हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जो कुछ याद रहा (आत्मकथात्मक संस्मरण)” – शराफत अली खान ☆ श्री कमलेश भारतीय☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “जो कुछ याद रहा (आत्मकथात्मक संस्मरण)” – शराफत अली खान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

जो कुछ याद रहा (आत्मकथात्मक संस्मरण) 

लेखक : शराफत अली खान 

प्रकाशक : शुभदा प्रकाशन, नई दिल्ली

पृष्ठ १००  मूल्य २४० रु

अमेज़न लिंक  >> जो कुछ याद रहा

शराफत अली खान की ‘जो कुछ याद रहा’ – कुछ यादें , कुछ इतिहास , कुछ साहित्य…  – कमलेश भारतीय 

शराफत अली खान और हमारा रिश्ता ऐसे दोस्त का है जो कभी मिले तो नहीं लेकिन बराबर जुड़े रहे हैं और जुड़े चले आ रहे हैं । एक रिश्ता कहानी लेखन महाविद्यालय भी है । मैं और शराफत इस महाविद्यालय से भी बहुत शुरू से जुड़े हुए हैं । हालांकि इसके भी किसी लेखन शिविर में हम इकट्ठे न हो पाये । फिर भी जब इनकी किताब आई तो बहुत प्यार से मुझे भेजी और पता नहीं किस्सागोई में कितनी महारत हासिल कर ली है शराफत ने कि एकदम से मिलते ही लगभग सौ पृष्ठ में सिमटी इस किताब को पढ़ता चला गया और पूरी पढ़कर ही दम लिया ।

इसमें अपने जीवन संघर्ष , साहित्य के क, ख, ग से लेकर एक प्रतिष्ठित लेखक बनने की गाथा बयान की है । जो जो , जब जब जिस मोड़ पर जीवन में मिला, उसकी याद समेटने की कोशिश से और उससे मिले सबक भी उजागर किये हैं । आधारशिला के दिवाकर भट्ट के साथ पत्रिका शुरू करवाने वाले और फिर दिवाकर द्वारा भुला दिये जाने का दर्द उभरकर सामने आया है । जिसके संपादन में शुरूआत की, उसे ही दिवाकर ने भुला दिया ! कभी नासिरा शर्मा तो कभी असगर वजाहत को याद किया । असगर वजाहत की किताब का तो एक छोटा सा अंश भी प्रकाशित किया है ।

चूंकि वन विभाग में रहे शराफत तो शराफत से उस विभाग की बहुत सारी बातें भी आ गयी हैं । पूरा जनपद घुमा दिया है शराफत ने ! कुछ छोटी छोटी शिकायतें और अधिकारियों की मेहरबानियों की सजा !

अपनी छोटी छोटी मोहब्बतें जाहिर की हैं । सहयोगियों की छोटी छोटी चालाकियां बयान की हैं । पंजाब के लोगों में मुझे,रेणुका नैयर और गीता डोगरा को याद किया है ।

बदायूं के पुराने इतिहास को खंगाला है तो मुल्ला बदायूंनी के बारे में रोचक जानकारी दी है । अभी यह किताब और यादें बाकी हैं । जल्दी में एक प्रकार से पहला भाग दे दिया गया है लेकिन यह भाग यह बताता है कि कैसे कोई लेखक संघर्ष करके कदम अगर कदम आगे बढ़ता है और साहित्य के नक्शे में कैसे और कितना निशान छोड़ने में सफल हो पाता है ।

मित्र शराफत, बहुत बहुत बधाई ।

दूसरे भाग की इंतज़ार रहेगी ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 119 ☆ सुधारीकरण की आवश्यकता ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 119 ☆

☆ सुधारीकरण की आवश्यकता ☆ 

दूसरों को सुधारने की प्रक्रिया में हम इतना खो जाते हैं कि स्वयं का मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में गलत रास्ते पर चल देना आजकल आम बात हो गयी है। पुरानी कहावत है चौबे जी छब्बे बनने चले दुब्बे बन गए। सब कुछ अपने नियंत्रण करने की होड़ में व्यक्ति स्वयं अपने बुने जाल में फस जाता है। दो नाव की सवारी भला किसको रास आयी है। सामान्य व्यक्ति सामान्य रहता ही इसीलिए है क्योंकि वो पूरे जीवन यही तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना है। कभी इस गली कभी उस गली भटकते हुए बस माया मिली न राम में गुम होकर पहचान विहीन रह जाता है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि एक ओर ध्यान केंद्रित करें। सर्वोच्च शिखर पर बैठकर हुकुम चलाने का ख्वाब देखते- देखते कब आराम कुर्सी छिन गयी पता ही नहीं चला। वो तो सारी साजिश तब समझ में आई कि ये तो खेला था मुखिया बनने की चाहत कहाँ से कहाँ तक ले जाएगी पता नहीं। अब पुनः चौबे बनना चाह रहे हैं, मजे की बात दो चौबे एक साथ कैसे रहें। किसी के नियंत्रण में रहकर आप अपना मौलिक विकास नहीं कर सकते हैं। समय- समय पर संख्या बल के दम पर मोर्चा खोल के बैठ जाने से भला पाँच साल बिताए जा सकेंगे। हर बार एक नया हंगमा। जोड़ने के लिए चल रहे हैं और  स्वयं के ही लोग टूटने को लेकर शक्तिबल दिखा रहे हैं। देखने और सुनने वालों में ही कोई बन्दरबाँट का फायदा उठा कर आगे की बागडोर सम्भाल लेगा। वैसे भी लालची व्यक्ति के पास कोई भी चीज ज्यादा देर तक नहीं टिकती तो कुर्सी कैसे बचेगी। ऐसे में चाहें जितना जोर लगा लो स्थिरता आने से रही। हिलने- डुलने वाले को कोई नहीं पूछता अब तो स्वामिभक्ति के सहारे नैया पार लगेगी। समस्या ये है कि दो लोगों की भक्ति का परीक्षण कैसे हो, जो लंबी रेस का घोड़ा होगा उसी पर दाँव लगाया जाएगा। जनता का क्या है कोई भी आए – जाए वो तो मीडिया की रिपोर्टिंग में ही अपना उज्ज्वल भविष्य देखती है। ऐसे समय में नौकरशाहों के कंधे का बोझ बढ़ जाता है व उनकी प्रतिभा, निष्ठा दोनों का मिला- जुला स्वरूप ही आगे की गाड़ी चलता है। कुल मिलाकर देश की प्रतिष्ठा बची रहे, जनमानस इसी चाहत के बलबूते सब कुछ बर्दाश्त कर रहा है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुभव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना (नवरात्र साधना)

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अनुभव  ??

चुकने लगता है

गॉंठ का धन,

अर्थ का मूल्य

समझ आने लगता है,

कम होती

सॉंसों के साथ

बीते जीवन का रीतापन

समझ आने लगता है..!

© संजय भारद्वाज

( सोमवार, 13 जून 2016 सुबह-10ः07 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 4 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)

? यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 4 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ?

जेट लेग…न्यू जर्सी

भारत से अमेरिका की यात्रा , मतलब हमारे बनाए गए समय के अनुसार जिंदगी के साढ़े दस घंटे दोबारा जीने का मौका होता है । टाइम जोन का परिवर्तन । पूर्व से पश्चिम की यात्रा । हिंदू तो सदैव पूर्व के उगते सूरज को नमन करते हैं किंतु चूंकि काबा मक्का मदीना भारत से पश्चिम की ओर है इसलिए हमारे जो मुस्लिम भाई भारत में पश्चिम दिशा को पवित्र मानते हैं , वे भी यहां आकर अपनी इबादत पूर्व की ओर ही नमन करके करते हैं, क्योंकि यहां से मक्का मदीना पूर्व दिशा में ही है।

दरअसल जेटलेग और कुछ नही प्रकृति के साथ शरीर का सामंजस्य बैठना ही है । यह एक मानसिक अवस्था है। खास तौर पर नींद के समय को प्रारंभिक कुछ दिन लोग जेट लेग की समस्या से परेशान रहते हैं । मैंने देखा है की जब अल्प समय के लिए मैंने टाइम जोन पार किया और कोई आवश्यक काम रहा तो दिमाग अलर्ट मोड पर आकर प्राथमिकता के अनुरूप नीद एडजस्ट कर लेता है । पर जब रिलेक्स मूड हो तो यह नींद रात रात रंग दिखाती है। मौसम का परिवर्तन आबोहवा में घुला होता है । नींद न आए तो विचार आ जाते हैं, यादो के पुलिंदे, समस्या और समाधान के बादल मंडराते हैं । अभी भी यहां जर्सी में नर्म बिस्तर पर उलट पलट रहा हूं, तो सोचा लिख ही डालूं जेट लेग पर । अपनी बाडी क्लाक को प्रकृति से मिलाकर रिसेट करने का श्रेष्ठ तरीका है सूरज, धूप, सुबह से दोस्ती । बस घुमने निकल पड़िए भुंसारे ।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ पितृपक्ष ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार  के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की पितृ दिवस की समाप्ति एवं नवरात्र के प्रारम्भ में समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष कथा “पितृपक्ष”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆पितृपक्ष ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆ 

इस धरा धाम पर पिछले ही सप्ताह, वर्ष में एक बार आने वाला पितृपक्ष नाम का कालखंड समाप्त हुआ है। इसके उपरांत अब नवरात्रि का पावन पर्व चल रहा है।

इसी पृथ्वी पर भारतवर्ष नामक एक देश के एक नगर के बाग में कुछ पशु एकत्र हुये थे। श्यामबरन कौए ने तेजू श्वान की ओर देखकर कहा पिछले पखवाड़े तो हमारी मौज रही। यूं वर्ष भर लोग हमें अशुभ समझ दुरदुराते रहते हैं पर उन दिनों खोज-खोज कर बुलाते और खूब खाना खिला रहे थे। श्वान ने आलस से उनींदी अपनी आंखें आधी खोलकर बात के समर्थन में हूं जैसा कुछ स्वर निकाला। पास ही शहर से चरने आई श्यामा गाय ने भी पेट को पूंछ से सहलाते हुये कहा- पूरे बरस भर तो कूडा करकट और सड़ा हुआ, बासी खाना मिलता है पर पिछले पंद्रह दिनों में तो पूडी खीर, हलुआ और न जाने क्या क्या खाकर अघा गये। पेट भरा होता तो भी मनुष्य पुचकार कर मुंह के आगे खाना रख देता था। नीचे जमीन पर चींटियों का झुंड जा रहा था, उनमें से कुछ ने पूरा जोर लगाकर अपनी आवाज को यथासंभव तेज बना कर खूब खाना मिलने की बात का समर्थन किया साथ ही यह बताना नहीं भूली कि आगे ठंड के मौसम तक के लिये खूब सामान बिलों में एकत्र कर रख लिया है।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

नगर के राधाकृष्ण देवालय में आस-पास के सभी पंडित बैठकर बतिया रहे हैं। पंडित रामसहाय चौबे  जी ने अपनी चोटी को गांठ लगाते हुये कहा- कुछ भी कहें, इस पितृपक्ष में सबकी खूब कमाई भई। नगद रुपया, बरतन, छाता, चप्पलें, धोती, चादरें तो खूब आईं , भोजन परसाद भी पंदरह दिन खूब मिला। पंडताइन भी खूब आराम में रही। साल भर अब कुछ सामान खरीदने की आवश्यकता नहीं।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

मंदिर के सामने के बाजार में नवरात्रि पर खूब भीड चल रही थी, उसमें कुछ दुकानदार पिछले दिनों हुई फूल, अगरबत्ती, परसाद, आदि की बिक्री से खुश होकर आपस में कह रहे थे कि पखवाडे़ भर के धंधे के बाद अब नवरात्रि में भी खूब गाहकी चल रही है।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

इन सबसे अनंत अंतर पर दूर स्वर्ग में बैठे हुये भारत देश के दिवंगत पितर आराम से बैठ कर विगत पितृपक्ष को स्मरण कर खुश हो रहे थे। 

समय पर इलाज न मिलने से मृत हुये बाल मंदिर के शिक्षक होरीलाल जी ने कहा- वाह, इस बार मेरी तिथि पर मेरे डाॅक्टर बेटे ने मेरी स्मृति में निःशुल्क चिकित्सा जांच शिविर लगाया था।

जीवन भर अंधेरी टुटही सी कोठरी में रहे श्री दीनानाथ जी ने चहक कर बताया कि इस पितृ सप्तमी को उनके पुत्र ने अपनी नई सुविधायुक्त विलासगृह परियोजना का आरंभ किया और उस कालोनी का नाम अपनी माता के नाम पर रखा है। वाह मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।

अपनी सेवानिवृत्ति के उपरांत अंतिम श्वास तक वृद्धाश्रम में रहे भूतपूर्व सरकारी अधिकारी रविराज जी ने बडे़ संतोष से सबको सूचना दी कि मैंने यहां से देखा कि इस बार मेरी श्राद्ध तिथि पर मेरे बेटे ने विदेश से आकर हमारे नगर के अनाथ आश्रम को ढेर सा धन दान में दिया है। भगवान उसे खूब खुश रखें।

इस सभा में सबसे अंत में विराजे दुबले पतले वृद्ध ने बड़े संतोष से अपनी बात चलाई कि मेरी द्वादशी की तिथि है और उस दिन मेरे दोनों पुत्रों ने बारह बामनों को बुला कर अनेक पकवान बना कर भोजन करा कर संतुष्ट किया। उनमें मैेने कई पकवान तो जीवन भर देखे तक नहीं थे। वाह वाह कितने उदार हैं मेरे बेटे।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

ऊपर आकाश में बैठा ईश्वर यह सब देख सुनकर बस मुस्कुरा रहा था।

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #120 – बाल कथा – “सूरज की कहानी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “सूरज की कहानी ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 120 ☆

☆ बाल कथा – सूरज की कहानी ☆ 

सूरज उस के पास आ रहा था. राहुल ने सपना देखा.

“मैं बहुत थक चुका हूं. क्या तुम्हारे पास बैठ कर बतिया सकता हूं?” उस ने पूछा.

“हां क्यों नहीं सूरजदादा,” कह कर राहुल ने पूछा, “मगर आप आए कितनी दूर से हैं ?”

सूरज ने राहुल के पास बैठते हुए बताया, “मैं इस धरती 9 करोड़ 30 लाख मील दूर से आया हूं,” यह कह कर उस ने पूछा, “क्या तुम्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा?” 

“नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है. सरदी में आप अच्छे लगते हो, मगर गरमी में बुरे. ऐसा क्यों?”

“क्योंकि मैं सरदी में कर्क रेखा से हो कर गुजरता हूं. इसलिए मैं कम समय तक चमकता हूं. तिरछा होने से मेरा प्रकाश धरती पर कम समय तक के लिए पड़ता है. इस कारण ठंड में तुम्हें मेरी गरमी चुभती नहीं है.”

“मतलब, आप गरमी में धरती के पास आ जाते हैं?” 

“नहीं, मैं सदा एक ही दूरी पर रहता हूं. मगर गरमी में मेरे मकर रेखा पर आने से मेरा प्रकाश सीधा पड़ता है. मैं ज्यादा समय तक धरती के जिस भाग पर चमकता हूं, वहां का मौसम बदल जाता है, यानी गरमी आ जाती है?” 

“यानी कि आप आकाश के अकेले ही राजा हैं?”

तब सूरज बोला, “नहीं राहुल, आकाश में मेरे जैसे अरबों खरबों सूरज हैं. इन के अतिरिक्त 1,000 करोड़ से अधिक सूरज लुकेछिपे भी हैं.” 

“लेकिन सूरजदादा, वे हमें दिखाई क्यों नहीं देते?”

“क्योंकि वे धरती से करोड़ों अरबों किलोमीटर दूर होते हैं, ” सूरज ने आकाश की ओर इशारा करते हुए बताया, “वे जो तारे देख रहे हो न, वे सब बड़ेबड़े सूरज ही हैं.” 

“अच्छा.”

“हां, मगर जानते हो, हम में प्रकाश कहां से आता है?” सूरज ने प्रश्न किया.

“नहीं तो?” राहुल ने गरदन हिला कर कहा तो सूरज बोला, “हम में 85 प्रतिशत हाइड्रोजन गैस होती है. यह गैस अत्यंत ज्वलनशील होती है. यह निरंतर जलती रहती है. इस कारण हम प्रकाशमान प्रतीत होते हैं.”

“मतलब यह है कि जब यह हाइड्रोजन गैस समाप्त हो जाएगी, तब आप खत्म हो जाएंगे?”

“हां” मगर यह गैस 50 करोड़ वर्ष तक जलती रहेगी, क्योंकि हमारी आयु 50 करोड़ वर्ष मानी गई है.”  

“अच्छा, पर यह बताइए कि आप कितनी हाइड्रोजन जलाते हो?” राहुल ने पूछा.

“मैं प्रति सेकंड 60 करोड़ टन हाइड्रोजन गैस जलाता हूं.” सूरज ने यह कहते हुए पूछा. “क्या तुम्हें मालूम है, मेरा आकार कितना बड़ा है.”

“नहीं, आप ही बताइए न.”

“मुझ में 10 लाख पृथ्वियां समा सकती हैं. मैं इतना बड़ा हूं.”

“मगर, आप काम क्या करते हैं?”

“अरे राहुल, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम. मेरी उपस्थिति में ही पेड़पौधे भोजन बनाते हैं. जिस की क्रिया के फलस्वरूप आक्सीजन बनती है, जिस से आप लोग सांस के जरिए ग्रहण कर जिंदा रहते हैं. यदि मैं ठंडा हो जाऊं तो धरती बर्फ में बदल जाए. पेड़पौधे, जीवजंतु सब नष्ट हो जाएं. “यानी आप बहुत उपयोगी हो?”

“हां,” सूरज ने कहा. फिर उठ कर चलते हुए बोला, “अच्छा बेटा, मैं चलता हूं. सुबह के 6 बजने वाले हैं.”

तब तक राहुल की नींद खुल चुकी थी. वह बहुत खुश था, क्योंकि उस ने सपने में बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त की थी.

उस ने अपने सपने के बारे में अपने मातापिता को बताया तो वे बोले, “चलो, तुम्हें कुछ नई जानकारी तो मिली.”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 129 ☆ प्रेरणाप्रद दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 129 ☆

प्रेरणाप्रद दोहे  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

जीवन क्या देखो सखे

छिपा आज में राज।

जीवन वह ही धन्य है

करता शुभ शुभ काज।।

 

आज बहुत छोटा , बड़ा

यही सत्य आनन्द।

गरिमा का सौंदर्य यह

ये ही परमानन्द।।

 

आज बने अस्तित्व निज

यह ही प्राण समान।

इस पर ही बनते रहे

सुंदर कई मकान।।

 

बीता कल इक स्वप्न है

कल आए वह काल।

मात्र कल्पना सदृश यह

टूटेंगे सुर – ताल।।

 

जिओ आज भरपूर तुम

मन हो मालामाल।

कल बन जाए स्वर्ण – सा

कमल खिलें नित ताल।।

 

कर लो स्वागत आज का

लाए यही सुभोर।

जो जाने इस राज को

मन में नाचें मोर।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नवरंगी नवरात्र ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नवरंगी नवरात्र… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

रंग पांढरा पावित्र्याचा,

 लेऊन आली जगी शारदा!

नवरात्रीच्या रंगांमध्ये,

रंगून जाती साऱ्या प्रमदा!

 

जास्वंदीसह लाल रंगी,

 दुसऱ्या दिवशी देवी सजली!

रक्तवर्णी हा सडा शिंपीत,

मांगल्याची उधळण झाली!

 

आकाशासम निळे वस्त्र ते,

 लेऊन आली तिसऱ्या दिवशी!

व्यापून टाकी अंबर सारे ,

  रूप देवीचे  विशालाक्षी !

 

शेवंतीचा रंगही पिवळा,

  मोहक अन् उत्साही !

चौथ्या दिवशी देवी येई,

 करुनी शृंगार तो शाही!

 

चैतन्याचा रंग हिरवा,

  सृष्टीचा शालूच असे !

नवरात्रीचा दिवस पाचवा,

,सस्य शामल मूर्ती दिसे!

 

राखाडी, करड्या, रंगाचे, 

 वस्त्र तिचे गांभीर्य दाखवी!

रूप देवीचे शांतगंभीर,

 सहाव्या दिवशी मन रमवी!

 

वैराग्याचा रंग केशरी,

  खुलून दिसे देवीला!

नवरात्रीचे रूप देखणे,

 उजळे सातव्या माळेला!

 

प्रेमळ सात्विक  रंग गुलाबी,

  वस्त्र शोभे लक्ष्मीला!

अष्टमीच्या देवीचा हा,

   मंदिरी रात्री खेळ रंगला!

 

उत्साहाचे प्रतिक जणू असे,

  रंग गडद जांभळा !

अंबेच्या नवरात्री रंगी ,

  आनंद मिळे आम्हा आगळा !

 

नऊ दिवसाचे नवरात्र संपले,

 दहन करू दुष्ट रावणाचे !

सीम्मोलंघन  करुनी लुटुया,

  सोने आपट्याच्या पानाचे!

 

दसरा येई वाजत गाजत,

 आनंदाचे घेऊन वारे !

दीपावलीच्या स्वागतासही,

  सज्ज होई घरदार हे सारे!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #128 – नवं घर…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 128 – नवं घर…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

जेव्हा शब्द..

समुद्राच्या लाटांसारखे

वागू लागतात..

तेव्हा तू समजून जातेस

शब्दांचा मनाशी चाललेला

पाठशिवणीचा खेळ..!

पण मी मात्र..,

शब्दांची वाट पहात

बसून राहतो

तासनतास

कारण….

मला खात्री आहे

शब्द दमल्यावर

ह्या को-या कागदावर

मुक्कामाला नक्की येतील..!

कारण शब्दांनाही हवं असतं

को-या कागदावरचं हक्काचं

असं ..नवं घर..!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ नवरात्र…नवा विचार ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ नवरात्र…नवा विचार ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

नवरात्राची सुरवात म्हणजे घटस्थापना! नवरात्री चा हा उत्सव असतो मांगल्याचा, उत्साहाचा. अमरावती मध्ये तर ह्या सगळ्या नऊ दिवसांना सोहोळ्याचं रुपं येतं. अशा उत्सवांमुळे घरोघरी, गावोगावी चैतन्याचं वातावरण प्रस्थापित होतं.

नवरात्राचे नऊ दिवस म्हणजे ह्या देवीरुपी शक्तीची निरनिराळी रुपं, वेगवेगळे साज आणि कर्तृत्वाचे झळाळते तेज ल्यायलेले ते मुखवटे ह्यावर नजर पडली तरी दिपून जाते ती नजर.

नवरात्रात घटस्थापनेपासून ते दस-यापर्यंत नऊ दहा दिवस उत्साहाचे आणि लगबगीचे. अमरावती आणि यवतमाळ ह्या दोन्हीही गावांमध्ये नवरात्राचा अनुपम सोहळा हा असतो पण त्याचं स्वरूप मात्र अगदी वेगवेगळं.

अमरावती मध्ये अंबादेवी आणि एकवीरादेवी ह्यांची जागृत देवस्थानं आहेत.आणि अमरावती मध्ये गुजराती समाज भरपूर असल्याने त्यांचा नऊ दहा दिवस टिप-यांचा आणि गरब्याचा खेळ असतो. त्यामुळे संपूर्ण अमरावती नवरात्रमय झालेली असते.

सध्या दोन वर्षांपासून कोरोना प्रादुर्भावामूळे सगळे सणंवार साजरे करण्याची गणितचं बदललीत. परंतु खूप बदाबदा कोसळून गेल्यानंतर उघडीप मिळाल्यानंतर झपाट्याने वर्दळीला सुरवात होते तशी स्थिती ह्या नवरात्रात बघायला मिळतेयं.नवरात्रात अंबादेवी व एकवीरा देवीच्या दरबारात खूप मोठमोठी दिग्गज कलाकार मंडळी आपली कला वा आपली गायकी पेश करतात. खूप दुरदुरून बाहेरगावांहून देवीच्या दर्शनासाठी लोकं गर्दी करतातच. देवीरोडवर जणू जत्राच भरलेली असते.

नवरात्रात आमच्या घरीही नवरात्र असतं.रोज नऊ दिवस देवीला फुलांची माळ आणि अखंड नंदादीप असतो.नवरात्र उठताबसता म्हणजेच घटस्थापना आणि दस-याला जेवायला सवाष्ण असते.

यवतमाळ चे नवरात्र दुर्गादेवींच्या प्रतिष्ठापनेमुळे प्रसिद्ध आहे.खूप लांबूनलांबून लोक यवतमाळला देवी आणि त्यांच्याजवळील आरास, देखावे बघायला गर्दी करतात. असंं म्हणतात की बंगालमधील कलकत्त्यानंतर दुर्गादेवींच्या उत्सवात दुसरा क्रमांक यवतमाळचा लागतो. यवतमाळला जवळपास दीडदोनशे दुर्गादेवींची स्थापना केली जाते आणि विशेष म्हणजे सगळ्या मूर्ती एकसे एक सुंदर,तेजःपुंज पण तरीही सगळे मुखवटे एकसारखे न दिसता अगदी वेगवेगळे.

..नवरात्रात कुणी नऊ दिवस ऊपास, कुणी नऊ दिवस मौनव्रत तर कुणी नऊ दिवस अनवाणी राहून आपली श्रध्दा प्रकट करतात.

संपूर्ण नवरात्रभर  महिला वर्ग वेगवेगळ्या रंगांच्या साड्या परिधान करतात. अमरावती चे कपडामार्केट खूप प्रसिद्ध. नवरात्रात येथे कपड्यांच्या व्यापारात खूपमोठी उलाढाल होते.

ह्या नऊ दिवसाच्या देवीच्या नवरात्रात स्त्रीयांना, कुमारिकांना देवीचे प्रतीक समजून सन्मान दिल्या जातो, त्यांचे पूजन केले जाते.

पण खरतरं नवरात्रातच फक्त देवीलाच मखरात बसवायचे असे नव्हे तर देवीरुपात आपल्या अवतीभवती असणाऱ्या महिलांनाही तेवढाच सन्मान प्रदान करणे हे जास्त संयुक्तिक.

अर्थातच महिलांचा आदर करणारे असतात त्याचप्रमाणे महिलांना कस्पटासमान समजणारे लोकही असतात.काही महिलांना न्याय देणारे असतात तर काही फक्त महिलांवर अन्याय करायलाच जणू जन्म घेतात. काही जणं महिलांवर कौतुकाची बरसात करतात तर काही जणं फक्त महिलांच्या पायाखाली निखारेच फुलवितात. शेवटी काय तर हो उडदामाजी काळेगोरे हे असणारच.

नुसता नवरात्र म्हणून महिलांचा उदोउदो करायचा की संपूर्ण आयुष्य महिलांकडे देवीच्याच आदरयुक्त नजरेनं बघायचं ह्याचं प्रत्येकाचं समीकरणचं वेगवेगळं असतं बघा.

मी मागे केलेल्या रचनेने आजच्या पोस्ट ची सांगता करते. ती रचना खालीलप्रमाणे.

फक्त नवरात्र आले की मगच मानसिकता बदलायची,

      सवय आहे ही माणसा तुझी फार जुनी 

देवी समजून नऊ दिवस पुजायचे

आणि मग वर्षभर तिला गृहीत धरून चालायचे

त्यापेक्षा नको मानूस तिला देवी,नको बसवूस मखरात

अरे ती फक्त आधी माणूस आहे हे ठेव आधी ध्यानात

एकदा का तिला देवीत्व बहाल केलंस की

तुझं मात्र सगळं पुढील खूप सोप्पं झालं

देवीत्वाच्या ओझ्याखाली बिचारीचे मनोगत

मौनव्रताने अलगद मूक झालं 

बनविलीस तिला मूर्ती त्यागाची, तुझी झोळी मात्र कायम ठेवलीस भरलेली 

त्याग, समर्पण करता करता ही मात्र रिक्त होऊन स्वतः थकलेली. म्हणून माणसा देवीत्व बहाल करायच्या ऐवजी आधी तिला माणूस म्हणून जाणायला शीक

समजून उमजून तिला घेतलसं तर स्त्री च्या अस्तित्वाचे संतुलन होईल नीट, अस्तित्वाचे संतुलन होईल नीट.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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