English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 177 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 177 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 177) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IMM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 177 ?

☆☆☆☆☆

अधूरी कहानी पर ख़ामोश

लबों का पहरा है,

चोट रूह की है इसलिए

दर्द ज़रा गहरा है….🌺

☆☆

Guarded are the silent lips,

On  the  incomplete story…

Wound  is  of  the soul, so

The pain is rather intense….

☆☆☆☆☆

अधूरी कहानी पर ख़ामोश

लबों का पहरा है,

चोट रूह की है इसलिए

दर्द ज़रा गहरा है….🌺

☆☆

Silent lips are the sentinels,

Of  the  unfulfilled fairytale…

Wound is of the spirited soul

So, the pain is rather intense….

☆☆☆☆☆

हंसते हुए चेहरों को गमों से

आजाद ना समझो साहिब,

मुस्कुराहट की पनाहों में भी

हजारों  दर्द  छुपे होते  हैं…🌺

☆☆

O’ Dear, Don’t even consider that 

Laughing faces are free of sorrow,

Thousands  of  pains are  hidden 

Even behind the walls of a smile…

☆☆☆☆☆

चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफर में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस  गुमराह  हो  गए…

☆☆

Was walking peacefully

In  the  journey of the life

Just casting a glance on you

Made my journey go astray

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 36 – “Game” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 36 ?

☆ – “Game” – ☆ Shri Ashish Mulay 

I have learnt to remain calm

but I am not silent

I have learnt to not talk

but I am making statement

with the experience comes the pain

but when goes the pain, wisdom is a gain

time has taught me

how the love fails

but moment has shown me

how the love gains

 *

despite the odds and injustice and battles

I have learnt to keep the heart alive

for life is a sea of uncertainty

where your ship gives a try

one beautiful evening

my ship will sink

and my heart will cease

but till then it shall beat

 *

that’s what being human is

to give always a try

Winning and loosing become illusions

as the game goes by

and what remains real

is the heart that gives a try…

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 299 ⇒ झोपड़ी और झुग्गी झोपड़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झोपड़ी और झुग्गी झोपड़ी।)

?अभी अभी # 299 ⇒ झोपड़ी और झुग्गी झोपड़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कलयुग में सतयुग उतर आया था, जब राम और कृष्ण की इस भूमि पर हर झोपड़ी के भाग जाग चुके थे, क्योंकि अयोध्या के प्रभु श्रीराम वहां पधार चुके थे।

आशाओं के दीप जल उठे थे, खूबसूरत सांझ ढल चुकी थी।

जब मन खुशियों से झूम उठता है, तो गरीब की झोपड़ी भी महल नजर आती है और अगर रब रूठे तो महलों में भी वीरानी छा जाती है। हमें पूर्ण विश्वास है कि हर भारतवासी के अच्छे दिन आ चुके हैं और हर झोपड़ी के भाग अब जाग चुके हैं, क्योंकि हमारे मन की अयोध्या में भी प्रभु श्रीराम पधार चुके हैं।।

आजकल महानगरों और स्मार्ट सिटी में कहां झोपड़ी नजर आती है। एक समय था, जब गांवों में भी कच्चे मकान होते थे, छत की जगह पतरे और कवेलू होते थे। अमीरों और रईसों के बड़े मकान होते थे, और गरीब की झोपड़ी हुआ करती थी। वैसे आज भी झोपड़ी अगर गरीबी का प्रतीक है तो महल और आलीशान बंगले अमीरी के। कुटिया तो कभी महात्माओं की हुआ करती थी, जिन्हें भी आजकल आश्रम कहा जाने लगा है।

जब से मेरे देश की धरती सोना उगलने लगी है, बड़े बड़े शहरों में तो किसान की झोपड़ी के भी भाग जाग गए हैं। हर महानगर में जहां भी पॉश कॉलोनी है, उसके आसपास आपको अवेध झुग्गी झोपड़ी भी नज़र आ ही जाएगी जिनमें आपको चौकीदार, मजदूर और कई ऐसे बेरोजगार लोग नजर आ जाएंगे जो काम की तलाश में अपना देश छोड़ शहरों में आ बसे हैं।।

अवैध बस्तियां गरीबों की तकदीर की तरह बनती बिगड़ती रहती हैं। गरीबी यहां से उठाकर वहां धर दी जाती है। कभी जिसे बुल डोजर कहते थे, आज वही जेसीबी कहलाती है। गरीबों की अवैध बस्तियों को वह उजाड़ती भी है और रईसों के नए मकानों की नींव भी वही खोदती है।

अगर झोपड़ी के भाग जगे हैं तो अवश्य झुग्गी झोपड़ी की भी तकदीर जागी होगी। गरीबों को मुफ्त राशन, मुफ्त इलाज और सस्ते मकान क्या किसी रामराज्य से कम है। अब जब अगर हर घर और हर झोपड़ी में प्रभु राम का भी आगमन हो चुका है, तो फिर इस बार किसी को आने से कौन रोक सकता है।।

वैसे भी आजकल गारंटी का जमाना है। जब नेताओं के वादे और आश्वासन, गारंटी की शक्ल ले ले, तो समझ लें रामराज्य आ गया। तैयार रहें इस नए भजन के लिए ;

मेरी झोपडी के भाग आज खुल आयेंगे, … आएंगे।

….. आएंगे, आएंगे, चार सौ सीट लाएंगे..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 176 ☆ गीत – समा गया तुम में ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – समा गया तुम में)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 176 ☆

☆ गीत – समा गया तुम में ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

समा गया है तुममें

यह विश्व सारा

भरम पाल तुमने

पसारा पसारा

*

जो आया, गया वह

बचा है न कोई

अजर कौन कहिये?

अमर है न कोई

जनम बीज ने ही

मरण बेल बोई

बनाया गया तुमसे

यह विश्व सारा

भरम पाल तुमने

पसारा पसारा

*

किसे, किस तरह, कब

कहाँ पकड़ फाँसे

यही सोच खुद को

दिये व्यर्थ झाँसे

सम्हाले तो पाया

नहीं शेष साँसें

तुम्हारी ही खातिर है

यह विश्व सारा

वहम पाल तुमने

पसारा पसारा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१७-२-२०१७

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गौरव मराठीचा… ☆ डॉ. मधुवंती कुलकर्णी ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गौरव मराठीचा… ☆ डॉ. मधुवंती कुलकर्णी ☆

महाराष्ट्राच्या मातीमधुनी जन्मते मराठी

मातपित्याच्या लाघवामधे पाझरे मराठी

*

पसायदानी दीपामध्ये तेवते मराठी

तुकयाच्याही गाथेमध्ये गातसे मराठी

*

म्हाइंभटांचे लीळाचरित्र पेरते मराठी

चक्रधरांच्या विचारांतुनी रूजते मराठी

*

जनाबाईंच्या जात्यामध्ये ओवते मराठी

मुक्ताईची ताटी उघडे अभंगी मराठी

*

आर्या मोरोपंत सांगती जनरीत मराठी

होनाजीच्या कवनामध्ये थिरकते मराठी

*

तुतारीत केशवसुतांच्या प्राण फुंकते मराठी

कुसुमाग्रजांच्या कण्यामधुनी लढविते मराठी

*

आण्णांच्या शाहिरीमधुनी स्फुरणते मराठी

पठ्ठे बापूराव कवनात जोशते मराठी

*

महानोरांच्या जोंधळ्यातले चांदणे मराठी

इंदिरेच्या काव्यातले बहरले ॠतू मराठी

*

शिवरायांच्या पोवड्यात  मर्दते मराठी

गदिमांच्या रामायणात दंगते मराठी

*

 विडंबनात अत्रेंच्या खळाळते मराठी

बालकवींच्या बागेमध्ये बागडे मराठी

*

खेबुडकरी लावणीत घुंगुरते मराठी

भटांच्याही गझलेत गुंजते मराठी

*

पु.लं.चा  जगप्रवास पेलते मराठी

शांताबाई कविता जपती संस्कार मराठी

*

चला जपूया आज वारसा जागवू मराठी

अभिमानाने मिरवूया जगी समृद्ध मराठी

© डॉ. मधुवंती कुलकर्णी

जि.सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “आमचं…आणि यांच…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “आमचं…आणि यांच…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

अर्थातच हे सगळ्या घरांच्या बाबतीत आहे. घरात माझं आणि तुझं असं  नसलं तरी आमचं आणि यांचं यातला फरक बऱ्याचदा बोलण्यात जाणवतो……

आमचं आणि यांचं सारखंच असलं तरी सुद्धा बोलतांना यांचं असतं ते विशेष, खास, त्यात विविधता, नाजूकपणा, कलाकुसर, रंग, डिझाईन, कलात्मक असं सगळं असतं. आणि आमचं मात्र असंच असतं…….. साधं……. सरळ…… सहज…

कपडे आणि दागिने या बाबतीत हे फार जाणवतं. म्हणजे आमचे ते कपडे. यातही शर्ट पॅन्ट, झब्बा लेंगा, फारफार तर सुट. पण यांच्या कपड्यांच्या बाबतीत बोलतांना सुध्दा कोणतीही सुट नसते……

यांची नुसती साडी नसते. तर त्यात शालू, पैठणी, कलकत्ता, सिल्क, महेश्वरी, कांजीवरम असं आणि बरंच काही असतं. परत यात सहावारी आणि नऊवारी असतंच. आणि ते तसंच म्हणावं लागतं. ऊतप्याला मसाला डोसा म्हटल्यावर, किंवा पुलाव ला खिचडी म्हटल्यावर जशा प्रतिक्रिया येतील, तशाच प्रतिक्रिया नऊवारी ला नुसती साडी म्हटल्यावर येऊ शकतात. घरात रोज नेसतो ती आणि तीच साडी. अर्थात रोज नेसली तर. आमचं मात्र घरात काय आणि बाहेर काय? शर्ट पॅन्ट च असतं.

मग आमच कापड अगदी रेमंड, विमल, सियाराम, किंवा कोणतही चांगल्या ब्रॅंडच असलं तरीही शर्ट आणि पँट….. किंवा झब्बा आणि लेंगा…….

यांच्या दागिन्यांचं तसंच…. आमची ती फक्त चेन. पण यांच कोल्हापूरी साज, मोहनमाळ, चपलाहार, नुसत्या मोत्यांची असली तरी ती माळ नाही. तर सर….. आणि परत याची सर काही औरच असते….

आम्ही आमच्या गळ्यातल्या चेन कडे चेन म्हणूनच पाहतो. पण यांच गळ्यातलं मंगळसूत्र पाहण्याचं सूत्र काही और असत. ते सुत्र काय? हे एक औरतच सांगू शकेल.

कानाला अडकवणारे आमच्यात कमीच असतात.  पण आमची ती फक्त भिकबाळी. कसं वाटतं नं हे. पण यांचे कानातले खड्यांचे, झुंबर, किंवा रिंग.

आम्ही पीटर इंग्लंड, काॅटनकिंग या सारखा चांगलं नांव असलेला शर्ट घातला तरी तो फक्त शर्टच. पण यांनी खड्यांच काही घातलं की ते मात्र अमेरिकन डायमंड. या दागिन्याला खड्यांचं असं म्हटलं तर काही वेळा खडे बोल ऐकावे लागतात.

आमच्या मनगटावर फक्त घड्याळ किंवा ब्रेसलेट. पण यांच्या मनगटावर काही चढवलं तर ते बांगड्या, पाटल्या, तोडे, कंगन असं वैशिष्ठ्य पूर्ण. परत हे मनगटावर चढवण्याचा यांचा क्रम सुध्दा यांनी ठरवलेला असाच……. यात मागे, मधे, पुढे असंच असतं. शाळेत कशी रांग आणि रांगेची शिस्त असते तसंच…….

आमच्या पोटावर पॅन्ट रहावी म्हणून आम्ही घालतो तो पट्टा. चामड्याचा किंवा कापडाचा. त्याकडे निरखून पाहिलं जाईलच असं नाही. बऱ्याचदा पुढे आलेल्या पोटामुळे तो झाकला जातो. पण यांच्या कमरेचा मात्र कंबरपट्टा तोही चांदी किंवा सोन्याचा. आमच्या पॅंटला अडकवलेलं कि चेन. पण यांचा मात्र छल्ला. मग त्यात किल्ली नसली तरी चालतं.

फुल, गजरा, आणि वेणी यात फरक असतो हे पण माझ्या लक्षात आलं आहे. आणि गजरा की वेणी यापैकी काय घ्यावं याचापण विचार होतो.

बरं हे फक्त कपडे आणि दागिने यांच्याच बाबतीत नाही. खास कार्यक्रमाआधी आमचे केस वाढले तर, कटिंग करा जरा. हेच वाक्य असत. वाक्य कितीवेळा म्हटलं यावर सुर वेगळा असू शकतो. पण यांचे केस नुसते व्यवस्थित करायचे तरी यांना पार्लर आणि त्यासाठी वेळ घ्यावा लागतो. किंवा ती बाई घरी येणार. आम्ही मात्र कटिंगच्या दुकानाबाहेर टाकलेल्या लाकडी बाकावर हातात मिळेल तो पेपर वाचायचा.

असं आमचं आणि यांचं………

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दीनु… ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ दीनु… ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

दिनुचा काही वेळ जात नव्हता. रोज आपलं सकाळी उठायचं.. बाहेर एक चक्कर मारुन यायचं.. येतांना बीडीचं बंडल घेऊन यायचं.. खायचं.. प्यायचं.. आणि बीडीचं ते बंडल संपवायचं. नातवाशी खेळायचं.. सुन पुढे ठेवील ते खायचं.. बस्स.. दुसरं आयुष्यच नव्हतं त्यांचं.

आयुष्यभर दिनुने सुतारकाम केलं. गावात एका जुन्या वाड्यात भाड्याच्या खोलीत तो रहात होता. आजुबाजुला सगळे जुने वाडे. कोणाकडे ना कोणाकडे काही तरी काम निघायचंच. आणि त्या वेळी हमखास आठवण यायची ती दिन्याची.

हो.. दिन्याच. त्याला कधी कोणी दिनकर म्हणून हाक मारलीच नाही. दिनकर नाही.. आणि दिनु पण नाही. तो सगळ्यांचा दिन्याच होता. कुणाकडे काही काम असो.. नसो.. दिनु आपला हत्यारांची पिशवी घेऊन.. तोंडात बीडी ठेवून सकाळी बाहेर पडणारच. गल्लीच्या कोपळऱ्यावर असणाऱ्या चहाच्या टपरीवर जाऊन उभा रहाणारच.

पण आता ते सगळं संपलं होतं. दिनुचा एकुलता एक मुलगा आता एका कंपनीत नोकरी करत होता. जुन्या वाड्यातली खोली कधीच सुटली होती. पोरानं गावाच्या बाहेर एक छोटंसं रो हाऊस घेतलं होतं. तळमजल्यावर बापासाठी एक सेपरेट रुमही होती. साठी उलटुन गेली होती. आता फक्त आराम.. आणि आराम. आणि तेच दिनुला नको झालं होतं. 

आज समोरच्या बाजुच्या एका रो हाऊस मधुन वेगवेगळे आवाज येत होते. हातोडीचे.. ड्रीलींगचे.. लाकुड कापण्याचे.. त्या आवाजांनी दिनुची तगमग वाढली. कपाटावर ठेवलेल्या हत्यारांच्या पिशवी कडे सारखी नजर जात होती.

काढावी.. का न काढावी.. अश्या विचारात असतानाच त्याने ती पिशवी खाली ओढलीच. ओढताना ती खाली पडली.. आणि धप्प असा आवाज झाला. त्या आवाजानेच बाहेर खेळणारा नातु आत आला. त्यानं पाहीले.. आपले आबा..‌ म्हणजे.. आजोबा त्या पिशवीतुन काही काही बाहेर काढताहेत.

त्यानं कधी ती हत्यारं पाहीलेलीच नव्हती. कुतुहलाने तो आपल्या आबांजवळ गेला. “आबा..काय आहे हे?”

दिनुला असा प्रश्न विचारणारं कोणीतरी हवंच होतं. त्याला आयताच चांगला श्रोता मिळाला. तो सांगु लागला.. “अरे ही पिशवी.. ही हत्यारं म्हणजे माझं सर्वस्व आहे. ही करवत.. हा रंधा.. ही हातोडी.. बघ.. बघ.. आता कशी गंजुन चाललीय. या हत्यारांना माझा घाम.. माझं रक्त लागलंय..”

दिनु बोलत होता.. आणि नातु ऐकत होता.. त्याला काही समजत होतं.. बरंचसं समजत नव्हतं.. दिसत होते फक्त आपल्या आबांचे पाण्यानं भरलेले डोळे.

“जा बरं.. एका वाटीत पाणी घेऊन ये..” दिनुनं असं सांगताच नातवानं एका वाटीत पाणी आणलं. दिनुच्या अंगात आता उत्साह संचारला. त्यानं धार लावायचा दगड पिशवीतुन काढला. मग पटाशी घेतली. दगडावर पाणी टाकुन तो पटाशीला धार करु लागला.

तल्लीन होऊन तो पटाशी घासत होता. नातु जरा वेळानं कंटाळून बाहेर निघून गेला. दिनु कितीतरी वेळ ते काम करत होता. आता त्या गंजलेल्या पटाशीचं रुप बदललं होतं. एकदम चकचकीत.. धारदार.. दिनुनं त्या पात्यावरुन हळुच बोट फिरवलं.. तर बोटातुन टचकन एक रक्ताचा थेंब आला. दिनुला त्यांचं काहीच वाटलं नाही.. वाटला असेल तो आनंदच.. मनासारखी धार झाल्याचा.

मग त्याच मुडमध्ये त्याने हातोडी घासली.. करवतीचे एक एक त्रिकोण घासले.. हत्यारं ठेवलेली ती ताडपत्रीची पिशवी रिकामी करुन झटकली. लाकडाचा भुसा.. बारीक तुकडे बाजुला काढले.. त्यातल्या चुका.. खिळे.. स्क्रु.. असंच काहीसं कामाचं असलेलं वेगळं काढलं.. पुन्हा पिशवी भरून ठेवली.

त्याच्या बापानं त्याला एक गोष्ट सांगितली होती.. काम असो.. नसो.. रोज हातोडी स्वच्छ करायची.. पटाशीला धार करून ठेवायची. ही हत्यारं म्हणजे आपली लक्ष्मी.. तिच्यावर गंज चढु द्यायचा नाही.. तिला स्वच्छ ठेव.. तुला काम मिळत राहील.

आणि या गोष्टीचं प्रत्यंतर इतक्या लवकरच येईल ही अपेक्षा दिनुनं केलीच नव्हती. दुपारी पिशवी काढली.. हत्यारांची साफसफाई केली.. आणि रात्री पोरांनं बापाला विचारलं.. “आबा.. ते आपल्या वाड्यात शिंदे रहायचे आठवतात का?”

“हा.. माहीत आहे ना.. आता ते शिंदे साहेब झालेत.. त्यांचं काय?”

“काही नाही.. त्यांच्या बंगल्यावर काही किरकोळ काम होतं. आज सहज भेट झाली.. तर विचारत होते.. दिनकर काम करतो का म्हणून.”

“मग? तु काय सांगितलं?”

“विचारतो म्हटलं. बऱ्याच वर्षात त्यांनी काम केलेलं नाही.‌. जायची इच्छा आहे का तुमची? होईल का काम तुमच्याकडून आता?”

“जाईन ना मी.. तेवढाच माझाही वेळ जाईल बघ.”

आणि मग दोन दिवसांनी दिनु शिंदे साहेबांच्या बंगल्यावर गेला. नवीनच बंगला होता, फर्निचर पण सगळं नवीनच होतं.. पण बरीच किरकोळ कामं बाकी होती. कुठे हुकस् लावायचे होते.. फ्रेम लावण्यासाठी काही खिळे ठोकायचे होते.. बरीच कामं होती. आणि या अश्या छोट्या कामांसाठी शिंदे साहेबांना कोणी माणूस मिळत नव्हता.

दिनुनं सगळी कामं अगदी मनापासून केली. कामात दिवस कसा गेला हेही त्याला कळलं नाही. संध्याकाळी कामं आटोपली. दिनुनं आपली सगळी हत्यारं गोळा केली.. पिशवीत भरली.. शिंदे साहेबांनी खुशीने त्याला त्याची मजुरी दिली.. चहापाणी झाला.. आणि दिनु बाहेर पडला.

शिंदे साहेबांचा बंगला तसा रोडपासुन बराच आत होता. ‌बरंच अंतर चालायचं होतं.. खिशातुन त्यानं बीडीचं बंडल काढलं. त्यातली एक बीडी ओठात धरुन त्यानं काडी लावली‌. एक खोलवर झुरका मारला. दिवसभराच्या कामानं आलेला शिणवटा थोडा कमी झाला.. हातात जड पिशवी होती. त्या पिशवीत असलेली करवत.. वाकस.. पटाशी.. अंबुर.. हे सगळे त्यांचे जीवाभावाचे सोबती. आजचा पुर्ण दिवस त्यांचा सोबत गेला होता.. 

खिळे ठोकतानाचा तो ठोक ठोक आवाज.. लाकुड कापताना अंगावर उडालेला भुसा.. पटाशीने उडवलेल्या ढलप्या.. या सगळ्यांनीच त्याला आपलं तरुणपण आठवलं होतं. पुर्वीसारखं.. पुर्वीइतकं काम आता आपण करु शकणार नाही हेही त्याला माहित होतं.. पण आजच्या कामामुळे त्याला एक गोष्ट लक्षात आली.. आपण अजुनही काम करु शकतो.. 

काम करुन दिनुचं शरीर जरुर थकलं होतं.. पण मन मात्र खुपच टवटवीत झालं होतं. संपत आलेलं बीडीचं थोटुक पायाखाली दाबत तो मोठ्या आनंदात घराच्या दिशेने निघाला.

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “मास्टरपीस” -लेखिका : सुश्री ज्योती रानडे ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

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☆ “मास्टरपीस” -लेखिका : सुश्री ज्योती रानडे ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

मी काही कामानिमित्त बॅास्टनला गेले होते. काम झाल्यावर जवळच्या एका मॅालमधे जेवायला गेले. तिथे दहा पंधरा प्रकारची वेगवेगळी रेस्टॅारंटस् होती. सगळे प्रकार बघून मी शाकाहारी असल्याने भारतीय जेवणच घ्यायचं ठरवलं. भात व पालक-दाल घेऊन तिथल्या टेबलावर बसले. आजूबाजूला अनेक भाषा, अनेक रंग, अनेक पेहराव, अनेक मूड असलेले सर्व वयाचे लोक होते. 

माझ्या टेबलाच्या अगदी शेजारच्या टेबलवर एक आई व दोन मुली बसल्या होत्या. आईने डोक्याला हिजाब गुंडाळला होता पण बारा आणि दहा वर्षाच्या मुलींनी हिजाब न घालता काळ्या केसांची एक वेणी घातली होती. त्या वेणीला वर आणि खाली चकचकीत फुलाचे रबरबॅंडस लावले होते. आईच्या कपड्यांवरून व भाषेवरून ते कुटुंब इराकचे असावे असे वाटत होते. त्या दोन मुलींनी काय पुण्य केले म्हणून त्यांची इराक मधून सुटका झाली असे वाटले. तिथे या मुली अन्यायाखाली दबून गेल्या असत्या. बायकांना अत्यंत कनिष्ठ दर्जा देणाऱ्या इराकमधे १८ व्या वर्षी त्यांचे लग्न उरकून त्यांच्यावर अत्याचार पण झाले असते. पिंजऱ्यातून सुटलेल्या पक्षासारख्या त्या तिथे बागडत होत्या. त्या आईच्या चेहऱ्यावर मात्र अत्याचार सहन केलेल्या अनेक रेषा दिसत होत्या. Nike कंपनीनं हल्ली हिजाब बनवून विकायला सुरूवात केली आहे म्हणून त्या आईने Nike चा हिजाब घातला होता. “आम्ही तुझ्याबरोबर आहोत” हे Nike सारख्या मोठ्या कंपनीनं सांगितल्या सारखे होतं ते! मला Nike कंपनीचे हिजाब बनवण्यासाठी मनापासून कौतुक वाटले.  

त्या पुढच्या टेबलावर एक भारतीय कुटुंब बसले होते.  त्यांचा १२ वर्षाच्या मुलगा कसाबसा चालत होता. त्याच्या डोळ्याला अत्यंत जाड चष्मा होता. वडील जेवण घेऊन आले पण ते मुलाशी फारसे बोलत नव्हते. आई मात्र कौतुकाने तिच्या लेकराशी गप्पा मारत त्याला भरवत होती. त्या मातृत्वापुढे माझी मान आदराने झुकली. काय काय सहन केलं असेल त्या माऊलीने! आपल्या बाळानं जगातलं सर्व यश मिळवावं हे चिंतणाऱ्या आईला आपला मुलगा आपल्या हाताने जेऊ शकत नाही..चालू शकत नाही हे पाहतांना काय यातना झाल्या असतील? ते दु:ख गिळून कोणाचीही पर्वा न करता ती आई लेकराला भरवताना बघून देवानं आई का निर्माण केली हे परत एकदा कळलं. 

त्याच्या शेजारच्या टेबलावर एक अमेरिकन कुटूंब बसलं होतं. त्यांनाही १३-१४ वर्षांचा मुलगा व ८-१० वर्षांची मुलगी होती. दोघं उंच व बाळसेदार होते. भरपूर खरेदी केल्याने बरोबर अनेक बॅगा होत्या. अत्यंत सुबत्तेत वाढणाऱ्या या मुलांना कसं कळेल की जगात लहानशी गोष्ट मिळावी म्हणून काहींना भगीरथ प्रयत्न करावे लागतात ते! पण तो त्यांचा दोष नाही. ते त्यांचं नशीब होतं. गदिमा नाही का म्हणाले..

घटाघटांचे रूप आगळे। प्रत्येकाचे दैव वेगळे..॥

मुखी कुणाच्या पडते लोणी कुणा मुखी अंगार ॥

चौथं टेबल होतं माझं ! भारतातल्या मिरजेसारख्या लहान गावातून अमेरिकेत आलेली मी भारतातच रहात असते तर कशी घडले असते? परक्या देशात येऊन इथले रितीरिवाज शिकून या देशांतल्या चांगल्या गोष्टी व भारतातल्या चांगल्या गोष्टी याची सांगड मला व माझ्या नवऱ्याला घालता आली का? मुलं आमच्या परीने आम्ही उत्तम वाढवली. त्यांचं कॅालेज, नोकरी, लग्न होऊन सेटल झालेलं बघताना खूप समाधान आहे पण काही करायचं राहिलं का हा प्रश्न मान वर करतोच! 

या विचारांच्या भोवऱ्यात मी खोलात जात असताना समोर एक गोष्ट घडली. इराकी मुलीचा बॅाल त्या भारतीय मुलाकडे गेला. त्याने तो पायाने ढकलला. पुढच्या वेळी तो बॅाल त्या अमेरिकन मुलाकडे गेला. त्याने तो झेलला व परत तिच्याकडे टाकला. धाकटीला तो झेलता आला नाही. त्याने तिला कसा झेलायचा दाखवले. “To me..” तो भारतीय मुलगा म्हणाला. त्याच्या पायातून तो बॅाल घरंगळत पलिकडे बसलेल्या कृष्णवर्णीय मुलीकडे गेला. तिने तो परत त्या मुलीकडे टाकला व त्यांचा खेळ सुरू झाला. ती मुलं एकमेकांकडे बॅाल टाकून खेळत असताना हळूहळू तुझं नाव, गाव, इयत्ता काय वगैरे देवाण घेवाण झाली. एका लहानशा बॅालने जात, धर्म, भाषा, देशाच्या सीमा ओलांडून मैत्री घडवून आणली जे भल्या भल्या राजकारण्यांना हजार वेळा भेटून जमत नाही. 

तेवढ्यात तिथे एक विदूषक आलेला बघून ही मुलं घाईने त्याच्याभोवती गोळा  होऊ लागली. इराकी मुलीनं भारतीय मुलाचा हात धरला व त्याच्या आईला विचारलं,” Can I take him to see the show?” आईने कौतुकाने हो म्हटलं. मुलाच्या डोळ्यात उत्साह मावत नव्हता. त्याने तिचा हात धरला व तो तिरकी पावलं कष्टाने पण उत्साहाने टाकत त्या विदूषकाजवळ गेला. त्याचे बाबा घाईने त्याला आधार द्यायला उठले पण आई म्हणाली, “Let him go!” तिचा मुलाला सुटा करण्याचा प्रयत्न बघून मी मनात टाळ्या वाजवल्या. 

विदूषक त्यांना डोळ्यात पाणी येईपर्यंत हसवत होता आणि ते वेगवेगळ्या संस्कृतीचं, रंगांचं, भाषांचं, देशांचे सुंदर चित्र निरोगी व अपंग या मर्यादा ओलांडून एक मास्टरपीस बनून माझ्यासमोर उभं होतं. माझ्या हातात जवळच्या Museum of Fine Arts ची तिकीटं होती पण तिथे काय दिसेल असं चित्र इथे बघताना अंगावर काटा आला.  

ते सुंदर चित्र माझ्या कॅमेऱ्यात पकडताना वाटलं..

पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके

बदलून 

पंछी, नदिया, बच्चे, और पवन के झोंके…

असं करावं. 

मुलांकडून मोठ्यांनी हे शिकायला हवं. सतत बॅार्डरवर युध्द करणाऱ्यांनी तर नक्कीच शिकलं पाहिजे ! मग ते भारत-पाकिस्तान असो, रशिया-युक्रेन असो नाहीतर इस्त्राईल-हमास असो..माणूसकी, दया आणि प्रेम यांनी बनवलेला बॅाल मोठे एकमेकांकडे का नाही टाकू शकत? त्यांना एकमेकांकडे बॅाम्बच का टाकावेसे वाटतात? 

जग मुलांकडे बघून मैत्रीचा हात पुढे करायला कधी शिकेल का?

लेखिका : ©® ज्योती रानडे

(खरी घडलेली घटना आहे. काल्पनिक नाही.) 

प्रस्तुती : सुश्री सुलू साबणे जोशी. 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मधुराधिपती !!! ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? इंद्रधनुष्य ?

मधुराधिपती !!! ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

मधमाशांनी फुलांच्या हृदयातून जणू अमृतच शोषलं आणि त्यांच्या जगण्यासाठी एकत्रित करून ठेवलं. मानवाला हा पदार्थ चाखायला मिळाला आणि त्याची चव त्याला क्षुधेच्या कल्लोळातही परमोच्च सुखाची अनुभूती देऊन गेली. या पदार्थाची गोडी शब्दाने वर्णन करणं खूप कठीण होतं. पण त्याला नाव तर दिलंच पाहिजे…मध !  हा मध म्हणजेच मधु…मूळच्या मेलिट शब्दापासून सुरूवात करून नंतर मेलिस आणि मेल आणि नंतर संस्कृतात मधु नाव प्राप्त झालेला पदार्थ. यापासून मधुर आणि माधुर्य शब्द ओघळले…मधाच्या पोळ्यातून गोडवा पाझरावा तसे ……  

गोडी केवळ जिभेलाच कळते असं नाही….गोडवा सबंध देहालाही तृप्तीचा अनुभव देऊ शकतो ! पण गोडवा, माधुर्य देणारा हा पदार्थ सर्वांगानं गोड असावा मात्र लागतो ! असं मधासारखं सर्वांगानं मधुर असणारं सबंध जगात कोण आहे? ……  

…. श्री वल्लभाचार्यांना श्रीकृष्ण तसे दिसले… मधासारखे …. नव्हे त्यांच्या आत्म्याच्या जिव्हेने श्रीकृष्ण भगवंताच्या सगुण साकार रुपाची गोडी अगदी सर्वांगानं भोगली…आणि त्यांचे शब्दही मधुर झाले !!!! 

आणि लेखणीतून उतरले एक सुंदर मधुराष्टकम् ……

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।

हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥

*

वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् ।

चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥

*

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ ।

नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥

*

गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।

रुपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥

*

रणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् ।

वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥५॥

*

गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा ।

सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥६॥

*

गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।

दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥७॥

*

गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।

दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥८॥

*

इति श्रीमद्वल्लभाचार्यकृतं मधुराष्टकं सम्पूर्णम् ।

…… सगुण भक्तीचा गोडवा हाच की आपल्याला देह देणा-या देवाचा देह त्याला गोड भासतो…देवाच्या प्रत्येक कृतीत असणारा  माधुर्याचा दरवळ त्याला भावविभोर करतो. 

ज्याचं वर्णन करू पाहतो आहे ते स्वत:च माधुर्याचे जन्मदाते…निर्माते…स्वामी अर्थात अधिपती आहेत…मधुराधिपती ! 

ओठ ! .. कमळाच्या दोन पाकळ्या एकमेकींपासून विलग होण्यापूर्वी जशा एकमेकींवर अलगद स्थिरावलेल्या असतात ना अगदी तसेच ओठ…मधुर ! हे ओठ जेंव्हा त्या बासरीवर विसावतात ना तेंव्हा त्यातून निघणारा उच्छवासाचा हुंकार अतिगोड…कानांना पुरतं तृप्त करून पुढे शरीरभर पसरत जाणारा. .. …. आणि हे ओठ ज्या मुखकमलावर विराजमान आहेत ते मुख तर मधुर आहेच….किती गोडवा आहे त्या सबंध मुखावर ! …. आणि या मुखावरचे ते दोन नेत्रद्वय….मधुर आहेत…अपार माया स्रवणारे…पाहणा-याच्या डोळ्यांत नवी सृष्टी जागवणारे. सगळंच मधुरच आहे की माझ्या या देवाचं ! 

आणि ओठ,डोळे एकमेकांच्या हातात हात घालून त्या मुखावर ज्याची गोड पखरण करतात ते हास्य तर माधुर्याची परिसीमाच ! 

मग हृदय ते कसं असेल….मधुरच असणार ना? देवकीच्या गर्भात आकाराला आलेल्या आणि यशोदा नावाच्या प्रेमाच्या झाडाखाली वयाचा उंबरठा ओलांडून वाढत असलेल्या या कृष्णदेहातलं हृदय तर जणू मधाचं पोळं..गाभाच मधुर !   

या माधवाचं ..  या मधुसूदनाचं चालणं आणि त्या चालण्याची गती किती गोड आहे…या गतीमध्ये एक मार्दव भरून उरलं आहे…त्याच्या चरणांखालची माती कस्तुरीचं लेणं लेऊन मंद घमघमत असावी….भक्त हीच माती कपाळी रेखातात ती काय विनाकारण? 

मधुर ओठांतून शब्दांच्या मोगरकळ्या वातावरणात अवतरतात त्या अर्थातच गोडव्याची शाल पांघरून.. . देवाचं चरित्र तर काय वर्णावं…भगवंतांच्या जगण्यातला एकेक क्षण मधुर चरित्र आणि चारित्र्याचं मुर्तिमंत दर्शन… त्यांनी देहावर पांघरलेल्या वस्त्रातील धागे किती दैववान असतील. त्या धाग्यांनी त्या पीतरंगी वस्त्राला..पीतांबराला जणू गोडव्यात न्हाऊ घातलं आहे. 

भगवंतांनी कोणतीही हालचाल केली तरी ती गोडच भासते, त्यांचं चालणं आणि पावलं उमटवीत विहार करणं मधुर आहे. स्वरांच्या आवर्तनात स्वत:च गुरफटून जाणारी बांसुरी मधुर असण्यात आश्चर्य ते काय? 

…. देवाचे पाय पाहिलेत? त्यांवर कपाळ टेकवताना जवळून पहा…गोड आहेत. आणि हात? हा गोड हात आपल्या मस्तकावर असावा असं स्वप्न असतं साधकांचं…गोड आशीर्वाद देण्यासाठी उभारलेले ते हात…मधुर आहेत. 

श्रीकृष्ण नर्तन करतात तेंव्हा धरा मोहरून जाते …  त्या नर्तनातील तालावर गोडपणा डोलत असतो. या देवाशी जन्मजन्मांतरीचं नातं जोडलं तर…तो आपला सखा झाला तर….ते सख्य अतिमधुर ठरतं.

देवकीनंदनाच्या गळ्यातून उमटणारे सूर अतिशय तृप्त करणारे आहेत..मधुर आहेत….त्यांचं पेय प्राशन करणं, खाद्य ग्रहण करणं मधुर…जगाच्या दृष्टीनं निद्रेच्या मांडीवर मस्तक ठेवून डोळे अलगद मिटून घेणं गोड आहे…म्हणूनच त्याचं रूप असलेली आणि गाढ झोपी गेलेली बालकं गोड दिसतात…देवाची निद्रा मधुरच भासते. 

कान्होबाचं रूप अलौकिक गोड, त्यांच्या कपाळी असलेला तिलकही गोड दिसतो. देवानं काहीही करू देत ते मधुरच असते…त्यांचा जलविहार,त्यांचं तुमचं चित्त हरण करणं, त्याचं भक्ताचं दु:ख,दोष,पाप दूर करणं याला तर मधुरतेची सीमा म्हणावं. 

हरीचं स्मरण करावं म्हणतात…एकदा का या स्मरणाची गोडी लागली की ती सुटत नाही. त्यांच्या बोलण्यात माधुर्य आहेच पण ते जेंव्हा मौन धारण करतात ते मौन कोरडं नसतं वाळवंटासारखं…मधुबनासारखं गोड असतं….ही मौनातील मधुर शांतता आत्म्याला लाभते.

ज्याने हे जग सुंदर केलं त्याच्या गळ्यात शोभायला अनेक अलंकार आतुरलेलं असतात…पण गोपगड्यांनी आणून दिलेल्या गुंजाच्या बियांची माला आणि अर्थातच त्या गुंजा गोड दिसतात नजरेला. 

जिच्या काठावर मुकुंद बागडतात…जिच्या अंतरंगात शिरून जलक्रीडा करतात ती यमुना तरी माधुर्यात कशी मागे राहील? तिच्यात उठणारे तरंग, तिचं जल मधुरच ! गोकुळातल्या सरोवरांमध्ये फुलणारी कमळं मधुर आहेत…श्रोते हो ! बालकृष्णाच्या सावलीसारखं वावरणा-या गोपी त्याच्यासारख्याच की. 

या कृष्णसखयाचं सारं आयुष्य अगाध लीलांनी भरलेलं आणि भारलेलं आहे…गोड आहे. त्याच्याशी झालेला आत्मिक संयोग,सात्विक भोग हे भौतिक, शारीर चवीचे कसे बरे असतील?….या सर्वाला माधुर्याचा स्पर्श असतोच. या देवाचं जगाकडे बारकाईनं पाहणं आणि त्याचा शिष्टाचार अतिशय संयत आणि गोड !  

कृष्णाला ‘ क्लिशना ‘ अशी बोबडी पण गोड हाक मारणारा पेंद्या आणि त्याच्यासोबतचे सारे गोपगण म्हणजे गोडव्याच्या झाडाला लगडलेली गोड फळंच जणू. ज्यांना प्रत्यक्ष कृष्णपरमात्म्याच्या पाव्यातून त्याच्या 

‘चला, परत फिरा गोकुळकडे ’ या हाका ऐकू आल्या त्या कपिला सुद्धा गोडच आहेत. देवाला गायींना सांभाळण्यासाठी कधी काठीचा आधार नाही घ्यावा लागला…पण ही छडी गोड आहे…अगदी हिचा प्रसाद घ्यावा एवढी ! 

यानं निर्माण केलेली एकूण सृष्टीच मधुर आहे. देव आणि आपण वेगळे आहोत ही भावना म्हणजे प्रथमदर्शनी द्वैतसुद्धा मधुर आणि भगवंत भक्तांच्या हाती सोपवतात ती प्रेमफलं मधुर आहेत. एखाद्या अनुचित कर्माचं फल म्हणून दिलेला दंडही मधुरच असतो अंती. या देवाचं आपल्यासारख्या पामरांना लाभणं तर माधुर्याचा गाभाच…हे लाभणं केवळ गोड नसतं…आपण अंतर्बाह्य मधुर होऊन जातो ! सर्वांगसुंदर….तसं सर्वांगमधुर ! जय श्रीकृष्ण ! 

वल्लभाचार्यांचं मन किती गोड असेल नाही ! शब्द इतके गोड असू शकतात ! मूळ संस्कृतात असलेले हे शब्द सर्वांना समजण्यासारखे आहेत. पण अनुराधा पौडवाल यांनी गायलेलं हे मधुराष्टक कान देऊन ऐकलं ना की श्रवणेंद्रियांचं श्रवण मधुर होऊन जातं…गाण्यातील बासरी खूप अर्थपूर्ण भासते…आणि आपण गाऊ लागतो…. ‘ मधुराधिपतेरखिलं मधुरं..’  हे माधुर्याच्या जन्मदात्या….तुझं सारंच किती मधुर आहे रे ! 

…. .. या शब्दांतील गोडवा तुम्हांलाही भावला तर किती गोड होईल ! शब्द वल्लभाचार्यांचे आहेत…त्यांचा अर्थ लावण्याचं धारिष्ट्य करावं असं वाटलं…गोड मानून घ्यावे. 

© संभाजी बबन गायके

पुणे

मो 9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ क्षण प्रेमाचा…… – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? वाचताना वेचलेले ?

क्षण प्रेमाचा लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

एक क्षण पुरेसा आहे,कोणाचं आयुष्य बदलून टाकायला. एखाद्या रस्त्यावरच्या भुभू च्या अंगावरून प्रेमाने,मायेने हात फिरवा…त्याचं प्रेम ते भुभु नक्की व्यक्त करेल.

झाडं,पानं,फुलं सगळ्यांना प्रेमाची भाषा व्यवस्थित समजते. मोकळ्या वातावरणात,मुक्तपणे वाढणारी झाडं आणि फुलं अधिक सुंदर, तेजस्वी भासतात…त्यांना वाढायला पूर्ण मोकळेपणा असतो.कोणाचं बंधन नसतं..निसर्गाचं चक्र त्यांना अधिक तेजस्वी,अधिक बलवान बनवतं.निसर्गाचं प्रेमचं आहे तसं…हे ऋतुचक्र तसचं तर ठरवल गेलं आहे की.

खायला अन्न,प्यायला पाणी, सूर्यप्रकाश,सुखावणारा वारा, पक्षांचं गोड कुजन,फुलांचे वेगवेगळे आकार आणि सुगंध, गवताची…पानांची…वेलींची घनदाट सुखद अशी हिरवाई, पाण्याचं फेसळण…कड्या वरून झेप घेणं..किनाऱ्यावर नक्षी काढणं…एखाद्या लहानग्याप्रमाणे खिदळत, अवखळपणाने पुढचं मार्गक्रमण करणं…

…असं आणि किती अगणित रुपात निसर्ग आपल प्रेम व्यक्त करत असतो.

सगळ्या संतांनी पण सांगून ठेवलं आहे…भगवंत प्रेमाचा भुकेला आहे…त्याला मोठे समारंभ नकोत,फुलांची आरास नको, उदबत्यांचा गुच्छ नको,अवडंबर नकोच…एक क्षण त्याला द्यावा, ज्यात फक्त त्याची आठवण…त्याचेच विचार असतील. खूप मिळतंय आपल्याला…एक क्षण पुरे आहे ते सगळ अनुभवण्याचा आणि व्यक्त होऊन देण्याचा.

तुमचा पैसा,शिक्षण,बुद्धिमत्ता प्रदर्शन कोणाला नको असतो…एक क्षण द्या तुमच्या प्रेमाचा…एक हसू, एखादा संदेश, एखादी मदतीची कृती…व्यक्त होण्याची पद्धत वेगवेगळी…पण माझ्या पद्धतीने झालं नाही तर ते कसल व्यक्त होणं…अस नसत हो.ही निसर्गाची, भगवंताची ….प्रेमाची हाक त्यांच्याच पद्धतीने होत असते…ती ऐकून घेण्याची संवेदनशीलता आपल्यात शोधून वाढवायला हवी.

आपल्यातील हे प्रेम वाढवायला हवं…भगवंताची देणगी आहे ही.!

हे आपल्यातलं प्रेम वाढलं ना…भगवंताबद्दल, निसर्गाबद्दल…जी प्रत्येक आत्म्याची गरज आहे…की आपण नक्की बदलायला लागू…स्वतःबरोबर इतरांना समजून घ्यायला सुरुवात करू, अहंकार मुक्त होऊ,स्वच्छ सात्विक होऊ,प्रेम मय,आनंदमय होऊ…या जगाला त्याची खूप गरज आहे

आपल्याबरोबर…

फक्त रोज एक क्षण हवा.

लेखक : अज्ञात

संग्रहिका : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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