हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिर जन्मा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – चिर जन्मा..! ? 

-कल दिन बहुत खराब बीता।

-क्यों?

-पास में एक मृत्यु हो गई थी। जल्दी सुबह वहाँ चला गया। बाद में पूरे दिन कोई काम ठीक से बना ही नहीं।

-कैसे बनता, सुबह-सुबह मृतक का चेहरा देखना अशुभ होता है।

विशेषकर अंतिम वाक्य इस अंदाज़ में कहा गया था मानो कहने वाले ने अमरपट्टा ले रखा हो।

इस वाक्य को शुभाशुभ का सूत्र न बनाते हुए विचार करो। हर सुबह दर्पण में किसे निहारते हो? स्वयं को ही न!…कितने जन्मों की, जन्म- जन्मांतरों की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचे हो…हर जन्म का विराम कैसे हुआ..मृत्यु से ही न!

रोज चिर मृतक का चेहरा देखते हो! इसका दूसरा पहलू है कि रोज मर कर जी उठने वाले का चेहरा देखते हो। चिर मृतक या चिर जन्मा, निर्णय तुम्हें करना है।

स्मरण रहे, चेहरे देखने से नहीं, भीतर से जीने और मरने से टिकता और दिखता है जीवन। जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।

जीवन देखो, जीवन जियो।

?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 7.55 बजे, 4.6.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆ यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆

✍ यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बशर हर साहिबे क़िरदार होगा

तभी अपना चमन गुलज़ार होगा

 *

छिपा जिस भेष में गद्दार होगा

हमेशा घात को तैयार होगा

 *

मरा है मुफ़लिसी में करके फ़ाके

यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा

 *

शिनावर  मौज़ की रफ़्तार नापे

अजी वो खाक़ दरिया पार होगा

 *

क़लम जो बेचता सड़कों पे गाकर

मुझे लगता कोई फ़नकार होगा

 *

चलूँगा बैल सा कोल्हू के हर दिन

कभी क्या ज़ीस्त में इतवार होगा

 *

हुआ वहशत का है जो शख़्स हामी

यक़ीनन ज़हन से बीमार होगा

 *

रखेगा कैद में सैयाद कब तक

कभी तो आपका दीदार होगा

 *

मुहब्बत का सफ़र आसां न समझो

“अरुण” रस्ता बड़ा दुश्वार होगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की..।)

✍ कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की… ☆ श्री हेमंत तारे  

फ़ासला  नही,  फ़ासिला कहा करो

हादसा  नही,   हादिसा  कहा  करो

*

गर इश्क है उर्दू से,  पशेमा  क्यों हो

यार,  सरेआम ऐलानिया कहा करो

*

कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की

मशायरे सुनो, और ईर्शाद कहा करो

*

गैरों की नही अपनों की बात करता हूं

गर वो ग़लत है, उन्हें गलत कहा करो

*

आधा सच कहो,  ये लाजिमी तो नही

जो बात है, वो साफगोई से कहा करो

*

ख़ामोशी बोलती है जानम, इंकार नही

पर, कभी खुलकर भी  बात  कहा करो

*

जो मौसम – ऐ – तपिश में देते है पनाह

उन  दरख़्तों को भी शुक्रिया कहा करो

*

ये दिल है ‘हेमंत’ कोई खिलौना तो नही

टूट जाता है गर खेले कोई ये कहा करो

(एहतिमाम = व्यवस्था, सिम्त = तरफ, सुकूँ = शांति, एज़ाज़ = सम्मान , शै = वस्तु, सुर्खियां = headlines, आश्ना = मित्र, मसरूफियत = व्यस्तता)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ ♥ Echoes of Mortality… ♥ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Echoes of Mortality… ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

Here’s an entreaty of the heart, post Angioplasty with few stents as guest…an earnest appeal:

– Pravin Raghuvanshi

? ~ Echoes of Mortality ??

As long the flesh and blood endure

A solitary monologue ensues,

a silent echo screams inconsably

On the canvas of imagination

emerges a mystic dialogue,

Unfolding a conversation in the

realm of cognitive intelligence…

Each breath, -a fleeting whisper,

Scribbling life’s transient theme,

Mortality’s indelible dark design

Perishing this mortal frame…

Listen to me, hear my plea:

“Release the shackles of vindictiveness,

rage, frustration, malice and grudge,

While mortal breaths remain alive,

Share a moment, converse happily

Enjoy each other’s convivial company!”

 

 ~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune
11 March 2025

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Articles ☆ Positive Education # 12: Virtues and Strengths ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Authored six books on happiness: Cultivating Happiness, Nirvana – The Highest Happiness, Meditate Like the Buddha, Mission Happiness, A Flourishing Life, and The Little Book of HappinessHe served in a bank for thirty-five years and has been propagating happiness and well-being among people for the past twenty years. He is on a mission – Mission Happiness!

Positive Education # 12: Virtues and Strengths ☆

Discover your signature strengths

“Contrary to what most of us believe, happiness does not simply happen to us. It is something that we make happen.”

Mihaly Csikszentmihalyi

Authentic happiness comes from identifying and cultivating your most fundamental strengths and using them every day in work, play, love, and parenting.

By identifying the very best in ourselves, we can improve the world around us, and achieve new and sustainable levels of authentic contentment, gratification, and meaning.

Every major religious and cultural tradition endorses six virtues:

Wisdom and knowledge,

Courage,

Love and humanity,

Justice,

Temperance,

and Spirituality and transcendence.

Signature Strengths

There are several distinct routes to each of the six virtues. Happiness is nothing else but virtues in action.

Signature strengths are the routes – the strengths of character – by which we achieve the virtues. If you want to be happy, you have to discover your signature strengths and put them into action.

The routes to achieve the virtue of wisdom and knowledge are:

curiosity or interest in the world,

love of learning,

critical thinking, open-mindedness,

ingenuity, originality, practical intelligence,

social intelligence, personal intelligence, emotional intelligence,

and perspective.

The routes to courage are:

valour and bravery,

perseverance, industry, diligence,

integrity, genuineness, and honesty.

The routes to the virtue of humanity and love are:

kindness,

generosity,

loving,

and allowing to be loved

The virtue of justice is attained through:

citizenship, duty,

teamwork,

loyalty, fairness, equity,

and leadership.

Temperance may be achieved by:

self-control,

prudence,

discretion, caution,

humility, and modesty.

Transcendence may be reached by:

practising gratitude,

optimism,

spirituality, religiousness, faith,

sense of purpose,

forgiveness, mercy,

and appreciation of beauty and excellence.

Playfulness, humour, zest, passion, and enthusiasm are also routes to transcendence.

We possess these strengths of character to a lesser or more degree but some of these strengths are well pronounced and in abundance.

We enjoy exhibiting these strengths and they come naturally to us.

They are our signature strengthens and we must use them more and more, again and again in the mansions of life – work, love, and parenting.

VIA (values in action) survey of character strengths helps determine the highest strengths you have.

The signature strengths, when used often, enable you to increase the amount of flourishing in your own life and on the planet.

Peter Drucker says, “Individuals who invest in their strengths are happier and more successful. Only when you operate from strengths, can you achieve true excellence.”

Building strengths and virtues and using them in daily life are very much a matter of making choices.

Building strength and virtue is not about learning, training, or conditioning, but about discovery, creation, and ownership.

“A musician must make music, an artist must paint, a poet must write, if he is to be ultimately happy. What a man can be, he must be. This need we may call self-actualization.”

Abraham Maslow

♥ ♥ ♥ ♥

Please click on the following links to read previously published posts “Positive Education” 👉

 

English Literature – Articles ☆ Positive Education # 10: Myths and Reality ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

English Literature – Articles ☆ Positive Education # 11: Happiness Equation ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

 

© Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker

FounderLifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 12 ☆ लघुकथा – भुवन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “भुवन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 12 ☆

✍ लघुकथा – भुवन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

उसकी खबर मिलती रहती, कभी वाट्सएप पर, कभी फेसबुक पर। खबरों में ज्यादा तर अपनी तारीफ रहती जैसे उस पर पत्रिका में मेरी कविता छप गई, कहानी छप गई।  मेरे लिखे हुए नाटक का मंचन हुआ और बहुत सराहा गया। जब जब उसकी खबर पढता तो भुवन याद आ जाता। भुवन मेरा दोस्त और नीता का पति। भुवन बहुत अच्छा रचनाकार था। कविता कहानी नाटक उपन्यास सब कुछ लिखता। उसके हर बोल में कविता होती, हर बात में कहानी। सबको इतना हँसाता कि पूछो मत। और उसकी जुबान पर अदब जैसे आसन जमा कर बैठा था।

भुवन के अवसान की खबर आई तो मैं एकदम रो पड़ा। हालांकि हम पास नहीं रहते पर उसकी मौजूदगी हमेशा बनी रहती। ऐसा लगता कि वह बाजू में खड़ा हँस रहा है। फोन पर तो घंटों बीत जाते पर बातें खत्म नहीं होतीं। उसके न रहने की खबर ने मुझे हिला कर रख दिया और नीता, उसका क्या होगा। उसकी दो छोटी छोटी बेटियाँ, क्या होगा। मैं लखनऊ गया था। नीता से मिला था। अपनी बेटियों को गोद में लेकर कह रही थी कि तुम दोनों मेरे होनहार बेटे हो। बेटा न होने का दंश मैंने महसूस किया।  मैंने धीरे से पूछा था कि भुवन की रायल्टी वगैरह…. और नीता ने वाक्य पूरा नहीं होने दिया, काहे की रायल्टी, कौन देता है है रायल्टी? जब वो थे तो सब पूछते थे। अब वो नहीं हैं तो कोई पहचानता भी नहीं। उनके मित्र लेखक, कवि, पत्रकार सब मुझे देख कर दूर से ही कट जाते हैं। मैं तो उनके लिए किसी काम की नहीं हूँ न, उनकी रचनाएँ नहीं छपवा सकती, आकाशवाणी पर प्रसारण नहीं करवा सकती। बैंक में जो था बीमारी में लग गया। कोई बीमा नहीं, बैलेंस नहीं, पेशन नहीं। सपाट नजरों से पूछा था कि लेखकों के लिए सुरक्षित भविष्य की कोई योजना क्यों नहीं है ? मैं क्या उत्तर देता!  रस्म अदायगी करके वापस आ गया।

घर आकर अपने काम में व्यस्त हो गया। जब कोई खबर नीता की देखता तो यह सब याद आ जाता। लाइक कमेंट भी करता। उसकी हिम्मत की सराहना भी मन ही मन करता पर उससे बात करने का साहस न होता। आज जब अखबार में पढा कि नीता को अपने उपन्यास पर बहुत बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला है जिसके साथ अच्छी धनराशि भी है तो फिर आँखों से दो आँसू टपक पड़े। आसमान में देखा तो भुवन का चेहरा था जैसे कह रहा हो, यार यही जि़ंदगी है। उतार चढ़ाव आते रहते हैं और रास्ते भी निकलते रहते हैं। सोच रहा हूँ नीता को बधाई दे दूँ, पर पहले कभी हालचाल तक नहीं पूछे तो अब कैसे हिम्मत होगी। फिर एक मुस्कान आकर कह गई कि उसकी सफलता से खुश हो न, यही काफी है। भुवन तो देख रहा है न!

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 625 ⇒ हम सब चोर हैं ! ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆“

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हम सब चोर हैं !।)

?अभी अभी # 625 ⇒  हम सब चोर हैं ! ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है ! तो फिर हमारी फिल्में किसका आईना हैं ? यथार्थ और आदर्श का मिला-जुला स्वरूप ही शायद हमारी फिल्में हैं।

हमारे शोमैन राजकपूर ही को देख लीजिए ! आवारा, श्री 420 और मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मों के नाम क्या किसी आदर्श नायक की पसंद हो सकते हैं। इनके भाई शम्मीकपूर भी कम नहीं ! जंगली, जानवर और बदतमीज़। लोफर, चालबाज, लुटेरा, समुद्री डाकू, बनारसी ठग और शरीफ बदमाशों से फिल्मी दुनिया भरी पड़ी है। ।

यूँ तो हर इंसान के मन में चोर होता है, लेकिन दिल को चुराना चोरी नहीं कहलाता। अली बाबा चालीस चोर की कहानी किसी पंचतंत्र की कहानी से कम नहीं!

चोरी-चोरी, चोरी मेरा काम, चित चोर, चोर मचाये शोर और हम सब चोर हैं जैसी फिल्में कितनी आदर्श फिल्में होंगी। एक फ़िल्म आई थी, कामचोर ! लीजिए, अब काम की भी चोरी होने लग गई। अब ऊपर वाला कहाँ कहाँ नज़र रखे।

चोरी की आदत बचपन से ही लग जाती है। माखन चोर, माखन ही नहीं चुराते, सभी गोप-गोपियों, ग्वाल-बाल और पूरे गोकुल-वृंदावन का मन भी चुरा लेते हैं।

हमारा सभ्य समाज चोरी को बुरा मानता है, और चोर को गिरी हुई नजर से देखता है। चोर का भाई गिरहकट होता है। चोर अक्सर रात में चोरी करता है, और गिरहकट दिन-दहाड़े किसी की जेब काट लेता है। कोई भी चोरी से किया काम चोरी नहीं कहलाता। बिना हेरा-फेरी के चोरी नहीं होती। ।

चोर-सिपाही की जोड़ी अलिफ-लैला और हीर-रांझा से भी अधिक प्रसिद्ध है। यहाँ तो हथकड़ी का बंधन भी है, लॉकअप भी है और जेल की हवा भी है।

हममें से कोई छोटा चोर है, तो कोई बड़ा चोर ! दिल के अलावा रात की नींद भी चुराने वाले होते हैं। मेरी आँखों में बस गया कोई रे। हाय मैं क्या करूँ ! फिर कुछ चैन चुराने वाले भी होते हैं। नैन मिलाकर, चैन चुराना किसका है, ये काम ? सड़क पर चलती महिलाओं के गले से चेन चुराने वाले अपराधी की श्रेणी में आते हैं। ।

एक बहुत पुराना फिल्मी गीत है :

चोरी चोरी आग सी दिल में लगा के चल दिये।

हम तड़फते रह गए, वो मुस्कुरा के चल दिये। ।

बताइये ! कौन सी धारा में अपराध है ये ? किसी का हक मारना, अपनी मेहनत से अधिक राशि गलत तरीके से हथियाना, चोरी और गबन करने से कम नहीं ! तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा ! केवल ज़मीन पर कथित चौकीदार के चुनावी डंडा बजाने, और कानून से बचने से कुछ नहीं होगा। आसमान में भी एक चित्रगुप्त, गुप्त कैमरे से आप पर नज़र रख रहा है। रिश्वत लेने देने, और बेईमानी की पाई पाई का हिसाब उसके बही-खाते में दर्ज है। हमें भी जागना होगा। हमारे मन में जो लालच और झूठ का चोर है, उसे भी पहचानना होगा।

मत कहिए, किसी की ओर उँगली उठाकर, वह चोर है।

हम सब चोर हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 62 – अनोखा रिश्ता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनोखा रिश्ता।)

☆ लघुकथा # 62 – अनोखा रिश्ता ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

 

“रवि आज सुबह-सुबह कहां जा रहे हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर?” पत्नी  सुनंदा ने पूछा।

“तुम भी तैयार हो जाओ। आज हमें वृद्धा आश्रम चलना है। मां को घर लेकर आना है। विदेश से आए एक महीना हो गया है।”

“तुम जाओ मैं नहीं जाऊंगी?”

रवि ने वृद्धाश्रम पहुंचकर अपनी मां के बारे में पूछा तो पता चला कि उसकी मां यहां आई थी पर थोड़ी देर के बाद ही चली गई थी ?

“हमने आपके नंबर पर फोन करके आपको सूचित तो किया था। क्या आपको पता नहीं चला? आपने कभी कोई खबर भी नहीं की इन दो सालों में?”

“लेकिन मेरी पत्नी तो मां की खबर लेती थी और पैसे भी भेजती थी!”

“देखिए आप झूठ मत बोलिए ? हम लोगों को रखते हैं और सुविधा देते हैं तो पैसे लेते हैं। आप कोई रसीद हो तो दिखाइए? आप अपने मां-बाप को संभाल नहीं पाते हो और हमारे ऊपर इल्जाम लगा रहे”

वह अपने पुराने घर जाता है जिसे उसने बेच दिया था। वहां उसे अपनी मां नजर आती है और वह उसे घर में काफी खुश दिख रही थी।

उसे मकान मालिक (अजय) ने उसे अपने घर के अंदर घुसने से मना कर दिया और कहा कि-  “जब तुम यह घर बेचकर चले गए तो यहाँ क्यों आए हो?”

उसने कहा “मां को लेने के लिए…।“

“बरसों बाद तुम्हें मां की कैसे याद आई?  तुम्हारी मां अब तुम्हारी नहीं हैं? घर के साथ-साथ अब यह मेरी मां हो गई। हमें तो पता ही नहीं था कि आपकी मां है यह बेचारी इस घर के बाहर बैठे रो रही थी। पड़ोसियों से पता चला कि इस घर की मालकिन है। हमने अपने घर में  रहने दिया। वे  पूरे घर का काम कर देती थी और तरह-तरह के अचार पापड़ भी बना देती थी। हम इसे अपने रिश्तेदार और पड़ोसी को बेचने लगे। इतना मुनाफा कमाया जो कुछ भी है यह सब इनके कारण ही है। तुमने इन्हें बेसहारा कर दिया था और हम बेसहारों को मां मिल गई। अच्छा है कि मां को कुछ याद नहीं रहता। मुझे ही अपना बेटा मानती  है। भगवान की कृपा से मुझे यह अटूट रिश्ता मिला है। तुम्हें सब कुछ मिला था पर तुमने खो दिया लालच में अब तुम जा सकते हो।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 263 ☆ अभिजात मराठी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 263 ?

☆ अभिजात मराठी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आम्ही मानतो आभार

जय राज्य सरकार

नमो केंद्र सरकार

अभिजात हा आधार ॥

 *

महाराष्ट्र शासनाच्या

प्रयत्नांना आले यश

महाराष्ट्री-प्राकृतास

सारे लाभले निकष ॥

 *

मातृभाषा मराठीस

देई मान्यता लगेच

भारताचे  सरकार

गुणग्राही निश्चितच ॥

*

अभिजात मराठीस

मिळो राज्याश्रय खास

डंका मराठी भाषेचा

सदा गर्जो हाच ध्यास ॥

*

ग्रंथ गाथा सप्तशती

पुरातन कितीतरी

ज्ञानेशांची ज्ञानेश्वरी

वही तुकोबांची खरी ॥

 *

माझी मराठी अफाट

परिपूर्ण काठोकाठ

सदा भरलेला राहो

घट अमृताचा ताठ ॥

 *

गोड मराठी आपली

तिला विद्वतेची खोली

आहे रसाळ- रांगडी

 मस्त मराठीची बोली ॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माय मराठी… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

 

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माय मराठीसौ. वृंदा गंभीर

मातृभाषा मराठी

हीच माय माऊली

झटलो तिच्यासाठी

अभिजात ती झाली

*

सेवा करा मराठीची

जपा संस्कृती भाषेची

नका वाढवू इंग्रजी दर्जा

कास धरा मराठी परंपरेची

*

होऊन गेले दिग्गज

वाहिले प्राण त्यांनी

संस्कृती चे हे राज

मराठीत आणले माऊलींनी

*

ऐकाया गोड मराठी

बोलाया शुद्ध मराठी

माय माऊली मराठी

महाराष्ट्राची शान मराठी

*

अभिमान मराठी

स्वाभिमान मराठी

आदर आमचा मराठी

श्रेष्ठ वाटते मराठी

*

चला करू तिचा उद्धार

गाऊ मराठीची महती

करू मराठीची आरती

सगळे प्रेमाने माय म्हणती

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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