हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 275 ☆ आलेख – शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 275 ☆

? आलेख – शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती ?

हाँ हाँ अभिमन्यु की माँ सुभद्रा की सम धर्मिणी हूं मैं विद्यावती ! हाँ मैं सम गामिनी हूं रानी लक्ष्मीबाई की माँ की, तात्याटोपे की माँ की, नाना साहेब की माँ की, मंगल पांडे की माँ की उन जाने अनजाने वीर राजपूतो, योद्धाओ की माताओं की जो युगो युगो से देश की माटी के लिये आक्रांताओ से लड़ते अपने बेटों की शहादत की राह में कभी रोड़ा नहीं बनीं. मैं उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हूं जहाँ भाषा, नदियाँ, देश, गाय, तुलसी जैसे पौधे, मंदिरो में विराजित देवी सबको माँ निरूपित किया गया है. माँ निहित स्वार्थो से परे व्यापक कल्याणी होती है. सृष्टि के बाद कोई अन्य यदि सृजन की क्षमता रखता है तो वह केवल माँ है. मुझे गर्व है अपने माँ होने पर, अमर शहीद भगत सिंह की माँ होने का मतलब है, बेटे की शहादत की अनुगूंज से राष्ट्र कल्याण.

देश के लिये कुर्बानी देने वालो के प्रति श्रद्धा और सम्मान  तो बहुत होता है. देश कुर्बानी मांगता है. राष्ट्रध्वज में लिपटे, गौरव गाथायें कहते, शौर्य कथायें समेटे वीर युगो से शहीद होते रहे हैं. वीर रण बांकुंरे किसी न किसी प्रयोजन, किसी आदर्श पर कुर्बान होते हैं. शहीदो को देर सबेर तमगों से सम्मानित करती रही है सत्तायें. क्या सचमुच शहीद के परिवार को उसके  घर के मुखिया या बेटे की मृत्यु से वरण पर कुछ आर्थिक लाभ देकर  देश, सरकार या समाज शहादत के ॠण से मुक्त हो सकता है ?
शहीदों की चिता के शोले समय के साथ ठंडे होने लगते हैं. शहीद जीवनियां बनकर सजिल्द किताबों में समा जाते हैं. फिर कुछ वर्षो में किताबो पर भी धूल जमा होने लगती है. इतिहास बनाने वाले शहीद स्वयं ही इतिहास में तब्दील हो जाते हैं. यदि कौम सक्षम होती है तो शहीद की शहादत को किसी स्मारक में संजो कर याद करती है. शहादत स्थल राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाता है. शहीद की जन्म तिथि व पुण्य तिथि पर समारोह होते हैं. नई पीढ़ी को शहीद की वीरता के किस्से, पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ाये जाते हैं. शहीद होने वाले कथाओं में नायक बन कर राष्ट्रभक्ति के भाषणो में, अमर हो जाते हैं . शहीदों पर फिल्में बनती हैं, देश भक्ति के गीत लिखे जाते हैं. नई पीढ़ी के बच्चे सूरज की नई किरण के साथ प्रभात फेरियों में शहीद की जय जय कार के नारे लगाते हैं. पर फिर भी अधिकांश यही सोचते हैं, देश के लिये शहीद हों तो, पर मेरे घर से नहीं हाँ मुझे आप पन्ना धाय भी कह सकते हैं. मैने खुद अपने बेटे को शहादत का पाठ पढ़ने दिया. मैं चाहती तो नन्हें भगत को तब ही रोक सकती थी जब उसने घर की क्यारी में जुल्मी अंग्रेजो से लड़ने के लिये, खिलौने की पिस्तौल बीजो की तरह बोई थी जिससे वह क्रांति के लिये हथियार उपजा सके. मैं चाहती तो तब ही उसे रोक सकती थी जब वह दुनियां भर की क्रांति की किताबें पढ़ता था और जुल्मी साम्राज्यवाद से लड़ने की बातें करता था. मैं चाहती तो जबरदस्ती भगत की शादी करवा देती और उसके जीवन के लक्ष्य बदल देती पर इसके लिये  मुझे अपने ही बेटे से प्रतिद्वंदिता करनी पड़ती. मैं भला कैसे सह सकती थी मेरा बेटा आजीवन अपने आपसे ही लड़ता रहे, छटपटाता रहे. सब कुछ कैसा निस्तब्ध था ! कितना व्याकुल था ! हम दोनो माँ बेटे बिना एक शब्द एक दूसरे से कहे कितनी बातें करते रहे थे रात भर. मैंने उसे अपने आगोश में भर लिया था और फिर जो उसे पाश मुक्त किया तो वह सीधा भारत माँ की गोद में जा बैठा, अपने  क्रांतिकारी भाईयों के संग.

मैं तो उस वीर शहीद भगतसिंह की माँ हूँ, जिसने युवाओ में क्रांति के बीज बोये वह भी तब, जब भारत माँ की धरती पर शोषण की फसलें पक रही थी. सर्वहारा बेसहारा खण्ड खण्ड था. मेरे बेटे ने नारा दिया मजदूरो एक हो ! मेरे बेटे ने नारा दिया इंकलाब जिंदाबाद ! मेरे भगत ने यह सब किया बिना किसी अपेक्षा के. बिना किसी प्रतिसाद की कामना के. जानते हैं  मुझे उससे शहादत की सुबह मिलने तक न दिया गया, क्योकि जुल्मी सरकार मेरे बेटे की ताकत पहचान गई थी. मेरे बेटे ने जो नारा लगाया था कैद खाने से, फांसी के फंदे पर चढ़ने से पहले “इंकलाब जिंदाबाद” उसकी अनुगूंज सारे हिंदुस्तान में हो रही है. लगातार बार बार “इंकलाब जिंदाबाद”, इंकलाब जिंदाबाद !

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 188 – प्रतिस्पर्धा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “प्रतिस्पर्धा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 188 ☆

🌻 लघुकथा 🌻प्रतिस्पर्धा 🌻

आज के इस भाग दौड़ की जिंदगी में हर जगह प्रतिस्पर्धा की होड़ लगी है। जिसे देखो केवल दिखावा, ऊपरी मुखौटा लगाए हुए चारों तरफ घूम रहा है।

मकान, समान, दुकान, पकवान, पढ़ाई, लिखाई, घर, बंगला, गाड़ी, नेता- अभिनेता, कमाई, ऐश्वर्या, आराम आदि – – – यहाँ तक कि यदि पारिवारिक जीवन का तालमेल भी प्रतिस्पर्धा में टिका हुआ है।

घूम रही है सारी सृष्टि प्रतिस्पर्धा के इस चक्र में। किसी में कोई व्यक्तिगत योग्यता है तो सारा समाज टूट पड़ता है कि कैसे उसे नीचे किया जाए।

अपने को ऊपर उठाने की बजाय उसके कमियों को कुरेदने और निकालने लग जाते हैं। अपना रुतबा मान सम्मान  उससे ज्यादा करके दिखाएं – – इस प्रतिस्पर्धा की दौड़ में वह इस कदर गिर जाता है कि आज के संस्कार भी भूल जाता है कि जीवन में क्या लेना और क्या देना है।

सिर्फ वही एक काम आएगा जो उसका  अपना व्यक्तिगत होगा। ऑफिस में बाबू का काम करते-करते जीवन यापन करते सुंदरलाल और उसकी धर्मपत्नी अपने तीनों पुत्रियों का लालन-पालन बहुत ही सीधे – साधे ढंग से किया। उनकी हर जरूरत का सामान, उनकी आवश्यकता अनुसार ही लेकर देना। माँ भी उन्हें घर गृहस्थी से लेकर जीवन की सच्चाई का बोध कराते संस्कार देते चली थी।

बचपन में मोहल्ले में तानाकशी और सब जगह  यही सुनाई देने वाली बात होती कि अब तीन लड़कियां हैं बेचारी क्या करें?

किसी एक को ही अच्छा बना लेगी तो बहुत बड़ी बात है। सुनते-सुनते बच्चियाँ समझौता करते-करते कब बड़ी होकर अपनी-अपनी योग्यता का परचम लहराने लगी किसी को पता ही नहीं चला।

डाॅक्टर, इंजीनियर और स्कूल शिक्षिका। विद्या, धन और निर्भयता की देवी, आज तीनों बच्चियाँ अपने मम्मी- पापा का नाम शहर में रोशन कर रही थी।

उन्होंने मम्मी – पापा के साथ शहर में एक ऐसी संस्था का निर्माण किया। जिसमें कोई भी, किसी भी समाज की बेटी आकर शिक्षा ग्रहण कर सकती है।

एक वर्ष तक तो सभी ने उनका इतना मजाक बनाया कि बेटियाँ और कर भी क्या सकती है। परंतु आज पूरे न्यूज पेपर, टीवी न्यूज़ चैनलों में खबर फैला हुआ था कि इस शहर से तीन  बेटियाँ जिन्होंने सारा जीवन अपना उन बेटी बच्चियों को समर्पित किया… जो कुछ बनकर इस देश की सेवा इस गाँव  की सेवा और अपने आसपास की सेवा करना चाहती हैं। उन्हें सभी प्रकार की सहायता और सुविधा प्रदान की जाएगी।

समाचार लगते ही नेता, व्यापारी संगठन, समाज, संस्था सभी अपना- अपना बैनर पोस्टर लेकर उनके घर के सामने फूल माला गुलदस्ते सहित खड़े थे।

प्रतिस्पर्धा की होड़ में वह यह भी भूल गए थे की.. कभी किसी ने उन्हें उन बेटियों के मान- सम्मान में ठेस पहुंचाई है। जय माता के नारों, बेटी ही शक्ति है, से पूरा मोहल्ला गूँज रहा था। और कह रहे थे बेटियाँ किसी से कम थोड़े होती है।

बेटियाँ सब कुछ कर सकती हैं। सभी अपनी-अपनी सुनने में लगे थे। प्रतिस्पर्धा किस में नहीं होती यह बात उन तीन बेटियों को अच्छी तरह मालूम था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 79 – देश-परदेश – आप कैमरे👁️ की नज़र में हैं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 79 ☆ देश-परदेश – आप कैमरे👁️ की नज़र में हैं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस प्रकार की चेतावनी सार्वजनिक स्थानों के अलावा निज़ी घरों के बाहर भी पढ़ने को मिल ही जाती है।

कुछ दिन पूर्व किसी महानगर के यातायात पुलिस ने एक महिला को स्कूटर नियमों के उल्लंघन पर एक लाख छत्तीस हज़ार रूपे जुर्माने के साथ सी सी टीवी कैमरे की दो लाख से अधिक क्लिपिंग्स भी भेज दी हैं। ये तो वो ही बात हो गई, होटल में खाया पिया कुछ नहीं, और ग्लास तोड़ा बारह आने। जितने का स्कूटर नहीं, उससे अधिक तो जुर्माना हो गया।

सीसी टीवी कैमरा लगवाने के खर्च में कटौती हो जाने के कारण इसका चलन भी बढ़ गया हैं। कुछ दिन पूर्व एक मित्र को बाज़ार में दूर से देख लिया, परंतु संपर्क नहीं हो सका था। दूसरे दिन उनको दूरभाष से सूचित किया की फलां फलां समय पर आपके घर आए थे, ताला लगा हुआ था। मित्र तुरंत लपक कर बोले, हम बाज़ार गए हुए थे, और वापस आकर सीसी टीवी कैमरा भी खंगाला था। आगंतुकों में आपका चेहरा तो नहीं दिखा। झूठ बोलकर हम फंस गए, क्योंकि कैमरा झूठ नहीं बोलता।

विगत माह एक मित्र के परिवार में विवाह के बाद वो शेष बच गई मिठाई” सोनपापड़ी” का डिब्बा लेकर हमारे घर आए थे। हमने उनसे अपनी शुगर की बीमारी का हवाला देकर मिठाई को सम्मान सहित अस्वीकार कर दिया। हमारी घनिष्ठ मित्रता बचपन से है, उन्होंने हमारी बात का मान रखते हुए धीरे से बताया, कि उनके यहां रात्रि भोज में मेरे खाने की प्लेट में दो गुलाब जामुन और गाजर के हलवे को विवाह की वीडियो में देखा जा सकता हैं। श्रीमतीजी ने भी ये बात सुन ली, और तब से हमारे खाने पीने पर अपनी नज़रों की चौकसी और पुख्ता कर दी है।

हम सब को घर से बाहर हमेशा चौकस और सावधान रहने की आवश्यकता है। अनेक जगह कैमरे तो लगे रहते है, पर उस बाबत कोई सूचना नहीं लिखी मिलती है। इसी प्रकार से कुछ स्थानों पर कैमरे तो लगे हुए है, परंतु काम नहीं करते है। हमारा काम था, आपको सचेत करना, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #233 ☆ मोगलाई… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 233 ?

☆ मोगलाई ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दार उघडाया आता घाबरते चिऊताई

कावळ्याच्या रुपामध्ये नराधम दिसे बाई

*

रात्र झाली खूप होती झोपत का पिल्लू नाही

चिऊताई पिल्लासाठी गात होती गं अंगाई

*

पडताच अंगावर सूर्य किरणं कोवळी

झटकून आळसाला फुलल्या या जाई जुई

*

पाखरांची चिव चिव उठताच ही सकाळी

चारा शोधण्याच्यासाठी झाली साऱ्यांचीच घाई

*

तुला पाहताच घास बाळ आनंदाने खाई

साऱ्या बालंकांची तेव्हा असतेस तू गं ताई

*

चिमण्या ह्या गेल्या कुठे दिसायच्या ठायी ठायी

अचानक आली कशी त्यांच्यासाठी मोगलाई

*

नातं भावाचं पवित्र सांगा निभवावं कसं

आता तर गुंडालाही म्हणू लागलेत भाई

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चैत्र… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ चैत्र ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

रेशमाचे क्षण

चैत्रसुखी मन

पालवीचे धन

कोकिळेचे गान.

*

भारद्वाज शुभ

उन्हातच वारा

उकाड्यात गार

वसंताचा तोरा.

*

आम्रतरु लिंब

धरेचा उसासा

दिमाखात चैत्र

मानवी दिलासा.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गुढी-पाडवा… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

गुढी-पाडवा… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

गुढी उभारु मांगल्याची

अस्मितेची,चैतन्याची

ज्ञानाची नि प्रगतीची

सहकार्याची,प्रेमाची ||१||

*

प्रतिष्ठेची,सन्मानाची

राष्ट्राला  उद्धरण्याची

बंधुभावा जपण्याची

समतेची, मित्रत्वाची||२||

*

अपुर्णातुनी पूर्णत्वाची

करुणेची ,कोमलतेची

निष्ठेची नि पावित्र्याची. 

गगनाला भिडण्याची ||३|

*

सजण्याची,सौंदर्याची

हर्षभरे नटण्याची

पुष्पांची नि सुपर्णांची

गंधित ही सुमनांची ||४||

*

चैत्रातील आमोदाची

पल्लवांची नि गंधांची

आकांक्षांची,उत्साहाची

अशी गुढी उत्कर्षाची ||५||

© सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी

हैदराबाद.

भ्र.९५५२४४८४६१

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चैत्र… ☆ डाॅ.व्यंकटेश जंबगी ☆

डाॅ. व्यंकटेश जंबगी

?  विविधा ?

☆ चैत्र… ☆ डाॅ.व्यंकटेश जंबगी ☆

वसंत, किती वसंत येऊन गेले जीवनात रमून जातो आपण आठवणीत किती सांगू माझ्या वसंताचे ऋण फुलवितो जीवन मोगर्यासमान आठवती बालपणीची गाणी….

“सुखावतो मधुमास हा…”

“आला वसंत येथे मज ठाऊकेच नाही…”

“आला वसंत ऋतू आला….”

“कुहू कुहू बोले कोयलिया….”

“कोयलिया बोले अंबुवा डालपर ऋतू बसंतकी देत संदेसवा..”

वसंत, कोकिळ,आम्र आणि उन्हाळ्याची सुट्टी यांचं नातं आंब्यासारखं…आभ्यासाच्या साली काढून सुट्टीच्या गराचा आस्वाद घ्यायचा.. नव्या वर्गात जाण्यासाठी कोय पेरायची….

आठवतात का…..

काचाकवड्या,कैरम,गोट्या,पत्ते पोहणे.. सायकलवर काम फत्ते.

आमच्या चकार्या ज्येष्ठांच्या चकाट्या..पिट पिट पिटायच्या.

आठवतात का ते दिवस….

मामा,काका, मावशी, आत्या त्येकाची मुलं पाच…

भल्या मोठ्या मामाच्या वाड्यात फक्त धुडगूस आणि नाच….

आठवतात का, गाण्याच्या भेंड्या  सारे आजोबा उडवायचे शेंड्या..

आठवतात का फणस, त्याच्या भाजलेल्या बीया, चुलीत हात घालून बाहेर सुखरूप काढणार्या आजीची किमया.

आठवतात का, मोठे झालो.. किती वसंत जीवनात आले ? 

वसंतराव देशपांडे,वसंत देसाई, एकाचे गाणे एकाची सनई वपुतल्या वसंताने किमया केल्या आजी स्टाईलने कथा सांगितल्या.

वसंत बापटांच्या कविता अजून रेंगाळतात मनाच्या कोपऱ्यातून चांदोबा चंपक साथ सोडून गेले मोबाईलची “साथ” लावून गेले.

सगळे “वसंत” वाचनालयी राहिले गुपचुप कपाटात नंबराने थांबले.

आजी झाली कार्टून,काका झाले यूट्यूब, आजोबा झाले गुगल मामा आत्याची दांडी गुल.

असाच परवा  “वसंत” भेटला.

“ओळखलस का ?” म्हणाला.

मी बालपणात घेऊन गेलो त्याला गळ्यात पडून ढसढसा रडला.  मी म्हणालो “झालं काय?”

म्हणतो,”अजून शिशीरच आहे रे.

मामाचा वाडा ओस आहे.

आंब्याचे झाड उदास आहे.

कैर्यांच्या फोडी भेळेत खातात, माझ्या कैर्या तशाच राहतात.

आता मी “वसंत”नाही “समर”

आहे, फक्त पंचांगापुरता अमर आहे.कोकिळ गात नाही आता फक्त रडतो आहे,पंचम आता वाद्यांच्या गोंगाटात लुप्त आहे.”

माझेही डोळे पाणावले,म्हणालो “वसंता,जरा धीर धर.तुझ्याही जीवनात “वसंत”येईल..!”

“खरच?”डोळे पुसत वसंत म्हणाला..मी म्हणालो,”हां,हां शिशीर आया है,तो वसंतके आनेमें देर कहां?”

वसंत तोच आहे,सृष्टी बदलत नाही,माणसाची द्रुष्टी बदलते त्याला इलाज नाही!

© डॉ. व्यंकटेश जंबगी

एफ-३, कौशल अपार्टमेंट, श्रीरामनगर, ५ वी गल्ली, सांगली – ४१६ ४१४
मो ९९७५६००८८७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रंगभूमी… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ रंगभूमी… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

( स्पर्धा नुकतीच सुरु झाल्याने प्रेक्षक सुद्धा कमी आले असतील. काही तरी कारण झाले, पण भीष्म मनासारखा उभा राहिला नाही, हे खरे.) इथून पुढे —-

ग्रुप आपल्या शहरात परत आला आणि आपापल्या कामात व्यस्त झाला.

पुन्हा नटराज नाट्य ग्रुपचा “मत्स्यगंधा “चा प्रयोग होणार होता, त्याला जायचे ठरले होते.

पुन्हा मंडळी जमा झाली आणि एक ट्रॅव्हलर घेऊन नटराज ग्रुपचा “मत्स्यगंधा” बघायला निघाली.

मनोज – अनिल देवव्रत कसा करतो बघू,पण सुदर्शन, तुझ्या जवळ पण जाणार नाही देवव्रत.

सुदर्शन – पण माझं पण त्या दिवशी काम बरं झालं नाही रे, मूडच आला नाही.

ज्योती – असं तुला उगाच वाटतं सुदर्शन, तू मस्त काम केलंस, भीष्मला केवढे मोठे आणि कठीण डायलॉग्ज लिहिलेत वसंतरावांनी. मास्तर दत्ताराम ही भूमिका करायचे म्हणे.

मनोज – हो, आणि मत्स्यगंधा आशालता. गाजवली तिने ही भूमिका आणि गाणी. गाणी काय सुरेख आहेत ना यातली.पंडीत अभिषेकींचे संगीत. खुप प्रयोग झाले या नाटकाचे.

ग्रुपची गाडी स्पर्धा चालू असलेल्या गावात पोचली, सर्व मंडळी एका हॉटेल मध्ये जाऊन फ्रेश झाली आणि नाटक सुरु होण्याच्या अर्धा तास आधी म्हणजे साडेसहाला नाट्यगृहाजवळ पोचली.

सुदर्शन आणि बाकी ग्रुप मधील आत गेली, नटराज च्या ग्रुपला भेटायला. अनिल जो नाटकात देवव्रत म्हणजे भीष्म करणार होता, तो मेकअप करून तयार होता. त्याने सुदर्शन, ज्योती यांना पाहिले आणि जवळ येऊन सुदर्शनला मिठी मारली.

सुदर्शन-अन्या, जाडा झालास की रे,व्यायाम करत नाहीस काय?

अनिल – नाही रे, वेळच मिळत नाही, चालणं पण होत नाही.

ज्योती – अनिल, तुझी तब्येत बरी नाही की काय, धापा टाकतोस..

अनिल -हो ग, आज थकवा आलाय, प्रयोग झाला की उद्या डॉक्टरला तब्येत दाखवतो.

सुदर्शन -हो बाबा, रोज चालणं महत्वाचे आहेच आणि तपासून घे बऱ्या डॉक्टरकडून.

एव्हड्यात सत्यवतीची भूमिका करणारी तन्वी आणि बाकी कलाकार, लाईट करणारा उमेश जवळ आले. सर्वजण शेकहॅन्ड करत शुभेच्छा देत राहिले.

सर्वाना प्रयोगासाठी शुभेच्छा देऊन सुदर्शन आणि ग्रुपची लोकं बाहेर आली. तो पर्यत नाटकाची पहिली घंटा दिली होती.

दुसरी घंटा वाजली आणि सुदर्शन, ज्योती, मनोज, अरुणा आत जाऊन आपापल्या खुर्चीवर बसली. परीक्षक स्थानापन्न झाले, संगीत साथ करणारे, प्रकाश योजना करणारा आपआपल्या जागेवर बसले आणि तिसरी घंटा दिली गेली, मग पात्रपरिचय आणि नाटक सुरु झाले.

“संगीत नाट्यस्पर्धेतील आठवा दिवस “

आज आठव्या दिवशी नटराज नाट्यस्पर्धेचे नाटक “संगीत मत्स्यगंधा ‘ सुरु झाले. स्पर्धेच्या तिसऱ्या दिवशी हेच नाटक दुसऱ्या नाट्य ग्रुप ने सादर केले होते. त्या दिवशी एवढी गर्दी नव्हती कारण स्पर्धा नुकतीच सुरु झाली होती, जसजशी स्पर्धा पुढे सरकत होती, तसतशी गर्दी वाढत होती. आणि आज शनिवार असल्यामुळे असेल, नाटकाला सातशे हुन जास्त प्रेक्षक हजर होते.

एवढे प्रेक्षक तिकीट घेऊन नाटकाला आले म्हणून नटराज ग्रुपची माणसे खूष होती.

नाटक सुरु झाले, सत्यवती झालेली तन्वी आणि भिवर यांचा प्रवेश सुरु झाला, मग पराशर आणि सत्यवती यांची सदाबहार गाणी, त्या गाण्यानी प्रेक्षक खूष झाले, वन्स मोअर मिळत गेले.

दुसऱ्या प्रवेशात राजा शंतनू आणि सत्यवती यांची भेट, शंतनू सत्यवतीच्या प्रेमात पडणं, तिच्यासाठी झुरणं, आणि मग प्रवेश झाला देवव्रताचा.

सुदर्शन आणि ग्रुप सरसाऊन बसला. देवव्रत स्टेज वर किती आत्मविश्वासाने बोलतो यावर नाटकाचा कस लागणार होता कारण वाचिक अभिनयाची, मोठया दर्जाची, तिथे गरज होती.

देवव्रताच्या भूमिकेत अनिलने प्रवेश केला, त्याचे पहिलेच वाक्य

“भिवरा, तूझ्या कन्येला नृपश्रेष्ठ शंतनू महाराजासाठी मागणी घालायला आलो आहे.”

खरे तर ते देवव्रतासाठी महत्वाचे वाक्य. पण अनिल ने मुळमुळीत म्हटले. संवाद सुरु होते, सत्यवती आणि देवव्रत यांची संवादाची आतिषबाजी व्हायला हवी होती पण अनिलची तब्येत बरी नसावी कदाचित, तो फिक्का पडत होता आणि तन्वी प्रभावी होत होती.

प्रेक्षकात बसलेली अरुणा सुदर्शनाच्या कानात म्हणाली “आज अन्या मूड मध्ये नाही, कमी पडतोय. तुझा देवव्रत किती तरी श्रेष्ठ होता.”

दुसरा अंक संपला आणि पडदा पडला. इकडे देवव्रत झालेला अनिल आत गेला तो घामाघूम झाला. त्याच्या पाठीतून कळा यायला लागल्या. डावा हात दुखू लागला. छाती जड झाली.

छाती धरून अनिल टेबलावर झोपला आणि कण्हू लागला. त्याच्याकडे सर्व मंडळी धावली. अजितच्या लक्षात आले, बहुतेक हार्ट अटॅक येतो आहें.

अजित धावत स्टेज वर गेला आणि प्रेक्षकात कोणी डॉक्टर असल्यास ताबडतोब आत येण्याची विनंती केली.

डॉ. विभुते त्यांच्या बायकोसह संगीत नाटक म्हणून आले होते. त्यांनी ही घोषणा ऐकली आणि ते त्वरित आत आले. त्यानी टेबलावर विव्हळणाऱ्या अनिलला पाहिले, त्याची नाडी पाहिली आणि त्यांच्या लक्षात आले, हार्ट अटॅक आला आहें, याला हॉस्पिटलमध्ये हलवण्याची गरज आहें.

डॉक्टरनी त्यांच्या पॉकेट मधील सोरबिट्रेटची गोळी अनिलच्या जिभेखाली ठेवली आणि धावत आपली गाडी आणायला गेले. तोपर्यत बाकी नाटक मंडळी त्याला वारा घालत होती. घाम पुसत होती. छातीवर बुक्के मारून प्रथमोपचार करत होती.

सुदर्शनने बाहेर स्टेजवरील डॉक्टरांचे बोलणे ऐकले आणि तो पण आत आला. अनिलची परिस्थिती त्याने पाहिली, त्याला आठवले, नाटक सुरु व्हायच्या आधी आपल्या आणि ज्योतीच्या लक्षात आले होते, आज अन्याची तब्येत बरी दिसत नाही, त्याला श्वास लागत होता, म्हणून.

डॉ.विभुते यांनी सोर्बीट्रेट ची गोळी जिभेखाली ठेवली असेल म्हणून कदाचित, अनिलच्या छातीत दुखणे थोडे कमी झाले, घाम थांबला.

डॉक्टरांनी दोघांच्या मदतीने अन्याला गाडीत घेतले आणि ते अजितला म्हणाले “आता काळजी करू नका, मी डॉ. भागवत हॉस्पिटल मध्ये त्याला ऍडमिट करतोय. हॉस्पिटलमध्ये मी फोन करून सांगितलंय, मी सोबत आहे. तुम्ही नाटक सुरु ठेवा, ही तुमची दोन माणसे गाडीत आहेत, ती त्याच्या सोबत राहतील .”

– क्रमशः भाग दुसरा 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ उत्पादन, निगा आणि मशागत — ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

? मनमंजुषेतून ?

उत्पादन, निगा आणि मशागत — ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर

(Manufacturing, maintenance and cultivation)

माधव – पाचवीतला एक सत्शील मुलगा. हल्लीच्या मुलांत आढळतो तसा आक्रस्ताळेपणा क्वचितच त्याच्यात दिसे. माझी बायको आणि मी – आम्ही दोघेही त्याच्या आईवडिलांचे याबद्दल नेहमीच कौतुक करत असतो. आणि ते दोघेही नेहमीच त्यांच्या गुरूंच्या तसबिरीकडे बोट दाखवत “महाराजांची कृपा” म्हणत नम्रपणे ते कौतुक स्वीकारत असत. 

“यात महाराजांच्या manufacturing चं कौतुक आहे, आमचं काही त्यात श्रेय नाही,” अशी त्यांची यावर नेहमीची टिप्पणी असे. 

माधवचे आईवडील नव्या पिढीतले. तो इंजिनिअर, स्वतंत्र व्यवसाय, आणि व्यवसायानिमित्त अनेकदा फिरतीवर. तीसुद्धा इंजिनिअर – संगणक क्षेत्रातली. जरी work from home करत असली, तरी कधी जपान – हाँगकाँगचे clients, तर कधी युरोप अमेरिकेचे clients, त्यामुळे तिचा दिवस कधी अगदी पहाटे सुरू व्हायचा तर कधी अगदी मध्यरात्रीपर्यंत चालायचा. 

त्रिकोणी कुटुंब छान बहरत होतं.

एकदा माझ्या बायकोनं माधवला डझनभर “किंडरजॉय” चॉकलेटं आणून दिली. आणि त्याच्या आईला सांगून ठेवलं, “लेकाला सांगू नकोस हो. उगाच एकदम बकाबका खाऊन टाकायचा.”

त्यावर माधवची आई हसली आणि म्हणाली, “नाही, आमच्याकडे तो प्रॉब्लेम नाही. त्याच्यासमोर सगळी चॉकलेटं ठेवली, तरी तो एखाददुसरंच खाईल. त्याला नाही सांगावं लागत.”

काहीच न बोलता, मी नुसतं सहेतुकपणे तिच्याकडे पाहिलं, तिनंही नेहमीप्रमाणे महाराजांच्या कृपेला याचं श्रेय दिलं. 

“फक्त तेवढंच नाहीये,” मी यावेळी प्रश्न धसाला लावायचं ठरवलं होतं.  “एखाद्या गोष्टीचं उत्पादन manufacturing अतिशय छान असलं, तरी त्याची नीट निगा maintenance राखणं हेही तेवढंच महत्त्वाचं आहे. मग ती मर्सिडीज गाडी असो किंवा मुलं…. लहान असताना छान असलेली मुलं आईवडिलांच्या अती लाडांनी बिघडलेलीही पाहिली आहेत, किंवा करिअरच्या नादापायी मुलांकडे झालेल्या दुर्लक्षाने ती वाया गेलेलीही पाहिली आहेत…. आणि तुमच्या बाबतीत तुम्ही नुसती त्याची निगा राखत नाहीत, तर त्याच्या चांगल्या गुणांची मशागतही cultivation करत आहात. त्याच्या चांगल्या गुणांची जोपासनाही करत आहात.” 

आणि हे खरंच होतं…

माधवचे आईबाबा त्याचे लाडही करायचे, पण त्याला लाडावून ठेवायचे नाहीत. ते कामात गर्क असतील आणि तो काही विचारत असेल, तर त्याला तसं समजावून सांगायचे, नंतर वेळ देऊ म्हणायचे. पण त्याचबरोबर माधवचं खरंच काही – तेवढंच महत्त्वाचं आणि तातडीचं काम असेल तर हातातलं काम बाजूला ठेवून त्याला मदतही करायचे. 

मुख्य म्हणजे ते त्याच्याशी संवाद साधायचे, या वयात असतात तशा त्याच्या निरनिराळ्या शंकाकुशंकांचं – अगदी राजकारणापासून ते समाजकारणापर्यंत आणि शाळेतील इयत्ता पाचवीतील partiality पर्यंतच्या सर्व अगत्याच्या विषयांचे – ते मनापासून – न कंटाळता – न वैतागता – न चिडचिड करता निरसन करायचे. 

“तू गप्प बस, तुला काय करायचाय नसता चोंबडेपणा ?” किंवा “तू अजून लहान आहेस, मग मोठा झाल्यावर सांगू.” अशी उत्तरं द्यायचे नाहीत.

आज दुपारी जेवताना असंच झालं. मी कॉलेजला होम सायन्सला शिकवतो म्हणजे नक्की काय करतो असा माधवला प्रश्न पडला होता. मग होम सायन्स म्हणजे “घर कसं चालवायचं त्याचं सायन्स” अशी मी काहीशी बाळबोध व्याख्या केली, त्यावर “म्हणजे फक्त होम कसं चालवायचं ते शिकायला एवढा मोठ्ठा तीन वर्षांचा अभ्यासक्रम ?”  असा माधवचा पटकन् प्रश्न आला. 

त्याचं वाक्य पूर्ण होतंय की नाही त्याच्याआत, त्याच्या बाबांनी “थांब, थांब. फक्त होम कसं चालवायचं असं म्हणून अपमान करू नकोस.” असं म्हणत त्याला होम सायन्सचे कंगोरे समजावून दिले, आणि त्याहीपेक्षा महत्त्वाचं म्हणजे ‘घर चालवणं किती श्रेष्ठ आणि तेवढंच किचकट काम आहे’ हे माधवला समजावलं.  

त्याच्या आईनेही “बघ, मी किंवा आजी आजोबा घरी काम करताना कधी कधी चुका करतो, मग त्या चुकांतून आम्ही शिकत जातो. असं चुका करून शिकण्यापेक्षा त्याचा readymade तयार अभ्यासक्रम असेल तर किती छान ना ? म्हणजे आज्जी lifetime मध्ये जे शिकली ते इथं तीनच वर्षांत शिकता येईल,” असं सांगत, आणखी काही उदाहरणं देत होम सायन्सबद्दल माधवला माहिती दिली. 

त्यांना इतक्या उत्स्फूर्तपणे त्याला माहिती देताना पाहून मी आणि माझ्या बायकोने एकमेकांकडे पाहिलं. 

महाराजांच्या कृपेची निगा आणि मशागत छान सुरू होती. 

… आणि आम्हासकट सगळ्यांसाठीच तो एक आदर्श वस्तुपाठ होता. 

(सत्य घटना — आणि आज माधवच्या आई बाबांच्या लग्नाचा वाढदिवसही आहे, हा एक सुंदर योगायोग.)

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड

मो ८६९८०५३२१५   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ पडद्यामागच्या महिला… ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ‘पडद्यामागच्या महिला…’ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

महिला दिनानिमित्त पदवी भूषण महिलांचा सत्कार होतो.आणि त्या उजेडात येतात. पण समाजातला हा कष्टाळू महिला वर्ग अंधारातच राहतो.त्यांच्या मनात प्रसिद्धीची हाव नसते. असतें ती निर्मळ, निरामय,कर्तव्य भावना आणि निरपेक्ष प्रेम. आपलं लक्ष त्यांच्याकडे गेलं की त्यांचा आत्मविश्वास दुणावतो आणि,..आणि त्यांची उमेद वाढते.अश्याच एका लक्ष्मीला आपण भेटूया का ?… 

नऊ हा आकडा जणू काही तिच्या आयुष्याला चिकटला होता.घरांत जावा,सासू , मुले, पुतणें अशी खाणारी नऊ माणसे होती, नवऱ्याच्या पगार फक्त 9000.मुलं नववीपर्यंत शिकलेली.आणि त्यात आता नवरात्राचे नऊ दिवस उपास करून थकलेली ती. मंदिराच्या पायरीवर बसलेली मला दिसली. मी म्हणाले, ” लक्ष्मी इतके उपास का करतेस ? अगं कित्ती गळून गेली आहेस तू,!सकाळपासून काहीच खाल्लं नाहीस का ? घाम पुसत ती म्हणाली, “किती काळजी करतासा ताईसाहेब ! आता घरी गेल्यावर भगर खाईनच की,”  “अगं पण घरी जाणार कधी ? त्याच्यापुढे करणार कधी?आणि खाणार कधी? ते काही नाही ऐक माझं, हे राजगिऱ्याच्या लाह्यांचे पुडे घेऊन जा,दुधात   भिजवून साखर घालून खा.आणि हॊ इतके उपास करतेस,अनवाणी फिरतेस,तूप लावत जा पायाला.” 

लाह्याचा पुडा घेतांना तिचे डोळे भरून आले.”ताई या मायेचे ऋण  कवा आणि कसे फेडू मी? “असं म्हणून ती पाठमोरी झाली. तापलेल्या डांबरी रस्त्यावर तिच्या अनवाणी पायातली जोडवी खणखण वाजत होती.तिसऱ्या दिवशी टवटवीत चेहऱ्यांनी सुस्नात, हिरव्यागार लुगड्यातली ठसठशीत, हळदी कुंकू लावलेली ती माझ्यासमोर आली, तेव्हां मी बघतच राहयले. उपासाचे,भक्ती,श्रद्धा भावनेचं आणि सात्विकतेचं तेज तिच्या चेहऱ्यावर  झळकत होतं. माझ्या विस्फारलेल्या नजरेला हंसून दाद देत ती म्हणाली,” वहिनी बाय हा डबा घ्या. अंबाबाईचा  प्रसाद. पहाटला देवपूजा करून तुम्ही दिलेल्या राजगिऱ्याच्या वड्या करून निविद  दाखवला. हा घ्या प्रसाद . टाका तोंडात.हाँ अक्षी !आता कसं! असं म्हणत ती दिलखुलास हसली. छान कुरकुरीत खुसखुशीत वडी जिभेवर विरघळली. मी आश्चर्याने विचारलं, “लक्ष्मी अगं उपासाच्या लाह्या मी तुला खायला दिल्या होत्या. दिवसभर उपाशी होतीस ना तू?” ऐका नं ताई तुमची मायेची कळकळ कळली मला , तुमच्या शब्दाचा मान राखून मुठभर लाह्या  दुधात भिजवल्या. फुलावानी फुलंल्या बघा त्या. खाऊन पोट तवाच गच्च भरलं.त्यातनं थोड्या राखून या चार वड्या केल्या. ईचार केला अंबाबाईला निविद बी व्हईल आणि ताईंना प्रसाद बी देणं व्हईल.” मी अवाक झाले. एका हाताने घेतलं तर दुसऱ्या हाताने परतफेड करणारी कुठल्या मातीची बनली आहेत ही माणसं .  

मनात आलं आज सगळीकडे भ्रष्टाचार झालाय. माझं ते माझं आणि तुझं तेही माझंच. अशा प्रवृत्तीच्या सुशिक्षित समाजात राहूनही,वयाने मोठं होतांना कुठल्या विद्यालयातून डिग्री घेऊन बाहेर पडल्या आहेत ह्या महिला ? खरंच देव चरां चरांत आहे .पक्षी कसे उडतात ? मातीत बीज कसं अंकुरतं ? बाळ पावलं टाकून पुढे पुढे धावायला कसं बघतं ? ही दैवी शक्तीच   म्हणायची, आणि अशी निर्मळ  माणसं देवच घडवतो. ही माणसं सकारात्मक विचारांची कासं धरून, अनुभवाच्या शाळेत शिकून, एकमेकांवर प्रेम करायला शिकत असावीत. असंच असावं हे गणित. शेवटी हेच खरं की ह्या साध्या माणसांकडूनही खूप  गोष्टी घेण्यासारख्या असतात. हो ना? धनाचा नाही पण सुविचारांचा सांठा  असलेल्या लक्ष्मीला मी मानलं.  आजूबाजूला नजर टाकली की  कळतं,घासातला घास     काढून देणाऱ्या झळाळत्या  लक्ष्मी नक्कीच जगात असतील. ही,साधीमाणसं रोज काहीतरी चांगले धडे  कुठल्याही विद्यापीठात न जाता शिकत असतात. आणि,मग,सरावाने त्यांचे विचारही चांगले होऊन प्रेमाचं ‘वाण ‘ वाटता वाटता ही माणसं आयुष्याच् गणित सोप्प करून जीवनाचा आनंद गरिबीतही लुटतात. खरंच अशा साध्या सरळ व्यक्तींना मनापासून धन्यवाद द्यावेसे वाटतात. मी म्हणाले, “अगं काय हे ! स्वतः पोटभर न खाता दुसऱ्यासाठी राखून ठेवणाऱ्या तुझ्या स्वभावाला काय म्हणावं,गं,बाई!   भाबडे पणाने ती म्हणाली,” ताईबाई मायेची ओंजळ तुम्ही माझ्या पदरात टाकता.मन भरून जातं माझं.घरातले समदे, अगदी मुलं सुद्धा मला धूत्कारत्यात, म्हणत्यात ” तू अडाणी आहेस.डोकंच नाही तुला. साधा  हिशोबही येत नाही.” ती रडवेली झाली होती. मी म्हणाले” कोण म्हणतं तू अडाणी आहेस?  नाही  लक्ष्मी तुझे विचार तुझं वागणं,माणसं जोडणं डिग्री वाल्यांना पण जमणार नाही. स्वभावाने लोकसंग्रह वाढवून जीवनाचं गणित सोप्प करण्याची कला आहे तुझ्या अंगात. स्वतःला अशी कमी लेखू नकोस.आणि जमेल तसं लिहायला शिक. माझी मुलं शिकवतील तुला.कष्टाबरोबर चांगल्या मनाची चांगल्या स्वभावाची आणि प्रत्येकाला मदत करून आपलसं करण्याची कला तुझ्या अंगात असल्याने तुझी एक वेगळी ओळख निर्माण कर.. 

आणि अहो काय सांगू तुम्हाला! अगदी निरक्षर लक्ष्मी जिद्दीला पेटली आणि साक्षर झाली. हा योगायोगच म्हणायचा. माझी एक मैत्रिण बालवाडी,अंगणवाडी चालवते,.तिला मदतीची जरूर होती. मी लक्ष्मीला आमची सगळी काम सोडून,त्या मैत्रिणीकडे पाठवलं.एका नव्या दालनात, अंगणवाडीच्या प्रांगणात,तिचा प्रवेश झाला.आणि ह्या सुरवंटाचं फुलपांखरू झालं.छोट्या मुलांचे क ख ग घ चे बोबडे बोल ऐकताना लक्ष्मीनेही  अ, आ  ई चा धडा गिरवला. कष्टाळू मनमिळाऊ आणि मदतीला पुढे होणाऱ्या लक्ष्मीचा लोकसंग्रह वाढला आहे. आणि आता,'”बावळट काहीच येत नाही तुला!”असं म्हणून हिणवणाऱ्या नातलगांकडे आत्मविश्वासाने तिची पावले पडतात. कारण तिने ‘ तिच्यातली ती’  ‘सिद्ध करून दाखवली आहे.ती आता अंगणवाडी शिक्षिका झाली आहे. साध्या विषयातून तिने मोठा आशय मिळवला आहे. मित्र-मैत्रिणींनो कथा साधी आहे पण, कसलेल्या जमिनीत रुजलेल्या बिजाची, रूपांतरित झालेल्या कल्पवृक्षाची आहे. पडद्यामागून पुढे आलेल्या लक्ष्मीची आहे. आज लक्ष्मीने भरपूर शुभेच्छा, मानपत्र, समाजसेविकेचे, प्रशस्ती पत्रक मिळवली आहेत . इतकं करूनही ती थांबली नाही, तर आपल्या वस्तितल्या कितीतरी महिलांना तिने रमाबाई रानडे प्रौढ शिक्षण वर्गात दाखल करून साक्षर केल.अशा ह्या स्वयंसिद्धेने आपल्याबरोबर मैत्रिणींनाही यशाचं दालन खुलं करून दिल आहे….धन्यवाद लक्ष्मी… 

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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