(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ Nostalgia… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में आज से प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे एक नया साप्ताहिक स्तम्भकहाँ गए वे लोग। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है महाकोशल क्षेत्र के एक लोकप्रिय सौम्य, गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर कवि, लेखक, पत्रकार, संपादक व जनेता – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी”।)
☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆
☆ “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(सौम्य, गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर कवि लेखक व संपादक)
कवि, पत्रकार और राजनेता के रूप में समान लोकप्रियता के धनी पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जनसभाओं में प्रतिष्ठित राजनेताओं और साहित्यकारों के बीच में से श्रोताओं की सहज श्रद्धा और लोकप्रियता के एक मात्र पात्र बनने की सामर्थ्य रखते थे। सात बार जबलपुर नगर निगम के महापौर चुने गए थे, लम्बे समय राज्यसभा सांसद रहे। वे ‘प्रहरी’ पत्रिका के ऐसे सफल सम्पादक थे जिन्होंने देश को समर्थ और लोकप्रिय हरिशंकर परसाई जैसा व्यंग्यकार दिया, परसाई जी की पहली रचना और पहला कालम ‘नर्मदा के तट से’ प्रहरी से ही प्रारंभ हुआ। कवि के रूप में आदरणीय तिवारी जी जन जन के बीच लोकप्रिय थे। राजनीति और साहित्य के पारस्परिक संबंधों के बारे में उनका कहना था…
“जब राजनीति पथभ्रष्ट होती है तब साहित्य विद्रोही हो जाता है”
1942 के जन आंदोलन के समय पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जी जबलपुर नगर कांग्रेस के अध्यक्ष थे, और पूरे देश में यह अकेला शहर था जहां सेना के जवान अपनी बैरकों से बाहर आ गए थे,यह तिवारी जी के समर्थ नेतृत्व का ही परिणाम था कि 1942 में जबलपुर का अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन समूचे महाकौशल में जन जाग्रति का वाहक बनकर फैला। सन् 1942 में गिरफ्तार हो उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी,जेल में भी उनका समय व्यर्थ नहीं गया यहीं उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ का अध्ययन मनन किया और गीतांजलि का अनु -गायन जैसा उनके द्वारा संभव हुआ।आज भी हिन्दी में प्रकाशित कोई भी अनुवाद उसके समक्ष बेसुरा प्रतीत होता है, गीतांजलि अनु गायन के प्रकाशित होते ही उनकी यश-कीर्ति नगर और राज्य की सीमा लांघकर सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में फैली…
‘दिखते हैं प्रभु कहीं,
यहाँ नहीं यहाँ नहीं,
फिर कहाँ? अरे वहाँ,
जहां कि वह किसान दीन,
वसनहीन तन मलीन,
जोतता कड़ी जमीन,
प्रभु वहीं कि जहां पर
वह मजूर करता है
चोटों से पत्थर को चूर’
प्राण पूजा’ और ‘प्राण धारा’ उनके मूल कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे,’तुम कहां चले गए’ शोक कविताओं का लघु संग्रह है, ‘जब यादें उभर आतीं हैं’ उनके संस्मरणात्मक वैयक्तिक निबंधों का संग्रह है, ‘गांधी जी की कहानी’ गांधी के महान व्यक्तित्व को सरल भाषा में किशोरोपयोगी बनाने का प्रयास था। कथा वार्ता उनकी कथात्मक एवं समीक्षात्मक रचनाओं का संग्रह है। श्री तिवारी जी की ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित ‘हाथों के मुख से’ और ‘संजय के पत्र’ , ‘हमारी तुमसे और तुम्हारी हमसे’ जैसे स्तंभों में छपी सेंकड़ों पृष्ठों की सामग्री हिंदी साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक योगदान के रूप में याद रखी जाएगी।
एक पूरी की पूरी साहित्यिक पीढ़ी जिसमें सर्वश्री केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव, सुभद्रा कुमारी चौहान, नर्मदा प्रसाद खरे, हरिशंकर परसाई, रामेश्वर गुरू, जैसे महान साहित्यकार उनकी प्रहरी पत्रिका में प्रकाशित हुए। राजनेता और पत्रकार से भिन्न उनका साहित्यिक व्यक्तित्व सर्वोपरि था जो उनके इन दोनों रूपों को सहज ही आच्छादित किए रहता था, और मंच से बोलते हुए तिवारी जी के भाषण और भंगिमा में इस व्यक्तित्व का इतना अधिक प्रभाव रहता था कि उनके साहित्यिक श्रोताओं को तिवारी जी की काव्य पंक्तियां याद आने लगतीं थीं। लोग बताते हैं कि होली जैसे जन पर्व के अवसर पर या शरद पूर्णिमा के कवि सम्मेलन में उनकी मधुर संवेदनशील वाणी सहज ही गूंज जाती थी….
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा…“।)
अभी अभी # 293 ⇒ त्याग पत्र उर्फ इस्तीफा… श्री प्रदीप शर्मा
भोग से विरक्ति को त्याग कहते हैं, और पद से त्याग को त्याग पत्र कहते हैं। जिस तरह निवृत्ति से पहले प्रवृत्ति आवश्यक है, उसी प्रकार त्याग पत्र से पहले किसी पद पर नियुक्ति आवश्यक है। सेवा मुक्त भी वही हो सकता है जो कहीं सेवारत हो। सेवा से रिटायरमेंट और टर्मिनेशन से बीच की स्थिति है यह त्याग पत्र।
सेवा चाहे देश की हो अथवा समाज की, शासकीय हो अथवा गैर सरकारी, जिसे आजकल सुविधा के लिए प्राइवेट जॉब कहते हैं।
जॉब शब्द से काम, धंधा और मजदूरी की गंध आती है, जब कि सेवा शब्द में ही त्याग, सुकून और चारों ओर सुख शांति नजर आती है। शासकीय सेवा, भले ही सरकारी नौकरी कहलाती हो, लेकिन कभी शादी के रिश्ते की शर्तिया गारंटी कहलाती थी। लड़का शासकीय सेवा में है, यह एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र होता था।।
वैसे तो सेवा अपने आप में एक बहुत बड़ा त्याग है, लेकिन कभी कभी परिस्थितिवश इंसान को इस सेवा से भी त्याग पत्र देना पड़ता है। जहां अच्छे भविष्य की संभावना हो, वहां वर्तमान सेवा से निवृत्त होना ही बेहतर होता है। ऐसी परिस्थिति में औपचारिक रूप से त्याग पत्र दिया जाता है और साधारण परिस्थितियों में वह मंजूर भी हो जाता है। आधी छोड़ पूरी का लालच भी आप चाहें तो कह सकते हैं।
एक त्याग पत्र मजबूरी का भी होता है, जहां आप व्यक्तिगत कारणों के चलते, स्वेच्छा से त्याग पत्र दे देते हैं। लेकिन कुछ देश के जनसेवकों पर लोकसेवा का इतना दायित्व और भार होता है, कि वे कभी पद त्यागना ही नहीं चाहते। अतः उनके पद भार की समय सीमा बांध दी जाती है। उस समय के पश्चात् उन्हें इस्तीफा देना ही पड़ता है।।
जो सच्चे देशसेवक होते हैं, वे कभी देश सेवा से मुक्त होना ही नहीं चाहते। जनता भी उन्हें बार बार चुनकर भेजती है। ऐसे नेता ही देश के कर्णधार होते हैं। इन्हें सेवा में ही त्याग और भोग के सुख की अनुभूति होती है।
लेकिन सबै दिन ना होत एक समाना। पुरुष के भाग्य का क्या भरोसा। कभी बिल्ली के भाग से अगर छींका टूटता है, तो कभी सिर पर पहाड़ भी टूट पड़ता है। अच्छा भला राजयोग चल रहा था, अचानक हायकमान से आदश होता है, अपना इस्तीफा भेज दें। आप हवाले में फंस चुके हैं।।
एक आम इंसान जब नौकरी से रिटायर होता है तो बहुत खुश होता है, अब बुढ़ापा चैन से कटेगा। लेकिन एक सच्चा राजनेता कभी रिटायर नहीं होता। राजनीति में सिर्फ त्याग पत्र लिए और दिए जाते हैं, राजनीति से कभी सन्यास नहीं लिया जाता।
आज की राजनीति सेवा की और त्याग की राजनीति नहीं है, बस त्याग पत्र और इस्तीफे की राजनीति ही है। जहां सिर्फ सिद्धांतों को त्यागा जाता है और अच्छा मौका देखकर चलती गाड़ी में जगह बनाई जाती है।
अपनों को छोड़ा जाता है, और अच्छा मौका तलाशा जाता है। जहां त्याग पत्र एक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है, और इस्तीफा, इस्तीफा नहीं होता, धमाका होता है।।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सपने#”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘सामर्थ्य…’।)
☆ कविता – सामर्थ्य… ☆
बादल का एक टुकड़ा, बरसने के बाद,
लौटते हुए, मेरे आंगन के ऊपर रुक गया,
आंगन की मिट्टी को देखने लगा,
जो बारिश की उम्मीद लगाए बैठी थी,,
कि पानी की बूंदों से उसकी
जलन मिटेगी,
तप्त होकर सौंधी सौंधी महक से, वह भी महक जाएगी,
पर निराश भाव से वह तकती रही, बादल को,
क्या कहती,, बादल भी तो पुरुष था,
क्या जाने वो स्त्री की व्यथा,,
जलती देह की अगन की तपन,
तभी नम हवा ने आकर मिट्टी को सहलाया,
पुचकारा और कहा,और कहा,
निष्ठुर है ये,व्यथा न जानेगा,
मै बूंदों से कहूंगी,वो तुम्हारी तपन को जानेगी,
और तुमसे मिलकर सृजन करेंगी,उस बीज का, जो मै अपने साथ लाऊंगी,,
प्रत्येक व्यक्तीच्या इच्छा असतात. त्या गोष्टी मिळाव्यात अशी गरजही असते. त्याचा क्रम साधारण पुढील प्रमाणे असतो.
अन्न,वस्त्र,निवारा,पैसा,प्रतिष्ठा व मी कोण? याचा शोध.
त्यातील अन्न,वस्त्र,निवारा,पैसा व भौतिक सुख सुविधा याच्या मागे माणूस लागतो.आणि आपण जेवढे त्याच्या मागे लागतो तितकेच ते पुढे पळते.जशी सावली धरता येत नाही तसेच काहीसे होते. मग ही सावली आपल्या मागे कशी येईल याचा विचार केला पाहिजे. आपण सूर्याकडे पाठ करुन चाललो तर सावली आपल्या पुढे असते.पण सूर्याकडे तोंड करुन चाललो म्हणजे सूर्याला सामोरे गेलो तर सावली मागे येईल. मग हा सूर्य कोण? तर आपण स्वतः …..
स्वतः कोण आहोत? स्वतः मधील क्षमता ओळखल्या तर या सगळ्या सावल्या,भौतिक सुखे,लोकप्रियता आपल्या मागे येते. म्हणजेच आपल्या आयुष्याचा उद्देश आपल्याला माहिती असणे महत्वाचे असते. जगात इतकी माणसे असताना माझा जन्म झाला आहे म्हणजे निसर्गाला माझ्या कडून काही काम करुन घ्यायचे आहे.हे लक्षात घ्यावे.
▪️ आपल्या सभोवती जी वैश्विक शक्ती आहे त्याचे आपण शक्तिशाली मानवी रूप आहोत. आणि या वैश्विक शक्तीला आपल्या कडून काही करून घ्यायचे आहे हे कायम लक्षात ठेवावे.
▪️ स्वतः मध्ये कोणते टॅलेंट म्हणजे दैवी शक्ती आहे याचा शोध घ्यायचा आहे. प्रत्येक व्यक्ती युनिक असते. प्रत्येकाची हुशारी,कौशल्ये वेगळी असतात.
▪️ या वेगळे पणाचा व आपल्यात असलेल्या वैश्विक शक्तीचा उपयोग करुन आपल्या संपर्कात येणाऱ्यांना आपण कशी मदत करु शकतो याचा विचार करायचा आहे.
How can I help? हा विचार प्राधान्याने करायचा आहे.
आपण जे लोकांना देतो ते आपल्याकडे कित्येक पटीने परत येते. म्हणून मला काय मिळणार या पेक्षा माझ्या कडून कोणाला काय मिळणार? माझ्यामुळे किती जण आनंदी होणार? याचा विचार करुन त्या प्रमाणे आचरण केले तर तोच आनंद कित्येक पटीने आपल्या कडे येणार आहे.
या साठी पुढील गोष्टी आचरणात आणाव्यात.
▪️ माझ्यात वैश्विक दैवी शक्ती आहे.माझा जन्म काही कारणा साठी झाला आहे. हे मान्य करावे.
▪️ स्वतः मधील युनिक टॅलेंट म्हणजे वेगळ्या दैवी शक्तीची यादी करावी.
ही यादी करताना काही गोष्टींचे स्मरण केले तर यादी करणे सोपे होईल.
उदा. आई वडील काय केल्यावर शाबासकी देत होते?
माझ्याकडे माणसे कोणत्या गोष्टी मुळे येतात?
माझ्या कोणत्या कृतीने माणसे आनंदी होतात?
माझ्या मधील कोणत्या गोष्टी मुळे मी लोकांना प्रिय आहे?
याचा विचार केला तर आपल्यात कोणते विशेष व इतरांच्या पेक्षा वेगळे गुण म्हणजेच वेगळी दैवी शक्ती आहे ते लक्षात येईल.
▪️ माझ्याकडे अमर्याद पैसा व वेळ असेल तर मी इतरांच्या साठी काय काय करु शकेन याची यादी करणे. जे करावेसे वाटेल ते म्हणजे विशेष गुण आहेत.ज्या गोष्टी करायला आवडतात त्यांची एक यादी करणे.
▪️ माझ्या आयुष्यात येणाऱ्या प्रत्येक व्यक्तीला मी कशी व कोणती मदत करु शकेन? ज्या मुळे त्यांच्या आयुष्यात आनंद निर्माण होईल.
हे जर आपण अंमलात आणले तर नक्कीच आपल्या आयुष्यात एक वेगळा आनंद निर्माण होणार आहे.
हे सगळे करण्याचा उद्देश एकच आहे. तो उद्देश म्हणजे स्वतःला ओळखणे.
स्वतः मधील क्षमता,सकारात्मकता व स्वतः मधील वेगळे पण ओळखणे. एकदा आपण स्वतःला ओळखले की बाकीच्या गोष्टी आपोआप मागे येणार आहेत.
“दुकानात सफाई कामासाठी त्वरीत मुलगा पाहिजे” अशी पाटी वाचून तो दुकानात शिरायला लागला तसं सिक्युरिटी गार्डने त्याला अडवलं. “काय पाहिजे?”
त्याने शांततेने बोर्डाकडे बोट दाखवलं. गार्ड समजला. आत हात दाखवून म्हणाला “राजू शेठ समोरच बसलेत त्यांना भेटून घे.”
अस्वस्थ मनाने तो आत शिरला. समोरच काऊंटरवर राजूशेठ कस्टमरकडून पैसे घेण्यात गुंतले होते. कस्टमर गेल्यावर त्यांची नजर त्याच्यावर पडली. “बोला..”
“ते… तुम्हांला सफाई कामासाठी मुलगा पाहिजे आहे ना?”
“हो. तू करणार आहेस का?”
त्याने मान डोलावली. राजूशेठने त्याच्याकडे निरखून पाहिलं. पंधरासोळा वर्षाचा गोरागोमटा स्मार्ट मुलगा. कपडे मात्र साधारण होते. दुकानाच्या सफाईसाठी योग्य आहे असं त्यांना वाटेना. “तुझं नांव?”
“प्रदीप”
“वडील काय करतात?”
“रिक्षा चालवतात”
“कुठे रहातोस?”
“समता नगर”
“ठिक आहे .तीन हजार देऊ तुला महिन्याला.खाडे करायचे नाहीत.खाड्याचे पैसे आम्ही कापून घेतो”
भास्कर आला.त्याने प्रदीपला ते तीन मजली दुकान फिरुन दाखवलं
” तुला सकाळी आठ वाजताच यावं लागेल.फ्लोरींग, काचेची कपाटं,काऊंटर्स,वाँशरुम सगळं साफ करावं लागेल.हे कपड्याचं दुकान आहे.इथे थोडीही धुळ चालत नाही. ग्राहक येतांना धुळ घेऊन येतात.त्यामुळे वारंवार झाडू मारणं,कपड्याने पुसणं करावं लागतं.रात्री आठनंतरच तुला घरी जाता येईल”
प्रदीपने मान डोलावली.
“जा आता.सकाळी आठ वाजताच ये”
प्रदीप गेला.त्याला जातांना पाहून राजूशेठला परत एकदा तो सफाईकामाला योग्य नाही असंच वाटून गेलं.”ठिक आहे.पाहू दोनचार दिवस.नाही पटला तर हाकलून देऊ” ते मनाशीच बोलले.
प्रदीप दुसऱ्या दिवशी आला.त्याने काम करायला सुरुवात केली पण त्याने कधीच सफाईचं काम केलेलं नाही हे त्याच्यासोबत आलेल्या नोकरांच्या लक्षात आलं.ते त्याला वारंवार सुचना देऊ लागले.दहा वाजले.दुकान उघडण्याची वेळ आली तरी त्याची सफाई झाली नव्हती.ते तरी बरं शेठ अकरा वाजता यायचे.नाहीतर त्यांनी प्रदीपला फाडून खाल्लं असतं.दुकान सुरु झालं.साडेअकराला भास्कर वाँशरुमकडे जायला निघाला तर वाँशरुमच्या दाराजवळ बसून प्रदीप रडत होता.
“काय रे काय झालं?का रडतोय?”
“नाही.काही नाही” प्रदीपने डोळे पुसले
” तुला काम जमत नाही असं मनोज सांगत होता.कधी काम केलं नाही वाटतं?”
“नाही”
“गरीबी वाईट असते बाबा.काहीही कामं करायला लावते.जमेल जमेल.तीन चार दिवस हाल होतील.मग सवय होऊन जाईल.काही रडू नको.घरी कोण काम करतं?”
” आई आणि बहिण”
” तरीच.कळलं ना कसा त्रास होतो ते?”
प्रदीपने मान डोलावली.
दुपारी भास्कर कस्टमर नाही असं पाहून जेवायला बसला त्याचं लक्ष प्रदीपकडे गेलं.
” काय रे जेवायचं नाही का?”
प्रदीपने नकारार्थी मान हलवली.
“का?डबा नाही आणला का?”
” नाही”
” ये मग इकडे.आपण दोघंही जेवू”
” नको.मला भुक नाहिये”
“अशी कशी भुक नाही.सकाळपासून काम करतोय.चल मुकाट्याने ये खायला”
तेवढ्यात दोन सेल्समनही डबा घेऊन आले.प्रदिपचा डबा नाही हे पाहून त्यांनी दोन दोन पोळ्या आणि भाजी प्रदिपला एका ताटलीत काढून दिल्या.भुक नाही म्हणणाऱ्या प्रदीपने पाच पोळ्या खाल्ल्या.
“उद्यापासून डबा आणत जा.काय!” भास्करने दम भरला.
“ते…आई आजारी असते त्यामुळे आणता येत नाही”
तिघा सेल्समननी एकमेकांकडे पाहिलं.एक जण म्हणाला
” काळजी करु नको.आम्ही आणत जाऊ तुझ्यासाठी पण”
प्रदीप काही बोलला नाही.
चारपाच दिवस प्रदीपला काम जमत नाहिये हे पाहून बाकीच्या सेल्समननी त्याला बरीच मदत केली .कुणी काऊंटर पुसून घेतले ,कुणी काचेची कपाटं साफ केली,तर कुणी पंखे,लाईटस्.आठवडाभरात प्रदिपला बऱ्यापैकी काम जमायला लागलं.पण बाकीच्यांनी मदत करणं सोडलं नाही. राजूशेठला ही गोष्ट माहित नव्हती त्यामुळे प्रदीपच्या कामावर ते समाधानी होते.भास्करला त्यांनी दोनतीनदा त्याच्याबद्दल विचारलं तेव्हा भास्कर म्हणाला “चांगला आहे पोरगा कामाला.मेहनती आहे “
लग्नाचा सिझन होता.ग्राहकांची वर्दळ प्रचंड वाढली.प्रदीपचं कामही वाढलं.वारंवार दुकान झाडणं,पुसणं यात दिवस कसा निघून जायचा कळायचं नाही.पंधरा दिवस झाले आणि अबोल प्रदीप दुकानात रुळला.आता तो मोकळेपणाने बोलत होता.फुरसत असली की तो सेल्समनना मदत करायचा.ढिगाने पडलेल्या साड्या,बेडशीट्सच्या घड्या करुन ठेवायचा.ग्राहकांना पसंत न पडलेले रेडिमेड कपडे बाँक्सेसमध्ये व्यवस्थित पँक करुन ठेवायचा.महिना झाला.राजूशेठने प्रदीपच्या हातात तीन हजार ठेवले तेव्हा त्यांना प्रदिपचे डोळे भरुन आल्याचं जाणवलं.
” काय रे काय झालं?”
” काही नाही. पहिला पगार आहे ना म्हणून…”
“अच्छा..”
त्याने डोळे पुसले.शेठजींना आठवलं या महिन्यात प्रदिपने एकही दिवस खाडा केला नव्हता.उलट सिझनमुळे कधी रविवारीही दुकान सुरु असायचं तेव्हा तो स्वतःहून दुकानात येऊन काम करायचा.त्याच्या कामावर खुश होऊन राजूशेठने त्याचा पगार चार हजार करायचं ठरवलं.
सोमवार उजाडला.राजूशेठ दुकानात आले.देवांच्या फोटोंची पुजा करुन ते कँशकाऊंटरवर बसत नाही तोच प्रदीप त्यांच्याकडे आला.नमस्कार करुन म्हणाला
“शेठजी माझे बारावीचे क्लासेस पुढच्या आठवड्यापासून सुरु होताहेत तर मी हा आठवडाभरच काम करु शकणार आहे”
शेठजींना धक्का बसला.
“अरे पण तू दुकानात काम करुनही क्लासेस करु शकतो.संध्याकाळी लवकर सोडत जाऊ आपण तुला”
“नाही शेठजी.क्लासेस सकाळी आणि संध्याकाळीही असतात”
आता मात्र शेठजी रागावले.आता पुन्हा दुकानाच्या सफाईसाठी मुलगा बघणं आलं.याच गोष्टीचा त्यांना तिटकारा होता.एकतर माणसं मिळायची नाहीत. मिळाली तरी पैसा देऊनही टिकायची नाही.
“तुला असं एकच महिना काम करायचं होतं तर तसं बोलला का नाहीस?आता या आठदहा दिवसाचा पगार तुला मिळणार नाही” ते रागावून म्हणाले
प्रदीप हसला
“काही हरकत नाही शेठजी”
शेठजींना आश्चर्य वाटलं.एक एक दिवसाच्या पगारासाठी भांडणारी,खाड्याचे पैसे कापले म्हणून वादविवाद घालणारी माणसं त्यांनी बघितली होती.या पोराने तर सहजगत्या त्यावर पाणी सोडलं होतं.नाहीतरी आजकालच्या तरुण पोरांना पैशाची किंमत असतेच कुठे!
नशिबाने शेठजींना दुसरा माणूस मिळाला.पण तो चार हजार पगारावर अडून बसला.शेवटी राजूशेठना त्याचं ऐकावं लागलं.येत्या सोमवारपासून तो कामावर येणार होता.