हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – शाप – मुक्त – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – शाप – मुक्त ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – शाप – मुक्त – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

उसके तीनों बेटे एक ही रास्ते के मुसाफिर निकले। शहर की मुसाफिरी की बुनियाद बड़े बेटे ने रखी थी। पिता का तो शहर से दूर का भी नाता नहीं था। कमाना, घर चलाना सब उसके अपने गाँव से होता था। इसके विपरीत बड़ा बेटा केवल शहर की बात करता था। पिता कहाँ जानता बड़े बेटे के भीतर कैसा सपना पल रहा है।

बेटे ने एक दिन पिता से कहा वह एक काम से शहर जा रहा है। पर जाने के बाद तो वह लौटा ही नहीं। पिता उसे ढूँढने गया। संयोग से बेटा उसे दिख गया। बेटा टोकरी में बाज़ार के लिए सिर पर सब्जियाँ ढोता था। पतलून और कमीज़ फटी थी। वह नंगे पाँव था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चेहरे से वह क्रूर लगता था। पिता को आश्चर्य ही तो होता। गाँव में यही बेटा खाली पाँव कभी चलता नहीं था। कपड़ों का वह पूरा ध्यान रखता था।

पिता ने उसे न टोक कर सारा दिन उसका अध्ययन किया। बेटा शाम को एक गली में गया। औरतें उस गली में ग्राहकों के लिए मंडरा रही थीं। औरतों के मतवाले उनसे बातें करने के बाद उनके साथ घर के भीतर चले जाते थे। बेटा इन्हीं औरतों में से किसी एक के यहाँ रहता था। बेटा अब न दिखने से पिता अपने दुख को अपने सीने में किसी तरह दबाये लौट गया।

थोड़े दिनों बाद बड़ा बेटा शहर में मारा गया। पिता को पता लगा तो शव को घर लाया। अरथी उठने के दूसरे दिन मझला बेटा यह कह कर शहर गया वह पता लगाने जा रहा है उसके भाई के साथ क्या हुआ था। वह गया और लौटा ही नहीं। पिता पहले बेटे की तरह उसे भी ढूँढने शहर गया। बहुत भटकने के बाद बेटा दिखाई दिया। पिता ने उसकी गतिविधियों का पता लगा कर देख लिया। वह भी बड़े भाई की तरह सिर पर टोकरी ढोता था। बेटा दिन भर टोकरी ढोने के बाद एक गली के किनारे भिखारियों में जा मिला। इस बार भी वही हुआ, पिता ने उससे मिलना चाहा तो वह दिखा ही नहीं।

कुछ दिनों बाद यह बेटा भी शहर में मारा गया। सूचना पाने पर पिता ने शव लाने की बात बिल्कुल नहीं की। पिता शव को न लाता तो छोटा बेटा स्वयं शहर चला गया। अब तो पिता को उसके लिए भी शहर जाना पड़ा। बेटा उसे मिला। वह भीख मांगता था। उसे दिखाई नहीं देता था। उसने पिता को बताया उसकी आँखों में तेजाब फेंका गया था। उसने पिता से कहा शहर में तो वह ठीक था। बस आँखें न जातीं। पिता उसे हाथों में कस कर रोने लगा। बेटा भी अपनी सूनी आँखों से रोया।

बेटा अपने पिता के साथ गाँव लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। शोकातुर पिता ने अपने आप से कहा “शायद मेरे परिवार पर शहर का कोई शाप होगा। उस शाप को इसी रूप में उतरना था !”

***

© श्री रामदेव धुरंधर

11 – 05 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 240 – छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 240 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आए, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

*

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 187 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 187 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 187) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 187 ?

☆☆☆☆☆

हम दोनों को

हम जैसे बहुत मिलेंगे,

बस हम दोनों को

हम दोनों नहीं मिलेंगे..

☆☆

We both will find

many like us,

It’s just that we won’t

find each other…

☆☆☆☆☆

खुद के सामने खड़े होके मैंने

खुद से ही माफ़ी माँग ली…

मैंने खुद अपना दिल दुखाया है

औरों को खुश करते करते

☆☆

Standing in front of myself

I apologized to myself

Since I kept others happy

by hurting my heart

☆☆☆☆☆

कैदी हैं सब यहाँ…

कोई ख्वाबों का..

तो कोई ख्वाहिशों का..

तो कोई ज़िम्मेदारियों का…

☆☆

Everyone is prisoner here,

Some of their dreams,

While some of their desires…

Others of responsibilities…

☆☆☆☆☆

होती तो हैं ख़ताएँ

हर एक से मगर…

कुछ जानते नहीं हैं

कुछ मानते नहीं…

☆☆

Committal of mistakes

Happens by everyone…

Some are not aware of it

While others don’t accept it…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 45 – “Illusions…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 45 ?

☆ – “Illusions ☆ Shri Ashish Mulay 

longing never ends

and reality never delivers

illusion births illusion

like the constant renewals

 *

sea of words

sees waves of illusions

sails the life

through the ships of delusions

 *

waves rise in meaning

and collapse in jokes

in waters of eyes

poor reality chokes

Mir’s bed is peaceful

for he never dreams

to queen of illusions

his love never cease

 

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आइए डोरे डालें।)

?अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी पर डोरे डाले हैं, अथवा आप पर किसी ने डोरे डाले हैं ? आखिर क्या होता है यह डोरा! डोरा सूत के धागे अथवा तागे को कहते हैं। धागे में सुई से मोतियों अथवा फूलों को पिरोकर माला बनाई जाती है। याद है, फिल्म कच्चे धागे ;

कच्चे धागे के साथ जिसे बांध लिया जाये।

वो बंदी क्या छूटे वहीं पे जिये वहीं मर जाये।।

कहीं वह भाई बहन के बीच की प्रेम की डोर है तो कहीं उसी धागे में मंगलसूत्र के रूप में किसी पतिव्रता का सुहाग सुरक्षित है ;

जीवन डोर तुम्हीं संग बाँधी क्या तोड़ेंगे इस बन्धन को जग के तूफ़ाँ आँधी …

किसी को एक तरह से धागे में उलझाना अथवा बांधना ही डोरे डालना कहलाता है। हमने बचपन में , स्वेटर बुनते वक्त, फंदे डालना सीखा था, लेकिन खुद ही फंदे में उलझकर रह गए। धागा कमजोर होता है, जबकि डोर मजबूत। एक डोर प्रेम की भी होती है, जिसके आकर्षण में इंसान तो क्या भगवान भी खिंचे चले आते हैं।।

डोरे डालना भी एक कला है, जिस पार्टी अथवा व्यक्ति ने आप पर डोरे डाले होंगे, आपका वोट उधर ही तो होगा। कितनी बार विवाहित महिलाओं की आम शिकायत रहती है, कि फलाना औरत हमारे पति पर डोरे डालती है।

वह डोरे कहां से लाती है, और कब चोरी छुपे इनके पति पर डाल देती है कुछ पता ही नहीं चलता।

क्या ये डोरे अदृश्य होते हैं, और क्या इनको किसी जादू अथवा टोने टोटके से हटाया अथवा डिफ्यूज नहीं किया जा सकता। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई आप पर डोरे डालता है, तब आपकी मति मारी जाती है। यह डोरा क्या कोई नजर है, नजर लागी राजा तोरे बंगले पर। ऐसे कई बंगलों पर इन डोरे डालने वालियों ने कब्जा कर रखा है।।

एक डोर होती है, जो पतंग को आसमान में उड़ाती है।

पतंग यूं ही डोर के सहारे आसमान में नहीं उड़ती, पतंग में पहले सूराख कर कन्नी डाली जाती है, जिसे जोते बांधना भी कहते हैं।

एक बार आसमान में उड़ने के बाद आप जितनी डोर खींचेंगे, पतंग उतनी ही आसमान में ऊंची उड़ती जाएगी।

ऊंचे उड़ने वालों को जमाने की बहुत जल्द नज़र लगती है। कोई दूसरी पतंग आसमान में आई, तो पेंच लड़ाने शुरू। खेल तो पूरा डोर का होता है, लेकिन किसी ना किसी की पतंग तो कट ही जाती है। होते हैं, कुछ लालची लुटेरे, जो कटी पतंग पर भी झपट पड़ते हैं।।

केवल चिकनी चुपड़ी बातों से ही नहीं, अदाओं और लटके झटकों से भी सामने वाले पर डोरे डाले जाते हैं। फिल्म नमूना(1949) का शमशाद बेगम द्वारा गाए इस खूबसूरत गीत को सुनकर आप अंदाज नहीं लगा सकते, रानी जी किसी पर डोरे डाल रही हैं, अथवा डाका ;

टमटम से झांको न रानी जी।

गाड़ी से गाड़ी लड़ जाएगी।।

तिरछी नज़र जो पड़ जाएगी।

बिजली सी दिल पे गिर जाएगी।।

अगर डोरे डालने की खुली प्रतियोगिता हो, तो उसमें इस तरह के गीत (फिल्म समाधि 1950) मोटिवेशन का काम कर सकते हैं ;

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 186 ☆ मुक्तिका – सृजन ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका – सृजन)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 186 ☆

☆ मुक्तिका – सृजन ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

मेहनत अधरों की मुस्कान

मेहनत ही मेरा सम्मान

बहा पसीना, महल बना

पाया आप न एक मकान

वो जुमलेबाजी करते

जिनको कुर्सी बनी मचान

कंगन-करधन मिले नहीं

कमा बनाए सच लो जान

भारत माता की बेटी

यही सही मेरी पहचान

दल झंडे पंडे डंडे

मुझ बिन हैं बेदम-बेजान

उबटन से गणपति गढ़ दूँ

अगर पार्वती मैं लूँ ठान

सृजन ‘सलिल’ का है सार्थक

मेहनतकश का कर गुणगान

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२०-४-२१

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “मतदान करू…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “मतदान करू” ☆ श्री सुनील देशपांडे

चला चला मतदान करू

लोकराज्य मजबूत करू

*

लोकशाहीची फळे मधुर हो

मतदानास्तव तुम्ही चतुर हो

योग्य तया मतदान करू

लोकराज्य मजबूत करू

*

लोकशाही मजबूत हवी जर

पाऊस थंडी गर्मी जरी वर

केंद्रावरती गर्दी करू

लोकराज्य मजबूत करू

*

लोकशाहीचा उत्सव करूया

सुट्टी पिकनिक नंतर करूया

चला घरा बाहेर पडू

लोकराज्य मजबूत करू

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जा ही र ना मा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ 🕺 जा ही र ना मा ! 🤣 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

जा हीरनामा सर्वच पक्षांचा

असतो एक पोकळ मनोरा,

अशक्यप्राय अशा वचनांनी

उभा करती सारा डोलारा !

*

हि तगुज करती मतदार राजाशी

त्याच्या चंद्रमौळी घरात,

भाकर तुकडा “फोटोसाठी”

खाती त्याच्याच ताटात !

*

र स्तोरस्ती काढून मिरवणूका

लोकांचा करती खोळंबा उगाच,

कर्णकर्कश्य आवाजाने होतो

फुका ध्वनी प्रदूषणाचा जाच !

*

ना ही आठवत वचननामे त्यांना

एकदा निवडून आल्यावर,

 चार हात दुरून करती नमस्कार

 जे आधी असायचे खांद्यावर !

*

मा मा बनतो भोळा मतदार

 मतदान इमाने इतबारे करतो,

 न झाल्याने वचनांची पूर्ती

 पुन्हा पाच वर्षे मनी झुरतो !

 पुन्हा पाच वर्षे मनी झुरतो !

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ श्रमाची ॲलर्जी: एक राष्ट्रीय रोग – लेखिका- सुश्री परिज्ञा पुरी ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?  विविधा ?

☆ श्रमाची ॲलर्जी: एक राष्ट्रीय रोग – लेखिका- सुश्री परिज्ञा पुरी ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे

एक विचार की आजचे वास्तव?

आधुनिक शिक्षणाने औद्योगिक क्रांतीला लागणारे कामगार तयार झाले का? होय. पण त्याच आधुनिक शिक्षणाने पारंपरिक आणि सामाजिक जीवनातील श्रमाची प्रतिष्ठा नष्ट करून टाकली का? दुर्दैवाने त्याचेही उत्तर होकारार्थी आहे.

शेतकऱ्यांना शेती नको, कष्टकऱ्यांना मोलमजुरी नको, विद्यार्थ्यांना अभ्यासाचे कष्ट नकोत आणि स्त्रियांना घरकाम नको, त्यातही स्वतःच्या मुलांना पूर्णकालिक आई होऊन मोठे करण्याचे दिव्य तर नकोच नको. कोणालाही शारीरिक कष्टाची कामेच नकोशी झाली आहेत. सगळ्यांना खुर्चीत बसून आरामात मिळणारा पगार हवा आहे.

श्रमाची एक खासियत आहे. शारीरिक, अंगमेहनतीची कामे क्वचितच कुणाला आवडतात. पण एकदा का श्रमाची सवय शरीराला जडली की शरीरही तिला सोडू इच्छित नाही. श्रमाने तयार होणारे न्यूरल पाथवेज आयुष्यभर साथ देणारे ठरतात. शारीरिक श्रम ही एक थेरपी आहे. मनात दुःखाचा, अपमानाचा, क्रोधाचा आगडोंब जरी उसळला तरी त्याला शांत करण्याची किंवा त्याची तीव्रता कमी करण्याची शक्ती श्रमात आहे.

मला मनस्वी राग आहे त्या सर्व तथाकथित समाजसुधारकांच्या शिकवणुकीचा ज्यांनी पुस्तकी शिक्षणाला महत्त्व देता देता श्रमाने मिळणाऱ्या भाकरीची किंमत शून्य करून टाकली. या जगात अशी कुठलीही अर्थव्यवस्था अस्तित्वात नव्हती आणि येणार नाही जी सगळ्यांना व्हाइट कॉलर जॉब देऊ शकेल. ब्लू कॉलर जॉब हे जगाचे वास्तव आहे आणि ते कधीही कमी महत्त्वाचे नव्हते.

शेतीसाठी मजूर मिळत नाहीत, घरकामाला बायका मिळत नाहीत, चांगले कामसू आणि होतकरू व्हाइट कॉलर स्टाफ मेंबर्ससुद्धा आजकाल मिळत नाहीत, विद्या ही कष्टाने अर्जित करायची गोष्ट आहे हे आजकालच्या परीक्षार्थींच्या गावीच नसल्याने वर्कफोर्समध्ये गाळ माल भरला आहे ज्यांच्या हातात केवळ कागदाचे तुकडे आहेत, ज्ञान नाही. कारण कुठल्याही प्रकारचे कष्ट कोणालाच नको आहेत. घरातील मोठ्या माणसांची सेवा नकोशी झालीय, लहान मुलांना त्यांचे समाधान होईपर्यंत वेळ देणे नकोसे झाले आहे, सुनेला घरकामात मदत करायला सासूला नकोसे झाले आहे आणि बायकोला घरकामात मदत करायला नवऱ्याला नकोसे वाटत आहे. मी चार पुस्तके शिकले आणि बाहेरून कमावून आणते म्हणजे माझा आणि घरकामाचा आणि स्वयंपाकाचा संबंध नाही हे लग्नाआधी डिक्लेअर करण्यात मुली आणि त्यांच्या आईवडिलांना धन्यता वाटू लागली आहे. एकूण काय, आनंदी आनंद आहे सगळा!

हे सगळं डोळ्यासमोर घडतंय तरी आपलं काही चुकतंय अस कोणालाच वाटत नाहीये. सगळे कसे बदललेली परिस्थिती, जीवनशैली, इ. ना दोष देण्यात व्यस्त आहेत. पण ते बदलणारे आपणच आहोत, हे मात्र कोणालाच मान्य नाहीये.

एकीकडे श्रमाची प्रतिष्ठा नष्ट करणे आणि दुसरीकडे माणसातील मीपणा वाढीस लावणे, ह्या आधुनिक शिक्षणाने निर्माण केलेल्या अशा समस्या आहेत की, त्या समस्या आहेत हेच मुळी लोकांच्या लक्षात येत नाही.

श्रमाने अहंकार ठेचला जातो, हे त्रिकालाबाधित सत्य आहे! मग मोठ्या माणसांनी सुनावलेल्या खड्या बोलांचा राग येत नाही, धाकट्यांनी काळजीपोटी केलेल्या प्रेमळ सूचनांचा त्रास होत नाही, घरातल्या किंवा ऑफिसमधल्या आळशी माणसांनी न केलेल्या कामामुळे आपल्यावर वाढलेल्या बोजाचा अवाजवी त्रास होत नाही आणि सगळ्यांत महत्त्वाचे म्हणजे मी कोणीतरी विशेष आहे, माझे काही अस्तित्व आहे आणि इतरांची मर्जी राखता राखता माझे अस्तित्व कसे नष्ट होत चालले आहे आणि काय माझ्या शिक्षणाचा उपयोग, चूल मूल शिवाय मला आयुष्य आहे किंवा मी काय पैसे कमावण्यासाठी आणि इतरांना आधार देण्यासाठीच जन्माला आलो आहे का, असे प्रश्न लिंगभेदाच्या पलीकडे जाऊन पडणे कमी होते.

या पोस्टद्वारे आधुनिक शिक्षणाचा विरोध करायचा नसून आधुनिक शिक्षणामुळे केवळ लाभ नाही तर हानीही झाली, हे निदर्शनास आणणे आहे. आणि ती हानी वैचारिक, सांस्कृतिक पातळीवर घडून आली आहे, हे शोचनीय आहे.

जाता जाता एक वास्तवात घडलेला प्रसंग: माझी एक आंबेडकरवादी मैत्रीण होती. तिच्या मोठ्या बहिणीला जिने पदव्युत्तर शिक्षण घेतले तिच्या सासरी तिला खूप जाच होऊ लागला. त्याला अनेक कारणे होती पण त्यातील एक मुख्य कारण असे होते की ही बहीण पदव्युत्तर शिक्षण घेतले असल्या कारणाने शेतीत सासरच्यांची मदत करू इच्छित नव्हती. माझ्या मैत्रिणीचेही असे म्हणणे होते की शिक्षण घेतले तर तिने मोलमजुरीची, कष्टाची कामे का करावीत? हाच माझा मुद्दा आहे: शिक्षण घेतले की स्वतःच्या घरच्या शेतीतही काम करणे कमीपणाचे वाटावे, हे जे ब्रेनवॉश काही तथाकथित समाजसुधारकांनी गेल्या अडीचशे वर्षांत भारतीयांचे घडवून आणले आहे ना, ते आपल्या ऱ्हासास कारणीभूत ठरत आहे.

लेखिका – सुश्री परिज्ञा पुरी 

संग्राहक – मेघःशाम सोनवणे

मो – 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ विहिणी – नव्हे मैत्रिणी— भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ विहिणी – नव्हे मैत्रिणी— भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

आधी प्रशांतनं लग्न ठरवलं तेव्हा पुष्पाचा जरा विरोधच होता या लग्नाला.प्रशांत म्हणाला, “ आई,अग शोधून सापडणार नाही अशी मुलगी तुझ्यासमोर आणून उभी करतोय तर का नको म्हणते आहेस ग?काय कमी आहे कलिकामध्ये ? का उगीच नकार द्यायचा म्हणून द्यायचा?एवढी शिकलेली सुंदर हुशार माझ्याइतकाच पगार मिळणारी मुलगी मी अजिबात सोडणार नाही. ठोस कारण सांग मला नको म्हणायचं.”  

पुष्पा जरा घुटमळत म्हणाली, “ तसं नाही रे! कलिका सुंदरच आहे, सगळं छान आहे, पण एकुलती एक आहे ना.” 

“ बरं मग?उलट तुला बरंच वाटायला हवं. भाव्यांची सगळी इस्टेट आयतीच पडेल आपल्या खिशात’! “ उपरोधाने प्रशांत म्हणाला.आपल्या आईचा स्वार्थी,थोडा ,मतलबी स्वभाव जाणून होता प्रशांत. पुष्पा म्हणाली ,” तसं नाही रे बाबा ! पण हिच्यावर एकटीवर आईची जबाबदारी येऊन पडेल ना.  वडील तर नाहीयेत म्हणतोस ना? दोन भावंडं असली की बरं असतं. आईवडील शेअर नाही का होत? “ 

प्रशांत म्हणाला “ हो का?मग मी नाहीये का तुमचा एकुलता एक मुलगा? करणार आहे ना मीच तुमचं?तशीच कलिकाही करील. तिने करायलाच हवं आपल्या आईचं. हा कुठला ग न्याय तुझा?मी कलिकाशी लग्न करणार आणि तिच्या आईची  जबाबदारीही घेणार .नको असेल तर सांग आत्ताच. मी लगेच वेगळा फ्लॅट घेतो.” पुष्पा हादरलीच हे ऐकून. “ तसं नव्हे रे ,पण वाटलं ते सांगितलं. “ 

“ आई,कृपा करून हे कलिका समोर नको बोलू हं, तिला काय वाटेल?किती छान मुलगी आहे ती. तुझं काहीतरीच तिरपागडं असतं बघ.” प्रशांत म्हणाला आणि निघून गेला. वसंतराव ही झकाझकी ऐकत होतेच. पुष्पा फणफणत म्हणाली, “ तुम्ही गप्प बसून रहा बर का .. .कद्धी नका घेऊ बायकोची बाजू. काय हो चूक आहे मी म्हणते त्यात? “ वसंतराव हसत म्हणाले “ मला नका ओढू तुमच्या वादात. मी जातो जरा  बाहेर.” काढता पाय घेत वसंतराव म्हणाले. 

प्रशांतने चार वेळा  कलिकाला घरी आणलं.  खरोखरच छान होती मुलगी.  कलिका मुंबईची होती आणि जॉबसाठी पुण्याला आली होती.  तिच्या आईने या सगळ्याना आपलं घर बघायला बोलावलं. केवढा सुंदर होता  त्यांचा फ्लॅट. मुंबईला चांगल्या एरियामध्ये. प्रशांत कधी बोलला नव्हता हे लोक इतके श्रीमंत असतील असं. कलिकाही कधी असं बोलली नव्हती  .पुष्पाला अगदी कानकोंडं झालं. या सुंदर श्रीमंत मुलीनं काय पाहिलं एवढं आपल्या मुलात हेच तिला समजेना. सहा महिन्यांनी प्रशांत कलिकाचंअगदी थाटामाटात लग्न झालं आणि कलिका सोन पावलांनी घरी आली. पुष्पाला दडपणच होतं की ही श्रीमंतांची मुलगी कशी काय नांदणार आपल्या घरी. पण ती सहज सामावून गेली त्यांच्या घरात. वाटलं तितकी गर्विष्ठ अजिबात नव्हती कलिका. तिच्या आई तर फार चांगल्या होत्या स्वभावाने .आणि कित्ती काय काय करायच्या उद्योग. पुष्पाला उत्तम स्वयंपाक करायची, वाचनाची, भरतकाम  ड्रॉइंगची फार आवड होती. कलिकाच्या आई  मीनाताई एका कॉलेजमध्ये प्रोफेसर होत्या आणि आता निवृत्त झाल्या होत्या. मोठ्या फ्लॅटमध्ये एकट्याच रहात होत्या मुंबईला.

त्या दिवशी वसंतराव फिरायला गेले आणि  चक्कर येते म्हणून मधूनच घरी आले. ‘ जरा झोपतो ग,’ असं म्हणून झोपले. बराच वेळ झाला तरी अजून कसे उठले नाहीत.  पुष्पा उठवायला गेली, तर झोपेतच  वसंतराव गेलेले होते. काहीही होत नसताना, कोणतीही पूर्वसूचना नसताना अचानकच त्यांना हृदयविकाराचा झटका आला आणि ते गेलेच ! सगळ्यांना फार मोठा धक्का होता हा. पुष्पा तर कोलमडूनच गेली. कधीही वसंतरावांशिवाय रहायची सवय नव्हती तिला. हळूहळू एकटं रहाण्याची सवय करावी लागली तिला. यावेळी कलिकाने तिला खूप आधार दिला आणि जपलेही. आपल्या आईचे उदाहरण दिले आणि म्हणाली, “ तुम्हीही आता खंबीर  व्हायला हवं हो आई. माझ्या आईकडे बघा.खूप लवकर गेले माझे बाबा, पण  माझी आई  खंबीर राहिली आणि तिने मला एकटीने वाढवले.आणि स्वतःला खूप व्यस्त ठेवले तिने आणि म्हणूनच मी इतकी शिकले, मोठी झाले.”  

पुष्पाने हळूहळू स्वतःला सावरले आणि आपले आयुष्य सुरू केले. लग्नाला पाच वर्षे झाली.  कलिकाला दोन मुलंही झाली आणि अचानक प्रशांतला आणि कलिकाला अमेरिकेची ऑफर आली. दोघांच्याही आया म्हणाल्या, “अरे मिळतेय संधी तर जा. आम्ही अजून तरी चांगल्या आहोत तब्बेतीने. नंतरचं बघू नंतर. जा तुम्ही.”  कलिका आणि प्रशांत सध्या दोन वर्षासाठी म्हणून अमेरिकेला गेले. 

प्रथम प्रथम पुष्पाला अतिशय बेचैन वाटले, पण नंतर तिने स्वतःला गुंतवून घेतले कितीतरी गोष्टीत. तिने आता दुपारी ड्रॉइंगचे  क्लास  घ्यायला सुरुवात केली आणि तिला छान रिस्पॉन्स मिळायला लागला. छान वेळ जायला लागला तिचा.  एक दिवस सकाळी कलिकाचा फोन आला पुष्पाला. “ आई तुम्हाला एक विनंती होती .माझी आई काल बाथरूम मध्ये पडली आणि फार काही नाहीये पण हाताला फ्रॅक्चर झालंय. तुम्ही प्लीज चार दिवस जाऊ शकाल का?डावा हात आहे तिचा पण जरा थोडी मदत लागेल.नोकर आहेत पण मला फार काळजी वाटतेय हो.मी तर इतक्या लांबून येऊ शकत नाही ना.” कलिका तर रडायलाच लागली फोनवर.” पुष्पा म्हणाली ,” कलिका डोळे पूस बघू. हे बघ काळजी नको करू. मी आत्ताच सकाळी निघते मुंबईला. मी त्यांच्या घरी राहीन आणि तसं वाटलं तर  त्याना आपल्या घरी पुण्याला घेऊन येईन की.तू मुळीच नको काळजी करू ग. ” कलिकाला धीर आला आणि ती म्हणाली आई, “ कळवत रहा हं. किती रिलॅक्स वाटलं तुम्ही जाताय म्हणून ! थँक्स आई “ . 

पुष्पा लगेचच मुंबईला टॅक्सीने  गेली. मीनाताईंना  खूप आनंद झाला त्यांना बघून. “ अग बाई ! कलिकाने दिसतोय फोन केलेला लगेच. काय मुलगी हो. म्हणाले होते मी नको कळवू तुम्हाला. काळजी वाटते हो . नशिबाने डावाच हात आहे म्हणून त्यातल्या त्यात बरं म्हणायचं.” मीनाताई  म्हणाल्या. 

पुष्पा म्हणाली, “ आता आलेय ना मी,मग करा मस्त आराम.” पुष्पाने घर ताब्यात घेतले. स्वयंपाकाच्या बाईना सूचना  दिल्या. मीनाच्या लगेच लक्षात आले,पुष्पा सुगृहिणी आहे आणि उरकही खूप आहे तिला .बाई यायच्या आत सुंदरसा नाश्ता तयार असायचा तिचा. दोघी विहिणी मजेत बाल्कनीत बसून चहा नाश्ता घ्यायच्या. मीनाला खूप आराम मिळाला पुष्पामुळे. “ पुष्पा,आपण मैत्रिणीच जास्त झालो नाही,विहिणी पेक्षा?मग आता मला ए मीना म्हण बघू.आणि मी तुला ए पुष्पा.  चालेल ना? “ हसत हसत दोघीही  तयार झाल्या.

मीनाचे प्लास्टर निघाल्यावर मीनाने खूप फिरवले पुष्पाला मुंबईत.  दोघी चांगली नाटके बघून आल्या,बागेत गेल्या भेळ खाल्ली.मीना म्हणाली, “ खरं सांगू पुष्पा, मला अशी जवळची मैत्रिणच नव्हती ग.कित्ती छान मैत्रीण मिळाली तुझ्यामुळे. आता ही मैत्री कायम ठेवायची आपण.विहिणी नंतर. मैत्रिणी आधी.!” 

“ हो ग मीना,मलाही फार आवडलीस तू.असेच मस्त रहात जाऊया आपण. आता जाऊ ना मी पुण्याला? रहाशील ना नीट? “ मीनाच्या डोळ्यात पाणी आलं. “ कित्ती छान काळजी घेतलीस पुष्पा . खूप खूप आभार ग बाई तुझे. असेच प्रेम ठेव. दुनिया काही का म्हणेना.आपण हे मैत्रीचं नातं कायम जपूया.” 

पुष्पा पुण्याला परत आली. कलिकाला अतिशय आनंद झाला. तिने सासूचे शंभर वेळा तरी आभार मानले.

“ अग त्यात काय कलिका? अडचणीला नको का जायला आपल्या माणसाकडे? तीही आली असतीच की माझ्या अडचणीला.आम्ही आता चांगल्या मैत्रिणी झालोय बरं का. विहिणी नाही काही.” पुष्पा हसून म्हणाली. 

नंतर आला मे महिना.

“ मीना,कोकणातून आमच्या घरी आंबे येतात घरचे.आमच्या चुलतसासूबाई पाठवतात ..येतेस ना? मुकाट बॅग भर.” मीना  आढेवेढे न घेता आली. “ अग पुष्पा,काय ग सुंदर हापूस हा ! असला अस्सल हापूस कित्ती वर्षांनी खाल्ला मी .. वा वा.” 

– क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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