आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्राक्कथन

हर जन-मन पावन बने, सबका हो कल्याण

मानव मानव बन सके यह वर दो भगवान।।

वर्तमान समय विज्ञान का युग है। भौतिकवाद विश्व में परिव्याप्त है। विज्ञान ने छोटे बड़े विभिन्न यंत्रो और उनके सहयोग से नये-नये उत्पादों को गति दी है बहुमुखी विकास ने प्रखर बाजारवाद को जन्म दिया है। मानव की वृत्ति और रूचि में विकार हो गया है। धन अर्जन और उसके संग्रह तथा संवर्धन की मनोवृत्ति विकसित हुई है। धन का महत्व और प्रभाव बहुत बढ़ गया है पर दुर्भाग्य है कि इसी के परिणाम स्वरूप समाज का चारित्रिक पतन हुआ है। नौतिक मूल्यों का निरंतर ह्नास हो रहा है। धर्म निरपेक्ष राजनीति ने धर्म की उपेक्षा की है अतः धार्मिक भावना पर आघात हुआ हैं मन असंयमित और उच्छृंखल हो गया हैं। नई पीढ़ी के आचरण में पुराना धार्मिक भाव दिखाई नहीं देता । भड़कीले दिखावों की वृद्धि हुई है। सारा वातावरण बदला-बदला है। प्रेम, सहायोग, सद्भाव सहानुभूति, उदारता, ईमानदारी और कर्म निष्ठा के मूल्यवान मानवीय मूल्यों की आभा कम हुई है। स्वार्थ परता बढ़ी है। आर्थिक विषमता और वर्ग भेद को बढ़ावा मिला है। सारा विकास धन मूलक एवं एकांगी दिखता हैं परिस्थितियों में का बारीक विश्लेषण तो यही बताता है कि समाज में असमानता असंवेदनशीलता और असहयोग की भावना ने बढ़ती हुई भौतिक सुविधाओं के बीच भी, दुख और दैन्य को कम नहीं किया हैं उल्टे मानसिक वेदनायें बढ़ाई हंै और वे गुण जो यक्ति को व्यक्ति से जोड़ते है उनका सामयिक विकास नहीं हो पा रहा है। धार्मिक विचार जो मन में मृदुता और उदारता घोलते है, उनका घर परिवार में बड़े-बूढ़ों से जो शिक्षण और आदर्श मिलना चाहिये वह नहीं मिल पा रहा है। व्यस्तता के कारण समयाभाव ने जीवन सारणी को बिलकुल नया मोड़ दे दिया है। परिणामतः शारीरिक, मानसिक न सामाजिक विकृतियों ने जन्म ले लिया है। जीवन में सरलता के स्थान पर जटिलता बढ़ती जा रही है।

हमारा भारत जो कभी अपने मानवीय गुणों तथा धार्मिक आचरण और आध्यात्मिक चेतना के कारण अद्वितीय था और विश्व गुरू कहलाता था आज पश्चिम की अनावश्यक नकल के कारण अपनी उच्च चिंतन धारा से विमुख सा हो चला दिखाता है। हमारा देश आध्यात्मिक धरोहर का धनी है। वेदों, उपनिषदों के साथ गीता और रामायण सरीखे ऐसे उत्कृष्ट ग्रंथ है जिनमें मानवीय आदर्श और जीवन की कला का विशद विवेचन और मार्गदर्शन सुलभ है। ये विश्व साहित्य के अनुपम ग्रंथ है परन्तु आज अधिकांश लोगों का ध्यान उस और नहीं जाता। इनका अनुशीलन हमें जीवन में नयी दिशा दे सकता है। जो उनका पठन, चिन्तन, मनन करता है वह सदाचारी, सहिष्णु और विवेकी बनकर उत्थान कर सकता है। अपना और समाज का कल्याण कर सकता है तथा वास्तविक आनन्द प्राप्त कर सकता है। दोनों ंमें अनेकों ऐसे सरल सूत्र हैं जो मंत्रों की भाॅति सरलता से अपनाये जा सकते है और आदर्श जीवन जिया जा सकता है।

तुलसी दास जी कृत ‘‘रामचरित मानस‘‘ तो हिन्दी में है परन्तु योगिराज भगवान कृष्ण के मुख से उद्भूत गीता संस्कृत भाषा में है। बहुत से पढ़े लिखे विद्वान भी संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव में उसे पढ़ और समझ नहीं पाते। इसी दृष्टि से मेरे मन में उसका हिन्दी में श्लोकशः सरल अनुवाद उपलब्ध करने का भाव जगा।

ईश्वर की कृपा से अनुवाद बहुत अच्छा बन पड़ा है। प्रत्येक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी दिया गया है,  जिससे हर कोई पढ़ सके समझ सके, और गीता के मूल पाठ सा आनन्द लेते हुये चिन्तन-मनन कर सके , व यह वैश्विक रूप से उपयोगी पुस्तक बन सके . मेरे पुत्र विवेक रंजन श्रीवास्तव ने कृति को इस स्वरूप में प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मुझे विश्वास है कि सुधी पाठक कम से कम उत्सुकता वश इस गीतानुवाद को पढ़कर लाभान्वित हो सकेंगे। कुछ थोड़े पाठक भी यदि इस से लाभ पा सके तो मैं अपने श्रम को सफल समझूंगा।

जन साधारण से मेरा सादर विनम्र निवेदन है कि गीता व रामायण सरीखे पवित्र अद्धुत हितकारी ग्रंथों का आत्मशुद्धि और शांति के लिये प्रतिदिन समय निकाल कर पारायण अवश्य करें। ये सदाचार और आनंद देने वाले विश्व स्तरीय साहित्यिक ग्रंथ है। अस्तु।

 प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव ‘विद्ग्ध‘

              (सेवानिवृत्त-प्राध्यापक)

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(कल से हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

(हम गुरुवर प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव ‘विद्ग्ध‘  एवं  उनके सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के विशेष आभारी हैं जिन्होने उपरोक्त ग्रंथ 

e-abhivyakti.com  में प्रकाशित करने  हेतु उपलब्ध किया है।)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – *एक शेरनी सौ लंगूर* – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

एक शेरनी सौ लंगूर

(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का यह सटीक  व्यंग्य)

एक साल पहले सरकारी फंड से बने स्कूल की दीवार इस बरसात में भरभरा के गिर गई  तो दुर्गा पंडित जी  पड़ोस के खपरैल मकान की परछी में टाट पट्टी बिछा कर क्लास लगाने लगे। गांव के स्कूल की दीवारों पर ‘स्कूल चलें हम’ की इबारत लिखी देखकर कई बच्चे बिचक जाते फिर दुर्गा पंडित जी छड़ी लेकर उनको हकालते। बीच-बीच में गाली भी बकते जाते, बात बात में गाली बकना उनकी आदत ही है।
स्कूल में पहले प्रार्थना होती, फिर भजन होते हैं। जो बच्चा भजन नहीं गाता पंडित जी उसके पिछवाड़े में छड़ी चलाते । दुर्गा पंडित जी भजनों के बहुत शौकीन हैं। जब से उन्होंने अखबार में भजन गाने वाले डुकर की छोटी परी जस लीन की खबर पढ़ी है तब से उनको…….  “ऐसी लागी लगन’  वो भी हो गई मगन………” वाला भजन बार बार याद आता है। मेज में छड़ी पटकने के साथ पीरियड चालू हो जाता है, काले श्याम पट पर चाक से दिन और दिनांक लिख दी जाती है ।
छड़ी उठी छकौड़ी की तरफ…. “हां, तो छकौड़ी अपने प्रधानमंत्री का नाम बताओ?”
छकौड़ी – “भजन करेंगे… भजन करेंगे…. उनका नाम कल किसी से पता करेंगे…..”
छड़ी बढ़ी छकौड़ी के घुटने पर पड़ी।
दुर्गा पंडित जी बड़बड़ाने लगे – “बुरा हाल है शिक्षा का… मोबाइल ने बर्बाद कर दिया, सरकार शिक्षा पर ज्यादा प्रयोग करती रहती है स्कूल चलें हम लिखवाती है और  नकली डिग्री के बल पर लोग शिक्षा के मंत्री बन जाते हैं।आजकल की औलाद बहुत उज्जड्ड है कुछ पूछो कुछ बताती है। भजन गायक हारमोनियम बजा बजा के  “भजन बिना, चैन न आये राम “
गाते गाते नयी उमर की बाला के प्यार में पड़ जाते हैं बच्चे सुनते हैं तो हंसते हैं। बच्चों का मन भटकने लगता है। मन भटकने से वे प्रधानमंत्री का नाम तक नहीं बता पाते हैं।बच्चे भोले होते हैं धारा 377 में कैसा – क्या होता है बार बार पूछते हैं। मास्टर जी नहीं बता पाते तो बाहर जाकर हंसी उड़ाते हैं। मोबाइल युग के बच्चे बड़े समझदार हो गए हैं, दुर्गा पंडित जी भजन गाते हुए पड़ोसन के घर घुसते हैं तो बच्चे तांका झांकी करते हैं। हंसते हैं….. मजाक उड़ाते हैं, फिर मेडम के पास धारा 497 का मतलब पूछने जाते हैं। मेडम चाव से अखबार पढ़ कर एडल्टरी के बारे में पूरी बात बताती हैं।  एक  बार-बार फेल होने वाला हृष्ट पुष्ट बच्चा मेडम को प्यार से देखता है। मेडम शादीशुदा हैं पर पति से चिढ़ती हैं पति महिलाओं की भजन मंडली में हारमोनियम बजाते हैं।
लंच टाइम के बाद फिर छड़ी उठी और सरला की चोटी में फँस गयी। सरला तुम जलोटा का संधि विग्रह करके श्याम पट में लिखो। सरला होशियार है उठ कर शयामपट में लिख देती है… ”  जलो +टाटा”
दुर्गा पंडित जी बताते हैं कि भजन में बड़ी शक्ति होती है और भजन में बड़ा वजन होता है भजन से तनाव दूर होता है और भजन करते करते मन जस लीन में लीन हो जाता है।
चुनाव के पहले बड़े बड़े अविश्वसनीय ऐतिहासिक पार्टी सुधारक फैसले आ रहे हैं कई बड़े नेता इन फैसलों से खुश हैं और नेता जी की बड़ी जीत बताते हैं। अभी अभी खबर आयी है कि “वो आ गई है” फिर से गली मोहल्ले की चौपाल में लोग बड़बड़ायेंगे…
“एक शेरनी सौ लगूंर”
शेरनी के फैसलों से हर गली मुहल्ले में नयी नयी भजन मंडलियां बनेगीं और बच्चे नयी नवेली संस्कृति से परिचित होंगे। नये नये रोमांचक रहस्यमय वीडियो वाईरल होंगे। लोग मजे लेंगे दवाईयों की दुकान में खास तरह की दवाईयों और तेल की मांग बढ़ जाएगी। स्कूलों के टायलेट में सीसीटीवी लगाने का धंधा बढ़ जाएगा। चुनाव और तीज त्योहारों में हारमोनियम बजाने वाले की डिमांड बढ़ जाएगी। दुख है कि तब तक दुर्गा पंडित जी रिटायर हो जाएंगे और खटिया में डले डले टी वी में भजनों के कार्यक्रम भी देखेंगे और देखेंगे यू पी के रिजल्ट……. ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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व्यंग्य
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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – *हळवा क्षण* – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

हळवा क्षण

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति  हसबनीस जी  का आलेख  हळवा क्षण)

काळ भराभर पुढं जात असतो. आणि स्वत:बरोबर आपल्यालाही नेत असतो. कधी स्वखुषीने तर कधी नाईलाजाने, त्याचं बोट धरून पुढे पुढे आपली पावलं पडत राहतात. मागचं सारं काही धुसर धुसर होत जातं आणि त्याच वेळी समोरच्या दृष्यातले रंग अधिकच गहिरे आणि वेधक वाटायला लागतात. बदलत्या आयुष्याशी जवळीक वाढू लागते, गोडी निर्माण होते. जीवनातली लज्जत आणि रंगत अनुभवता अनुभवता एखादा क्षण असा येतो की परत मन झर्रकन काळाचं बोट सोडून पार भूतकाळात मुसंडी मारतं ..आणि शोधू लागतं काही हरवलेलं, निसटलेलं, काळाच्या ओघात दुरावलेलं..!! पाऊस पडल्यानंतरची तरारलेली जुईची वेल आणि वेड लावणारा तिचा सुगंध फार फार बेचैन करतो जिवाला! कर्दळीच्या पानातल्या जुईच्या कळ्यांची पुडीच माझ्या नजरेसमोर येते आणि पार माझ्या शाळा कालेजच्या दिवसात घेऊन जाते ती मला ! आई-बाबांचं सहजीवनच साकारतं माझ्या डोळ्यासमोर! छोटंसं घर आमचं चाळीतलं, बाग कुठे असणार तिथे ! पण बाबा अतिशय रसिक, आईची फुलांची आवड  ओळखून न विसरता पावर हाउस वरून येतांना जुईच्या कळ्या तोडून कर्दळीच्या पानांत बांधून आणायचे , आणि शाळेतून आलेली थकलेली आई प्रसन्न्  चेहऱ्याने गजरा करायची! गजरा लावतांनाचा तिचा आनंदी चेहरा अजूनही डोळ्यांसमोर तस्साच आहे, आणि आफिसमधून आल्यावर लगबगीने आईच्या हातात ती हिरवी पुडी देतांनाची बाबांची कृतकृत्य भाव असलेली छबी तश्शीच मनावर कोरली गेलीय ..!

काळाबरोबर भरपूर पुढे आलेय ..भरपूर काही मागे राहिलंय पण आई-बाबांच्या सुखी समाधानी सहजीवनाच्या स्मृती तर कालातीत आहेत …नेहमीच पाऊस पडणार …जुई तरारणार ..आणि त्या हिरव्या गार पुडीतल्या जुईच्या कळ्या मला परत लहान करणार ..आई-बाबांकडे घेऊन जाणार ..

येतो असा एखादा क्षण खुप हळवं करून जाणारा …!!

© ज्योति हसबनीस

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * ए.टी.एम. में प्रेम * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

ए.टी.एम. में प्रेम

(e-abhivyakti में सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का स्वागत है।) 

जब ए.टी.एम. नहीं थे तब सबको एक तारीख का इंतजार रहता था, भले यह इंतजार  से 2 तारीख से चालू हो जाता था। यह इंतजार सुनहरे सपनों की तरह था जो महीना भर साथ रहता था। मर्दों को एक तारीख का बहाना मिल जाता ‘‘घबड़ाओ नहीं एक तारीख को तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा। इस इंतजार में शेष समय शांति से बीत जाता। बच्चे भी खुश  और उनकी मां भी खुश । एक तारीख से हफ़्ते भर पहले पत्नी के उलझे बाल संवरने लगते। चेहरे पर रंग-रोगन की चमक आ जाती।  शाम को पत्नी सज-संवरकर तीखी मुस्कान से स्वागत करती। यह सिलसिला हफ़्ता भर चलता। इन दिनों सूखे में भी हरियाली रहती और पति भी चाहता था कि एक तारीख को सारी मांग पूरी कर दे। यह नाटक सिर्फ आखिरी दिनों में ही करना पड़ता और आखिरी दिनों में गीले आटे से सने हाथ, उलझी जुल्फों के साथ ओरिजनल साफ-सुथरी षकल दिखती। एक तारीख तो खास होती, उस दिन सोला टका नगद तनख्वाह मिलती, न कोई झंझट न कोई लफड़ा। ये भारतीय परिवार के अच्छे दिन थे। यह भी अधिक दिन नहीं चल पाया।

एक दिन सरकारी फरमान आ गया, आप लोगों का वेतन आपके खाते में डाल दिया जायेगा। जिस दिन से पत्नियों ने बैंक वाला फरमान सुना तबसे वे जरूरत  के समय ही समर्पित और शेष दिन अपनी मर्जी की जि़्न्दगी जीतीं। बैंक के भी मजे थे, नया-नया खाता था। पासबुक शानदार कवर चढ़ाकर रखते थे। बच्चे पासबुक को बड़ी ललक भरी नज़रों से देखते थे। उनकी इच्छा होती कि उसे स्पर्श कर लें, पर तुरन्त डांट पड़ जाती – यह गंदी हो जायेगी, यह बहुत कीमती चीज़ है। पत्नी को तो पासबुक दिखाते ही नहीं। अगर वह कहती – अपनी पासबुक दिखाओ। तब हम उसे टरका देते – तुम्हारे हाथ गंदे हैं, खराब हो जायेगी या अभी समय नहीं है, बाद में देख लेना। कुछ इसी तरह के बहाने बना देते और उसे पासबुक से दूर रखते। पढ़ी-लिखी पत्नियों के खतरे अधिक हैं और फायदे कम, वे पैसे के मामले में समझदार अधिक होती हैं, पासबुक में जमा राशि  पर उनकी नज़र  रहती है, अतः सावधान रहना पड़ता है।

बैंक से पैसे निकालने के हमने अनेक तरीके ईजाद  किये। जिस दिन पैसा निकालने बैंक जाते, उस दिन हमारी खास सेवा- सुश्रुशा होती। खाली चाय नहीं, साथ में तगड़ा नाश्ता भी होता। हमको सजा-संवरा देख मोहल्ले वाले टोक देते – ‘‘गुप्ता जी बैंक जा रहे हो!’’ जाने के पहले हम चैकबुक निकालते, बच्चों को दिखाते, देखो इसे चेक कहते हैं। इस कागज के टुकड़े पर बैंक वाला हमें पैसे दे देगा। चेक को बुक से सावधानी से अलग करते, दो-चार बार उलटते-पलटते, फिर पत्नी से पूछते – ‘‘कितना लाना है।’’ वह जितना बताती उससे अधिक पैसा निकालते, शेष अपनी जेब में और बाकी से थमा देते। चेक में रकम भरते, अंकों में लिखते और दस्तखत करने के पूर्व दो चार बार बारीकी से चैक करते – यदि स्कूल और काॅलेज की परीक्षाओं में कापी जमा करने के पहले इतनी बारीकी से चैक करते तो शायद अपनी इस स्थिति का मलाल न रहता – तब दस्तख़त करते, फिर अपने ही दस्तख़त पर मंत्र-मुग्ध होते – ‘‘क्या शानदार हैं, क्या पाॅवर है हमारे दस्तख़तों में।’’ बैंक जाते, दो-चार लोगों से मेल मुलाकात करते – ‘‘देखो हमारा भी बैंक में खाता है, या हम भी बैंक वाले हैं। उसका रुआब ही अलग होता। पहले बैंक में खाता होना एक स्टेटस था। पर आज बैंक से लोन लेना स्टेटस होता है। लोग शान से बताते हैं – ‘हमने फलाने बैंक से इतना लोन लिया है। हमारी इतनी लिमिट हो गयी है। खाते में बिना पैसे के इस लिमिट तक पैसा निकाल सकते हैं। क्या उधार लेना सम्मान की बात हो गयी है? कि लोन लो और वापिस मत करो। लोन लो, भूल जाओ। टेंशन मत लो। फिर तो बैंक का टेंशन हो जाता है, आपका टेंशन, बैंक का टेंशन । आप टेंशन-मुक्त।

खैर दिन गुजरने लगे। चैक से पैसे निकलते रहे। फिर एक दिन एक दिन एक दुर्घटना घटी एक दिन बैंक से पैसे निकालने गये कि बाबू ने फार्म पकड़ा दिया और कहा – ‘‘बस नीचे सुन्दर हस्ताक्षर कर दो, शेष  फाॅर्म हम भर देंगे। अब अगले महीने से हमारे पास पैसे लेने मत आना। आपके पास एक कार्ड आएगा, जिससे बाहर लगी मशीन से ज़रूरत  के मुताबिक पैसा निकाला जा सकता है। हमने कहा – ‘‘मशीन से कैसे पैसा निकालेंगे।’’ तब उसने कहा – ‘‘आप कार्ड लेते आना, हम तरीका समझा देंगे।‘‘ एक दिन कार्ड आ गया, जिसे लेकर हम बैंक पहुंचे और बाबू से कहा, अब बताओ इससे कैसे निकलेगा पैसा? उसने पैसा निकालने का तरीका समझाया, जो आसान था। एक मित्र ने बताया, इसे मात्र कार्ड भर न समझो, यह लक्ष्मी है, लक्ष्मी! इसे संभाल कर रखो। तब से हम उसे पूजते, एहतियात बरतते और पत्नी-बच्चों से बचाकर लाॅकर में रखते।

इस तरह जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी कि एक दिन नोटबंदी की घोषणा हो गयी। मशीन ने नोट उगलना बंद कर दिया। अब स्थिति यह हो गयी कि बैंक और मशीनों में ‘नोट देने रुकावट के लिए खेद’ का बोर्ड लगा दिया गया। बैंक के सामने लंबी लाइन लग गईं। अब अख़बारों में समाचार और विज्ञापन छपेंगे कि फलानी जगह का फलाना एटीएम बंद है, अतः आप कष्ट  न करें। इससे एटीएम का नये ढंग से उपयोग होने लगा।

अब अपना पैसा भी लाईन में लगकर लो। बैंक वाला तो, ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।’ अपना पैसा लो और अपमान ब्याज में, मन चाहा पैसा भी नहीं ले सकते हैं। जितना मशीन कहेगी, उतना ही मिलेगा, वह भी जेन्टलमेन की भांति कतार में लगकर। अब मशीन भी धोखा दे देती, उसका पूरा आदेश का  पालन करो, फिर अंत में कह देती है, पैसा नहीं है, कष्ट के लिए खेद है। कभी-कभी तो यह स्थिति आई कि गार्ड बाहर से ही टरका देता। हम एक दिन पड़ौस के एटीएम पहुंचे, बाहर गार्ड साहब ने दूर से ही रोका, ‘बाबूजी मशीन में रुपया नहीं है।‘ हमने कहा, ‘कोई बात नहीं, अपना बेलेंस पता कर लेंगे।’

– उससे क्या फायदा?

– अपना जमा पैसा मालूम हो जायेगा।

– कोई फायदा नहीं मशीन बंद है।

अंदर से कुछ खटपट की आवाज़ आ रही थी। हमारा संवाद सुन एक युवा जोड़ा लगभग चिपका हुआ बाहर निकला। दोनों हाथों में हाथ डाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये।

मैंने पूछा – यह क्या है?

गार्ड ने कहा – प्रेम…!

– प्रेम, मशीन में प्रेम, पर मशीन तो बंद है।

– सर, मशीन बंद है पर उसका ए.सी. चालू है। बहुत सुकून मिलता है उन्हें।

– और तुम क्या कर रहे हो?

– सर मशीन बंद है, तो हम भी पुण्य कमा रहे हैं।

© रमेश सैनी 

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व्यंग्य
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हिन्दी साहित्य – कविता – * रौशनाई * – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

रौशनाई

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की  एक  भावप्रवण कविता।)

 

ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?

क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?

 

बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,

बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!

 

क्या एक पल की रौशनी है,अंधेरा छोड़ जायेगी?

या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?

 

डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,

कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!

 

ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,

जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!

 

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कविता
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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – *शिस्तीची चौकट* – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

शिस्तीची चौकट

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति  हसबनीस जी  का आलेख  शिस्तीची चौकट)

अतिशय निष्ठेने एखाद्या व्रतस्थासारखं आपला दिनक्रम पाळणाऱ्या व्यक्तिंविषयी मला नेहमीच आदर आणि कुतूहल वाटत आलंय. आदर त्यांच्या शिस्तबद्ध जीवनशैलीबद्दल आणि कुतूहल नेमकी कुठल्या मातीची ही मंडळी बनलीत त्याबद्दल !

उजाडल्यापासून  तर मावळेपर्यंत एका ठराविक पद्धतीनेच दिवसाची वाटचाल करणं यांना पसंत असतं. त्या आखीव रेखीवपणात एकही रेष जागची हललेली यांना चालत नाही. नियमितपणे अनियमितपणा करण्यावर यांचा काडीमात्र विश्वास तर नसतोच पण अनियमितपणा ह्या शब्दाला त्यांच्या शब्दकोषात स्थानच नसते ! पेपर वाचायचा झाला तरी ठराविक वेळेतच ठराविक बातम्यांना प्राधान्य देतच त्याला गुंडाळणार, मग कितीही वाचनीय संपादकीय असू दे, की मजेदार लेख असू दे ! घड्याळाच्या काट्यांची पोझिशन हवी ती आली की पेपरची गुंडाळी भिरकावलीच ! फिरायला निघाले तरी,डोळ्यांवर झापडं बसवल्यासारखी अगदी नाकासमोर चालणार, पक्ष्यांची मंजुळ साद ऐकून कान टवकारणार नाहीत, की आवाजाच्या रोखाने वेध घेणार नाहीत. चालीमध्ये ठराविक गती राखत, अध्ये मध्ये न रेंगाळता, झपझप योजलेला पल्ला पार करत व्यवस्थित घर गाठणार !दिवसभराचं व्यस्तपण घरी आल्यावर तरी शांत करतं का ..? छे: एक नजर मोबाईलवर अर्ध ऑफिस समर्थपणे पेलण्यात गुंगलेली तर एक नजर घड्याळाच्या काट्यांच्या गरगरण्यात गुंतलेली !आली रे आली हवी तशी पोझिशन काट्यांची की  अन्न हे पूर्णब्रह्म मानून तेही एका रिच्यूअल सारखं आटोपून दिवसाची अखेर TV समोर रंजक करायला हे मोकळे ! हातात रिमोट जरी असला तरी त्यावर ठराविकच चॅनेल्स चे नंबर असावेत की काय याची दाट शंका यावी इतकी आलटून  पालटून इन मिन तीन जरी नाही तरी पाच ते सहा चॅनेल्स बघणार ज्यात कधीही चटकदार सीरियल्स नसणार, मूव्हीज नसणार ..! हो , जगभरातल्या घडामोडींची मात्र रेलचेल असणार !

झोप यांच्या डोळ्यावर कधीच नसते ती तर घड्याळाच्या काट्यांवर असते …? त्यांची ह्यांना जमेल तशी हातमिळवणी झाली की निद्रा त्यांच्यावर प्रसन्न झालीच म्हणून समजा ! एका शिस्तबद्ध कार्यक्रमाची सांगता यशस्वीपणे झाल्याच्या खुषीत ही मंडळी लयबद्ध घोरू देखील लागतात !

कित्येकदा ह्या शिस्तबद्ध चौकटीचे कोन आजूबाजूच्यांना खुपतात, त्रासदायक ठरतात, पण ह्या शिस्तबद्ध चौकटीतलं जग अत्यंत सुरक्षित असतं, अनियमितपणाला घातल्या जाणाऱ्या नियमित वेसणामुळे एक अंगभूत अशी संरक्षक कवच कुंडलं ह्याला प्राप्त झालेली असतात,  ही शिस्तशीर चौकटच त्या जगाची शान असते !

© ज्योति हसबनीस

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मराठी आलेख
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हिन्दी साहित्य – कविता – * पुरानी दोस्त * – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

पुरानी दोस्त

(जीवन के कटु सत्य को उजागर करती सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की  एक  भावप्रवण कविता।)

कभी

वो तुम्हारी पक्की सहेली हुआ करती होगी,

एक दूसरे का हाथ थामे हुए

तुम दोनों साथ चला करते होगे,

ढलती शामों में तो

अक्सर तुम उसके कंधों पर अपना सर रख

उससे घंटों बातें किया करते होगे,

और सीली रातों में

उसकी साँसों में तुम्हारी साँस

घुल जाया करती होगी…

 

तब तुम्हें यूँ लगता होगा

तुम जन्मों के बिछुड़े दीवाने हो

और बिलकुल ऐसे

जैसे तुम दोनों बरसों बाद मिले हो

तुम उसे अपने गले लगा लिया करते होगे…

 

तुम उसे दोस्त समझा करते थे,

पर वो तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन थी!

 

यह तो अब

तुमने बरसों बाद जाना है

कि तनहाई का

कोई अस्तित्व था ही नहीं,

ये तो तुम्हारे अन्दर में बसी थी

और तुम्हारे कहने पर ही निकलती थी…

 

सुनो,

एक दिन तुम उठा लेना एक तलवार

और उसके तब तक टुकड़े करते रहना

जब तक वो पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाए…

 

उसके मरते ही

तुम्हारे ज़हन में

जुस्तजू जनम लेगी

और तब तुम्हें

तनहाई नामक उस पुरानी सहेली की

याद भी नहीं आएगी…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में  आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)

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कविता
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मराठी साहित्य – मराठी कथा / लघुकथा – *ऊस डोंगा परी……..* – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

ऊस डोंगा परी……..

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति  हसबनीस जी   की लघुकथा ऊस डोंगा परी……..। )

रात्रीची फ्लाईट घेतांनाच मनावर एक प्रकारचं दडपण आलं होतं. एयरपोर्टपासून घर बरंच दूर होतं. रात्रीच्या वेळी पायाखालचा रस्ता, सवयीची वळणं देखील अनोळखी भासू लागतात, रस्त्यावरचे दिवे बऱ्याचदा काळोखच उजळ करतायत की काय असा भास होत असतो. पण वेळेचं आणि पैशाचं  गणित सोडवण्याचा हाच एक उत्तम पर्याय असल्याने जिवाच्या कराराने शेवटी हाच निवडला , आणि आता ज्याची भिती वाटत होती तेच झालं. चांगली दीड तास लेट झाली होती flight! विमान लॅंड होऊन सामान मिळेपर्यंत ११.३० च वाजले होते.

सामान घेऊन बाहेर पडले आणि रिक्षेवाले टॅक्सीवाले मागे पुढे घोटाळायला लागले, टॅक्सी की रिक्षा अशी दोलायमान स्थिती असतांनाच एक काळाकभिन्न,  राकट, डेरेदार पोटाचा, घेरदार माणूस जणू मला घेरल्यासारखाच जवळ आला. ‘चला आपल्या रिक्षेत बसा, सामान द्या, तुम्ही व्हा पुढं!’ मला हो नाही म्हणायची संधी ही न देता.

जणू त्याने फर्मानच सोडलं त्याच्या रिक्षेत बसायचं. आणि त्याने एका माणसाला इशारा केला, त्यासरशी त्या माणसाने सराईतपणे रिक्षा जवळ आणून उभा केला आणि माझं सामान ठेवायला सुरूवात केली. ‘माझा हात घट्ट घरून ठेव ‘असं देवाला विनवत मी रिक्षेत बसले. मी मनोमन स्वत:लाच शिव्या घालत होते की, ‘का आपण असे त्या माणसाच्या म्हणण्याला भुललो, का नाही म्हंटलं नाही , कसा दिसत होता तो, अक्षरश: गुंड पुंड, भाई कॅटॅगरितला वाटत होता! आणि त्याने इशारा केलेला माणूस पण त्यालाच सामिल असणार! कित्येक उलट सुलट  बातम्या पेपरमधल्या आपण वाचत असतो, का आपण त्यातून शहाणपण शिकत नाही, ‘अशा एक ना अनेक विचारांचे  भुंगे डोकं पोखरायला लागले.

दिवसभराची पावसाची झड थांबली होती. खाचखळगे पाण्याने  तुडुंब भरले होते ! रस्ते पण काजळलेले, शिणून पेंगुळलेले, एकटेपणात गुरफटलेले वाटत होते. गारेगार झालं होतं पुणं अगदी! थंडं वारं हाडात शिरून अगदी झिणझिणून टाकत होतं तनामनाला!  एखाद् दुसरं वाहन आणि रिक्षेचा आवाज एवढंच काय ते रात्रीच्या नीरव शांततेचा भंग करत होतं. संभाषण नसल्याने एक विचित्र शांतता वातावरणात जाणवत होती. माझ्या मनातल्या गोंधळाचा सुगावा लागल्यासारखा, ‘ताई लेट झालं का विमान’ अशी त्याने संभाषणाला सुरूवात केली. त्याचं ‘ ताई ‘ हे संबोधन मी ऐकलं आणि माझ्या मनावरचा ताण अगदी कुठल्याकुठे पळाला. आणि मग आमच्या काय गप्पा रंगल्यायत राव ! त्याचं नेटकं कुटुंब, दोनच मुली पण त्यांना कसं मुलासारखं वाढवलं, त्याच्या ऐपतीप्रमाणे कसं शिकवलं, पुण्यातलं, समाजकारण, अर्थकारण, राजकारण, राजकारणातले डावपेच, मुत्सद्दी, तसंच कुचकामी नेतृत्व, आणि शेवटी सामान्यांसाठी सारे एकाच माळेचे मणी हा निष्कर्ष! सगळं शेवटी जिथलं तिथेच राहतं, आपल्या पोळीवर तूप ओतून घेणाऱ्यांचं फावतं असा सूर!

खरंच, रात्र , निर्मनुष्य रस्ता, दूरवरचं घर सारं सारं विसरायला झालं मला. भानावर येत, ‘आता डावीकडे घ्या दादा’ असं त्याला सुचवत मी घरी पोहोचले देखील! त्याला रिक्षेचं भाडं देत आणि वर बक्षिसी देत शुभ रात्री चिंतत जिना चढतांना चक्क गुणगुणत होते मी …

मंडळी कल्पना करा काय गुणगुणत असेन मी ..? ‘ ऊस डोंगा परी, रस नोहे डोंगा, काय भुललासी, वरलिया रंगा? ‘खरंच राहून राहून माझ्या डोळ्यासमोर तो काळाकभिन्न, राकट देहाचा, डेरेदार पोटाचा, घेरदार माणूस आणि त्याने त्या रिक्षेवाल्याला केलेला इशारा येत होता. त्याच्या बाह्यरूपाचा मी धसका घेतला होता, भीती वाटली होती मला, पण प्रत्यक्षात किती वेगळा अनुभव आला मला. खरंच बाह्यरूपावरून असे अंदाज बांधणं अगदी चुकीचं आणि एखाद्यावर अन्याय करण्यासारखंच आहे, नाही का? किती मोठी चूक करतो आपण अशावेळी! माणसाचं दिसणं आणि त्याचं असणं यातल्या त्याच्या माणूस असण्याचा विसर का पडतो आपल्याला? आणि हो अजून एक गोष्ट ….कुठल्याही परिस्थितीत आपला हात ‘त्याने’ घट्ट धरलाय ही जाणीव सतत मनाशी जपावी, ती जाणीव आपला प्रवास नेहमी सुरक्षित होईल ह्याची काळजीच घेते! आपल्याला उभारी देऊन निश्चिंत करते!!

© ज्योति हसबनीस

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – *सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक  कस्बे   से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदान किए जाने वाले अवार्ड/ सम्मान /पुरस्कार  आदि  पर  एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

मुझे मेरे व्यंग्य की सचाई, निरंतरता, भाषा और कटाक्ष की क्षमता के लिये कोई भी बड़ी, छोटी साहित्यिक संस्था कभी भी शाल , श्रीफल ,स्मृति चिन्ह व सम्मान पत्र और हो सके तो कुछ नगदी से सम्मानित कर सकती है. इससे उस संस्था और पुरस्कार का ही गौरव बढ़ेगा. मैं तो जैसा लिख रहा हूं, छप रहा हूं, लिखता छपता ही रहूंगा. सच को सच कहना गर्व का विषय ही होता है. ग्राम पीपरीकंला, पोस्ट आफिस झुंझनी की विश्व साहित्य विकास परिषद ने पोस्टकार्ड लिखकर मुझे सूचित किया है कि वे मात्र १००० रुपये सदस्यता शुल्क जमा करने पर मुझे व्यंग्य सम्राट के खिताब  से अलंकृत करना चाहते हैं, जिसके लिये मेरा चयन संस्था की विद्वत समिति कर चुकी है.

हमारा परिवार लेखकीय परिवार है. हमारा नाम, पता, ईमेल और फोन नम्बर तक हमारी रचनाओ के साथ सार्वजनिक है. मतलब उतनी  जानकारी जितनी के लिये आधार कार्ड या फेसबुक की गोपनीयता नीति पर अदालतो में जिरह हुये हम यूं ही सार्वजनिक किये बैठे हैं. इसके चलते मेरी पत्नी को भी इंटरनेशनल बायोग्राफिक इंस्टीट्यूट, मिशिगन से “वूमन आफ द ईयर” अवार्ड के आफर महज १०० डालर में, लेदर कवर हार्ड बाउंड बुक में फोटो सहित परिचय प्रकाशन के साथ घर बैठे आ चुके हैं, किताब की एक प्रति के साथ में मेटल इम्बोस्ड मेडल भी पंजीकृत डाक से मिलना था. पर चूंकि मैं तो अपनी पत्नी को पहले ही “वुमन आफ सेंचुरी” के सम्मान से सम्मानित कर चुका था अतः उसने विनम्रता पूर्वक यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ठुकरा दिया. भले ही हम इस तरह के पुरस्कारो के लिये स्वयं को सर्वथा अयोग्य पाते रहे हैं, पर मेरे शहर के अनेक स्वनाम धन्य रचनाकारो के ऐसे पुरस्कारो से सम्मानित होने के फोटो सहित बाक्स न्यूज अखबार के सिटी पेज पर पढ़कर उन्हें बधाई देने के अवसर हमें जब तब मिलते रहते हैं. ये अवार्ड उनके बायोडाटा को और लम्बा कर देते हैं, साथ ही अगले अवार्ड के लिये पृष्ठभूमि भी बना देते हैं.

मुझे ज्ञात हुआ है कि सूरज को उसकी निरंतरता, ओजस्विता, ताप, प्रकाश और इन दिनो नान कंवेशनल इनर्जी में सोलर लाइट्स के क्षेत्र में प्रयुक्त होने पर मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड घोषित किया गया है.

जिस तरह इन दिनो  अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप साहब पर व्यंग्य हो रहे हैं, हमारे व्यंग्यकारो ने भी उन पर व्यंग्य उपन्यास लिखने की पहल की है,  मैं सोच रहा हूं मित्रो से चर्चा करूंगा कि व्यंग्यकार एसोशियेशन की ओर से सम्माननीय राष्ट्रपति ट्रंप साहब के नाम पहला अंतर्राष्ट्रीय लालू व्यंग्य पर्सनेलिटी अवार्ड घोषित करवा ही दूं  . इससे देश के वैश्विक सांस्कृतिक संबंध सुढ़ृड़ करने में व्यंग्य की  भूमिका का भी निर्वहन हो सकेगा. यदि यह पुरस्कार देने के लिये अमेरिका के स्थानीय एड्रेस की जरूरत होगी तो मेरे पुत्र के न्यूयार्क  दफ्तर का पता दिया जा सकता है.  मित्रो के कई बच्चे इन दिनो अमेरिका में हैं, उनका प्रतिनिधि मण्डल व्हाईट हाउस पहुंचकर ससम्मान राष्ट्रपति जी को इस व्यंग्य सम्मान से अवार्डित कर सकेगा. मैं तो यहां से बैठे बैठे ही अपने पहले ट्वीट से ही उन्हें बधाई दे दूंगा. ये और बात है कि हमारे इस अवार्ड की वहां का विपक्ष और अखबार कितनी चर्चा करेंगे यह हम नही जानते.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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व्यंग्य
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