हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#42 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

विकल रहूं या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, दब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूं आज मैं, करता हूं अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का संगीत ।

भाव प्रवाहित जो सरित, उर्मि उर्मि है गीत ।।

 

कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता में रखूं , हो जाता कमजोर।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 19 ☆ व्यंग्य ☆ जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  विचारणीय व्यंग्य  “जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 19 ☆

☆ व्यंग्य – जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆

यह जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते कल्याणकारी राज्य के ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली व्यवस्था में बदल जाने की वृहद कथा का अंश है. वैसे तो जंबूद्वीप हजारों वर्ष पुराना राष्ट्र हुआ करता था, परंतु ताज़ा चेतना ईसा के उन्नीस सौ पचास वर्ष बाद आई थी. तब से चार दशक तक व्यवस्था अर्थनीति की बीचवाली राह पर चलती रही, न ज्यादा दांये न ज्यादा बांये. फिर राष्ट्र दांयी ओर मोड़ दिया गया, लगे हाथों प्रजाजन को हिन्दी में समझा दिया गया कि जन-उपयोगी सेवाएँ व्यापार का हिस्सा है और व्यापार करना सरकार का काम नहीं है. प्रजाजनों को अब आत्मनिर्भर हो जाना चाहिये, आगे से उन्हें आधारभूत सुविधाओं के लिए भी शासन के भरोसे नहीं रहना चाहिये.

इसका असर हुआ. बिजली पानी जैसी जरूरतों के लिये भी प्रजाजन शासक वर्ग पर निर्भर नहीं रहे. वे अपने लिये बोरवेल खुदवा लेते, वाटर प्यूरिफायर लगवा लेते, शासन के लिये परेशानी खड़ी नहीं करते थे. बिजली के लिये उन्होने इनवर्टर खरीद रखे थे, बहुतेरों ने डीजल जेनसेट भी लगवा लिये थे. निर्धन प्रजा पानी के टैंकर पर टूट पड़ती, ग्रामीण प्रजा चार किलोमीटर दूर से भर लाती. ढिबरी जलाकर रह लेती मगर शासन के इस निर्णय का सहर्ष अनुपालन करती कि एक सुखी और सम्पन्न राष्ट्र की तमाम जन-सुविधायें निजी हाथों में होनी चाहिये. इसकी कीमतें निजी बाज़ार तय करेगा, शासक इसके लिये दायी नहीं होगा. गाय एक पूजनीय चौपाया हुआ करती थी, प्रजाजन उसी की मानिंद सिर हिला देते. उनके रंभाने को शासन अपनी नीतियों का समर्थन मान लेता.

जंबूद्वीप की सड़कें ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का परफेक्ट एक्जाम्पल थीं. बलशाली लोग महंगी तेज गति की कार से एक नगर से दूसरे नगर जाते. उससे कम हैसियत के लोग आरामदेह वातानुकूलित कोचों से यात्रा करते. शेष हारून मियां की टंडिरा हो चुकी बसों से आते-जाते. ग्रामीण प्रजा भेड़बकरियों सी लदकर टाटा-मैजिक या टेम्पो में भर कर जाती. राज्य परिवहन निगम की व्यवस्था समाप्त कर गई दी थी. यह कथा कहे जाने तक रेल भी निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली जा रही थी. किराये से ज्यादा का टोल चुकाना पड़ता. प्रजाजनों को समझा दिया गया था देखो भैया सड़क बनाना शासन का काम नहीं है, पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप मॉडल में बनेगी तो लागत का आठ-दस गुना टोल तो चुकाना पड़ेगा. इस कालखंड के शासकों का मानना था कि रेल-मोटर चलाना राजकाज के काम का हिस्सा नहीं है. जनसंचार के सारे माध्यम भी प्रजाजनों को यही यकीन दिलाते. तो क्या करती गायें, उन्होने इसमें भी सिर हिलाकर सहमति दे दी.

सरकारी स्कूलों में न छत होती, न पंखे, न ब्लैक बोर्ड न चाक, और तो और शिक्षक भी पक्के नहीं होते. अतिथि शिक्षक होते जो अतिथियों की तरह आते. आते आते नहीं भी आते. तो क्या करते प्रजाजन? वे शिक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गये,  श्रेष्ठीजन लक़दक़ पाँच सितारा स्कूलों में एजुकेशन दिलवाते, ट्यूशन लगवाते, कोटा भिजवाते, टैबलेट पर बायजूस खरीद लेते. शेष प्रजा बच्चों को मोहल्ले के सेंट भंवरलाल कान्वेंट स्कूल में भर्ती कर देती. जो वहाँ तक भी नहीं जा पाते वे चाय की दुकान पर गिलास धोने की नौकरी कर लेते.

प्रजाजन को इलाज के लिये बीमा करवाना पड़ता. वे शासकीय अस्पताल से विमुख हो चुके थे. कारपोरेट अस्पताल में केशलेस कार्ड लेकर घुसते और बीमित राशि के शून्य हो जाने तक भर्ती रहते. जो अफोर्ड नहीं कर पाते वे नीमहकीमों से या बंगाली बाबाओं से शर्तिया इलाज़ कराते. नीति नियंताओं ने स्वयं को हेल्थ सेक्टर के दायित्व से भी मुक्त कर लिया था.

जम्बूद्वीपवासी पत्र भेजने के लिये डाकघर जैसी चीज को विस्मृत कर चुके थे. वे कोरियर सेवा का उपयोग करते जो महंगी होने के साथ साथ बहुत जवाबदेह भी नहीं होती. लाल डिब्बे शहर में ढूँढे से नहीं मिलते. हर कोरियर कंपनी का अपना रेट होता. सो आप जानों और कंपनी जाने. शासन आपकी चिट्ठी सही जगह पर मामूली कीमत में क्यों पहुंचाये ?

शासन ने जन सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने को सिकोड़ लिया था और प्रजाजन को आत्मनिर्भर होने का संदेश दे दिया था जिसका अनुपालन करते हुवे जिम्मेदार नागरिक प्राईवेट सिक्यूरिटी गार्ड रख लेते. पुलिस होती थी मगर जिनका डर दूर करने के लिये उसे बनाया गया वे ही उससे सबसे ज्यादा डरते. सामान्य श्रेणी के नागरिकों को ए स्तर की सुरक्षा नहीं मिल पाती, रसूखदार लोग ज़ेड केटेगरी की सुरक्षा ले उड़ते.

पूर्व चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शासन पर जम्बूद्वीप के वर्तमान शासक जितना गर्व करते उसके कल्याणकारी मॉडल से उतनी ही दूरी बनाकर चलते. आवारा शब्द पूंजी के पहले जुड़ा हो तो उसे सम्मान के साथ बरता जाता था. आर्थिक समानता और सामाजिक समरसता बीते युग की अवधारणा हो चली थी. जिस नागरिक की जितनी हैसियत रही वो उतना आत्मनिर्भर होता रहा. जो आत्मनिर्भर हो पाने में असमर्थ रहता वो आत्महत्या  कर लेता. शासक को दांयी ओर चलना हो तो तो पीठ पर से बिजली, पानी, लोक परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे बैगेजेस झटककर फेंकने ही पड़ते. कथासार ये कि जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते राजाधिराज अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सौंप कर कल्याणकारी राज्य होने के दायित्व से मुक्त होने की दिशा में द्रुत गति से चलने लगे. निर्बल निर्धन असहाय विवश नागरिक पीछे छूटते रहे, उनकी शेषकथा फिर कभी.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अभिशप्त  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –अभिशप्त ?

शरीर के साथ

धू-धू करके

जल रही थीं

गोबरियाँ,

उपले,

लकड़ियाँ

और

साथ ही

इन सबमें विचरते

असंख्य जीव..,

पार्थिव के सच्चे प्रेमी,

मुर्दा के साथ

ज़िंदा जलने को

अभिशप्त..!

सोचता हूँ

त्रासदियों को

रोज़ ख़बर बनानेवाला

मीडिया,

रोजाना के इन

भीषण अग्निकांडों पर

अपनी चुप्पी कब तो़ड़ेगा!

©  संजय भारद्वाज

2.10.2007

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 41 – फूल ये अपराजिता के… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “फूल ये अपराजिता के … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 41 ।। अभिनव गीत ।।

☆ फूल ये अपराजिता के…  ☆

फूल ये अपराजिता के

आ गिरें ज्यों अश्रु

टूटी खाट पर,बूढ़े पिता के

 

बहुत गहरे और

नीले प्रश्न गोया

शाम के कुहरिल

प्रहर मैं कृष्ण हों, या

 

अडिग निष्ठावान

जैसे प्रेम में हों

दिल्ली -पति

संयोगिता के

 

समय की ताजा

इन्हीं पगडंडियों के

आढ़ती बैठे हुये

मंडियों के

 

मोल-भावों में पड़ा

सौन्दर्य सोचे

हो गये सामान हम

प्रतियोगिता के

 

नील से उतरी

लगी सम्भाविता के

आँख की कोरों

हृदय से गर्विता के

 

हाथ में सूखे हुये

रख कर निवाले,

लगा दिन भर की

खुशी, हों वंचिता के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-12-2-20

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87 ☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )  

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87

☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆

इधर टांग क्या टूटी, सियासत गरमा गई। चुनावी चालें पलटी मार गईं। इतने दिन की मेहनत धरी रह गई। टांग ने सहानुभूति लहर पैदा कर परिवर्तन यात्राओं का बंटाधार कर दिया। चुनाव के समय एक हजार पुराने शिव मंदिर के नंदी महाराज नाराज हो गए। नाराजगी स्वाभाविक है, जय श्रीराम को जय सियाराम क्यों बोला। जय श्रीराम और जय सियाराम के नारे का झगड़ा है। चुनाव के समय नारों का बड़ा महत्व है, चुनाव के समय जितना घातक नारा लगेगा,वोटर पर उतना ज्यादा असर करेगा। राम का नाम चुनाव में बड़े काम का है, सामने वाले का काम तमाम कर ‘राम राम सत्य’ कर देता है। वैसे तो चुनाव के समय हर चीज का बड़ा महत्व है, बिकने वाले नेता तैयार बैठे रहते हैं, धजी का सांप बताने वाले खूब पैदा हो जाते हैं। पुराने देवी देवता जाग जाते हैं,परचा दाखिल करने के पहले पुराने देवी देवताओं की खूब पूछ परख होने लगती है, हनुमान जी को बड़ा माला पहनने का सुख मिल जाता है, फोटो-ओटो भी खिंच जाती है। चुनाव के समय दाढ़ी वालों की बाढ़ आ जाती है, कुछ लोग चुनाव में व्यस्तता दिखाने दाढ़ी बढ़ा लेते हैं, कुछ दाढ़ी कटा लेते हैं। चुनाव के समय पुलिस वालों के डण्डे ज्यादा तेल पीने लगते हैं, भीड़ बढ़ाने के हथकंडे अपनाए जाते हैं,बस और ट्रेन से लोगों को लोभ देकर लाया जाता है। शक्ति परीक्षण के लिए भीड़ सबसे अच्छा पेरामीटर होता है,पर बीच में अचानक ये टांग दिक्कत दे देगी, किसी ने भी सोचा न था।

चुनाव के समय सभी बड़े चैनल वाले चिल्लाने और मुंह चलाने वाली एंकरों को ज्यादा पसंद करते हैं। चुनाव के समय कुछ सेलीब्रिटी मुंह उठाए बैठे रहते हैं कि पार्टी में अचानक घुसने मिल जाएगा और मुफ्त में गृहमंत्रालय उन्हें वाई प्लस,जेड प्लस केटेगरी की सुरक्षा मुहैया करा देगा। टांग टूटने से व्हील चेयर चर्चा में आ जाती है,चेयर ढकेलने वाले और गोदी उठाने वालों के रुतबे बढ़ जाते हैं। हर नेता घायल होने के सपने देखने लगता है।आरोप-प्रत्यारोप, विरोध प्रदर्शन और टकराव के ठेके देने का काम पीक पर रहता है। समर्थकों को जगाने के लिए जानबूझकर शान्ति बनाए रखने की अपील जारी कर दी जाती है जिससे तैयारी अच्छी हो जाती है। शान्ति रखने की बयानबाजी से शान्ति और हिंसा के बीच कबड्डी मैदान बनाने का संकेत हो जाता है। माहौल में टूटी टांग की कीमत बढ़ जाती है,वोट प्रतिशत बढ़ने की खुशफहमी का प्लास्टर मीडिया की टीआरपी बढ़ाने के काम आता है, चैनलों में विज्ञापनों की बौछार लग जाती है। टूटी टांग और चुनाव की चर्चा से बाजार गुलजार हो जाता है, चर्चा में टूटी टांग और जनतंत्र का भावी रूप प्रगट होने लगता है, खबर पूरी दुनिया में फैल जाती है, आह और वाह के बीच नाज और नखरे वाले बयान आग में घी डालने का काम करने लगते हैं। अचानक काले कपड़े की बिक्री बढ़ जाती है, काले कपड़े से मुंह ढककर काले झंडे लिए सड़कें भर जातीं हैं। कुल मिलाकर चुनाव के समय सब कुछ जायज है, कोई भरोसा नहीं कौन सा नारा या शब्द चुनाव में कितना मार कर जाए , पिछले बार के चुनाव में ‘चौकीदार’ शब्द विपक्ष को दिक्कत देकर  खूब वोट बटोर लाया था, इस बार टूटी टांग का जलवा देखने लायक रहेगा क्योंकि चुनाव के समय टूटी टांग और व्हील चेयर जनता के मन में ‘ममता’ पैदा कर सकते हैं।

चुनाव के समय टांग टूटने से चुनाव लड़ने वाले का अलग व्यक्तित्व हो जाता है, लोगों का ध्यान बंट जाता है, सब टूटी टांग और प्लास्टर देखकर द्रवित हो जाते हैं, ऐसे समय टूटी टांग राष्ट्रीय महत्व की चीज हो जाती है, टूटी टांग चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय मुद्दा बनकर उछल  पड़ती है। मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया में टूटी टांग का कब्जा हो जाता है। टूटी टांग चुनाव के समय असली देशभक्ति जगाने में काम आती है, दर्द सहते हुए जनता के दुख दर्द की चिंता करने से चुनाव और वोटर के प्रति समर्पण दिखता है, बुद्धजीवी और शरीफ लोग इसे ‘परफेक्ट कमिटमेंट’ मानते हैं। ऐन वक्त कुछ लोग टांग टूटने को मजाक बना लेते हैं, कोई कहता है टांग नहीं टूटी, लिगामेंट टूटे हैं, कुछ लोग कहने लगते हैं कि यदि लिगामेंट टूटे हैं और दर्द भी है प्लास्टर लगा है तो बिस्तर में आराम क्यूं नहीं करते, व्हील चेयर में चुनाव प्रचार की धमकी क्यों देते हैं।

व्हील चेयर पर चुनाव प्रचार की धमकी से एक पार्टी घबरा गई है, उसने आरोप लगा दिया है कि टांग के बहाने फायदा उठाने की राजनीति की जा रही है,  राजनैतिक उथल-पुथल में टूटी टांग का अलग इतिहास रहा है, एक बार लालू की राजनीति सफाचट्ट होने के बाद लालू जी की अपनी टांग टूट गई थी, प्लास्टर लगा सिम्पेथी बटोरने की कोशिश की थी,पर शरद और नितीश ने बिल्कुल लिफ्ट नहीं दी थी तो लालू ने नयी पार्टी बना ली थी, चुनाव प्रचार में घोषणाएं होती हैं, भविष्यवाणी होती है, टांग टूटने के दो दिन पहले यदि किसी ने अपने भाषण में चोट लगने की भविष्यवाणी कर दी थी तो उनको अपनी टांग संभाल के रखनी थी, जो अपनी टांग नहीं संभाल सकता वो देश और प्रदेश की जनता की टांग की रखवाली कैसे कर सकता है। चुनाव के समय टांग पर राजनीति करना ठीक नहीं है, जनता परिवर्तन चाहती है, टूटी टांग विकास के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर सकती है। बड़े लोगों की टांग यदि टूट भी जाती है तो अपनी टूटी टांग का प्रचार नहीं करते, परसाई जी अपनी टूटी टांग छुपा कर रखते थे, पर चुनाव के समय उनकी टूटी टांग पर पार्टी वाले राजनीति करने पर उतारू हो गए थे, चुनाव के समय उनकी टूटी टांग की बोली लगाने में नेता लोग चूके नहीं थे। चुनाव के समय एक दो पार्टी वाले उनकी टूटी टांग का जायजा लेने पहुंच जाते थे। एक पार्टी के लोगों ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा था कि ये एक ऐतिहासिक चुनाव है, और आपकी टूटी टांग इस चुनाव में बड़ा बदलाव ला सकती है, तानाशाही और जनतंत्र में संघर्ष है, सरकार ने नागरिक अधिकार छीन लिए हैं, वाणी की स्वतंत्रता छीन ली है, हजारों नागरिकों को बेकसूर जेल में डाल दिया गया है, न्यायपालिका के अधिकार नष्ट किए जा रहे हैं, हमारी पार्टी इस तानाशाही को ख़त्म करके जनतंत्र की पुनः स्थापना करने के लिए चुनाव लड़ रही है, इस पवित्र कार्य में आपकी टूटी टांग हमारी मदद कर सकती है, परसाई जी ने स्वार्थी, मौकापरस्त नेताओं को अपनी टांग नहीं दी, साफ मना कर दिया था। इस बार जिनकी टांग टूटी है उनकी टांग मीडिया में छा गई है, सहानुभूति की लहर दिनों दिन आंधी में तब्दील हो रही है ऐसे समय यदि उत्साह में टूटी टांग लंगड़ाते हुए मंच में चलती दिख गई तो सामने वाली पार्टी का बंटाधार होना तय है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #34 ☆ डर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महिला दिवस पर सार्थक एवं अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “डर ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 34 ☆

☆ डर ☆ 

वो कुछ कहना चाहता है

उसके अंदर का

काव्य का सागर

बहना चाहता है

उसके पास शब्दों कीं

कमी नहीं है

उसकी सृजन क्षमता

थमी नहीं है

उसके सीने में

अंगारों की तपिश है

उसके चेहरे पर

अनोखी कशिश है

उसकी आंखों में

दर्द भरा तूफान है

उसकी कांपती पलकों में

भयभीत इन्सान है

उसकी जिव्हा पर

नये तराने है

उसके होंठों पर

मुक्ति के फसाने है

वो जानता है-

वो बोलेगा तो

कहीं ना कहीं

ज्वालामुखी फूट पड़ेगा

उबलता हुआ लावा

शायद

नया इतिहास गढ़ेगा

फिर- सामंतवादी लोग

उसकी रचनाओं को जलायेंगे

उसके उपर निराधार

आरोप लगायेंगे

इसलिए-

वो कुछ लिखने से

वो कुछ कहने से

डरता है

सच्चा कलमकार

होकर भी

एकांतवास में

गुमसुम रहता है

वो आजकल डरकर

बस

चुप है,

चुप है

और

चुप है.

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१३॥ ☆

 

वासश चित्रं मधु नयनयोर विभ्रमादेशदक्षं

पुष्पोद्भेदं सह किसलयैर भूषणानां विकल्पम

लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्याम

एकः सूते सकलम अबलामण्डनं कल्पवृक्षः॥२.१३॥

 

आराधना में निरत या मेरी भाँति

विरहिणी व्यथा भावना में दिखाती

या पूंछती बंदिनी सारिका से

” प्रिये क्या कभी स्वामि की याद आती ? “

मधुर भाषिणी लाड़ली तुम बहुत हो

उन्हें क्या कभी जा सकोगी भुलाई ?

यों भाव भीनी दशा में तुम्हें मेघ

आलोक में वह पड़ेगी दिखाई .

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 38 ☆ मुक्तविचार… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 38 ☆ 

☆ मुक्तविचार… ☆

(एक सकाळी माझ्यासोबत घडलेली एक घटना,मला खूप काही सांगून गेली,आणि त्याच अनुषंगाने मी काही ओळी तयार केल्या,ज्या मला सहज स्फुरल्या…..)

 

एक फुलपाखरू मला,स्पर्श करून गेलं

अचानक बिचारं ते, माझ्यावर आदळलं

कसेतरी स्वतःला सावरत सावरत

उडण्याचा स्व-बळे, प्रयत्न करू लागलं

त्याला घेतलं मी जवळ

स्नेहाने अलगद ओंजळीत भरलं

झाडाच्या एका फांदीवर मग

त्याला हळूच सोडून दिलं…

त्याला सोडलं जेव्हा,तेव्हा ओंजळ माझी रंगली

पाहुनी त्या रंगाला मग कळी माझीच खुलली

हसू मला आलं विचार सुद्धा मनात आला

ना मागताच मला फुलपाखराने त्याचा रंग सहज बहाल केला,परोपकार कसा असतो निर्भेळ

याचाही मग पुरावा मला मिळाला…!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बंद खोलीमध्ये ☆ श्री शरद कुलकर्णी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ बंद खोलीमध्ये ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆ 

बंद खोलीमध्ये,

एकांताचा बोधिवृक्ष असतो.

त्याच्या छायेखाली,

बरच कांही समजून घ्यायच असतं

 

बंद खोलीमध्ये,

एक समजूतदार फडताळ असतं.

तिथं अस्ताव्यस्त आठवणी,

न पाठवलेली पत्रं,

अपूर्ण लिखाण व्यवस्थित

ठेवायचं असतं.

 

बंद खोलीमध्ये,

खिडकीतून येणार्‍या कवडशातून, मनातला अंधार

समजून घ्यायचा असतो.

 

बंद खोलीमध्ये,

एक गूढ गुहा असते.

त्यातल्या हिंस्र जनावराला-

करुणेन समजून घ्यायचं असत.

 

बंद खोलीमध्ये,

स्तत:ला स्वत:पासून,

बाहेरच्या जगापासून,

जाणीवपूर्व

विलग करायचंअसतं.

 

©  श्री शरद कुलकर्णी

मिरज

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एकुलती एक – भाग-1 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

 ☆ जीवनरंग ☆ एकुलती एक – भाग-1 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆ 

‘एकुलती एक’  हो खरंच मला ह्या दोन शब्दांचा अगदी वीट आला. लहानपणी कधी कधी आवडायचं कधी कधी राग यायचा.आईस्क्रीम, चाॅकलेटची कधी वाटणी करावी लागायची नाही. अख्खं मलाच मिळायचे.आणि शेजारच्या मंगलला एकच चाॅकलेट चार भावंडांना वाटून एक तुकडा  मिळायचा तेव्हा मला एकुलताएक पणाचा आनंद व्हायचा. पण खेळात भांडण झाल्यावर ती चौघं एकत्र आणि मी एकटी पडायची.तेव्हा मला कोणी भावंडं असतं तर असं वाटून रडू यायचं.अजून पण वाटतं एखादी बहीण हवी होती.वाटणी काय ?माझा हिस्सा पण दिला असता पण मनातल्या गोष्टी, सुखदुःखात सहभागी झाली असती.काका काकीचुलत बहिणी घरी रहायला आल्या की इतका आनंद व्हायचा. आणि जायला निघाल्या की माझी रडारड सुरु.”काकी दोघींपैकी एका मुलीला तरी ठेवा ना.”नाहीतर मीच त्यांच्याकडे जायचे.अर्धअधिक माझ्या बालपणातील सुट्टी त्यांच्याकडेच गेली.

जाऊ दे मी कॉलेज मध्ये जायला लागले मला एकापेक्षा एक, जिवाला जीव देणा-या मैत्रिणी भेटल्या. माझ्याचं बरोबरीची माझी चुलतबहीण  माझ्याचं कॉलेजमध्ये होती. दुधात साखर. माझंही एकुलते एकच दुःख काही प्रमाणात कमी झाले. मजेत दिवस जात होते. पदवीधर झाले. लगेचच  नोकरीं पण चांगली  बँकेत  मिळाली. त्या वेळच्या  रूढी प्रमाणे आई बाबाने वरसंशोधनाला सुरुवात केली. मला विचारण्यात आले, “तू कुठे जमवले आहेस का? तर सांग. नाही तर आम्ही बघतो. तुला नवरा कसा हवा? ते फक्त सांग म्हणजे तसा मुलगा तुझ्यासाठी शोधायला  बरे पडेल”.

मी सांगितलं,” तुम्ही शोधाल तो  चांगलाच शोधाल. फक्त माझी एकच अट आहे. एकुलता एक मुलगा मला नवरा म्हणून अजिबात नको. त्याचं घर माणसांनी भरलेले असू दे. त्याला भाऊ, बहीण पाहिजे”. आत्याबाई तिकडे होत्या त्यांनी कपाळाला हात लावला “अरे अण्णा, आजकाल मुलींना मोठा गोतावळा नको असतो. ‘मी आणि माझा नारा  नको कोणाचा वारा ‘ आणि हिची अट तरी ऐक.”

आई बाबांनी वरसंशोधनाला  सुरुवात केली. जर गोतावळावाला मुलगा मिळाला तर तिकडे पत्रिका जुळत नव्हती. पत्रिका जुळली तर मुलगा परदेशात जाणारा.

मला परदेशात अजिबात जायचं नव्हतं भारत देश, आणि माझ्या आईबाबाना सोडून. कारण मी एकच मुलगी होते ना त्यांची. शेवटी आपण एक ठरवतो पण वरचा दुसरंच. लग्नाच्या गाठी ह्या वरचाच मारतो. तसे म्हणा सगळ्याबद्दलच सगळे तोच ठरवत असतो. आपण मी हे केलं, मी ते केलं म्हणतो. पण प्रत्यक्षात तो वरचाच  प्रत्येकाच्या बाबतीत सगळं ठरवून त्याला पृथ्वीवर पाठवतो.आपण  फक्त  कठपुतळ्या, किंवा बुद्धिबळातली  प्यादी. माझ्याबाबतीत तेच झाले.

मुलगा चांगला उच्चशिक्षित, सुस्थापित, दिसायला चांगला, मुंबईतच राहणारा. नाही म्हणण्यासारखे काहीच नव्हते. पण माझ्या मुख्य अटीत तो बसत नव्हता. कारण तो  एकुलता एक होता. जे मला मुळीच मान्य नव्हतं. पण आईबाबांनी आणि जिने स्थळ आणले होते त्या माझ्या लाडक्या माई मावशीने माझं ब्रेन वॉश करायला सुरवात केली” इतकं चांगलं स्थळ हातचं सोडू नकोस. एकतर तुझी पत्रिका सहजासहजी जमत नाही. ह्या ठिकाणी छानच जमते. गुणमिलन पण होतयं. शिवाय सासू सासरे हौशी. स्वतःच्या मुलीसारखं तुझे कौतुक लाड करतील. तुला काही कमी पडू देणार नाहीत ” . कारण मुलाची आई ती माई मावशीची  जवळची मैत्रीण होती. प्रश्न लाडाकोडाचा नव्हता. ते तर माहेरी भरपूर होत होते. प्रश्न त्याच्या घरांत गोकुळ नव्हते. तोच एकटेपणा, तेच एकुलते एक प्रकरण. जे मला अजिबात नको होतं. पण शेवटी वडीलधा-याच्या व्यवहारी दृष्टिकोनापुढे माझा भावुक विचार दुर्बळ ठरला. ती वरच्याचीच इच्छा असणार. आले  देवाजीच्या मना तिथे कोणाचे चालेना  आणि अशा रितीने एकुलत्या एक मुलीचा एकुलत्या एक मुलांशी  विवाह आनंदात धूमधडाक्यात पार पडला. “छान मस्त लग्न झालं.” “अनुरुप जोडी”.वगैरे वगैरे.

                                      क्रमशः….

© सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

फोन  नं. 8425933533

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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