English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 188 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 188 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 188) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 188 ?

☆☆☆☆☆

मुझको तो दर्द-ए-दिल का

मज़ा याद आ गया-

तुम क्यों हुए उदास

तुम्हें क्या याद आ गया…

☆☆

Remembered the bliss filled

Anguish of my lovelorn heart

Why did you become sad

Did you also miss something

☆☆☆☆☆

कहने को जिंदगी थी

बहुत मुख़्तसर मगर

कुछ यूँ बसर हुई कि

खुदा याद आ गया…

☆☆

Had a life so to say

Though much ephemeral

Passed in such away that

Made me remember the God..!

☆☆☆☆☆

रंजोगम तो तमाम मिट गए मगर

तेरा एहसास रह ही गया,

मगर खुश हूँ कि चलो तेरा कुछ

तो अपने पास रह गया…!

☆☆

Your Feelings 

 Though the suffering has gone

yet the feeling still remains,

Happy that atleast something of

yours is still left inside me…!

☆☆☆☆☆

Unchanged Stories ☆

वक्त ने कई ज़ख्म भर दिए,

यादें भी अब कम खलती हैं,

पर किताबों पर धूल जमने से

भला कहानियाँ कहाँ बदलती हैं..!

☆☆

Time has healed many a wound,

Memories are also scarce now…

But when do stories ever change by

settling of dust on the books…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 46 – “Poet’s Curse…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 46 ?

☆ – “Poet’s Curse ☆ Shri Ashish Mulay 

I see a pot

made of a clay

Oh the potter

how do you play?

 

while shaping its clay

was your heart whining

or is it oven’s heart

that was burning

 

do you have any meaning?

oh god made of words

do words mean anything?

or situation is everything?

 

if they mean anything

if you are something

then let these words do

what none can do

 

let these words be reality

as these have made you

where commons can’t reach

let these words make through

 

hammer is the word

that I throw from head to

the pot that doesn’t

deserve a name too

 

arrow is the word

that I shoot from heart to

the shape of clay

that is mimicking you too

 

noose is the word

that I throw from fingers to

a death spreading life

none can raise their fingers to

 

in realm of reality

let these words be true

let that crooked pot feel

it’s made up of clay too… 

 

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 365 ⇒ गधे घोड़े में अंतर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधे घोड़े में अंतर।)

?अभी अभी # 365 ⇒ गधे घोड़े में अंतर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 इंसान का इंसान से हो भाईचारा, लेकिन गधे घोड़े में अंतर पहचानें, यही पैगाम हमारा। वैसे तो इंसान इतना गधा भी नहीं, कि वह गधे घोड़े में अंतर ना पहचान सके, लेकिन फिर भी इंसान कभी कभी धोखा खा ही जाता है।

वैसे घोड़ा भी सिर्फ इंसान की ही सवारी के काम आता है। घोड़े से अच्छा तो उल्लू है, जिस पर लक्ष्मी जी सवार हैं। मूषक पर गणेश जी विराजमान हैं, और शेर पर पहाड़ां वाली शेरां वाली मां वैष्णो देवी। उधर शिवजी ने बैल पर सवारी कर ली तो उनके पुत्र कार्तिकेय ने मोर की। वह तो भला हुआ रामदेवरा के बाबा रामदेव पीर ने घोड़े की सवारी कर ली और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चेतक ने दुनिया में अपना नाम कर लिया लेकिन बेचारा गधा, फिर भी, ना घर का रहा, और ना घाट का।।

वैसे घोड़ा सिर्फ वीरों की सवारी ही नहीं होता, युद्ध में अश्व सेना होती थी, अश्वारोही होते थे, उनके लिए अश्व शाला होती थी। महाभारत के युद्ध में तो चतुरंगिनी और

अक्षौहिणी सेना का वर्णन है, जिनमें हाथी हैं, घोड़े हैं, रथ हैं और पैदल सिपाही हैं, लेकिन बेचारा गधा वहां भी नदारद है।

घोड़े पर जो घुड़सवार बैठता है, वह वीर कहलाता है, जो घोड़ी पर बैठता है, वह वर कहलाता है। समझदार इंसान वैसे एक बार ही घोड़ी चढ़ता है, बार बार घोड़ी तो कोई गधा ही चढ़ता होगा।।

घोड़े की खरीद फरोख्त को हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है। अरबी घोड़े बहुत महंगे होते हैं। घोड़े की रेस में भी किसी खास घोड़े पर ही बोली लगाई जाती है। हारने पर कई रईस सड़कों पर आ जाते हैं। लेकिन जब से राजनीति में हॉर्स ट्रेडिंग शुरू हुई है, घोड़े गधे एक ही चाल चलने लगे हैं। वैसे शतरंज के खेल में भी आपको हाथी, घोड़ा, ऊंट और सैनिक मिलेंगे, लेकिन गधे को वहां भी कोई लिफ्ट नहीं। गधा ना तो खुद भाग सकता है और ना ही कोई इस पर सवार होना चाहता है। इससे तो खच्चर और टट्टू भला, जो पहाड़ों में बोझा भी ढोते हैं और सवारियों को भी।

राजनीति की हॉर्स ट्रेडिंग में घोड़े तो घोड़े, गधों के भी भाव बढ़े रहते हैं। जो राजनीति के चाणक्य होते हैं, वे ही गधे घोड़े में अंतर कर सकते हैं। शतरंज के इस खेल में कौन प्यादा कब वजीर बन जाए, और कौन घोड़ा ढाई घर चल मात ही दे दे, कुछ कहा नहीं जा सकता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 187 ☆ नवगीत – बाँस रोपने – बढ़ा कदम ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवगीत – बाँस रोपने – बढ़ा कदम…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 187 ☆

☆ नवगीत – बाँस रोपने – बढ़ा कदम ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

बाँस रोपने

बढ़ा कदम

.

अब तक किसने-कितने काटे

ढो ले गये,

नहीं कुछ बाँटें.

चोर-चोर मौसेरे भाई

करें दिखावा

मुस्का डांटें.

बँसवारी में फैला स्यापा

कौन नहीं

जिसका मन काँपा?

कब आएगी

किसकी बारी?

आहुति बने,

लगे अग्यारी.

उषा-सूर्य की

आँखें लाल.

रो-रो

क्षितिज-दिशा बेहाल.

समय न बदले

बेढब चाल.

ठोंक रहा है

स्वारथ ताल.

ताल-तलैये

सूखे हाय

भूखी-प्यासी

मरती गाय.

आँख न होती

फिर भी नम

बाँस रोपने

बढ़ा कदम

.

करे महकमा नित नीलामी

बँसवट

लावारिस-बेनामी.

अंधा पीसे कुत्ते खायें

मोहन भोग

नहीं गह पायें.

वनवासी के रहे नहीं वन

श्रम कर भी

किसान क्यों निर्धन?

किसकी कब

जमीन छिन जाए?

विधना भी यह

बता न पाए.

बाँस फूलता

बिना अकाल.

लूटें अफसर-सेठ कमाल.

राज प्रजा का

लुटते लोग.

कोंपल-कली

मानती सोग.

मौन न रह

अब तो सच बोल

उठा नगाड़ा

पीटो ढोल.

जब तक दम

मत हो बेदम

बाँस रोपने

बढ़ा कदम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पाखरू… —” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पाखरू…—” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

माझ्या मनातल्या मनात …

दडलंय एक पाखरू इवलंसं .. भांबावलेलं ..

माझ्याबरोबरच जन्मलेल्या माझ्या स्वप्नांचं

माझ्याबरोबरच चालायला शिकलेल्या ..

माझ्या आशा – आकांक्षांचं …

केव्हाचं अधीर झालंय ते ..

आपले पंख फुलारून

विस्तीर्ण अवकाशात झेपावायला !!

पण …..

पण फसतोच आहे त्याचा प्रत्येक प्रयत्न.. 

पंख होरपळताहेत कधी ….

वास्तवाच्या प्रखर आचेनी

तर कधी झोडपले जाताहेत …

व्यवहाराच्या थंड, निर्मम फटकाऱ्यांनी ….

आणि मग …..

मग आणखी आणखीच सांदी-कोपऱ्यात 

लपू पहातंय हे बिचारं इवलंसं पाखरू !

 

आताशा पण थंडावलीय जरा

त्याची स्वैर उडण्यासाठीची धडपड

मधूनच कधी ऐकू येते फक्त

त्याच्या पंखांची अस्वस्थ फडफड ……

कारण …..

कारण आता ते शहाणं झालंय ..

त्याला समजू लागलंय की …

की बाहेरच्यापेक्षा इथेच …

या मनातल्या मनातच ..

आपण जास्त सुरक्षित आहोत म्हणून !!!!!

समजलंय त्याला …….

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विसावा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ विसावा…  ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

असा विसावा मनास मिळावा,

भान न रहावे काळाचे !

शांत मनाने उजळत रहावे,

दिवे अंतरी आठवांचे!….१

*

सुरम्य संध्या साथ असावी,

नभी तोरणे किरणांची!

तांबुस पिवळ्या रंगाची,

उधळण व्हावी गंध फुलांची! ….२

*

 नजरेमध्ये जरा फुलावा,

 रंग पिवळा बहाव्याचा!

 जांभुळ केशरी गुलमोहर ही,

 दाखवी रंग बहारीचा!….३

*

 निसर्ग करतो किमया सारी,

 न्याहाळीतो मी असा खुळा!

क्षण विसाव्या चा मनी खेळतो,

  फुलवित माझा स्वप्न झुला!….४

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बीज… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

☆ बीज… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’☆

बीज हा शब्द माहित नसेल असा मनुष्य शोधून सुद्धा सापडणार नाही.सर्वसाधारणपणे कोणत्याही वनस्पतीच्या बी ला *बीज* असे म्हटले जाते. इंग्रजी माध्यमात शिकलेली मुलं फार तर Seed अस म्हणतील, पण त्यामागील मर्म मात्र सर्वांना ठाऊक आहे.

आपला देश कृषिप्रधान आहे. पूर्वी *”उत्तम शेती, मध्यम धंदा आणि कनिष्ठ नोकरी”* असे सूत्र समाजात प्रचलित होते. स्वाभाविकच शेती करणाऱ्याला समाजात खूप मोठा आणि खराखुरा मान होता. दुष्काळ काय सध्याच पडायला लागले असे नाही, ते याआधीही कमी अधिक प्रमाणात होतेच. त्याकाळात शेतकरी जरी पारंपारिक पद्धतीने शेती केली जात होती. शेतकरी आपल्या बियाण्याची पुरेशी काळजी घेत असत. शेती नैसर्गिक पद्धतीने केली जायची, श्रद्धेनी केली जायची. रासायनिक शेती नव्हतीच. आपली शेती तेव्हा पूर्णपणे गोवंशावर आधारित होती. त्यामुळे तेव्हा जे काही कमी अधिक अन्नधान्य  शेतकऱ्याला मिळायचं ते *’सकस’*असायचे, ते पचविण्यासाठी आणिक हाजमोला खाण्याची गरज पडत नव्हती. एका अर्थाने मागील पिढ्या धष्ठपुष्ट होत्या. शिवकाळातील कोणत्याही सरदाराचा पुतळा किंवा छायाचित्र बघितले तर ते आपल्या सहज लक्षात येईल.

कोणत्याही कर्माचे फळ हे त्या कर्माच्या हेतूवर अवलंबून असते. शरीरावर शस्त्रक्रिया करणारा तज्ञ मनुष्याचे पोट फाडतो, आणि एखादा खुनी मनुष्यही पोट फाडतो. दुर्दैवाने शस्त्रक्रिया करताना रुग्णास मृत्यू आला तर त्या तज्ञास शिक्षा होत नाही, पण खून करणाऱ्यास शिक्षा होण्याची शक्यता जास्त असते. पूर्वीच्या काळी बलुतेदार पद्धती असल्यामुळे शेतकरी धान्य फक्त स्वतःसाठी, अधिकाधिक फायद्यासाठी न पिकवता संपूर्ण गावासाठी पिकवायचा आणि तेही देवाचे स्मरण राखून. आपली समाज रचना धर्माधिष्ठित होती. इथे ‘धर्म’ हा धर्म आहे, आजचा ‘धर्म’ (religion) नाही. धर्म म्हणजे विहीत कर्तव्य. समाजातील प्रत्येक घटक आपापले काम ‘विहीत कर्तव्य’ म्हणून
करायचा. त्यामुळे त्याकाळी प्रत्येक काम चांगले व्हायचे कारण एका अर्थाने तिथे भगवंताचे अधिष्ठान असायचे.

मधल्या  काळात पुलाखालून भरपूर पाणी वाहून गेले. देश स्वतंत्र झाला. विकासाची नविन परिमाणे अस्तित्वात आली आणि ती कायमची समाजमनात ठसली किंवा जाणीवपूर्वक ठसवली गेली. जूनं ते जुनं (टाकाऊ) आणि नवीन तितके चांगले असा समज समाजात जाणीवपूर्वक दृढ करण्यात आला. भारतीय विचार तेवढा मागासलेला आणि पाश्चिमात्य विचार मात्र पुरोगामी (प्रागतिक) असा विश्वास समाजात जागविला गेला. विकासाचा पाश्चात्य विचार स्वीकारल्याचे दुष्परिणाम आज आपण सर्वजण कमीअधिक प्रमाणात अनुभवत आहोत. अधिकाधिक धान्य उत्पादन करण्याच्या नादात रासायनिक खतांचा बेसुमार वापर करून आणि गोकेंद्रित शेती न करता आपण इंधन तेलावर आधारित परकीय चलन मोठ्या प्रमाणात खर्च करणारी ‘श्रीमंत’ शेती करू लागलो आणि वसुंधरेचे नुसते आपण नुसते दोहन केले नाही तर तिला ओरबाडून खायला सुरुवात केली. त्यामुळे पुढील पिढीला जागतिक तापमान वाढ, वातावरणातील बदल, आर्थिक विषमता आणि भूगर्भातील पाण्याचा तुटवडा अशा कितीतरी भयानक गोष्टी भेट म्हणून जन्मताच वारसाहक्काने दिल्या असे म्हटले तर वावगे होऊ नये. ह्यातून आज तरी कोणाची सुटका नाही.

ह्या सर्व गोंधळात आपण *बीज* टिकविण्याचे  सोयीस्कररित्या विसरलो. जिथे *बीजच* खराब तिथे पीक चांगले येईल अशी अपेक्षा करणे हा मूर्खपणाच ठरणार, नाही का? *”शुद्ध बीजापोटी। फळे रसाळ गोमटी ।।”* असे संतांनी सांगितले असताना आपण ते ‘संतांनी’ सांगितले आहे म्हणून दुर्लक्ष केले आणि हीच आपली घोडचूक झाली असे म्हणता येईल. आपल्या सर्वांच्या एक गोष्ट लक्षात आली असेलच. *खराब* झालेले बीज फक्त शेतातील बियाण्याचे नाही तर आज प्रत्येक क्षेत्रात आपल्याला त्याची प्रचिती येते.
समाजातील सज्जनशक्तीबद्दल पूर्ण आदर व्यक्त करून असे म्हणावेसे वाटते की खूप शिक्षक पुष्कळ आहेत पण चांगला शिक्षक शोधावा लागतो, शाळा भरपूर आहेत पण चांगली शाळा शोधावी लागते, डॉक्टर भरपूर आहेत पण चांगला डॉक्टर शोधावा लागतोय, वकील पुष्कळ आहेत पण चांगला वकील शोधावा लागतोय, अभियंते भरपूर आहेत पण चांगला अभियंता शोधावा लागतोय. आज ही परिस्थिती समाजपुरुषाच्या प्रत्येक घटकास कमीअधिक प्रमाणात लागू आहे असे खेदाने नमूद करावेसे वाटते. हे चित्र बदलण्याचे कार्य आज आपणा सर्वांना करायचे आहे. कारण संकट अगदी आपल्या घरापर्यंत येऊन पोहचले आहे. हे सर्व ऐकायला, पहायला, स्वीकारायला कटू आहे पण सत्य आहे. आपण आपल्या घरात कोणते बीज जपून ठेवत आहोत किंवा घरात असलेले ‘बीज’ खरेचं सात्विक आहे की त्यावरील फक्त वेष्टन (टरफल) सात्विक आहे याचीही काळजी घेण्याची सध्या गरज आहे. वरवर दिसणारे साधे पाश्चात्य शिष्ठाचार आपल्या संस्कृतीचा बेमालूमपणे ऱ्हास करीत आहेत. *शिवाजी शेजारच्या घरात जन्माला यावा आणि आपल्या घरात शिवाजीचा मावळा सुद्धा जन्मास येऊ नये असे जोपर्यंत आईला वाटेल तो पर्यंत यात काहीही फरक पडणार नाही.*

संत ज्ञानेश्वरांच्या काळात देखील असेच अस्मानी आणि सुलतानी संकट होते. राष्ट्राचा विचार करताना दोनचारशे वर्षांचा काळ हा फार छोटा कालखंड ठरतो. माऊलींपासून सुरु झालेली भागवत धर्माची पर्यायाने समाज प्रबोधनाची चळवळ थेट संत तुकारामांपर्यंत चालू राहिली. ह्या सर्व पिढ्यानी सात्विकता आणि शक्तीचे बीज टिकवून ठेवले त्यामुळे त्यातूनच शिवाजी राजांसारखा हिंदू सिंहासन निर्माण करणारा स्वयंभू छत्रपती निर्माण झाला. *”बहुता सुकृताची जोडी । म्हणोनि विठ्ठलीं आवडी।।”* म्हणणारे तुकोबाराय सुद्धा हेच सूत्र (शुद्ध बीज टिकविले पाहिजे) वेगळ्या भाषेत समजावून सांगत आहेत. समर्थांच्या कुळातील मागील कित्येक पिढ्या रामाची उपासना करीत होत्या, म्हणून त्या पावनकुळात समर्थ जन्मास आले. कष्टाशिवाय फळ नाही, नुसते कष्ट नाही तर अखंड साधना, अविचल निष्ठा, तितिक्षा, संयम, धैर्य अशा विविध गुणांचा संचय करावा लागतो तेव्हा कुठे ‘ज्ञानेश्वर’, ‘तुकाराम’, ‘छत्रपती शिवाजी’, ‘सावरकर’, ‘भगतसिंग’, डॉ. हेडगेवार जन्मास येत असतात.

*मृग नक्षत्र लागले की आपल्याकडे पाऊस सुद्धा कमी अधिक प्रमाणात सुरु होतो. शेतकऱ्यांची बियाणे पेरायची झुंबड उडते. शेतकरी आपले काम श्रद्धेनी आणि सेवावृत्तीने करीत असतात. आपणही त्यात आपला खारीचा वाटा घ्यायला हवा. आपल्याला देशभक्तीचे, माणुसकीचे, मांगल्याचे, पावित्र्याचे, राष्ट्रीय चारित्र्याचे, सांस्कृतिक स्वातंत्र्याचे, तसेच समाजसेवेचे बीज पेरायला हवे आहे आणि त्याची सुरुवात स्वतःपासून, आपल्या कुटुंबापासून करायची आहे.*

विकासाच्या सर्व कल्पना मनुष्यकेंद्रीत आहेत आणि ती असावयासच हवी. पण सध्या फक्त बाह्यप्रगती किंवा भौतिक प्रगतीचा विचार केला जात आहे. पण जोपर्यंत मनुष्याचा आत्मिक विकास होणार नाही तोपर्यंत भौतिक विकासाचा अपेक्षित परिणाम आपल्याला दिसणार नाहीत. मागील शतकात लॉर्ड मेकॉले नावाचा एक ब्रिटिश अधिकारी भारतात येऊन गेला. संपूर्ण भारतात तो फिरला. नंतर त्याने ब्रिटिश संसदेत आपला अहवाल सादर केला. त्यात तो स्वच्छपणे सांगतो की संपूर्ण भारतात मला एकही वेडा आणि भिकारी मनुष्य दिसला नाही. सर्व जनता सुखी आहे. आणि ह्याला एकच कारण आहे ते म्हणजे इथली विशिष्ठ कुटुंब रचना आणि कुटुंबातील जेष्ठांचा आदर करण्याची पद्धत (‘एकचालकानुवर्तीत्व’).
आज आपल्याकडे काय परिस्थिती आहे हे वेगळे सांगण्याची गरजच नाही, वृद्धाश्रमांच्या संख्येवरूनच ते आपल्या लक्षात येईल. हे एक उदाहरण झाले. अश्या बऱ्याच गोष्टीत आपण पाश्चात्य लोकांस मागे टाकले आहे.

एक छान वाक्य आहे. *”लहानपणी आपण मुलांना मंदिरात घेऊन गेलो तर तीच मुलं म्हातारपणी आपल्या तीर्थयात्रा घडवतात”*.
‘मुलं एखादवेळेस ऐकणार नाहीत पण अनुकरण मात्र नक्की करतील हे आपण कायम लक्षात ठेवले पाहिजे. मुलांनी अनुकरण करावे असे वातावरण आपण आपल्या नविन पिढीला देऊ शकलो तर हे खूप मोठे राष्ट्रीय कार्य होईल. त्यासाठी समाजात नवीन आदर्श प्रयत्नपूर्वक निर्माण करावे लागतील आणि असलेल्या आदर्शाना समाजासमोर प्रस्तुत करावे लागेल. आपल्या मुलांकडून माणुसकीची अपेक्षा करण्याआधी आपण त्यांना आपल्या आचरणातून माणुसकी शिकवावी लागेल. आपल्याकडे  विवाहसंस्कार सुप्रजा निर्माण करण्यासाठी आहे. तो फक्त *’सुख’* घेण्यासाठी नक्कीच नाही, पण याचा विचार विवाहप्रसंगी किती कुटुंबात केला जातो ?, मुख्य *’संस्कार’* सोडून बाकी सर्व गोष्टी दिमाखात पार पाडल्या जातात, पण विवाह संस्था आणि गृहस्थाश्रम म्हणजे काय हे कोणी सांगत नाही. ते शिकविणारी व्यवस्था आज नव्याने निर्माण करावी लागेल.

हिंदू संस्कृती पुरातन आहे. जशी आपली ‘गुणसूत्रे’ आपण आपल्या पुढील पिढीस सुपूर्द करीत असतो तसेच ‘नीतीसूत्रे’ही पुढील पिढीस देण्याची निकड आहे. अर्थात नितीसुत्रे देताना मात्र आचरणातून अर्थात *’आधी केले मग सांगितले’* या बोधवचनाचे स्मरण ठेऊन द्यावी लागतील आणि हा महान वारसा जपण्याची प्रेरणा सुद्धा. आपल्या पुढील पिढीला आपल्या वडिलांची कीर्ती सांगावीशी वाटेल असे आपण जगायचा प्रयत्न करायला हवा. पाऊस पडल्यावर सर्व वसुंधरेस चैतन्य प्राप्त होते, बहुप्रसवा असलेली वसुंधरा हिरवा शालू पांघरते, या सृजनातून सर्व प्राणीमात्रांना वर्षभर पुरेल इतके अन्नधान्य प्राप्त होत असते. या आल्हाददायी वातावरणाचा मानवी मनावरदेखील सुखद परिणाम होत असतो.

*या आल्हाददायी, मंगलमयी वातावरणामुळे आपल्या विचारांनासुद्धा नवसंजीवनी प्राप्त व्हावी आणि ‘सुसंस्कारांचे, सात्विकतेचे बीज संवर्धित आणि सुफलीत’ करण्याचे कार्य आपणा सर्वांकडून घडावे अशी श्रीरामचरणी प्रार्थना करतो.*

भारत माता कि जय।

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

२२.०६.२०१८

थळ, अलिबाग

मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ आय लव्ह यू पप्पा… भाग – १ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ आय लव्ह यू पप्पा… भाग – १ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

संध्याकाळचे साडे सात वाजले असतील. रस्त्यावरचे दिवे मंदपणे जळत होते. रिक्षातून उतरून तो घरात पाऊल टाकतच होता, तेवढ्यात कुणीतरी ‘अविनाश’ अशी हाक मारल्याचं त्याने ऐकलं. मागे वळून पाहिलं. घराशेजारच्या वळचणीखाली दाढीचे खुंट वाढलेला एक खंगलेला वृद्ध गृहस्थ उभा होता. अविनाशने त्यांना ओळखलं नाही.

ते गृहस्थ दोन पावले पुढे येत क्षीण आवाजात म्हणाले, “तू मला ओळखलं नसणार. मी रामदास काका. तुझा मित्र दिनकरचा बाबा..” 

“काका, तुम्ही? माफ करा. खरंच मी तुम्हाला ओळखलं नव्हतं. या आत या.” अविनाशने असे म्हटल्यावर ते हळूच आत येऊन खुर्चीवर बसले आणि संथपणे म्हणाले, “कसा ओळखशील?….. मला पाहून तीस वर्षे तरी लोटली असतील. अंगात पांढरा शुभ्र शर्ट, स्वच्छ पांढरे मर्सराईज्ड धोतर नेसलेला, डोक्यावर काळी टोपी आणि कपाळावर तिरूमानी रेखलेला काकाच तुझ्या स्मृतीपटलावर असणार. त्यात तुझी काहीच चूक नाही. 

मीच कर्मदरिद्री आहे. केशवसारख्या माझ्या सत्शील आणि नि:स्वार्थी मित्राला मी ओळखू शकलो नाही. माझा स्वत:विषयीचा फाजील आत्मविश्वास नडला. मी अहंकाराच्या नशेत इतका चूर झालो होतो की मला कुणाचीच तमा बाळगावीशी वाटली नाही. त्यामुळे माझं सगळंच नुकसान झालं. सारासार विवेकबुद्धीच नष्ट झाली होती म्हण हवं तर. राखी बांधण्यासाठी, भाऊबीजेला ओवाळण्यासाठी म्हणून येणाऱ्या माझ्या सख्ख्या बहिणींना यापुढे असले थोतांड घेऊन माझ्या घरी येऊ नका म्हणून त्यांना दूर लोटलं होतं.” 

“काका, आता ते सगळं विसरा. इकडे कसं येणं केलंत?”

“अविनाश, मी अजूनपर्यंत केशव आणि माझी झालेली अखेरची भेट विसरलेलो नाही. माझ्या डोळ्यांसमोर तो भेटीचा प्रसंग एखाद्या चित्रपटासारखा तरळतो आहे. मध्यंतरी केशव गंभीर आजारी असल्याचे मला कळलं होतं. एकदा भेटून त्याची माफी मागावी असं मनात होतं पण दुर्दैवाने ते अखेरपर्यंत जमलं नाही. असो.”

तितक्यात आतून चहा आला. चहा घेतल्यानंतर काकांना बोलायला थोडंसं त्राण आलं. ते परत बोलायला लागले.   

“अविनाश, त्या दिवशी साधारण रात्रीचे नऊ वाजले असतील. त्यावेळी आजच्यासारखी फोन किंवा मोबाईलची सुविधा नव्हती. मला कामावरून यायला खूप उशीर होतो हे माहित असल्यानं, केशव मला त्यावेळी भेटायला आला होता. माझ्या हातात पेढ्याचा बॉक्स देत तो मोठ्या उत्साहाने म्हणाला, ‘रामदासा, आज दुपारीच अविनाशला ‘क्लार्क कम टायपिस्ट’ म्हणून नेमणुकीचं पत्र मिळालं आहे. आधी तुलाच ही आनंदाची बातमी सांगायला आलोय. दिनकरनेही लेखी परीक्षेत आणि इंटरव्यूत नक्कीच बाजी मारली असती बघ.’ 

त्यावर मी कुत्सितपणे हसत म्हणालो, ‘केशव तुझं अभिनंदन करतो. परंतु मी काय सांगतो ते ऐक. तू आता माझ्या दिनकरबद्दल बोललास ना ते खरं आहे, तो ही स्पर्धा परीक्षा नक्कीच पास झाला असता. परंतु त्याचा जन्म  बॅंकेतला कारकून होण्यासाठी झाला नाहीये. माझा मुलगा दिनकर आणि सर्वच मुलं डॉक्टर, इंजिनियर वा चार्टर्ड अकाउंटट होण्यासाठी जन्माला आली आहेत. माझी मुलं हुशारच आहेत आणि मी देखील त्यांना शिकवायला समर्थ आहे हे लक्षात ठेव.’  

केशव मला मध्येच तोडत बोलला, ‘रामदासा, तुझा काही तरी गैरसमज होतोय. अरे मी दिनकरची हुशारी पाहूनच तो ह्या स्पर्धा परीक्षेत सहज पास होऊ शकला असता अशा अतिशय सदहेतूने बोललो, बाकी काही नाही.’ 

मी त्याला तुच्छपणे म्हणालो, ‘केशव, तुझ्या तुटपुंज्या पगारातून त्याला उच्च शिक्षण देणे शक्यच होणार नाही. त्यात तुला दारूचे व्यसन. तुझ्या हाताशी दोन पाचशे रूपये कमावणारा का होईना एक मुलगा हवाच. दुसरं असं की तुझ्या उरावर तिघा मुलींच्या लग्नाची जबाबदारी आहे, माझी गोष्ट वेगळी आहे. मला पांडवांच्यासारखे पाचही मुलेच आहेत. मला त्यांच्या लग्नाची चिंता नाही.’  माझा प्रत्येक शब्द केशवच्या काळजाला कापत गेला असणार आहे.           

आपल्या अस्वस्थतेवर नियंत्रण ठेवत केशव एवढेच म्हणाला, ‘रामदासा, तुला एकच सांगतो की एवढा अहंकार बरा नव्हे. अहंकार आणि स्वाभिमान या दरम्यान एक अत्यंत अस्पष्ट सूक्ष्म अशी पुसट रेषा असते. तुझी मुलं खूप हुशार आहेत हे तू गर्वाने सांगतानाच, माझा मुलगा अविनाश किती सामान्य कुवतीचा आहे, हे तू सुचवायचा प्रयत्न केला आहेस. तुझ्या मुलांना शिकवायला तू समर्थ आहेस हे सांगताना, माझ्या असमर्थतेची जाणीव करून दिलीस. तुझं म्हणणं खरेही आहे कारण मला तुझ्याइतका पगार नाहीये. दुसरं असं की एक अहंकारी व्यक्तीच दुसऱ्याला कायम कमी लेखत असते. असो.’ 

‘हे तुला सगळं कबूल आहे ना? मग मी जे बोललो आहे त्यात काय चुकलं माझं?’ मी फटकळपणे बोलून गेलो.  

‘रामदास, एक लक्षात ठेव, तुझी मुले अगदी लहानशी गोष्ट देखील तुझ्या मदतीशिवाय करू शकत नाहीत. परंतु माझ्या अविनाशला मी प्रत्येक वेळी समर्थ आणि स्वावलंबी बनवण्याचा प्रयत्न केला आहे. आज अविनाशने जी नोकरी मिळवलेली आहे ती त्याच्या स्वत:च्या हिंमतीवर मिळवली आहे. त्यात माझा वाटा शून्य आहे. वर्तमानपत्रातली जाहिरात पाहून मला न विचारताच त्याने अर्ज केला. पुण्याला लेखी परीक्षेला येण्या-जाण्यासाठी लागणारे वीस रूपये रेल्वे भाडे त्याने एका मानलेल्या मामाकडून उसने मागून घेतले. लेखी परीक्षा देऊन पुण्याला मुलाखतीला जाताना देखील कुणाकडे तरी पैसे उसने घेऊन गेला. सिलेक्शनचे हे सगळं दिव्य पार पाडल्यानंतर, अविनाशला ओळखणाऱ्या दोघा प्रतिष्ठितांची नावे आणि सह्या हव्या होत्या. त्या सह्याही त्याने स्वत:च्या हिमतीवर मिळवल्या.’ 

‘माझ्याकडे पाठवलं असतंस तर मी सही केली असती, त्यात काय?’ मी गुर्मीतच म्हणालो.

‘अरे, त्याने मला विचारलं असतं तर तुझ्याकडे पाठवलं असतं ना? आज त्या एकोणीस वर्षाच्या पठ्ठ्याने सिव्हील सर्जनकडून फिटनेस सर्टिफिकेटही आणलं आहे. मला त्याचा प्रचंड अभिमान आहे. माझ्या वयाच्या एकेचाळीसाव्या वर्षी मी माझ्या मुलाला स्वत:च्या पायावर उभा राहताना पाहतोय. भले तो आज क्लार्क कम टायपिस्ट का असेना, परंतु भावी आयुष्यात तो स्वत:च्या जिद्दीवर यशाचे शिखर गाठेल याची मला खात्री आहे. माझ्या मुलाच्या कर्तृत्वावर असलेला हा आत्मविश्वास आहे. हा माझा अहंकार नव्हे, कारण अहंकार कधीही घातकच ठरतो. असं म्हणतात की जिथे कुठे अहंकार उफाळून वर येतो तिथे शनी महाराज शीघ्रपणे पोहोचतात आणि त्या अहंकारी माणसाला तुडवूनच ते पुढे जातात. रामदास, एकदा कृष्ण सुदाम्याची मैत्री आठवून पाहा. अरे मैत्रीत अहंकाराची भावना तर सोड, तरतम भाव देखील नसतो. अर्थात अशा गोष्टींवर तुझा विश्वासच नाहीये तर तुला अशा गोष्टी सांगूनही काही उपयोग नाही म्हणा. येतो गड्या, स्वत:ला सांभाळ.!’

  – क्रमशः भाग पहिला 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ आंबामेव जयते… लेखक – श्री द्वारकानाथ संझगिरी ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

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☆ आंबामेव जयते… लेखक – श्री द्वारकानाथ संझगिरी ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

अलीकडे ‘पहिला आंबा खाणं’ हा एक इव्हेण्ट झालाय. सुरुवातीला आंब्याचा भाव (अर्थात हापूस) हा डझनाला बाराशे रुपये असतो. मी इंजिनिअरिंग कॉलेजमधून बाहेर पडलो तेव्हा बाराशे रुपये पगार हा ‘वलयांकित’ पगार होता. ‘‘मला फोर फिगर पगार आहे,’ हे थाटात सांगितलं जायचं. आता त्या भावात बारा आंबे मिळतात.

दर मोसमात आंब्याचा भाव वाढतो आणि दर मोसमात त्याचं कारण दिलं जातं की, ‘यंदा फळ जास्त आलं नाही’. पुढेपुढे ‘किती आंबे खाल्ले’ ही इन्कम टॅक्सकडे जाहीर करण्याची गोष्ट ठरू शकते आणि आयकर विभागाच्या धाडीत दहा पेट्या आंबा सापडला ही बातमी ठरू शकते. पण तरीही आंबा हा मराठी माणसाच्या आयुष्यातला महत्त्वाचा घटक कायम राहणार.

मी जिभेने सारस्वत असल्यामुळे सांगतो, मला बांगड्याएवढाच आंबा आवडतो. तुम्ही मला पेचात टाकणारा प्रश्न विचाराल की, ‘बांगडा की आंबा?’ तर उत्तर, दोन्ही,  आंबा आणि बांगड्याबद्दल असेल. तळलेला बांगडा आणि आमरस हे एकाच वेळी जेवणात असणं यालाच मी ‘अन्न हे पूर्णब्रह्म’ असं म्हणतो.

माझ्या लहानपणीसुद्धा हापूस आंबा महाग असावा. कारण तो खास पाहुणे आले की खाल्ला जायचा. आमरस करण्यासाठी पायरी आंबा वापरला जायचा आणि ऊठसूट खायला चोखायचे आंबे असत. बरं, पाहुण्याला हापूस देताना आंब्याचा बाठा खायला देणं अप्रशस्त मानलं जाई. त्यामुळे बाठा माझ्या वाट्याला येत असे. मला बाठा खायला किंवा चोखायला अजिबात लाज वाटली नाही आणि आजही वाटत नाही. दोन मध्यमवर्गीय संस्कार माझ्यात आजही अस्तित्वात आहेत. एक, आंब्याचा बाठा खाणे आणि दुसरा, दुधाचं भांडं रिकामं झाल्यावर जी मलई किंवा तत्सम गोष्ट भांड्याला चिकटते, ती खाणे. कसले भिकारडे संस्कार, असा घरचा अहेर (माहेरहून आलेला) मला मिळायचा! पण ज्यांनी तो आनंद घेतलाय त्यांनाच माझा आनंद कळू शकेल. एवढंच काय की, घरचं दूध नासलं की मला प्रचंड आनंद व्हायचा. त्यात साखर घालून आई ते आटवायची आणि त्यातून जे निर्माण व्हायचं त्यालाच ‘अमृत’ म्हणत असावेत, अशी लहानपणी माझी समजूत होती. आता हा आनंद दुष्ट वैद्यकीय विज्ञानामुळे धुळीला मिळालाय. देवाने माणसाला कोलेस्टेरॉल का द्यावं? आणि त्यात पुन्हा वाईट आणि चांगलं असे दोन प्रकार असताना वाईट कोलेस्टेरॉल का द्यावं? बरं ते कोलेस्टेरॉल जर निर्माण करायचं, तर ते मलईत वगैरे टाकण्यापेक्षा कारलं, गवार किंवा सुरणात टाकलं असतं तर बिघडलं असतं का? आंबाही फार नको, असं सुचविताना डॉक्टर त्यात पोटॅशियम असतं ते चांगलं, असा उःशाप देतो ते बरं असतं.

आंबा हा फळांचा खऱ्या अर्थाने राजा! तो मला जेवणाच्या ताटात किंवा बशीत कुठल्याही रूपात आवडतो. आमच्या घरी आंबा खास पाहुण्यांना (बायकोची आवडती माणसं) हा सालंबिलं कापून, छोटे तुकडे करून एका ‘बोल’मध्ये छोट्या फोर्कसह पेश केला जातो. असं साहेबी आंबा खाणं मला बिलकूल आवडत नाही. आंबा खाताना हात बरबटले पाहिजेत, सालंसुद्धा चोखलीच पाहिजेत आणि जमलं तर शर्टावर तो सांडला पाहिजे. तरच तो आंबा खाल्ल्यासारखा वाटतो. आंबा ताटात असताना मासे सोडून इतर पदार्थ मला नगण्य वाटतात. विव्ह रिचर्डस्‌ बॅटिंग करताना मैदानावरच्या इतर सर्व गोष्टी नगण्य वाटायच्या तशा! आंबा खाण्यासाठी चपाती, परोठ्यापासून सुकी भाकरही मला चालते.

फक्त एकच गोष्ट मला जमलेली नाही. आमरस भातात कालवून भात ओरपणे! माझ्या एका मित्राला ते करताना पाहिलं आणि मला त्या मित्रापेक्षा आंब्याची कीव आली. आंब्याची गाठ भाताशी मारणं हे मला एखाद्या गायिकेने औरंगजेबाशी विवाह लावण्यासारखं वाटलं.

आंब्याच्या मोसमात पूर्वी मला लग्नाला जायला आवडे. म्हणजे मी अशा काळाबद्दल म्हणतोय जेव्हा जेवणाच्या पंगती असत, बुफे नसे आणि जेवण हे मुंबईएवढं कॉस्मॉपॉलिटन नव्हतं. त्या वेळी सारस्वत लग्नातली कोरडी वडी, (जी ओली असून तिला कोरडी का म्हणत ते सारस्वत जाणे) पंचामृत आणि अनसा-फणसाची भाजी! ही भाजी त्या वेळी फक्त श्रीमंत सारस्वत लग्नात असे. कारण त्या भाजीत आंबा, अननस आणि फणस असे त्रिदेव असत. त्यामुळे तिला ग्रेट चव येई. त्या काळी सारस्वत लग्नात अनसा-फणसाची भाजी ठेवणं हा स्टेटस सिम्बॉल होता.

आंब्याचा उल्लेख रामायण, महाभारतातही आहे. तसंच पतंजलीचं महाभाष्य आणि पाणिनीची अष्टाध्यायी या ग्रंथांतसुद्धा आहे. जवळपास सर्वच धार्मिक विधी आंब्याच्या पानाशिवाय होत नाहीत.  कोणत्याही कलशावर आम्रपल्लव ठेवून मग त्यावर नारळ किंवा पूर्णपात्र ठेवतात.

हापूसपासून राजापुरी, तोतापुरी, बाटली आंबा वगैरे कुठलाही आंबा मला आवडतो आणि मी तो खातो. शाळा-कॉलेजात असताना एप्रिल-मे महिन्यात आंबा आणि सुट्टी या एवढ्याच दोन गुड न्यूज असायच्या. बाकी सर्वच बॅड न्यूज!

कुठल्याही रूपातला आंबा मला आवडतो. उदा. कैरी, कैरीचं पन्हं, लोणचं, मोरांबा, आंबटगोड लोणचे, आंबापोळी वगैरे वगैरे! फक्त आंब्याच्या कोल्ड ड्रिंक्सच्या वाटेला मी जात नाही. अवाजवी आणि फालतू साखरेला शरीरात यायचं आमंत्रण का द्या?

चला, आता दीड-दोन महिने आमच्या घरी मासळी, आयपीएलपेक्षा आंब्याची चर्चा जास्त असणार. पलीकडच्या कर्वेबाईंनी हापूस स्वस्तात मिळविल्याचा टेंभा मिरविल्यावर माझ्या बायकोचा चेहरा ख्रिस गेलचा कॅच सुटल्यासारखा होणार. पण पुढे आजचा मेनू काय, हा प्रश्न नवरा विचारणार नाही, याचं समाधान असणार. कारण बाजारातला हापूसच काय, बाजारातला शेवटचा बाटली आंबा संपेपर्यंत नवरा शांत असणार.

‘आंबामेव जयते!’

लेखक : श्री द्वारकानाथ संझगिरी.

#माझी_टवाळखोरी 📝

poetrymazi.blogspot.in, 

संग्राहक :श्री. अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

kelkaramol.blogspot.com 

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बार्गेनिंग पाॅवर… — ☆ प्रा. डॉ. सतीश शिरसाठ ☆

प्रा. डॉ. सतीश शिरसाठ

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बार्गेनिंग पाॅवर… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

१ मे हा आंतरराष्ट्रीय कामगार दिन म्हणून जगभर मानला जातो. या निमित्ताने एक आठवण.

पुण्याच्या सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठात असताना आमच्या प्रौढ निरंतर शिक्षण आणि ज्ञानविस्तार विभागातर्फे  काही समाजाभिमुख उपक्रम चालवले जात असत. त्यापैकी ‘असंघटित कामगार’ या विषयाचा मी समन्वयक होतो. असंघटित कामगारांची अनेक वैशिष्ट्ये मी अभ्यासली होती.अनेक ठिकाणी ही सांगतही होतो. त्यापैकी एकाचा नेमका अर्थ मला एका  घटनेतून समजला.

नवरात्रीनिमित्त बरीच खरेदी करायची होती. सारासार करून मी मंडईत गेलो.सायंकाळची वेळ होती.मंडईचा परिसर गर्दीने फुलून गेला होता.हे टाळण्यासाठी मी बाहेर बसलेल्या एका बाईकडं गेलो.

” बोला दादा” मला पाहून ती बाई सावरत बसत मला म्हणाली. घट,माती,फुलं वगैरे यादीतल्या  बहुतेक वस्तु मला तिथं मिळाल्याने मी खुष होतो.सगळं झाल्यावर ,” किती झाले?” असं विचारल्यावर तिनं आकडा सांगितला.

“नक्की द्यायचे किती?”

“पाच कमी द्या”.

” नाही मावशी.राऊंड फिगर देतो” असं म्हणून मी दहा रूपये वाचवले.

माझा हा  आनंद पुढं टिकला नाही.

मला आठवलं माझ्या मोबाईलचं   कव्हर अक्षरश: फाटलं होतं.एका दुकानात गेलो.

” बोलो सर”.

मी माझा मोबाईल दाखवून नवीन कव्हर मागितलं.दुकानदारानं किंमत सांगितली.

” नक्की द्यायचे किती “?

माझा प्रश्न ऐकताच त्यानं भिंतीवरच्या प्राईस लिस्टकडं  बोट दाखवलं 

” रेट फिक्स है|” हे वाक्य ” घ्यायचं असेल तर घ्या, नाहीतर फुटा” अशा टोनमध्ये म्हटलं. कव्हर बसवल्यावर त्यानं सांगितलेली रक्कम देऊन मी दुकानाबाहेर पडलो.

असंघटित क्षेत्रातील  कामगारांकडून  एखादी वस्तु किंवा सेवा घेताना ग्राहकांची बार्गेनिंग पाॅवर जास्त असते.संघटित क्षेत्रात मात्र अशी घासाघीस करता येत नाही हे  त्या घटनेतून मला  समजलं.

© प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ

सेवानिवृत्त प्राध्यापक, सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ, पुणे

मो व वाटसॅप नं. – ९९७५४३५१५२, ईमेल- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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