हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 3 – एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 3 – एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

न मैं आकाश अंबानी हूँ। न अच्छी-खासी सैलरी वाला इंसान। मैं निरा मोटू हूँ। सौ कैरट शुद्ध सोने की तरह शुद्ध सौ फीसदी चर्बी वाला मोटू। मोटुओं के लिए जीने की जिम्मेदारी बड़ी चैलेंजिंग होती है। उससे भी बड़ा भैया बनने का ख्याल। जब लड़कियाँ मुझ जैसे मोटुओं को देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि इन्हें सच्चे प्यार के बजाय खाना पसंद है। शायद इसीलिए वे मोटुओं को देखते ही “भैया” कह देती हैं। पर क्या वे जानती हैं कि मोटुओं का भी दिल होता है, और उनमें भी प्यार के ख्वाब होते हैं? यह जानकर मुझे भी विचार आता है कि कहीं भैया बनने का ख्याल परमानेंट न हो जाए, क्या मुझे प्यार करने का अधिकार नहीं है? यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं बहुत मोटू हूँ। मोटुओं की परेशानियाँ मोटू ही जानते हैं। जिस तरह महात्मा गांधी देश के राष्ट्रपिता हैं, ठीक उसी तरह हर मोटू लड़का देश भर की लड़कियों के लिए भैया होते हैं।  पता नहीं क्यों लड़की मुझे देखते ही भैया कह देती है। क्या उसे नहीं पता कि मेरा भी एक मन होता है। मुझे भी प्यार करने की इच्छा होती है। जब से खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, मुहावरा सुना है, तब से लड़कियाँ तो लड़कियाँ बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ भी मुझे भैया कहकर दूर बैठने की सलाह देती हैं। मानो ऐसा लगता है मुझ जैसे मोटुओं को देखते ही उनके भीतर की ऐसी ग्रंथियाँ जो गबरू जवान को पहचानकर नैन मटक्का करने लगती हैं, तुरंत संस्कारों में बदलकर दुनियाभर का सम्मान परोसने पर आमादा हो जाती हैं। मेरा हाल तो उस समय और बुरा हो जाता जब माँ की उम्र सी लगने वाली महिला जिसके बाल चूने की सफेदी से चुनौती लेने के लिए मचल उठते हैं, वे भी मुझे भैया कहकर बुलाने में कोई झिझक महसूस नहीं करती हैं। मुझे भी लगा कि उन्हें माँ कहकर पुकारूँ, लेकिन मैं उनकी तरह खुले विचारों वाला नहीं था।

मुझ जैसों का एक फेवरेट ड्रेस होता है। एक इसलिए क्योंकि मोटुओं के लिए कंपनियाँ ड्रेसेस ही नहीं बनातीं। न जाने इनको किसने सिखा दिया कि मोटुओं के लिए सिलेंडर टाइप का कुछ बना दो उसी में वे खुद को अडजस्ट कर लेंगे। न हमारे लिए कोई कलर की च्वाइस होती है न कोई डिजाइन की। कभी-कभी तो लगता  है कि इन कंपनियों को आग लगा दूँ। फिर सोचता हूँ कि ऐसा करने पर जो एकाध ड्रेस मिल रहा है, वह भी भला देने वाला कौन बचेगा। शॉपिंग मॉल जाकर ड्रेस खरीदने की पीड़ा शब्दों में बयान करना मुश्किल है। सेल्समैन चुहल करने की फिराक़ में या फिर कुछ और सोचकर जानलेवा मज़ाक करते हुए पूछता है – बताइए सर आपके लिए किस साइज की जिंस दिखाऊँ? 32  कि 34 या फिर स्लिम फिट? अब मैं उसे कैसे बताऊँ मोटुओं के लिए स्लिम नाम के शब्द से कोई ड्रेस नहीं बनता। फिर वही थक-हारकर 44 साइज़ का एक झिंगोला देते हुए उसे कुछ अंग्रेजी वाले नाम से मुझे चिपका देता है।  शॉपिंग मॉलों में ड्रेस खरीदने का यह स्टंट मुझ जैसे मोटुओं के लिए कितना विचित्र होता है, यह जानने के लिए कोई अद्भुत सोच नहीं हो सकती।

यह सब शॉपिंग मॉल के बगल लगाई तीन दुकानों की वजह से होता है। जब भी यहाँ आता हूँ इन तीन दुकानों के दर्शन करना नहीं भूलता। पहली दुकान का नाम हंगर ग्रिल्स, दूसरी का भोलेनाथ चाटभंडार और तीसरी का डिलिशियस आइसक्रीम। यहाँ आने से पहले जितना भी जिम कर दो-तीन इंच घटाकर आता हूँ उतना ही बढ़ाकर जाता हूँ। वह क्या है न कि मैं किसी का हिसाब बाकी नहीं रखता। जिम का एहसान इन दुकानों को चुकाकर परमशांति का आभास होता है।  यह शॉपिंग मॉल न केवल मुझ जैसे मोटुओं की पसंदीदा जगह है, बल्कि इसे एक विशेष क्रांतिकारी जगह के रूप में भी देखा जा सकता है – ‘शॉपिंग जिम’। जी हाँ, आपने सही सुना, जिम। शॉपिंग के साथ-साथ पेटफोड़ एक्सरसाइज करने के लिए स्वादिष्ट व्यंजन भी मिलते हैं। जिम करने के बजाय, आप यहाँ पर भी अपने मास्टर कुकिंग की बजाय ईटिंग कौशलों को बढ़ा सकते हैं। शॉपिंग मॉल के इस क्रांतिकारी आविष्कार की वजह से अब मैं दुकानों की भीड़ में खो जाने की बजाय, अपने मोटू जीवन के हर क्षण को सही ढंग से एंजॉय करने का आदी हो जाता हूँ।     

लोग सोचते हैं कि मोटू लड़कों को केवल ड्रेस ढूँढ़ने की परेशानी होती है। जब वह कपड़े की दुकान में कदम रखता है, तो यह उनके लिए जंगल के अंदर एक खतरनाक सफर जैसा होता है, जहाँ हर आउटफिट उनके आत्मसम्मान को हजारों टुकड़ों में कुचलने की धमकी देता है। मुझ जैसे मोटू लड़के समाज की लगातार निगरानी में रहते हैं, जहाँ यह मोटी चर्बी वाली उदरकथा आम जनता के लिए चर्चा का विषय बनी रहती हैं। लोग मेरे खाने-पीने की आदतों, व्यायाम शैलियों, और उठने-बैठने के आधार पर निःशुल्क सलाह देने को अपना अधिकार समझते हैं। और ऊपर से उनकी व्यंग्योक्तियों के अंतहीन कथन -: “तुम्हारे पास इतना चब्बी-चब्बी चेहरा है, अगर तुम थोड़ा वजन कम कर लो तो।” जैसे मूल्यांकन सहने पड़ते हैं। सच कहें तो पतलेपन के पवित्र मंदिर में पूजा करने वाली दुनिया में, मोटुओं को अपना अंतरिक्ष खुद बनाना पड़ता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 356 ⇒ गाँठ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाँठ।)

?अभी अभी # 356 ⇒ गाँठ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दो रस्सियों को जोड़ने के लिए गाँठ बाँधी जाती है। स्काउट के प्रशिक्षण में खूंटा गाँठ,लघुकर गाँठ, जुलाहा गाँठ, और डॉक्टर गाँठ प्रमुख होती हैं। नदी नालों को पार करना,पहाड़ों पर चढ़ना और दुर्गम स्थलों पर रस्सी के सहारे रास्ता तय करने में,इन गाँठों का उपयोग होता है। जो आसानी से खुल जाए, वह गाँठ नहीं कहलाती।

जब रिश्तों की डोर कमज़ोर होने लगती है,तो टूटने से बचाने के लिए गाँठ बाँधना ज़रूरी हो जाता है। रिश्तों में एक बार गाँठ पड़ने पर विश्वास खत्म हो जाता है। स्काउट गाँठ पर भरोसा करना सिखलाता है, रिश्तों को जोड़ना स्काउटिंग का पहला कर्तव्य है। ।

हल्दी,अदरक और कुछ नहीं,केवल गाँठ ही है। इन दोनों गाँठों में औषधीय गुण हैं। कच्ची हल्दी अगर देखने में अदरक जैसी लगती है,तो अदरक सूख कर सौंठ हो जाती है। जिस गोभी को हम चाव से खाते हैं,उसकी भी एक किस्म गाँठ गोभी कहलाती है। अरबी जिसे यूपी में घुइयां कहते हैं,को छीलना इतना आसान नहीं होता। शलजम जो तेज़ी से होमोग्लोबिन बढ़ाता है, एक तरह की गांठ ही तो है।

हमारे मन में भी गाँठें होती हैं !अवसाद,पूर्वाग्रह और दुराग्रह,ईर्ष्या, जलन,डाह के अलावा अपने विचारों को खुलकर न व्यक्त करने की दशा में कुछ ऐसी ग्रंथियों का विकास होने लगता है जो न केवल मन,अपितु शरीर को भी नुकसान पहुंचाने लगता है। शरीर के किसी भी भाग में गाँठ का होना,किसी गंभीर समस्या को जन्म दे सकता है। इसे इलाज द्वारा निकालना ज़रूरी हो जाता है। ।

मन का निर्मल होना,कई पुरानी उलझी गाँठों को सुलझा देता है। किसी को माफ करना आसान होता है,किसी से माफ़ी माँगना बड़ा मुश्किल। किसी को ज़िन्दगी भर माफ़ नहीं करने की कसम,मन में कितनी बड़ी गाँठ पैदा कर सकती है। हमारे व्यवहार से शायद हमने भी किसी के मन में ऐसी गाँठें पैदा कर दी हों।

गाँठें बुरी हैं, बहुत बुरी ! मन और शरीर की गाँठों का निदान,ज़रूरी है। एक प्रेम का धागा ही काफी है किसी को अटूट बंधन में बाँधने के लिए। कच्चे धागे अच्छे हैं,गाँठ बहुत बुरी। ।

अटलजी की एक कविता है :

आओ, मन की गाँठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,

घास फूस का घर डंडे पर

गोबर से लीपे आँगन में,

तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर

माँ के मुँह से दोहे चौपाई

रस घोलें

आओ मन की गाँठें खोलें …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #44 ☆ कविता – “किस्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 44 ☆

☆ कविता ☆ “किस्मत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

नहीं हाथों में

तेरे हाथों की मेंहदी

मेरे हाथों की लकीरों ने

नक्शा कुछ ऐसा बनाया है

तुम्हें हारकर भी

खुदसे जंग जीते है

तुम्हारी मिट्टी खोकर भी

जमीं तुम्हारी जीते है

 *

नहीं किस्मत में

तुम्हारी पलकों की छाव

मगर हमारे बाजुओं का कर्म

के तुम्हारी नज़र हमारी है

 *

कर्म के होली में

हमनें तो रंग खेला है

रंगी किस्मत लाजवंती

देख इधरही रहीं है

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 202 ☆ बाल कविता – बागों में कोयलिया बोले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 202 ☆

बाल कविता – बागों में कोयलिया बोले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बारहमासी आम फला है

बागों में कोयलिया बोले।

कहीं बौर की खुशबू महके

पवन बहे हौले – हौले।

नीतू , जीतू का मन खुश है

अमियाँ घर पर लाएँगे।

धनिया , मिर्ची डाल उसी में

चटनी स्वयं बनाएँगे।।

 *

खूब रायता बथुआ वाला

दाल मूंग छिलके वाली।

और पराठा आलू भर – भर

खाएँ हम लेकर थाली।।

 *

माँ अपनी तो बड़े भाव से

खाना रोज बनाती हैं।

जिस दिन चटनी साथ रहे तो

जिव्हा पानी लाती है।।

 *

माँ होती है प्रेम स्वरूपा

पिता हमारे हैं दीवार।

हम सब उनका कहना मानें

मात – पिता को करें दुलार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #168 – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “लघुकथा – प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 168 ☆

☆ लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनोगी?”

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ त्या देशीचा सुगंध घेवुन… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ त्या देशीचा सुगंध घेवुन… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

त्या देशीचा सुगंध घेवुन, फुलांत इथल्या दरवळतो

झरता झरता घननीळातुन, मातीमधुनी घमघमतो

*

सूर्यफूल मी सूर्याचे अन् चंद्रकमल मी चंद्राचे

असो उन्ह वा असो चांदणे, जीवनगाणे गुणगुणतो

*

मायावी ह्या रानी चकवा, चळतो ढळतो कधी कधी

वणव्यामधुनी मग पतनाच्या, ओघ कांचनी लखलखतो

*

कुणाकुणाला ह्रदयी घ्यावे, हतभाग्यांची काय कमी

उत्तररात्री त्यांच्यासाठी, अश्रू माझा झुळझुळतो

*

किती कुंपणे अवतीभवती, मण मण पायी बेड्याही

तरी सिद्ध मी व्यूह भेदण्या, दिगंत होण्या तळमळतो

*

दावित दावित जगा आरसा, अवचित दिसतो मीच तिथे

आत्मचिंतनी कबीर कोणी, दोहा होवुन घणघणतो!

(हरिभगिनी)

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ या वळणावर… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

या वळणावर…  ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

उभी आहे मी एका वळणावर..

वाट पुढची‌ अनोळखी!

कशी शोधू मी माझी मला,

झाले मी  तुम्हास पारखी!..१

*

झाली नव्हती मनाची तयारी!

रहावे लागेल तुमच्या विना!

समजूत घालून जगते आहे,

साथ दे रे माझ्या मना!…२

*

सप्तपदी चाललो आपण,

साथ होती जन्मांतरीची!

सात जन्माची गाठ बांधली,

वचने  दिली तू निष्ठेची !..३

*

सोडून गेलात अचानक,

विसर पडला  माझा तुम्हांस !

जग रहाटीस सामोरे जाण्या,

मन करते मी घट्ट आज !..४

*

कठीण आहे वाट पुढची,

समजावते मी मनाला!

तुम्ही पाठीशी आहात माझ्या,

देत आधार थकल्या मनाला!…५

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ १ मे महाराष्ट्र दिन ☆ श्री प्रसाद जोग ☆

श्री प्रसाद जोग

🌸 विविधा 🌸

१ मे महाराष्ट्र दिन… ☆ श्री प्रसाद जोग

१  मे १९६०  रोजी तत्कालीन पंतप्रधान पंडित जवाहरलाल नेहरू यांच्या हस्ते नवनिर्मित महाराष्‍ट्र राज्याची स्थापना  झाली. या चळवळीत पत्रकार, राजकारणी, लेखक आणि विचारवंत यांनी सहभाग घेतला होता. नव महाराष्ट्राच्या निर्मितीसाठी १०५  जणांनी आपले बलिदान दिले.

२१ नोव्हेंबर,१९५६ या  तारखेची ती संध्याकाळ होती. सकाळपासून फ्लोरा फाउंटनच्या परिसरात तणावाचे वातावरण होते. राज्य पुनर्रचना आयोगाने महाराष्ट्राला मुंबई देण्याचे नाकारले होते. मराठी बाण्याची मुंबई या अन्यायाने पेटून उठली होती. सर्वत्र छोट्यामोठ्या सभांमधून त्याचा जळजळीत निषेध होत होता. याचा संघटित परिणाम म्हणून कामगार आणि पांढरपेशांचा एक विशाल मोर्चा, तेव्हाच्या सरकारचा निषेध करण्यासाठी फ्लोरा फाऊंटनासमोरील चौकात येणार होता. दुपार नंतर, म्हणजे मुंबईतल्या शंभर-सव्वाशे कापडगिरण्यांमधील, कामगारांची चारची पहिली पाळी संपल्यानंतर गिरणगावातून मोर्चा निघेल, असा अंदाज होता. पण त्याला छेद देत पांढरपेशांचा प्रचंड जनसमुदाय, एका बाजूने चर्चगेट स्थानकाकडून व दुसऱ्या बाजूने बोरीबंदरकडून गगनभेदी घोषणा देत, फ्लोरा फाउंटनकडे जमू लागला. हा मोर्चा पोलिसी ताकद वापरून उधळला जाईल, असा अंदाज होता. कारण फोर्ट भागात जमाव आणि सभाबंदी जारी केली होती. सर्व कार्यालयांतील महिला कर्मचाऱ्यांना घरी पाठविले होते. जमावबंदीचा भंग करून, मुंबईकर फ्लोरा फाउंटनाच्या चौकात सत्याग्रहासाठी ठाण मांडून बसले होते. त्यानंतर थोड्या वेळातच विपरीत घडले. सत्याग्रहींना उधळून लावण्यासाठी लाठीमार करण्यात आला. मात्र, तरीही ते चौकातून हटत नाहीत म्हटल्यावर पोलिसांना गोळीबाराचा आदेश देण्यात आला. मुंबई राज्याचे तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई यांचे “दिसताक्षणी गोळ्या” घालण्याचे पोलिसांना आदेश होते.

या सर्व हुतात्म्यांच्या बलिदानापुढे व मराठी माणसाच्या आंदोलनामुळे काँग्रेसी सरकारला नमते घेऊन १ मे, १९६० रोजी मुंबईसह संयुक्त महाराष्ट्राची स्थापना करावी लागली. त्यानंतर १९६५ मध्ये त्या जागी हुतात्मा स्मारकाची उभारणी झाली.

संयुक्त महाराष्‍ट्र स्थापनेचे स्वप्न साकार झाल्यानंतर आधुनिक महाराष्ट्राचे शिल्पकार यशवंतराव चव्हाण यांनी १ मे या दिवसाला ‘सोन्याचा दिवस’ असे संबोधले होते. संयुक्त महाराष्‍ट्र राज्याच्या उदघाटन प्रसंगी ते बोलले होते, की ‘महाराष्ट्राच्या निर्मितीमुळे आपल्याला भरभराटीचे आणि सुखाचे दिवस येणार  असून जनतेच्या अपेक्षा पूर्ण करणे, हा महाराष्‍ट्र राज्याचा मुख्यमंत्री या नात्याने मी माझे कर्तव्य समजतो. मराठी भाषिक प्रदेश एकत्र करून जनताभिमुख सरकार देणे, हे महाराष्ट्र राज्य स्थापनेमागील मुख्य धोरण आहे, हे सर्वांनी आपल्या मनावर कोरून ठेवावे.`

१  मे १९६०  हा मराठी भाषिकांच्या स्वप्नपूर्तीचा दिवस, या दिवशी यशवंतराव चव्हाण यांच्या नेतृत्वाखाली पहिल्या मं‍त्रिमंडळाने नवराज्याचा राज्यकारभार हाती घेतला. महाराष्ट्रातील लोक कोणत्या भागात राहत आहेत, त्यांची भाषा काय, त्यांचा धर्म, जात, पंथ कोणता, अशा विचाराला थारा न देता सर्वांना समान न्याय व समान संधी प्राप्त करून देणे, ही सरकारची मुख्य भूमिका असेल. केवळ मराठी बोलणाराच महाराष्ट्रीय नसेल तर जो महाराष्‍ट्रात राहून आपले जीवनमान समृद्ध करतो. असा प्रत्येक माणूस हा महाराष्ट्रीय असल्याचे मानले तरच महाराष्ट्र हे सर्वधर्मसमभावाचे प्रतिक असल्याचे राज्य असेल, असेही ते म्हणाले होते.

वेगवेगळ्या कवींनी महाराष्ट्र गीते लिहिली आहेत.

गोविंदाग्रज (राम गणेश गडकरी )>> मंगल देशा,पवित्र देशा,महाराष्ट्र देशा

श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर >> बहू असोत सुंदर संपन्न की महा

राजा बढे  >>जय जय महाराष्ट्र माझा,गर्जा महाराष्ट्र माझा

कुसुमाग्रज>>माझ्या मराठी मातीचा लावा ललाटास टिळा

शान्ता शेळके >>स्वराज्य तोरण चढे गर्जती तोफांचे चौघडे

महाराष्‍ट्र राज्याची स्थापना झाल्यानंतर मराठीला राजभाषेचा दर्जा देण्यात आला.

जुनी इंग्लिश नवे बदलून मूळ नावे पुन्हा प्रस्थापित करण्यात आली.भारतातल्या बऱ्याच शहरांची नावे दुरुस्त केली

मद्रासचे> चेन्न्नई< झाले

कलकत्याचे>कोलकाता< झाले

कोचीनचे > कोची< झाले

उटीचे > उधगमंडलम<झाले.

बेंगलोरचे > बंगळुरू < झाले

बेळगावचे >बेळगावी<झाले

बॉम्बे चे मुंबई केले आहे. परंतु परभाषीक महाराष्ट्रीयन हा आजही आवर्जून बॉम्बे च म्हणताना दिसतो. आपल्याला कोणी असे बॉम्बे म्हणताना आढळले तर त्या  व्यक्तीला तिथेच थांबवून मुंबई म्हणायला भाग पाडले पाहिजे.असे करायला लावणारा तोच मराठी माणूस.आणि तीच त्या १०५ हुतात्म्यांना आदरांजली.

संयुक्त महाराष्‍ट्र परिषदेची स्थापना करण्यात आली होती. एस. एम. जोशी, प्रबोधनकार ठाकरे, सेनापती बापट, नाना पाटील, तुळशीदास जाधव, डॉ. धनंजय गाडगीळ, भाऊसाहेब हिरे, आचार्य अत्रे, प्रो. मधु दंडवते इत्यादी‍ अनेक व्यक्तींनी संयुक्त महाराष्ट्र निर्मितीसाठी  मोलाचे योगदान दिले. या महान व्यक्तींचे आपण  सदैव ऋणी राहूया.

जय महाराष्‍ट्र, जय महाराष्‍ट्र, जय महाराष्‍ट्र

© श्री प्रसाद जोग

सांगली

मो ९४२२०४११५०   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ६ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ६ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – भोवतालच्या मीट्ट काळोखातही मनातला श्रद्धेचा धागा बाबांनी घट्ट धरून ठेवला होता. कांहीही करून हरवलेल्या त्या पादुका घरी परत याव्यात एवढीच त्यांची इच्छा होती. पण ती फलद्रूप होण्यासाठी कांहीतरी चमत्कार घडणं आवश्यक होतं आणि एक दिवस अचानक,..?)

पुढे एक दोन दिवसांनी बाबा पोस्टातून घरी आले ते आठ दिवसांची रजा मंजूर करून घेतल्याचे सांगतच.

” मी गाणगापूरला जाऊन येईन म्हणतो”

” असं मधेच?”

” हो.तिथे जाऊन पादुकांचे दर्शन घेतो. नाक घासून क्षमा मागतो. तरच माझ्या मनाला स्वस्थता वाटेल.”

ते बोलले ते खरंच होतं गाणगापूरला जाण्यासाठी त्यांनी घर सोडलं त्याच दिवशी घरातलं फरशा बसवण्याचं काम पूर्ण करून गवंडी माणसं शेजारच्या घरी त्याच कामासाठी गेलेली होती. बाबा परत आले ते अतिशय उल्हसित मनानंच! त्यांच्या चेहऱ्यावर एवढ्या दूरवरचा प्रवास करून आल्याचा किंवा जागरणाच्या थकावटीचा लवलेशही नव्हता.आत येताच पाय धुवून त्यांनी स्वतःच देवापुढे निरांजन लावलं.मग कोटाच्या खिशातून एक पुरचुंडी काढली. ती अलगद उघडून देवापुढे ठेवली. त्यावर कोयरीतलं हळद-कुंकू वाहून नमस्कार केला.

“काय आहे हो हे?काय करताय?”आईने विचारलं.

” हा दत्तमहाराजांनी दिलेला प्रसाद.” ते प्रसन्नचित्ताने हसत म्हणाले.

“म्हणजे हो..?”

“मी संगमावर स्नान करून  वर आलो आणि वाळूतून चालताना सहज समोर लक्ष जाताच एकदम थबकलो. समोर सूर्यप्रकाशात काहीतरी चमकत होतं. मी जवळ जाऊन खाली वाकून ते उचलून घेतलं. पाहिलं तर तो वाळूत पडलेला हुबेहूब पादुकेसारखा दिसणारा गारेचा एक तुकडा होता.पण ही अशी एकच पादुका घरी कशी आणायची असं मनात आलं.काय करावं सुचेचना. मग सरळ मागचा पुढचा विचार न करता तिच्यासोबत हा दुसरा तेवढ्याच आकाराचा लांबट गारेचा खडा उचलून आणला…”ते उत्साहाने सांगत होते.हे वाचताना त्यांनी दुधाची तहान ताकावर  भागवून घेतली असं वाटेलही कदाचित,पण ते तेवढंच नव्हतं हे कांही काळानंतर आश्चर्यकारक रितीने प्रत्ययाला आलं.तोवर तत्काळ  झालेला एक बदल म्हणजे त्यानंतर घरातलं वातावरण हळूहळू पूर्वीसारखं झालं. यामधेही चमत्कारापेक्षा मानसिक समाधानाचा भाग होताच पण हे सगळं पुढे चमत्कार घडायला निमित्त ठरलं एवढं मात्र खरं!

आमच्या घरात फरशा बसवून झाल्यानंतरचा अंगणात रचून ठेवलेला फुटक्या शहाबादी फरश्यांच्या तुकड्यांचा ढीग अद्याप मजूरांनी हलवलेला नव्हता. त्यातल्याच एका आयताकृती फरशीच्या तुकड्यावर त्या गारेच्या दोन पादुका शेजारच्या घरी काम करत असलेल्या गवंडी मजुरांकडून बाबांनी सिमेंटमधे घट्ट बसवून घेतल्या. आश्चर्य हे की तेच मजुर त्या संध्याकाळी कामावरून घरी जाण्यापूर्वी आपणहून आमच्या घरी आले. बाबांना विचारुन त्यांनी त्या ढीगातले त्यातल्या त्यात  मोठे चौकोनी तुकडे शोधून त्या पादुका ठेवायला एक कट्टा आणि त्या भोवती तिन्ही बाजूंनी आणि वर बंदिस्त आडोसा असं जणू छोटं देऊळच स्वखुशीने बांधून दिलं! त्या कष्टकऱ्यांना ही प्रेरणा कुणी दिली हा प्रश्न त्या बालवयात मला पडला नव्हताच आणि आईबाबांपुरता तरी हा न पडलेला प्रश्न निरुत्तर नक्कीच नव्हता! आमच्या घरासमोरच्या अंगणातलं ते पादुकांचं मंदिर आजही मला लख्ख आठवतंय!

दुसऱ्या दिवशी पहाटे लवकर उठून आंघोळ आवरून बाबांनी मनःपूर्वक प्रार्थना करून त्या पादुकांची तिथे स्वतःच प्रतिष्ठापना केली आणि त्यांची ते स्वत: नित्यपूजाही करु लागले.हे  सुरुवातीला निर्विघ्नपणे सुरु राहिलं खरं पण एक दिवस बाबांना अचानक पहाटेच फोनच्या ड्युटीवर जाण्याचा अनपेक्षित निरोप आला. परत येऊन अंघोळ पूजा करायची असं ठरवून बाबा तातडीने पोस्टात गेले पण दुपारचे साडेअकरा वाजत आले तरी ते परत आलेच नाहीत.आज पादुकांची पूजा अंतरणार या विचाराने आई अस्वस्थ झाली. आम्ही भावंडांनी आपापली दप्तरं भरून ठेवली.आईनं हाक मारली की  जेवायला जायचं न् मग  शाळेत.आईची हाक येताच आम्ही आत आलो.आई आमची पानंच घेत होती पण नेहमीसारखी हसतमुख दिसत नव्हती.

“आई, काय झालं गं?तुला बरं वाटतं नाहीये का?” मी विचारलं.आई म्लानसं हसली.तिच्या मनातली व्यथा तिने बोलून दाखवली.यात एवढं नाराज होण्यासारखं काय आहे मला समजेचना.

“आई, त्यात काय?आमच्या मुंजी झाल्यात ना आता?मग आम्ही पूजा केली म्हणून काय बिघडणाराय?खरंच..,आई, मी करू का पादुकांची पूजा?” मी विचारलं.आई माझ्याकडे आश्चर्याने बघतच राहिली.

” नीट करशील?जमेल तुला?”

” होs.न जमायला काय झालं? करु?”

“शाळेला उशीर नाही का होणार?”

“नाही होणार.बघच तू”

“बरं कर”आई म्हणाली.

त्यादिवशी पुन्हा आंघोळ करून आणि पादुकांची पूजा करून घाईघाईने दोन घास कसेबसे खाऊन मी पळत जाऊन वेळेत शाळेत पोचलो. दत्तसेवेच्या मार्गावरचं माझ्याही नकळत आपसूक पुढे पडलेलं माझं ते पहिलं पाऊल होतं! पुढे मग बाबांना खूप गडबड असेल, वेळ नसेल, तेव्हा पादुकांची पूजा मी करायची हे ठरुनच गेलं.

काही महिने असेच उलटले.सगळं विनासायास आनंदाने सुरु होतं.आणि एक दिवस मी पूजा करत असताना अचानक माझ्या लक्षात आलं, की त्यातल्या पादुकेच्या शेजारच्या गारेच्या दुसऱ्या लांबट तुकड्यालाही हळूहळू पादुकेसारखा आकार यायला लागलाय.

त्याच दरम्यान त्या छोट्याशा देवळावर सावली धरण्यासाठीच जणूकांही उगवलंय असं वाटावं असं देवळालगत बरोबर मागच्या बाजूला औदुंबराचं एक रोप तरारून वर येऊ लागलं होतं!!

ते रोप हळूहळू मोठं होईपर्यंत कांही दिवसातच त्या गारेच्या लांबट दगडाला त्याच्यासोबतच्या पादुकेसारखाच हुबेहूब आकार आलेला होता!!

आईबाबांच्या दृष्टीने हे शुभसंकेतच होते. हळूहळू ही गोष्ट षटकर्णी झाली तसे अनेकजण हे आश्चर्य पहायला येऊ लागल्याचं मला आजही आठवतंय.

कुरुंदवाड सोडण्यापूर्वीच बाबांना वाचासिद्धीची चाहूल लागलेली होती तरीही आम्हा मुलांच्या कानापर्यंत त्यातलं काहीही तोवर आलेलं नव्हतं.पण खूपजण काही बाही प्रश्न घेऊन बाबाकडे येतात ,मनातल्या शंका बाबांना विचारतात, बाबा त्यांचं शंकानिरसन करायचा प्रयत्न करतात आणि ते सांगतात ते खरं होतं हे येणाऱ्यांच्या बोलण्यातून अर्धवट का होईना  आमच्यापर्यंत पोचलो होतंच.

संकटनिवारण झाल्याच्या समाधानात ती माणसं पेढे घेऊन आमच्या घरी यायची. बाबांचे पाय धरू लागायची पण बाबा त्यांना थोपवायचे. ‘नको’ म्हणायचे. नमस्कार करू द्यायचे नाहीत.पेढेही घ्यायचे नाहीत.

“अहो, मी तुमच्या सारखाच एक सामान्य माणूस आहे. मला खरंच नमस्कार नका करु. तुमच्या देव मी नाहीय.मी हाडामासाचा साधा माणूस.तुमचा देव तो.., तिथं बाहेर आहे. त्याला नमस्कार करा. यातला एक पेढा तिथं,त्याच्यासमोर ठेवा आणि बाकीचे त्याचा प्रसाद म्हणून घरी घेऊन जा” ते अतिशय शांतपणे पण अधिकारवाणीने सांगायचे.

तो बाहेर देवापुढे ठेवलेला पेढाही आम्ही कुणीच घरी खायचा नाही अशी बाबांची सक्त ताकीद असे. त्या दिवशी कोणत्याही निमित्ताने जो कुणी आपल्या घरी येईल,त्याला तो पेढा प्रसाद म्हणून द्यायचा असं बाबांनी सांगूनच ठेवलं होतं. मग कधी तो प्रसाद दुधोंडीहून डोईवरच्या पाटीत दुधाच्या कासंड्या घेऊन घरी दुधाचा रतीब घालायला येणाऱ्या दूधवाल्या आजींना मिळायचा, तर कधी आम्हा भावंडांबरोबर खेळायला, अभ्यासाला आलेल्या आमच्या एखाद्या मित्राला किंवा पत्र टाकायला घरी येणाऱ्या पोस्टमनलाही त्यातला वाटा मिळायचा!

माझे आई बाबा तेव्हाच नव्हे तर अखेरपर्यंत निष्कांचनच होते. त्यांच्या संसारात आर्थिक विवंचना,ओढग्रस्तता तर कायमचीच असे. पण तरीही बाबांनी लोकांच्या मनातल्या त्यांच्याबद्दलच्या विश्वासाचा कधीच बाजार मांडला नाही. ते समाधानीवृत्तीचे होतेच आणि सुखी व्हायचे कोणतेच सोपे जवळचे मार्ग त्यांनी जवळ केले नव्हते. देवावरची आम्हा मुलांच्या मनातली श्रद्धासुद्धा तशीच निखळ रहाणं आणि आमच्या मनात अंधश्रद्धेचे तण कधीच न रुजू देणं ही माझ्या आई-बाबांनी आम्हा भावंडांना दिलेली अतिशय मोलाची देनच म्हणावी लागेल!

क्रमशः …दर गुरुवारी

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मानिनी… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ मानिनी… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

आशाने साठ वर्षे पुरी केली आणि तिचा मुलगा जय तसेच सून वर्षा यांचे म्हणणे पडले, आईची एकसष्ठी साजरी करायची.जयने त्याच्या अनुमावशीला आणि माधवमामाला फोन केला.

जय – मावशी, आईने साठी पुरी केली, आमची इच्छा आहें तिची एकसष्ठी साजरी करूया, तुझे काय मत आहें?

मावशी – होय बाबा, तिने आयुष्भर कष्ट केलेत, त्रास खुप सोसलाय. तुला वाढवताना आणि व्यवसाय सुरु करून पैसे मिळविताना, तीच कोणी कौतुक केलंच नाही पण इतरांचे कौतुक करायला ती सर्वांच्या आधी पुढे असते. आणि नेहेमी हसतमुख, तू दिवस ठरव, आम्ही आहोत तूझ्या मदतीला.

जय – हो मावशी, मामाला पण फोन केलाय, तो पण मामीसह येणार आहें.

संध्याकाळी जय आणि वर्षाने आईला एकसष्ठी कार्यक्रमाबद्दल सांगितले, तेंव्हा आशाने त्याला उडवून लावले.

आशा – असले कार्यक्रम मला आवडत नाहीत रे आणि मी माझ्या आयुष्यात काय एवढे दिवे लावलेत की पराक्रम केलाय म्हणून माझा एवढा कार्यक्रम करतोस तू? मी आपली साधी बाई, नवऱ्याने घरातून हाकलून लावलेली. माझे कसले कार्यक्रम नकोत.

आई अशी ऐकणार नाही हे जयला माहित होते, त्यामुळे त्याने अनुमावशीला आणि आशाच्या आत्या विजूआत्या ला कळविले. मग विजू आत्या ने आशाला दम भरला तशी आशा तयार झाली.

मग जय आणि वर्षाने तयारी चालू केली, छोटा हॉल पाहिला,आईला न कळवता हिऱ्याची अंगठी केली,सोन्याचा नेकलेस केला. साडया खरेदी केल्या. जवळच्या नातेवाईकांना भेटी घेतल्या. एका योग गुरुचे प्रात्यक्षिक आणि लेक्चर ठेवले.

कुणा कुणाला बोलवायचे याची यादी करण्यासाठी जय आणि वर्षा बसली. एव्हड्यात वर्षाच्या लक्षात आलं म्हणून तिने जयला विचारले “तूझ्या बाबांना, काका काकू ना बोलवणार आहेस क?’

जय थंबकला. हा जटील प्रश्न त्याच्या लक्षात आला नव्हता.

“हे आईलाच विचारायला हवं ‘जय म्हणाला.

रात्री आशा मेडिकल स्टोअर मधून आली, त्यानंतर काही वेळाने जय आणि वर्षा आपल्या एजन्सी मधून आली. रात्री जेवताना तिघांनी एकत्र जेवायचं हे ठरलेलं.

जेवायला सुरवात केली एव्हड्यात जय ने आईला विचारले 

“आई, बाबांना काका काकूंना बोलवायचं आहें ना?

हे वाक्य आशाने ऐकलं मात्र, हातातला घास ताटात टाकून ती किंचाळली “नाही, अजिबात नाही,’

“अग पण एकसष्ठी ला बायकोबरोबर नवरा…

“नावाचा नवरा तो, हिम्मत नव्हती म्हणून सोडल नाही मी.. पण मनातून कधीच कंटाप केलाय त्याला, मला घरातून हाकलून लावलेल्या माणसाला कार्यक्रमला बोलवायचं, पुरुष नाही का बायको नसेल तर कणवतीला सुपारी लाऊन कार्य उरकतात, मग आम्ही बायका तसं का करू नये?’.

संतापलेल्या आशाने घास ताटात टाकला आणि हात धुवून खोलीत गेली आणि धाडकन दरवाजा लाऊन घेतला.

जय वर्षाला म्हणाला “उगाचच बाबांचं नाव घेतलं, त्या रागाने आई रात्रभर झोपायची नाही.

बेडवर पडलेल्या आशाचा संताप संताप झाला.काही गोष्टी विसरायचंय म्हंटल तरी पिशाच्च होऊन समोर उभ्या राहतात. तिच्या डोळ्यसमोर तीस वर्षांपूर्वीचें तीच लग्न डोळ्यसमोर आले.

तीस वर्षांपूर्वी 

आशा भावंडात शेंडेफळं. सर्वात देखणी आणि सर्वांची लाडकी.अभ्यासात जेमतेम पण खेळात, नृत्यात पुढे.शाळेतील नाटकात सुद्धा तिने भाग घेतलेला आणि बक्षीसे मिळविलेली. तिने तारुण्यात प्रवेश केला आणि ती अनेकांची “दिल की धडकन ‘झाली.पण तिने कुणाकडे लक्ष दिले नाही. मोठया बहिणीचे अनुचे लग्न झाले आणि मग भावाचे माधवचे पण लग्न झाले.त्यानंतर आशा साठी नवरा शोधणे सुरु झाले.

आशाचा आपल्या आईवडिलांवर विश्वास होता. आपल्यासाठी ते योग्य ते स्थळ शोधतील हे तिला माहित होत. मग ओळखीतून नितीनचें स्थळ आले, दापोलीच्या जवळच त्यांचे घर होते, गावात औषध दुकान होते. नितीन आणि त्याचा मोठा भाऊ दुकान सांभाळत होते. घरी फक्त नितीनची मोठी वहिनी आणि त्यांची दोन मुले. म्हणजे नितीन आणि भावाची चार माणसे.

वडिलांना नितीन बरा वाटला. आपण पण आईवडिलांना जास्त त्रास नको म्हणूंन होय म्हंटल.थोडक्यात लग्न झालं आणि आपण सासरी गेलो. नव्याचे चार दिवस संपले आणि सासरची नेमकी परिस्थिती लक्षात यायला लागली. घरात जशी थोरल्या जाऊची दादागिरी तशीच मोठया दिराची दुकानात.दुकानचा सर्व व्यवहार मोठया दिराच्या हातात -आलेले पैसे, दयायचे पैसे, माल मागवणे, चेक्स वर सही सर्व मोठया भावाकडे. नितीन फक्त काऊंटर वर उभा किंवा एका टेबलावर बसलेला.

घरी पैशाचा व्यवहार थोरल्या जाऊकडे, पैसे हवे असतील तर तिच्याकडे मागायचे.

रात्री नितीन खोलीत आला की ती नवऱ्याला विचारायची.

“तुम्हाला या घरात आणि दुकानात कसलीच किंमत नाही, सर्व काही मोठया भावाच्या आणि वहिनीच्या ताब्यात. मग इथे राहता कशासाठी? आता लग्न केले आहें तर माझा पण काही विचार करायला नको?मी तिच्याकडे पैसे मागणार नाही. मी तुमच्यकडे मागेन. तुम्ही मला पैसे आणुन द्या ‘.

असे ती बोलली की नितीन चिढी आणि अबोला ठेवी.

आशाला काय करावे हे सुचेना. तिच्या लक्षात आले, या घरातून बाहेर पडायला हवे तरच पुढचे आयुष्य सुसह्य होईल.

आशाने शहरात जाऊन नवीन औषधं दुकान काढायचे म्हंटले की तिचा नवरा चिडायचा, भाऊ वहिनी, पुतणे पासून वेगळे व्हायचे नाव घेईना.त्यात आशाला दिवस गेले त्यामुळे तिची आणखी चिडचिड व्हायची.

प्रसूतीसाठी आशा माहेरी आली, तिच्या घरची एकांदर परिस्थिती पाहून तिची आई रडायची. मोठया मुलीला समजूतदार माणसे मिळाली, मुलाला चांगली बायको मिळाली पण लाडक्या धाकट्या मुलीच्या बाबतीत फसवणूक झाली, म्हणून तिला वाईट वाटायचं.

जयचा जन्म झाला आणि आशा सुखावली. त्याचा चेहरा थेट तिच्यासारखा होता. सहा महिने माहेरी राहून आशा घरी आली पण घरची परिस्थिती होती तशीच.

सासरी आल्यानंन्तर पुन्हा तसेच दिवस जाऊ लागले. मोठी जाऊ जयचा तिरस्कार करत होती, तो रात्रीचा रडायला लागला की हिची बडबड सुरु होई, मोठे दीर सुद्धा चिडत असत. आशाची पुतणी लहान जयला खेळाऊ पहात असे पण तिचे आईवडील तिच्यावर चिडत असत.

छोटया जयला डॉक्टर कडे न्यायचे तिने तीन तीन वेळा नवऱ्याला सांगितले, पण तो सोबत आला नाही. मान खाली घालून तिला जावकडे पैसे मागावे लागत होते. जाऊ चिडून बोलून दोनशे रुपये हातावर टिकवत असे. सुदैवाने तिची अनुमावशी आली की तिच्या हातात हजार रुपये टेकावून जात असे, त्या पैशाचा तिला आधार होता.

जुन्या आठवणींनी डोक्यात पिंगा घालायला सुरवात केली तशी आशाची झोप उडाली, मग ती बेडवरून उठली आणि तिच्या रूममध्ये असलेल्या झुलत्या खुर्चीवर येऊन बसली.

मन मारून नाईलाजाने ती घरात राहत होती. मधल्या काळात बाबा देवाघरी गेले, दोन वर्षांनी आई गेली. माधव मुंबईला आणि मोठी बहीण पुण्यात. अशा वेळी तिला रत्नागिरीत राहणाऱ्या विजूआतेचा आधार वाटे. महिन्यातून एकदा ती विजूआते कडे जाई.

अशा परिस्तितीत जय पाच वर्षाचा झाला, तेंव्हा ती परत एकदा नवऱ्याच्या मागे तगादा लावला, त्या गावात जिल्हा परिषदेची चौथी पर्यत शाळा होती पण चार किलोमीटरवर. या असल्या शाळेत मुलाला घालून त्याचे नुकसान होईल म्हणून दापोली नाहीतर खेड मध्ये नवीन दुकान काढू म्हणजे तेथे बिऱ्हाड करता येईल आणि जयला पण शाळेत घालता येईल.

तिचा मोठा आवाज ऐकून जाऊ मध्ये पडली, मग दीर बोलू लागला. त्याच्या धीराने नवरा आशा बरोबर भांडू लागला. मग जाऊ घरात गेली आणि कपडे सुकत घालायची काठी घेऊन आली आणि त्या काठीचे दोन तडाखे तिच्या डोक्यात घातले, आशाच्या डोक्याला खोक पडली आणि रक्त येऊ लागले. 

 तिचा नवरा मग पुढे झाला आणि त्याने तिला हाताला धरून बाहेर ढकललं. ती अंगणात पडली. तिचे रडणे ऐकून जय जागा झाला आणि आईच्या दिशेने धावला.

आशाच्या जावेने दार बंद करून घेतले. रडत रडत आशा उठली, तिच्या पायाकडे बसलेल्या जयला तिने उचलून घेतले आणि बंद केलेल्या दाराकडे पहात ती अंगणातून बाहेर पडली.

या रात्रीच्या वेळी सोबत लहान बाळाला घेऊन कुठे जावे, असा ती विचार करत असताना तिला मारुतीच्या देवळाशेजारचे बाबीं काका आठवले. बबिकाका आणि काकीकडे ती कधीमधी जायची. त्यांची एकूलती एक मुलगी लग्न करून दिलेली मालवणला असायची, त्यामुळे ती दोघेच घरात असायची. काकी तिला खूप प्रेमाने वागवायची.आशाचे घरची मंडळी तिला खुप त्रास देतांत, म्हणून ती हळहळायाची.

रात्रीच्या अशा वेळी आशाला काका काकीची आठवण आली. ती त्यांच्या घरच्या दिशेने चालू लागली.

आशाने काकाच्या घरचा दरवाजा खटखटवला, काकीने दरवाजा उघडला, काकीला तिला यावेळी आशा परिस्थितीत पाहून आश्यर्य वाटले.

–क्रमशः भाग पहिला

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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