मराठी साहित्य – विविधा ☆ खार! ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

 ☆ विविधा ☆ खार! ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक  ☆ 

‘लहान सुंदर गोजिरवाणी अशी दिसे ही खार, लुसलुशीत हे अंग तिचेच शेपूट गोंडेदार!’

अशा वर्णनाची बालगीतात कुतूहलाचे स्थान निर्माण करणारी खार आजची नसून रामायणकालापासून तिची सर्वांना ओळख आहे .

रावणाच्या तावडीतून सीतेला सोडविण्यासाठी लंकेत प्रवेश करता यावा म्हणून वानरसेनेच्या मदतीने श्रीरामानी सेतू बाधंण्याचे

काम सुरु केले त्यावेळी एक खार सतत समुद्रातील वाळूत लोळून सेतूबांधावर येऊन आपले शरीर झाडत असल्याचे प्रभू रामचंद्रांच्या लक्षात आले. खारीचे हे काम पाहून त्यांनी कौतुकाने तिच्या पाठीवरून हात फिरविला. त्याची निशाणी अजूनही समस्त खार जमातीवर दिसते.खारीच्या शरीरावर असणारे पट्टे म्हणजे खारीच्या पाठीवर हात फिरविलेले श्रीरामांच्या बोटांचे ठसे समजले जातात. आपल्या कुवतीप्रमाणे दुसऱ्यांना मदत करणारी, स्ततःच्या इच्छेनुसार, कोणाचीही बळजबरी नसताना काम करणारी माणसे दुसऱ्यांच्या कामात खारीचा वाटा उचलताना दिसतात.

सतत वृक्षावर राहणारा, प्रत्येक वस्तू कुरतडून खाणारा  सर्वसंचारी असा निरुपद्रवी प्राणी म्हणजे खार! काही मुले एखादी वस्तू दाताने कुरतडत। बसतात तेव्हा खारीसारखा कुरतडत बसू नको असे म्हणतात. स्वतःच्या शरीराचा तोल सांभाळण्यासाठी खारीला झुपकेदार शेपूट उपलब्ध झाली असावी. खारीसारखी चपळ वृत्तीची मुले पाहिली की,सर्वांना आनंद होतो. खारीचा वाटा उचलून सर्व मुलांनी काही चांगले उपक्रम केले तर राष्ट्र उभारणीच्या कार्याचे उद्याचे चित्र नक्कीच आशादायक असेल. आज अजगराप्रमाणे सुस्तावलेल्या समाजात चेतना निर्माण करण्यासाठी खारीसारख्या कार्यक्षम प्रवृत्तीच्या माणसांची गरज आहे.

झरझर झाडावर, सरसर खाली पळणारी खार महत्वाचीच आहे.

 

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ अधीक महिना ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

☆ इंद्रधनुष्य ☆ अधीक महिना ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆ 

अधिक मास

अधिक मास म्हटलं की प्रत्येकच स्त्रीमध्ये एक प्रकारे उत्साह जागतो आणि महिनाभर वेगवेगळ्या प्रकारची रोज ३३ फुले वाहून ती आपल्या बाळकृष्णाची मनोभावे पूजा करते.

कृष्ण हा भगवान विष्णूचा आठवा अवतार . जेव्हा भगवान विष्णूंना विचारले गेले की तुम्हाला जाई, मोगरा, गुलाब, चंपा, पारिजातक अशी कोणती फुले पाहिजेत ? तेव्हा भगवान विष्णूंनी सांगितले की मला यातील कोणतेही फूल नको, मला आठ फुले पाहिजेत. ती आठ फुले कोणती याचे सुंदर वर्णन या संस्कृतच्या श्लोकामध्ये आपल्याला पहावयास मिळते .

? अयुसा प्रथमं पुष्पं

पुष्पं इंद्रियनिग्रहं

सर्वभूत दयापुष्पं

क्षमापुष्पं विशेषतः

ध्यानपुष्पं दानपुष्पं

योगपुष्पं तथैवच

सत्यं अष्टोदम पुष्पं

विष्णू प्रसीदं करेत ! ?

अर्थात –

अयुसा हे पहिले पुष्प आहे . म्हणजेच जाणुनबुजून किंवा अजाणतेपणी कोणत्याही प्रकारे हिंसा करू नका.

दुसरे पुष्प आहे इंद्रियनिग्रह.आपल्या इंद्रियांवर ताबा ठेवा . मला हे पाहिजे , माझ्या कडे ते नाही असे म्हणू नका.समाधानी रहा.

तिसरे पुष्ष आहे सर्वभूत दया. सर्वांवर प्रेम करा . कोणाचाही तिरस्कार करू नका .

चौथे आणि विशेष पुष्प आहे क्षमा . कोणी आपल्याला चुकीचा म्हणत असेल तरीही त्याला क्षमा करा.

ध्यान पाचवे पुष्प आहे .ध्यान करा ज्यामुळे मन एकाग्र होऊन मनावर ताबा मिळवता येईल.

दान सहावे पुष्प आहे . सढळ हाताने दान करा.

सातवे पुष्प आहे योग. योगा करा.

सर्वात महत्त्वाचे आठवे पुष्प आहे सत्य. नेहमी सत्य बोला .सत्य बोलून एखाद्या वेळी कोणाचे मन दुखले तरी चालेल पण असत्य बोलून एखाद्याच्या मनातून कायमचे उतरु नका.

ही पुष्पे अर्पण करून भगवान विष्णूला प्रसन्न करा.

अधिक मासाच्या भरभरून शुभेच्छा.

 

संग्राहक: सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (10) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

 

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।।10।।

 

सत्व युक्त निश्शक मन, त्यागी जो विद्वान

किसी कर्म से द्वेष न, किसी में न रममान ।।10।।

 

भावार्थ :  जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ।।10।।

The man  of  renunciation,  pervaded  by  purity,  intelligent  and  with  his  doubts  cut as under, does not hate a disagreeable work nor is he attached to an agreeable one.।।10।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार (हिंआप यात्रा -3) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार (हिंआप यात्रा -3) 

(हिंदी आंदोलन परिवार के आंदोलन को अभियान  का अर्थ देने की सफल प्रक्रिया के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की हार्दिक शुभकामनायें )

30 सितम्बर 2020,  हिंदी आंदोलन परिवार का 26वाँ स्थापना दिवस। सच कहूँ तो हिंआप केवल शब्द या संस्था भर नहीं है। हमारी संतान है हिंआप।

विवाह के लगभग ढाई वर्ष बाद हिंआप का जन्म हुआ। बच्चे के जीवन में गिरने-पड़ने-संभलने, उठने-चलने-दौड़ने के जो चरण और प्रक्रियाएँ होती हैं, वे सभी हिंआप के जीवन में हुईं। हमारी संतान अब नयनाभिराम युवा हो चुकी।

स्मृतिचक्र घूम रहा है और कलम चल रही है। ईश्वर की अनुकंपा, माता-पिता के आशीष और आत्मीय जनो की शुभकामनाओं के चलते सार्वजनिक जीवन में नगण्य-ही सही पर स्थापना मिली। इसके चलते प्रायः विभिन्न आयोजनों में जाना होता है। स्वागत/ सम्मानस्वरूप मिला पुष्पगुच्छ घर लाकर रख देता हूँ। ऊपर से बेहद सुंदर दिखते पुष्प तीन से चार दिन में पूरी तरह सूख जाते हैं। जड़ों से कटने पर यही स्थिति होती है।

हिंआप ने अपनी स्थापना के समय से ही काटने या तोड़ने के मुकाबले खिलने और जोड़ने की प्रक्रिया को अपनाया। हमने बुके के स्थान पर पौधे देने की परंपरा का अनुसरण किया,  विनम्रता से कहूँ तो कुछ अर्थों में सूत्रपात भी किया। पौधे मिट्टी से जुड़े होते हैं। इनमें वृक्ष बनने की संभावना अंतर्निहित होती है।

इसी संभावना को हिंआप में संगठन के स्तर पर लागू करने का प्रयास भी किया। सभी साथियों की प्रतिभा को यथासंभव समझकर मांजने- तराशने के समुचित अवसर देते गये। इसमें वाचन,लेखन, प्रस्तुति से लेकर  व्यवस्थापन कुशलता, समूह में काम करने की वृत्ति, नेतृत्व, सहयोग, समयबद्धता जैसे अनेक आयाम समाविष्ट हैं। मिट्टी से जुड़े रहने का लाभ यह हुआ कि कुछ वृक्ष बन चुके, कुछ पौधे हैं, कुछ अंकुर फूट रहे हैं, कुछ बीज बोये जा चुके। अत्यंत नम्रता से कहना चाहता हूँ कि इस प्रक्रिया के  चलते आज हिंआप के पास टीम ‘बी’ और टीम ‘सी’ भी तैयार हैं।

संस्था के सामूहिक प्रयासों ने ‘आंदोलन’ शब्द जिस अर्थ में ढल चुका था, उससे बाहर निकाल कर उसे ‘अभियान’ का अर्थ देने में सफलता पाई।

धारा के विरुद्ध काम करते समय प्राय: उपजने वाली निराशा और थकान का हिंआप सौभाग्य से अपवाद रहा। हर बीज से नया वृक्ष खड़ा करने की जिजीविषा इस उपवन को निरंतर विस्तृत करती रही।

हिंआप आशंका में संभावना बोने का मिशन है। नित विस्तृत होती परिधि में बीज से वृक्ष होने की संभावना को व्यक्त करती हिंआप के जन्म के आसपास के समय की अपनी एक रचना स्मरण हो आई।

जलती सूखी जमीन

ठूँठ-से खड़े पेड़

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गर्म शरारे

दरकती माटी की दरारें

इन दरारों के बीच पड़ा

वो बीज…,

मैं निराश नहीं हूँ

ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है।

ये,

जो अपने भीतर समाये है

असीम संभावनाएँ-

वृक्ष होने की

छाया देने की

बरसात देने की

फल देने की

और हाँ;

फिर एक नया बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ

ये बीज

मेरी आशा का केन्द्र है।

आशा बनी रही, भाषा टिकी रहे, संस्था चलती रहे उस दिन तक, जिस दिन भारतीय भाषाएँ शासन- प्रशासन, शिक्षा-दीक्षा, न्याय-अनुसंधान, हर क्षेत्र में  वांछित जगह पूरी तरह बना लें।

 

संजय भारद्वाज 

संस्थापक- अध्यक्ष

हिंदी आंदोलन परिवार

 सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 65 – घी निकालना है तो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना घी निकालना है तो…। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 65 ☆

☆ घी निकालना है तो… ☆  

 

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर

या फिर श्री चरणों में उनके

अपना मस्तक धर।

 

नब्ज पकड़ कर इनकी

जमकर अपनी बात बता

चाहे तो पहले इसके

ले, जी भर इन्हें सता,

कुछ पिघलेगा, किंतु

दिखाएगा कुछ और असर

घी निकालना है तो …….।।

 

धूर्त चीन सी चालें

और चलेंगे ये बेशर्म

हमको भी ऊर्जस्वित हो

फिर हो जाना है गर्म

रखें पूँछ पर पांव, तभी

हलचल करते अजगर।

घी निकालना है तो……….।।

 

लंपट, धूर्त स्वार्थ में डूबे

इनका क्या है मोल

रहे बदलते सदा देश का

ये इतिहास भूगोल

दहन करें होली पर इनका

या की दशहरे पर।

घी निकालना है………..।।

 

सीधे-साधे लोगों की

क्या कीमत क्या है तोल

ऊपर से नीचे तक

नीचे से ऊपर तक पोल

किंतु जगा अब देश

ढहेंगे इनके छत्र-चँवर।

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-19- इसी का नाम है अंधा प्रेम …. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “इसी का नाम है अंधा प्रेम ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 19 – इसी का नाम है अंधा प्रेम ….☆ 

उन दिनों गांधीजी बिहार में काम कर रहे थे । अचानक वायसराय ने उन्हें बुला भेजा । अनुरोध किया कि वे हवाई जहाज से आयें । गांधीजी ने कहा, “जिस सवारी में करोड़ों गरीब लोग सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठूं?” उन्होंने रेल के तीसरे दर्जे से ही जाना तय किया । मनु बहन को बुलाकर बोले,” मेरे साथ सिर्फ तुझको चलना है । सामान भी कम-से-कम लेना और तीसरे दर्जे का एक छोटे-से-छोटा डिब्बा देख लेना ।” सामान तो मनु बहन ने कम-से-कम लिया, लेकिन जो डिब्बा चुना, वह दो भागों वाला था.

एक में सामान रखा और दूसरा गांधीजी के सोने-बैठने के लिए रहा । ऐसा करते समय मनु के मन में उनके आराम का विचार था । हर स्टेशन पर भीड़ होगी , फिर हरिजनों के लिए पैसा इकट्ठा करना होता है, रसोई का काम भी उसी में होगा तो वह घड़ी भर आराम नहीं कर सकेंगे । यही बातें उसने सोची पटना से गाड़ी सुबह साढ़े-नौ बजे रवाना हुई ।

गर्मी के दिन थे, उन दिनों गांधीजी दस बजे भोजन करते थे । भोजन की तैयारी करने के बाद मनु उनके पास आई, वे लिख रहे थे । उसे देखकर पूछा,”कहां थी?” मनु बोली,”उधर खाना तैयार कर रही थी ।

“गांधीजी ने कहा, जरा” खिड़की के बाहर तो देख ।” मनु ने बाहर झांका, कई लोग दरवाजा पकड़े लटक रहे हैं, वह सबकुछ समझ गई ।

गांधीजी ने उसे एक मीठी-सी झिड़की दी और पूछा,”इस दूसरे कमरे के लिए तूने कहा था?” मनु बोली,” जी हां, मेरा विचार था कि यदि इसी कमरे में सब काम करूंगी तो आपको कष्ट होगा ।

” गांधीजी ने कहा,”कितनी कमजोर दलील है । इसी का नाम है अंधा-प्रेम । यह तो तूने सिर्फ दूसरा कमरा मांगा, लेकिन अगर सैलून भी मांगती तो वह भी मिल जाता । मगर क्या वह तुझको शोभा देता? यह दूसरा कमरा मांगना भी सैलून मांगने के बराबर है ।” गांधीजी बोल रहे थे और मनु की आंखों से पानी बह रहा था ।

उन्होंने कहा, “अगर तू मेरी बात समझती है तो आंखों में यह पानी नहीं आना चाहिए । जा, सब सामान इस कमरे में ले आ । गाड़ी जब रुके तब स्टेशन मास्टर को बुलाना ।” मनु ने तुरंत वैसा ही किया. उसके मन में धुकड़-धुकड़ मच रही थी । न जाने अब गांधीजी क्या करेंगे! कहीं वे मेरी भूल के लिए उपवास न कर बैठे! यह सोचते-सोचते स्टेशन आ गया, स्टेशनमास्टर भी आये ।

गांधीजी ने उनसे कहा, “यह लड़की मेरी पोती है, शायद अभी मुझे समझी नहीं, इसीलिए दो कमरे छांट लिए । यह दोष इसका नहीं है, मेरा है । मेरी सीख में कुछ कमी है । अब हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है । जो लोग बाहर लटक रहे हैं, उनको उसमें बैठाइये, तभी मेरा दुख कम होगा ।” स्टेशन मास्टर ने बहुत समझाया, मिन्नतें की, पर वे टस-से-मस न हुए । अन्त में स्टेशन मास्टर बोले, मैं उनके लिए दूसरा डिब्बा लगवाये देता हूं ।

” गांधीजी ने कहा, हां, दूसरा डिब्बा तो लगवा ही दीजिये, मगर इसका भी उपयोग कीजिये । जिस चीज की जरूरत न हो उसका उपयोग करना हिंसा है । आप सुविधाओं का दुरुपयोग करवाना चाहते हैं । लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं । बेचारा स्टेशनमास्टर! शर्म से उसकी गर्दन गड़ गई । उसे गांधीजी का कहना मानना पड़ा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 16 – ☆ ख़ुशी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ख़ुशी ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 16   ☆– ख़ुशी

 

एक दिन घर की खिड़की से झाँक रहा था,

ख़ुशी वहां से गुजर रही थी,

 

मैंने उसे इशारे से रोका मगर वो आगे निकल गयी ,

देखा खुशी दो दुःख दरवाज़े पर छोड़ चली गयी ||

 

दरवाजा बन्द रखने लगा दुखों के आने के डर से,

एक दिन फिर किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी,

दरवाजा खोलकर देखा ख़ुशी जा चुकी थी,

देखा खुशी दो दुःख दरवाजे पर छोड़ चली गयी ||

 

एक दिन फिर खिड़की से झाँक रहा था,

ख़ुशी गुजर रही थी, मैंने रोकने की कोशिश की,

खुशी बोली कभी शक्ल देखी है अपनी आईने में,

देखा खुशी दो दुःख दरवाजे पर छोड़ चली गयी ||

 

दुखों से संघर्ष करके जिंदगी हार गया,

खिड़की बन्द देख खुशी ने दरवाजे पर दस्तक दी,

देखों आज तुम्हारे लिए खुशियों की सौगात लायी हूँ,

मुझे बेजान देख खुशी दरवाजे पर खुशियां छोड़ चली गयी ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 67 – गझल – वृत्त – पीनाकी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 67 ☆

☆ गझल – वृत्त – पीनाकी ☆

(लगागागा लगागागा लगागागा लगागा)

 

अता वाटे खरेतर हे जगा माहीत होते

कशाला मी उगाचच लपविले का भीत होते

 

असावे पूर्वजन्मीचे ऋणादीबंध काही

जसे राधा मुरारीही जुने मनमीत होते

 

गझल अद्यापही ज्यांची मना वेढून आहे

कळाले नाव ते चित्रा सहित जगजीत होते

 

मला आल्या पुन्हा हाका दिशा दाही उजळल्या

तुला सांगू कसे हे काय धुंडाळीत होते

 

अशी आहे नशा जगण्यात गझलेचीच सारी

थवे आजन्म शब्दांचेच कुरवाळीत  होते

 

फुले वाट्यास आलेली जरी बेरंग  होती

तरीही  क्षण सुखाचे पूर्ण गंधाळीत होते

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कळी ☆ श्री मुबारक उमराणी

श्री मुबारक बाबू उमराणी

☆ कवितेचा उत्सव :  कळी ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

 

कळी गळाली फुल गळाले

गळाली सारी झाडांची पाने

रक्तरंजीतात कोकिळा मुकी

जीवन सुके अबोल गाणे

 

झाले ते मुके अंधारी रात्री

निशब्द धुके, कोणी लुटला

वारा सुटला भयान राती

पाय पडता, पाला कुटला

 

जागे झाले काटे चीत्कारीत

नाचले कळ्यांच्या त्या राशीत

तुडवीत तुडवीत गेले

सुगंध फुलांचा पित पित

 

निशब्द चराचर निशब्द

थांबले झरे, थांबला चंद्र

थांबले रातकिडे चंचल

थांबला ढगा अाड तो चंद्र

 

भकास वाणी, भकास गाणी

ढग थेंब अश्रूंची ती धार

अश्रूथेंबच, कोणी करेना

अन्यायाविरूद्ध प्रहार

 

 

© श्री मुबारक बाबू उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रमोशन ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

☆ विविधा ☆ प्रमोशन ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

स्त्रीने असिस्टंट म्हणून काम करणं हे सर्वमान्य आणि सर्वसामान्य आहे. पण ती जेव्हा बॉस म्हणून खुर्चीवर बसते तेव्हा तिला अनेक पातळ्यांवर संघर्ष करावा लागतो. तिची ‘बढती ‘ही व्यक्तिशः मानाची,जबाबदारीची,प्रतिष्ठेची असली तरी बरेच वेळा कुटुंबातल्या इतरांसाठी गैरसोयीची होते. तिच्या रुटीनच्या नोकरीने घराचा जो जम

बसलेला असतो, तो विस्कटतो.प्रमोशनची सुरुवात बहुधा बदलीने होते.

तिथे संघर्ष सुरु होतो. पहिल्याने हा संघर्ष तिच्या मनात होतो.बढतीमुळे दैनंदिनीत बदल,नवीन कामाचा अभ्यास, जबाबदारी, संसार संभाळताना हे जमेल?कशाला सुखाचा जीव दुःखात घाला!अशी द्विधा मनस्थिती होते. अशा वेळी तिला कोणी आधार दिला, प्रोत्साहन दिलं तर ती वरिष्ठ म्हणून उत्तम काम करू शकते

सरिता आकाशवाणीत ड्यूटीऑफिसर होती. तिला प्रमोशन मिळालं. पण बदली होणार होती. तिची दोन्ही मुलं शाळेत जाणारी ,  बऱ्याच अडचणी होणार होत्या.पण सरिताची नवविवाहित जाऊ –ती मदतीला धावली. ती सरिताला म्हणाली,” वहिनी, तुम्ही प्रमोशन घ्या. मी मुलांच अभ्यास घेण्यापासून सर्व करीन, सासुबाईना समजावून सांगेन. मधून मधून या. मुलांना भेटा, इकडची काळजी करू नका.”

सरिताने अशी दोन वर्ष काढली. मग मुलांना तिकडे न्हेलं. आता तिचा नवरा मधून मधून तिच्या गावी येतो. सासूबाई पण चेंज म्हणून येतात. अशी साथ घरातल्यानी दिली तर सरिता प्रमोशनच्या पुढच्या पायऱ्याही चढेल.

स्वाती एक माध्यमिक शिक्षिका. तिच्या पदव्या, लवकर नोकरीला लागल्यामुळे सिनिऑरिटी, त्यामुळे  मुख्याध्यापकाची जागा तिला इतर सहकारी मैत्रीणींच्या आधी मिळाली. शैला स्वातीची जिवलग मैत्रीण.तिला वाटलं चला, आता आपल्याला थोडी मोकळिक मिळेल.कामाच्या बाबतीत ती निष्काळजीच होती. सहामाही जवळ आली तरी तिच्या विषयाचा पोर्शंन पूर्ण नाही. दहावीच्या मुलांनी तक्रार केली. स्वातीने शैलाला ऑफिस मध्ये बोलावल, विचारलं.

“गेल्या महिन्यात आजारी होते तुला माहितच आहे की.”

“पण जादा तास घेऊन अभ्यासक्रम तू पुरा करायला हवा होतास.”

“आता मी असं करते.शिकवलय तेव्हढ्यावरच पेपर काढते. म्हणजे मुलं चिडायची नाहीत.”

“अग, दहावीचा पेपर बोर्डाच्या फॉरमँटप्रमाणे काढायला हवा. मुलांना सराव नको का व्हायला?तू पोर्शंन पुरा कर.”

शैलाने ऐकलं नाही. पालकांनी तक्रारी केल्याच.स्वातीची दोन्हीकडून पंचाईत. मग ती कडकपणे वागू लागली. काही मैत्रिणीनी समजून घेतलं काही तुटल्या.स्वातीने स्टाफ मिटिंगमध्ये सगळं क्लिअर केलं.कारण तिला आपल्या पदाची प्रतिष्ठा राखायची होती.ती म्हणाली, “मी भेदभाव करणार नाही. पुरुष शिक्षकांनी लक्षात घ्यावं, स्टाफमधल्या शिक्षिका तुमच्या इतक्याच कर्तव्यतत्पर आहेत पण काही वेळा त्यांना सवलती द्याव्या लागतात. कारण त्या माता आहेत. तुमच्या घरच्या स्त्रियांकडे बघा. स्त्री म्हणून सवलत नाही, पण सहानुभूती दाखवायला हवी ना! गैरसमज नको. त्यावेळी तरी पुरुष शिक्षकांनी माना डोलावल्या

आपली मैत्रीण  बॉसच्या खुर्चीवर बसली तर तिच्या सहकारी स्त्रियांनी तिला समजून घ्यायला हव.तिला ‘येस बॉस ‘म्हणताना आनंद , अभिमान वाटायला हवा. पण प्रत्यक्षात असं होतं का? की स्त्री स्त्रीची शत्रू ठरते?  तिच्या प्रमोशनवर अशी अनेक प्रश्न चिन्हं आहेत.

 

© श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

मो. – 8806955070.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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