हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #160 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 160 ☆

☆ अधूरी ख़्वाहिशें  ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं  की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक होते हैं। इसलिए उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम स्व-पर व राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि बता! तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समूल नष्ट हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘नामकरण’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Naming…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “~नामकरण~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – नामकरण ??

हार्ट अटैक…, ब्रेन डेड..,

मृत्यु के

नये-नये नाम गढ़ रहे हम…

सोचता हूँ,

संवेदनशून्यता को

मृत्यु कब घोषित करेंगे हम ?

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Naming ~ ??

Heart attack…, brain dead..,

We’ve been crafting

new names for the death…

I wonder

When will we declare

insensitivity as death…!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चमत्कार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीर्ष साधना कल सम्पन्न हो गई है🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  चमत्कार ??

कल जो बीत गया,

उसका पछतावा व्यर्थ,

संप्रति जो रीत रहा

उसे दो कोई अर्थ,

 

बीज में उर्वरापन

वटवृक्ष प्रस्फुटित करने का,

हर क्षण में अवसर,

चमत्कार उद्घाटित करने का,

 

सौ चोटों के बाद एक वार

प्रस्तर को खंडित कर देता है,

अनवरत प्रयासों से उपजा

एक चमत्कार कायापलट कर देता है,

 

संभावनाओं के बीजों को

कृषक हाथों की प्रतीक्षा निर्निमेष है,

चमत्कारों के अगणित अवसर

सुनो मनुज, अब भी शेष हैं..!

 

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 5:43 बजे 21 जून 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #159 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 160 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मोहन राधा से कहे,क्यों बैठी हो मौन।

सोच में किसके डूबती ,बतला दो है कौन।।

🌹

प्यारे तेरे केश हैं,  प्यारे तेरे बोल।

मन मोहन की राधिका,तू तो है अनमोल।।

❤️

मोहन तुझको देखकर, कटते है दिन रात।

तुझ बिन ब्रज सूना लगे, कौन करे अब बात।।

🌹

मोर मुकुट धारण करें, न्यारी छबि के लाल।

तुझे निहारु दरपण से,राधा के गोपाल।।

❤️

सुंदर छबि है आपकी, मन – मोहन का राग।

ओ प्यारे ओ साँवरे, राधा का अनुराग।।

🌹

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #146 ☆ मन पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “मन पर दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 146 ☆

☆ मन पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तन का राजा मन सदा, जिसके हैं नवरंग

उसके ही आदेश से, करें काम सब अंग

 

मन टूटा तो टूटता, अंदर का विश्वास

रखें सुद्रण मन को सदा, मन से बंधती आस

 

मन चंचल मन वाबरा, मन की गति अंनत

पल में ही वह तय करे, जमी-गगन का अंत

 

जो अंकुश मन पर रखे, मन पर हो असवार

उसका जीवन है सफल, रखे शुद्ध आचार

 

रखें साथ तन के सदा, मन को भी हम साफ

तभी बढेगा जगत में, स्वयं साख का ग्राफ

 

ध्यान योग अभ्यास से,मन पर रखें लगाम

तभी मिलेगी सफलता,बनते बिगड़े काम

 

मन रमता संसार में,मन माया का दास

मन के घोड़े भागते,लेकर लालच,आस

 

दूर करें मन का तिमिर,मन में भरें उजास

रोशन हों सुख-दुख सभी,अंतस प्रभु का वास

 

मन को निर्मल राखिए,कभी जमे नहिं धूल

मन मैला तो कर्म भी,बनें राह के शूल

 

जीवन के सुख-दुख सभी,मन के हैं आधार

छिपे न मन से कुछ कभी,मन के नैन हजार

 

मन के पीछे भागकर,खोएं मत “संतोष”

तभी मिलेगी सफलता, रखें ज्ञान का कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कवडसा… ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆

सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कवडसा… ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆

कवडसा असा

“तो” धावत  येई

सायं-संध्या त्यास

किती, घाई घाई

 

देव्हाऱ्यात देव

भेटता लोळण

चरण स्पर्शूनी

गोड आळवण

 

तेजाळती क्षण

भारावले मन

नेत्र ही दिपले

ओजस हा दिन

 

गवसला सूर

तृप्तीत सुखाचा

सृजन सोहळा

अजब सृष्टीचा

 

“देव” ही हसले

भाग्य उजळले

नतमस्तक मी

निःशब्द बोलले

 

आशीर्वाद मज

द्यावा हो सत्वर

सुख शांती नांदो

इथे निरंतर

 

सेवा कामी तन

सतत झिजावे

इतुकेच आता

मनात ठसावे.

 

© सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #152 ☆ चालक तूं ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 152 – विजय साहित्य ?

☆ चालक तूं ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

दत्त दत्त कृपा निधी

वेद चारी तुझ्या पदी..

गोमाताही देवगणी

दत्तात्रेय नाम वदी..१

 

गुरुदेवा दिगंबरा

सत्व रज तम मूर्ती..

निजरुपे लीन होऊ

द्यावी चेतना नी स्फूर्ती..२

 

अनुसूया अत्रीऋषी

जन्म दाते त्रैमुर्तीचे..

ब्रम्हा विष्णू आणि हर

तेज आगळे मूर्तीचे..३

 

दत्त दत्त घेता नाम

भय चिंता जाई दूर

लय, स्थिती नी उत्पत्ती

कृपासिंधु येई पूर..४

 

अवधुता गुरू राया

तुझ्या दर्शना आलो‌ मी..

काया वाचा पदी तुझ्या

आनंदात त्या न्हालो मी..५

 

हरी,हर नी ब्रम्हा तू

साक्षात्कारी पालक तू

ज्ञानमूर्ती पीडाहारी

संसाराचा चालक तू..६

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बदल… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

?विविधा ?

☆ बदल…  ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

एका प्रसिद्ध टीव्ही  मालिकेतील नायिका सोज्वळ आहे. जुन्या काळातील नायिकांसारखी ती दोन वेण्या घालते. अलीकडं कोणी वेण्या घालत नाहीत. आंबाडा, एक वेणी या हेअरस्टाईल्स तर कालबाह्य झाल्या आहेत. पॉनिटेल फक्त मध्यमवयीन महिलांनी घातलेला दिसतो. तरूणी, नवयौवना यांच्या हेअरस्टाईलनं क्रांतिकारक बदल केलेला दिसतो. खरं तर या नवयुवती हेअरस्टाईल करतच नाहीत असं म्हटलं तर वावगं ठरू नये. कारण या सगळ्या आजकाल केस बांधतच नाहीत. केस मोकळे सोडणं हीच सध्याची फॅशन आहे.

एक काळ असा होता की केस मोकळे सोडणं असभ्य मानलं जाई. आंबाडा, एक वेणी, दोन वेण्या एवढेच पर्याय उपलब्ध असत. पोनीटेल ची फॅशन ही लहान केस असणाऱ्यांसाठी वरदान ठरली. ज्या मुलींचे केस खरोखरच टेल सारखे, शेपटी सारखे लहान होते त्या मुली एक आडवी क्लिप लावून पोनी बांधू लागल्या. मानेच्या नाजूक झटक्यानं ही पोनी डौलदार झोका घेऊ लागली. आकर्षक दिसणं कोणाला नको असतं बरं? ही स्टाईल वेगानं समस्त महिला वर्गानं उचलून धरली. लांब केसांचा आता कंटाळा येऊ लागला. वेळ वाचतो या नावाखाली लहानथोर सगळ्याच महिला पोनी बांधण्यासाठी केसांची लांबी मर्यादित ठेवू लागल्या. वेणी घालणं ही जुनाट फॅशन झाली. काकूबाई स्टाईल म्हणून ओळखली जाऊ लागली. आणि काकूबाई म्हणवून घेणं कोणाला चालेल, हो ना?

मधल्या काळात साधना कट, बॉबकट, बॉयकट अशा काही कटस्टाईल्स लोकप्रिय झाल्या. पण त्यांची लोकप्रियता फारशी मोठी नव्हती. बघता बघता हिंदी सिनेमा, टीव्ही मालिकांतील नायिका केस मोकळे सोडून फिरू लागल्या. ग्लॅमरस लूक मिळवण्यासाठी आमच्या मुली, सुना देखील मुक्त केस आणि मुक्त मनानं मोकळ्या ढाकळ्या बिनधास्त जगू लागल्या. स्वच्छता, हायजिन साठी घातलेली बंधनं या मुलींनी झुगारून दिली. घरभर केस पडू नयेत म्हणून एका जागी बसून केस विंचरणं, स्वयंपाक करताना, घरकाम करताना ते बांधून ठेवणं हे नियम जाचक वाटू लागले. मोकळे केस हे मुक्त जगण्याचं, मुक्त विचारांच प्रतीक ठरलं. इथंपर्यंत थोडं ठीक आहे असं वाटतंय तोच कुरळे केस नकोसे वाटू लागले. स्ट्रेट, स्मूथ, सिल्कि केस पसंतीची पावती मिळवू लागले.त्यासाठी महागड्या ट्रिटमेंटस् केल्या जाऊ लागल्या. पण केसांची नवी मुक्त स्टाईल वाऱ्याच्या वेगानं पसरली.

मुक्तांगण कितीही प्रिय असलं तरी वैविध्यपूर्ण केशरचना देखील तितक्याच महत्त्वाच्या आहेत असं दिसतं. फ्रेंच रोल, हाय बन, लो बन आणि अगणित हेअरस्टाईल्स सण समारंभ, लग्न मुंजीत मानाचा मुजरा घेतात.

चांगलं दिसणं, आधुनिक राहणं, काळाबरोबर चालणं जमायल हवंच. तो आपला हक्कच आहे. फॅशन करताना स्थळकाळाचं भान मात्र असायला हवं. आपण कुठं आहोत, कोणत्या समारंभाला जाणार आहोत, आजूबाजूला कोणत्या वयोगटातील लोक आहेत, अशा काही गोष्टींचा विचार करावा इतकंच. स्वयंपाक करताना बांधलेले केस कामात अडथळा आणत नाहीत . शिवाय ते हायजेनिक आहे.

पूजा असेल, धार्मिक विधी असतील तर बांधलेले केस बरे. आजूबाजूला पणत्या,दिवे,समया असतील तर मोकळे केस धोकादायक ठरू शकतात. वयस्कर किंवा आदरणीय मोठी माणसं आजूबाजूला असतील तर केस मोकळे सोडू नयेत. ते छानसे बांधावेत.अशा वागण्यातून आदर, नम्रता व्यक्त होते. आधुनिकपणाचा स्वीकार करताना तारतम्य ठेवायला हवंच.

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पाटीवर मांडलेली नाती – भाग 2 (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ?

☆ पाटीवर मांडलेली नाती – भाग 2 (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  

(अप्पासाहेबांनी अगदी हौसेने त्याला लागून पार बांधला होता. आम्ही हळूहळू चालत त्या पारावर जाऊन बसलो.)  इथून पुढे —

‘‘ तुझ्या वहिनीने दीपकला पैशांची जमवाजमव करायला सांगितली होती. तुला कदाचित्  माहिती नसेल, पण रिटायर झाल्यावर मिळालेल्या सात लाखांपैकी दोन लाख रुपये मी घरावर खर्च केले होते… अर्धा प्लॉट रिकामाच होता, त्यावर बांधकाम करून घर आणखी वाढवलं होतं, आणि चार लाख रुपये दीपकला दिले होते.”

‘‘ चार लाख? इतकी मोठी रक्कम त्याला देऊन टाकलीत तुम्ही?”

“ हो ना. काय झालं… एम्.ई. झाल्यानंतर सूरजला कॉलेजमध्ये लेक्चरर म्हणून नोकरी मिळाली. त्यामुळे त्याच्याबद्दलची काळजी मिटली. पण बी.ई. झाल्यावर दीपकला नोकरी मिळत नव्हती. तो तर एम्.बी.ए. पण झालेला आहे. पण तरीही कितीतरी दिवस त्याला नोकरी मिळाली नाही. मग आता त्याने एम्.आय्.डी.सी. मध्ये स्वत:चं एक प्रॉडक्शन युनिट सुरू केलंय. बँकेकडून त्याने थोडं कर्ज घेतलं, आणि चार लाख मी दिले.”

‘‘ बरं. पण मग आता पैसे देण्याबद्दल काय म्हणाला तो?”

‘ म्हणाला… की आत्ता दोन लाख रुपयांची सोय करणं त्याला शक्य नाहीये… ‘ अजून माझा व्यवसाय नवा आहे. आणि दरमहा बँकेच्या कर्जाचे हप्ते भरण्यासाठीच खूप आटापिटा करावा लागतोय् अजून मला.’ ”

‘‘ अरे बापरे… मग सूरज…?”

‘‘ सूरजने तर आधीच सांगून टाकलं होतं, की त्याने त्याच्या सोसायटीकडून आणि प्रॉव्हिडंड फंडातूनही कर्ज काढलं, तरी पन्नास हजार रुपये मिळणंही कठीण आहे.”

‘‘ पण अप्पासाहेब, मी तर तुम्हाला आधीच सांगून ठेवलंय ना, की पैशांचा काही प्रश्न असेल तर मला सांगा म्हणून. नोकरीत असतांना तुम्ही इतक्या संस्थांना मदत केली आहेत, की तुमचं नुसतं नाव सांगितलं तर तीन लाख रुपये सहज गोळा होतील. फक्त सांगायचाच अवकाश…”

‘‘ ही गोष्ट तुझ्या वहिनीने जेव्हा सुचवली, तेव्हा दोन्ही मुलं आणि सुना केवढे संतापले… म्हणाले की, तुमच्या उपचारांसाठी तुम्ही अशा प्रकारे वर्गणी गोळा करुन या शहरात, समाजात आमची बदनामी करू बघताहात.”

‘‘ त्यांचं बोलणं सोडून द्या अप्पासाहेब. मी आजच काही सोसायट्यांच्या प्रमुख अधिका-यांची मिटिंग बोलावतो, आणि त्यांच्याशी चर्चा करून आठवड्याभरात तीन लाख रुपये उभे करून दाखवतो.”

‘‘ अरे अजून माझं बोलणं संपलं नाहीये रवी. हे बघ, मी एका दिवसात फक्त तीनच नाही, तर तीस लाख रुपये उभे करु शकतो. फक्त सांगायचाच् अवकाश… कुणीही या घराचे एका तासात तीस लाख रूपये देऊन जाईल… पण…”

‘‘ माफ करा अप्पासाहेब, पण खरं सांगतो, तुमची मुलं इतकी अविचारी असतील यावर माझा विश्वासच बसत नाहीये.”

‘‘ नाही रवी, ते अविचारी नाहीयेत्. पण ते जेवढा विचार करतात, तेवढा विचार आपण आयुष्यात कधीही केला नाही. रात्री तुझ्या वहिनीने दोन्ही मुलांना समोर उभं करून इतकं कठोरपणे काय काय सुनावलं, आणि घर विकून माझ्यावर उपचार करण्याबाबत सांगितलं, तेव्हा सूरज काय म्हणाला माहिती आहे?”

‘‘ काय म्हणाला?”

‘‘ म्हणाला, ‘ येऊन-जाऊन एवढं एक घर तर आहे आपल्याकडे. आता त्याच्यावरही डोळा आहे का तुमचा? बाबांच्या हाताखाली काम करणा-यांकडे लाखोंची संपत्ती आहे आज. पण बाबा?… आयुष्यभर फक्त प्रामाणिकपणा आणि ईमानदारी, यांचेच गोडवे गात राहिले… बाकी काहीच केलं नाही. आज जर बँकेत त्यांचे पाच-दहा लाख रूपये शिल्लक असते, तर उपयोगी नसते पडले का अशावेळी? डॉ. अख्तर यांचं वीस दिवसांचं बील पन्नास हजार झालं होतं… तिथेच आमची पास-बुकं रिकामी झाली. आता घर विकलं तर आपण सगळेच उघड्यावर येऊ.’– हे ऐकून तुझी वहिनी गप्पच झाली. सूरज आणखी असंही म्हणत होता की, ‘ मम्मी तू तुझ्या स्वत:चाही विचार करायला हवास. माझा पगार इतका कमी आहे, की मी माझ्या कुटुंबाचाच खर्च कसा तरी भागवतो आहे. आभाची नोकरी तर पार्टटाईमच आहे… आणि आज आहे… उद्या असेल की नाही सांगता येत नाही. तुम्हा दोघांनाही बहुतेक माहिती नसावं की, या नोकरीसाठी मला कॉलेजच्या मॅनेजमेंटला रोख चाळीस हजार रुपये द्यावे लागले होते…’ सूरजचं समर्थन करणं चालूच होतं, इतक्यात दीपकही बोलायला लागला. ‘ मम्मी, मी बाबांच्या ऑपरेशनबद्दल माझ्या डॉक्टर मित्रांचंही मत घेतलंय. त्यांचं मत असं पडलं की, बाय-पास् जरी केली, तरी ते ऑपरेशन नक्की यशस्वी होईल, असं खात्रीने सांगता येणार नाही. उपचार पद्धती आता खूपच प्रगत झाल्या आहेत असं आपण कितीही ठामपणे म्हणत असलो, तरी आजही ५०% ऑपरेशन्स अयशस्वी ठरताहेत. असं असतांना, हे ऑपरेशन अयशस्वी ठरलं, तर बाबांच्या नशिबात जे घडायचं असेल, ते घडेलच… पण तीन लाख रुपये मात्र उगीचच वाया जातील.’  सूरजने पण दीपकच्या म्हणण्याला दुजोरा दिला. वर असंही म्हणाला की, ‘ जरी ऑपरेशन यशस्वी झालं, तरी बाबा अजून किती वर्षं जगतील?… दोन वर्षं, चार वर्षं… फार फार तर दहा वर्षं. त्यामुळे आता असा विचार करायला पाहिजे की ज्या माणसाने त्रेसष्ठ वर्षं हे जग पाहिलंय्, तो आणखी दहा वर्षं जगला, म्हणून असा काय मोठा फरक पडणार आहे त्याच्या आयुष्यात? मुख्य म्हणजे ऑपरेशननंतर बाबा काही कामही करू शकणार नाहीत. कुठली धावपळ सुद्धा करू शकणार नाहीत. उलट तुलाच एखाद्या लहान मुलासारखी त्यांची सतत काळजी घेत बसावं लागेल. अशा व्यक्ती साठी आज तीन लाख रुपयांवर पाणी सोडणं, हा कोणता शहाणपणा आहे? आमचं तर अजून सगळं आयुष्य बाकी आहे. तेच पैसे आम्हालाच कशासाठी तरी उपयोगी पडतील मम्मी. विचार कर जरा.’… हे सगळं बोलणं मी ऐकलं होतं. म्हणूनच तुझी वहिनी जेव्हा नंतर माझ्या खोलीत आली, तेव्हा तिने काही सांगायच्या आधीच, मी माझा निर्णय तिला सांगून टाकला… ‘ हे बघ… ऑपरेशनचं नुसतं नाव ऐकूनच प्रचंड भीती वाटायला लागली आहे मला. त्यामुळे, मी अजिबात ऑपरेशन करून घेणार नाही… आणि हा माझा ठाम निर्णय आहे. देवाची जशी मर्जी असेल, तसं जाईल माझं पुढचं आयुष्य.’ “

… हे सगळं बोलताना कितीतरी वेळा अप्पासाहेबांच्या पापण्या फडफडत होत्या… आणि तितके वेळा डोळ्यातलं पाणी तिथेच थोपवलं गेलं होतं हे माझ्या नजरेतून सुटलं नव्हतं. विषय बदलायचा म्हणून मी विचारलं…

‘‘ मग वहिनी काय म्हणाल्या? ”

‘‘ काय म्हणणार?… काहीच बोलली नाही. रात्रभर तिची उशी मात्र ओली होत राहिली होती. सकाळी उठून पाहिलं तर काय… तिचा सगळा दिनक्रमच बदलून गेलेला दिसला. तिने किचन आपल्या ताब्यात घेतलं…. देवघरही आधीच स्वच्छ करून ठेवलं होतं. मी दिसताच मला बजावून सांगितलं… “ आजपासून अंघोळ झाली की आधी पूजा करत जा तुम्ही .” तिचं ऐकावं लागलं… आणि आत्ता देवघरात देवासमोर बसून, जीवनाचं हे गणित त्याच्याकडून समजावून घेत होतो… तू मला माफ करशील, अशी आशा करतो मी रवी.”

—अप्पासाहेब दोन्ही हात जोडून माझ्यासमोर उभे आहेत. त्यांच्या बोलण्यावर प्रतिक्रिया देण्यासाठी एक शब्दही सापडणं अशक्य वाटतंय् मला. गळा इतका दाटून आलाय्… काहीच बोलूही शकत नाहीये मी. उठून त्यांना नमस्कार करत मी माझ्या घरी परत चाललो आहे… विचारात पडलो आहे की नात्यांना आकडे समजून, त्यानुसार मांडलेली फायद्या-तोट्याची गणितं, कुठल्याही पाटीवर मांडली, तरी उत्तरं एकसारखीच तर असणार ना….  

— समाप्त —

मूळ हिंदी  कथा – ‘स्लेट पर उतरते रिश्ते’ –  कथाकार – भगवान वैद्य `प्रखर’

अनुवाद – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆  पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे.!  – लेखक – श्री प्रसाद शिरगांवकर☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

❤️ मनमंजुषेतून ❤️

☆ पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे.!  – लेखक – श्री प्रसाद शिरगांवकर☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ☆

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. खिशात भरपूर पैसा असल्यावर आपण आनंदी असण्याची काहीही शाश्वती नसते. पण जवळ पुरेसा पैसा नसला की दुःख ग्यारंटेड असतं !! याची उप-गंमत म्हणजे ‘पुरेसा’ म्हणजे काय हे आयुष्यात कधीही समजत नाही… उप-उप-गंमत अशीये की पुरेसा म्हणजे किती हे ठरवलं आणि तेवढा मिळवलाच तरी तो ‘पुरत’ नाही आणि ‘पुरेसाची’ व्याख्या पुन्हा बदलते ! 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. आपल्याला आपल्या शिक्षण, लायकी आणि कष्टांच्या मानानी कमीच मिळतो आहे असं वाटत असतं. आपल्यापेक्षा कमी शिक्षण किंवा लायकी असलेल्या आणि नगण्य कष्ट करणाऱ्यांना खूप जास्त मिळतोय असं वाटत असतं. आपल्याला जो मिळतो तो टिकत नाही, इतरांकडे मात्र टिकतो असं वाटत असतं. आपल्याला बेसिक गरजांनाही पुरत नाही, इतरांकडे अफाट उधळपट्टी करायला असतो असं वाटत असतं. आणि हे असं म्हणजे असंच सगळ्या सगळ्यांनाच वाटत असतं ! इतरांच्या तूलनेत आपला पैसा ही फार म्हणजे फार गंमतशीर गोष्ट आहे !! 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. तो एका दरवाज्यानं येतो आणि हजार खिडक्यांवाटे पसार होतो ! आला की खूप छान, भारी, मस्त, बरं वगैरे वाटतं. पण तो नुसताच येऊन थांबल्यानं आणि घरात साचून राहिल्यानं त्यातून काही म्हणजे काही मिळत नाही. म्हणजे आपल्याकडे खूप पैसा आलाय हे भारी वाटलं तरी त्यानं पोटही भरत नाही आणि इतर सुखंही मिळत नाहीत. पोट भरायचं आणि इतर काही मिळवायचं तर त्याला अनंत खिडक्यांमधून बाहेरच जाऊ द्यावं लागतं. पैसा आल्यामुळे मिळणारं सुख मोठं? की खर्चल्यामुळे मिळणारं? हे ठरवता येत नाही, कारण पैसा अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे ! 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. ‘दैव देतं आणि कर्म नेतं’ ही म्हण पैशाला लागू होत नाही. पैसा कष्ट केल्यानं, म्हणजे ‘कर्मानं’च मिळतो. क्वचित कधी दैवामुळंही मिळू शकतो, लॉटरी वगैरे लागल्यावर, पण तो काही शाश्वत मार्ग नाही. रेग्युलर, नियमित वगैरे पैसा मिळवायचा तर अफाट कष्ट पडतात, ‘कर्म’ करावं लागतं. पण ‘कर्मानं’ मिळालेला पैसा ‘दैवा’मुळे एका क्षणात नाहीसा होऊ शकतो. चोरी म्हणू नका, टॅक्स म्हणू नका, आजारपणं म्हणू नका, अपघात म्हणू नका, भूकंप म्हणू नका… काय वाट्टेल ते ‘दैव’ किंवा योगायोग समोर उभे ठाकतात आणि कर्मानं कमावलेल्या पैशाचं क्षणार्धात होत्याचं नव्हतं होऊ शकतं… ‘कर्म कमावतं अन दैव हिसकावतं’ ही पैशाच्या बाबतीतली म्हण असायला हवी !! 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. दुसऱ्याकडून उधार घेतलेला पैसा कधीच लक्षात रहात नाही आणि दुसऱ्याला उधार दिलेला पैसा कधीच विसरला जात नाही !! जे उधारीचं तेच मदतीचं, तेच दान-धर्माचं, तेच खर्चाचं वगैरे. आपल्याला मिळालेलंही आपलंच आणि आपण दिलेलंही आपलंच हे फक्त पैशाच्या बाबतीत घडतं, कारण पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे !! 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. ज्याच्याकडे नाही त्याला कमवावासा वाटतो. ज्याच्याकडे आहे त्याला अफाट कमवावासा वाटतो आणि ज्याच्याकडे अफाट आहे त्यालाही अजून जास्त अफाट कमवावासा वाटतो. माझ्याकडे आहे तेवढा पुरेसा आहे, मला अजून जास्त पैसा नको, असं कोणी म्हणजे कोणी म्हणत नाही. 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे. ‘पैशापाशी पैसा जातो!’ जिथे ऑलरेडी खूप पैसा आहे तिथे अजून अजून पैसा जात रहातो. जिथे खूप कमी पैसा आहे तिथून पैसा जमेल तेवढ्या लवकर कल्टी मारत रहातो. 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे . पैसा मिळवण्यासाठी आयुष्यभर आपण खपतो. मग एक दिवस आपण ‘खपल्यावर’, आपण निघून जातो, पैसा इथेच रहातो !! 

पैसा ही अत्यंत गंमतशीर गोष्ट आहे.!

लेखक : – प्रसाद शिरगांवकर

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित. 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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