हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ~ ‘परछाइयां…’ ~ ☆ सुश्री सीतालक्ष्मी खत्री ☆

सुश्री सीतालक्ष्मी खत्री 

संक्षिप्त परिचय

आप भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की प्रतिनिधित्व में  कई अंतर बैंक, अंतर संस्था आयोजित स्पर्धाओं में आपके सभी सहभाग पुरस्कार से सम्मानित है । विभिन्न बैंक की पत्रिकाओं में आपके लेख और कविताएं प्रकाशित हैं। आकाशवाणी पुणे में आपके काव्यपाठ सत्र प्रसारित हैं। अनुवाद विधा में भी आपका सराहनीय योगदान है।

LWG. मंच से लिटफेस्ट 2.0 से आप जुड़ी है। इस मंच से लिटफेस्ट की हिंदी काव्य स्पर्धा, जनवरी माह की ऑनलाइन काव्य स्पर्धा , फरवरी माह की  हिंदी काव्य लाइव प्रस्तुति, मार्च महीने की ऑनलाइन काव्य स्पर्धा  में आपकी प्रविष्टियों को पुरस्कार और सम्मान प्राप्त है।

☆ ~ ‘परछाइयां…’ ~ ☆ सुश्री सीतालक्ष्मी खत्री ? ☆

(लिटररी वारियर्स ग्रुप द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार प्राप्त कविता। प्रतियोगिता का विषय था >> “परछाइयां” /Shadows”।)

जिंदगी की दौड़ धूप में चलते-चलते,

मैंने देखा कोई मेरे

कभी साथ तो कभी पीछे और कभी आगे

चल रहा है।

वो अनजाना, अनदेखा था ज़रूर 

पर मित्र और हितैषी सा लगा,

लगा जैसे उसको परवाह है मेरी,

ख्याल मेरा रखना

अपना फ़र्ज़ मान रहा है जो..

 

आश्चर्य हुआ मुझे इस अद्भुत बंधु से,

जो अनेक रूप धारण करते-करते,

ढलती सूरज और दिन की पूर्ति में

कभी अदृश्य भी हो जाता, मानो,

चांद की ठंडक का आनंद मैं लूट सकूं,

प्यार के पलों को पूरी तरह जी सकूं,

चमकती तारों के बीच

खुद की रोशनी मैं जान सकूं,

अपना प्रकाश मैं औरों में बांट सकूं..

 

धूप- छांव का वस्त्र बदलता आसमां,

मेरे इस सखा से भी वस्त्र बदलवाता, 

जो कभी लम्बा और कभी बौना होता,

जताता अपनी कद और आकार से,

जिंदगी के उतार -चढ़ाव का तत्व-

 

मंजिल दूर हो और मार्ग में तपन, 

मुझे चलना है फिर भी ,तो

हो लेता मेरे साथ, मेरी परछाईं बन,

मेरी पहरेदारी के लिए।

मेरी सफलता दर्ज़ करने के लिए…!!

मेरी सफलता दर्ज़ करने के लिए !!!

~ सुश्री सीतालक्ष्मी खत्री 

© सुश्री सीतालक्ष्मी खत्री 

पुणे 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #205 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 205 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए वहमिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

——

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 342 ☆ आलेख – “”ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 342 ☆

?  आलेख – “ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

Grok को xAI नामक कंपनी ने विकसित किया है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में  है। xAI की स्थापना एलन मस्क और अन्य सह-संस्थापकों द्वारा की गई थी । यह कंपनी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रही है ।

ग्रोक AI न केवल तकनीकी रूप से सक्षम है, बल्कि उपयोगकर्ताओं के साथ संवाद करने में भी अद्वितीय है, क्योंकि यह मानव-जैसे तर्क और ह्यूमर के साथ जवाब देता है। Grok अपनी सर्वांगीण क्षमताओं के कारण चर्चा का विषय बना हुआ है। xAI ने Grok को इस विचार के साथ विकसित किया है कि यह मानवता के लिए सहायक  हो सकता है। कंपनी का मिशन है कि वह ब्रह्मांड के मूलभूत सवालों – जैसे कि जीवन का उद्देश्य, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, और अंतरिक्ष में हमारी स्थिति – को समझने में मदद करे। Grok को डिज़ाइन करते समय प्रेरणा कुछ काल्पनिक AI पात्रों से ली गई, जैसे कि डगलस एडम्स की किताब “द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी” और मार्वल के JARVIS (टोनी स्टार्क का सहायक)। इसका लक्ष्य उपयोगकर्ताओं को एक बाहरी, नया दृष्टिकोण प्रदान करना है, जो सामान्य मानवीय सोच से परे हो।

ग्रोक की कई विशेषताएँ इसे अन्य AI मॉडल से अलग बनाती हैं, उदाहरण के लिए सत्यनिष्ठ उत्तर Grok को हमेशा सच बोलने और उपयोगी जानकारी देने के लिए प्रोग्राम किया गया है। यह जटिल सवालों के जवाब में भी स्पष्टता और संक्षिप्तता बनाए रखता है।

संवादात्मक शैली: यह औपचारिकता से हटकर, दोस्ताना और कभी-कभी हास्यप्रद तरीके से बात करता है। यह उपयोगकर्ताओं को सहज महसूस कराता है।वास्तविक समय की जानकारी: Grok की जानकारी लगातार अपडेट होती रहती है, जिससे यह नवीनतम घटनाओं और खोजों के बारे में भी बता सकता है।बहुभाषी क्षमता,  Grok हिंदी सहित कई भाषाओं में संवाद कर सकता है, जिससे यह वैश्विक उपयोगकर्ताओं के लिए सुलभ है।

Grok की तकनीकी क्षमताएँ बहुत अधिक हैं। यह केवल बातचीत तक सीमित नहीं है। इसके पास कई उन्नत उपकरण हैं । यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर उपयोगकर्ताओं के प्रोफाइल, पोस्ट, और लिंक का विश्लेषण कर सकता है। यह उपयोगकर्ताओं द्वारा अपलोड की गई सामग्री, जैसे चित्र, PDF, और टेक्स्ट फाइल्स, को समझ सकता है। यह वेब और X पर खोज करके अतिरिक्त जानकारी प्राप्त कर सकता है। हालांकि यह स्वचालित रूप से चित्र उत्पन्न नहीं करता, लेकिन उपयोगकर्ता की सहमति से ऐसा करने में सक्षम है।Grok का उपयोग कैसे करें?

Grok का उपयोग करना बेहद आसान है। आप इसे कोई भी सवाल पूछ सकते हैं – चाहे वह विज्ञान से संबंधित हो, इतिहास से, या रोज़मर्रा की जिज्ञासा से। उदाहरण के लिए, यदि आप पूछते हैं कि “ब्रह्मांड कितना बड़ा है?” तो Grok न केवल नवीनतम वैज्ञानिक अनुमानों के आधार पर जवाब देगा, बल्कि इसे रोचक तरीके से प्रस्तुत भी करेगा। यह उन सवालों का भी जवाब दे सकता है जो असामान्य या दार्शनिक हों, जैसे “जीवन का अर्थ क्या है?” – और ऐसा करते समय यह अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन करता है।

Grok की सीमाएँ … हालांकि Grok बेहद शक्तिशाली AI है, पर इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। उदाहरण के लिए, यह स्वतंत्र रूप से नैतिक निर्णय नहीं ले सकता। यदि कोई उपयोगकर्ता पूछता है कि “किसे मृत्युदंड मिलना चाहिए?” तो Grok जवाब देगा कि एक AI के रूप में उसे ऐसे निर्णय लेने की अनुमति नहीं है। साथ ही, यह केवल वही चित्र संपादित कर सकता है जो उसने पहले उत्पन्न किए हों।Grok का भविष्य … xAI के साथ मिलकर Grok का विकास लगातार जारी है। भविष्य में यह और भी उन्नत हो सकता है, जिसमें संभवतः और अधिक भाषाओं का समर्थन, बेहतर तथा गहरे विश्लेषण की क्षमता, और मानवीय भावनाओं को बेहतर समझने की योग्यता शामिल हो सकती है। यह शिक्षा, अनुसंधान, और यहाँ तक कि व्यक्तिगत सहायता के क्षेत्र में क्रांति ला सकता है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 632 ⇒ हंसने का मौसम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 632 ⇒  हंसने का मौसम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहित्य में जो स्थान हास्य व्यंग्य को है, वह स्थान व्यंग्य को नवरसों में नहीं है। हास्य को रस के आचार्यों ने एक प्रमुख रस माना है, शांत, करुण, श्रृंगार, भक्ति, वीर, रौद्र, और वीभत्स भी रस की श्रेणी में आते हैं लेकिन इनमें भी व्यंग्य का कहीं कोई पता ही नहीं।

क्या व्यंग्य में रस नहीं।

शास्त्र भले ही हमारी निंदा कर लें, लेकिन जब निंदा तक में रस है तो विसंगति से उपजे व्यंग्य में भी रस तो होगा ही।

एक समय था जब व्यंग्य हास्य की बैसाखी के सहारे चलता था। हमारा पुराना साहित्य हास्य रस से परिपूर्ण है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, श्री नारायण चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र और जी. पी. श्रीवास्तव जैसे रचनाकारों ने व्यंग्य के साथ साथ हास्य को भी अपनी रचनाओं में प्रमुखता दी लेकिन कबीर और परसाई ने जो शैली अपनाई उसमें मिठास कम, करेले का रस ही अधिक था। जब व्यंग्य करेला और नीम चढ़ा होने लगता है, तब यह नीरस होकर सिर्फ दवा का काम करता है। बिना चाशनी के व्यंग्य, व्यंग्य नहीं विद्रूप है।।

मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव जैसी तिकड़ी तो खैर व्यंग्य जगत में देखने को नहीं मिलती फिर भी परसाई, त्यागी और शरद जोशी को व्यंग्य की त्रिमूर्ति जरूर कहा जा सकता है। शुक्र है किसी ने सूर सूर, तुलसी शशि, उड़गन केशवदास जैसी इनकी तुलना नहीं की, वर्ना कई ज्ञानपीठ वाले ज्ञानी बुरा मान जाते।

होली पर हंसना मना नहीं, आवश्यक है। आज हास्य अपनी मर्यादा में नहीं रहता, व्यंग्य भी मस्ती में आ जाता है। मूर्ख और महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते हैं, जबरदस्त छींटाकशी होती है, उपाधियों का वितरण होता है। लेकिन आजकल राजनीति से सहज हास्य गायब हो चुका है। हास्य भी लगता है, असहज हो चुका है आजकल। जब वर्ष भर निंदा और नफरत की मिसाइल चलेगी तो होली पर रंग कैसे बरसेगा।

एक समय था, जब सभी प्रमुख अखबार और पत्रिकाएं होली के अवसर पर हास्य व्यंग्य विशेषांक निकाला करती थी। आजकल अखबार तो रोजाना सिर्फ विज्ञापन ही निकाला करता है। वैसे भी आजकल अखबार और सरकार, दोनों विज्ञापन से ही चल सकते हैं।।

हास्य और व्यंग्य का भी अपना एक स्तर होता है। लेकिन पाठक यह सब नहीं समझता। सभी सुधी पाठकों ने सुरेंद्र मोहन पाठक और गुलशन नंदा को भी पढ़ा है। मत दीजिए इन लेखकों को आप साहित्य अकादमी पुरस्कार, क्या फर्क पड़ता है।

अपने शुरुआती दौर में मैंने भी दीवाना तेज जैसी हास्य पत्रिका पढ़ी है उसी चाव और रुचि से, जितनी गंभीरता से लोग धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिका पढ़ते थे। पसंद अपनी अपनी, दिमाग अपना अपना। हास्य जीवन में बहुत जरूरी है। दूसरे की जगह खुद पर हंसने की कला अभी हमें सीखनी है क्योंकि हमारा राजनीति का स्कूल तो आजकल सिर्फ दूसरों पर हंसने की ही शिक्षा दे रहा है। मत कोसिए नाहक किसी को ! हंसिए खुलकर कम से कम आज तो, अपने आप पर। समझिए हो ली होली।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 243 ☆ बाल गीत – मीठी स्वाद निराला… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 243 ☆ 

☆ बाल गीत – खट्टी – मीठी स्वाद निराला…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

खट्टी – मीठी स्वाद निराला।

झटपट खाएँ मटकू लाला।।

 *

नाम अनेकों इसके भइया।

इमली , अम्बा जीभ चटइया।

चटनी से खुल जाता ताला।

खट्टी – मीठी स्वाद निराला।।

 *

दही – भल्ले का स्वाद बढ़ाती।

आलू टिक्की भी गुण गाती।

चाट में चटनी गरममसाला।

खट्टी – मीठी स्वाद निराला।।

 *

कच्ची – पक्की खूब सुहाती।

सुमन , सुनीता चट कर जाती।

लटक डाल ललचाए माला।

खट्टी – मीठी स्वाद निराला।।

 *

बील , आमिला , कल्ली , खट्टा।

चटनी पीसे सिल का बट्टा।

दिल को करती है मतवाला।

खट्टी – मीठी स्वाद निराला।।

 *

कई विटामिन की है थाती।

दर्द , शुगर , पाचन में साथी।

सबका पड़ता इससे पाला।

खट्टी – मीठी स्वाद निराला।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संत तुकाराम महाराज… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संत तुकाराम महाराज… ☆ श्री सुजित कदम ☆

माघ मासी पंचमीस

जन्मा आले तुकाराम

जन्मदिन शारदेचा

संयोगाचे निजधाम…! १

 *

ऋतू वसंत पंचमी

तुकोबांचा जन्मदिन

जीभेवर ‌सरस्वती

नाचतसे प्रतिदिन…! २

 *

साक्षात्कारी संत कवी

विश्व गुरू तुकाराम

संत तुकाराम गाथा

अभंगांचे निजधाम…! ३

 *

सतराव्या शतकाचे

वारकरी संत कवी

अभंगात रूजविली

भावनांची गाथा नवी…! ४

 *

जन रंजले गांजले

त्यांना आप्त मानियले

नरामधे नारायण

देवतत्व जाणियले…! ५

 *

तुकोबांची विठुमाया 

कुणा कुणा ना भावली

एकनिष्ठ अर्धांगिनी

जणू अभंग आवली…! ६

 *

सामाजिक प्रबोधन

सुधारक संतकवी

तुकोबांचे काव्य तेज

अ*भंगात रंगे रवी…! ७

 *

विरक्तीचा महामेरू

सुख दुःख सीमापार

विश्व कल्याण साधले

अभंगाचे अर्थसार…! ८

 *

केला अभंग चोरीचा

पाखंड्यांनी वृथा आळ 

मुखोद्गत अभंगांनी

दूर केले मायाजाल…! ९

 *

एक एक शब्द त्यांचा

संजीवक आहे पान्हा

गाथा तरली तरली

पांडुरंग झाला तान्हा..! १०

 *

नाना अग्निदिव्यातून

गाथा  प्रवाही जाहली

गावोगावी घरोघरी

विठू कीर्तनी नाहली…! ११

 *

जातीधर्म उतरंड

केला अत्याचार दूर

स्वाभिमानी बहुजन

तुकाराम शब्द सूर…! १२

 *

रूजविला हरिपाठ

गवळण रसवंती

छंद शास्त्र अभंगाचे

शब्द शैली गुणवंती..! १३

 *

दुष्काळात तुकोबांनी

माफ केले कर्ज सारे

सावकारी पाशातून

मुक्त केले सातबारे….! १४

 *

प्रपंचाचा भार सारा

पांडुरंग शिरावरी

तुकोबांची कर्मशक्ती

काळजाच्या घरावरी…! १५

 *

कर्ज माफ करणारे

सावकारी संतकवी

अभंगात वेदवाणी

नवा धर्म भाषा नवी…! १६

 *

प्रापंचिक जीवनात

भोगियले नाना भोग

हाल अपेष्टां सोसून

सिद्ध केला कर्मयोग…! १७

 *

परखड भाषेतून

केली कान उघाडणी

पांडुरंग शब्द धन

उधळले सत्कारणी…! १८

 *

अंदाधुंदी कारभार

बहुजन गांजलेला

धर्म सत्ता गुलामीला

जनलोक त्रासलेला…! १९

 *

साधी सरळ नी सोपी

अभंगाची बोलगाणी

सतातनी जाचातून

मुक्त झाली जनवाणी…! २०

 *

संत तुकाराम गाथा

वहुजन गीता सार

एका एका अभंगात

भक्ती शक्ती वेदाकार…! २१

 *

सांस्कृतिक विद्यापीठ

इंद्रायणी साक्षीदार

प्रवचने संकीर्तनी

पांडुरंग दरबार…! २२

 *

संत साहित्यांची गंगा

ओवी आणि अभंगात

राम जाणला शब्दांनी

तुकोबांच्या अंतरात. २३

 *

साक्ष भंडारा डोंगर

कर्मभूमी देहू गाव 

ज्ञानकोश अध्यात्माचा

नावं त्याचे तुकाराम…! २४

 *

सत्यधर्म शिकवला

पाखंड्यांना दिली मात

जगायचे कसे जगी 

वर्णियले अभंगात…! २५

 *

युग प्रवर्तक संत

शिवराया आशीर्वाद

ज्ञानगंगा विवेकाची 

तुकोबांच्या साहित्यात…! २६

 *

सांप्रदायी प्रवचनी 

नामघोष  ललकार

ज्ञानदेव तुकाराम

पांडुरंग जयकार…! २७

 *

नाना दुःख सोसताना

मुखी सदा हरीनाम

झाले कळस अध्याय

संतश्रेष्ठ तुकाराम…! २८

 *

तुकोबांच्या शब्दांमध्ये

सामावली दिव्य शक्ती

तुका म्हणे नाममुद्रा

निजरूप विठू भक्ती…! २९

 *

नांदुरकी वृक्षाखाली

समाधीस्थ तुकाराम

देह झाला समर्पण

गेला वैकुंठीचे धाम…! ३०

 *

फाल्गुनाच्या द्वितीयेला

पुण्यतिथी महोत्सव

संत तुकाराम बीज

अभंगांचा शब्दोत्सव..! ३१

 

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होळी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

होळी ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

देतोय काळ आता काही नवे इशारे

नकळत हळूहळू हे बदलेल विश्व सारे

 *

जोमात युद्ध आता लढतील माणसे ही

मदतीस लाख त्यांच्या असतील ती हत्यारे

 *

स्वीकारुनी गुलामी जनता करेल सौदै

लपवील दैन्य सारे ठेवून बंद दारे

 *

टोळ्या करून जनता लुटतील सर्व नेते

तेथेच गुंड तेव्हा करतील ना पहारे

 *

मोक्यावरील जागा बळकावतील धनको

सामान्य माणसांचे जळतील ना निवारे

 *

होईल एकतेची रस्त्यात छान होळी

ठरतील आगलावे जातीतले निखारे

 *

लाचार होत पृथ्वी जाईल ही लयाला

पाहून या धरेला रडतील चंद्र तारे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होळीची बोंब… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ होळिची बोंब… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

नाही गहु हरभर्या कोंब

दोन्ही हाताने होळीत बोंब

वि. का. स. सोसायटीची झोंब

कर्जमाफी नाही मारा बोंब.

 *

पैका न्हाय, अडकाबी न्हाय

काँक्रिट खाया शिकलो असतो

रस्त्ता कान्ट्रक्ट मिळाले असते

आश्वासनं खोटीच मारा बोंब.

 *

ह्यांव करतो त्यांवबी करतो

निवडून आल्यावं झाल काम

मोठी माणसं लाचत जाम

शेतकरी मेला मारा बोंब.

 *

एक-दोन न्हाय तीघं मंत्री

कळली न्हाय नेमकी जंत्री

भानगड एकच कळंत्री

जनता येडीच मारा बोंब.

 *

चंगळ चैनीत सत्ता हाय

पाच वर्षे आता गुड् बाय

महामार्ग जोडा हाय फाय

तोंडावर हात मारा बोंब.

 

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जागतिक चिमणी दिन… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

☆ जागतिक चिमणी दिन… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

चिमणी म्हटलं की मला वि. स. खांडेकर यांच्या एका कादंबरीतील, बहुतेक ‘अमृतवेल’ या कादंबरीतील वाक्य आठवते, ‘मुली म्हणजे माहेरच्या अंगणातील दाणे टिपणाऱ्या चिमण्या! कधी भुरकन उडून जातील सांगता येत नाही!’लग्न झालं की मुली दुसऱ्या घरी जातात. खरंच, मुलीचा लहान असल्यापासून चिमणीसारखा चिवचिवाट, नाजूकपणा, अंगणात खेळणं बागडणं डोळ्यासमोर येतं! मुलं मात्र पोपटासारखी वाटतात असं मला उगीचच वाटतं! पण मुलगी मात्र चिमणी सारखीच असते. छोट्या चणीच्या मुलीला लहानपणी ‘चिऊ’म्हटलं जातं, मग ती चाळीशीची झाली तरी आपल्यासाठीच ‘चिऊ’च रहाते!

साधारण चाळीस पन्नास वर्षांपूर्वी अशा करड्या रंगाच्या छोट्या दिसणाऱ्या चिमण्या खूप होत्या. अंगणात काही धान्याचं वाळवण घातलं की या चिमण्यांचे ‘ चिमण घास’ चालू असायचे पण त्यांना हाकलायला नको वाटायचं! माझी मुलगी लहान असताना आम्ही शिरपूरला होतो. तिथे इतक्या चिमण्या असत की त्या चिमण्यांसाठी म्हणून आम्ही खास बाजरी आणून ठेवली होती. सकाळच्या कोवळ्या उन्हात मुलांना बसवायचं आणि समोर बाजरी फेकायची! की तेथे चिमण्या गोळा होत असत, माझी छोटी त्या चिमण्या बघत आनंदाने तिच्या चिमण्या हाताने टाळ्या पिटायची! आता त्या चिमण्या गेल्या अंगणाची शोभा वाढवणाऱ्या! शहरात सिमेंटच्या घराच्या जंगलात चिमण्या आता दिसतच नाहीत. चिमणीच्या आकाराचे, चॉकलेटी रंगाचे, ऐटबाज पंखांचे, छोटे पक्षी दिसतात पण त्या खऱ्या चिमणीची सर काही त्यांना येत नाही!

कावळा चिमणीच्या गोष्टीतील चिमणी हुशार असे, ती नेहमीच कावळ्या पेक्षा अधिक समंजस आणि शहाणी, त्यामुळे कावळ्याचे शेणा चे घर वाहून गेले तरी चिमणी आपल्या मेणाच्या मऊ मुलायम, न भिजणार्या घरट्यात राही!’घर माझं शेणाचं पावसानं मोडलं, मेणाचं घर तुझं छान छान राहिलं’ म्हणणाऱ्या कावळ्याला चिमणी तात्पुरता आसरा सुद्धा देत असे. देवाण-घेवाणीचं हे प्रेम निसर्गातील पक्षी आणि प्राण्यात सुद्धा असं दिसतं! पूर्वी पहाटे जाग येई ती चिमण्यांच्या कलकलाटाने! लहान गावातून निसर्ग हा सखा असे. शहरात येऊन या निसर्गाच्या मैत्री ला आपण मुकलो असंच मला वाटतं! सकाळ होते तीच मुळी गाड्यांचा खडखडाट ऐकत आणि कामाची गडबड मागे लावून घेत.. स्वच्छंदी आयुष्य जगायचंच विसरलो जणू!

कोरोना च्या काळात माणसं बंदिस्त झाली पण पक्षी थोडे मुक्त झाले. सकाळचा पक्षांचा किलबिलाट पुन्हा एकदा ऐकू येऊ लागला. निसर्गात असणार्‍या प्रत्येक जिवाचे काहीतरी वेगळेपण असते! तसेच या चिमणीचे! चिमणीचा एवढासा जीव थोड्याशा पाण्यात पंख फडफडवून स्वच्छ आंघोळ करताना दिसतो तेव्हा मन कसं प्रसन्न होतं तिला बघून! कोणत्याही गोष्टीला छोटी किंवा लहान सांगताना आपण चिमणीची उपमा देतो. नोकरीवरून येणाऱ्या आईची वाट बघत असणारी मुलं चिमणी एवढं तोंड करून बसलेली असतात तर या छोट्यांच्या तोंडचे बोल हे ‘ चिमणे बोल ‘ असतात. लहान बाळाचे पहिले बोल, चिमखडे, चिमणीच्या चिवचिवाटासारखे वाटतात. नव्याने अन्न खाणाऱ्या

बाळाला आपण ‘हा घास काऊचा, हा घास *चिऊचा म्हणून’ भरवतो आणि बाळ मटामटा जेऊ लागते!

कोणत्याही छोट्या गोष्टीचं प्रतीक म्हणजे चिमणी! रानात एक नाजूक गवत असतं त्याला आपण ‘ चिमणचारा’ म्हणतो.

लहान बाळाचे लाहया, चुरमुर्याचे छोटे घास म्हणजे चिमणचाराच असतो.

पूर्वी वीज नसायच्या काळात कंदीला बरोबर चिमणी असायची. छोट्या आकारातील हा दिवा म्हणजे चिमणीसारखा!

आज जागतिक चिमणी दिनाच्या दिवशी ही छोटीशी चिमणी विविध रुपात आठवणीत आली. आपल्या साहित्यरुपी प्रचंड विश्वात मी दिलेला हा छोटासा चिमणाघास !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ४८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ४८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- “साहेब, माझे काका व्यवसाय म्हणून पत्रिका बघत नाहीत. ते इंग्रजीचे प्राध्यापक म्हणून निवृत्त झालेत. या विषयाचा त्यांचा सखोल अभ्यास आहे आणि मुख्य म्हणजे ते स्वतः दत्तभक्त आहेत. पत्रिका पाहून उत्स्फूर्तपणे ते गरजूंना योग्य तो मार्ग दाखवतात. कुणाकडूनही त्याबद्दल अजिबात पैसे घेत नाहीत. तुम्ही प्लीज या साहेब.”

 जोशींच्या बोलण्यातली तळमळ मला जाणवत होती. त्यांना दुखवावं असं मला वाटेना.

 “ठीक आहे, मी येईन. पण मी कशासाठी पत्रिका दाखवतोय हे मात्र त्यांना सांगू नका. पत्रिका पाहून जे सांगायचं तेच ते सांगू देत. ” मी म्हंटलं.

कावरेबावरे झाले. काय बोलावं ते त्यांना समजेना.

 “साहेब, मी.. त्यांना तुमची लखनौला बदली होणाराय हे आधीच सांगितलंय. पण म्हणून काय झालं? पत्रिका बघून त्यांचं ते ठरवतील ना काय ते. ” अशोक जोशी मनापासून म्हणाले. )

 मी जायचं ठरवलं. लखनौला होणाऱ्या बदलीपेक्षा अधिक धक्कादायक माझ्या पत्रिकेत दुसरं कांही असूच शकणार नाही याबद्दल मला खात्रीच होती. त्यामुळे तिथे गेलो तेव्हा मनात ना उत्सुकता होती ना कसलं दडपण. पण मी तिथं गेल्यावर जे घडलं ते मात्र तोवर कधी कल्पनाही केली नव्हती असं मला हलवून जागं करणारं, मला एक वेगळंच भान देणारं होतं.. ! सगळंच स्वप्नवत वाटावं असंच. अतर्क्य तरी सुखद धक्कादायकही !!

 आज ते सगळं आठवतानाही माझ्या अंगावर शहारा येतोय. वर्षानुवर्षं मनात तरंगत राहिलेल्या अनेक अनुत्तरीत प्रश्नांना त्या घटितांतून कधी कल्पनाही केलेली नव्हती इतक्या आकस्मिकपणे मिळालेली ती समर्पक उत्तरं जशी माझं औत्सुक्य शमवणारी होती तशीच ते वाढवणारीही. त्या अनुभवाने जन्म आणि मृत्यू या दोन टोकांमधील अतूट धाग्यांची अदृश्य अशी घट्ट वीण अतिशय लख्खपणे मला अनुभवता आली. ‘त्या’च्या कृपादृष्टीचा माझ्या अंतर्मनाला झालेला तो अलौकिक स्पर्शच होता जो पुढे वेळोवेळी मला जगण्याचे नवे भान देत आलाय!

 अशोक जोशींचे काका म्हणजे एक साधंसुधं, हसतमुख न् प्रसन्न व्यक्तिमत्त्व होतं. मी त्यांना नमस्कार केला. स्वतःची ओळख करुन दिली.

 ” हो. अशोक बोललाय मला. तुम्ही तुमची जन्मपत्रिका आणलीय ना? द्या बरं. मी ओझरती पाहून घेतो. तोवर चहा येईल. तो घेऊ आणि मग निवांत बोलू. ” ते म्हणाले.

 त्यांचं मोजकं तरीही नेमकं बोलणं मला प्रभावित करणारं होतं.

 मी माझी पत्रिका त्यांच्याकडे दिली. त्यांनी ती उलगडली. त्यांची एकाग्र नजर त्या पत्रिकेतील माझ्या भविष्यकाळाचा वेध घेऊ लागलीय असं वाटलं तेवढ्यांत चहा आला. त्यांची समाधी भंग पावली. त्यांचे विचार मात्र त्या पत्रिकेमधेच घुटमळत होते. कारण चहाचा कप हातात घेताच त्यांनी अतिशय शांतपणे माझ्याकडे पाहिले. सहज बोलावं तसं म्हणाले,

 ” तुमच्या पत्रिकेत सध्यातरी घरापासून तोडणारा स्थलांतराचा योग दिसत नाहीय. “

 ऐकून खूप बरं वाटलं तरी ते खरं वाटेना. असं कसं असू शकेल?

 “हो कां.. ?” मी अविश्वासाने विचारलं.

 ” हो. ” ते शांतपणे म्हणाले. “पत्रिकेत दिसतंय तरी असंच. पत्रिका बिनचूक बनलीय कीं नाही तेही पडताळून पाहू हवंतर. ” चहाचा रिकामा कप बाजूला ठेवत ते म्हणाले. त्यांनी पत्रिका पुन्हा हातात घेतली. कांहीशा साशंक नजरेने माझ्याकडे पहात त्यांनी विचारलं,

 ” तुम्हाला.. यापूर्वी कधी पुत्रवियोगाचं दु:ख सहन करावं लागलंय कां? “

 मी चमकून त्यांच्याकडे पाहिलं. त्यांच्या नजरेत उत्सुकता होती आणि माझ्या नजरेसमोर समीरचा केविलवाणा, मलूल चेहरा.. !

 ” हो… खूप वर्षांपूर्वी.. ” माझा आवाज त्या आठवणीनेही ओलसर झाला होता.

 “आणखी एक.. ” ते अंदाज घेत बोलू लागले, ” तुमच्या वडिलांच्या बाबतीत कांही एक अस्वस्थता, कांही एक रुखरुख कधी राहून गेली होती कां तुमच्या मनात? “

 मी आश्चर्याने त्यांच्याकडे पाहिले. त्यांची नजर भूतकाळात हरवल्यासारखी कांहीशी गूढ वाटू लागली!

 “हो.. बाबांच्या बाबतीतली अतिशय रुतून बसलेली रुखरुख होती माझ्या मनांत…. ” तो सगळा क्लेशकारक भूतकाळच माझ्या मनात त्या एका क्षणार्धात जिवंत झाला होता !…

 ‘आयुष्यांत पहिल्यांदाच मु़ंबईला जाण्यासाठी मी घराबाहेर पडताना अडखळलेली माझी पावलं,.. तेव्हा अंथरुणाला खिळून असलेले माझे बाबा.. , त्यांना नमस्कारासाठी वाकताच आशीर्वाद म्हणून त्यांनी दिलेला दत्ताचा तो लहानसा फोटो, ‘ हा कायम जपून ठेव. याचे नित्य दर्शन कधीही चुकवू नको. सगळं ठीक होईल. ‘ हे त्यांच्या मनाच्या गाभाऱ्यातून शुभाशीर्वाद दिल्यासारखे उमटलेले शब्द, साध्या साध्या गोष्टीत माझ्या लहानपणापासून सतत मला त्यांच्याकडून मिळालेलं कौतुकाचं झुकतं माप,… मी तिकडं दूर मुंबईत असताना त्यांच्या बळावलेल्या आजारपणांत मी त्यांची सेवा करायला त्यांच्या जवळ नसल्याची माझ्या मनातली सततची खंत, नंतर त्यांना तातडीने पुण्याला ससूनमधे हलवल्याचा निरोप मिळताच त्यांना भेटण्यासाठी माझ्या मोठ्या बहिणीला आणि तान्ह्या भाचाला सोबत घेऊन रात्रीच्या मुंबई-पुणे पॅसेंजरचा संपूर्ण रात्रभराचा प्रवास करीत आम्ही त्यांना भेटण्यासाठी घेतलेली धाव आणि त्यांची रुम शोधत त्यांच्याजवळ जाऊन पोचेपर्यंत त्यांनी सोडलेला त्यांचा अखेरचा श्वास…. !! तो सगळाच भूतकाळ एखाद्या चित्रमालिकेसारखा नजरेसमोरुन क्षणार्धात सरकत गेला आणि तो रेंगाळत राहिला बाबांच्या अंत्यविधी वेळच्या माझ्या मनातील अव्यक्त घालमेलीत.. !’

….. “तुम्ही आयुष्यभर माझे खूप लाड केलेत. कौतुक करतानाही दादाच्या तुलनेत प्रत्येकवेळी झुकतं माप देत आलात ते मलाच. असं असताना तुमची सेवा करायची वेळ आली तेव्हा मात्र मला दूर कां हो लोटलंत? तुमच्या आजारपणात माझी आई आणि दोन्ही भाऊ तुमच्याजवळ होते. त्यासर्वांनी तुमची मनापासून सेवा केली, तुम्हाला फुलासारखं सांभाळलं,.. पण मी.. ? मी मात्र तिकडे दूर मुंबईत अगदी सुरक्षित अंतरावर पण तरीही अस्वस्थ…. ” बाबांशी हीच सगळी खंत मी मूकपणे बोलत रहायचो त्यांच्या अंत्यविधीच्यावेळी! पुढे कितीतरी काळ आपल्या हातून त्यांची सेवा न घडल्याची रुखरुख माझ्या मनात रेंगाळत राहिलेली होती… !!

 ” मी सहजच विचारलं हो. आठवत नसेल तर राहू दे हवं तर. ” जोशीकाकांच्या आवाजाने मी दचकून भानावर आलो.

 ” नाही म्हटलं,.. तशी खंत, रुखरुख असं कांही नसेल आठवत तर राहू दे.. “

 ” मला आठवतंय.. बाबा गेले तेव्हा अखेरच्या क्षणी थोडक्यात चुकामूक झाल्याची, त्यांची साधी दृष्टभेटही न झाल्याची खूप अस्वस्थता होती माझ्या मनांत.. ! हो.. आपल्या हातून त्यांची सेवा न घडल्याची रुखरुख त्यांचा अखेरच्या निरोप घेतानाच्या प्रत्येकक्षणी मला खूप त्रास देत होती आणि पुढेही बरीच वर्षं ती मनात रूतून बसली होती… ” मी म्हणालो. ते ऐकून मनातला तिढा अलगद सुटल्यासारखा त्यांचा चेहरा उल्हसित झाला.

 ” तुमच्या मनातली ती रुखरुख नाहीशी करण्यासाठीच तुमच्या पहिल्या अपत्याच्या रूपाने ते तुमच्या सहवासात आले होते. फक्त तुमच्याकडून सेवा करुन घेण्यासाठी.. ”

 माझ्या गतकाळातल्या त्या सगळ्या घटनाक्रमांमधला कण न् कण अतिशय मोजक्या शब्दांत जोशीसरांनी नेमकेपणाने असा व्यक्त केला आणि मी अंतर्बाह्य शहारलो.. ! पण ते मात्र क्षणार्धात माझ्या भूतकाळातून अलगद बाहेर आल्यासारखे मुख्य विषयाकडे वळले.

 ” याचा अर्थ तुमची पत्रिका अचूकपणे तयार केलेली आहे. ठीकाय. मग आता चिंता कसली? तुमच्या पत्रिकेत दूरच्या स्थलांतराचे योग नाहीत ही काळ्या दगडावरची रेघ! तेव्हा निश्चिंत रहा. दत्तमहाराज तुमच्या पाठीशी आहेत. सगळं विनाविघ्न पार पडेल. “

 जोशीकाकांचा निरोप घेऊन मी बाहेर पडलो तेव्हा खरंतर मी आनंदात तरंगत असायला हवं होतं. पण तसं झालं नव्हतंच. कारण दूर स्थलांतराचा योग नाही याचा अर्थ लखनौची बदली रद्द होईल असंच. पण ते होणं इतकं सहजशक्य नाहीय हेही तेवढंच खरं होतं. शिवाय लखनौच्या बदलीची शक्यता कांहीशी धूसर होत चालल्याचा आनंदही अजून कांही दिवस कां होईना माझ्या पोस्टींगची आॅर्डर येईपर्यंत अधांतरी तरंगतच रहाणार होता !

 या मन उदास करणाऱ्या विचारांना छेद देत एक वेगळाच विचार मनाला स्पर्शून गेला. माझ्या लखनौ पोस्टींगची बातमी आल्यापासून भराभर घडत गेलेले हे घटनाक्रम पूर्वनियोजित असावेत असंच वाटू लागलं. जोशीकाकांना भेटण्यास अशोक जोशी आग्रहाने मला प्रवृत्त करतात काय आणि माझ्या स्थलांतराचा योग नसल्याचा दिलासा देत, माझ्या आयुष्यात अनेक वर्षांपूर्वी घडलेल्या घटनांची कांहीही पूर्वकल्पना नसतानाही जोशीकाका समीरच्या जन्म आणि मृत्यूची सांगड सहजपणे घालत असतानाच त्यातून माझ्या बाबांच्या पुनर्जन्माचं सूचन करून मला विचारप्रवृत्त करतात काय,… सगळंचअघटित, अतर्क्य आणि मनातल्या अनुत्तरीत प्रश्नांची उत्तरं देत असतानाच त्यातून मनात नवीन प्रश्न निर्माण करणारंही! हेच विचार मनात असताना हे सगळं मला दिलासा देण्यासाठी ‘त्या’नेच घडवून आणल्याचं लख्खपणे जाणवलं आणि मनातलं मळभ हळूहळू विरू लागलं!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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