हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 242 ⇒ गौ सेवा और श्वान प्रेम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गौ सेवा और श्वान प्रेम ।)

?अभी अभी # 243 ⇒ गौ सेवा और श्वान प्रेम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं।

आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं।।

इंसान से इंसान का प्रेम तो भाईचारा कहलाता है, यह अपराध कहां हुआ ! लेकिन हां, फिर भी यह एक सीमित दायरा और संकुचित सोच अवश्य है। जो सच्चा इंसान होता है, वह तो प्राणी मात्र से प्रेम करता है। प्राणियों में पशु पक्षी तो आते ही हैं, जिनका चित्त शुद्ध होता है, उन्हें तो कण कण में भगवान नजर आते हैं। मुझमें राम, तुझमें राम, रोम रोम में राम वाली अवस्था होती है यह।

हमने तो वे दिन भी देखे हैं, जब गौ माता और श्वान साथ साथ, गली गली, चौराहों चौराहों पर घूमते नजर आते थे। तब घर घर, द्वार द्वार गौ माता नजर आ जाती थी। तब भले ही मुफ्त राशन नहीं था, लेकिन फिर भी पहली रोटी गाय की ही निकाली जाती थी। लेकिन हो सकता है, यह केवल सिक्के का एक ही पहलू हो, उसकी वास्तविक स्थिति एक आवारा पशु से बेहतर नहीं थी।।

घूरे की तरह गौ माता के दिन भी फिरे, और उसे ससम्मान गौ शालाओं में प्रतिष्ठित किया गया। माता पिता भले ही घरों से वृद्धाश्रम में पहुंच गए हों, हमारी गौ माता आज गौ शालाओं में सुरक्षित है।

लेकिन एक बेचारे श्वान की ऐसी तकदीर कहां। वह तो कल भी सड़क पर ही था, और आज भी सड़क पर ही है।

लेकिन एक गाय और श्वान में एक मूलभूत अंतर है। हमें गाय तो देसी चाहिए, लेकिन अगर श्वान विदेशी नस्ल का हो, तो उसके लिए हमारे घर के द्वार खुले हैं। यानी गऊ माता के लिए अगर गौ शाला तो श्वान महाशय के लिए कार बंगला सब कुछ। बड़े भाग श्वान तन पाया साहब की बीवी, बेबी मन भाया।।

साहिर का पैसा और प्यार बहुत घिसा हुआ जुमला हो गया। आज पुण्य और प्रेम का जमाना है। पैसे को पुण्य में लगाओ और प्रेम की गंगा बहाओ। अब गौ सेवा के लिए हम आलीशान बंगले में गाय तो नहीं बांध सकते न, वहां तो एक बढ़िया विदेशी नस्ल का श्वान ही शोभा देता है। गऊ तो हमारी माता है, हाल ही में हमने एक विशाल गौ शाला के लिए एक अच्छी मोटी रकम अर्पित कर पुण्य कमाया है, जिसमें गौ माता के चारे और देखभाल की व्यवस्था भी शामिल है। हर सप्ताह सपरिवार हम गौ शाला जाते हैं, गऊ सेवा करते हैं, उसे अपने हाथों से चारा खिलाते हैं, उसी प्रेम से जिस तरह घर में डेज़ी को दूध रोटी खिलाते हैं। मत पूछिए घर में डेज़ी कौन है और डॉली कौन।

क्या धरती और क्या आकाश, सबको प्यार की प्यास। दुनिया में पैसा ही सब कुछ नहीं है। आज पुण्य कमाया जाता है और प्यार लुटाया जाता है। हमें इस वैतरणी से गऊ माता ही पार लगाएगी, इसलिए अगर आप सनातनी हैं तो जितना बने गौ सेवा करें। आज के 2 और 3 बेडरूम किचेन के जमाने में गाय पालना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। अपनी हैसियत के अनुसार गो सेवा, गो दान और गौ रक्षा का संकल्प ही श्रेयस्कर है।।

विदेशी नस्ल के श्वान के भाग तो काग के भाग से कम नहीं, लेकिन सड़कों पर जो आवारा कुत्ते हैं, नजर उन पर भी कुछ डालो, अरे ओ पैसा, पुण्य कमाने वालों और प्यार लुटाने वालों ! हम नहीं चाहते, इस संसार में कोई भी प्राणी कुत्ते की मौत मरे। प्राणियों में प्रेम हो, धर्म की विजय हो, विश्व का कल्याण हो। सनातन धर्म की जय हो। ओम् तीन बार शांति ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #195 ☆ संतोष के दोहे – नया वर्ष नव चेतना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – नया वर्ष नव चेतनाआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 195 ☆

☆ संतोष के दोहे  – नया वर्ष नव चेतना ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आते – जाते वर्ष का, करें न हर्ष-विशाद

वर्तमान में खुश रहें, छोड़ सभी अवसाद

लेते जो नव वर्ष में, कसमें खूब कमाल

अमल कभी ना कर सकें, उन पर उठें सवाल

☆ 

नया वर्ष नव चेतना, मन में नई उमंग

चलें राह हम धर्म की, छोड़ें सभी कुसंग

कथनी-करनी एक सी, रखते जो भी लोग

मान बढ़े उनका सदा, दूर रहें अभियोग

ले विदाई चला गया, वर्ष तेइस सहर्ष

स्वागत कर चौबीस का, मना रहे नव वर्ष

संस्कार छोड़ें नहीं, मन में भर उत्कर्ष

मिले सफलता आप को, मंगल हो नव वर्ष

गठबंधन के नाम पर, रखा इंडिया नाम

पर श्रीमन तेइस में, बना न कोई काम

राजनीति के नाम पर, फैलाते अलगाव

बचिए ऐसे दलों से, रखें न कोई लगाव

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “नव वर्ष अभिनंदन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ कविता  – “नव वर्ष अभिनंदन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल

बदल रहा है साल तो क्या है

बीती यादों को संजो लो तुम

नव वर्ष के आगमन का

खुशियों से करो अभिनंदन तुम

छोड़ बुराई अच्छे पथ पर

आगे बढ़ते जाना तुम

आंधी तूफान कठिन राह से

कभी नहीं घबराना तुम

नज़र बदल कर सोच बदलकर

जीवन पथ पर चलना तुम

मुश्किल काज ना लगेगा मुश्किल

मंजिल को पाओगे तुम

सजे स्वप्न साकार जब होंगे

धैर्य का दामन थामोगे तुम

अंधेरे जब बन जायेंगे उजाले

प्रज्ज्वलित मन से देखोगे तुम।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खेळ शब्दांचा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ खेळ शब्दांचा☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

शब्दांचाच खेळ शब्दांच्याच संगे

शब्दांच्या प्रवाही जीव हा तरंगे

शब्दांच्या अंगणी शब्दांचे चांदणे

शब्दांचा बहर मनात फुलणे

शब्दरुपी धन शब्द  हे जीवन

शब्दांचेच मग मिळो मज दान

शब्दांचा संसार शब्दांचा व्यापार

शब्दांचा आचार शब्दांचा विकार

निःशब्द  का झाले जर माझे शब्द

होईल हे माझे जीवन ही स्तब्ध

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 203 ☆ दिव्य मात्रा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 203 – विजय साहित्य ?

☆ दिव्य मात्रा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(काव्यप्रकार = अष्टाक्षरी रचना)

केले नारीला‌ साक्षर

दिली हाती धुळपाटी

ज्योतिबाची साऊ लढे

महिलांच्या हक्कांसाठी..! १

साऊ साक्षर होऊनी

शोधू लागे निरक्षर

कर्मठांच्या विरोधात

करी महिला साक्षर…! २

विधवांच्या बंधनांचा

दूर केला अभिशाप

समतेची चळवळ

दूर करी भवताप..! ३

रूढी जाचक अन्यायी

दिला जोरदार लढा

व्हावी‌ सक्षम अबला

गिरविला नवा धडा..! ४

ध्येयवादी पुरोगामी

सावित्रीची चळवळ

आंदोलन प्रबोधन

व्यक्त झाली कळकळ..! ५

क्रांती ज्योत शिक्षणाची

ध्येय बंधुता समता

काव्य फुले गृहिणीची

नारी विकास क्षमता…! ६

साऊ अशी, साऊ तशी

ज्योतिबांची क्रांती यात्रा

देण्या प्रकाश झिजली

ज्ञानदायी दिव्य मात्रा…! ७

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “हव्यास” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “हव्यास” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

काल सांगाती समुहावर रिव्ह्यु मधे श्री.महेश पेंढारकर ह्यांची जुनी पण खूप मस्त पोस्ट परत एकदा वाचनात आली.ह्या पोस्ट मुळे कित्येक दिवसातील माझ्या वागणूकीची अटकळ येऊन डोक्यात लख्ख प्रकाशच पडला. हल्ली मला औषधे आणि खाण्यापिण्यासाठी लागणा-या आवश्यक गोष्टींच्या दुकानात सोडून दुसऱ्या कुठल्याही दुकानाची अक्षरशः पायरी सुद्धा चढायची  भिती वाटू लागलीयं.

खरोखर ह्या जवळपास तीस वर्षांच्या संसारात आवश्यक आवश्यक करीत कितीतरी वस्तू, गोष्टी ह्या आवश्यकतेपेक्षाही कितीतरी पटीने जास्त जमवून ठेवण्याचा, कित्येक वस्तूंचा संग्रह करून कवटाळून ठेवण्याचा माझा हव्यास आता माझ्याच डोळ्यात खुपायला लागला आहे.

जेव्हा स्वतःमधील दोष हे आपण स्वतःशीच मनोमन मान्य करायला लागलो की समजून जावं पाणी खूप जास्त डोक्यावरून वहायला लागलं आहे.कारण आपली सहज सरसकट प्रवृत्ती असते की दुसऱ्यांचे दोष,चुका अवगुण चटकन दिसतात, जाणवतात परंतु एकतर आपले स्वतःचे दोष,चुका, अवगुण मुळी चटकन दिसतच नाहीत, दिसले तरी कानाडोळा करण्याकडे कल असतो आणि अगदीच दिसले तरी आपलं मनं,आपला मेंदू ते मान्य करायला राजीच नसतो मुळी.त्यामुळे मी ज्याअर्थी माझे दोष वा माझ्या चुका मान्य करतेयं त्याअर्थी मला ताबडतोब माझा विचारांचा, वागणूकींचा ट्रँक बदलायला हवा आहे हे नक्की.

सर्वप्रथम घरातील भांडी बघून जीव दडपायला लागला आहे.ति. आईंची आधीची भांडी,माझ्या लग्नातील आणि लग्नानंतरची जमवलेली भांडी बघून मला माझीच स्वतःची जणू खवलेमांजर झाल्यागतं वाटतयं.काय ते डब्बे,काय ती क्राँकरी,जपता जपता वेड लागायचं फक्त बाकी आहे. स्वतःच्या वेड्या मनाची समजूत काढतांना खरच मी मलाच सांगतेयं,” कोणी आलंगेलं तर लागतील की”, पण खरं सांगा हल्ली हळुहळू एकमेकांच्या भेटीच मुळी उंबराच्या फुलागत होऊ लागल्यात आणि त्यातून ह्या अशा संकटांच्या काळात असे कितीसे माणसं एकमेकांकडे येणीजाणी करणार आहेत ?.

आता माझा मोर्चा वळला कपड्यांच्या ढीगांकडे.खरचं अती झालं आणि हसू आलं च्या ऐवजी अती झालं आणि रडू आलं ही परिस्थिती आलीयं.पंचवीस वर्षांपासून च्या माझ्या साड्या अजूनही जैसे थे असतांना ह्या साड्यांची थप्पी दिवसेंदिवस वाढतेच आहे. अर्थात ही साड्यांची कृपादृष्टी माझ्या आणि अहोंच्या दोघांच्याही बहिणींची.व्यक्ती म्हणजे मी  प्रेमळ,शहाणी, चांगली आणि गुणी  असल्याने माझी आई,बहिण आणि नणंद ह्या तिघीही स्वतःपेक्षा जास्त साड्या मला घेऊन माझे लाड पुरवितात. भरीसभर कुठून दुर्बुद्धी सुचली अन् मध्यंतरी  पंजाबी ड्रेस घालायला लागले होते. बाकी काही नाही पण ह्यामुळे अजून काही नाही पण पंधरा वीस ड्रेस ची कपड्यांच्या इस्टेटीत भरच पडली. असो.

नाही म्हणायला माझ्या डोळ्यात अजून तरी पुस्तकांनी खचाखच भरलेली कपाटं मात्र डोळ्यात सलत नाहीत हे खरे.देवाने एक कृपा मात्र केली मला आँनलाईन शाँपींगच्या आवडीचा तसूभरही वारा माझ्या अंगाला लागू दिला नाही. अजून पर्यंत एक रुपयाचे देखील आँनलाईन शाँपींग केलेले नाही आणि आतातर ही उपरती झाल्याने ते करायची सूतराम शक्यताही नाही.

त्यामुळे अतिशय अल्प गरजा, कमीत कमी  सामान बाळगणा-या व्यक्तींचा मी प्रचंड आदर करते. आणि जर हा मोह,हव्यास आवरून कमीतकमी गरजांमध्ये,अल्प सामानांमध्ये जगणं शिकायचा कुठे क्लास असेल तर मी करावा म्हणतेयं.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ नशीब – लेखिका : सुश्री ज्योती रानडे ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ नशीब – लेखिका : सुश्री ज्योती रानडे ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

ती फिरायला गेली असताना तिला एक जुन्या पध्दतीचं व ठसठशीत असं कानातलं सापडले. सोन्याचं वाटलं म्हणून खात्री करून घेण्यासाठी ती सराफाकडे गेली.  सराफाने बघून सांगितले की ते कानातले सोन्याचे आहे. ते घेऊन ती घरी आली.

घरी कामाची बाई सखू रडताना बघून तिने कारण विचारले. सखू म्हणाली, “ वहिनी, लेकीची चार महिन्याची फी भरली नाही म्हणून तिला शाळेतून घरी पाठवलं.  थोडे पैसे उसने द्या.”  ती म्हणाली, “ हे बघ मला आत्ताच सोन्याचं कानातलं सापडले आहे.  ते मी तुला देईन.  ते विकून तू सगळ्या वर्षाची फी भरू शकतेस.”

सखू म्हणाली, “नको वहिनी. या महिन्याची फी द्या.  पुढचं काहीतरी करून जमवेन मी. आणि त्या कानातल्याचा फोटो टाका ते फेसबुक का काय म्हणतात त्यावर.  विचारा की या भागात फिरताना कुणाचं कानातलं हरवले आहे का म्हणून. कुणी कष्टाने हे बनवलं असलं आणि मी ते वापरले तर मला पाप लागेल. पै पै जमवून बायका दागिना बनवतात तो मी कसा वापरणार?”

वहिनी म्हणाली,” छान आहे ग आयडिया.” तिनं लगेचच कानातल्याचा फोटो व ज्या भागात ते सापडले ती माहिती फेसबुक वर लिहली.

दोन तासातच तिला मेसेज आला की हे माझं कानातलं आहे. असं दुसऱ्या कानातलं मी दाखवायला घेऊन येते.

ललिता कान्हेरे नावाची मध्यम वयाची बाई भल्या मोठ्या चकचकीत गाडीतून आली. तिनं दुसरं कानातलं दाखवलं.  वहिनीनं सखूला बोलावलं आणि कान्हेरे बाईंना सांगितलं, “ तुम्हाला या सखूमुळे तुमचं कानातलं मिळालं बरका.” व सारी हकीकत सांगितली.

कान्हेरे बाई खूष होऊन सखू ला म्हणाली, “थॅंक्यू सखू. तुमचे दोघींचे मनापासून आभार मानते.  हे माझ्या आजीचं कानातलं आहे.  तिची आठवण आहे ही.  कानातून पडल्यापासून चैन नव्हतं मला.  सगळीकडे शोधून आले. आज तुमची फेसबुक पोस्ट बघताच जीव शांत झाला.  कसे तुमचे आभार मानू?  बक्षिस काय देऊ तुम्हाला?”

वहिनी म्हणाली, “ललिता ताई तुम्हीच त्या नव्या १२ वी पर्यंतच्या शाळेच्या संस्थापक ना? तुमचा फोटो मी बरेचदा वर्तमानपत्रात बघितला आहे!”

“ हो.  मीच ती ललिता कान्हेरे. आजीची ईच्छा होती शाळा काढण्याची पण तिच्या हयातीत तिला जमलं नाही. तिचं स्वप्न मी पूर्ण केलं. देवाच्या कृपेने  शाळा उत्तम  चालली आहे.” कान्हेरे बाई म्हणाल्या.

“बक्षिस वगैरे काही नको पण सखूच्या मुलीला कमी फी मधे तुमच्या शाळेत घ्याल का? “ वहिनी म्हणाली.  

“अहो अगदी आनंदाने! Actually मी तर म्हणेन मी तिला मोफत शिकवेन. वह्या, पुस्तकं, युनिफॅार्म सर्व काही मी बघेन. चालेल का सखुबाई?”  कान्हेरे बाई म्हणाल्या.

सखूचे डोळे भरून आले.  “वहिनी, माझे नशीब म्हणून मी तुमच्या सारखी कडे काम करते.”

वहिनी म्हणाली, “सखू माझं नशीब म्हणून तू मला भेटलीस. मुलीला शाळेतून घरी पाठवलं फी भरता आली नाही म्हणून तरी तुझा विवेक ढळला नाही.”

कान्हेरे बाई कौतुकाने हसून म्हणाल्या, “निघू मी? सखू ये उद्या लेकीला घेऊन.  आज शांतपणे झोपेन बघ. Thank you so much.”

सखू चार तासात झालेल्या घडामोडी बघून थक्क झाली होती.  “देवा तुझी किमया अगाध आहे.. क्षणात रडवतोस आणि क्षणात डोळे पुसतोस रे बाबा!” म्हणत ती गणपतीच्या फोटोसमोर हात जोडून उभी राहिली.

लेखिका : सुश्री ज्योती रानडे

संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

       

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जिजाऊं’च्या लेकींसाठी… ☆ श्री संदीप काळे ☆

श्री संदीप काळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ जिजाऊं’च्या लेकींसाठी… ☆ श्री संदीप काळे ☆

सकाळी, सकाळी रमेश चित्ते आणि दिलीप माहुरे दाजी यांचा फोन आला  म्हणाले, “दाजी एक वाईट बातमी आहे, अविनाश कदम यांची आई गेली.’’ मला एकदम धस्स झाले. “मी परवा येतो” असे सांगून फोन ठेवला. अविनाश कदम पुरोगामी चळवळीतील कार्यकर्ते. गेल्या बावीस वर्षांपासून त्यांचे आणि माझे नातेसंबध.

मी अविनाशला भेटायला ठरल्याप्रमाणे नांदेडला गेलो. चित्ते, माहुरे दाजी माझ्यासोबत होते. नांदेडमध्ये हनुमानगडजवळ जानकीनगर येथे अविनाश यांच्या घरी आम्ही पोहचलो. घरात अविनाश यांच्या आई कमलबाई यांच्या फोटोला मोठा हार घातला होता. काकूंचा फोटो पाहून माझ्या डोळ्यात पाणी आले. 

घरात अविनाशचे वडील नामदेव कदम गुरुजी, काका होते. आम्ही घरात बसलो. काकू कशा गेल्या हे काकांनी सांगितले. बोलता-बोलता काका म्हणाले, “अविनाशला त्याच्या आईपेक्षा प्रिय जिजाऊ स्मृती सृष्टी होती. त्याची आई कित्येक महिने दवाखान्यात पडून होती, त्याने आईची सेवा केली नाही.’’

काकांच्या बोलण्यातून सतत जिजाऊ सृष्टी, जिजाऊ सृष्टी, असे सारखे माझ्या ऐकण्यात येते होते. माझ्या चेहऱ्यावरचे प्रश्न पाहून माहुरे दाजी म्हणाले, “गेल्या २० वर्षांपासून याच भागात असलेला ‘राजमाता जिजाऊ सृष्टी’ असा मोठा प्रकल्प शासन, प्रशासन, लोकसहभाग यांच्या मदतीने अविनाश उभे करीत आहेत. या ‘जिजाऊ सृष्टी’ने नांदेडच्या वैभवामध्ये मोठी भर घातली. जसा नांदेडमध्ये गुरुद्वारा सर्वांना प्रिय आहे, तसे या जिजाऊ सृष्टीचे सर्वांना आकर्षण झाले आहे.” माहुरे, चित्ते आणि कदम काका तिघेही ‘जिजाऊ सृष्टी’ बाबत भरभरून बोलत होते. 

मी काकांना म्हणालो, “अविनाश जिजाऊ सृष्टीकडेच गेलेत का?’’ काका म्हणाले, `हो’. आम्ही उठलो आणि `जिजाऊ सृष्टी’च्या दिशेने चालायला लागलो. 

अविनाश यांच्या घरापासून अगदी हाकेच्या अंतरावर भव्य `जिजाऊ सृष्टी’ साकारली होती. बाहेरून वाटत होते आपण एखाद्या किल्ल्यामध्ये प्रवेश करतोय. आम्ही आतमध्ये गेलो, दूर नजर टाकली तर अविनाश तिथल्या झाडांना पाणी टाकत होते. काकांनी अविनाशला आवाज दिला. अविनाशचे लक्ष आमच्याकडे गेले. हातातला पाईप बाजूला फेकत अविनाश आमच्याकडे आले. 

माझ्याजवळ येताच अविनाशने मला मिठी मारली. आमच्याकडे पाहून काकांच्या डोळ्यात पाणी आले. आई गेल्याचे दु:ख आणि खूप वर्षांची भेट अशी दोन्ही कारणे त्या मिठीमागे होती.

आईविषयी बोलावे का जिजाऊ सृष्टीविषयी बोलावे, अशी गडबड अविनाशच्या मनामध्ये सुरू होती. अविनाशने माझ्यासोबत बोलायला सुरुवात केली ती `जिजाऊ सृष्टी’पासूनच. जिजाऊ सृष्टी, ती उभी करण्याची भूमिका, त्यातून मोठे काय होणार आहे. आईने सर्वांचा घेतलेला निरोप हे सर्व काही अविनाश सांगत होते.

पुरोगामी चळवळीमध्ये काम केलेल्या माणसांचे काम आकाशाला गवसणी घातल्यासारखे असते. अविनाशचेही तसेच होते. वेगवेगळ्या सामाजिक चळवळीमध्ये काम केल्याचे अंग असलेल्या अविनाशने त्यांच्या `राजमाता जिजाऊ प्रतिष्ठान’च्या माध्यमातून `जिजाऊ सृष्टी’चे स्वप्न साकारण्यासाठी पुढाकार घेतला. २० वर्षांच्या मेहनतीने अविनाशने `जिजाऊ सृष्टी’ अंतिम टप्प्याकडे नेण्यासाठी वाटचाल सुरू केली आहे. 

अविनाशचे वडील नामदेवराव एक आदर्श शिक्षक म्हणून सर्वपरिचित. जे काय उभे करायचे, ते पुढे चिरंतर टिकले पाहिजे, हीच शिकवण अविनाशला वडिलांकडून मिळाली. त्या शिकवणीतून उभी राहिलेली वास्तू `जिजाऊ सृष्टी’च्या रूपाने समोर दिसत होती. 

जिजाऊंच्या जन्मापासून ते छत्रपती शिवाजी महाराज यांच्या राज्याभिषेकापर्यंत सारा इतिहास इथे चित्राच्या माध्यमातून अतिशय सुंदररित्या दाखवण्यात आला होता. या चित्राचे स्केच काढले होते चित्रकार दिलीप कदम यांनी. चित्र बनवली शिल्पकार व्यंकट पाटील यांनी. प्रत्येक चित्राच्या खाली जे ऐतिहासिक प्रसंग लिहिले होते ते श्रीमंत कोकाटे यांनी. `जिजाऊ सृष्टी’बद्दल काय सांगू आणि काय नाही, असे अविनाशला झाले होते.

अविनाशने माझा हात पकडला आणि सारी ‘जिजाऊ सृष्टी’ तो मला दाखवत होता. ती ‘जिजाऊ सृष्टी’ मला अशी सांगत होती जणू तिथल्या प्रत्येक वीट आणि वस्तूला अविनाशचा स्पर्श झाला आहे.

जिजाऊ चरित्राचा अभ्यासक असणाऱ्या अविनाशला जिजाऊ यांच्याप्रमाणे अनेक स्त्रिया, मुली घडल्या तर चिरंतर टिकणारे समाज परिवर्तन घडेल हे माहिती होते. त्यातूनच `जिजाऊ सृष्टी’ची निर्मिती समोर आली. प्रत्येक मुलगी, महिला जिजाऊ बनू शकते, या भावनेतून या सृष्टीची निर्मिती झाली. जिजाऊंची शौर्यगाथा, जिजाऊंनी घडवलेले शिवाजी महाराज, जिजाऊंची रणनीती, सामाजिकता, मूल्यधारणा, हे सर्व काही चित्रांच्या, देखाव्यांच्या  माध्यमातून दाखवण्यात आले होते.

महिला, मुली ज्यांना कुणाला राजमाता जिजाऊंच्या सच्च्या पाईक बनायचे आहे त्यांनी ‘जिजाऊ सृष्टी’त जाऊन तिथला अंगावर काटे आणणारा इतिहास एकदा डोळ्यांखालून घाला, तिथे असणाऱ्या जिजाऊंच्या पायावर डोके ठेवा, म्हणजे त्यांच्या मोठेपणाचे कण तुमच्या मेंदूला चिकटतील. अशी खासियत त्या ‘जिजाऊ सृष्टी’ची होती, हे मी अनुभवत होतो.   

एका मोठ्या हॉलकडे आमचे लक्ष वेधत काका म्हणाले, ही मुलींची अभ्यासिका आहे. या ‘जिजाऊ सृष्टी’चे सगळ्यात वैशिष्ट्य काय असेल तर ही मुलींची अभ्यासिका आहे. या अभ्यासिकेसाठी माझा खूप आग्रह होता. या अभ्यासिकेमध्ये दीडशे मुली एकावेळी अभ्यास, जिजाऊ चरित्राचे पारायण करणार आहेत. जिजाऊ, सावित्री, रमाई असा सर्वांची आई म्हणून भूमिका बजावणाऱ्या मातांचे आत्मचरित्र, त्यांची माहिती देणारी, स्पर्धा परीक्षेची पुस्तके येथे असतील. किमान पंधरा हजार पुस्तकांचा ‘गोतावळा’ इथे असणार आहे.

अविनाश कदम ( ७९७२३७८०८४) म्हणाले, मी जे जे विषय या जिजाऊ सृष्टीच्या अनुषंगाने हेरले होते, ते ते विषय मला प्रत्यक्षात आणायचे होते. ते सर्व विषय मी माजी मुख्यमंत्री अशोकराव चव्हाण सर यांना सातत्याने सांगत गेलो. चव्हाण सर यांनी जिजाऊ सृष्टीसाठी माझ्याइतकीच जीव ओतून मला मदत केली. शासन, प्रशासन, नांदेड मनपा आणि लोकसहभाग या सगळ्यांच्या माध्यमातून या ‘जिजाऊ सृष्टी’ला हातभार लागला. काम पूर्णत्वास नेण्यासाठी आजही मदतीची गरज आहे. केवळ दिखावा नाही तर या जिजाऊ सृष्टीच्या माध्यमातून खूप काळ टिकणारी संस्कृती उभी राहावी. अनेक महिला, मुली येथे घडाव्यात हा उद्देश आहे, असे अविनाश मला सांगत होते.

`जिजाऊ सृष्टी’मधल्या एका झाडाखाली आम्ही जाऊन सगळेजण बसलो. मी हळूच आईचा विषय काढला, अविनाश कमालीचे हळवे, डोळे पुसत मला सांगत होते. माझी आई तिकडे दवाखान्यामध्ये मृत्यूशी झुंज देत होती. तिचा आजार हाताच्या बाहेर गेलाय आणि ती आज ना उद्या सोडून मला जाणार आहे, याची कल्पना मला होती. तिच्या आजारपणाच्या काळामध्ये मी तिच्याजवळ थांबणे अपेक्षित होते, पण त्याच वेळेला `जिजाऊ सृष्टी’चे काम अधिक गती घेत होते. `जिजाऊ सृष्टी’ उभी करताना काय पाहिजे. त्याचे स्वरूप काय असले पाहिजे. ते जोपर्यंत आपण समोर उभे राहून करून घेत नाही तोपर्यंत ते निर्माण होऊ शकत नाही. हे माझ्या अनेक वर्षांच्या कामातून लक्षात आले होते. त्यामुळे आजारपणात मला आईला अजिबात वेळ देत आला नाही. एक जिजाऊ मला तिकडे सोडून जात होती आणि दुसरी जिजाऊ इकडे `जिजाऊ सृष्टी’च्या माध्यमातून निर्माण होत होती. 

आजारपणाच्या काळामध्ये आईने मी भेटावे, जवळ राहावे असा ध्यास घेतला. माझा ध्यास मात्र जिजाऊ सृष्टी होती. आई आणि `जिजाऊ सृष्टी’ हे दोन टोक होते. इकडे `जिजाऊ सृष्टी’ उभी राहिली. तिकडे आई जात राहिली. 

आई जाण्यागोदर दोन दिवस अगोदर मी आईला भेटायला गेलो. मी परत निघताना आईने माझा हात तिच्या हातामध्ये घेतला. माझ्या डोळ्यात डोळे टाकून ती म्हणाली, अविनाश सगळ्यांचे चांगले होईल असे बघ. स्वतःची काळजी घे. तुझी `जिजाऊ सृष्टी’ पाहायला मी खाली नसले तरी ती जिजाऊ सृष्टी मी वरतून नक्की पाहीन. तिच्या डोळ्यांतले पाणी खाली पडायच्या अगोदरच तिने ते पाणी पुसले. तिला वाटले असेल ती रडली तर मी कमकुवत होईन. मी `जिजाऊ सृष्टी’चे काम सोडून तिच्याकडेच बसेन.

मी आईपासून निघालो आणि तिसऱ्या दिवशीच आई गेली. भावुक झालेल्या अविनाशची माहुरे आणि चित्ते दाजी समज काढत होते. सर्वांच्या डोळ्यात अश्रू होते. आम्ही अश्रूंभरले डोळे पुसून पुन्हा डोळे उघडल्यावर समोर `जिजाऊ सृष्टी’ होती. आम्ही जिजाऊ सृष्टीमध्ये अजून एक चक्कर मारली. 

रडून मोकळे झालेले अविनाश काळजीच्या मुद्रेमध्ये गेले होते. अविनाश म्हणाले, आतापर्यंत दोन कोटी रुपयांच्यावर यासाठी खर्च झालाय. पदरमोड, शासन, राजकीय मंडळी, नांदेड मनपा, अनेक दाते यांच्या माध्यमातून हे काम मार्गी लागले. ते काम अजून पुढे जाण्यासाठी किमान एक कोटी रुपयांची गरज आहे. हे एक कोटी रुपये गोळा कसे करायचे, हा माझ्यासमोर प्रश्न आहे.

मी अविनाशच्या खांद्यावर हात टाकत म्हणालो, “सुरुवात करत असताना तुमच्याकडे दोन रुपये नव्हते. झाले ना दोन कोटी रुपये जमा. हेही एक कोटी जमा होतील. नका काळजी करू, धडपड सुरू ठेवा. तुमच्या धडपडीतून पुढचे चारशे वर्षे हेवा वाटावा, असा इतिहास निर्माण होणार आहे.”

`जिजाऊ सृष्टी’त काढलेले प्रत्येक चित्र पाहिल्यावर, त्या चित्राच्या खाली लिहिलेला प्रत्येक संदेश वाचल्यावर अंगावर काटा उभा राहत होता. असे वाटत होते की किमान अजून पाच-सहा तास तिथेच बसून राहावे.

खूप मोठे काहीतरी निर्माण केले, याचा अभिमान जसा अविनाश यांच्या रोमारोमात होता तसा तिथली कलाकृती पाहताना आपण काहीतरी वेगळे अनुभवतोय याची जाणीव पावलोपावली होत होती.

अविनाश, नामदेव गुरुजी, काका यांचा निरोप घेऊन आम्ही तिथून निघालो. चळवळीत राहून आपण वेगळे काहीतरी केले पाहिजे आणि त्या वेगळेपणाला चिरंतर टिकणारी झालर लागली पाहिजे. असे काम प्रत्यक्षामध्ये साकार करणारा अविनाश माझ्यासमोर एक उत्तम उदाहरण होते. आपण काहीतरी शिकलो आणि त्यामधून पुढच्या पिढीसमोर एक वेगळा आदर्श आपण ठेवून जाणार आहोत. हे सारे काही अविनाश यांच्या कामांमधून पुढे आले होते. हल्ली आपल्याकडे पुतळे आणि स्मारक उभारण्याची स्पर्धा लागलेली आहे, पण त्या पुतळ्याने स्मारकाच्या माध्यमातून चिरंतर टिकणारे काहीतरी उभारणार आहोत, याचे उदाहरण फक्त नांदेडच्या अविनाश यांच्यासारखे एखादे सापडू शकते. बरोबर ना…!

© श्री संदीप काळे

९८९००९८८६८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय तिसरा— कर्मयोग— (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय तिसरा— कर्मयोग— (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । 

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३१ ॥ 

चित्ती श्रद्धा निर्दोष दृष्टी मम मताचे अनुपालन

मुक्त होती ते जीवनातल्या समस्त कर्मापासून ॥३१॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ । 

सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२ ॥ 

जे न मानिती मतास मम या देती  दोष सदैव मला

विरुद्ध माझ्या आचरण त्यांचे श्रेष्ठ मानुनी स्वतःला 

मूढ तयांसी घेई जणुनी अज्ञानी ते असती  खास

मोहापोटी पदरात त्यांच्या  केवळ असतो रे ऱ्हास ॥३२॥ 

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । 

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥

नियमानुसार सृष्टीच्या करिती समस्त भूत कर्म

सृष्टीविपरित कर्मनिग्रहास्तव काय फुकाचे वर्म ॥३३॥ 

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । 

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥ 

इंद्रियासक्ती मधुनी सुप्त राग-द्वेष असूर

कल्याणाच्या मार्गामधील रिपू असती घोर

तयासि कधिही वश ना व्हावे निरासक्त राहून

दूर ठेवुनी त्या दोघांना प्राप्त करी कल्याण ॥३४॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । 

 निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५ ॥ 

आचरण मनोभावे परधर्माचे नाही श्रेयस्कर 

आचरण गुणात अभाव जरी स्वधर्म श्रेयस्कर

मृत्यू आला जरी स्वधर्माचरणे तोही श्रेयस्कर 

भयदायी धर्म परि परक्याचा न कदापि श्रेयस्कर ॥३५॥

अर्जुन उवाच 

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । 

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३६ ॥ 

कथात अर्जुन 

अशी काय प्रेरणा आहे कथन करी मोहना 

मनात नसता इच्छा करितो मनुष्य पापाचरणा ॥३६॥

श्रीभगवानुवाच 

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । 

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्‌ ॥ ३७ ॥ 

कथित श्रीभगवान

रजोगुणा पासुनी उद्भवले काम-क्रोध विकार 

अति भोगानेही अतृप्त राहतो कामाचा विचार

महत्पापी हा घोर वैरी प्रेरितसे करण्या पाप

आहारी कामाच्या न जाता जीवन हो निष्पाप ॥३७॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । 

षयथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥ ३८ ॥ 

धूम्र झाकतो अग्नीला धूळ दर्पणास 

वार आच्छादी गर्भाला काम झाकी ज्ञानास ॥३८॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । 

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥ 

काम जणू अनल जयास नाही कधिही अंत

विद्वानांच्या ज्ञानाला झाकोळणारा कामही अनंत ॥३९॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । 

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥ ४० ॥ 

गात्रे मानस अन् प्रज्ञा कामाचे अधिष्ठान 

काम मोहवी जीवात्म्यास त्यांना झाकोळून  ॥४०॥

– क्रमशः भाग तिसरा

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “बाबा आमटे –एक विज्ञानयोगी –” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “बाबा आमटे –एक विज्ञानयोगी —” लेखक : श्री. पु. ल. देशपांडे ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

२६ डिसेंबर — आदरणीय बाबा आमटे यांचा जन्मदिन. त्यानिमित्ताने — 

“कुर्यात सदा मंगलम–” मी मंगलाष्टके म्हणायला सुरुवात केली. माझ्या आयुष्यातला तो एक अद्भुत अनुभव होता. बाबा आमट्यांच्या आनंदवनात महारोगातुन मुक्त झालेली आठ जोडपी उभी होती. एका मुहूर्तावर आठ लग्ने लागत होती आणि अचानकपणे मंगलाष्टके म्हणणाऱ्या भटजीची भूमिका माझ्याकडे आली होती! जरीकाठी धोतराचा लांबच लांब अंतरपाट धरला होता. हातात वरमाला घेऊन आठ रोगमुक्त वधू उभ्या होत्या आणि समोर आठ रोगमुक्त वर होते. सुदंर मांडव सजला होता, पण गर्दी खूप दाटली होती. त्यामुळे शेकडो माणसे उघड्यावर आकाशाच्या छताखाली बसली. आनंदवनातल्या गायींच्या खिल्लाराने मुहूर्त गोरज आहे हे गोठ्यात परतताना उडवलेल्या धुळीतून सिद्ध केले होते.

आली लग्नघडी वधूवरशिरी टाका सुमंत्राक्षता-” मंगलाक्षतांचा वर्षाव झाला. एकेकाळी केवळ क्षतांनी भरलेल्या शरीरावर आज साताठशे लोकांच्या समुदायाने शरीरावर आज साताआठशे लोकांच्या समुदायाने मंगलाक्षतांची वृष्टी केली. अंतरपाट दुर झाला. आठ लग्ने एकदम लागली.

त्या आनंदवनात मंगलाष्टके म्हणताना मनात आनंदाचे आऊर दाटले होते, ते क्रांतीच्या अशाच एका सुदर्शानाने! बाबा आमटे या माणसाने एक अलौकिक प्रयोग सुरू केला. नुसता मानवतावादाचे शांतिपाठ गाणाऱ्या प्रवचनकाराचा नव्हे. आमच्या देशात जिवंतपणे जगणारे कमी आणि जीवनाचे भाष्यकार रगड. बाबा आमटे तसले योगी नव्हते.

वऱ्हाडातल्या गोरजे गावच्या सधन इजारदार घराण्यात छपन्न वर्षांपूर्वी जन्माला आलेला हा मुरलीधर आमटे. चांदीच्या चमच्याने उष्टावण झालेला. शेकडो एकर उत्पन्नाच्या जोडीला वडिलांना मानाची सरकारी नोकरी. बाबांच्या आईने तर लहानपणी त्यांना बोंडल्यातून दुधाऎवजी धाडसच पाजलेले दिसते. या माणसाला भीतीचा स्पर्शच नाही. नुकती पन्नाशी उलटलेल्या या माणसाने आयुष्यात नरभक्षक वाघांपासून ते नरराक्षक गुंडांपर्यंत कुणाकुणाशी कसा-कसा मुकाबला केला, याचा वृत्तांत ‘टारझन’च्या कथेपेक्षाही अधिक रोमांचकारी आहे. मोठ्यामोठ्या संस्थानिकांकडेच असणारी रेसर गाडी स्वत: बाळगून कराचीच्या मोटार रेसमध्ये भाग घेणारा हा तरूण सर्वसंगपरित्याग करून डोक्यावर घाणीची पाटी घेऊन हिंडला आहे. हॉलीवूडच्या नटनटींना त्यांच्या चित्रपटांवीषयी परिक्षणे लिहून पाठवली आहेत.

आजदेखील बाबा आमट्यांच्या चंद्रमौळी घरात भिंतीवर पुढारी लटकलेले नाहीत. सुरेख तसवीर आहे ती नॉर्मा शिअररची. ही असामान्य नटी व तिचा अभिनय हा आजही बाबांच्या गप्पांचा आवडता विषय आहे. ज्या हातांनी त्यांनी शिकार केली, त्याच हातांनी त्यांनी माहारोग्यांच्या जखमा धुतल्या आहेत. विनोबांच्या `गिताई’ चे गठ्ठे डोक्यावरून वाहून विकले आहेत आणि धनाढ्य, धंदेवाईक बुक-डेपोवाल्यांना अधिक कमिशन आणि दारोदार नेऊन `गिताई’ पोचविणाऱ्या अर्धपोटी बाबाला आणि ताईला फडतूस कमिशन देणारे सर्वोदयी गणित न समजल्यामुळे जे मिळाले तेही फेकून दिले आहे. अहिंसा, सत्य, अस्तेय इत्यादी व्रतांचे त्यांनी खडतर पालनही केले आहे. त्यामुळे असल्या व्रतांच्या मर्यादा ते ओळखून आहेत आणि वनवासी भिल्लांना रानडुक्कर मारून स्वत: भाजून देऊन खाऊ घातला आहे. हा माणूस आहे की वेताळ असे वाटावे, असल्या धाडसाने भरलेले हे आयुष्य या गर्भश्रीमंत तरूणाचे पुर्वायुष्य आणि आजची त्याची आनदं वननिर्मीती यांच्यामागे एकच प्रवृत्ती होती. ती म्हणजे मनाला पटले ते प्रमाण पणाला लावून करण्याची! पेटायचे ते कापरासारखे सर्वांगाने पेटायचे. नुसता फुटबॉल खेळायचा म्हटले तरी जीवनमरणाचा लढा आहे. अशा ईर्ष्येने खेळणारा हा खेळाडू आणि म्हणूनच त्याचे कार्य पहायला कुणी आले काय, न आले काय, बाबांची धूंदी उतरत नाही.

(पु. ल. देशपांडे यांच्या `गुण गाईन आवडी’ या पुस्तकातून साभार)

प्रस्तुती : श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : sunil68deshpande@outlook.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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