मराठी साहित्य – मराठी कविता – * स्वप्नातलं घर…! * – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम
स्वप्नातलं घर…!

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। प्रस्तुत  है उनकी नवीनतम कविता स्वप्नातलं घर…!)

घराच्याही स्वप्नातलं घर
विसरली आहेत माणसं.
चार भिंतीत मुकी राहू,
लागली आहेत माणसं
चार भिंतींच्या घराचं
गणित आता बदललंय,
चार भिंती एक छप्पर
नावापुरतंच उरलंय.
येण्याजाण्यासाठी घराला
दार तेवढं ठेवलंय.
“येता जाता बंद करा”
हे लेबल त्यावर लावलंय.
खिडकी मधून नजरेत येईल
तेवढं जग साठवायचं.
मनामधलं पोरकं जग,
गॅलरीत जाऊन आठवायचं.
बोलणं फारसं होत नाही
पण भेट तेवढी नक्की होते.
एवढ्या तेवढ्या कारणावरून
विनाकारण चिडचिड होते.
कळत नाही कुणाला काही
पण, काहीतरी हरवलंय.
मना मनातलं अंतर आता
नको इतकं वाढत चाललंय.
कामावरचं टेंशन आता
रोज सोबत घरात येतं.
दारामधून आत बाहेर
वार तेवढं वाहत राहतं.
आपापल्याच नादात इथे
प्रत्येक जण बिझी असतो.
टिव्ही समोर असतानाही
मोबाईलमध्ये डोकावत बसतो.
सारी नाती आता एका
मुठीमध्येच बंद होतात.
एका टच वर ऑनलाईन तर
एका टच वर ऑफलाईन होतात.
येणं जाणं कुणाचंही
सहन आता होत नाही.
घराबाहेर पडायला म्हणे
वेळ आता मिळत नाही.
सण सुध्दा हल्ली आता
चार भिंतींत साजरे होतात.
दाराबाहेरच्या चौकटी मात्र
रांगोळीसाठीच तडफडतात.
चार भिंती असल्या म्हणजे
घराला घरपण येत नाही.
फक्त घरात राहिलो म्हणजे
जगतोय म्हणता येत नाही..
©सुजित कदम
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मराठी साहित्य – मराठी कविता – * पुन्हा प्रश्न तेच * – सुश्री विजया देव

सुश्री विजया देव

पुन्हा प्रश्न तेच

(सुश्री विजया देव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता।)

पुन्हा पुन्हा पावलाना
लागतेच ठेच
नवी नवी संकटे
नवे नवे पेच
विसावा मनाला द्यावा जरासा
दत्त म्हणुनी ठाकती
पुन्हा प्रश्न तेच
साैख्य आहे दाराशी
पाेटभर अन्न
तरीही कां भासते
पाेट रिकामेच
कशासाठी  हा प्रवास
चालताे आहे
ध्येय काेणतेच नाही
जिवन जुनेच
सारे जगुनिया झाले
नाही आस काेणती
सुखाने हा जीव जावा
मागणे एवढेच
©  विजया देव
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।24।।

यह अच्छेद्य,अक्लेद्य है,अमर सर्व परिव्याप्त

अचल सनातन अलख है स्वयं आप में आप्त।।24।।

 

भावार्थ :   क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।।24।।

 

This Self cannot be cut, burnt, wetted nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable, ancient and immovable. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – How to be Healthy, Happy and Wise – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

How to be Healthy, Happy and Wise

A Pathway to Authentic Happiness, Well-being and a Meaningful Life

Happiness, say the positive psychologists, is the experience of joy, contentment, or positive well-being, combined with a sense that life is good, meaningful, and worthwhile.

Twenty-three hundred years ago, Aristotle concluded that, more than anything else, men and women seek happiness. It is the meaning and the purpose of life, the whole aim and end of human existence. Different men seek after happiness in different ways and by different means, and so make for themselves different modes of life.

What is the pathway to authentic happiness, well-being and a meaningful life? How can we equip ourselves with sustainable scientific tools to cultivate a happy and fulfilling life with a greater sense of well-being? This article attempts to answer these questions.

Taking care of body, mind and spirit is of utmost importance. It’s like a tripod. All limbs must be equally strong for balance and harmony. We need to transform the entire experience of life by taking care of all the relevant dimensions – physiological, psychological and spiritual.

After years of deep study and practical sessions with people from all walks of life, a holistic approach has emerged that blends carefully the best of positive psychology, meditation, yoga, laughter yoga, and spirituality.

Positive psychology is the science of happiness. It provides authentic understanding of happiness and well-being and dispels myths and wrong notions about happiness. It is a treasure trove of evidence-based happiness-increasing strategies from which one may choose activities suitable for oneself.

Meditation is an invaluable tool for calming, concentration and purification of the mind. It clears clouds and lets you seek wisdom. According to Matthieu Ricard, happiest monk on this planet, “Meditation is a practice that makes it possible to cultivate and develop certain basic positive human qualities in the same way as other forms of training make it possible to play a musical instrument or acquire any other skill.”

Yoga can do wonders for your health by stimulating endocrinal systems and taking care of neuro-muscular systems. It is suitable for modern day lifestyle diseases and brings about body-mind union. If you don’t have enough time, even then surya namaskara can be easily integrated into your daily life as it requires only five to fifteen minutes’ practice daily to obtain beneficial results remarkably quickly.

Laughter yoga combines laughter exercises with yogic breathing. It is instrumental in oxygenation of the body, strengthening immune system, and stress relief as feel good hormones known as endorphins are generated during the process. Just ten minutes of gentle laughter in the morning can change the complexion of your day.

Spirituality provides right view and right understanding of life. It gives spiritual insight into right speech, right action and right livelihood. Inner wisdom steers us in the right direction. If you desire everlasting health and happiness, cultivate wisdom.

All the five components – positive psychology, meditation, yoga, laughter yoga and spirituality – put together, enable complete transformation of the entire experience of life.

The benefits include health, happiness and peace for individuals; stress relief, team building, higher productivity, leadership and positivity at workplaces; health, bonding and integration in communities; and creativity, better concentration, emotional intelligence, spiritual growth, strong immune system and all-round personality development of youngsters.

In conclusion, may we say that the practice of yoga, meditation and laughter yoga along with fundamental understanding of positive psychology and spirituality can lead you to lasting happiness and peace.

 

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

LifeSkillsis a pathway to authentic happiness, well-being and a meaningful life!

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.

Speak to us on +91 73899 38255
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-12 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–12  

e-abhivyakti  में  नित नए लेखकों एवं पाठकों के जुड़ने  से मुझे  इस साइट पर और अधिक परिश्रम कर इसे तकनीकी एवं साहित्यिक दृष्टि से पठनीय बनाने के लिए असीम ऊर्जा प्रदान करते हैं। मैंने प्रारम्भ से ही साहित्य के स्तर पर किसी भी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं किया। इस साइट के माध्यम से और नए प्रयोग करने की संभावनाएं प्रबल हैं और उन्हें समय-समय पर आप सबके सहयोग से करने के लिए मैं कृतसंकल्प हूँ।

पहला प्रयोग हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी साहित्य को एक मंच पर लाने का सफल प्रयोग किया।  संभवतः यह प्रथम वेबसाइट है जिसके माध्यम से इन तीनों भाषाओं के उन्नत साहित्य को आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं।

एक व्हाट्सएप्प ग्रुप www.e-abhivyakti.com भी बना रहा हूँ जिसके माध्यम से आपको प्रतिदिन प्रकाशित रचनाओं की जानकारी मिल सकेगी। हाँ, आप इस ग्रुप में कुछ पोस्ट नहीं कर पाएंगे। इसके लिए आपको अपनी रचनाएँ एवं संवाद मेरे व्यक्तिगत व्हाट्सएप्प नंबर पर ही पोस्ट करना होगा अन्यथा आपकी पोस्ट तो लोग व्हाट्सएप्प पर ही पढ़ लेंगे और प्रकाशित रचनाओं का आनंद लेने से सभी वंचित रह जाएंगे। और मुझे प्रत्येक लेखक को प्रकाशित रचनाओं की अलग से सूचित करने की आवश्यकता नहीं होगी। आशा है आप मेरी बात से सहमत होंगे।

निश्चित ही स्वस्थ लेखन एवं पठनीयता अभी  भी जीवित है और यह वेबसाइट इसका जीता जागता प्रमाण है। इस स्नेह के लिए मैं आप सबका हृदय से आभारी हूँ।

यह सत्य है कि प्रकाशित पुस्तकें अवश्य तकनीकी दृष्टि से उत्कृष्ट होती जा रही हैं किन्तु, उसको पढ़ने वाले ढूंढते नहीं मिल रहे हैं। प्रिंट ऑन डिमांड (POD) प्रक्रिया ने इस दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाए हैं। साथ ही मुद्रित संस्करणों की जगह ई-बुक्स ने ले लिया है। यह निश्चित ही नवीनतम तकनीकों में एक अग्रणी कदम है किन्तु, मेरी समवयस्क पीढ़ी एवं वरिष्ठतम पीढ़ी के कई सदस्य इस विधा से अनभिज्ञ हैं। इन सबके बाद सोशल मीडिया ने कई कट-पेस्ट साहित्यकारों को जन्म दे दिया है। कई बार तो उनकी प्रतिभा एवं ज्ञान के असीम भंडार को देखकर दाँतो तले उँगलियाँ दबानी पड़ती है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी गजल की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

अब ना किताबघर रहे, ना किताबें,ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको । 

आज बस इतना ही ।

हेमन्त बावनकर

28 मार्च 2019

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – *माझ्या गावी भेट दिलीच पाहिजे कारण….* – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

माझ्या गावी भेट दिलीच पाहिजे कारण….

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  का  मराठी आलेख  “माझ्या गावी भेट दिलीच पाहिजे कारण….” अत्यंत हृदयस्पर्शी  है।  श्री विजय जी को जितना प्रेम अपने साहित्य से है उनके गाँव से उनका प्रेम उनके साहित्य से किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। उनके गाँव से जुड़ी स्मृतियों से सजी इतनी भावप्रवण रचना के लिए उनकी लेखनी को नमन।)

गाव बदललं, गावातली माणसं बदलली, पण मनातल गाव, गावातलं घर, ते मात्र जसंच्या तसं राहिलं. आठवण झाली  . . . कुठं काहीही कार्यक्रम नसताना, कविसंमेलनाच कारण सांगून घराबाहेर पडलो, नीट तडक गावची एसटी धरली.

जवळ जवळ दहा वर्षांनंतर गावी येत होतो. गावच्या घरापर्यंत  आता टमटम जात होत्या. मला गाव पहायचा होता. गावातले बदल जवळून पहायचे होते. तेली आळीतला लाकडी घाणा. वेशीवरचा मारूती, शाळेजवळचा पिंपळाचा पार, दत्त मंदिर, राम मंदिर, बाजारपेठ, लालू शेठची पतपढी,कासार आउट, मोमीन  आउट, पोस्ट ऑफीस, ग्रामपंचायत कार्यालय, सार सार नजरेखालून घालायचं होत. गावात उतरलो अन् टवाळ पोरागत भिरभिरत्या नजरेने गाव बघू लागलो.

माणस भेटत होती. ओळखीचं हसत होती. जुजबी चौकश्या करीत  आपापल्या कामाला लागत होती. पारावरचे म्हातारेही हातची तंबाखू,  अन तोंडचा विषय सोडायला तयार नव्हते. .

”एकलाच आलासा जणू? पोराबाळांना तरी  आणायचं,  आरं, आंबे, फणसाचा सिझन हाय. . . गावचा रानमेवा तुमची पोरं खाणार कवा ?घेऊन यायचं त्यानला बी , म्होरल्या बारीला ध्यानी ठेव बर. ” असा जिव्हाळ्याचा संवाद करीत,गावच्या मातीचा सुगंध मनात भरून घेत गावच्या घरात शिरलो.

गावाकडं एक बरं असत. . .  अचानक जाऊन भेटण्याची मजा काही औरच  असते. थोडी गडबड, धावपळ, धांदल  उडते. काहिंची थोडक्यात चुकामूक होते, त्यांना भेटण्या साठी मुक्काम वाढवण्याचा  आग्रह होतो. मी ही मुक्काम वाढवला. कार्यक्रम  उशीरा संपणार असल्याची  आणखी  एक लोणकढी थाप पचवली.अन गावी जाण अपरिहार्य  असल्याचं पटवून दिलं.अन् गावच्या माणसात हरवून गेलो. मनातल्या गावातनं ,प्रत्यक्ष वास्तवात जाताना थोड  अवघड जातं. पण जुन्या आठवणी न भेटलेल्या माणसांची  आठवण भरून काढतात.

माझ्या गावाने. नुकतेच तंटामुक्त गाव म्हणून नावलौकिक प्राप्त केला होता. दारू नको दूध प्या सारखे  उपक्रम गावातली युवक मंडळी पुढाकार घेऊन राबवीत होती. गावात पिढ्यान पिढ्या पैलवानकी करणार्‍या कुटुंबातील नवयुवक सैन्य दलात भरती झाल्याचे कळले. अभिमानाने  उर भरुन  आला. सामुदायिक विवाह, प्रोढ शिक्षण,  बचत गट, बालवाडी, अंगणवाडी अशा उपक्रमातून गावातील महिला मोठय़ा उत्साहात सहभागी झाल्या होत्या.

अरू काकाचा मतीमंद पोरगा, गावातल्या वातावरणात स्थिरावला होता. कोंबड्या पाळायचा,चार म्हशी, दोन दुभत्या गायी, चरायला न्यायचा. त्यांची देखभाल करायचा. धारा काढायचा. चार घरी दूध पोचवायचा. गतीमंद होता पण मतीमंद नव्हता. निसर्गाच्या सानिध्यात, मनसोक्त जगायचा. वेड वाकड का होईना, पोरगं नजरेसमोर हसतयं यात  आई बापाला समाधान वाटत होत.

गावातल्या घरान गावकी, भावकी जीवापाड जपली होती. वाटण्या झाल्या होत्या. वेळप्रसंगी  मन दुखावली तरी  माणस दुरावली नव्हती. माझ जाण नसल तरी भाऊ , पत्नी,  आई , वहिनी, काका, काकी, आज्जी, यांनी घरोबा जपला होता. वाडवडिलांनी राखलेली वाडी,  फुलवलेलं परसदार, आजही  सणावाराला वानवळ्याच्या रूपात भरभरून प्रतिसाद देत होतं.

भावकीतले चार हात शेतीत, फुलमळ्यात,फळबागेत, परसात, राबायचे, त्यांच्या कष्टान काळ्या मातीचं सोनं व्हायचं. ज्या मातीत लहानपणी खेळत लहानाचे मोठे झालो ती माती राबणारा हातांना भरभरून यश देत होती. माझं गावाकडं प्रत्यक्ष येणं नसलं तरी गावची भावकी संपर्कात होती. घरातले कुणी ना कुणी तरी गावाकडे फेरफटका टाकायचे. त्यामुळे ख्याली खुशाली कळायची. पण रानवारा प्रत्यक्ष श्वासात भरून घेण्याचा  आनंद काही औरच  असतो. त्याचा आनंद मी घेत होतो.  जमेल तितके गाव नजरेत साठवून ठेवण्याचा प्रयत्न करीत होतो.

शहरातील बरीचशी खरेदी माझ्याच सल्ल्याने व्हायची. कथा, कविता, जशी माणसाला जगायला शिकवते ना तसा हा निसर्ग, गावच घर जोडून ठेवण्यात यशस्वी ठरला होता. कुणी फुले, फळे, दूध, दही, ताक, लोणी, तूप, खवा, खरवस,  अंडी ,नारळ ,सुपार्माया मागायला यायचं. बाहेर पेक्षा निम्मा किमतीन परसबागेत फुलवलेलं विकलं जायचं. धार्मिक कार्यात तर सढळ हाताने हा दानधर्म व्हायचा.

साहित्यिक जसा साहित्यात रमतो ना, तसं गावच घर या निसर्गरम्य परिसरात व्यस्त झालं होत. लेखकाने कागदावर लेखणी टेकवावी अन  (मोबाईलची बटणे दाबावीत..) अन प्रतिभा शक्तीने भरभरून दान पदरात घालाव तशी गावच्या घरी चारदोन जण मशागत करायची. घरातली जुनी जाणती परसबाग फुलवायची. कुणाला रोजगार मिळाला होता. कुणाला आधार मिळाला होता. गावचा निसर्ग माझ्या आठवणींशी स्पर्धा करीत मला  एकट पाडीत होता. निसर्ग त्याच काम चोख करीत होता.  करवंद , आंबा, काजू, फणस, केळी, पेरू, नारळ, पोफळी यांची वर्णन मी जितक्या उत्स्फूर्ततेने करायचो, तितक्याच  उत्कटतेने निसर्ग त्या त्या ऋतूत भरभरून फुलायचा.

दोन दिवसांनी जेव्हा भरभरून रानमेवा घेऊन घराकडे निघालो ना, तेव्हा त्या जडावलेल्या पिशव्यां सारखंच मनही भरून  आलेलं. दहा वर्षानंतर अचानक मला पाहिल्यावर आजीच डोळही असंच भरलेलं. निसर्गाच हे देणं, मांगल्याचं समृद्धीचं लेण अजमावून घेण्यासाठी मी ठरवल.  माझ गाव जमेल तस विकसित होत होत. गाव त्याच्या परीने गावातील माणसांना  आपलेपणाने बांधून ठेवत होत.  गावातून शिक्षणासाठी बाहेर पडलेला मी…. माझ्या कडे गाव मोठ्या  आशेने बघते आहे. मायेने साद घालते आहे  असा भास सारखा होत होता.  पाय जडावले होते.

 

आता जास्तीत जास्त वेळा, वेळ काढून गावाकडे यायचंच. माझ्या या गावी भेट दिलीच पाहिजे. . जमेल तेव्हा जमेल तसा वेळ काढलाच पाहिजे. माझ नाव मोठ करताना गावाच नाव देखील मोठ झाल पाहिजे माझा विचार सर्वांना बोलून दाखवला तोच दारातली बकुळीची फुलं अंगावर पडली… परतीचा  अहेर द्यावा  असं सुगंधी लेणं लेवून मी सर्वांचा नाही निरोप घेतला.

अचानक पणे गावात जाण्याचा योग मनात गावासाठी काहीतरी करायला हवे हा विचार मनात दृढ करीत गेला. त्याकरिता काय काय करता येईल याचा विचार करीत शहरातील घरी परत आलो.  परतीचा प्रवास करताना हाच दरवळ मनात ठेवून गावच घर,  आणि बाजूचा निसर्ग यांचे  आभार मानत शहरातल्या प्रापंचिक घरात प्रवेश केला. निसर्गाच हे अविरत देणं मनात साठवीत…. प्रसन्न मनाने माझ्या दुनियेत परतलो. काही जिवंत अनुभूती सोबत घेऊन. . . . !  माझ्या गावात पुन्हा पुन्हा यायला हवं.

 

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।23।।

शस्त्र न छेदन कर सके,अग्नि न सके जलाय

जल न गीला कर सके,पवन न सके उड़ाय ।।23।।

 

भावार्थ :   इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।।23।।

 

Weapons can not cut soul, fire can not burn it, water can not wet it and wind can not dry it. ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – happiness mantra.. – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

happiness mantra.

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-11 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–11 

भारतवर्ष के प्रत्येक प्रदेश एवं उस प्रदेश की प्रत्येक भाषा के साहित्य का एक अपना गौरवान्वित इतिहास रहा है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार जो अपना इतिहास रच कर चले गए हैं उनकी बराबरी की परिकल्पना करना भी उनके साहित्य के साथ अन्याय है। किन्तु, यह भी शाश्वत सत्य है कि समकालीन साहित्य एवं विचारधारा को भी किसी दृष्टि से कम नहीं आँका जा सकता।

इतिहास गवाह है कई साहित्यकार एवं कलाकार अपनी प्रतिभा के दम पर मील के पत्थर साबित हुए हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं स्वतंत्र विचारधारा के कारण उनके  साहित्य एवं कला ने उन्हें उनके देश से निष्काषित भी किया है। इनमें से कुछ नाम है जोसेफ ब्रोद्स्की, नज़िम हिक्मेत, तसलीमा नसरीन, मकबूल फिदा हुसैन और एक लंबा सिलसिला।

इस संदर्भ में मुझे अपनी एक कविता “साहित्यकार-पुरुसकार-टिप्पणी” याद आ रही है। प्रस्तुत है उस कविता के कुछ अंश :

 

यदि ‘‘अकवि’’

कोई संज्ञा है, तो वह

निरर्थक कविता करने पर

तुला हुआ है।

 

स्वान्तःसुखाय

एवं

साहित्य को समर्पित

वृद्ध साहित्यकार

किंकर्तव्यमूढ़ खड़ा है।

 

इतिहास साक्षी है

‘‘साहित्यकार’’

जिसका जीवन

जीवन स्तर से निम्न रहा है

प्रकाशक

उसके साहित्य पर पल रहा है।

ट्रस्ट उसके नाम से

धनवान प्रतिभावान साहित्यकार को

पुरुस्कृत कर रहा है।

नवोदित साहित्यकारों को

चमत्कृत कर रहा है।

 

वह वृद्ध हताश

देख रहा है तमाशा

चकनाचूर है

साहित्य सेवा की अभिलाषा

कल तक वह

शब्द महल गढ़ता था

आज वे ही शब्द उसे

छलते हैं।

 

वह समाचार पढ़ता है

अमुक साहित्यकार को

अमुक मंत्री ने

चिकित्सा हेतु

सहायता कोष से दान दिया।

उसे तसल्ली होती है

कि – चलो

एक और मुक्त्बिोध

कुछ दिन और जी लेगा।

 

वह आगे पढ़ता है

निर्वासित जोसेफ ब्रोद्स्की को

नोबल पुरुस्कार मिला।

वह काफी चेष्टा करता है

किन्तु,

हृदय कोई भी

टिप्पणी करने से

इन्कार कर देता है।

 

वह बाध्य करता है

अपने पाठकों को,

रुस में जन्में

अमरीका में शरण पाये

साम्यवाद और पूंजीवाद

के साये में पले

निर्वासित बोद्स्की पर

टिप्पणी करने

निर्वासित या स्वनिर्वासित

नज़िम हिक्मेत,

मकबूल फिदा हुसैन,

तसलीमा नसरीन …. पर

टिप्पणी करने ।

 

वह अनुभव करता है कि –

यदि,

टिप्पणी वह स्वयं करता है

तो निरर्थक होगी

यदि,

टिप्पणी पाठक करता है

तो

निःसन्देह सार्थक ही होगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

27 मार्च 2019

 

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रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव

रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव 

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए  श्री समर सेनगुप्ता जी  एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर)   

“कोर्ट मार्शल”

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के व्यक्तिगत अनुदान योजना के अंतर्गत ( CFPGS) इस नाटक की प्रस्तुति विगत 18 मार्च 2019 तो शाम 7.30 बजे  मानस भवन, जबलपुर में श्री स्वदेश दीपक द्वारा लिखित  एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव के निर्देशन में की गई।

कलाकार/बैनर – समन्यास वैलफेयर सोसायटी, भोपाल

*निर्देशकीय*

मेरे लिए नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ की कहानी जाति व्यवस्था और उसके परिणाम दिखाने वाली नहीं है बल्कि उसके भी आगे जाकर मनुष्य के सबसे बड़े विकार ‘अहंकार’ को सामने लाने और उसे समझने की कोशिश है । किसी भी कारण से किसी को भी अपने से कमतर समझना और इस वजह से उसे प्रताड़ित करना किसी नये अपराध और अपराधी का जन्मदाता हो सकता है ।

सत्य की रक्षा के लिए न्याय प्रणालियां हमेशा से ही चिंतित रहीं हैं, शायद स्वदेश दीपक जी ने कोर्ट मार्शल की रचना इसी चिन्ता की बुनियाद पर की है और इसके लिए उन्होंने बड़ी कुशलता से सेना की पृष्ठभूमि को चुना क्योंकि सेना चाहे किसी भी देश की हो अपने कौशल, सजगता, निपुणता और देशप्रेम के लिए पहचानी जाती है । जहां अनुशासन सर्वोच्य ताक़त है वहीं भावुकता सर्वाधिक बड़ी कमज़ोरी ।

मगर फिर क्या होता है जब कमज़ोरी को भड़काया जाता है और इसके लिए भावुकता को हथियार बनाया जाता है ।

हां ये ज़रूर है कि ‘गाली का जवाब गोली से नहीं दिया जा सकता’ लेकिन गाली की तह तक पहुँचें तो सभ्यता-संस्कृति का ऐसा घिनौना रूप दिखता है कि तमाम आदर्श ही गाली लगने लगते हैं ।

अतएव मैं अपने आसपास की तमाम सामाजिक और मानसिक गन्दगी के अच्छे या बुरे (जो भी हों) पक्ष के बारे में सोचना, समझना, जानना और उसे सामने लाना ज़रूरी समझता हूँ जिसकी सिद्धि के लिए प्रस्तुत नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ मेरी बखूबी मदद करता है ।

हर चीज़ के पीछे कोई ना कोई कारण होता है । अपराध के भी कारण होते हैं ।

अपराध वो नहीं जो हुआ है और अपराधी भी वो नहीं जिसने किया है बल्कि अपराध और अपराधी वो है जिसने समय रहते कुछ बातों पर ध्यान नहीं दिया । उसे छोटा मानकर उसके खिलाफ शिकायत नहीं की, आवाज़ नहीं उठाया । यही अनदेखा, अनसुना कर दिया गया कृत्य ही कालांतर में एक भयंकर अपराध और अपराधी का रूप धारण कर लेता है ।

तथाकथित छोटे आदमी की शिकायत को वहीं दबा देना और स्वयंभू बड़े आदमी की ग़लती देखकर अपनी आंख बंद कर लेना ही अपराध है ।

कौन होता है अपराधी ? इंसान ? या उसकी सोच, उसके विचार, उसकी आत्मा । कौन ? और कौन है हंटर ऑफ दी सोल ? शत्रु कौन है, जो सामने खड़ा है वो, या वो, जो अंतस में छिपकर बैठा है ?

इन्हीं सवालों को समझने और उसके जवाब ढूंढने का नाम है नाटक ‘कोर्ट-मार्शल’

कथा सार-

नाटक की मुख्य कहानी फ्लैशबैक में है । नाटक का एक पात्र ब्रिगेडियर सूरत सिंह अतीत में हुई एक ऐसी घटना का ज़िक्र करता है जिसने उसके अब तक के जीवन के सोच की धारा ही बदल दी थी । युद्ध और कोर्ट मार्शल में मरने और मारने की बात करने वाले सूरत सिंह को अंततः कहना पड़ता है कि “पहली बार मुझे इस दिल दहला देने वाले सत्य का पता चला कि जब हम किसी जान लेते हैं तो हमारे प्राणों का एक हिस्सा भी मर जाता है, मरने वाले के साथ । सच क्या केवल उतना ही होता है जितना समझ आये ? दिखाई दे ?”

कोर्ट-मार्शल है रामचंदर का । किसी भी सैनिक की भांति रामचंदर भी अपने देश की आन-बान-शान के लिए मर मिटने को तैयार है । चुस्त, ईमानदार और अपनी ड्यूटी का पक्का रामचंदर एक आइडियल सोल्जर है । लेकिन एक दिन यह आदर्श सैनिक अपने ही रेजिमेंट के दो अफसरों को गोली मार देता है जिसमें एक की मौत हो जाती है और दूसरा गंभीर रूप से घायल हो जाता है । रामचंदर अपना गुनाह कबूल करता है लेकिन ये बताना नहीं चाहता कि उसने गोली क्यों चलाई । क्यों की हत्या ?

रामचंदर का जनरल कोर्ट मार्शल किया जाता है जिसमें उसे फांसी की सज़ा सुनाई जाती है लेकिन सज़ा सुनाने वाले प्रिसाइडिंग ऑफिसर कर्नल सूरत सिंह के लिए उन्ही का निर्णय उनके गले की फांस बन जाता है ।

स्वदेश दीपक (1942)

एक भारतीय नाटककार, उपन्यासकार और लघु कहानी लेखक हैं । उन्होंने 15 से अधिक प्रकाशित पुस्तकें लिखी हैं । स्वदेश दीपक हिन्दी साहित्यिक परिदृश्य पर 1960 के दशक के मध्य से सक्रिय हैं । उन्होंने हिन्दी और अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की थी । छब्बीस साल उन्होंने अम्बाला के गांधी मेमोरियल कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाया । 2004 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया । 2 जून, 2006 को वो सुबह की सैर के लिए गये   लेकिन आज तक वापस नहीं आये ।

कृतियाँ –

  • कहानी संग्रह- अश्वारोही (1973), मातम (1978), तमाशा (1979), प्रतिनिधि कहानियां (1985), बाल भगवान (1986), किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं (1990), मसखरे कभी नहीं रोते (1997), निर्वासित  कहानियां (2003)
  • उपन्यास-  नम्बर 57 स्क्वाड्रन (1973), मायापोत (1985)
  • नाटक- बाल भगवान (1989), कोर्ट मार्शल (1991), जलता हुआ रथ (1998), सबसे उदास कविता (1998), काल कोठरी (1999)
  • संस्मरण- मैंने मांडू नहीं देखा (2003)

प्रस्तुति : श्री समर सेनगुप्ता, जबलपुर एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव, भोपाल   

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