(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बोझिल पहचान”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 ☆
🌻 लघुकथा – बोझिल पहचान 🌻
किसी भी व्यक्ति की सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, मीठी वाणी, निश्चल व्यवहार, और सादगी से सँवरता हुआ परिधान। हजारों की भीड़ में उसे अलग दिखा सकता है। उसे अपनी पहचान बनाने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के ज्ञान का परचम धीरे-धीरे ही सही बढ़ता और महकता जरूर है।
जीवन का सरल होना आज के समय पर ज्यादा कठिन है क्योंकि सभी नर-नारी अपने संपूर्ण जीवन को बोझिल बन चुके हैं। जरूरत से ज्यादा उदासीनता, ऊपरी दिखावा, मेल मिलाप की कमी और अपने निष्ठुर व्यवहार को यहाँ-वहाँ प्रदर्शित कर अपनी पहचान को छुपा चुके हैं।
वह शायद एक तराशी हुई सुंदर आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लगती थी। जिसे कुछ भी कह सकते थे। जब भी वह बाहर निकलती। अपनी आकर्षक मुस्कान बड़ी-बड़ी आँखे केश के सुंदर लट बिखरे हुए, चेहरे पर बनावटी सुंदर मुस्कान, कानों के सहारे मोती माला में झूलते चश्के अंदर से निहारते नयन और उसकी बातों से सभी को लगता शायद यह एक दमदार और सच्ची महिला है।
कई महिलाएं उसके झांसे में आ जाती। परंतु आज अचानक एक भोली- भाली महिला उसकी बातों में आकर उस देवी जी के घर पहुंच गई।
अनजाने लोग, अचानक का समय उसने शायद उसकी कल्पना नहीं की थी। घर के अंदर से खिड़की से झाँक कर उसे लगा शायद वह महिला को कुछ पता नहीं चलेगा।
जैसे ही माननीया ने दरवाजा खोला बिना लेंस के टटोलती हाथों में कापी पेन, सर पर छोटे-छोटे घास फूल जैसे बाल, हाथ पैर झुलसे और परिधान से जाने किस समय से उसने स्नान नहीं किया था।
बस देखते ही बरस पड़ी आपको बिना बताए नहीं आना चाहिए।
अतिथि महिला ने तत्काल कहा… तभी तो आपकी पहचान हो पाई है। आप कितना अपनी पहचान बोझिल बनाकर चल रही हैं।
स्वयं भी उसमें उलझी हुई हैं और दूसरों को भी उलझा कर रखी हैं। आप सादगी और असली पहचान में रहती तो शायद मेरी सद्भावना आपके लिए और होती, परंतु जो स्वयं नकली और नकली मुखौटा लगाकर दुनिया को बेवकूफ बना रही है, वह क्या किसी को समझ पाएगी।
कहती हुई वह महिला बाहर निकलने लगी। महोदया को हजारों रुपए के लटकते नकली केश, इधर-उधर बिखरे मेकअप का सामान आज बिना माल के नजर आने लगा।
जो एक गरीब महिला उसे दो टके का जवाब देकर चली गई। अपनी पहचान के लिए वह आईने के सामने खड़ी थी।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 9 – संस्मरण#3
हमारी पीढ़ी ने अवश्य ही सख्त डाँट, मार खाई है और समय पड़ने पर जमकर कुटाई भी हमारी हुई है। संभव है इसमें लड़कियों की संख्या कम ही रही हो पर इस क्षेत्र के इतिहास में हमारा नाम स्वर्णाक्षरों में निश्चित ही लिखा गया है।
मैं अपने माता -पिता की चौथी संतान हूँ। मुझसे पहले दो बेटियों और एक बेटे को माँ जन्म दे चुकी थीं। मैं जब गर्भ में थी तो माँ ने संभवतः फिर बेटे की आस रखी होगी। माँ अक्सर कहती थीं कि मैं अगर लड़का होती तो वे मुझे आर्मी में भेज देतीं। तो निश्चित है गर्भावस्था में सपने भी बेटे को लेकर ही बुनी होंगी। पर दुर्भाग्य ही था कि मेरे रूप में पुत्री ने जन्म लिया। पर पुत्री स्वभाव और बर्ताव से पुत्र समान थी।
ख़ैर कुछ घटनाएँ जीवन में ऐसी घटी कि कूट-पीटकर मुझे सत्तू बना दिया गया पर हर पिटाई ने मेरे चरित्र और व्यक्तित्व को भी सँवार दिया।
घटना है 1960 की। मेरी उम्र थी चार वर्ष। हम कालिंगपॉग या कालिपुंग में रहते थे। यह पश्चिम बंगाल का पहाड़ी क्षेत्र है। बाबा रिसर्च साइंटिस्ट थे। बाबा अक्सर दार्जीलिंग और नाथुला पास अपने काम के सिलसिले में जाया करते थे।
उस दिन भी बाबा दार्जीलिंग गए हुए थे। कालिपुंग पहाड़ी शहर होने के कारण ठंड के दिनों में चार बजे के करीब वहाँ अँधेरा होने लगता है। बाबा घर लौट आए, देखा सब उदास बैठे हैं और माँ रो रही है। तीन बजे से मैं गायब थी। पड़ोसी मुझे ढूँढ़ने निकले थे। बाबा तुरंत कुछ और लोगों के साथ लाठी और बड़ा, लंबा टॉर्च लेकर बेचैनी से मुझे ढूँढ़ने निकले। हमारे घर से थोड़ी दूरी पर तिस्ता नदी बहती थी। दिन भर उसकी आवाज़ घर तक सुनाई देती थी। मैं उस दिन उसी आवाज़ के पीछे निकल गई थी।
बीच में एक घना जंगल था खास बड़ा नहीं था पर वहाँ अजगर और लकड़बग्घे काफी मात्रा में रहते थे। सबको इसी बात की चिंता और भय था कि अँधेरा हो जाने पर कहीं लकड़बग्घे मुझे उठा न ले जाए। तक़रीबन पौने पाँच के करीब हमारे पड़ोसी छिरपेंदा के पिता बहादुर काका मुझे गोद में उठाए घर ले आए।
मुझे माँ ने झट गोद में भर लिया होगा। खूब चूमा होगा, वात्सल्य ने आँसू बहाए होंगे। मैं तो अभी चार ही साल की थी तो घटना स्मरण नहीं। पर बाबा जब लौटे तो चार वर्ष की उस अबोध बालिका पर ऐसे बरसे मानो तिस्ता पर बना पुल टूटा हो और पानी सारा शहर में घुस आया हो! खूब मार पड़ी, बाबा कहते रहे, ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?”
(अर्थात फिर जाओगी कभी तिस्ता नदी किनारे) मैं तो भारी मार खाकर रो- रो कर सिसकती हुई सो हो गई। रात को अचानक मैं नींद में ही बाबा की छाती पर बैठ गई और उन्हें खूब मारा और कहती रही ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?” मैं तो नींद में थी पर बाबा समझ गए कि मेरे कोमल हृदय पर उनकी मार का गहरा सदमा था। माँ कहती थीं कि बाबा रात भर मुझे अपनी छाती पर चिपकाकर सिसकते रहे। मुझे तो घटना स्मरण नहीं पर हाँ यह घटना कईबार हमारे घर में चर्चा का विषय रहा और मैं टारगेट।
उस घटना की बारंबार चर्चा ने मेरे मन पर एक अमिट बात की छाप छोड़ी है और वह है मैं आज भी बिना बताए कहीं नहीं जाती हूँ। घर में सबको पता होता है कि माँ इस वक्त कहाँ है। हमारी बेटियों को भी यही आदत है और नाती और नतिन भी सीख गए।
दूसरी बार मेरा भुर्ता बनाया गया था जब मैं नौ-दस दस वर्ष की थी। उन दिनों गुलैल मारना सीख ही रही थी कि दादा के मित्रों के कहने पर गुलैल मारकर पड़ोसी आजोबा के घर आँवले तोड़ने निकली थी और उनके घर के झरोखे का काँच तोड़ दिया था। आजोबा ने बाबा से शिकायत की तो जो मार पड़ी उसे याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद रुई भी उस तरह से नहीं धुनें जाते!
आजकल बलबीर के साथ जब टीवी पर WWE का खेल देखती हूँ तो मन-ही-मन प्रसन्न भी होती हूँ कि उस छोटी- सी उम्र में मेरे भीतर मार खाने की प्रचंड क्षमता भी थी। मार सहन करना भी बड़ी ताकत की बात है!यह सबके लिए संभव नहीं। इसके लिए अदम्य साहस, शक्ति, मनोबल की आवश्यकता होती है।
उस घटना के बाद मैं किसी के कहने में नहीं आती। जब तक मैं बात को परख न लूँ, जाँच न लूँ, मैं कन्विंस न हो जाऊँ तब तक मैं किसी बात को स्वीकार नहीं करती। इसके कारण एनालाइज करने की क्षमता बढ़ गई। कहते हैं न मुँह का जला छाछ भी फूँक-फूंँककर पीता है। साथ ही मैं मित्रता और उससे घनिष्ठता भी खूब परखकर ही करती हूँ।
एक और घटना स्मरण हो आया 1974 की। मैं फर्ग्यूसन कॉलेज में बी.ए पढ़ रही थी। गणेशखिंड रोड पर माता आनंदमयी का आश्रम है, मैं वहीं से बस पकड़ती थी। पिताजी के एक कलीग सुबह 6.30 बजे सैर करने निकलते थे। उन्हें मैं नहीं पहचानती थी। वे रोज़ मुझसे बातें करते, इधर – उधर की बातें! मैं अभी सत्रह वर्ष की ही थी। माँ का आदेश था किसी अनजान व्यक्ति से बातचीत नहीं करना। पर ये सज्जन तो कुछ ज्यादा ही स्नेह बरसाने लगे। दूसरे दिन मैं एन.सी.सी.के गणवेश में थी। रविवार था, मैं परेड के लिए जा रही थी। सज्जन फिर आए और बात करने की कोशिश करने लगे। जब मैं न बोली तो पूछे नाराज़ हो! मुझे आया गुस्सा, मैंने तपाक से कहा कि, मैं अपरिचित व्यक्ति से बात नहीं करती। तो वे रोज की मुलाकात की बात कहने लगे। मैंने भी कड़क आवाज़ में कहा कि, ” आप शायद रोज़ मेरी जुड़वाँ बहन से मिलते हैं। मैं आपको नहीं जानती। ” उस दिन तो छुटकारा मिल गया।
दो दिन बाद बाबा रौद्र रूप धरकर दफ्तर से घर आए और मुझसे सवाल करने लगे कि मैंने जुड़वाँ बहन की बात उनके कलीग श्री हेगड़े से क्यों कही। झूठ बोलने के कारण दो चार थप्पड़ पड़े, खूब डाँट पड़ी। फिर माँ ने बाबा को मेरे झूठ बोलने की बाध्यता का कारण समझाया कि मैं उस व्यक्ति का रोज़ बस स्टॉप पर मिलने आने से तंग आकर छुटकारा पाना चाहती थी। तो बाबा ने मुझे बुलाकर प्यार किया और सॉरी भी कहा। (जीवन में आगे चलकर मेरी धुनाई करनेवाले मेरे बाबा मेरे सबसे अच्छे दोस्त साबित हुए। जरावस्था में वे हेरी ही सलाह लिया करते थे। )
इस उम्र में सेल्फडिफेंस की अक्ल आ गई थी। साथ मार खाकर कभी झूठ न बोलने का प्रण भी किया। बाबा के सॉरी कहने पर, दूसरों से क्षमा माँगना भी सीख लिया।
1977 में जब बलबीर मेरा हाथ माँगने घर आए ( वे मेरे बाल सखा हैं) तो बाबा ने उनसे कहा था, ” तलवार की धार है यह, संभाल सकोगे?” बलबीर ने कहा था, ” ढाल बना लूँगा मैं इसे, आप देख लेना। “
फिर विवाह के बाद ढाल बनकर परिवार की देखरेख में मैं पूरी तरह तैनात हो गई। ससुराल में खूब सम्मान और स्नेह मिला। ढाल बनते – बनते मेरा व्यक्तित्व ही बदल गया। शरारतें जिंदगी की न जाने किस झरोखे से काफ़ुर हो गईं। सहन शक्ति, मुसीबतों का सामना करने की क्षमता, न लड़ने – झगड़ने की वृत्ति, असत्य से घृणा आदि सब कुछ न जाने व्यक्तित्व में कहाँ से समा गए।
आज लिखने बैठी तो ध्यान आ रहा है कि वह मार, वह कुटाई, वह डाँट सब भलाई के लिए ही तो थे। जीवन अनुशासित और मूल्यों से भर गया।
यह भी सच है कि अपने अतीत के उन पलों को याद कर सच्चाई बयान करने के लिए भी साहस चाहिए जो बाबा ने कूट-कूट कर मुझ में भर दिया था।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 82 ☆ देश-परदेश – आज से चालीस पार ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मौसम के थर्मामीटर ने बता दिया है, कि अब देश के अधिकतर हिस्सों में पारा चालीस डिग्री पार कर जाएगा। विश्व में प्रगति हुई, तो मौसम विज्ञान में भी कुछ नए आयाम जुड़ गए हैं। मोबाइल हर घंटे का तापक्रम, वायु की गति आदि की जानकारी उपलब्ध करवा रहा हैं। कल एक युवा से बात हुई तो उसने कहा तापमान मायने नहीं रखता है, “फील लाइक” कितना है, ये अधिक महत्वपूर्ण है।
हमने भी अपने मोबाइल पर फील लाइक की जानकारी प्राप्त कर अपने आप को युवा फील करने लगे हैं। पुराने समय के लोग कहते थे, चित्त शांत रहे तो गर्मी/ सर्दी का प्रभाव नहीं होता हैं।
आज जब व्हाट्स ऐप पर ऊंगली चला रहे हैं, तो बहुत अधिक गर्म लग रहा है, इसलिए हाथ में दस्ताने (ग्लोव्स) पहन कर लिख पा रहे हैं। विगत कुछ समय से चुनाव की आग हमारे अधिकतर समूहों को भी प्रभावित कर रही हैं। मोहल्ले के समूह में तो एडमिन ने राजनीति और धर्म से संबंधित मैसेज भेजने पर प्रतिबंध की मुनादी तक करवा दी थी। अंत में तीन सदस्यों को जो विपक्ष, सत्ता और एक स्थानीय दल से संबंधित मैसेज शेयर करते रहते थे, को निष्कासित तक कर दिया हैं। अब उन सदस्यों की पत्नियां जोकि समूह की सदस्य भी है, ने राजनीति के तीर छोड़ने आरंभ कर दिए है।
किसी भी समूह का एडमिन एक नीति निर्धारित कर समूह का संचालन करता है, फिर उसकी बात को मानना सभी सदस्यों के लिए आवश्यक हैं। वर्ना समूह छोड़ देना चाइए।
हमें तो भय लग रहा है, यादि व्हाट्स ऐप पर राजनीति के अंगारे परोसे जायेंगे तो, हमारा मोबाइल कहीं गर्मी से फट ही ना जाय।
आपसी संबंधों को राजनीति के तीर तार तार भी कर रहे हैं। हर व्यक्ति ये मानने लगा है, कि उसके द्वारा प्रेषित मैसेज ही अंतिम सत्य हैं।
राजनीतिक कारणों से मन में पड़ी हुई गांठ हो या दरार कभी ठीक नहीं होती हैं। जीवन के इस अंतिम पड़ाव में नए संबंध बनाए और पुराने संबंधों को भी टूटने से बचाएं।
बालपणी फुगडी खेळताना, “चहा बाई चहा, गवती चहा, आम्हा मैत्रिणींची फुगडी पाहा” या गाण्याने झालेला चहाचा परिचय. ज्या वयात चहाची चवही माहीत नव्हती. पण गाण्यातून मात्र परिचय होता. त्या वेळी घरात स्टोव्ह वर चहा मोठ्या पातेल्यात ठेवला जायचा त्या काळी म्हणजे मी लहान असताना एकत्र कुटुंब पद्धती होती. एकत्र म्हणजे आई,वडील आणि मुलं नव्हे तर सगळे काका,त्यांची मुले असे मोठे कुटुंब असायचे. आत्या किंवा काकू चहा ठेवायची आणि चहाला बुडबुडे आलेत का? हे बघायला कोणीतरी सांगायचे. आणि ते छोटे मोठे कसे आलेत हे हात, गाल याच्या मदतीने सांगितले जायचे. आणि त्या हावभावा वरुन चहा किती उकळला आहे ओळखायच्या. मग त्यात दूध घालून झाकण ठेवून थोडा वेळ मुरवायचा. मग दुसऱ्या पातेल्यात गाळून एकेकाला दिला जायचा.
असा चहाचा परिचय! पण प्यायला मात्र बंदी.चहा पिऊन काळी पडशील अशी भीती दाखवली जायची. अजूनही हे कळले नाही,चहा न पिता रंग मात्र चहा सारखा झाला कसा?
मोठे झाल्यावर कळले, इतक्या लहानपणी ज्याचा परिचय झाला तो चहा आपला नाहीच! कोणी एक शेन नुंग नामक चिनी शासक उकळते पाणी घेऊन झाडाखाली बसले होते.आणि अचानक झाडाचे पान त्यात पडले आणि त्या पाण्याचा रंग व चव बदलली हाच तो पहिला चहा. नंतर असेही वाचले, काही बौद्ध भिख्खू ध्यानाला बसताना विशिष्ठ झाडाची पाने खायचे, त्यामुळे त्यांना झोप येत नसे. हाच तो चहा व त्याची पाने. नंतर त्यात साखर,दूध घालून आपला चहा तयार झाला. आणि विविध नावांनी ओळखला जाऊ लागला. आसाम,दार्जिलिंग,निलगिरी अशी नावे घेऊन आला. पण आम्हाला हे काहीच माहिती नसायचे. आम्ही पुण्यातल्या जगप्रसिद्ध महाराष्ट्र टी डेपो समोर रांगेत उभे राहून फॅमिली मिक्सचर मिळाला की धन्यता मानणार. हाच आमचा चहा!
काही मंडळी तर अशी आहेत की त्यांना कोकिळच्या “कुहू कुहू” मध्ये सुध्दा “चहा चहा” ऐकू येते. आणि “चहाला वेळ नसते,पण चहा वेळेवर लागतो”. “सवाष्णीने कुंकवाला आणि पुरुषाने चहाला नाही म्हणू नये”. अशी सुभाषिते सांगून केव्हाही चहा पिणारे चहाबाज आहेतच की. यांना केव्हाही चहा घेणार का? विचारले की उपकार केल्या प्रमाणे “घेऊ अर्धा” म्हणणारे पण असतातच. विशेष म्हणजे रात्री साडेआठ वाजता रोज चहा घेणारे आणि ती वेळ चुकली तर रात्री दहा वाजता घेऊन चहाशी प्रामाणिक राहणारी मंडळी पण आहेतच.
दिवसेंदिवस त्यात विविध पदार्थ मिक्स होऊन विविध उपयोगाचे ऋतू नुसार स्वरूप बदलणारे विविध चवीचे चहा तयार झाले. आणि आता तर फारच विविधता घेऊन विविध नावांनी चहा येत आहेत. ती नावे व त्या सोबत असलेली चित्रे, विविध नक्षी आणि त्या दुकानांची सजावट पाहून कोणालाही चहाचा मोह न होईल तरच नवल. आणि त्याचे दुष्परिणाम होऊ नयेत याची पुरेपूर काळजी घेऊन चहाचे कप आकाराने लहान होत चालले आहेत. अगदी पोलिओ डोस घेतल्या प्रमाणे वाटते.
हे असे मसाला,
गवती,आले, विलायची
चहा घेता घेता एक दिवस
आईस टी समोर आला. आणि गरम, कडक चहाच्या कल्पनेला पुन्हा धक्का बसला. आणि आता तर आपली चहा पावडरच चहातून गायब झाली. आणि याला चहा कसे म्हणावे? हा माझ्या बाल बुध्दीला प्रश्न पडला. मग धाव घेतली गुगल बाबांच्या कडे! त्यांनी सांगितले चहा/टी म्हणजे कोणतीही पाने उकळली की झाला टी आणि आताचे टी बघून गरगरलेच! कारण काही चहा मध्ये पाने पण नाही तर चक्क फुले,बीया काहित झाडाच्या खोडाची साल असे वापरलेले असते.आणि नेहेमीचा रंग टाकून पिवळा,हिरवा,निळा असे इंद्रधनुष्यी रंग पण धारण केलेले चहा समोर येतात.
असे चहाचे अवतार बघता बघता आपल्या चहाचे अस्तित्व धोक्यात आले की काय अशी भीती वाटू लागली आहे. आणि मग चहा,पोहे कार्यक्रमात काय दिले जाणार? आणि चाय पे बुलाया है या ऐवजी कोणते पेय येणार? आणि हाच चहा कोणत्या स्वरूपात मिळणार? आणि चहाच्या टपरीवर गप्पा मारत काय प्यायचे? घरी आलेल्या पाहुण्यांना काय द्यायचे? गाडी चालवताना दर तासाला चहा घेऊन पुढचा प्रवास करणाऱ्यांचे कसे होणार?
असे बरेच प्रश्न मनात आहेत. पण सध्या तरी याची काळजी नाही. अजून तरी हाच चहा प्रचलित आहे. आणि चहाला भेटू या! हे आमंत्रण अजून तरी कायम आहे. तर चला आपणही एकेक चहा घेऊ या.
☆सोळावं वरीस धोक्याचं… – भाग-१☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित ☆
त्या दोघींची अगदी आदर्श अशी दाट मैत्री होती. अगदी जीवश्च कंठश्चतेच प्रतीक असलेली त्यांची मैत्री कशी जमली असेल बाई? हे बघणाऱ्याला अगदी कोडचं होतं. कारण दोघींचे स्वभाव म्हणजे दोन टोकं,एक उत्तर ध्रुव तर दुसरी दक्षिण ध्रुव.रागिणी नांवाप्रमाणे रणरागिणी गुंडांना पाणी पाजणारी ..तर स्वप्ना, टोमणे मारणाऱ्या गुंडां पुढे थरथर कापणारी सशाच पिल्लू व्हायची.आणि आपलेच मोलाचे अश्रू सांडणारी भित्री भागुबाईअशी ही रडूबाई, नावाप्रमाणेचं स्वप्नवेडी, आभासी दुनियेत जगणारी होती. सिनेमा पहाणं हा तिचा आवडता छंद. त्यातला हिरो तिला आपलाच प्रियकर वाटायचा. आणि हिरॉईनच्या जागी तिला आपली स्वतःची छबी दिसायची.टवाळखोर मैत्रिणीं टिंगल करायला लागल्या की मग बाईसाहेब मुळू मुळू रडायच्या.अशावेळी रागिणी तिची ढाल होऊन म्हणायची, “ए लाज नाही वाटत,माझ्या मैत्रीणी ची टिंगल करायला? स्वप्न तिच्या सारख्या सुंदर मुलीनी नाही पाह्यची तर काय तुमच्यासारख्या काळतोंड्यांनी पाह्यची का ? आरशात तुमचं खापर तोंड बघा आधी. निघाल्यात मोठ्या शहाण्या, दुसऱ्यावर तोंडसुख घेणाऱ्या. मग तिची तोफ स्वप्नाकडे वळायची. आणि तिला ती डाफरायची ,” रडतेस काय अशी नेहमी नेहमी नेभळटा सारखी ? तिच्या दमदार धमकीनी त्या कृष्णवर्ण टवाळ पोरी तोंड लपवून पसार व्हायच्या.टिंगल करणाऱ्या पोरींची ही कथा.तर मवाल्यांची क्या बात ? सांगायचं कारण म्हणजे आपल्या भाबड्या मैत्रिणीच्या मागे सतत रागिणी सांवलीसारखी उभी असायची.दोघींच्यात कुठलंच गुपित नसायचं. रूम मेट होत्या ना त्या दोघीजणी ! रात्री अंथरूणावर पडल्यावर स्वप्नाची टकळी सुरू व्हायची. इतरांपुढे अबोल असणारी ही अबोली रागिणीजवळ बोलकी व्हायची. पण हल्ली काय झालय कोण जाणे,!स्वप्ना अंतर्मुख झाली होती. काहीतरी कुठेतरी पाणी मुरतं होतं.आपल्यापासून स्वप्ना काहीतरी लपवतीय.
हे आणि उशिरापर्यंत चाललेलं तिचं, बाहेर राहणं, फिरणं फार खटकलं रागिणीला. नंतर मग, काहीं काहीं गोष्टी उडत उडत कानावर आल्या.स्वप्ना एका मुलाबरोबर हिंडत असते. तिचं म्हणे अफेअर चालू आहे.सांगणाराच थोबाड रंगवावस वाटलं होतं रागिणीला.पण त्याआधी सोक्षमोक्ष लावावा म्हणून तिने स्वप्नालाच खोदून खोदून विचारलं. खनपटीलाचं बसल्यावर ती कबूल झाली, ” हो संतोष बरोबर फिरणं चालू आहे माझं. खूप प्रेम आहे त्याचं माझ्यावर.खूप चांगला मुलगा आहे तो. नुसतं फिरवणार नाही तो मला, तर लग्न करणार आहे तो माझ्याशी. गांवाकडे नातेवाईक आहेत त्याचे. ईथे अगदी एकटा आणि नवखा आहे गं तो.तिचं कौतुक ऐकून रागिणी फणकारली, “अगं पण त्याची बाकीची चौकशी केलीस का तू ?मूर्खासारखी निघालीस लग्न करायला ? आई-बाबा नाहीयेत तुझे.,पण दादाला तर विचार. फसलीस म्हणजे ?”. “नाही ग ! नाही! नाही फसवणार तो मला. खूप साधा , सरळ मुलगा आहे तो.त्याच्याशी लग्न करून मी सुखात राहीन. लग्न करीन तर त्याच्याशीच असंच ठरवलंय मी. आता नोकरी साधी आहे त्याची,पण नंतर होईल सगळं ठीक. मला कोणी जवळचे मायेचे नातेवाईक नाहीत .तोही बिचारा एकाकीच आहे.आणि त्यातून गरिबी पण आहे त्याची. काही वेळेला खर्चायला हॉटेलसाठी पैसे पण नसतात त्याच्याजवळ. अशावेळी त्याचा हॉटेलचा खाण्यापिण्याचा खर्च मीच करते. डोळ्यात पाणी आणून तो म्हणतो,” सपना मेरी सपनोंकी रानी, धीर धर, काही दिवसांनी मी खोऱ्यानी पैसा ओढीन , आणि लग्नानंतर तुला राणी सारखी सुखात ठेवीन. ” हे सगळं आपल्या मैत्रिणीला रागिणीला, भाबडी स्वप्ना भडाभडा सांगत सुटली होती. तिच्या बोलण्याचा धबधबा थांबवत रागिणी म्हणाली, ” मला एक सांग खर्चायला एवढा पैसा तू आणतेस कुठून ? अय्या ! सांगायचं राहिलंच की तुला. संतोषला मी पहिल्या भेटीतच सांगून टाकलंय आई बाबा एक्सीडेंट मध्ये गेलेत माझे. निम्मी इस्टेट माझ्या नावावर आहे. खर्चाचं विचारणार कोणीच नाही मला. दादा वहिनीनी तर माझ नांवच टाकलय.संतोषला हे सगळं मी खुल्लम खुल्ला सांगून टाकल. तेव्हां तो म्हणाला, ” वाईट वाटून घेऊ नकोस मी आहे ना तुला.! मला आई बाबा नाहीत, दादा लक्ष देत नाही हे कळल्या पासून जरा जास्तच प्रेम करतोय तो माझ्यावर. माझ्या मनीचा राजकुमार आहे गं तो “. हे सगळं ऐकतांना रागिणीच्या मनात आलं हे वेडं पांखरू कुणा पारध्याच्या जाळ्यात तर अडकणार नाही ना,! तिची शंका खरी ठरली. कारण रागिणी तिला म्हणाली होती,” अगं मग तुझा राजकुमार दाखव ना मला.”
ठरल्याप्रमाणे संतोष ची गांठभेट झाली. खरचं नावाप्रमाणे राजकुमार होता तो.रागिणी समोर त्याचं स्वप्नावरच प्रेम उतू चालल होत. पण त्यात नाटकीपणा जास्त वाटत होता. आणि त्याची नजर ! त्या नजरेत कोल्ह्याची लबाडी भासली रागिणीला. फुलपांखरासारखी मुलींवरून भिरभिरणारी त्याची नजर नाही आवडली तिला . का कोण जाणे तिला आठवेना,पण जाणवत होतं,आपण हयाला कुठेतरी पाह्यलंय. विचारात गर्क असलेल्या तिला हलवत, स्वप्ना चिंवचिवली, ” ए कुठे हरवलीस ? माझ्या राजकुमाराला पाहून भारावलीस कीं काय? आहेच मुळे तो हँडसम.नंतर मात्र रागिणी गप्पच होती. आपली मैत्रीण फसवली तर जाणार नाही ना ? या विचाराने ती बैचेन झाली होती. संतोषच्या नजरेतला विखार तिला अस्वस्थ करीत होता.
दुसऱ्या दिवशी तर कहर झाला.स्वप्ना नसतांना तो रूमवर आला. आत येण्या आधीच तिने त्याला सांगितलं, ” स्वप्ना नाहीय्ये घरात.” निर्लज्जपणे आत येत तो म्हणाला,” ते माहीत होतं म्हणूनचं तर मी आलोय. फक्त तुझ्यासाठी.काल तुला पाह्यलं आणि मी वेडा झालो. तुझी आणि माझी आधीच भेट व्हायला पाहिजे होती, स्वप्नापेक्षाही तूच आवडलीस मला, पण अजूनही वेळ गेली नाही. काही हरकत नाही अजूनही मैत्री वाढवूया आपण.” रागिणी चवताळलीच., ” निर्लज्ज माणसा! लग्न करणार आहेस नां तू स्वप्नाशी?तिचं प्रेम आहे तुझ्यावर”. छदमीपणे हंसत तो म्हणाला, ” प्रेम ? आणि लग्न ? अशा बावळट मुलीशी कोण करेल लग्न? खूप मुलीं गळ्यात पडतात माझ्या . टाईमपास बरा असतो.म्हणून काय प्रत्येकीशी मी लग्न करू की काय?
आता मात्र रागिणी रणरागिणी झाली.धक्के मारून तिने त्याला घराबाहेर काढलं. विषारी सापाच्या शेपटीवर तिने पाय दिला होता. शेजारी गोळा झाले. सगळ्यांसमोर तमाशा झाला होता.नक्की काय झालं कुणालाच कळलं नव्हतं.जातांना तो फिस्कारला, ” बघून घेईन मी तुझ्याकडे,आता बघच मी कसं तुला जाळ्यात अडकवतो ते!” आणि पाय आपटत तो गेला.
☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ जगात भारी…. आम्ही भिक्षेकरी…!!! – भाग-२☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆
(हो आम्ही टोमणे छातीवर घेऊन मिरवतो…. 🙂 – इथून पुढे
तर; लक्ष्मी रोड / टिळक रोड किंवा इतर खरेदीच्या ठिकाणी आपले हे लोक गळ्यात आपण दिलेली हि पाटी अडकवून फिरतील आणि ज्यांच्या हातात प्लास्टिकची पिशवी आहे, अशा सर्वांना आपले हे लोक, आपली कापडी पिशवी त्यांना Get Well Soon म्हणत देतील…! (सिनेमा ने आपल्याला हा एक लय भारी शब्द दिला आहे)
जे आपले लोक रस्त्यावर अशा मोफत पिशव्या देतील, त्या प्रत्येकाला आपण एका पिशवी मागे पाच रुपये देणार आहोत, म्हणजे एखाद्या व्यक्तीने शंभर पिशव्या वाटल्या तर त्यालाही पाचशे रुपये मिळतील…
आपले लोक पिशव्या देतात की नाही….
हे बघण्यासाठी मी आपल्या इतर 4 – 5 लोकांना (जे सध्या इमाने इतबारे भीक मागतात अशांना) गुपचूप नजर ठेवण्यास सांगणार आहे… त्यांनाही त्या बदल्यात दोन रुपये प्रति पिशवी देणार आहोत….
म्हणजे एखाद्याने शंभर पिशव्या दिल्या तर नजर ठेवणाऱ्या व्यक्तीला आपोआप दोनशे रुपये मिळतील…
ज्या माझ्या लोकांना आपण पिशव्या वाटायला देणार आहोत ते अत्यंत विश्वासू आहेत, त्यांच्यावर खरंतर कोणीही नजर ठेवण्याची गरज नाही….
पण, दारू पिणाऱ्या माणसाला दारूचे दुकान बघितलं की दारूची आठवण येते… तसंच भीक मागण्याच्या काही जागा फिक्स असतात, त्या जागी गेल्यानंतर भीक मागण्याची इच्छा आपोआप होते….
आणि म्हणून नजर ठेवण्याच्या निमित्ताने / बहाण्याने इतर चार-पाच जणांना भीक मागण्याच्या जागेतून त्यांच्याही नकळत बाहेर काढता येईल. इथे आपण माणसाच्या स्वभावाचा वापर करून घेणार आहोत.
आता बरेच लोक मला असे म्हणतील…. फुकट कशाला द्यायच्या आपल्या पिशव्या???
परंतु हि एक बिझनेस ट्रिक आहे, आधी फुकट द्यायचं…. सवय लावायची…. आणि त्यानंतर तीच गोष्ट दामदुपटीने विकायची… ! (अधिक माहितीसाठी मागील पाच वर्षातील स्वतःच्या घरातील वर्तमानपत्रे स्वतः चाळावीत, सर्वच माहिती देण्याचा आम्ही काही मक्ता घेतलेला नाही. ताजा कलम : पाच रुपये किलो हिशोबाने आपण वर्तमानपत्रे अगोदरच रद्दीत विकली असतील तर त्याला आम्ही जबाबदार नाही)
बापरे… चुकून एक टोमणा मारला गेला की…. सवय हो सवय…. दुसरं काय…. ?
तर, अनेक लोक स्वतःचे पोट भरण्यासाठी हि बिझनेस ट्रिक वापरतात…. आपण दुसऱ्याचे पोट भरण्यासाठी, दुसऱ्या एखाद्याला जगवण्यासाठी जर हि ट्रिक वापरली तर त्यात गैर काय…?
विचार करा…. इतक्या साध्या गोष्टीमुळे किती कुटुंबं उभी राहतील ? रस्त्यावरचे किती भिक्षेकरी कमी होतील ?? आणि त्याहून महत्त्वाचं म्हणजे प्लास्टिकचा वापर किती कमी होईल ???
पिशव्या शिवणारे, विकणारे आणि नजर ठेवणारे यांना यातून पैसे मिळतील हा एक भाग आहेच…
सर्वात महत्त्वाचं म्हणजे, या सर्व गोष्टींमुळे भीक मागण्यापासून आपण त्यांना विचलित करणार आहोत… हे सर्व करत असताना, नुसते फिरायचे त्यांना पैसे मिळत असतील, भीक मागायच्या जागेवर जर ते थांबणार नसतील…. तर त्यांना भीक मागायची आठवण तरी राहील का…. ???
रडणाऱ्या लहान मुलाच्या हातात एखादं खेळणं देऊन त्याचं लक्ष विचलित करून त्याला शांत करणं… जगातल्या प्रत्येक आई आणि बापाने हेच आजवर केलं आहे….
(हल्ली रडणाऱ्या बाळाच्या हातात आई मोबाईल फोन देते तो भाग वेगळा, बाळ शांत झालं की मग कसं शांततेत फेसबुक, इन्स्टा वगैरे पाहता येतं
असो, तीच संकल्पना आपण इथे राबवण्याचा प्रयत्न करत आहोत. ! तेच साधं सोपं गणित वापरण्याचा इथे प्रयत्न आपण करत आहोत….
शिवाय फुकट देऊन सुद्धा, “चीत भी हमारी पट भी हमारी”…. !!!
४. यानंतर पुण्यातले मोठे मॉल, दुकानदार यांना मी स्वतः भेटेन… हात जोडून त्यांना आपल्या पिशव्या विकत घ्यायची विनंती करेन. यातून जो पैसा मिळेल तो पिशव्या शिवणाऱ्या, विकणाऱ्या आणि नजर ठेवणाऱ्या व्यक्तींना आपण परत करू.
यानंतर मला माहित आहे….
आता आपला प्रश्न येईल, आम्ही यात काय मदत करू शकतो… ???
१. तर, पहिली गोष्ट म्हणजे प्लास्टिकची पिशवी वापरणे बंद करा माय बाप हो…..आणि स्वतःच्या घरातील कापडी पिशवी वापरा; नसेल तर आमच्याकडे मागा. आम्ही ती तुम्हाला पाठवू “चकटफू”…!!!
२. एक फूट उंच, अर्धा फूट रुंद अशा आकाराच्या पिशव्या शिवता येतील असे कापड आपण आम्हाला देऊ शकता. उदा.जुनी ओढणी, जुनी साडी, मांजरपाटाचे किंवा तत्सम कापड इत्यादी…. (अंगडी टोपडी, फाटके बनियन, विरलेले रुमाल, तसेच घरात जुने शर्ट पॅन्ट पडलेच आहेत तर देऊन टाकू…. असे टाकाऊ कपडे इत्यादी गोष्टी देऊ नयेत… वितभर कपड्यापासून हातभर पिशवी तयार करायला आमचे पितामह काही स्वर्गातून ट्रेनिंग घेऊन आलेले नाहीत… )
नाही म्हणता म्हणता, अजून एक टोमणा गेलाच की राव चुकून…. !
जाऊ द्या….
३. आपल्या परिसरातील दुकानदार / मॉल यांना आमच्या वतीने या पिशव्या कमीत कमी किंमतीत विकत घ्यायला विनंती करू शकता. यालाही ते तयार नसतील तर आम्ही त्यांना Get well soon म्हणत फुकट पिशव्या पाठवू….
प्लास्टिकचा वापर कमी करणे आणि भिक्षेकर्यांचे लक्ष विचलित करणे हा आमचा मूळ हेतू आहे, यातून कोणताही व्यवसाय करण्याचा हेतू नाही…!
४. माझ्याकडे जमा होत असलेल्या देणगीचा विचार करून मी सुरुवातीला साधारण दहा ते बारा लोकांना अशा प्रकारे काम देऊ शकतो. पण भीक मागणाऱ्या जास्तीत जास्त लोकांना यात सहभागी करून, त्यांना मानधन मिळावे, प्लास्टिक पिशव्यांचा वापर पूर्णतः बंद व्हावा…. हा प्रकल्प आणखी मोठ्या प्रमाणावर करता यावा…. यासाठी आपण आम्हाला ऐच्छिक देणगी देऊ शकता.
17 एप्रिल माझा वाढदिवस… याच दिवशी श्रीराम नवमी होती…. याच दिवसाच्या मध्यरात्री मला हि संकल्पना सुचली…. योगायोग म्हणायचा की आणखी काही ? मलाही कळत नाही….!
आपण कुणीही श्रीराम बनू शकत नाही…. पण आपल्या जवळ असणारे “भात्यातले बाण” आपण समाजासाठी “रामबाण” म्हणून तर नक्कीच वापरू शकतो…
बघा पटतंय का… ???
माझ्या वाढदिवसा दिवशी मला सुचलेली ही संकल्पना… !
यामुळे थोड्या प्रमाणात का होईना, परंतु प्लास्टिकचा वापर कमी होईल, त्यामुळे निष्पाप प्राण्यांचे प्राण वाचू शकतील, अनेक सामाजिक आणि वैद्यकीय धोके थोड्या तरी प्रमाणात कमी होतील… माझे भीक मागणारे किमान दहा ते बारा लोक पहिल्या फटक्यातच भिकेतुन बाहेर पडतील…
“भिक्षेकरी” म्हणून नाही…. तर “कष्टकरी” होऊन; ‘गावकरी” म्हणून जगण्याकडे ते एक पाऊल टाकतील…!
वाढदिवसाचं इतकं मोठं गिफ्ट या अगोदर मला कधीही मिळालं नव्हतं…!!!
☆ आईन्स्टाईनचा देव — लेखक : बरूच डी. स्पिनोझा ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆
काही जण कधी कधी चुकीचा किंवा खोटा म्हणा हवं तर, नॅरेटिव्ह सेट करतात. बरेच जण भाषणाच्या ओघात सांगून जातात, आईन्स्टाईननी सुद्धा शेवटी देव मानला होता. ऐकणारे भक्ती भावाने विश्वास ठेवतात. तपासून पहाण्याची कोणी काळजी घेत नाही. अशी स्टेटमेंट ऐकणाऱ्यांसाठी आणि करणाऱ्यांसाठीही आईन्स्टाईनचा देव कसा होता हे वाचा.
— सुनील देशपांडे.
आईन्स्टाईन अमेरिकेतील कित्येक विद्यापीठांमध्ये विविध परिषदांना जात असत, तेव्हा विद्यार्थी त्यांना प्रश्न विचारत.
त्यात वारंवार विचारला जाणारा प्रश्न म्हणजे,
“तुमचा देवावर विश्वास आहे का?”
यावर त्यांचे नेहमीचे उत्तर असायचे,
“माझा स्पिनोझाच्या देवावर विश्वास आहे.”
बरूच डी स्पिनोझा हे सतराव्या शतकात पोर्तुगीज-ज्यूईश मूळ असलेले एक डच तत्त्वज्ञ होते.
ते आणि रेनी डेकार्टस हे दोघे त्या काळातील सर्वश्रेष्ठ बुद्धिवादी विचारवंत मानले जात.
स्पिनोझा यांनी जी देव संकल्पना मांडली तिचे स्वरूप खालीलप्रमाणे सांगता येईल…
देव असता तर मानवाला म्हणाला असता,
“हे उठसूठ प्रार्थना करणं आणि पश्चात्तापदग्ध होऊन आपली छाती बडवणं आता पुरे झालं… थांबवा ते.
या जगात तुम्ही मनसोक्त हिंडा, नाचा, गा, मजा करा.
मी दिलेल्या प्रत्येक गोष्टीचा आनंद लुटा, एवढंच मला अपेक्षित आहे.”
“त्या उदास काळोख्या आणि थंडगार मंदिरात जाणं आधी बंद करा.
खरंतर ती तुम्हीच बांधलेली आहेत,
आणि त्याला तुम्ही म्हणता की ही देवाची घर आहेत!
माझी घरं असतात डोंगरदऱ्यांत, रानावनांत, नदी-नाल्यांवर, समुद्रकिनाऱ्यांवर!
तिथे राहतो मी आणि तिथे राहून तुमच्यावरच प्रेम व्यक्त करतो मी.
आपल्या हीनदीन आणि दुःखी आयुष्यासाठी मला दोष देणं सोडून द्या आता.
‘तुम्ही पापी आहात’ असलं काही कधीच सांगितलेलं नाही मी तुम्हाला.
सतत मला घाबरून जगणं सोडून द्या आता.
मी काही तुमचा न्यायनिवाडा करत नाही की तुमच्यावर टीकाही करत नाही की तुमच्यावर कधी संतापतही नाही.
मला कशाचाही त्रास होत नाही.
मी शिक्षा वगैरेही देत नाही.
कारण मी म्हणजे शुद्ध प्रेम आहे.”
“येता-जाता माझ्यासमोर क्षमायाचना करणे बंद करा एकदम.
क्षमा मागण्यासारखं काही नसतं.
मी तुमची निर्मिती केली आहे असं जर तुम्ही मानत असाल तर तुमच्यामध्ये जे जे आहे ते ते मीच तर दिलेलं आहे तुम्हाला.
आनंद, दुःख, गरजा, मर्यादा, विसंगती… हे सारं काही मीच दिलेलं असेल आणि यातून तुमच्या हातून काही घडलं तर मी तुम्हाला दोषी कसा ठरवू?
तुम्ही जसे आहात त्यासाठी मी तुम्हाला शिक्षा का म्हणून करू?
आपल्या लेकरांच्या चुकांसाठी त्यांना मारता-झोडता यावे म्हणून एखादी भयंकर जागा मी तयार केली आहे असं खरंच वाटतं का तुम्हाला?
कोणता देव करेल असं?”
“ईश्वरी आदेश, दैवी नियम, कायदे वगैरे काहीही नसतं.
काढून टाका डोक्यातून तुमच्या ते.
तुम्हाला ताब्यात ठेवण्यासाठी, तुमच्याकडून हवं ते करून घेण्यासाठी वापरल्या जाणाऱ्या क्लुप्त्या आहेत त्या.
त्यांच्यामुळे तुमच्यात अपराधीपणाची भावना निर्माण व्हावी हाच माझे मध्यस्थ म्हणून काम करणाऱ्यांचा हेतू असतो.”
“तुम्ही आपल्या बांधवांना योग्य तो मान द्या.
जे स्वतःच्या बाबतीत होऊ नये असं वाटतं तुम्हाला तेच दुसऱ्याच्या बाबतीतही करू नका.
मी फक्त एवढेच सांगेन की, आपल्या स्वतःच्या आयुष्याकडे लक्ष द्या.
तुमची सदसद्विवेकबुद्धी हीच तुमची एकमेव मार्गदर्शक असू द्या.
स्वतःशी प्रामाणिक रहा.
कारण अस्तित्वात असलेली एकमेव गोष्ट गोष्ट म्हणजे हे आयुष्य.
ते इथं आहे आणि आत्ता या क्षणाला आहे.
मी तुम्हाला पूर्ण मुक्त बनवलेलं आहे.
तुमच्यासाठी कसली बक्षीसंही नाहीत आणि शिक्षाही नाहीत.
कसली पापही नाहीत आणि कसली पुण्येही नाहीत.
कोणी तुमच्या कृत्याचा हिशोब मांडत नाही की तुमच्या बर्यावाईटाची नोंदही करून ठेवत नाही.
आपल्या आयुष्याचा स्वर्ग बनवायचा की नरक करायचा हे सर्वस्वी तुमच्या हातात आहे.”
“हे आयुष्य संपल्यावर पुढे काय हे मी तुम्हाला सांगू शकत नाही;
पण एकच सांगतो की, या आयुष्यात नंतर पुढे काहीच नाही असं समजून जगा.
अस्तित्वात राहण्याची, प्रेम करण्याची, आनंद लुटण्याची ही एकमेव संधी आहे असे समजून जगा.
नंतर काहीच जर नसेल तर मी तुम्हाला दिलेल्या संधीचे सोने तुम्ही करायला नको का?
आणि नंतर काही असेल तर मी तुम्हाला तुम्ही योग्य वागलात की अयोग्य असलं काहीही विचारणार नाही.
मी एवढंच विचारीन: आवडलं ना तुम्हाला आयुष्य?
मजा आली की नाही? केव्हा सर्वात जास्त मजा आली?
काय काय शिकलात?”
“… तर माझ्यावर विश्वास वगैरे ठेवू नका.
विश्वास ठेवणे म्हणजे मानणं, तर्क करणे, कल्पना करणे.
मला तुम्ही माझ्यावर विश्वास ठेवायला अजिबात नको आहे.
तुम्ही माझा स्वाद घ्यावा, माझी अनुभूती घ्यावी असं मला वाटतं.
प्रिय व्यक्तीच्या ओठांवर ओठ ठेवताना, आपल्या चिमुकल्या बाळाशी खेळताना, आपल्या कुत्र्याचे लाड करताना, समुद्राच्या लाटांमध्ये डुंबताना मला अनुभवा तुम्ही.”
“माझ्यावर स्तुतिसुमने उधळून माझी खुशामत करणे बंद करा.
कसला आत्मकेंद्री आणि अहंमन्य देव समजता तुम्ही मला?
तुमच्या भजन स्तोस्त्रांनी किटून गेलेत माझे कान…
त्या चिकट प्रशंसाशब्दांनी पार वैतागून गेलोय मी.
*तुम्हाला माझ्या विषयी कृतज्ञता व्यक्त करायचीच असेल तर काळजी घ्या आपल्या आरोग्याची, काळजी घ्या आपल्या नातेसंबंधाची, काळजी घ्या भोवतालच्या जगाची.
आनंदित रहा, आनंद व्यक्त करा.
माझी प्रशंसा करण्याचा… मला प्रसन्न करण्याचा हाच एक योग्य मार्ग आहे.”
“एक गोष्ट खात्रीची आहे,
ती म्हणजे तुम्ही इथे आहात…,
जिवंत आहात,
आणि हे जग विविध विस्मयकारक गोष्टींनी ओसंडतंय.
आणखी कसले चमत्कार हवेत तुम्हाला?
कशासाठी इतक्या अपेक्षा?”
“मला कधीही आपल्या बाहेर शोधू नका.
मिळणारच नाही कधी मी.
आपल्या अंतर्यामी शोधा मला तुम्ही.
तिथे मात्र माझी स्पंदने तुम्हाला निश्चितपणे जाणवतील!”
– बरूच डी स्पिनोझा.
(नेटवर सर्च करून स्पिनोझाचे तत्वज्ञानाचा अवश्य अभ्यास करावा. त्याला आस्तिक म्हणावं का नास्तिक हेही ज्याने त्याने ठरवावे. पण स्पिनोझाचा देव सर्वांनीच अंगिकारावा. त्या देवाचे आस्तिक व्हावे. आस्तिक आणि नास्तिक यामधील दरीच नष्ट होऊन जाईल.)