मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दुसरा #2 – ?? पर्यावरण नाते. ….!  ?? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज संस्कृतिसाहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प दुसरा – पर्यावरण नाते  ….!” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प दुसरा #-2 ☆

 

?? पर्यावरण नाते. ….!  ??

 

व्यक्ती  आणि निसर्गाचे, नाते कळी नी फुलांचे .

कधी होई पारिजात,  कधी पुष्प बकुळीचे . . . !

 

एका एका बिजापोटी, कुणी सर्वस्व वाहते.

कळी मरता मरता,  तिथे फूल जन्मा येते.

 

अन्न, वस्त्र, निवार्‍याचा , निसर्गाने दिला हात.

दान द्यावे, दान घ्यावे, रूजविले अंतरात. . . . !

 

जीवनाच्या वावरात,  सुखदुःख रेलचेल.

होई मौसमी वार्‍याने, उरामध्ये घालमेल. . . . !

 

रंग ढंग जीवनाचे, दुःख, दैन्य सहायचे.

मातीतून जन्मायाचे,मातीमध्ये मरायचे. . . . !

 

व्यक्ती आणि निसर्गाची, वाट चुकलेली वारी

जीवनाच्या फांदीसवे, घेती आकाश भरारी. . . . !

 

कधी वास्तवाचे जग, कधी नभ कल्पनेचे.

होई काळीज कागद, सूत जुळता दोघांचे. . . !

 

पाणी अडवा, जिरवा, झाडे लावा नी जगवा

समतोल सांभाळाया,नाते नाजूक फुलवा. . . . !

 

आसवांची झाली शाई, होता नात्यांची पेरण .

वसुंधरेच्या भाळाला,भावफुलांचे तोरण. . . !

 

कळी काय, फूल काय,एकमेकां जपायचे

पर्यावरणीय मेळ,सांधताना फुलायचे. . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ A Laughter Club Dream ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ A Laughter Club Dream

Man Pasand Garden is a beautiful park in the posh New Palasia locality of Indore. I am here after almost two years.
Earlier, whenever I took a long morning walk along with my wife Radhika, we always stopped here to relax for a while. Almost on all such occasions, we dreamt of starting a Laughter Club here.

As I sit here, I find people slowly moving towards a green enclosure and clapping joyously. They move their hands over their heads and burst into an uproarious laughter. I realize that this is a new Laughter Club. Within minutes, I am there taking deep breaths and laughing intermittently with them.

I am told that this club – Laughter Club of Man Pasand Graden – started by A L Jain, affectionately known as Raja Babu, is just six months old and has been adjudged as the number one club among the 65 clubs inIndore. The members are growing steadily as more and more younger people are joining the club.

Ram Kishan, tech savvy at 72, tells me that the attendance had started declining a couple of months after the club was inaugurated and he thought about using social media to boost it. His devotion to the club is commendable. He shoots videos and pictures on a daily basis and uploads them on YouTube, Facebook and also shares them with the club’s WhatsApp group each and every day. It is ensured that every member present on the day is reflected in the pictures and videos. The members enjoy watching themselves laugh on their cell phones throughout the day.

Their average daily attendance is well over 70 and it is perhaps the only club in the world which meets every day in two batches, one at 7 am and the other at 8.30 am.

When I introduced myself and they came to know that I am associated with the Laughter Yoga University in Bangalore, they invited me along with Radhika to conduct a laughter session for them. Once home, I told Radhika that our dream to start a club at Man Pasand Garden has been fulfilled by some divine intervention and we have to conduct a Laughter Yoga session there the next morning. She was pleasantly surprised.

The laughter session was simply out of the world!! And the club members were so full of energy and enthusiasm. Everyone there loved it, especially the Laughter Meditation towards the end.

You may watch glimpses of this session through this link:
https://www.youtube.com/watch?v=VpDtIV_XR7U

Highly inspired, the members decided to felicitate us in a public function. Though we told them not to indulge in such formalities, they insisted. When we reached the park next morning, we found more than a hundred people waiting for us including the founding members of the club, representatives of other Laughter Clubs in the city and the elected political representative of the area.

The felicitation was really warm, affectionate and full of laughter. We were offered flowers, sweets and a shawl as a mark of honour for which we thanked them profusely.

On behalf of the Laughter Yoga University, we presented a cap and a hat with the University logo to the leaders of the club, Raja Babu and Ram Kishan, as a memento of love and recognition for their dedication and selfless service to the community.
We shall ever cherish the happy memories of Man Pasand Garden and the wonderful club members. Many of them have expressed a desire to undergo Laughter Yoga leader training with us which we will be arranging in the near future.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ।।26।।

 

अज्ञानी की लिप्ति बुद्धि में ज्ञानी कभी न भेद करें

स्वतः समत्तव बुद्धि से अपने निश्चित सारे कर्म करें।।26।।

 

भावार्थ :  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए।।26।।

 

Let no wise man unsettle the minds of ignorant people who are attached to action; he should engage them in all actions, himself fulfilling them with devotion. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ मनुष्य होने का धर्म ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं।  आज प्रस्तुत है एक किन्नर पात्र द्वारा मानवीय संवेदनाओं को उकेरती भावुक लघुकथा “मनुष्य होने का धर्म”। इस विषय पर साहित्यिक रचना के लिए श्री सिसोदिया जी  बधाई के पात्र हैं।) 

 

☆ मनुष्य होने का धर्म☆

 

अंजना दूर से देखते ही पहचान गयी कि सड़क की दूसरी ओर पटरी पर कौन बेहोश पड़ा है। उसका मन उसे देखते ही घृणा से भर गया और उसने उसकी ओर से मुँह फेर लिया। परन्तु तुरंत ही उसे अपने इस अमानवीय व्यवहार पर पछतावा हुआ और वह लगभग भागती हुई उसके पास पहुंची। उसने उसे छूकर देखा, श्वाँस चल रही थी। उसके मुँह से अनायास निकला, “भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है।”

उसने बिना और अधिक विलम्ब किये पास की पानी की रेड़ी से बोतल में दो गिलास पानी डलवाया और बुढ़िया के चेहरे पर छिड़कने लगी। शीतल जल के छींटों ने अपना असर दिखाया और बुढ़िया ने आँखें खोल दीं। सामने खड़ी अंजना को पहचानने का असफल प्रयास करने लगी।

“ले माई, पानी पी ले, क्यों बेकार में खोपड़ी पर ज़ोर डाल रही है।” अंजना ने पानी की बोतल उसके हाथ में देते हुए कहा।

बुढ़िया ने कोहनी ज़मीन पर टिकाई और बैठने का उपक्रम करने लगी। अंजना ने उसे सहारा देकर बिठा दिया। बुढ़िया ने दो घूँट पानी पीकर उसे घुटी-घुटी आवाज़ में दुआएं दीं और फिर से उसे पहचानने का प्रयास करने लगी।

एक क्षण रुककर उसने पूछा,

“कहीं तू अंजी तो नहीं है?”

इस बार अंजना से नहीं रहा गया और क्रोध भरी वाणी में बोली,  “हाँ माई, मैं वही अभागी हूँ, जिसे तूने अपनी कोख से जन्म देकर घर से ही नहीं, अपनी जिंदगी से भी निकाल फेंका था।

अंजना की बात सुनते ही उसे सब कुछ स्मरण हो आया। उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और आगे बढ़कर अंजना के पैर दोनों बाँहों में भर लिये और पश्चाताप के आंसू बहाने लगी।

अंजना अपने पाँव छुड़ाने की भरपूर कोशिश करती रही, परन्तु विफल रही।

बुढ़िया के पछतावे के आंसुओ ने अंजना के अंतर में नफ़रत की धधकती आग पर शीतल जल का-सा असर किया। वह भी बुढ़िया के साथ-साथ रोने लगी। जब दोनों के अंदर जमी काई छँट गयी तो अंजना ने भर्राई आवाज़ में पूछा, “क्या हुआ माई, तूने अपना यह क्या हाल बना रखा है? वैसे तू जा कहाँ रही थी?”

अंजना की बात सुनकर बुढ़िया पुनः गंगा-यमुना बहाने लगी और रोते हुए बोली, “पिछले साल तेरा बापू मेरा संग छोड़ गया। उसके मरते ही दिनेश ने मेरे साथ एक बड़ा धोखा किया और मेरी सारी जमा पूँजी लूट ली। उसे इतने से ही संतोष नहीं हुआ। उसने घर भी बेच दिया। मुझसे कहकर गया था कि माई, हम पहले सामान पहुँचा दें, तब तुझे ले जाएंगे, परन्तु वह लौटकर न आया। मैं भूखी-प्यासी बंद मकान के सामने पड़ी रही। परन्तु वहाँ भी कब तक पड़ी रहती? इसलिए आज सुबह खुद ही उसका मकान ढूँढ़ने निकल पड़ी। मैं नहीं जानती कि चलते-चलते कब बेहोश होकर गिर पड़ी। मैं अपने पापों की सज़ा भुगत रही हूँ। मुझे माफ़ कर दे अंजी!”

“माई, मैं तो स्वयं न जाने किस जन्म के पापों की गठरी उठाए फिर रही हूँ। मैं तुझे क्या माफ़ करूंगी। अब मुझे यह बता कि क्या तू इस हिजड़ी के साथ रह सकेगी? यदि हाँ तो चल मेरे संग।” उसने अपने आँसू पोंछते हुए कहा।

तू ऐसा कहकर मुझे और शर्मिंदा मत कर, मुझे पहले ही अपने किये पर आत्मग्लानि हो रही है।” बुढ़िया ने कहा।

“चल माई, जैसी मुझसे बन पड़ेगी तेरी सेवा करूंगी। तेरी संतान होने के साथ-साथ यह मेरा मनुष्य होने का धर्म भी है।” अंजना ने बुढ़िया को सहारा देकर उठाया और अपने फ्लैट की ओर लेकर चल दी।

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆ प्रतिबिंब ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  समाज को आईना दिखाती हृदयस्पर्शी लघुकथा “प्रतिबिंब ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को हिंदीभाषा डॉट कॉम द्वारा लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। साथ ही आलेख वर्ग में दिल्ली के डॉ शशि सिंघल  जी एवं कविता वर्ग में मुंबई की नताशा गिरी जी को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारे सम्माननीय लेखक श्री ओमप्रकाश जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆

 

☆ प्रतिबिंब ☆

चाय का कप हाथ में देते हुए सास ने कहा, “ ब्याणजी ! बुरा मत मानना. आप से एक बात कहनी थी.”

“कहिए!”

“आप की लड़की को एक बात समझा दीजिएगा. यह सुबह जल्दी उठा करे. ताकि सुबह आठ बजे जब इस का पति ऑफिस जाए तब अपने साथ घर के बने खाने का टिफिन भी लेता जाए.” सास ने अपनी व्यथा ब्याणजी से कहीं.

“यह तो इसे समझना चाहिए.” ब्याणजी ने अपनी बेटी की ओर देख कर कहा, “पति की सेवा करना, उस का ध्यान रखना, इस का फर्ज है.”

बेटी को मां से ऐसी आशा नहीं थी. उस की भौंहे तन गई. माँ हो कर उस की बुराई करें. यह वह कैसे बरदाश्त कर सकती थी. इसलिए वह तुनक गई.

“माँ ! आप को शर्म नहीं आती. मेरी बुराई करती हो”  वह बिफरते हुए्र बोली, “यदि आप ने मुझे यह लक्षण सिखाये होते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ते. आखिर मैं आप का ही तो प्रतिबिंब हूं.”

बेटी के मुंह से यह बात सुन कर माँ सन्न रह गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य #2 – प्रेम रेष …. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता   प्रेम रेष …. )

 

☆ सुजित साहित्य #2 ☆ 

 

☆ प्रेम रेष …. ☆ 

 

उधाणलेला सागर

मन येतं शहारून

तुझ्या प्रेमात ग सखे

कसं जातं मोहरून

 

खळाळत येती लाटा

फुटतात विरतात

शंख शिंपले किनारी

आठवण ठेवतात

 

वाट पाहून थकतो

निघतो मी परतीला

लाटा रेगांळत राही

आठवांच्या सोबतीला

 

पुसती पाऊल खूणा

दिसे फक्त ओली रेघ

कितीही पुसली तरी

उमटते प्रेम रेष..!!

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626
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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Stooping for a noble cause – a blog from prison! ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Stooping for a noble cause – a blog from prison!

New Delhi, 17 April 2015, 11:00 AM: We reported at the Delhi Prison Headquarters and were straightaway driven to the adjoining Tihar Jail – the biggest prison complex in Asia.

We were first taken to Jail no. 6 which is a prison meant exclusively for women inmates and under-trials. At the entrance, we were frisked and our wallets and mobiles were deposited.

Being a law-abiding citizen all through my life, I never ever imagined that I would land in a prison some day. It felt a bit awkward stooping and getting in through the small gate that I had only seen in movies.

Within a few minutes, we were before the superintendent and warden of the jail. We were taken to a hall where around 200 lady prisoners were present. They belonged to all ages – young, middle-aged and old.

Looking at their plight, I felt deep empathy for them and found it difficult to control my tears. But they were full of life and hope. There were no signs of despair in their eyes; at least they pretended to be normal.

At this point, I must disclose the purpose of our visit and also tell you who all were with me or, rather, with whom I was there.

We were here for a noble purpose – to add a dash of cheer and happiness in the routine life of the prisoners and bring some smile on their faces.

I was in the august company of Dr Madan Kataria and Madhuri Kataria, the founders of Laughter Yoga, along with Dr Santosh Sahi who has done commendable service at the prison, and some members of the Delhi Laughter Club and my colleagues from theLaughterYogaUniversity,Bangalore.

Within minutes, there were echoes of “hoho hahaha” and “very good. very good, yay!” reverberating within the walls of the prison. We could sense a silent gratitude in the eyes of the inmates for bringing a shower of relief and some respite from the frightening monotony of the closed walls.

Bidding good-bye to them with a heavy heart, we moved to the adjacent prison meant for the adolescents. The boys there were all between 18 and 21 years of age.

A first glance at them and I observed an eerie look in their eyes. I felt sad for them. They should be studying somewhere but suddenly find that their future is quite hazy and uncertain.

This age group, especially with a closed mindset, is sometimes a hard nut to crack.

Dr Madan Kataria started with clapping and breathing exercises. Soon, they were laughing like all other kids – the child-like playfulness had re-appeared and they were laughing whole heartedly.

I guided them to hearty laughter, age laughter and lion laughter. The response was immense. Vinayaka thrilled them with his banana trick.

Ohh, the prison was brimming with energy and joy. The eerie look in the eyes of the boys had vanished and they appeared like little kids.

I could hardly hold my tears!

******

P.S. – I must express my deep gratitude, on behalf of the entire laughter yoga team that visited the prison, to the wonderful staff at the prison who served us tea, pakoras and good lunch with so much care and concern, and to the senior officers of the jail who made our visit free of any hassles and duly released us in the evening without bail.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।25।।

 

हे भारत! आसक्त भाव से ज्यों अज्ञानी करते है

वैसे ही आसक्ति छोडकर ज्ञानी कर्म बरतते है।।25।।

      

भावार्थ :  हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।।25।।

 

As the ignorant men act from attachment to action, O Bharata (Arjuna), so should the wise act without attachment, wishing the welfare of the world! ।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पर्यावरण दिवस विशेष- पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

??  पर्यावरण दिवस पर विशेष ??

श्री संजय भारद्वाज

 

(श्री संजय भारद्वाज जी एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।  पर्यावरण दिवस पर  यह विशेष आलेख बेशक 2017 में लिखा गया हो किन्तु, आज के परिपेक्ष्य में पर्यावरण पर रचित कोई भी साहित्य सामयिक ही होगा। अब आप स्वयं ही पढ़ कर निर्णय ले सकते हैं। आभार श्री संजय भारद्वाज जी इस सार्थक रचना के लिए।)

☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ 

(मित्रो! 5 जून को पर्यावरण दिवस है। आज अपना एक  लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।)

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
-संजय भारद्वाज
9890122603
( 30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट। )
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #1 रात का चौकीदार ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(मैं अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का हृदय से आभारी हूँ,  जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ” के लिए मेरे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक बुधवार को डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “रात का चौकीदार”।)

 

डॉ.  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

विधा : गीत, नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि

प्रकाशन :                    

  • प्यासो पघनट (निमाड़ी काव्य संग्रह- 1980), आरोह-अवरोह (हिंदी गीत काव्य संग्रह – 2011), अक्षर दीप जलाएं (बाल कविता संग्रह- 2012), साझा गीत अष्टक-10, गीत-भोपाल (2013),
  • संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर साहित्य परामर्शक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी तथा लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, भोपाल एवं जबलपुर की अनेक साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।

विशेष : महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा “रात का चौकीदार” सम्मिलित।

सम्मान :

  • विभागीय राजभाषा गौरव सम्मान 2003, प्रज्ञा रत्न सम्मान 2010, सरस्वती प्रभा सम्मान 2011, पद्यकृति पवैया सम्मान 2012, शब्द प्रवाह सम्मान, कादम्बिनी साहित्य सम्मान भोपाल, लघुकथा यश अर्चन सम्मान, साहित्य प्रभाकर सम्मान, निमाड़ी लोकसाहित्य सम्मान- महेश्वर, साहित्य भूषण, विद्यावाचस्पति, वर्तिका राष्ट्रीय साहित्य शिरोमणि सम्मान, साहित्य संगम मार्गदर्शक सम्मान 2018- इंदौर, दोहा रत्न अलंकरण 2018- जबलपुर सहित अन्य विविध सम्मान

संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवानिवृत

 

☆  तन्मय साहित्य – #1 ☆

☆ रात का चौकीदार ☆

(यह लघुकथा महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।)

दिसंबर जनवरी की हाड़ कंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस भरी रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकीदार नाम का यह गिरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोंकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए कॉलोनी में रातभर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है. हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है. साबजी, पैसे?

कितने पैसे, वह पूछता है उससे?

साबजी- एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए. आपको तो मालूम ही है.

अच्छा एक बात बताओ बहादुर- कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं तुम्हें महीने में?

साबजी- यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से कभी पचास से. तीज त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है. इतने में ठीक-ठाक गुजारा हो जाता है हमारा.

पर कॉलोनी में तो सौ सवा सौ से अधिक घर हैं फिर इतने कम क्यों?

साबजी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते है। हमें जरूरत नहीं है तुम्हारी.

तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि नहीं? उसने पूछा

हां साबजी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है. भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी की घटना हो जाय तो पुलिस तो फिर भी हमसे ही पूछेगी ना. और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि पैसे नहीं देते, इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी. ऐसा पहले मेरे साथ हो चुका है साबजी.

अच्छा ये बताओ रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता?

डर क्यों नहीं लगता साबजी, दुनिया में जितने जिन्दे जीव हैं सबको किसी न किसी से डर लगता है. बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं. कई बार नशे-पत्ते वाले और गुंडे बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है. शरीफ दिखने वाले लोगों से झिड़कियां, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है.

अच्छा बहादुर सोते कब हो तुम? फिर प्रश्न करता वह.

साबजी, रोज सुबह आठ-नौ बजे एक बार और कॉलोनी में चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूं कि, सबकुछ ठीक है ना, फिर कल की नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूं. अच्छा साबजी, अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं.

अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नहीं देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है. तो अब से मेरे घर की चौकसी भी तुम्हें बिना पैसे के करना होगी, समझे?

जैसी आपकी इच्छा साबजी, और चौकीदार अगले घर की ओर बढ़ गया.

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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