी प्रथम पहचान है वहीं पीला, केसरिया और सिंदूरी रंग हमारे व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। हमारे सारे रंग अपने गुणों में समाहित होकर एकरंग हो जाते हैं।

हमारा दूसरा सिद्धान्त है कि हम वर्ण भेद एवं नस्ल भेद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते हैं। क्षेत्रवाद शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं है। हमारे बीच जो भी जातियाँ और प्रजातियाँ बनी हैं, वे सभी इन्सानों की बनाई हुई हैं। उन्होंने ही हमें अलग-अलग नाम दिए हैं। किन्तु याद रहे जन्म से हम सभी सिर्फ आम हैं और आम ही रहेंगे। हममें से कोई कभी भूलकर भी खास बनने का विचार नहीं करेगा।

आज की इस आमसभा में देश-दुनिया के अलग-अलग भागों से आए प्रतिनिधि बड़ी संख्या में शामिल हुए हैं। आज हमारे बीच जापान से पधारे मियाजाकी जी एवं गुजरात से आए केसरिया जी की सुगंध सारे वातावरण को महका रही है। कुरनूल से बंगिनापल्ली, महाराष्ट्र से रत्नागिरि, बिहार से चौसा, कर्नाटक से रसपुरी, पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा के प्रतिनिधि हिमसागर, बिहार से मालदा, उत्तरप्रदेश से लंगड़ा एवं दशहरी, लखनऊ से सफेदा, के अलावा फजली, बंबई ग्रीन, नई पीढ़ी के मल्लिका, आम्रपाली, रत्ना, अर्का अरुण, अर्मा पुनीत, अर्का अनमोल, पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की मशहूर किस्में किशन भोग, हिमसागर नवाबपसंद एवं बेगमपसंद भी इस सभा में शिरकत कर रहे हैं, अपने नाम से अंग्रेज़ियत की महक देने वाले अल्फ़ान्सो (हाफूस) रत्नागिरी महाराष्ट्र से आए एक कीमती आम हैं। दक्षिण भारत से पधारे लोकप्रिय तोतापुरी आम तोते जैसी चोंच के कारण अपनी अलग विशिष्ट पहचान रखते हैं। मंचासीन सिंदूरी जी अपने सौंदर्य के कारण अलग ही चमक रहे हैं। बादामी जी की सादगी देखते ही बनती है। इसके अलावा भी कई किस्में स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में आज की आमसभा में शामिल हुई हैं।

हमारे सभी साथी अपनी अलग-अलग मौलिक पहचान रखते हुए भी आखिर में सभी सिर्फ आम हैं। आम ही हमारा धर्म है आम ही हमारा नाम है। हममें से हरेक का अपना स्वाद और अपनी फैन फॉलोइंग है। हम सब आपस में कजिंस हैं। हम आप सभी का खटमिट्ठा, रसभरा स्वागत करते हैं।

यद्यपि हमारा स्वभाव बाल्यपन तक थोड़ा खट्टा होता है किन्तु समय के साथ हम इस खट्टेपन को भूल मिठास को अपना लेते हैं। हालांकि इन्सानों ने हमारे खट्टेपन के भी खूब चटकारे लिए। हमारे कटे पर नमक, मिर्च और विविध मसाले लगाकर फिर हमें तेल में डुबोकर वे उसके चटकारे लेते रहे। हमारा अचार बनाकर और खाकर वे अत्यंत प्रसन्न होते। अपनी जुबान के स्वाद के लिए हमारी चटनी बनाने से भी वे नहीं चूके।

हमारे नाजुक शरीर को आग पर उबालकर अथवा तपा कर वे तरह तरह के पेय एवं खाद्य पदार्थ बनाते हैं। जिसके उन्होंने झोलिया, पना, लौंजी जैसे अजीबोगरीब नामकरण किए हैं। आप सभी जानते हैं कि चतुर इंसान प्रजाति ने हमारा कितना दोहन किया है। उसने हमें बाज़ार दिया और अपने आर्थिक हित साधने के लिए आम के आम और गुठलियों के दाम तक वसूले।

मौसम आए जब हम पर भरपूर यौवन चढ़ता है तब इंसान हमें अपनी ललचाई आँखों से निहारते, हमें पाने के लिए अत्यंत लालायित रहते हैं। हमें देखते ही उनके मुंह में पानी भर आता है। वैसे खुदगर्ज इन्सानों ने हमेशा अपनी पसंद अनुसार या तो हमें चूसा है या फिर काटा है। किन्तु हम चाहे चूसे गए अथवा काटे गए, हमने अपना मूल गुण कभी नहीं छोड़ा और अपनी मिठास से कभी कोई समझौता नहीं किया। जबकि इंसान हमारे गुणों की कद्र करने के बजाए हमेशा हमारा मोल भाव करते रहे हैं।

आम बनते ही हमारी धमनियों में मीठा रस प्रवाहित होने लगता है। जो प्राणियों की रसना पर चढ़कर उन्हें परम आनंद की अनुभूति करवाता है। जब-जब आम चूसा जाता है तब-तब क्या आम और क्या खास सब उसका आनंद उठाते हैं।

लालच में डूबे इन्सानों ने हमें समय से पहले जवान करने के चक्कर में तरह तरह के केमिकल इस्तेमाल करके हमें असमय ही बूढ़ा कर दिया। ऐसे में उन्होंने अपनी प्रजाति का भी ध्यान न रखा। उनसे कीमत लेकर बदले में उन्हें मीठी किन्तु खतरनाक बीमारियाँ दे डालीं। पैसे के लालच में इंसान खुद तो विदेशों की ओर पलायन करने लगे साथ ही हमें भी विदेशों में निर्यात करना शुरू कर दिया।

बड़े बड़े राजा, महाराजा और शंहशाह तक हमें बहुत पसंद करते और हमारी प्रशंसा करते न थकते थे। ये सब इसलिए नहीं था कि हम कुछ खास थे दरअसल हमने अपना आमपन कभी नहीं छोड़ा था। वे एक दूसरे को अक्सर हमें उपहार में देते। हमने कई बार उनके संबंधों के बीच की खाइयों को पाटकर उनके संबंध मधुर बनाने में पुल का काम किया। हम हमारी भरपूर प्रशंसा से भी कभी विचलित न हुए, और अपना मूल स्वभाव कभी नहीं बदला।

समय समय हम पर कई हमले हुए, हमारी नस्लों को बदलने की साजिश भी कुछ कम न हुई। हमने कभी किसी को छोटा या बड़ा न समझा। हम सभी हमेशा वक्त की तराजू पर तोले गए। यदि इन्सानों ने हमें तोलने में भी बेईमानी की हो तो यह उनका कर्म है। उनमें और हममें एक खास अंतर है कि हम अंदर से मीठे हैं और वे सिर्फ बाहर से, जुबान के मीठे हैं। पहले कभी हमारी कीमत हमारी संख्या से लगाई जाती थी किन्तु अब वे दिन हकीकत नहीं रह गए, अब हमारी कीमत हमारे गुणों से तय होती है। किन्तु इन्सानों की कीमत अब गुणों की बजाए संख्या से तय होने लगी है।

हम बेर के आकार से लेकर मेरे जैसे विशाल आकार के भी पाए जाते हैं किन्तु अनेक किस्में होने के बावजूद हमारे बीच कोई बैर नहीं है। यह सुनकर उपस्थित सभी आम मंद-मंद मुस्कुराने लगे और गर्व से भर गए।

हम जहाँ एक ओर कुलीन वर्ग के भोजन की शोभा बने। वहीं दूसरी ओर हम गरीबों की पहुँच से भी कभी बाहर नहीं रहे। हमने कभी किसी को भी हमारी कमी महसूस नहीं होने दी।

यद्यपि हमें कुछ अँग्रेजी नाम देकर हमारी संस्कृति पर हमला भी किया गया। अपने अँग्रेजी नाम के बल पर रौब गालिब करना इन्सानों की दुनिया में चलता होगा आम की दुनिया में यह खास नहीं चल पाता है। ऊपर वाले ने हमें आम बनाया है इसलिए उसके न्याय पर भरोसा रखें और आम ही बने रहें आम से खास बनने की इन्सानों की फ़ितरत से हमेशा दूर रहें। हमारा परम सौभाग्य है कि प्रकृति ने हमें मिठास दी है। अतः हमारा फर्ज़ है कि हम दुनिया में हमेशा मिठास बाँटकर उसका शुक्रिया अदा करें।

©  श्री तीरथ सिंह खरबंदा

ई-मेल : tirath.kharbanda@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फूल और पत्थर।)

?अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे फूल से नाजुक होते हैं, फूल से भी नाजुक नन्हीं नन्हीं कलियां होती हैं। फूलों का राजा गुलाब होता है, गुलाब में कांटे भी होते हैं और खुशबू भी। सार सार को ग्रहण करने वाला चतुर इंसान गुलाब से तो प्रेम करता है लेकिन कांटों में नहीं उलझता। वह किसी कली के फूल बनने का इंतजार भी नहीं करता। गुलाब की कलियां बारातियों को पेश की जाती हैं जो बाद में मसल दी जाती हैं। जिन फूलों को मंदिर में अपने आराध्य को चढ़ाया जाता है, वे ही फूल नेताओं के स्वागत में भी बरसाए जाते हैं। फूल को कोई ऐतराज नहीं, उसकी बनी माला इष्ट को समर्पित की जाए अथवा किसी मुख्य अतिथि के गले में अर्पित कर दी जाए। जन्म से विवाह, और विवाह से अंतिम यात्रा तक पुष्प को अनासक्त रूप से अर्पित और समर्पित ही होना है।

आप चाहें गुलाब को पांवों तले रौंदें अथवा उसका गुलाब जल अथवा गुलकंद बना लें, चम्पा, चमेली, जूही का गजरा बना लें, वेणी की तरह बालों में सजा लें, राजेंद्रकुमार की तरह एक फूल किसी के जूड़े में सजा दें, पुष्प को कोई ऐतराज नहीं। एक कवि भले ही पुष्प की अभिलाषा को अभिव्यक्त कर दे, पुष्प का समर्पण तो अव्यक्त और अहैतुक ही होता है। ।

जो रास्ते का एक पत्थर है, अथवा एक राहगीर के लिए मील का पत्थर है, जिस पत्थर की सीढ़ियों पर चलकर हम पहाड़ चढ़े हैं, जिस पत्थर ईंट से हमने घर बनाया है, उसी पत्थर की मूरत की जब मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है, तो वह भगवान हो जाता है।

फूल पत्थर की मूर्ति पर माला बन प्रतिष्ठित हो जाता है। फूल और पत्थर दोनों धन्य हो जाते हैं।

जिस पत्थर से हमने कभी ठोकर खाई है, उसी पत्थर को जब हम भगवान के रूप में पूजते हैं, तो वहां मत्था टेकते हैं, विनती करते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, प्रेमाश्रु बहाते हैं और पूछते हैं ;

ओ रूठे हुए भगवान

तुझको कैसे मनाऊं

तुझको कैसे मनाऊं ?

फूल जहां भी गया, सबके चेहरों पर खुशियाँ बिखेरते गया, गम और खुशी दोनों में फूल ने हमारा साथ निभाया लेकिन पत्थर बड़ा पत्थर दिल निकला। ऐसा क्यों है, जब हमें गुस्सा आता है, हम कोई फूल नहीं तोड़ते, रास्ते पर पड़ा कोई पत्थर उठा लेते हैं। पत्थर एक ऐसा सर्वगुण संपन्न अस्त्र है जो फेंककर मारा जाता है। सिर्फ पत्थर फेंकने से भी गुस्सा शांत हो जाता है। मैने बचपन में अपने कई साथियों को, जब घर में मार पड़ती थी, तो उसका गुस्सा उन्हें सड़क पर राह चलते कुत्ते और सुअर को पत्थर मारकर उतारते देखा है। पहले गुस्सा किया जाता है, फिर किसी पर उतारा जाता है।

हमने भी बचपन में बहुत पत्थर फेंके हैं। गणेश चतुर्थी की रात को पहले चंद्रमा को देखना, फिर दूसरों की छत पर पत्थर फेंककर, चोरी के इल्जाम से बचने के लिए, प्रायश्चित करना। ।

कौन जानता था, जो पत्थर कभी बचपन में, बचपने में, अनजाने में, बिना किसी का अहित किए फेंके गए, समय के साथ ऐसा विकराल रूप धारण कर लेंगे। दुष्यंत ने तो यूं ही कह दिया था, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों, कौन कहता है, आसमान में सूराख नहीं होता। क्या एक फेंका गया पत्थर इतना बड़ा सूराख कर सकता है कि वहां से पत्थरों की बारिश ही होने लग जाए।

अगर किसी ने गलती से मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा भी है तो अब सिर्फ आग और धुआं ही हमें मधुमक्खी के हमले से बचा सकता है। जिन हाथों में फूल होने चाहिए वहां पत्थर शोभा नहीं देते।

पत्थर तो खैर पत्थर है, लेकिन पत्थर फेंकने वाला नादान नहीं। कोई क्षमादान नहीं। हम अगर पत्थर को पूजना जानते हैं तो पत्थर फेंकने वालों की पूजा करना भी जानते हैं।

आज दुष्यंत होते तो शायद वे भी यही कहते, इन पत्थर फेंकने वालों का तबीयत से इलाज करो यारों। ।

जो जग को जीतना जानते हैं, मनजीत भी हैं, उनका स्वागत है, आगे आएं, कुछ ऐसा कर पाएं, कि जहां से पत्थरों की बारिश हो रही है वहां से कल पुष्प वर्षा हो।

प्रेम से पत्थर को पिघलते जिन्होंने देखा है, उन्होंने ही बियाबान में फूलों को भी खिलते देखा है ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 253 – वसा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 253 – विजय साहित्य ?

☆ वसा…!

कवितेत माझ्या |

माझा परीवार ||

अक्षरांचा पार |

भोवताली…! ||१||

*

अक्षरांची लेणी |

निरामय रुप ||

निखळ स्वरुप |

कवितेचे…! ||२||

*

शब्द,सूर,ताल |

छंद बंध‌ मुक्त ||

प्रतिभेने युक्त  |

काव्य पद…!  ||३||

*

जीवन प्रवास |

सुखदुःख जोडी ||

अनुभूती गोडी |

काव्यामाजी…!  ||४||

*

माझी ही कविता |

अंतरीक‌ साद ||

रसिक संवाद |

नांदताना…!  ||५||

*

शब्दसुता माझी |

प्रकाशाचे पर्व  ||

नाही कुणा गर्व |

सृजनाचा…!  ||६||

*

सांगे कविराज |

पसरोनी पसा ||

घेतलाय वसा |

शारदीय…!  ||७||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बहरसमृद्धीची गाणी… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ बहरसमृद्धीची गाणी सुश्री नीलांबरी शिर्के 

मेघ जाहला कृष्ण सावळा

बिजली झाली राधा गोरी

जलथेंबातुन नृत्य गोपींचे

उल्हासीत वसुंधरा जाहली

शिवारातुनी नदीनाल्यातुन

संगीताची मैफील सजली

सुर तयांचे वातावरणी

उत्साहाची चौफेर पेरणी

निसर्गाच्या ओठावरती

बहरसमृद्धीची गाणी

🌹

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आला आला पाऊस आला… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आला आला पाऊस आला… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

आला पाऊस पाऊस, सारे भिजले पाण्यात

आणि अंकूरले बीज, ओल्या मातीच्या मनात

 *

सुखे भिजे माळरान, सोडी निःश्वास कातळ

अंबराच्या डोळ्यांतले, भिजे ढगांचे काजळ

 *

आला पावसाळा, झाली सैरभैर वावटळ

माती ग्रिष्मांतली पिते, थेंब टपोरे नितळ

 *

टपटपले अमृत, कुठे कोरड्या चोचीत

थेंब मोतीयांचे झाले, पानाफुलांच्या ओठांत

 *

ग्रिष्म भोगल्या माणसा, नको पाणी पाणी करू

आली मृगाची पालखी, झाला घंटानाद सुरू

 *

ग्रिष्म वनवासी झाला, आता पुरे नऊ मास

आसुसल्या धरणीची, आता उजवेल कूस

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ दिसलीस तू फुलले ऋतू.… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “दिसलीस तू फुलले ऋतू…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

भावना त्यालाच कळतात ज्याला त्याची जाणीव असते.

तारुण्याच्या त्या टप्प्यावर तुझं माझ्या आयुष्यात येणं.. हा खरोखरच नियतीचा योगायोग होता… पहिल्या नजर भेटीतच कलिजा खलास झाला होता… कळले नाही कधी मी नजरकैदेत बंदिस्त कसा झालो… हरवले भान स्व:ताचे…. जगणेच विसरून गेलो… बस्स तोच एक क्षण आला नसता आयुष्यात तेव्हा! .. असे त्या भेटीनंतर कैकदा वाटून गेले… मिळणार नाही साथ तिची हेही तेव्हाच कळून चुकले.. सौंदर्यवतीचे चाहते लाखो असले, तरी भाग्यवान तो एकच असतो… पण पण जुनी ओळख ती कुठे तरी हृदयाच्या कप्यात दडून राहीली होती तिच्याही नि माझ्याही.. पुन्हा कधीच न उचंबळून न येणारी… ताटातूट ठरलेली घडलीच काही क्षणातच… अन दोन वळून वळून बघणारे चेहरे काही अनामिक भावनांचे कंगोरे घेऊन समोरून निघून गेले.. दोन ओंडक्यांची पुन्हा कधीच घडणार नसते गाठभेट हे ही तितकेच सत्य असते… अबोल नि असफल प्रीतीच्या वेलीचे सलणारे काटे… मनाला घायाळ करतात.. समजूत घालता घालता मनं थकून जातं.. काळाचं औषध विरहाचं दु:ख विसरायला लावतो… आणि दुसऱ्या प्रेमाच्या तडजोडीने मनाची तगमग दूर करायची मदत घेतो… आता सारं काही आलबेल नि आनंदाच्या लहरीवर जीवनाचे तरंग तुषार उधळण करत जात असतं… आणि आणि एक दिवस नियतीला पुन्हा खोडसाळपणा करण्याची हुक्की येते…

ध्यानीमनी नसताना एक दिवस सकाळी मार्निंग वाॅकला बागेत असताना तिचे माझ्या सामोरी येणे… अगदी तसेच पहिल्या त्या भेटीसारखे… नजरेला नजर मिळताना… ओळख आहे का? असा निशब्द प्रश्न त्यातून विचारला जाताना.. डोळेच ते एकमेकांना भिडल्या भिडल्या अनेक गोष्टी नजरेने नजरेला नजर करूनही गेले… शब्दांची वाट न पाहता… काही क्षणातच आम्ही दोघं एकमेकांच्या समोरूनच गेलो… आणि गुंतलेले हट्टी मन ओढून घेण्यासाठी पुन्हा पुन्हा मागे वळून पाहताना मात्र मनाची चलबिचल वाढवत गेले… ती जुनी ओळख कुठे तरी हृदयाच्या कप्यात दडून बसलेली, तिच्याही नि माझ्याही.. पुन्हा एकदा उचंबळून येते… तेही क्षणैक ठरते… आता देहाचं तारूण्य ओसरून कधीच गेलेलं असतं, वार्धक्याची रूपेरी देहावर पसरलेली असते… तरीही अजूनही मनात कोवळे तृणांकूर उमलू पाहतात… आम्ही एकमेकांना पाहिलेलं असतं तेव्हा… भावभावनांची खळबळ उरात उठते.. अजूनही आपण तुला विसरलेलो नाही हेच नजरेतून सांगणे असते… काही गोष्टींमुळे आपण एकत्र जरी आलो नाही, आणि कितीही दूर दूर अंतरावर आपण असलो तरीही मनातल्या प्रेमरज्जूने आपण एकमेकांशी कायमचे बांधले गेलो आहोत… हे ही नसे थोडके… होय ना! …

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –nandkumarpwader@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वटपौर्णिमेचे बदलते स्वरूप ☆ सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर ☆

सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

?विविधा ?

☆ वटपौर्णिमेचे बदलते स्वरूप ☆ सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर ☆

वट पौर्णिमा हा महाराष्ट्र, गोवा या पश्चिम भारतीय राज्यांमध्ये विवाहित महिलांनी साजरा केलेला हिंदू उत्सव आहे.

अनेक वर्षापूर्वी भद्र देशात अश्वपती नावाचा राज्याची कन्या सावित्री हिचा शाल्व राजा धृमत्सेन ह्याचा पुत्र सत्यवान ह्याच्या शी विवाह झाला. भगवान नारदाला सत्यवानाचे आयुष्य केवळ एक वर्षाचेच असल्याचे माहित असल्यामुळे त्यांनी त्याच्याशी लग्न करू नको असा सल्ला सावित्रीला दिला.

सत्यवानाचा मृत्यू जेव्हा तीन दिवसा होते तेव्हा सावित्रीने उपवास करून व्रत केले. यमधर्म तिथे आला व सत्यवानाचे प्राण नेऊ लागला. सावित्री यमाच्या मागे आपल्या पतीबरोबर जाऊ लागली. यमाने अनेक वेळा सावित्रीस परत जाण्यास सांगितले. सत्यवानाचे प्राण सावित्रीने वडाच्या झाडाखालीच परत मिळविले म्हणून ज्येष्ठ महिन्यात पौर्णिमेला स्त्रिया वडाच्या झाडाची पूजा करून उपवास करतात व वट सावित्रीचे व्रत करतात.

भरतखंडात प्रसिद्ध असलेल्या पतीव्रतांपैकी सावित्री ही आदर्श मानलेली आहे. तसेच तिला अखंड सौभाग्याचे प्रतीकही मानले जाते. सावित्रीप्रमाणेच आपल्या पतीचे आयुष्य वाढावे; म्हणून स्त्रियांनी या व्रताचा आरंभ केला.

पूर्वी बायकांना घराबाहेर जायची परवानगी न्हवती. सणावारांच्या मुळे त्यांना घराबाहेर जाऊन पूजाअर्चा करून चांगले वस्त्र परिधान करून सख्यांना भेटायची संधी मिळावी हा हेतू साधून हे व्रत केले जायचे.

तीस वर्षा पूर्वी मला माझ्या मैत्रिणी बरोबर हे व्रत करायला जायची संधी मिळाली. गणपतीच्या मंदिरात वटवृक्ष असल्यामुळे वटपौर्णिमेच्या पूजे साठी बायकांची तिथे खूप गर्दी झाली होती.

मंदिराबाहेर पाच फळे व फुले विकायला विक्रेते बसले होते. खरे तर ती फळे खूप कोवळी होती व खाण्या लायक ही न्हवती तरीही ती सुवासिनींची ओटी भरण्यासाठी विकत घेतली जात होती.

पूजेसाठी रांगा लावून सगळ्या बायका थांबल्या होत्या. मधल्या वेळात काही बायका आपल्या नवऱ्या व सासूबद्दल कुरबुरी व तक्रारी सांगत होत्या. सासरी त्यांना होणाऱ्या त्रासाबद्दल ही सांगत होत्या. तिथे आलेल्या काहीजणी आपल्या संसारात तितक्याशा सुखी न्हवत्या व एक रीती रिवाज म्हणून व्रत करत होत्या. भरजरी साड्या, दागिने व गर्दी ह्या मुळे कधी एकदा पूजा संपते असेच बहुतेक जणींना झाले होते. नंतर नंतर गर्दी एवढी वाढली की वडा भोवती प्रदक्षिणा घालतांना एकमेकींचे धागे वडा भोवती गुंडाळून कशीबशी पूजा पूर्ण केली गेली. त्यात काही जणी मनापासून तर काही एक रीत म्हणून किंवा लोकांना काय वाटेल पूजा केली नाहीतर म्हणून तिथे पुजेसाठी आल्या होत्या.

खरतर नवऱ्या बायकोच्या नात्यात संवाद, विश्वास, आणि समजूतदारपणा महत्त्वाचे आहे. नवरा बायकोचे नाते हे प्रेमाने, आपुलकीने, आणि एकमेकांचा आदर करून टिकून राहावे व अडीअडचणीच्या वेळी त्यांनी एकमेकांना साथ द्यावी हे महत्वाचे आहे. नवऱ्यासाठी व्रत करणे उपवास करणे हा प्रत्येकाचा वैयक्तिक प्रश्न आहे.

नंतरनंतर ह्या पूजेला बदलते स्वरूप आले. बाजारात वडाच्या फांद्या विकत मिळू लागल्या व सुवासिनी ह्या फांद्या विकत घेऊन त्याची पूजा करू लागल्या. काहीकाही जणी घरात फांदी विकत आणून दहा पंधरा जणी एकत्र जमून पुजा करून फराळ करू लागल्या. काही बायका आपल्या सोयीप्रमाणे कामाच्या ठिकाणी वडाचे झाड शोधून हे व्रत पुर्ण करू लागल्या.

काही घरात ज्यांची मुलगी परदेशात आहे ते आभासी पद्धतीने म्हणजे व्हिडिओ कॉल करून पूजा करून हे व्रत करायच्या.

आता तर ह्या पूजेला एक इव्हेंट म्हणून पाहायला लागले आहेत. सोसायटी मध्ये सुवासिनी एकत्र जमून ही पूजा करतात. सेल्फी, फोटोचा कार्यक्रम व कुठे तरी बाहेर हॉटेल मधे उपवासाचे खाणे हे सगळे आठवड्या पूर्वीच नियोजन करून हे व्रत केले जाते.

ह्या कार्यक्रमात ड्रेस कोड, एका प्रकाराच्या साड्या परिधान करणे एकत्र जमुन गुजगोष्टी करणे हे हि तितकेच महत्वाचे असते.

एकूण काय पूर्वीचे व्रत असो किंवा आत्ताचे सेलिब्रेशन असो ह्यात सुवासिनींनी एकत्र येणे आपले सुखदुःख एक मेकांना सांगणे, आपले मन मोकळे करणे एकमेकींना कठिण प्रसंगी आधार देणे, वेळ प्रसंगी एकमेकींना मदत करणे एवढे साध्य झाले तरी वटपौर्णिमा खऱ्या अर्थाने साजरी झाली असे म्हणता येईल.

© सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

साहाय्यक प्राध्यापिका, श्रीमती काशीबाई नवले कॉलेज ऑफ फार्मसी , कोंढवा पुणे

संपर्क :  सन युनिव्हर्स फेज २, एम ५०३, नवले ब्रिज जवळ, नऱ्हे, पुणे.

फोन   : ७५०६२४३०५०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ देसी डोळे परी निर्मिसी… — लेखक – श्री श्रीनिवास बेलसरे ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

🔅 विविधा 🔅

देसी डोळे परी निर्मिसी… — लेखक – श्री श्रीनिवास बेलसरे ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर  ☆

देसी डोळे परी निर्मिसी, तयापुढे अंधार…

भारतीय चित्रपटसृष्टीतील सर्वात जुना सिनेमा मराठी होता ही गौरवास्पद बाब चित्रपटांबद्दलच्या चर्चेत अनेकदा दुर्लक्षित राहते. तो होता खुद्द दादासाहेब फाळके यांनी १९१३ साली दिग्दर्शित केलेला ‘राजा हरिश्चंद्र’. तो मूकपट होता तर पहिला मराठी बोलपट आला १९३२साली,  स्व. व्ही. शांताराम यांनी दिग्दर्शित केलेला ‘अयोद्ध्येचा राजा.’

परदेशात गाजलेल्या भारतीय चित्रपटांबद्दलच्या चर्चेतही  अनेकदा असेच होते. आपल्याला वाटते मराठी चित्रपट म्हणजे फक्त महाराष्ट्रात चालणारे सिनेमा. राजकपूरचा ‘मेरा नाम जोकर’ रशियात लोकप्रिय झाल्याने केवळ तोच परदेशात जास्त लोकप्रिय झालेला अभिनेता होता असा सर्वसाधारण समज असतो.  पण मराठी सिनेमांचाही गौरवशाली इतिहास आहेच. दुर्दैवाने त्याचा तितका गवगवा झालेला नाही.

आता ‘प्रपंच’ असे अत्यंत घरगुती नाव असलेला मराठी सिनेमा चक्क चीनमध्ये प्रचंड लोकप्रिय झाला होता हे कुणाला खरे वाटेल का? पण ते सत्य आहे. हल्लीसारखा तेंव्हा चीन स्वस्त पण तकलादू वस्तूंसाठी किंवा त्याच्या राक्षसी विस्तारवादासाठी प्रसिद्ध नव्हता! तेंव्हा चीन प्रसिद्ध होता तो प्रचंड लोकसंख्या आणि विचित्र मांसाहारी पदार्थांच्या सवयींसाठी!

तिथले सरकार कम्युनिस्टांचे, त्यामुळे एखादी समस्या समोर आली की तिचा इलाज लगेच करण्याचे धोरण. आपल्यासारखे ‘याला काय वाटेल?’ ‘तो काय म्हणेल?’ ‘बाबू गेनूसारखी न्यायव्यवस्थाच  समस्यानिवारणाच्या रस्त्यात आडवी पडेल का?’ हे प्रश्न त्या सरकारला कधीच पडत नसत. त्यांनी लोकसंख्या नियंत्रणासाठी तातडीने पाउले उचलायची म्हणून आधी प्रबोधनाचे अभियान सुरु केले! आणि हेच कारण होते आपला ‘प्रपंच’(१९६१) चीनमध्ये  लोकप्रिय होण्यामागचे.

प्रपंचमध्ये दिग्दर्शकांनी त्याकाळी बहुतेक कुटुंबांत असलेल्या अपत्यांचा अतिरिक्त संख्येचा विषय हाताळला होता. चीनी सरकारला ही बाब आवडली. म्हणून त्यांनी लगेच संपूर्ण सिनेमा चीनी भाषेत डब करून घेतला! मग चीनी लोकांनी तो थियेटरबाहेर अक्षरश: मोठमोठ्या रांगा लावून पाहिला.

त्याचे असे झाले. गदिमांनी लिहिलेल्या कथेवर देव आनंदने ‘एक के बाद एक’ (१९६०) नावाचा सिनेमा काढला. अर्थात हिरो होते देव आनंद. त्याने सोबत शारदाला घेतले आणि दिग्दर्शनाचे काम राजऋषी यांच्याकडे सोपवले. सिनेमा साफ पडला. अनेकांच्या मते, देव आनंदने गदिमांच्या  कथेत खूप बदल केले होते.

मग गदिमांनी त्या कथानकावर एक कादंबरी लिहिली. ती गोविंद घाणेकरांना आवडली आणि त्यातून निघाला प्रपंच! दिग्दर्शक ठरले मधुकर पाठक आणि कलावंत होते सीमा देव, आशा भेंडे, सुलोचना लाटकर,  कुसुम देशपांडे, अमर शेख, श्रीकांत, शंकर घाणेकर, जयंत धर्माधिकारी.

कथा, पटकथा, संवाद सगळे गदीमांचेच होते. सिनेमा गाजला. त्याला सर्वोत्कृष्ट चित्रपटाचे राष्ट्रीय पारितोषिक ‘स्वर्णकमल’ मिळाले. याशिवाय सर्वोत्तम फिचर फिल्मसाठीचे ‘गुणवत्ताधारक सिनेमाचे’ तिस-या क्रमांकाचे प्रमाणपत्रही मिळाले.

प्रपंचमध्ये गदिमांनी लिहिलेले एक भजनवजा गीत होते. आजही ते रसिकांच्या मनात अजरामर आहे. सुधीर फडकेंनी अतिशय भावूकपणे गायलेल्या या गाण्याला संगीतही त्यांचेच होते. विषय मात्र वेगळाच होता. जसे आपले काही संत महाराष्ट्राचे कुलदैवत असलेल्या विठूरायाला काहीही बोलू शकतात, कधी तर शिव्याही देतात आणि तरीही त्यांचे त्यांच्या ईश्वराशी असलेले अत्यंत लडिवाळ नाते तसेच टिकून राहते तसे हे गाणे होते. यात गदिमा विठ्ठलाला फक्त कुंभार म्हणून थांबले नव्हते, त्यांनी त्याला ‘वेडा कुंभार’ म्हणून घोषित केले होते!

केवळ एखाद्या भारतीय धर्मातच शक्य असलेले भक्त आणि देवातले गंमतीशीर प्रेमळ नाते या गाण्यात फुलवले असल्याने आकाशवाणीवर सकाळच्या भक्ती संगीताच्या कार्यक्रमात अख्ख्या महाराष्ट्राने हे गाणे असंख्य वेळा ऐकले आहे. गदिमांचे ते शब्द होते-     

“फिरत्या चाकावरती देसी मातीला आकार, विठ्ठला, तू वेडा कुंभार.”

विश्वाचा ‘हा जगड्व्याळ पसारा त्या निर्मिकाने कशासाठी निर्माण केला असेल?’ असा प्रश्न प्रत्येक चिंतनशील मनाला कधी ना कधी पडलेलाच असतो. गदिमांनी तोच काव्यरूपाने खुलवून आपल्यापुढे ठेवला  आहे. ते करताना त्यांच्यातला भारतीय अध्यात्माची सखोल जाण असलेला विद्वान लपत नाही. मानवी शरीर हे पंच महाभूतातून निर्माण झाले आहे हे सत्य कविवर्य अगदी कुणालाही सहज समजेल इतके सोपे करून सांगतात. मग विठ्ठलाला म्हणतात तू ही मानवी मडकी निर्माण करून त्यांची रास रचून ठेवतोस, त्यांची संख्या तरी केवढी! अक्षरश: अमर्याद! –

माती पाणी, उजेड वारा, तूच मिसळसी सर्व पसारा, आभाळच मग ये आकारा. तुझ्या घटांच्या उतरंडीला नसे अंत ना पार.

त्यात पुन्हा भारतीय अध्यात्माने सांगितलेले सर्व प्राणीयोनीतले  मानवी जन्माचे महत्वही ते ‘आभाळच मग ये आकारा’ असे म्हणून सूचित करतात. तू एकाच साच्यातून आम्हाला घडवतोस तरीही प्रत्येकाचे नशीब वेगळेच असते. कुणा भाग्यवान माणसाच्या मुखात भगवान श्रीकृष्णासारखे लोणी पडते तर कुणा दुर्दैवी व्यक्तीच्या तोंडात निखारे पडतात. ही टोकाची विषमता, हा वरून तरी आम्हाला वाटणारा घोर अन्याय तू का सुरू ठेवतोस? बाबा, सगळे तुझे तुलाच माहित!

घटाघटांचे रुप आगळे, प्रत्येकाचे दैव वेगळे, तुझ्याविणा ते कोणा न कळे. मुखी कुणाच्या पडते लोणी, कुणा मुखी अंगार.

जाता जाता गदिमा हेही सांगतात की अगणित कल्पांपासून देव ‘निर्मिती, वर्धन आणि विनाशाचे’ तेच काम करत आला आहे. ना त्याच्या निर्मितीला अंत, ना विनाशाला! जर सगळे नष्टच करायचे आहे तर मग ‘हे सगळे नसते उद्योग तू करतोसच कशाला’? असे एखाद्या धीट अभंगकर्त्याप्रमाणे ते विठ्ठलाला विचारतात- 

‘तूच घडविसी, तूच फोडीसी, कुरवाळीसी तू, तूच ताडीसी. न कळे यातून काय जोडीसी, देसी डोळे परी निर्मिसी, तयापुढे अंधार.’

निरीश्वरवादाचा आधारच विश्वाची वरवर वाटणारी अर्थहीनता आहे. बुद्धी असलेल्या सर्वांनाच पडू शकणारे प्रश्न गदिमांनी विचारले आहेत. पण ते कुणा भणंग संशयवाद्यांचे वितंडवाद घालण्याचे मुद्दे  नाहीत. ते एका भाविकाने आपल्या निर्माणकर्त्यासमोर निरागसपणे ठेवले प्रश्न आहेत. गाण्याचे शेवटचे वाक्य आपल्या डोळ्यासमोर निरागस अंध व्यक्तींचे अर्धवट संकोची स्मितहास्य असलेले, अश्राप चेहरे  आणते. मन गलबलते. देवाचा रागही येतो. पण तिथेच तर मेख आहे.

त्याने डोळे दिलेत आणि त्यापुढे अंधारही दिलेला आहे तो कशाला? खरे तर तेच प्रश्नाचे उत्तर आहे. निर्मात्याने आपल्या अपत्यापुढे मुद्दाम ठेवलेले ते रोचक आव्हान आहे. नुसते डोळे असून थोडाच कुणी डोळस ठरतो? मानवाने आयुष्याचा सदुपयोग करून अंतिम ज्ञानाची प्राप्ती करावी म्हणून तर समोर अज्ञानाचा अंधार ठेवला आहे. चर्मचक्षु असोत नसोत, आपणच पुरुषार्थ करून आपले ज्ञानचक्षु जागृत करणे,  सत्य जाणून घेणे यासाठीच तर सगळा उपद्व्याप असायला हवा. गदीमांनी उदाहरण जरी अंध व्यक्तीचे घेतले असले तरी हेतू माणसाचे अज्ञान स्पष्ट करणे हा आहे. त्यातूनच सत्य जाणून घेण्याचे मानवी जीवनाचे अंतिम ध्येय अधोरेखित करणे हा त्यांचा हेतू आहे. आणि तोच तर गाण्याचा संदेश आहे. 

(हा लेख दै. प्रहारमध्ये छापून आलेला आहे. कॉपीराईट कायदा लागू. आवडल्यास लेखकाच्या नावासहच शेयर करावा.)

लेखक : श्री श्रीनिवास बेलसरे

मो. 7208633003

संग्राहक :श्री. अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, 

kelkaramol.blogspot.com 

a.kelkar9@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पटावरची प्यादी… भाग २ ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

? जीवनरंग ❤️

☆ पटावरची प्यादी… भाग २ ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

(इन्स्पेक्टरने फोनवरचं नाव पाहिलं, कपाळाला आठ्या घातल्या आणि फोनवर बोलू लागला. त्याने फोन ठेवला आणि त्यानंतर मात्र नाईलाजाने त्याने आमच्याविरुद्ध तक्रार लिहून घेतली.) – इथून पुढे – 

गुन्हा नोंदवला गेला तरीसुद्धा दोन-तीन तास तो सगळा तमाशा चालूच होता. शेवटी संध्याकाळच्या सुमारास एकदाचे ते गावकरी सगळे निघून गेले.

ते गेल्यानंतर मग पोलिस आम्हाला म्हणाले, “आम्हाला कल्पना आहे की तुम्ही यात विनाकारण गोवले जात आहात परंतु आमच्यावरती वरून राजकारणी लोकांचा दबाव असल्यामुळे आम्हाला नाईलाजाने तुमच्याविरुद्ध तक्रार दाखल करून घ्यावी लागली आहे. आत्ता जो फोन होता, तो इथल्या स्थानिक नेत्याचा होता, सरकारी पक्षाचा आहे. त्यामुळे आमचे हात बांधले जातात.

तुम्हाला कल्पना नसेल, ” तो इन्स्पेक्टर सांगत होता, “पण इथल्या स्थानिक लोकांच्या मनात NGOबद्दल राग आहे. या जंगलाच्या जवळच खनिज मिळवण्यासाठी एक खाण कार्यरत होती, त्या खाणीमध्ये या गावातल्या आणि आजूबाजूच्या पंचक्रोशीतले अनेक गावकरी कामाला होते. परंतु त्या खाणीमुळे तिथल्या पर्यावरणाला जंगलाला नुकसान होत आहे हे काही पर्यावरणप्रेमी एनजीओनी सप्रमाण सिद्ध केलं. त्यामुळे ती खाण बंद केली गेली होती. खाण बंद झाल्यामुळे तिथल्या लोकांचा रोजगार गेला होता. हे या रागाचं एक मोठं कारण होतं.

तुम्ही या जंगलामध्ये वाघ आहेत का हे शोधत आहात. जर इथे वाघ मिळाले तर हे व्याघ्र अभयारण्य म्हणून घोषित होईल. जर असं झालं तर इथल्या सर्व गावकऱ्यांना इथून विस्थापित व्हावं लागेल. आणि ते ना गावकऱ्यांच्या पचनी पडणार आहे, ना ते येथील नक्षलवाद्यांच्या सोयीचे आहे.

आणि तुम्हाला अडकवण्याचं तात्कालिक कारण वेगळंच आहे. ” निरगाठ उकल तंत्राने तो अधिकारी सांगत होता. “काही आठवड्यांपूर्वी इथल्या एका तलावात काही गावकरी ब्लास्ट फिशिंगने (dynamite – विस्फोटकांनी) मासेमारी करत होते…. जंगलातच नव्हे, तर भारतात कुठेही, अशा पद्धतीने मासेमारी करणं हे पूर्णतः बेकायदेशीर आहे. “… तर तुमच्या NGO ने त्या गावकऱ्यांना पुराव्यासकट पकडलं आणि वनखात्याच्या स्वाधीन केलं. वनखात्याने त्यांच्यावर खटला भरला आणि त्यांना सहा महिन्यांचा तुरुंगवास झाला.

आणि आता इथल्या स्थानिक नेत्याने या गावकऱ्यांना चिथावलं आहे, तुम्हाला अडकवयाचं आणि तुमच्या बदल्यात त्या गावकऱ्यांना सोडवायचं असा हा डाव आहे. “

आम्ही सगळे सुन्न झालो होतो. दरम्यान पोलिसांनी आम्हाला आमची ओळखपत्रे, परवानग्या दाखवायला सांगितली. आम्ही आमच्या कामासाठीच्या आमच्या एनजीओने घेतलेल्या परवानग्या, आमची ओळखपत्रे वगैरे सर्व गोष्टी त्यांना दाखवल्या. ते सर्व पाहून, इन्स्पेक्टरने हवालदारांना सूचना दिल्या आणि आरोपपत्र नोंदवले.

पोलिसांना आमच्या सच्चेपणाची खात्री पटली होती, परंतु त्यांनाही कायदेशीर प्रक्रिया पाळणे बंधनकारक होतं. त्या रात्री त्यांनी आम्हाला तिथेच पोलीस स्टेशनमध्ये ठेवून घेतलं. ते म्हणाले, आज आत्ता इथून बाहेर पडणं तुमच्यासाठी सुरक्षेचं नाही. त्यांनी आम्हाला जेलमध्ये टाकले नव्हते, परंतु रात्रभर आम्हाला पोलीस स्टेशनमध्येच राहावं लागलं. तोपर्यंत आमच्या एनजीओच्या ऑफिसला ही बातमी पोचली होती आणि मग तिथून सूत्रं हलवायला सुरुवात झाली.

कोर्टात खटला उभा राहणार होता, आमच्यातर्फे आमचे टीम लीडर हजर राहणार होते. आम्हाला सोडून देण्यात आलं. मी पुण्याला परत यायला निघालो. तालुक्याला बसस्थानकावर आलो तर तिथल्या वर्तमानपत्रात आम्हा सगळ्यांच्या फोटोंसकट आमची बातमी पहिल्याच पानावर ठळकपणे छापली होती. मी तोंड लपवत प्रवास केला.

मी घरी आलो. आई वडील अर्थातच घाबरलेले होते. वडिलांनी तर अल्टिमेटच दिला होता की ‘बास झाली तुझी समाजसेवा. अन्य चार मित्रांप्रमाणे कुठेतरी खर्डेघाशी कर पण यातून बाहेर पड. ‘

तिकडे कोर्टाच्या तारखा पडत होत्या. सुदैवाने मला स्वतःला तिथे उपस्थित राहावे लागत नव्हतं. आमच्या संस्थेचे अधिकारी आमच्यातर्फे आमच्या वतीने कोर्टात उभे राहत होते. ते क्षेत्र सोडून अन्य ठिकाणी आमची काही ना काही काम चालूच होती.

दीड वर्षानंतर मला पोलिसांकडून रजिस्टर पोस्टाने एक पत्र आलं. त्याच्यावरती बी फॉर्म असं काहीतरी लिहिलं होतं. पोलिसांनी कोर्टाला कळवलं होतं त्यांचा प्राथमिक तपास पूर्ण झाला होता आणि आमच्याविरुद्ध सकृतदर्शनी कोणतेही पुरावे नव्हते.

That was a great relief. आता आम्हा सर्वांवर कायद्याची कोणतीही लटकती तलवार नव्हती. पण त्यातलं मुख्य वाक्य मला कळलं नाही, त्या बी फॉर्ममध्ये लिहिलं होतं की “प्रकाश यादव” याच्याविरुद्ध आता कोणताही गुन्हा दाखल नाही, तो कोणत्याही प्रकारच्या गुन्हामध्ये आरोपी नाही किंवा त्याच्यावरती कुठल्याही प्रकारचा गुन्हा सिद्ध झालेला नाही.

ही मला clean chit होती, पण त्याच्यावरती नाव भलतंच होतं. माझं नाव तर प्रसाद जाधव आहे आणि ही क्लीनचीट कोणा प्रकाश यादवला दिलेली होती.

मी त्या पोलीस स्टेशनला फोन केला, त्यांना सांगितलं की मला बी फॉर्मचे पत्र आलं आहे पण त्यात वेगळंच नाव आहे. हा काय प्रकार आहे? “

तो पोलीस अधिकारी हसला आणि म्हणाला, “साहेब, खरं कोण आणि खोटं कोण याची थोडीफार तरी समज आम्हाला असते. तुमच्याविरुद्ध बनाव रचला गेला होता हे आम्हाला त्याच दिवशी कळलेलं होतं. तुमच्याप्रमाणेच आम्हीही पटावरची प्यादी होतो हे आम्हालाही ठाऊक होतं. आणि म्हणून आम्ही तुम्हा चौघांचीही नाव लिहिताना जाणून-बुजून गफलत केली होती. उद्या दुर्दैवाने तुम्ही दोषी सिद्ध जरी झाला असतात तरी कागदोपत्री प्रकाश यादवला शिक्षा झाली असती, प्रसाद जाधवच्याविरुद्ध कोणताही कागद मिळाला नसता. उद्या तुम्ही पासपोर्ट काढायला गेला असतात, अन्य कुठल्या ठिकाणी नोकरीवरती जायचं असतं तर तुमच्या (खऱ्या) नावावर कोणताही गुन्हा नोंदवलेला मिळाला नसता, एवढी खबरदारी आम्ही घेतली होती. त्यामुळे जरी तुमच्याकडे आता बी फॉर्म आला असला तरी मुळात तुमच्या “प्रसाद जाधव” नावावरती कुठला गुन्हा दाखलच झालेला नव्हता. त्यामुळे तुम्हाला असंही चिंतेच कारण नव्हतं. ती सगळी घटना तुम्ही पूर्णपणे एक दु:स्वप्न समजून विसरून जा. ” इन्स्पेक्टर मला आश्र्वस्त करत होते.

“तिथल्या स्थानिक नेत्याचं काय झालं हो? ” मी पुन्हा आयुष्यात कधीही तिथे जाणार नव्हतो पण तरी माझी उत्कंठा मला गप्प बसू देईना.

तो पोलीस अधिकारी हसला आणि म्हणाला, “साहेब, ते आता आमदार झाले आहेत आणि कदाचित पुढच्यावेळी मंत्री सुद्धा होतील. ” 

माझ्या अंगावर सरसरून काटा आला. “तुला सांगतो, ” तलावाकाठी सूर्यास्त बघताना प्रसाद त्याच्या भावी वधूला सांगत होता, “त्या दिवशी, फक्त त्या दिवशी एकदाच, मला असं वाटलं होतं की उगाच आलो आपण या क्षेत्रात. पण नाही, दुसऱ्या दिवशी मी ती मरगळ झटकली आणि आजही मी आणि आमची NGO जंगल परिसर आणि त्याच्या आजूबाजूला असलेल्या शाळांमध्ये शालेय विद्यार्थ्यांना जंगलांचं पर्यावरणाचे महत्त्व शिकवण्याच्या आमच्या कामावर रुजू आहे. “

मळभ दूर झालं होतं, प्रसादच्या चेहऱ्यावर पुन्हा एकदा हलकं स्मितहास्य झळकू लागलं होतं. पटावराचे प्यादं आपलं निसर्ग रक्षणाचं काम इमाने इतबारे बजावत होतं.

(सत्यकथा – नाव बदलेलेले)

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड, पुणे.  मो 8698053215

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ चिंतन… ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

? मनमंजुषेतून ?

☆ चिंतन… ☆ सुश्री शीला पतकी 

साधारणपणे मी पहिल्यांदा 1960 मध्ये टीव्ही मध्ये दिसले….

वरील विधान वाचून तुम्हाला नक्की वाटेल की पतकी बाई धादांत खोटं बोलत आहेत 1960 साली सोलापुरात टीव्हीचे प्रसारण नव्हतं महाराष्ट्रात कुठेही नव्हतं मग मी 60 साली टीव्हीवर आली कशी ही बाई… त्याचीच गोष्ट ऐकूयात म्हणजे वाचूया

साधारणपणे जानेवारी महिन्याच दिवस असावे. सकाळी थंडी असायची पण दुपारी रणरण ऊन. शाळेला हुरडयाची सुट्टी होती. त्या काळात सिद्धेश्वर जत्रेला धरून ती सुट्टी असायची… सिद्धेश्वर तळं पूर्णपणे आटलेलं होतं म्हणजे तिथे संपूर्ण तळ्याला भेगा भेगा पडलेल्या मला अजूनही आठवतात आणि मंदिरातून मार्केटमध्ये.. लक्ष्मी मार्केटमध्ये येण्यासाठी माणूस सहज चालत त्या मातीवरून येतो.. शेतात चालावं असं वाटत होतं. चिखल वगैरे काय असेल पूर्वी तो वाळून वाळून गेलेला, पूर्ण भेगा पडलेल्या आणि माणूस आरामात त्याच्यावरून चालत येत होता. आणि मला ते स्पष्टपणे आठवते!

मी माझ्या आजीबरोबर सिद्धेश्वर मंदिरात दर्शनासाठी गेले होते. माझं वय तेव्हा 10 ते 11 या दरम्यानच होतं आणि आजी आम्हाला देवळामध्ये, मार्केटमध्ये, भजनाला, कीर्तनाला, रथ बघायला, चित्रपट बघायला घेऊन जायची. तिला सिनेमाची खूप आवड होती त्यामुळे ती चित्रपट बघायला आम्हाला घेऊन जायची. तिला चौफेर ज्ञान होतं.

19 व्या शतकाच्या शेवटाची बाई म्हणजे 1899 /98 चा जन्म असेल. शिक्षण अजिबात नाही पण हुशार इतकी अफाट.. बघून बघून वाचायला शिकली आणि खूप पुस्तकं वाचत होती. गोष्टी सांगायचा तिला छंद होता आणि सांगण्याची शैली पण होती. आता आजीबद्दल जास्त सांगत नाही, प्रसंगाबद्दल आपण बोलूयात. तर ती मला सिद्धेश्वरच्या मंदिरात घेऊन गेली.. दर्शन वगैरे झालं. आजी बरोबर जायचं त्यावेळेला कारण असं होतं की तिथून आम्ही लक्ष्मी मार्केटला जाणार होतो आणि त्या बाजूला गड्ड्याची दुकानं इथपर्यंत लागलेली होती, तिथं आपल्याला आजी काहीतरी घेऊन देईल या विचाराने मी तिच्याबरोबर गेले होते. मंदिरामध्ये दर्शन घेऊन तळ्यातून वाट काढीत आम्ही सिद्धेश्वर मंदिराच्या समोर ओबडधोबड पायऱ्या होत्या.. त्याच्यावरून वर आलो होतो आणि थेट लक्ष्मी मार्केट. लक्ष्मी मार्केटच्या दोन्ही बाजूला आज जे लोक बसतात तिथेच लोक बसायचे, तिथेच काहीतरी थोडेसे पाली वगैरे टाकलेले होत्या आणि त्याच भागांमध्ये काही चार दुकान भरलेली होती किंवा लागत होती. आजी म्हणाली ‘ रस पिऊ यात का’ ‘ बारा वाजले आहेत उन्हात रस पिऊ नये ‘ इती मी..

तिथेच बाजूला एक स्टॉल होता. एक पांढरं कापड.. त्या समोर खुर्ची टाकून एक माणूस बसलेला आणि तो ओरडत होता ‘ अपने खुद को टीव्ही पे देखो.. अपने को टीव्ही पे देखो ‘.. तर आजीला ते जरा कुतूहल वाटलं. काहीतरी नवीन होतं तर आजी म्हणाली ‘काय आहे? ‘ तर तो माणूस म्हणाला तुम्हाला टीव्ही वरती पाहता येईल. म्हणून ‘आम्ही आम्हाला दोघींना पाहता येईल का? ‘ ‘तुम्हाला नाही, अकेला जायेगा और उसको दुसरा देखेगा ‘. ‘ पैसा कितना लगेगा? ‘ तो म्हणाला ‘ चाराने.. कितना टाइम देखेगा ‘ तो. ‘ मला दोन मिनिट ‘.. आजी मला म्हणाली ” तू त्या टीव्हीच्या खोक्याच्या मागच्या बाजूला जा, मशीन समोर उभे रहा, मी तुला टीव्हीवर पाहीन “. मी म्हणलं ” काहीतरी काय मला तर मी दिसणार नाही तुला दिसून काय फायदा आहे? ” तिचं उत्तर खूप छान होतं. ती म्हणाली ” हे टीव्ही आपल्याकडे येईल पण तू मोठे झाल्यावर… तू हुशार आहेस त्यामुळे टीव्हीवर कुठेतरी दिसशील आहे त्यावेळेला मी कुठे असणार आहे? तेव्हा मी तुला आता डोळे भरून टीव्हीवर पाहते ” या इमोशनल ड्रामावर मला काहीच बोलता आलं नाही आणि मी खूप लहान होते. दहा अकरा वर्षाच्या मुलीला काय कळतंय? फक्त एवढं कळत होतं की चार आणे रक्कम खूप मोठी आहे, त्यात आपल्या घरची सगळ्यांची एक वेळची भाजी येते. पण तिचे हिशोब वेगळे होते तिने त्याला चार आणे दिले. मी तो पडदा टाकला होता त्याच्या मागच्या बाजूला जाऊन उभी राहिली आणि समोर एक टीव्हीसारखं खोकं होतं तिथे आजी खुर्चीवर बसली आणि ती मला बघत होती. मग त्या माणसाने मला वेगवेगळ्या पोजेस घ्यायला सांगितल्या.. आपण फोटो काढताना घेत होतो तशा.. नाच म्हणाला, उड्या मार म्हणाला. मी त्या सगळ्या गोष्टी केल्या आणि आजीने मला डोळे भरून बघितलं आणि चार आणे त्याला दिले. मग रस कॅन्सल केला, भाजी घेतली आणि आम्ही घरी आलो आणि आजीनं सगळ्यांना सांगितलं की तिने मला टीव्हीवर बघितलं.. टीव्हीवर बघितलं. तर सगळी कथा दिवसभर वाड्यामध्ये सांगत होतो आम्ही… सर्वात महत्त्वाचं काय तर तिने आल्यावर माझी दृष्ट काढली. तिला माझ्याबद्दल फार प्रेम होत… मी खूप धीट, हुशार, भाषण करणारी, स्टेजवर उभी राहणारी.. वडिलांबरोबर काम करत होते ना…! अगदी गणपती उत्सवात आमचे दहा दिवस कार्यक्रम असायचे.. तर ती आमच्या दारापाशी झोपलेली असायची आणि आम्ही आलो आहोत की पहिल्यांदा माझी दृष्ट काढून ती तिच्या घरात जाऊन झोपायची. मामा आणि आम्ही सगळे शेजारीच राहत होतो अशा तऱ्हेने माझ्या टीव्हीवरचा पहिला शो त्याचा एकमेव प्रेक्षक माझी आजी होती आणि त्याची किंमत मला चार आणे द्यावी लागली.

नंतर आपल्याकडे वृत्तदर्शन सुरू झालं. अनेकांच्या मुलाखती सुरू झाल्या. स्थानिक चॅनेलवरती येण्याचा योग अनेकदा आला. मला आठवते एक मुलाखत सुनेत्रा पंडित यांनी घेतली होती. एकदा एक मुलाखत रामतीर्थकर मॅडमनी घेतली होती. एकदा माझ्या शाळेमध्ये म्हणजे तडवळकर ट्रस्टच्या नापास शाळेमध्ये माझी मुलाखत माझ्या एका विद्यार्थिनीने घेतली होती. असं अनेकदा मग टीव्ही वरती स्थानिक प्रक्षेपणात दिसायचं… पण चार आणे खर्च करून मी टीव्हीवर दिसण्याचा किंवा मला टीव्हीवर बघण्याचं सुख माझ्या आजीने त्यावेळेला गड्ड्याच्या जत्रेत घेतलं होतं आणि तिचं ते वाक्य नेहमी मला आठवतं.. ” अग तू मोठी झाल्यानंतर खूप ठिकाणी टीव्ही असतील, कदाचित तू त्यात दिसशील, पण मी त्यावेळेला असणार नाही ना? ” म्हणून परिस्थिती नसताना त्या माऊलीने माझ्यासाठी चार आणे खर्च केले. ती चरख्यावर सूत काढून ते पैसे कमवत असे आणि एक पूर्ण सुताचा बिंडा तयार झाला की त्याचे दोन आणे मिळत. खादी भंडारमध्ये आम्हीच नेऊन घालत असू.. इतक्या कष्टाने मिळवलेले चार आणे तिने माझ्यासाठी खर्च केले.

आज लाखो रुपये खर्च होतात.. कोणी करतो.. मी कोणावर तरी करते. पण हे प्रेमच वेगळं होतं आणि त्याच्या मागचा विचारही खूप मोठा. माणसं गरीब होती, पैसा नव्हता, पण माया पोटात खूप होती. आज अगदी सहजच आठवण झाली आजीची आणि त्या निमित्ताने मला तो अगदी विस्मृतीत गेलेला प्रसंग आठवला. अशी प्रेमळ आजी मला मिळाली. परमेश्वरा तू ते भाग्य आम्हाला दिलंस.. खूप प्रेम करणारी माणसं म्हणजे आपण खूप श्रीमंत हे लक्षात ठेवा….!

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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