मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆‘ज्येष्ठ नागरिकांसाठी एक छान सल्ला!…’ – कवी : अज्ञात ☆ प्रस्तुति – श्री मनोहर जांबोटकर ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ ‘ज्येष्ठ नागरिकांसाठी एक छान सल्ला!…’ – कवी : अज्ञात ☆ प्रस्तुति – श्री मनोहर जांबोटकर

काटकसर जरूर करावी

चिकटपणा नको

भरभरून आयुष्य जगावं

हातचं राखून नको

 *

विटके दाटके आखूड कपडे

घरी घालून बसायचे

स्वच्छ चांगले कपडे फक्त

बाहेर जाताना वापरायचे

 *

कपाटं भरून ठेवण्यापेक्षा

घरातही टापटीप रहावं

राजा-राणीसारखं रूप

वास्तूलाही दाखवावं

 *

महागाच्या कपबश्या म्हणे

पाहुण्या-रावळ्यांसाठी

जुन्या-पुराण्या फुटक्या

का बरं घरच्यांसाठी?

 *

दररोजचाच सकाळचा चहा

घ्यावा मस्त ऐटीत

नक्षीदार चांगले मग

का बरं ठेवता पेटीत?

 *

ऐपत असल्यावर घरातसुद्धा

चांगल्याच वस्तू वापरा

का म्हणून हलकं स्वस्त?

उजळा कोपरा न कोपरा

 *

अजून किती दिवस तुम्ही

मनाला मुरड घालणार?

दोनशे रुपयांची चप्पल घालून

फटक फटक चालणार?

 *

बॅलन्स असून उपयोग नाही

वृत्ती श्रीमंत पाहिजे

अरे वेड्या जिंदगी कशी

मस्तीत जगली पाहिजे

 *

प्लेन कशाला ट्रेन ने जाऊ

तिकीट नको ACचं?

गडगंज संपत्ती असूनही

जगणं एखाद्या घुशीचं

 *

Quality चांगली हवी असल्यास

जास्त पैसे लागणार

सगळं असून किती दिवस

चिकटपणे जगणार?

 *

ऋण काढून सण करावा

असं आमचं म्हणणं नाही

सगळं असून न भोगणं

असं जगणं योग्य नाही

 *

गरिबी पाहिलीस, उपाशी झोपलास

सगळं मान्य आहे

तुझ्याबद्दल प्रेमच वाटतं

म्हणून हे सांगणं आहे

 *

टिंगल करावी टोमणे मारावे

हा उद्देश नाही

तुला चांगलं मिळालं पाहिजे

बाकी काही नाही

 *

लक्झरीयस रहा, एन्जॉय कर

नको चोरू खेटरात पाय

खूप कमावून ठेवलंस म्हणून

चांगलं कुणीही म्हणणार नाय

 *

ऐश्वर्य भोगलं पाहिजे,

माणसाने मजेत जगलं पाहिजे…!

कवी : अज्ञात

प्रस्तुती : श्री मनोहर जांबोटकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – नेताजी सुभाषचंद्र बोस… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? नेताजी सुभाषचंद्र बोस… ? श्री आशिष  बिवलकर ☆

नेताजी सुभाषचंद्र बोस,

धगधगते यज्ञकुंड!

स्वातंत्र्याचा ध्यास घेतला,

आयुष्य वाहिले अखंड!… १

*

जशास तसें उत्तर दयावे,

क्रांतीचा मार्ग आंगिकारला!

आझाद हिंद सेना पाहून,

युनियन जॅक तेव्हा घाबरला!… २

*

तुम मुझे खून दो,

मै तुम्हे आझादी दूंगा हा नारा!

अहवानास पेटून उठला,

हिंदुस्थान साथ द्यायला सारा!… ३

*

दुसरे महायुद्ध पेटले,

स्वातंत्र्याची संधी आली चालून!

ब्रिटिशांशी लढा उभारला,

आझाद हिंद सेनेने दंड थोपटून!… ४

*

स्वातंत्र्याच्या लढ्यातले,

सुभाषबाबू अढळ ध्रुव तारा!

आजच्या या दिनी विनम्रतेने,

अभिवादन करतो भारत सारा!… ५

*
आजवर रहस्यच राहिलंय,

सुभाष बाबुंचे काय झाले पुढे!

शंकाकुशंका दाटले धुके,

गुलाब चाचांच्या कर्माचे पाढे… ६

© श्री आशिष  बिवलकर

दि. 04 मार्च 2025

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 284 ☆ कथा-कहानी – जानवर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी  एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय कथा – ‘जानवर’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 284 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जानवर

रोज़ की तरह सवेरे सवेरे ही केदार दादा घर का दरवाज़ा खोलकर बरामदे में बैठ गये। सामने सड़क पर लोगों का आना-जाना चल रहा था। खरखराते हुए हल, ढचर-ढचर करती बैलगाड़ियां,चंगेर में बच्चों को लिए, उंगलियों से अंग्रेज़ी का अक्षर ‘वी’ बना कर उसके बीच में इधर-उधर देखती घूंघटवाली औरतें— सब अपने अपने काम पर जा रहे थे। केदार के सामने आने पर लोगों का उनसे ‘राम राम’ का आदान-प्रदान होता।

केदार की नींद सवेरे चार बजे ही खुल जाती है। वे लेटे-लेटे करवटें बदलते बाहर सड़क पर होने वाले तरह-तरह के शब्द सुनते रहते हैं—चमरौधे जूतों की चर्रमर्र, हलों की खरखराहट, गुज़रते हुए लोगों के बतयाने की आवाज़ें, बाहर घास पर मुंह मारते मवेशियों की चभड़-चभड़। पांच बजे सवेरे से पास के मन्दिर में ऊंचे स्वर में भगवत लाल का भजन शुरू हो जाता है। भगवत लाल दस साल से भी अधिक समय से यह काम समर्पित होकर कर रहा है।

जब अंधेरा बिल्कुल सिमट जाता है तब केदार बाहर निकल कर तख्त पर बैठ जाते हैं। इसी तरह बहुत वक्त गुज़र जाता है। जब पुन्नू घोसी दूध दे जाता है तभी भीतर जाकर चाय बनाते हैं और पीकर बाहर बैठ जाते हैं।

एकाएक उनका पालतू बिल्ली का बच्चा भीतर से रेंगकर बाहर आया और उनके पैरों के पास खड़े होकर उनके मुंह की तरफ मुंह उठाकर ‘म्याऊं म्याऊं’ करने लगा। यह बच्चा बिलौटा था, यानी नर। वह काले और सफेद रंग का बहुत प्यारा लगने वाला बच्चा था। जब  वह केदार की तरफ मुंह उठाकर चिल्लाता तो ऐसा लगता जैसे कोई बच्चा शिकायत कर रहा हो।

केदार उसकी तरफ झुक कर प्यार से बोले, ‘कहो सीताराम, भूख लग आयी? थोड़ा रुको, दूध आता ही होगा।’

बिलौटा थोड़ी देर तक इसी तरह चिल्लाता रहा, फिर कूद कर उनकी गोद में चढ़ गया और उनकी जांघ पर सर रखकर आराम से ऊंघने लगा। केदार उसके मखमल से शरीर पर हाथ फेरने लगे।

केदार घर में अकेले रहते हैं। पत्नी की आठ साल पहले मृत्यु हो गयी थी। थोड़ी सी ज़मीन है जो बटाई पर दे देते हैं। एक बेटा है जो भोपाल में प्रोफेसर है। शादीशुदा है, तीन बच्चों का बाप। दो बेटियां हैं जो अच्छे घरों में चली गयी हैं। बेटा सत्यप्रकाश साल में एकाध बार ही घर आता है। उसके बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए होता यह है कि जब बाप को छुट्टी मिलती है तब बच्चों को नहीं मिलती, और जब बच्चों को दिसम्बर में बड़े दिन की छुट्टी मिलती है तब बाप को नहीं  मिलती। वही गर्मी की छुट्टी में आठ दस दिन के लिए आना हो पाता है, वह भी अनिश्चित। कुछ  ऐसा भी लगता है कि सत्यप्रकाश का मन अब गांव में नहीं लगता, इसलिए वह किसी न किसी बहाने अपना आना टालता रहता है।

पहले यह होता था कि सत्यप्रकाश कह देता कि वह  अमुक महीने में आएगा और केदार दादा दिन गिनना शुरू कर देते। बताया हुआ महीना आने पर वे रोज़ शाम को बस अड्डे पर बैठ जाते और रात दस बजे तक बैठे रहते। उनकी नज़र हर बस को व्यग्रता से छानती रहती। अन्त में वे उदास चेहरे से घर लौट आते। फिर जब सत्यप्रकाश आता तो वे उसे उलाहना देते।

सत्यप्रकाश के दो बेटे और बीच में एक बेटी थी। बेटे आठ और तीन साल के और बेटी पांच साल की थी। केदार के प्राण उन बच्चों में लगे रहते। जब बच्चे आ जाते तो वे बहुत खुश रहते। उनकी उंगली पकड़कर उन्हें सारे गांव में घुमाते। छोटे अरुण की अटपटी बातों के जवाब वैसी ही अटपटी भाषा में देते। घर में जो भी आदमी आता उससे बच्चों के बारे में ही बात करते। केदार दादा के वे दस बारह दिन जैसे पंख लगाकर उड़ जाते।

जब बच्चे चले जाते तो केदार बहुत उदास हो जाते। उनके जाते वक्त बस-अड्डे पर केदार की आंखें भर भर आतीं। वे खड़े-खड़े चेहरा इधर-उधर घुमाते रहते। बच्चे निस्पृह भाव से ‘टाटा’ करते हुए चले जाते और केदार के लिए घर तक पहुंचना मुश्किल हो जाता। दो तीन दिन तक उन्हें खाने-पीने इच्छा न होती। वे मुंह लटकाये तख़्त पर बैठे रहते।  कोई मिलने वाला आता तो बार-बार कहते— ‘बच्चों की याद आ रही है।’ वे महीनों तक बच्चों की शरारतों और उनके भोलेपन की चर्चा करते रहते।

तीन चार बार केदार शहर जाकर बेटे के घर में रहे थे। उन्होंने सोचा था वहां बच्चों के साथ मन लगा रहेगा। लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें लगता जैसे वे अपने स्वाभाविक वातावरण से टूट गये हों। उन्हें लगता जैसे वे बिलकुल फालतू और बाहरी आदमी हों। सब अपने अपने काम में लगे रहते और वे पलंग पर करवट बदलते रहते या बरामदे में कुर्सी पर बैठे इधर-उधर ताकते रहते।बच्चे भी उनके पास बैठने के बजाय अपने साथियों के साथ खेलना पसन्द करते। मुहल्ले में उनको अपने प्रति उदासीनता और रुखाई का भाव नज़र आता। एक  दो बुजुर्गों के साथ उठना-बैठना हो जाता था, लेकिन वहां भी उन्हें आराम और निश्चिंतता महसूस न होती। वे  मुहल्ले की सड़क पर निरुद्देश्य घूमते रहते और मुहल्लेवालों की उपेक्षापूर्ण नज़रों के सामने सिकुड़ते रहते।

जब वे वापस अपने गांव लौटते तो उन्हें लगता जैसे मन और  शरीर के सब तार फिर ढीले हो गये हैं। बस से उतरते ही उन्हें लगता जैसे गांव ने अपने दोनों हाथ बढ़ाकर उन्हें गले से लगा लिया हो और उनके मन से एक बोझ उतर गया हो। गांव पहुंचकर वे प्रोफेसर चतुर्वेदी के बाप होने के बजाय केदार दादा हो जाते और यह फर्क उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता।

वह बिलौटा पिछली गर्मियों में केदार के घर में आया था जब सत्यप्रकाश बच्चों के साथ आकर जा चुका था। तब हमेशा की तरह केदार बहुत मायूस थे। वे रात को घर के आंगन में चुपचाप लेटे आकाश के तारों को देखते रहते। किसी काम में उनका मन न लगता।

ऐसे ही जब  एक शाम को केदार भीतर खंभे से टिके खामोश ज़मीन पर बैठे थे तब प्यारेलाल सेठ का छोटा लड़का विजय उस बिलौटे को लिये आया। बोला, ‘ दादाजी, इसे रख लो। कोई कुत्ता वुत्ता मार डालेगा।’

केदार बोले, ‘तू अपने घर क्यों नहीं ले जाता?’

वह बोला, ‘दद्दा गुस्सा होंगे। अम्मां से पूछूंगा। वे कह देंगीं तो ले जाऊंगा।’

केदार बोले, ‘इस दलिद्दर को मैं कहां रखूंगा? हग-मूत कर सारा  घर खराब करेगा।’

विजय बोला, ‘आप अभी रख लो, दादाजी। फिर मैं ले जाऊंगा।’

केदार बोले, ‘ठीक है। छोड़ जा। एक से दो भले।’

केदार ने बिलौटे को एक कोने में बांध दिया। उसके सामने एक कटोरी में दूध रख दिया। वह उसे पीने लगा। अकेला पड़ जाने पर वह ज़ोर से चिल्लाने लगता। केदार के नज़दीक आने पर चुप होकर एक तरफ दुबक जाता। रात को केदार ने उसे कोठरी में एक बोरा बिछाकर उस पर बैठा दिया और बाहर से सांकल चढ़ा दी। विजय फिर उसे नहीं ले गया। दूसरे दिन वह बता गया कि उसके दद्दा बिलौटे को रखने  के लिए तैयार नहीं हैं। वह बोला, ‘अब आपको रखना हो तो रखे रहो, नहीं तो जैसा ठीक समझो करो।’ केदार ने बिलौटे को अपना लिया। 

धीरे-धीरे उन्हें बिलौटे की क्रियाओं में आनन्द आने लगा। वह घर में पड़ी चीज़ों से अपने आप ही खेलता रहता। लुढ़कने वाली चीज़ों को धक्का देकर उनके आगे-पीछे भागता रहता। चींटियों को देखकर वह कूद-कूद कर उन्हें पकड़ता। केदार दूर बैठे उसकी शरारतों का मज़ा लेते रहते ।

धीरे-धीरे वह उन्हें बहुत प्यारा लगने लगा। उसकी हरी-नीली आंखें, छोटा सा मुंह और छोटे-छोटे पंजे बहुत अच्छे लगते। धीरे-धीरे बिलौटे का डर भी दूर होने लगा और वह केदार को अपने रक्षक के रूप में पहचानने लगा। अब वह भूखा होने पर केदार के पास आकर मुंह उठाकर चिल्लाने लगता। केदार हंसकर उसे दूध लाकर देते।

सबसे बड़ी बात यह हुई कि बिलौटे ने केदार के मन की सारी उदासी छांट दी। केदार घर में आते ही उसके साथ व्यस्त हो जाते, उसकी उछलकूद और शिकायतों का मज़ा लेते रहते। बिलौटे ने उनके जीवन की रिक्तता भर दी। उनके कहीं बैठते ही वह उछलकर उनकी गोद में आ जाता और आंखें बन्द करके सोने की मुद्रा बना लेता। अब रात को केदार अपनी खाट की बगल में ही उसे एक बोरी पर बैठा कर टोकरी से ढंक देते। गांव में कहीं जाने पर वे  अक्सर उसे अपनी बांहों में लिये रहते। उनके  परिचित कहते, ‘बुढ़ापे में अच्छी माया में फंस गए तुम।’

केदार जवाब देते, ‘क्या करें? जब तक जीवन है तब तक कुछ सहारा तो चाहिए।’

अगली गर्मियों में फिर सत्यप्रकाश हर साल की तरह बतायी हुई तारीख से दस दिन देर से आया। लेकिन इस बार केदार को ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। वे सीताराम को अपनी गोद में लेकर बस-स्टैंड जाते और आखिरी बस देखकर लौट आते। अब उन्हें  पहले जैसी उदासी महसूस नहीं होती थी।

अन्ततः सत्यप्रकाश बच्चों के साथ हमेशा की तरह अपराधी भाव लिये हुए आया। बच्चों से मिलकर केदार बहुत खुश हुए। लेकिन सत्यप्रकाश को यह  देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने इस बार उसके सामने शिकायतों का पिटारा नहीं खोला।

वे बच्चों की उंगली थाम कर गांव में घूमते, लेकिन उनकी गोद में सीताराम बैठा रहता। बच्चों को भी यह  खिलौना पाकर बहुत खुशी थी। वे उसके साथ दिनभर खेलते-कूदते रहते, उसकी क्रियाओं का मज़ा लेते रहते। लेकिन केदार भी दूर से उन पर नज़र रखते। बिलौटे के प्रति थोड़ी सी क्रूरता होते ही वे बच्चों को मना कर देते।

वे कहीं से घूमघाम कर  लौटते तो बहू से पूछते, ‘बेटा, सीताराम को दूध दे दिया था न?’ खाने के लिए बैठते तो फिर यही पूछताछ कर लेते। कहीं से देर से लौटते तो इत्मीनान कर लेते कि बिलौटा घर में ठीक-ठाक है या नहीं।

बहू संध्या ससुर का यह नया मोह देखकर उनका मज़ाक उड़ाने लगी थी। वह अपने पति से कहती, ‘देखना तुम्हारा छोटा भाई कहां है? लगता है आपके छोटे भाई साहब को भूख लगी है।’

सत्यप्रकाश हंसकर चुप हो जाता।

आठ दस दिन बाद फिर सत्यप्रकाश ने जाने की तैयारी की। हमेशा की तरह वह अपराध भाव से ग्रसित होकर बार-बार पिता के चेहरे की तरफ देखता, क्योंकि उसके जाते वक्त पिता की जो हालत होती थी उसे वह जानता था। लेकिन इस बार उसे पिता के चेहरे पर पहले  जैसी उदासी दिखायी नहीं पड़ रही थी। इस बात से उसे आश्चर्य भी हुआ और संतोष भी।

जिस दिन वे जाने वाले थे उस दिन ही केदार एकाएक परेशान हो गये। वजह यह थी कि उस सवेरे अरुण एकाएक उनसे बोला, ‘दादाजी, हम सीताराम को अपने साथ ले जाएं ? हम उसके साथ खेलेंगे।’

केदार यह सुनकर बहुत परेशान हो गये। हड़बड़ाकर बोले, ‘नहीं बेटा, हम तुम्हारे लिए दूसरा बिल्ली का बच्चा ढूंढ देंगे। सीताराम को मत ले जाओ। हम इससे भी अच्छा तुम्हें लाकर देंगे।’

अरुण ने दो-तीन बार और उनसे आग्रह किया, लेकिन केदार के मुंह से ‘हां’ नहीं निकला। अन्ततः अरुण चुप हो गया। इस बात पर संध्या मन ही मन ससुर से क्रुद्ध हो गयी।

जब केदार सबको छोड़ने चलने लगे तो उन्होंने सीताराम को सावधानी से कमरे में बांध दिया।

बस-अड्डे पर सबके बस में बैठ जाने पर वे नीचे खड़े रहे। उनके अधिक उद्विग्न न होने के कारण सत्यप्रकाश भी प्रसन्न था।

बस चलने को ही थी। एकाएक अरुण को शरारत सूझी। वह खिड़की से झांककर चिल्लाकर बोला, ‘ देखिए दादाजी, हम सीताराम को चुपचाप ले आये।’

सुनते ही केदार लपक कर बस में चढ़ गये और अरुण की सीट के पास जाकर झांक-झांककर पूछने लगे, ‘कहां है? कहां है?’

अरुण ताली बजा-बजाकर हंसने लगा, ‘दादाजी बुद्धू बन गये।  दादाजी बुद्धू बन गये।’

केदार खिसियानी हंसी हंसकर अरुण  का गाल थपककर नीचे उतर आये। संध्या ने व्यंग्य से पति की तरफ देखा और सत्यप्रकाश ने कुछ  लज्जित भाव से अपनी नज़र दूसरी तरफ घुमा ली।

बस स्टार्ट होकर चल दी। बच्चे दूर तक खिड़की में से हाथ हिलाते रहे और केदार प्रत्युत्तर में हाथ हिलाते रहे। इसके बाद वे घूमकर सधे कदमों से घर की तरफ चल दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – शापित मातृत्व… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– शापित मातृत्व…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — शापित मातृत्व…  — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

माँ अपनी बेटी को दामाद के हाथों मार से बचाने के लिए रोते कलपते वहाँ पैसे पहुँचाती थी। अपना बेटा भी तो दुष्ट ही था। अपनी दुखी बहू के कहने पर उसकी माँ रोते कलपते उसके घर पैसा लाती थी। बाद में दोनों माएँ भीख मांगते रास्ते पर मिलीं। इस शापित मातृत्व पर कहानी लिखना लेखक को बहुत जरूरी लगा। उसने दोनों माँओं को सौ सौ का एक एक नोट दे कर उन से यह कहानी खरीदी।

 © श्री रामदेव धुरंधर

07 / 10 / 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 284 – पुनरपि जननं पुनरपि मरणं… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 284 पुनरपि जननं पुनरपि मरणं… ?

श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।

दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर  चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।

पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।

मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।

बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।

‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥

भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है‌। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।

श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ  लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है।..इति

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ डंकोत्सव का आयोजन… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ डंकोत्सव का आयोजन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

मैंने अपनी सगी सहेली “ख्याति” से कहा — यार मुझे “डंका ” शब्द बहुत भाता है। बहुत प्यार है इससे। उच्चारण करते ही लगता है कि इसकी गूँज ब्रह्माण्डव्यापी हो गई है और सारी ध्वनियां इसमें समा गई हैं। शब्द में भारी वज़न है।

अब देखो ना, इसमें से “आ” की मात्रा माइनस कर दो तो बन जाता है “डंक”। बिच्छू और ततैया ही नहीं डंक तो कोई भी मार सकता है।

“जो डंकीले हैं वो डंकियाते रहते हैं।” उन्हें इस पराक्रम से कौन रोक सकता है भला। और हां डंक शब्द का एक अर्थ “निब” भी तो होता है।

ख्याति छूटते ही बोली — ये प्यार व्यार सब फालतू बाते हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होता। बस बजाना आना चाहिए।

— पर मुझे तो नहीं आता। डंकावादकों की तर्ज पर कोशिश तो की थी पर नतीजा सिफर। मेरे प्यार को तुम प्लेटोनिक लव जैसा कुछ कुछ कह सकती हो।

— सर्च करो रानी साहिबा — बजाना सिखानेवाली क्लासेस गली गली मिल जायेंगी। वह भी निःशुल्क।

— ऐसा क्यों ?

— क्योंकि यह राष्ट्रीय उद्यम है। जो देशभक्त है ,वही डंका बजाने की ट्रेनिंग लेता है। सारा मीडिया अहोरात्र डंका बजाने में मशगूल है। बात सिर्फ इतनी सी है कि डंका बजाओ या बजवाओ। दोनों ही सूरत में ध्वनि का प्रसारण होना है। किसी में तो महारत हो। एक तुम हो “जीरो बटा सन्नाटा।”

चलो मैं तुम्हें विकल्प देती हूं। डंका नहीं तो “ढोल ” बजाओ !

— ‘ख्याति मुझे ढोल शब्द से सख्त नफरत है। कितना बेडौल शब्द है। अव्वल तो पहला अक्षर “ढ “है। मराठी में, बोलचाल में ढ यानी गधा।

— ठीक है बाबा। ढोल नहीं तो डंका पीटो पर तबीयत से पीटो। फिर भी पीटना न आये तो पीटनेवाले या पिटवानेवाले की व्यवस्था करो। और रही बात डंके की कीमत तो इतनी ज्यादा भी नहीं है कि तुम अफोर्ड न कर सको।

लोकतंत्र में कुछ भी पीटने की आजादी सभी को है।

“डंका पीटोगी तभी तो औरों की लंका लगेगी ना।” 

देखो सखी अभी अभी मेरे दिमाग में एक धांसू आइडिया आया है। तुम “डंकोत्सव का आयोजन” क्यों नहीं करतीं। उसमें डंका शब्द की व्युत्पत्ति पर शोध पत्र का वाचन करो। उसमें डंके की चोट पर कुछ उपाधियों का वितरण करो यथा — “डंकेन्द्र”, “डंकाधिपति”, “डंकेश”, “डंकाधिराज”, “डंकेश्वर”, “डंका श्री”, “डंका वाचस्पति”, “डंका शिरोमणि”, “डंका रत्न”, आदि आदि।

सोचो सखी शिद्दत से सोचो। नेकी और पूछ पूछ जुट जाओ आयोजन में। डंके में शंका न करो।

— ‘इतना ताम झाम करके भी डंका ठीक से न बजा तो–‘

— ‘बेसुरा ही सही पर बजाओ — बजाते रहो — बजाते रहो। जब तक जां में जां है। डंका कभी निष्फल नहीं जाता।

डंकाधिपति की जय हो।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बैसाखी पर्व विशेष – फिर सबकी बैसाखी है… ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ बैसाखी पर्व विशेष – फिर सबकी बैसाखी है… ☆  डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

महक उठा है गुलशन-गुलशन

महुआ टपके महके चंदन

यह उन की बैसाखी है…

*

लतायें महकी मृदुल- मृदुल

हुईं हवाएं चंचल – चंचल

यह उन की बैसाखी है…

*

प्रकृति का हर काम है जारी

रात दिन आयें बारी – बारी

यह उन की बैसाखी है…

*

धुंध छटी सब गहरी गहरी

गेहूँ की बाली हुई सुनहरी

यह उन की बैसाखी है….

*

जो क़ुदरत की मौज में रहते

दुख – सुख दोनों हँसकर सहते

यह उन की बैसाखी है…

*

याद करो गुरुओं की वाणी

सुखी बसे हर एक प्राणी

फिर सब की बैसाखी है…

*

खेतों से दाने घर आएं

खुशी से दामन सब भर जाएं

फिर सब की बैसाखी है…

*

नफ़रत के बुझ जाएं चिराग़

प्यार से महके हर इक बाग़

फिर सब की बैसाखी है…

 डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 231 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 231 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 231) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 231 ?

☆☆☆☆☆

चार दिन भी लोगों की आंखो में

नमी ना होगी,

मैं फ़ना भी हो जाऊं

तो किसे क्या कमी होगी…!

☆☆

No one’s eyes will well up with tears,

even for four days,

And, no one will notice,

even if I perish…

☆☆☆☆☆

कौन सा ग़म था जो तरोताज़ा न था

इतना ग़म मिलेगा, ये भी अंदाज़ा न था,

आपकी झील सी आंखों का क्या क़ुसूर

डूबने वाले को ही गहराई का अंदाजा न था…

☆☆

No melancholy is new, yet

I didn’t expect this depth of anguish.

What fault do your ocean-like eyes hold?

Only the drowned ones couldn’t fathom the depth…

☆☆☆☆☆

फना होने वाले तो

बिना बताए ही चले जाते हैं,

रोज तो वो मरते है

जो खुद से ज्यादा किसी और को चाहते हैं…!

☆☆

Those who leave the world,

depart without warning,

The ones who love someone more than life itself,

die daily…

☆☆☆☆☆

कितना अकेला रह जाता है वो शख्स

जिसे जानते तो तमाम लोग हैं,

मगर समझता कोई नही…

☆☆

How lonely is my soul

Known by many,

yet understood by none?”

☆☆☆☆☆

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 230 – पूर्णिका – मधुमालती ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – मधुमालती)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 230 ☆

☆ पूर्णिका – मधुमालती ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

हँसती है मधुमालती

फँसती है मधुमालती

.

साथ जमाना दे न दे

चढ़ती है मधुमालती

.

देख-रेख बिन मुरझकर

बढ़ती है मधुमालती

.

साथ जमाना दे न दे

चढ़ती है मधुमालती

.

लाज-क्रोध बिन लाल हो

सजती है मधुमालती

.

नहीं धूप में श्वेत लट

कहती है मधुमालती

.

हरी-भरी सुख-शांति से

रहती है मधुमालती

.

लव जिहाद चाहे फँसे

बचती है मधुमालती

.

सत्नारायण कथा सी

बँचती है मधुमालती

.

हर कंटक के हृदय में

चुभती है मधुमालती

.

बस में है, परबस नहीं

लड़ती है मधुमालती

.

खाली हाथ, न जोड़ कुछ

रखती है मधुमालती

.

नहीं गैर की गाय को

दुहती है मधुमालती

.

परंपराएँ सनातन

गहती है मधुमालती

.

मृगतृष्णा से दूर, हरि

भजती है मधुमालती

.

व्यर्थ न थोथे चने सी

बजती है मधुमालती

.

दावतनामा भ्रमर का

तजती है मधुमालती

.

पवन संग अठखेलियाँ

करती है मधुमालती

.

नहीं और पर हो फिदा

मरती है मधुमालती

.

अपने सपने ठग न लें

डरती है मधुमालती

.

रिश्वत लेकर घर नहीं

भरती है मधुमालती

.

बाग न गैरों का कभी

चरती है मधुमालती

.

सूनापन उद्यान का

हरती है मधु मालती

.

बिना सिया-सत सियासत

करती है मधु मालती

.

नेह नर्मदा सलिल सम

बहती है मधुमालती

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 654 ⇒ निःशुल्क ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 654 ⇒ निःशुल्क ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निःशुल्क कहें या मुफ़्त ! क्या कोई फर्क पड़ता है। मुफ़्तखोर पहले तो मुफ्त का माल ढूँढते हैं और बाद में निःशुल्क शौचालय तलाश करते हैं। 25 %डिस्काउंट और बिग बाजार के महा सेल में एक के साथ एक फ्री को आप क्या कहेंगे। वहाँ छूट भी है, मुफ्त भी है और शुल्क भी। लेकिन निःशुल्क कुछ भी नहीं है।

हमारे घर अखबार आता है, उस पर शुल्क लिखा होता है। वही अखबार अगर आप पड़ोसी के यहाँ अथवा वाचनालय में पढ़ते हैं, तो निःशुल्क हो जाता है।।

गर्मी में दानदाता और पारमार्थिक संस्थाएँ जगह जगह ठंडे पानी की प्याऊ खोलते थे, वे निःशुल्क होती थी लेकिन उन पर ऐसा लिखा नहीं होता था, क्योंकि तब पीने के पानी के पैसे नहीं लिए जाते थे। जब से पीने का पानी बोतलों में बंद होने लगा है, वह बिकाऊ हो गया है।

घोर गर्मी और पानी के अभाव में नगर पालिका पानी के टैंकरों से निःशुल्क जल-प्रदाय करती थी। लोग पानी के टैंकर के आगे बर्तनों की लाइन लगा दिया करते थे। सार्वजनिक स्थानों के नल और ट्यूब वेल की भी यही स्थिति होती थी। लेकिन पानी बेचा नहीं जाता था।।

समय के साथ पानी के भाव बढ़ने लगे। नई विकसित होती कालोनियों के बोरिंग सूखने लगे। पानी बेचना व्यवसाय हो गया। प्राइवेट पानी के टैंकर सड़कों पर दौड़ने लगे। अब पानी निःशुल्क नहीं मिलता।

शहरों में चिकित्सा बहुत महँगी है ! एलोपैथी के डॉक्टर कंसल्टेशन फीस लेते हैं, वे मुफ्त में इलाज नहीं करते। आयुर्वेदिक चिकित्सा में निःशुल्क परामर्श उपलब्ध होता है। पातंजल औषधालय हो अथवा कोई आयुर्वेदिक दुकान, निःशुल्क चिकित्सा के बोर्ड लगे देखे जा सकते हैं। बस दवाइयों की कीमत मत पूछिए।।

कुछ नागरिक, समाजसेवी संस्थाओं को अपनी स्वैच्छिक सेवाएँ प्रदान करते हैं। मुफ़्त सलाह और निःशुल्क सेवाएं देने वाले को मानद भी कहते हैं। उनकी निःशुल्क सेवाओं को सम्मान प्रदान करने के लिए अंग्रेज़ी में एक शब्द गढ़ा गया है, ऑनरेरी।

समाज की विभिन्न विधाओं में निःस्वार्थ सेवाएं प्रदान करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों को ऑनरेरी डॉक्टर ऑफ लॉज़ की डिग्री से विभूषित किया जाता है। इनमें ललित कलाओं में पारंगत विद्वानों और कलाकारों को बिना डिग्री के डॉक्टर बना दिया जाता है। किसी भी सेलिब्रिटी को ऐसा डॉक्टर बनने में ज़्यादा वक्त नहीं लगता।।

क्या मनुष्य जीवन हमें माँगने से मिला है, या फिर हमने इसकी कोई कीमत चुकाई है ? मुफ़्त में कहें, या निःशुल्क मिली यह ज़िन्दगी कितनी अनमोल है। ‌अक्सर लोग बड़े शिकायत भरे लहजे में कहते हैं, हमने पूरी ज़िंदगी निःस्वार्थ सेवा और त्याग में बिता दी और बदले में हमें क्या मिला।

‌वे भूल जाते हैं, इतना बहुमूल्य मानव जीवन उन्हें बिना कौड़ी खर्च किये मिला है। जिसने आपको यह जीवन दिया है, यह उसकी अमानत है। इसमें खयानत न करते हुए, कबीर की तरह इस चदरिया को ज्यों की त्यों रख देंगे तो यही एक बड़ा अहसान होगा। जो ज़िन्दगी आपको मुफ्त में मिली, आप उसकी क़ीमत लगा रहे हैं। मुझको क्या मिला।।

कुछ लोग निःशुल्क खुशियाँ बाँटते हैं। कितनी भी परेशानियां हों, हमेशा मुस्कुराहट उनके चेहरे पर नज़र आती है। दो शब्द मीठा बोलने में पैसे नहीं लगते।

व्यक्तित्व की महक, तड़क-भड़क और महँगे प्रसाधनों से नहीं होती। प्रसन्नता travel करती है। बस में यात्रा करते समय, किसी माँ की गोद में खिलखिलाता बच्चा, बरबस सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। वह जिसकी ओर मुस्कान फेंकता है, वह मुग्ध हो जाता है। यह सब बस किराये में शामिल नहीं होता। निःशुल्क होता है।

गर्मियों में जब सुबह ठंडी हवा चलती है, और आप सैर के लिए निकलते हैं, तो वातावरण में रातरानी की खुशबू शामिल होती है। प्रकृति ने यह सब व्यवस्था आपके लिए निःशुल्क की है। आप इसकी कीमत केवल खुश रहकर, प्रसन्न रहकर, और औरों को प्रसन्न रखकर ही चुका सकते हैं। जो निःशुल्क मिला है, उसे अपने पास नहीं रखें, निःशुल्क ही आपस में बांट लें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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