हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 342 ⇒ चरण पादुका… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चरण पादुका।)

?अभी अभी # 342 ⇒ चरण पादुका? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो पांव में पहनी जाए, वो चरण पादुका ! वैसे पादुका का शाब्दिक अर्थ खड़ाऊ है। आज की बोलचाल की भाषा में इसे जूता कहते हैं। कड़क धूप से जलते पांवों को बचाने के लिए और कांटे कंकड़ से सुरक्षित रखने के लिए जूता पहना जाता है। पांव में जूता और सर पर छाता गर्मी हो या बरसात, रहता सदा साथ। भले ही गर्मी बरसात न हो, आप पैदल नहीं कार में हों, आज के युग में जूता आपके पांव में ज़रूर होगा।

भले ही सर पर टोपी ना हो, पांव में जूता होना जरूरी है। कितना मतलबी है आज का इंसान, बाहर जिस जूते से उसकी शान है, उसे घर में कोई सम्मान नहीं है। पड़ा रहता है, घर के बाहर किसी कोने में। न उसे रसोई में प्रवेश है, न ही मंदिर में। जूता है, उसकी औकात पांव तक ही है, उसे सर पर नहीं बिठाया जाता।।

आखिर सुविधा भी कोई चीज है। हमने घर के लिए एक रबर की चप्पल को अनुमति दे दी है कि वह सीमित क्षेत्र में हमारे चरणों की शोभा बढ़ा सकती है। हमने उसे स्लिपर नाम दे दिया है। हमने आजकल जमीन पर बैठना बंद कर दिया है। हम भोजन टेबल पर करते हैं, सोफे पर बैठते हैं, डबल बेड पर सोते हैं और कमोड ही आजकल हमारा दिशा मैदान है। कलयुगी पादुका स्लिपर इन अवसरों पर हमारे चरण कमल को सुशोभित करती है। जो संस्कारी लोग हैं, वे स्लिपर को इतना सम्मान भी नहीं देते।

इंसान की आधी शान तो उसके जूतों में है।

अगर सूट महंगा है, तो शूज़ भी ढंग के ही होने चाहिए। निर्मल बाबा की मानें तो किरपा भी ब्रांडेड प्रोडक्ट्स में ही छुपी होती है। वैसे भी आजकल सभी ब्रांड एक ही इंसान पर मेहरबान हैं।।

दूरदर्शन पर रामायण चल रही है। भरत अपने भाई मर्यादा पुरुषोत्तम को प्रणाम कर रहे हैं और उनकी चरण पादुका को सर पर धारण किए हुए हैं। चरण पादुका का राज्याभिषेक होता है। भगवान राम की चरण पादुका ही अयोध्या पर राज करेगी और भरत कुटिया में रहकर सेवक की भांति राजपाट संभालेंगे।

चरण पादुका को इतना सम्मान शायद पहली बार मिला होगा। बड़ों के चरण छूना आज भी हमारे संस्कार में है। शुभ कार्य के वक्त पूजा पाठ करवाने वाले पंडित जी के भी पांव छूते हैं। गुरु की चरण वंदना भी करते हैं। जिन्होंने महात्मा भरत की भांति सब कुछ अपने सदगुरु को अर्पण कर दिया है, वे गुरुदेव की पादुका पूजन भी करते हैं। जो महत्व गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहब का है, वही महत्व गुरु परम्परा में गुरु पादुका का है।।

यह भाव का खेल है, किसी की गुलामी का नहीं। जिसकी गुलामी में सुबह जल्दी उठे, कभी खाना खाया, कभी नहीं खाया, झटपट तैयार हुए, जूते पहने और निकल पड़े कर्तव्य के पथ पर।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्रीराम जन्म का उत्सव – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ श्रीराम जन्म का उत्सव ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

प्रिय पाठकगण, नमस्कार

आज श्री राम प्रभु के धरती पर अवतरण का शुभ दिन है। आज की तिथि में मध्यान्ह प्रहर का सुमंगल सुमुहूर्त साधते हुए आकाश में देव सभा अवतरित हुई है, जबकि तेजोनिधि सूर्य उनके रथ के आवेग को रोकते हुए, ‘मुझसे तेजस्वी भला और कौन हो सकता है?’ कहते हैं, इसी सोच में वह कई महीनों तक ठिठक गया! यह तो अति आश्चर्यजनक बात हुई| अगर हम जैसे सामान्य लोगों का मन रामजन्म के क्षण में ऐसे आनंद के सागर में विचरण कर रहा है, तो इसमें आश्चर्य क्या है कि, सिद्धहस्त साहित्यिक महाकवि कालिदास की भावनाएँ रामजन्म की कल्पना के साथ कोटि कोटि उड़ानें भरती हैं!

महाकवि कालिदास के महाकाव्य ‘रघुवंशम्’ के दसवें सर्ग में राम जन्म के प्रसंग का अति सुंदर वर्णन किया गया है।

देवादिकों और भूमाता ने यह प्रार्थना करके विष्णु स्तुति शुरू की कि, भगवान विष्णु धरती और स्वर्ग के देवताओं को बोझ बने उन्मादी रावण का अंत करने के लिए मानव रूप में पृथ्वी पर अवतार लें। भूतल पर चल रहे रावण के सभी अत्याचारों को भगवान विष्णु पहले से ही जानते थे| उन्होंने देवताओं से कहा, ‘हे देवों! जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष साँप को आलिंगन में भरते हुए उसे निर्भय वृत्ति से धारण करता है, उसी प्रकार मैं इस रावण में ब्रह्मा के वरदान से उत्पन्न हुए उन्माद को सहन कर रहा हूँ। अब मैं स्वयं ही दशरथ के पुत्र के रूप में मनुष्य जन्म लूंगा और अपने अक्षय बाणों से इस रावण के मस्तक रूपी कमल समूह को युद्धभूमि की पूजा करने के लिए बाध्य कर दूंगा!’ यथासमय महान तपस्वी ऋष्यश्रृंग मुनि के मार्गदर्शन में दशरथ के हाथों पुत्र कामेष्टि यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। उस यज्ञ की ज्वाला से एक अत्यंत तेजस्वी दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उस दिव्य पुरुष को उस सुवर्ण कुम्भ के पायस (चरु) को सम्हालना कठिन जा रहा था क्यों कि, उस चरु में स्वयंभू भगवान विष्णु पहले ही प्रवेश कर चुके थे| जैसे ही दिव्य यज्ञ पुरुष उस सुवर्ण कुम्भ के साथ अग्नि से प्रकट हुआ, वह सभी के लिए दृश्यमान हो गया। राजा दशरथ ने उसे बड़ी श्रद्धा से स्वीकार किया।

मित्रों, तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु ने शक्तिशाली और धर्मात्मा राजा दशरथ से जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की, इसलिए हमें इस बात पर विचार करना होगा कि इस ‘देव पिता’ दशरथ में कितने देव समान गुण थे। जिस प्रकार वासरमणि (सूर्य) आकाश और पृथ्वी को अपनी प्रभात बेला की धूप का दान प्रदान करता है, उसी प्रकार उस राजा दशरथ ने विष्णु के चरु (तेज) को अपनी दोनों रानियों (कौशल्या और कैकेयी) के बीच समान रूप से विभाजित किया। चूँकि कौशल्या दशरथ की जेष्ठ पटरानी थी और केकय देश की राजकुमारी कैकेयी उनकी प्रिय रानी थी, इसलिए वह इन दोनों रानियों के माध्यम से उनके हिस्से में से एक हिस्सा दान करके सुमित्रा का सम्मान करना चाहते थे। वे दोनों पतिव्रता स्त्रियाँ (कौसल्या और कैकेयी) पृथ्वी पति दशरथ के सारे मनोभावों को उनके बिना बताये ही जान लेती थीं| उन्होंने बड़े प्रेम से प्राप्त चरु में से आधा आधा भाग रानी सुमित्रा को दे दिया। जिस प्रकार भ्रामरी को हाथी के दोनों गण्डस्थल से प्रवाहित होने वाली मदजल की दोनों धाराएँ समान रूप से प्रिय होती है, उसी तरह अति सद्गुणी रानी सुमित्रा, अपनी दोनों सौतों (कौशल्या और कैकेयी) से समान रूप से प्रेम करती थी। जिस प्रकार सूर्य अपनी अमृता नामक नाड़ियों के माध्यम से जलयुक्त गर्भ (वाष्प के रूप में) धारण करता है, उसी प्रकार तीनों रानियाँ प्रजा की उन्नति हेतु विष्णु के तेज से प्रकाशित उस दीप्तिमान गर्भ को धारण किया। जिस प्रकार नवीन फल धारण की हुई फसलें पीत वर्ण की कांति से सुशोभित हो जाती हैं, उसी प्रकार वें तीनों रानियाँ जो एक ही समय गर्भवती थीं और जिनकी कांति गर्भावस्था के कारण थोड़ी फीकी लग रही थी, अब गर्भतेज के अत्युत्कृष्ट लक्षणों से युक्त होकर और अधिक सौन्दर्यशालिनी प्रतीत हो रहीं थीं|

तीनों गर्भवती रानियों ने एक अलौकिक स्वप्न देखा। शंख, चक्र, गदा, तलवार और धनुष आदि सभी आयुधों से सुसज्जित देवतुल्य पुरुषों द्वारा उन तीनों को सुरक्षा प्रदान की जा रही है। साक्षात पक्षीराज गरुड़ अपने तेजस्वी एवं मजबूत पंखों द्वारा अपने प्रकाशपुंज के साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाते हुए आकाश के बादलों को आकर्षित कर बड़ी तीव्र गति से उड़ान भरते हुए उन्हें आकाश में उड़ाकर ले जा रहा है। बड़े ही अभिमान से भगवान विष्णु द्वारा उपहार में दी गई कौस्तुभ माला को अपने वक्षस्थल पर धारण करने वाली देवी लक्ष्मी उन्हें कमलरूपी पंखे से हवा दे रही है। आकाशगंगा में अन्हिक कर पवित्र हुए सप्तर्षि, अर्थात सात ब्रह्मर्षि, अंगिरस, अत्रि, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि और वशिष्ठ परब्रम्ह के नाम का जाप करते हुए उन्हें वंदन कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि, ये तीनों पूजनीय देव माता होने वाली हैं। जब उन रानियों ने दशरथ को उस अलौकिक स्वप्न के बारे में बताया, तो वह उसे सुनकर बहुत खुश हुआ और अपने आप को जगत्पिता के पिता के रूप में जानकर सर्वोत्तम और धन्य माना| जिस प्रकार चंद्रमा का प्रतिबिंब निर्मल जल में विभाजित हुआ दिखता है, वैसे ही एकरूप सर्वव्यापी महा विष्णु ने उन तीन रानियों के उदरों में विभाजित होकर निवास किया।

ऐसा माना जाता है कि, जब सूर्य का अस्त होता है तो वह अपना तेज वनस्पतियों में रखकर जाता है| इसीको आधार बनाते हुए महाकवि कालिदास कहते हैं कि, जैसे रात्रि के अंधियारे में वनस्पति उस तम को नष्ट करने वाला तेज प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ की पतिव्रता पटरानी कौशल्या को तमोगुण का विनाशक एक पुत्र प्राप्त हुआ| इसी कौशल्यासुत के ‘अभिराम’ देह अर्थात अत्यंत मनोहर रूप से प्रभावित होकर पिता ने इस बालक का नाम ‘राम’ रखा, जो सर्वप्रथम मंगलस्वरूप के नाम से सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हुआ। राम शब्द का अर्थ है ‘कल्याणकारी’। ‘राम’ नाम प्राप्त किया हुआ यह बालक (अर्थात् रघुकुल का दीपक) अद्वितीय, अनुपम एवं तेजस्वी दिख रहा था। प्रसूति गृह में सुरक्षात्मक दीपक ऐसे निस्तेज लग रहे थे, मानों इस नवजात बालक के रूप तेज के समक्ष होने के कारण उन्होंने अपना तेज खो दिया हो। क्या मनोहर दृश्य है! अभी अभी कौशल्या ने बाल राम को जन्म दिया है| वह उसके समीप शांति से सो रहा है। उनके जन्म के बाद, माता कौशल्या (उदर रिक्त होने के कारण) कृशोदरी प्रतीत हो रही है। कौशल्या माता ऐसे शोभा पा रही थीं मानों शरद ऋतु में रेतीले तट ने कमल का उपहार प्राप्त किया हो| कैकेयी ने भरत नामक शीलसंपन्न पुत्र को जन्म दिया। जिस प्रकार लक्ष्मी विनय से सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार भरत ने अपनी जन्मदात्री (कैकेयी) को विनय को आभूषण के रूप में अर्पित किया। यदि कोई व्यक्ति योग्य प्रकार से साधना करता है, तो वह इंद्रियों पर विजय (जितेंद्रियता) प्राप्त कर सकता है और दर्शन के संपूर्ण आशय को भी आत्मसात कर सकता है, उसी तरह सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक जुड़वां बालकों को जन्म दिया।

इन गुणनिधान बच्चों के जन्म के बाद, सम्पूर्ण जगत सूखे की चिंताओं से मुक्त हुआ और हर स्थान स्वास्थ्य, समृद्धि आदि गुणों से समृद्ध हो गया। यह तो ऐसा हुआ मानों, स्वर्ग की सुखसम्पन्नता विष्णु के पगचिन्हों का अनुसरण करती हुई महाविष्णु के पीछे-पीछे पृथ्वी पर अवतरित हुई। परन्तु राम के जन्म के समय ही उधर लंका में दशानन रावण के मुकुट के मौक्तिकमणि धरती पर गिर पड़े। मानों इसके जरिये राक्षसों की ऐश्वर्य लक्ष्मी आँसू बहाने लगी। निस्संदेह, मुकुट के रत्नों का गिरना अमंगल था। जैसे ही यह निश्चित हो गया कि, रावण की मृत्यु राम के हाथों होगी, रावण की वैभवशाली ऐश्वर्य लक्ष्मी अश्रुपात करने लगी। अयोध्या में पुत्रप्राप्ति से धन्य हुए राजा दशरथ के चारों पुत्रों के जन्म के मुहूर्त पर स्वर्ग में मंगल वाद्य बजने का शुभारम्भ हुआ। वहां देवताओं ने नगारे बजाना प्रारम्भ किया। राजा दशरथ के भव्य महल पर स्वर्ग के कल्प वृक्ष के दिव्य सुमनों की बौछार हुई|  इस पुष्पवर्षा के साथ ही पुत्र-जन्म के लिए आवश्यक मंगलमय उपचारों का प्रारम्भ हुआ।

जातक अनुष्ठान से संस्कारित वे तीनों बालक धात्री का दूध पीते हुए, मानों उनसे किंचित पहले जन्मे उनके जेष्ठ भ्राता (राम) के साथ परमानंद से अभिभूत पिता की छत्रछाया में बड़े हो रहे थे| जिस प्रकार आहुति प्राप्त होते हुए घृत (घी) द्वारा अग्नि का तेज सहज ही वृद्धिंगत होता है, वैसे ही इन बालकों के सद्गुण और विनम्र स्वभाव उन्हें प्राप्त संस्कारों और शिक्षा से और भी विकसित हो गए थे। आश्चर्य की बात यह है कि, उन चारों भाइयों में सम समान प्रेम संबंध थे, फिर भी जैसे राम और लक्ष्मण की अनायास ही जोड़ी बन गई, वैसी ही भरत और शत्रुघ्न की भी जोड़ी बनी| अखिल पृथ्वी के स्वामी दशरथ के ये चार शिशु मानों चार प्रकारों से सुशोभित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सजीव अवतारों के जैसे शोभायमान प्रतीत होने लगे।

मित्रों, इस प्रकार महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंशम्’ में श्रीराम जन्म के इस पुण्य पावन पर्व का बड़े रसीले तथा भक्ति भाव से वर्णन किया है। आइए, रामनवमी के इस परम पवित्र दिन पर हम प्रभु श्रीराम के चरणों में नतमस्तक होते हुए उनके महान गुणविशेषों को आत्मसात करने का प्रयास करें!

टिप्पणी –  प्रभू श्रीराम का स्तवन करने वाले दो गाने शेअर करती हूँ| (लिंक के न चलने पर यू ट्यूब पर शब्द डालें|)

‘ठुमक चलत रामचंद् बाजत पैंजनिया’

गायिका-मैथिली ठाकूर- रचना-गोस्वामी तुलसीदास

‘रामचंद्र मनमोहन नेत्र भरून पाहीन काय’

गायिका- माणिक वर्मा, गीत-ज. के. उपाध्ये, संगीत – व्ही. डी. अंभईकर

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 99 – इंटरव्यू : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 5

☆ कथा-कहानी # 99 –  इंटरव्यू : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

# समापन

अरेस्ट होने की सिर्फ बात सुनकर ही साहब की सारी हेकड़ी निकल गई और अपने साथ साथ ले गई साहबी, अकड़, लालच, संवेदनहीनता, उपेक्षा करने की आदत, सब कुछ होने के बाद भी असंतुष्टि और साथ ही डिप्रेशन की बीमारी भी. सारा रौब पलायन होने के बाद व्यक्तित्व में आ गई निचले दर्जे की विनम्रता जिसे गिड़गिड़ाना भी कह सकते हैं. ये वह अवस्था होती है जब अपने अलावा उपस्थित हर व्यक्ति महत्वपूर्ण लगने लगता है.

अंततः साहब को जो इलाज चाहिए था वो इस शॉक थेरैपी से मिल गया और वे पुनः मानसिक स्वस्थ्यता की ओर बढ़े।

वहीं असहमत के फितूरी दिमाग से रचे गये इस नाटक ने न केवल नाटक का पटाक्षेप किया बल्कि अपने हिसाब बराबर करने का मौका भी पाया. साहब की बीमारी के निदान और उनके हृदय परिवर्तन की खुशी में असहमत ने फिर अपने नकली बॉस को असली ऑर्डर दिया ” अंकल जी, जाइये इस पूरी नकली टीम को और इसके नायक याने मेरे लिये, घर की बनी कड़क चाय और लजी़ज नाश्ते का इंतजाम कीजिये. कहानी यहीं खत्म हुई साहब भी अवसादहीन और प्रफुल्लित हुये और असहमत ने भी चाय नाश्ते के बाद घर की राह पकड़ी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 19 – अफवाह ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अफवाह।)

☆ लघुकथा – अफवाह ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“अरे तुमने सुना कमला वो तुम्हारे पड़ोसी  सिंह साहब का बेटा विदेश जा रहा है माँ बाप को वृद्धाश्रम भेज कर कितना आज्ञाकारी बनता था, भई लानत है ऐसी औलाद पर इससे तो ईश्वर बच्चा ही न दे” एक सांस में पूरे मोहल्ले की खबर सुना दी  रेखा भाभी ने कमला को ।

कमला धीरे से बोली “आपको किसने कहा किससे पता चली ये बात”।

“बस तुम्हें ही खबर नहीं सारा मोहल्ला थू थू कर रहा है अभी तो सुनकर आ रही हूँ”।

भाभी सुनी हुई बात हमेशा सच हो जरूरी नहीं।

अभी  थोड़ी देर पहले फोन पर सिंह आंटी से मेरी बात हुई है उन्होंने बताया कि उनका बेटा ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहा है।

सिंह आंटी अपनी बिटिया के पास रहने के लिए जा रही हैं।

आप स्वयं समझदार हैं आपके बहू और बेटे के बारे में भी तो लोग जाने क्या क्या कहते हैं…।

अफवाहों पर यकीन ना करें आप…

अच्छा चलो यह सब बात छोड़ दें हैं कमला एक कप चाय तो पिला आज श्राद्ध अमावस्या में तूने खाने के लिए क्या बनाया है वह लेकर आ….।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री कुंदा कुलकर्णी – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सुश्री कुंदा कुलकर्णी

💐 हार्दिक  अ भि नं द न 💐

आपल्या समूहातील ज्येष्ठ लेखिका व कवयित्री सुश्री कुंदा कुलकर्णी यांना ‘पलपब‘ पब्लिकेशन्स यांच्यातर्फे “ महाराष्ट्र जीवन-गौरव पुरस्कार “ जाहीर झाला आहे. या यशाबद्दल त्यांचे आपल्या समूहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील अशाच यशस्वी साहित्यिक वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा.

आजच्या अंकात वाचू या “ कैकयी “ या रामायणातील सुपरिचित पात्राचे  त्यांनी साकारलेले माहितीपूर्ण सुंदर व्यक्तिचित्र.

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 226 ☆ स्वप्ननगरी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 226 ?

स्वप्ननगरी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

परवाच एका मित्रानं,

बोलवलं सगळ्या मित्रमैत्रिणींना,

त्याच्या घरी,

खूप आपुलकीनं आणि आग्रहानं !

 

पाठवलेल्या गुगल मॅपवरून,

साधारण कल्पना आली होती,

त्याच्या  उच्च – उच्चभ्रू सोसायटीतल्या,

आलिशान घरकुलाची,

मित्र वर्तुळात सारेच श्रीमंत,अतिश्रीमंत…

काही स्वकर्तृत्वावर ऐश्वर्य मिळवणारे…

तर काही “बाॅर्न रिच…”

गर्भश्रीमंतच!

बरोबरचे सारेच “मल्टीमिलीओनर”

धनाने आणि मनानेही !

 

 पण जुना बंगला सोडून,

नव्या आलिशान सदनिकेत,

नुकतंच रहायला  आलेलं

 हे सारं कुटुंबच किती नम्र

आणि विनयशील !

 

थक्कच व्हायला झालं,

आदरातिथ्य पाहून!

सारं कुटुंबच उच्च शिक्षित,

शारदेच्याच वरदहस्ताने प्राप्त झालेली लक्ष्मी!

 

 कुणाच्याच वागण्यात,

कुठलाचं अॅटिट्युड नाही …

जेवताना आग्रहाने वाढणारे,

तरूण हात, बाल हात,

किती सुंदर, सुसंस्कारित!

 

म्हटलं त्या मित्राला,

लहानपणी एक सिनेमा पाहिला होता,

“एक महल हो सपनों का”

ते स्वप्न साकारंलस तू !

 

संध्याकाळ ते रात्रीपर्यंतचा …

त्या वास्तूतला,

काळ खूपच सुंदर आणि सुखाचा!

 

ती मंतरलेली संध्याकाळ अनुभवत,

त्या स्वप्ननगरीतून बाहेर पडताना…

 

वाटलं पृथ्वीवरील स्वर्गच आहे हा ,

 

आणि

 

तो स्वर्ग मित्राच्या घरातहीआहे,

समृद्धीत आणि संस्कारातही !

“शुभम् भवतु”

हेच शब्द  सर्वांच्याच ओठी,

त्या कुटुंबासाठी !

© प्रभा सोनवणे

१६ एप्रिल २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवनात चालत राहायचं… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जीवनात चालत राहायचं…  ☆ सौ. वृंदा गंभीर

ना कधी थकायचे

ना कधी हरायचे

सुंदर विचार ठेवून

नेहमीच जिंकायचे

 

        ना कधी झुरायचे

         ना उदास रहायचे

           स्वतःवर विश्वास ठेवून

             स्वकष्टाने मिळवायचे

 

ना कधी रडायचे

ना कधी घाबरायचे

इतरांचे सुख बघून

आनंदाने हसायचे

 

     ना कधी लपायचे

      ना काही लपवायचे

      संकटांना दोन हात करून

        जीवन प्रवासात चालायचे

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चैत्रांगण… ☆ सुश्री मानसी चिटणीस ☆

सुश्री मानसी विजय चिटणीस

? विविधा ?

☆ “चैत्रांगण…” ☆ सुश्री मानसी विजय चिटणीस

चैत्र शुक्ल तृतीयेपासून चैत्रगौर म्हणजे अन्नपूर्णा आसनावर किंवा झोक्यावर बसवली जाते. रेशमी वस्त्रे, मोगरीची फुलं, चंदनगंधाचे विलेपन यांनी तिला सजवले जाते..माहेरपणाला आलेली लाडाची लेकच जणू.. त्या झोक्यात बसलेल्या गौरीला पाहून मला इंदिराबाईंची, ‘आली माहेरपणाला’ ही कविता आठवते नेहमी..

               “आली माहेरपणाला

                 आणा शेवंतीची वेणी

                 पाचू मरव्याचे तुरे

                 जरी कुसर देखणी “

सासरी राबून थकलेल्या लेकीला विसाव्याचे चार क्षण मिळावेत, तिला आनंद व्हावा, तिच्या चेहऱ्यावर हसू फुलावे म्हणून आईची कोण धडपड..लेक माहेरपणाला आलीय, कुठे तिच्यासाठी शेवंतीची वेणी कर, कुठे तिच्या पोलक्यावर पाचू जडव तर तिला सुगंध आवडतो म्हणून तिच्यासाठी मरव्याचे अत्तर बनव..आईची ही सारी धडपड संसारीक वैशाखाने रणरणलेल्या लेकीच्या मनाला थोडा तरी गारवा मिळावा..

चैत्र, चांद्रवर्षाचा पहिला महिना. या महिन्यातल्या पौर्णिमेच्या आसपास चित्रा नक्षत्र अवकाशात असते म्हणून हा चैत्र महिना. ऋतूराज वसंताचा लाडका महिना..आणि म्हणूनच या काळात येणाऱ्या नव्या तांबूस पोपटी पालवीला चैत्रपालवी म्हणतात. साऱ्या सृष्टीचे सृजन या काळात होते. म्हणूनच आदिशक्ती आणि शिव या सृष्टीच्या उगमकर्त्यांचे पूजन या महिन्यात करण्याचा प्रघात पडला असावा. भारतात अनेक ठिकाणी या काळात गणगौरी पुजन युवती आणि विवाहित स्त्रीया करतात. आपल्या घरी हळदीकुंकू करतात. मनाला आणि शरीराला गारवा देणारे मोगरीची फुले, ओले हरभरे, विड्याचे पान-सुपारी, कलिंगड, आंंब्याची डाळ आणि पन्हे यांचे वाण दिले जाते. या हळदीकुंकवाच्या निमित्ताने माय-लेकी, बहिणी-बहिणी, मैत्रीणी एकमेकांना भेटतात..एकमेकींची सुखदुःख निगूतीने ऐकतात..त्यावर फुंकर घालताना आपल्या डोळ्यांतील पाणी लपवतात.

मला आठवतंय..लहानपणी, जेव्हा गौरीला झोक्यात बसवलं जायचं तेव्हा मी ही आईकडे झोक्यासाठी, गौरीसारखं नटवण्यासाठी हट्ट करायचे तेव्हा कधी आई गालातल्या गालात हसायची तर कधी डोळ्यांत पाणी आणायची. आज तिच्या त्या वागण्याचा अर्थ कळतोय. स्त्रीचे भावविश्व अशा सणवार व्रतवैकल्य यांच्याशी जोडलं गेलयं. चैत्रगौर ही सृजनदेवता आणि स्त्री देखील..हे मांडलं जाणारं चैत्रांगण किंवा हळदीकुंकू हे याच सृजनाचं संक्रमण असावं. एका उर्जेचा एकीकडून दुसरीकडे चालणारा प्रवास असावा. चैत्र हा ही सृजनसखाच..तर चैत्र शुद्ध प्रतिपदेपासून सुरू होणाऱ्या चैत्र महिन्यात अंगणात; मग ते अंगण ग्रामिण असो की शहरी.. चैत्रांगण रेखाटले जाते. ६४ शुभचिह्नांनी युक्त अशा या रांगोळीत चैत्रगौर, तिचे पती शंभू महादेव, तिचे सौभाग्यालंकार, मोरपीस, बासरी, ती जगत्जननी असल्याने सूर्य चंद्रापासून साप-हत्तीपर्यंतचा तिचा संसार रेखला जातो. तिची पावले, तिच्या अस्तित्वाचे प्रतिक असलेले स्वस्तिक आणि तिचे आवडते कमळ, तिच्या पुजेसाठीचे शंख, घंटा, ध्वज असे सारे ऐवज रेखले जातात. ते चैत्रांगण बघताना वाटते की कुणा चिमुकलीची भातुकलीच मांडली आहे की काय? या साऱ्या रांगोळीचे रेखाटन चैत्र महिना संपेपर्यंत केले जाते.

माहेरपणाला आलेल्या गौरीला पाळण्यात बसवले जाते. पाळण्यात बसवण्यापूर्वी देवीच्या मुर्तीला अंघोळ घालून, पूजा-अर्चा करून नैवेद्य दाखविला जातो. फुलांची सजावट केली जाते. देवीसमोर वेगवेगळे पदार्थ, देखावे यांची आरास मांडली जाते. खिरापत म्हणून सुके खोबरे व साखर दिली जाते. छोट्या तांब्यात देवीसाठी पाणी भरून ठेवले जाते.बत्तासे, कलिंगड, काकडी, कैरीची डाळ, भिजवलेले हरभरे, पन्हे आदी पदार्थ देवीसाठी केले जातात व नंतर हळदी कुंकू करून वाण म्हणून दिले जातात. सुगीच्या हंगामात केल्या जाणाऱ्या या व्रतात आपली मुले-बाळे, घर-दार यांच्या सुखसमृद्धी ची मनोकामना केली जाते.

अशा या माहेरपणासाठी आलेल्या लेकीचे कौतुक करण्यासोबतच सृजनाचीही पूजा केली जाते. लेकीचे कोडकौतुक करताना लेकीने आईपासून लपवलेले अश्रू असोत की मनातले सल.. चैत्रांगण टिपतेच असे स्त्रीभावनांचे गूढ पदर..

डोळ्यांत आसू अन् ओठांवर हसू

सुखाच्या ओंजळीत दुःखाचे पसू…

या आणि अशा अनेक झळांवर गारव्याचे लिंपण म्हणून तर झोक्यातले झुलणे आणि चैत्रातले रेखाटन असेल का?

चैत्रांगण

© सुश्री मानसी विजय चिटणीस

केशवनगर, चिंचवड, पुणे. फोन : ०२०२७६१२५३१ / ९८८११३२४०७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रंगभूमी… – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ रंगभूमी… – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(हॉस्पिटलमध्ये मी फोन करून सांगितलंय, मी सोबत आहे. तुम्ही नाटक सुरु ठेवा, ही तुमची दोन माणसे गाडीत आहेत, ती त्याच्या सोबत राहतील .”) – इथून पुढे 

डॉक्टरांची गाडी अनिलला घेऊन गेली, आता परीक्षकांना पण देवव्रताची भूमिका केलेल्या नटाला हार्टअटॅक आला, ही बातमी समजली, ते पण स्पर्धक काय पुढे सांगतात, हे पहाण्यासाठी थांबले.

प्रेक्षकांना पण हळूहळू हे कळले, काही प्रेक्षक आत भेटायला आले.

आता त्यांची तब्येत बरी होईल म्हणाले ना डॉक्टर, मग दुसरा कलाकार घेऊन नाटक सुरु करा, आम्हाला नाटक पहायचे आहे, पुढील अंकातील गाणी ऐकायची आहेत.

काही प्रेक्षक बोंबाबोंब करत म्हणाले “आम्ही तिकीट काढलंय की राव,आमास्नी नाटक बघायचं हाय.”

काय करावे अजितला सुचेना. आता आयत्यावेळी देवव्रतासारखी महत्वाची भूमिका कोण करेल?

एव्हढ्यात सत्यवती झालेली तन्वी अजितकडे आली “अजित, सुदर्शन आलेला आहे ना, त्याने या वर्षी देवव्रताची भूमिका केली आहें, त्याला गळ घाल, तो नाही म्हणणार नाही.”

अजितच्या लक्षात आले, होय, सुदर्शन देवव्रत करू शकेल, तसं स्पर्धेच्या नियमात बसतं की नाही कोण जाणे, पण नाटक पुढे चालू राहील, प्रेक्षक नाराज होणार नाहीत. तेथेच बाजूला उभ्या असलेल्या सुदर्शनला अजित म्हणाला “सुदर्शन, नाटक रद्द करावे लागता कामा नये. कारण रंगभूमीचा आणि प्रेक्षकांचा तो अपमान होईल.”

“होय खरे आहे, पण आता काय करणार?”

“तूच करू शकतोस सुदर्शन, तूच करू शकतोस, तू येथून पुढील देवव्रताचा रोल करायचा, नाही म्हणू नकोस दोस्ता, स्पर्धेत पहिला दुसरा नंबर मिळवायचा म्हणून नव्हे, हे मायबाप प्रेक्षक तिकीट काढून आलेत, त्यांना पुढील नाटक पहायचे आहे म्हणून आणि आपल्या रंगभूमीसाठी.”

सुदर्शन भांबावला, असे कधी या आधी झाले नसेल, आपण ते करावे काय?

तो आपल्या सोबत्याकडे धावला. त्याना पण अजितचा प्रस्ताव आश्रयकारक वाटला आणि नटराज ग्रुप त्याचाही प्रतिस्पर्धी होता गेल्या कित्येक वर्षाचा. पण..ज्योती म्हणाली “सुदर्शन, तू आत्ता काम करावंसं, नाटक थांबता कामा नये, नटराज ग्रुप आपला नाटकातील दुश्मन असला तरी प्रेक्षक नाटक अर्धवट पाहून नाराज होऊन परत जाता कामा नयेत. तू हो म्हण .”

मग सर्वच सोबती नाटक करावं असं म्हणू लागले आणि सुदर्शन भूमिका करायला तयार झाला.

सुदर्शन देवव्रत म्हणजेच भीष्मचा पुढचा भाग करणार हे निश्चित झाल्यावर अजितने परीक्षकांना त्याची कल्पना दिली, ते म्हणाले “नाटक थांबवू नका, आम्ही सरकारला या नाटका दरम्यान घडलेली परिस्थिती आमच्या अहवालत कळविणार पण स्पर्धेसाठी नाटक पुरे होणे चांगले”.

तो पर्यत बऱ्याच प्रेक्षकांना दुसरा नट देवव्रताची भूमिका करणार हे कळले होते. जे नवखे होते, ते म्हणत होते, हा आयत्यावेळी काय करेल? प्राॅम्टींग वर बोलेल, धा मिनिट बघू नायतर सटकू..

पण काही नेहमी स्पर्धेची नाटके पाहणारे त्या शहरातील सुज्ञ प्रेक्षक होते, त्याना आपल्या प्रतिस्पर्धी ग्रुप मधील माणूस आयत्या वेळी नाटक रद्द होऊ नये म्हणून, भूमिका पुढे न्यायला तयार झाला याचे कौतुक वाटत होते, आता सुदर्शन या दुसऱ्या ग्रुप मध्ये कशी भूमिका करतो, याचे पण कुतूहल वाटत होते.

आत मध्ये सुदर्शन रंगायला बसला. मनातल्या मनात देवव्रताचे संवाद आठवू लागला. या ग्रुप मधील इतर साथीदार डोळ्यासमोर आणू लागला. आज आपली परीक्षा आहें हे त्याने जाणले. त्याने मनातल्या मनात आई वडिलांना नमस्कार केला, आज मला यश द्या, अस मनात म्हणत राहिला. .

सुदर्शनने देवव्रताची वेशभूषा केली आणि तो स्टेज वरील त्याच्यासोबत काम करणाऱ्या कलाकारांना भेटायला गेला, त्याचे जास्त संवाद तन्वी म्हणजेच सत्यवती सोबत आणि चंडोल झालेल्या मोहन सोबत होते. सर्वांनी एकमेकांचे हात हातात घेतले आणि एकमेकांना शुभेच्छा दिल्या आणि तिसऱ्या अंकाची बेल दिली गेली आणि पडदा उघडला.

तिसऱ्या अंकातले सत्यवती आणि भिवरा मधील संवाद सुरु होते, तेंव्हा पाठीमागच्या विंगेत सुदर्शन आपल्या एन्ट्री साठी श्वास रोखून तयार होता. त्याचा सेनापती सत्यवतीला “राजपुत्र देवव्रत इकडेच येत आहेत,यावर भिवर काही म्हणणार एव्हड्यात देव व्रत प्रवेश करत म्हणतो, “देवव्रताच्या तोंडातून बाहेर पडलेला प्रत्येक शब्द म्हणजे देवव्रताचा निर्धार असतो”.

सत्यवतीची भूमिका करणाऱ्या तन्वीच्या शरीरावर हे धारदार वाक्य ऐकून शिरशिरी आली, अनिल या भूमिकेत असे वाक्य एवढ्या परिणामकरक कधीच म्हणत नसे.

आणि मग सुरु झाली देवव्रतची पल्लेदार वाक्ये. कानेटकरानी एवढी जबरदस्त वाक्ये देवव्रतला लिहिली आहेत, ती उच्चारणे येणे नटाचे काम नव्हे.

“देवी मी कुणाला जन्मालाच घातलं नाही म्हणजे या राज्यात वाटेकरी नसेल “.

“भीष्म हा स्वतः उदगारलेल्या प्रतिज्ञेचा बंदी आहें “.

“भीष्माचे वर्तन धर्माच्या चौकटीत बसत नसेल तर धर्माची चौकट बदलेल पण भीष्म बदलणार नाही “

एकापाठोपाठ एक शब्दसरी प्रेक्षकांच्या अंगावर कोसळत होत्या आणि प्रेक्षक ओलेचिंब होत होते. स्टेज वरील आणि विंगेत राहून पहाणारे इतर कलावंत सुदर्शनाच्या या अनोख्या भीष्म दर्शनाने आश्चर्यचकित झाले होते.

आज स्वतः सुदर्शन खूष होता, त्या दिवशी तो मूड मध्ये आला नव्हता पण जी मोठी जबाबदारी पडली, त्याने त्याच्यातल्या कलाकाराला चॅलेंज दिले होते. तो एका पाठोपाठ एक संवादाच्या फैरी झाडत होता.

शेवटी लावण्यवती अंबा, भीष्म तिचा स्विकार करत नाही म्हणून धिक्कार करते, आणि त्याचे त्याच्या आप्तेष्टांसमोर सैरावैरा धावताना मरण येईल असा शाप मागते आणि भीष्म तो देतो.

पडदा पडला, प्रेक्षक डोळे भरलेल्या अवस्थेत आत येऊन भेटत होते.

आज काहीतरी विलक्षण पाहिले असे प्रत्येक प्रेक्षकाला वाटले, आयत्या वेळी भूमिका स्वीकारून आणि एक अंक दुसऱ्या नटाने केला असताना, शेवटचा अंक या नटाने विलक्षण उंचीवर नेला, असे कदाचित नाटकाच्या इतिहासात प्रथमच घडले असेल.

नटराज नाट्यग्रुप चे सर्व कलाकार सुदर्शनला मिठी मारून रडत होते. आज शेवटी रंगभूमी जिकंली होती.

Show must go on म्हणजे काय ते आज नाट्यरासिकांना कळलं.

सुदर्शनचे नेहमीचे साथीदार पण नाटक पहात होते, आजची सुदर्शनची भीष्मची भूमिका पाहून ते पण भारावले होते. त्यांचे कंठ दाटून आले होते.

दुसऱ्या दिवशीच्या सर्व वर्तमानपत्रात कालच्या संगीत स्पर्धेत घडलेली घटना म्हणजे रंगभूमी वर पहिलीच, असा उल्लेख करून सुदर्शनने आपल्या स्पर्धक ग्रुप मध्ये नाटकाच्या शेवटच्या अंकात नाटक रद्द होऊ नये म्हणून भूमिका फारच उच्च अभिनीत केली, म्हणून कौतुक झाले.

नाटक मधेच सोडून हॉस्पिटल मध्ये भरती झालेल्या अनिलची एंजिओप्लास्टी झाली, हे सुदर्शनला समजले

आठ दिवसानंतर तो अनिलला भेटायला गेला, तेव्हा अनिल त्याचा हात पकडून सद्गदित स्वरात म्हणाला,

“दोस्ता, माझ्यासाठी जे केलंस ते अमूल्य आहे.”

त्याचा हात थोपटत सुदर्शन म्हणाला “दोस्ता, मी तुझ्यासाठी नाही केलं, केलं ते त्या रंगभूमीसाठी, ती आहे म्हणून आपण आहोत.”

“होय दोस्ता, रंगभूमी आहे म्हणूनच आपण आहोत “.

– समाप्त – 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ कुकर आणि गॅसवरचा पाडवा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? मनमंजुषेतून ?

☆ कुकर आणि गॅसवरचा पाडवा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“अहो ऐकलंत का जरा !”

“अगं लग्न झाल्यापासून तुझ्या शिवाय कुठल्या बाईच ऐकलंय का मी ?”

“आता मला कसं कळणार, ऑफिसमध्ये कोणा कोणाचं ऐकता ते ?”

“बरं, बरं, कळतात हो मला टोमणे ! ते जाऊ दे, सकाळी सकाळी मला सणा सुदिला वाद नकोय ! बोल काय म्हणत होतीस तू ?”

“अहो आपण किनई या पाडव्याला स्वर्गात जाऊ या !”

“काय s s s s ?”

“अहो केवढ्या मोठ्याने ओरडताय ? शेजारी पाजारी बघायला येतील, काय झालं म्हणून !”

“अगं मग तू बोललीसच तशी ! दसऱ्याला जसं सिमो्लंघन करतात तसं पाडव्याला काय स्वर्गारोहण करतात की काय ?”

“अहो नीट ऐकून तर घ्याल किनई, का लगेच सुतांवरून स्वर्ग गाठाल ?”

“अगं मी कुठे स्वर्ग गाठायला चाललोय ? तूच म्हणालीस नां, की आपण या पाडव्याला स्वर्गात जाऊ या म्हणून ?”

“अहो हा स्वर्ग म्हणजे एक ग्रॅम सोन्याच्या दागिन्यांची शो रूम !”

“अगं मग असं सविस्तर सांग नां, मला कसं माहित असणार तुझ्या डोक्यात कुठला स्वर्ग आहे ते ? पण तिथून तुला काय घ्यायच आहे ते नाही बोललीस.”

“अहो आता मला प्रत्येक पाडव्याला नवीन साडी वगैरे नकोय. अजून पाच सहा कोऱ्या साडया तशाच पडल्येत !”

“पण त्या साडया काय तुला ‘इधर का माल उधर !’ करण्यात कधीतरी कामाला येतीलच नां ?”

“म्हणजे ?”

“अगं म्हणजे एखादी मिळालेली साडी आवडली नाही, तर तोंड दाबून बुक्क्याचा मार खाल्ल्यागत तुम्ही बायका ती ठेवून घेताच की नाही ?”

“मग तोंडावर कसं बरं सांगणार आवडली नाही म्हणून ? ते बरं दिसत का ?”

“हो ना, मग तीच साडी कधी ना कधी तरी दुसऱ्या बाईला देता नां, त्यालाच मी ‘इधर का माल….’

“कळलं, कळलं ! आम्हां बायकांचं ते ट्रेड सिक्रेट आहे !”

“यात कसलं आलंय सिक्रेट, ओपन सिक्रेट म्हणं हवं तर ! बरं ते जाऊ दे, तुला त्या स्वर्गाच्या शो रूममधे कशाला जायचय ते नाही कळलं.”

“मला ‘ठुशी’ घ्यायची आहे ! सासूबाईंनी त्यांची खरी ‘ठुशी’ मोठ्या जाऊबाईंना दिली, तेंव्हा पासून माझ्या डोक्यात निदान एक ग्रॅमची ‘ठुशी’ घ्यायच फारच मनांत आहे.”

“अगं पण तुला आईनं, वहिनीला दिलेल्या ठुशीच्या बदल्यात तिचा ‘घपला हार’ दिला ना, मग?”

“अहो त्याला ‘घपला हार’ नाही ‘चपला हार’ म्हणतात!”

“तेच ते, अगं पण मी काय म्हणतो आपण तुला एक ग्रॅमची खोटी खोटी  ‘ठुशी’ कशाला घ्यायची ? आपण त्यापेक्षा वा. ह. पे. कडून किंवा पु. ना. गा. कडून खरी सोन्याची ‘ठुशी’ घेऊ या की ?”

“नको गं बाई, हल्ली खरे दागिने घालायची सोय कुठे राहील्ये ? सगळ्या बायकांचे सगळे खरे दागिने लॉकरची शोभा वाढवताहेत झालं.”

“मग माझ्या डोक्यात एक नाही दोन वस्तू आहेत, ज्या नुकत्याच बाजारात नव्याने आल्येत.  त्या नवीन आणि इनोव्हेटिव्ह असल्यामुळे खूप म्हणजे खूपच महाग आहेत, त्या घेऊ या का ?”

“अगं बाई, त्या आणि कुठल्या ?”

“प्रेशर कुकर आणि…..”

“काय  s s s ?”

“अगं किती जोरात ओरडलीस ? शेजारी पाजारी बघायला येतील ना ?”

“अहो तुम्ही बोललातच तसं ! प्रेशर कुकर काय बाजारात नवीन आलेली वस्तू आहे ? गेली कित्येक वर्ष मी वेग वेगळे कुकर वापरत्ये.”

“अगं खरंच सांगतो, हा प्रेशर कुकर बोलणारा आहे, जो नुकताच नवीन आलाय बाजारात!”

“काय सांगताय काय ?”

“अगं खरं तेच सांगतोय, या कुकर मधे ना शिट्याच होत नाहीत !”

“मग कळणार कसं कुकर झाला आहे का नाही ते ?”

“अगं जरा नीट ऐक. मी तुला म्हटलं ना, की हा बोलणारा कुकर आहे म्हणून, मग त्याच्यात शिट्या कशा होतील ? तुला किती शिट्या हव्येत त्यावर तो सेट करायचा आणि गॅस चालू करायचा !”

“बरं, मग ?”

“मग त्यातून थोडया थोडया वेळाने one, two, three असे आवाज येतील, त्यावरून तुला कळेल की कुकरच्या किती शिट्या झाल्येत त्या.”

“अस्स होय ! मग बरंच आहे, सिरीयल बघायच्या नादात मला मेलीला कळतच नाही किती शिट्या झाल्येत त्या ! चालेल मला, आपण तो बोलणारा कुकर घेऊयाच. ते ठुशी बिशीच जाऊ दे, पुन्हा कधी तरी बघू !”

“Ok, मग उद्याच जाऊन बोलणारा कुकर घेऊन येवू, काय ?”

“हो चालेल, पण तुम्ही दुसरी वस्तू पण म्हणाला होतात, ती कुठली ?”

“आहे, म्हणजे तुझ्या लक्षात आहे मी दोन वस्तू म्हटल्याचे.”

“म्हणजे काय? आम्हां बायकांची मेमरी तशी पुरुषांपेक्षा बरी असते असं म्हणतात!”

“असं कोण म्हणत ?”

“आम्ही बायकाच!”

“अगदी बरोबर, पण ती फक्त तुम्हाला हव्या असलेल्या खरेदीच्या बाबतीतच बरं का ! बाकी सगळा उजेडच म्हणायचा.”

“कळलं, कळलं ! मला पण तुम्ही म्हणालात तसा सणा सुदीला वाद नकोय, ती दुसरी वस्तू काय आहे ना, ती बोला चटचट, मला अजून बरीच कामं पडल्येत !”

“अगं त्या दुसऱ्या नवीन वस्तूच तू नांव ऐकलंस ना, तर नाचायलाच लागशील बघ !”

“नाच करायचा कां आनंदाने गायचं ते नंतर बघू, पटकन त्याच नांव….”

“रिमोट कंट्रोलची गॅस शेगडी !”

“का s s य ?”

“अगं आपल्या टीव्हीला कसा रिमोट कंट्रोल असतो ना, तसाच या गॅसच्या शेगडीला पण असतो. बसल्या जागेवरून तू गॅस चालू किंवा बंद करू शकतेस.  बोल कशा काय आहेत या दोन नवीन वस्तू !”

“झ ss का ss स ss ! आता सिरीयल सोडून मधेच उठायला नको गॅस बंद करायला !”

एवढं बोलून बायको किचन मधे पळाली आणि मी…. खरी सोन्याची ठुशी परवडली असती, पण या दोन नवीन, त्याहून महागडया वस्तू घ्यायचे कबूल करून, स्वतःच्या पायावर धोंडा तर मारून नाही ना घेतला, या विचारात पाडव्याला आडवा पडलो !

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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