हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 256 ☆ व्यंग्य – भाग्यवादी होने के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम और विचारणीय  व्यंग्य – ‘भाग्यवादी होने के फायदे‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भाग्यवादी होने के फायदे 

हमारे देश के ज़्यादातर लोग भाग्यवादी हैं— भाग्य, किस्मत, नसीब, नियति, मुकद्दर, फ़ेट या डेस्टिनी पर भरोसा करने वाले। सभी धर्म के सन्तों ने भी यही कहा है कि इंसान के जीवन में सब कुछ पूर्व-नियत है, प्री-डेस्टाइन्ड। इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है, सब कुछ पहले से लिख दिया गया है। ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुइहै वहि जो  राम रचि राखा’, ‘विधि का लिखा को मेटनहारा’, ‘विधना ने जो लिख दिया छठी  रैन के अंक, राई घटै ना  तिल बढ़ै रहु रे जीव निश्शंक’, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सब  के दाता राम’, ‘राम भरोसे जो रहें, परबत पै हरियांयं’, ‘जिसने चोंच दी है, वही चुग्गा देगा’, ‘देख  परायी चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।’

दरअसल भाग्यवादी होने के कई फायदे होते हैं। भाग्यवादी दुनिया में चल रहे बखेड़ों से परेशान नहीं होता क्योंकि उसके अनुसार सब कुछ वही हो रहा है जो पहले से लिख दिया गया है। उसे ब्लड-प्रेशर की बीमारी नहीं होती, दुनिया की हलचलों के बीच वह चैन की नींद सोता है। बड़ी से बड़ी घटना के बीच वह शान्त, स्थितप्रज्ञ बना रहता है। उसे न यूक्रेन की चिन्ता सताती है, न गज़ा की। जो मरे वे इतनी ही उम्र लेकर आये थे, जो बच गये उन्हें अभी और जीने का वरदान मिला है। रेल दुर्घटना में मरने वालों के हिस्से में भी इतनी ही उम्र आयी थी।

हमारे समाज में भाग्यवादिता बहुत उपयोगी रही है। जीवन में असफल होने पर असफलता को भाग्य के खाते में डालकर चैन से बैठा जा सकता है। कुछ समय पहले तक लड़कियों का भाग्य माता-पिता के हाथ में रहता था। पढ़ाया तो पढ़ाया, अन्यथा पराये धन पर कौन पैसा बरबाद करे? बड़े होने पर लड़की को, बिना उसकी सहमति लिये, किसी भी एंगे-भेंगे, जुआड़ी, शराबी लड़के से ब्याह दिया जाता था और लड़की इसे अपना भाग्य मानकर गऊ की तरह पतिगृह चली जाती थी। मतलब  यह कि भाग्य के हस्तक्षेप से गृहक्लेश की संभावना कम हो जाती थी।

हमारे देश में जाति-प्रथा है जिसमें आदमी जन्म लेते ही ‘ऑटोमेटिकली’ ऊंचा या नीचा हो जाता है। जो नीचे जन्म लेते हैं उनका सारा जीवन संघर्ष करते और अपमान झेलते ही बीतता है।

समाज में उनका कोई सम्मानजनक स्थान नहीं बनता। परसाई जी  ने अपनी रचना ‘जिसकी छोड़ भागी’ में लिखा, ‘सदियों से यह समाज लिखी पर चल रहा है। लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां मैला ढो रही हैं और लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां ऐशो आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई।’ ऐसे में अपने जीवन को अपना भाग्य मानकर ही ढाढ़स मिल सकता है।

रियासतों के ज़माने में रियाया की स्थिति दयनीय होती थी। राजा साहब के तो दर्शन ही दुर्लभ होते थे, रियाया के लिए उनके दर्शन की इच्छा करना गुस्ताखी से काम नहीं होती थी। उनके मुसाहिब ही मनमाना शासन चलाते थे। रियाया पर हर तरह  के ज़ुल्म होते थे, सुनवाई कहीं नहीं। ऐसे में रियाया के लिए सब कुछ भाग्य के खाते में डाल देना ही एकमात्र उपाय बचता था। भाग्यवादिता ही दुर्दशा के बीच कुछ संबल देती थी।

राजाओं को निष्कंटक शासन करने योग्य बनाने के लिए पुनर्जन्म का सिद्धान्त आया जिसमें पुरोहितों और चर्च का सहयोग मिला। रियाया को बताया गया कि उनकी दुर्दशा उनके पूर्व जन्म के कर्मों के कारण है और उनका अगला जन्म तभी सुधरेगा जब वे अच्छे, आज्ञाकारी नागरिक बने रहें। इस स्थिति  ने रियाया को और भाग्यवादी बनाया।

मज़े की बात यह है कि भाग्य पर भरोसे के बाद भी आदमी अनिष्ट और ‘होनी’ को टालने के लिए दौड़ता रहता है। बाबाओं, ओझाओं, गुनियों, तांत्रिकों, ज्योतिषियों, वास्तु-शास्त्रियों के यहां भीड़ लगती है। भविष्य को जानने के लिए ताश के पत्तों, अंकों, मुखाकृति अध्ययन, कप या गिलास में छोड़ी हुई कॉफी-चाय या शराब की जांच-पड़ताल जैसे अनेक टोटकों को अपनाया जाता है। बहुत से लोग उंगलियों में नाना रत्नों से जड़ी अंगूठियां पहनते हैं। कुछ लोग बायें हाथ की उंगलियों में भी अंगूठियां पहनते हैं जिसे देखकर मुझे सिहरन होती है। शायद वे उन्हें टॉयलेट जाते समय उतार देते होंगे। कहने का मतलब यह है कि आदमी को भाग्य पर यकीन तो है, लेकिन वह दुर्भाग्य को टालने में दिन-रात लगा रहता है।

सत्य यह है कि दुनिया भाग्य के नहीं, श्रम और प्रयास के भरोसे चलती है। दुनिया के सारे अविष्कार प्रयास और मेहनत से हुए हैं। भाग्यवादिता शान्ति तो दे सकती है, लेकिन जीवन के कांटे दूर नहीं कर सकती। दशरथ  मांझी भाग्य के भरोसे बैठे रहते तो पत्नी के लिए पहाड़ काटकर रास्ता न बनाते। बकौल परसाई जी, ‘भाग्य कुछ नहीं है। यह झूठा विश्वास है। सार्थक श्रम पर विश्वास किया जा सकता है।’

अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने मार्के की बात लिखी है— ‘भविष्य को इंगित करने का सबसे अच्छा तरीका उसका निर्माण करना है।’ अर्थात, हमारा प्रयास भविष्य को खोजने के बजाय उसे निर्मित करने में होना चाहिए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – महाभारत – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “महाभारत –”।) 

श्री रामदेव धुरंधर जी की गद्य क्षणिकाओं के संदर्भ में डॉ. रामबहादुर मिसिर जी की टिप्पणी सार्थक एवं विचारणीय है >> “आप गद्य क्षणिका के प्रवर्तक हैं। पौराणिक और मिथकीय संदर्भों के जरिए सामाजिक विसंगतियों और सुसंगतियों पर बहुत ही प्रभावशाली ढंग से “गागर में सागर” उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। एक बात और ये क्षणिकाएं कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं। अनंत मंगलकामनाएं” – डॉ. रामबहादुर मिसिर

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — महाभारत — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

महाभारत के योद्धा ने हथियार छोड़ कर कहा, “मुझे अपने परिवार में लौट जाने दो। मेरा भाई उस सेना में है। मैं नहीं जानता वह जीवित है कि नहीं। मेरे बारे में भी वह अनभिज्ञ होगा। हमें घर से निकाला ही इस तरह से गया है कि हम दोनों भाई दो पक्षों से लड़ें।” पर इस योद्धा की हत्या कर दी गई। अर्जुन और दुर्योधन दोनों हत्यारे हो सकते थे। वे नहीं चाहते इसके कारण महाभारत अवरुद्ध हो।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

26 – 08 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 255 – शिवोऽहम्… (06) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 255 शिवोऽहम्… (06) ?

आत्मषटकम् के छठे और अंतिम श्लोक में आदिगुरु शंकराचार्य महाराज आत्मपरिचय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।

न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं किसी भिन्नता के बिना, किसी रूप अथवा आकार के बिना, हर वस्तु के अंतर्निहित आधार के रूप में हर स्थान पर उपस्थित हूँ। सभी इंद्रियों की पृष्ठभूमि में मैं ही हूँ। न मैं किसी वस्तु से जुड़ा हूँ, न किसी से मुक्त हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

विचार करें, विवेचन करें तो इन चार पंक्तियों में अनेक विलक्षण आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। आत्मरूप स्वयं को समस्त संदेहों से परे घोषित करता है। आत्मरूप एक जैसा और एक समान है। वह निश्चल है, हर स्थिति में अविचल है।

आत्मरूप निराकार है अर्थात  जिसका कोई आकार नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलू है कि आत्मरूप किसी भी आकार में ढल सकता है। आत्मरूप सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित है, सर्वव्यापी है। आत्मरूप में न  मुक्ति है, न ही बंधन। वह सदा समता में स्थित है। आत्मरूप किसी वस्तु से जुड़ा नहीं है, साथ ही किसी वस्तु से परे भी नहीं है। वह कहीं नहीं है पर वह है तभी सबकुछ यहीं है।

वस्तुतः मनुष्य स्वयं के आत्मरूप को नहीं जानता और परमात्म को ढूँढ़ने का प्रयास करता है। जगत की इकाई है आत्म। इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतः जगत के नियंता से परिचय करने से पूर्व स्वयं से परिचय करना आवश्यक और अनिवार्य है।

मार्ग पर जाते एक साधु ने अपनी परछाई से खेलता बालक देखा। बालक हिलता तो उसकी परछाई हिलती। बालक दौड़ता तो परछाई दौड़ती। बालक उठता-बैठता, जैसा करता स्वाभाविक था कि परछाई की प्रतिक्रिया भी वैसी होती। बालक को आनंद तो आया पर अब वह परछाई को प्राप्त करना का प्रयास करने लगा। वह बार-बार परछाई को पकड़ने का प्रयास करता पर परछाई पकड़ में नहीं आती। हताश बालक रोने लगा। फिर एकाएक जाने क्या हुआ कि बालक ने अपना हाथ अपने सिर पर रख दिया। परछाई का सिर पकड़ में आ गया। बालक तो हँसने लगा पर साधु महाराज रोने लगे।

जाकर बालक के चरणों में अपना माथा टेक दिया। कहा, “गुरुवर, आज तक मैं परमात्म को बाहर खोजता रहा पर आज आत्मरूप का दर्शन करा अपने मुझे मार्ग दिखा दिया।”

आत्मषटकम् मनुष्य को संभ्रम के पार ले जाता है, भीतर के अपरंपार से मिलाता है। अपने प्रकाश का, अपनी ज्योति की साक्षी में दर्शन कराता है।

इसी दर्शन द्वारा आत्मषटकम् से निर्वाणषटकम् की यात्रा पूरी होती है। निर्वाण का अर्थ है, शून्य, निश्चल, शांत, समापन। हरेक स्थान पर स्वयं को पाना पर स्वयं कहीं न होना। मृत्यु तो हरेक की होती है, निर्वाण बिरले ही पाते हैं।

षटकम् के शब्दों को पढ़ना सरल है। इसके शाब्दिक अर्थ को जानना तुलनात्मक रूप से   कठिन। भावार्थ को जानना इससे आगे की यात्रा है,  मीमांसा कर पाने का साहस उससे आगे की कठिन सीढ़ी है पर इन सब से बहुत आगे है आत्मषट्कम् को निर्वाणषटकम् के रूप में अपना लेना। अपना निर्वाण प्राप्त कर लेना। यदि निर्वाण तक पहुँच गए तो शेष जीवन में अशेष क्या रह जाएगा? ब्रह्मांड के अशेष तक पहुँचने का एक ही माध्यम है, दृष्टि में शिव को उतारना, सृष्टि में शिव को निहारना और कह उठना, शिवोऽहम्…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 202 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 202 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 202) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 202 ?

☆☆☆☆☆

देख दुनिया की बेरूखी

न पूछ ये नाचीज़ कैसा है

हम बारूद पे बैठें हैं

और हर शख्स माचिस जैसा है

☆☆

Seeing the rudeness of the world

Ask me not how worthless me is coping

I’m sitting on pile of explosives

And every person is like a fuse…

☆☆☆☆☆

शहरों का यूँ वीरान होना

कुछ यूँ ग़ज़ब कर गया…

बरसों से  पड़े  गुमसुम

घरों को आबाद कर गया…

☆☆

Desolation of the cities

Did something amazing…

Repopulated the houses

Lying deserted for years…

☆☆☆☆☆

सारे मुल्क़ों को नाज था

अपने अपने परमाणु पर

क़ायनात बेबस हो गई

एक छोटे से कीटाणु पर..!!

☆☆

Every country greatly boasted of

Being  a  nuclear  super  power…

Entire universe  was  rendered

Grossly helpless by a tiny virus..!

☆☆☆☆☆

कितनी आसान थी ज़िन्दगी तेरी राहें

मुशकिले हम खुद ही खरीदते है

और कुछ मिल जाये तो अच्छा होता

बहुत पा लेने पे भी यही सोचते है…

☆☆

O life! How simple were  your  ways…

We ourselves only bought slew of  difficulties

Kept craving endlessly, even after acquiring a lot,

How nice it would be if I could get something more

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Poetry ☆ विश्वास बादल तो नहीं…’ स्व डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ – Faith isn’t cloud ☆ English Version by – Hemant Bawankar ☆

Hemant Bawankar

? ‘विश्वास बादल तो नहीं…’ स्व डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ – Faith isn’t Cloud ☆ English Version by – Hemant Bawankar ??

(This poem has been cited from my book “Yield of the potentiality” an English Version of संभावना की फसल by Late Dr. Rajkumar Tiwari ‘Sumitra’.)

?

Faith is not a cloud

which gathers; thunders

and dissipates into water droplets

and loses its

very existence.

*

Faith is a sky

that can be seen

far away

from eyes

but, close to our heart

but, don’t surround

in the circle of

fraction of time.

But,

make it somewhat extraordinary,

So that

to whomsoever

you show it

He may exclaim

“Wow!

 What a wonderful offering”

*

Faith is nothing but sky

Which can be seen

From far away

but it is close to our heart.

But, don’t try to shackle it

By the moments of wheel of time.

Rather make it such a thing

That,

If shown to anyone

He is forced to say ‘Wow’

What a heavenly treat of celestial fragrances!

*

Then, keep the trust

Like your beloved

in your hearts

And keep sowing them

Without losing patience.

And

Nurture it with all your nutrients

of endearment

with water of your eyes.

So that it becomes a huge tree

Like that of a banyan tree.

Then enjoy its soothing shade

Sing a melodious song

Come one

Come all

And make this trust indomitable.

?

© Hemant Bawankar

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 461 ⇒ दियासलाई ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दियासलाई ।)

?अभी अभी # 461 ⇒ दियासलाई? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गुलज़ार ने पहले माचिस बनाई, फिर उससे बीड़ी जलाई और शोर मचा दिया कि जिगर में बड़ी आग है। आज रसोई में गैस लाइटर है, लेकिन भगवान की दीया बत्ती, माचिस से ही की जाती है। हम कभी माचिस को गौर से नहीं देखते। अगर घर में इन्वर्टर न हो, और लाइट चली जाए, तो नानी नहीं, माचिस की ही पहले याद आती है।

दो चकमक पत्थरों को आपस में रगड़कर पाषाण युग में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती थी। कुछ सूखी लकड़ियाँ भी ऐसी होती थीं, जिनके घर्षण से आग पैदा हो जाती थी। कालांतर में आग लगाने और आग बुझाने के कई साधन आ गए। पेट्रोल तो पानी में भी आग लगा देता है। लोग पहले तो नफ़रत की आग लगाते हैं, फिर प्रश्न पूछते हैं, ये आग कब बुझेगी।।

जिस तरह जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है, उसी तरह जहाँ धूम्रपान होता है, वहाँ दियासलाई होती है। जब भी अंधेरे में माचिस की तलाश होती है, एक धूम्रपान प्रेमी ही काम आता है। वह देवानंद की फिल्मों का दौर था, और हर फिक्र को धुएँ में उड़ाने की बात होती थी, हर सिगरेट-प्रेमी के पास एक सिगरेट लाइटर होता था। अपने लाइटर से किसी की सिगरेट जलाना तहजीब का एक अनूठा नज़ारा पेश करता था। तुम क्या जानो, धूम्रपान-निषेध के मतवालों।

एक माचिस, माचिस नहीं, अगर उसमें तीली नहीं। मराठी में माचिस को आक्पेटी कहते हैं, और तीली को काड़ी ! मराठी भाषा में काड़ी के दो मतलब हैं। काड़ी का हिंदी में एक ही मतलब है, उँगली। इस मराठी वाली काड़ी से, हर आम आदमी, फुर्सत में कभी तो कान का मैल निकालता है, या फिर खाना खाने के बाद, दाँतों में फँसे हुए अन्न कण निकालता है। इसे शुद्ध हिंदी में काड़ी करना कहते हैं। जिनके दाँतों में सूराख है, उनके लिए माचिस की एक तीली किसी जेसीबी मशीन से कम नहीं। लगे रहो मुन्नाभाई।।

एक फ़िल्म आई थी दीया और तूफ़ान। उसमें सिर्फ दीये और तूफान का जिक्र था, दियासलाई का नहीं। अगर तूफान दीये को बुझा सकता है, तो एक दियासलाई दीये को वापस जला भी सकती है। कितना खूबसूरत शब्द है दियासलाई ! वह सलाई जिसने दीये को रोशनी दिखाई। दियासलाई आग नहीं लगाती, बुझते दीयों को जलाती है।

एक और सलाई होती है, जिसे दीपावली पर जलाया जाता है, उसे फुलझड़ी कहते हैं। कुछ लोग इसे दीये से जलाने की कोशिश करते हैं, फुलझड़ी तो जल जाती है, लेकिन दीया बुझ जाता है। आखिर एक फुलझड़ी की उम्र ही कितनी होती है ? नाम ही उसका फूल और झड़ी से मिलकर बना है। जवानी भी एक फुलझड़ी ही तो है, जब तक आग है, चमक है, बाद में सब धुआं धुआं। बस एक दीपक प्रेम का जलता रहे, दियासलाई में ही निहित हो, सबकी भलाई।।

जब से बिजली के उपकरण बढ़ गए हैं, केवल दीया बाती के वक्त ही माचिस की याद आती है। वे भी दिन थे, जब शाम होते ही, चिमनी और लालटेन जलाई जाती थी। बरसात में माचिस की एक बच्चे की तरह हिफ़ाजत करनी पड़ती थी। जितनी बार केरोसिन का स्टोव बुझता था, उतनी बार माचिस जलती थी। अगर माचिस नमी के कारण सील जाती तो उसे हाथ की गर्मी दी जाती थी।

एक माचिस में कितनी तीलियाँ होती हैं, उस पर लिखा हुआ होता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं का विज्ञापन नहीं होता। टाटा ने नमक बनाया, माचिस नहीं। टाटा का, देश का, iodized नमक आज 20 ₹ का है, जब कि एक माचिस आज भी सिर्फ एक रुपए की है। हमने घोड़ा छाप माचिस देखी है। माचिस पर भी घोड़े की छाप ! अरे कोई कारण होगा।।

योग असंग्रह की बात करता है और कुछ लोगों को संग्रह का शौक होता है। स्टाम्प टिकट और खाली माचिस के संग्रह का शौक। जो जीवन में कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर नहीं बन पाते वे टिकट कलेक्टर बनने के बजाय स्टाम्प टिकट और कॉइन कलेक्टर बन जाते हैं। एक माचिस की तरह जुनून भी एक आग है। अच्छा शौक पालना बुरा नहीं। बुरा शौक पालना, अच्छी बात नहीं।

घर घर को रोशन करे दियासलाई ! माचिस की तरह अपनी प्रतिभा का सदुपयोग करें। मानवता प्रकाशित हो, जगमगाए ! आपकी माचिस कभी किसी की ज़िंदगी में आग न लगाए। हैप्पी दियासलाई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 202 ☆ सॉनेट – प्रणामांजलि… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – प्रणामांजलि…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 202 ☆

सॉनेट – प्रणामांजलि ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आराम-विराम न साध्य जिन्हें

कर सकीं न बाधा बाध्य जिन्हें,

था सत्य-धर्म आराध्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम, प्रणाम उन्हें।

था अधिक इष्ट से भक्त जिन्हें

था शत्रु स्वार्थ-अनुरक्त जिन्हें

थी सत्ता पर में त्याज्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

था जनगण-मन आवास जिन्हें

था जंगल में मधुमास जिन्हें

अरि कहते थे खग्रास जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

जो कल को कल की थाती हैं,

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१६.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – ई-अभिव्यक्ती (मराठी) – 🪔 दिवाळी अंक २०२४ 🪔– ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆


🕯 संपादकीय निवेदन 🕯

🪔 ई-अभिव्यक्ती (मराठी) – 🪔 दिवाळी अंक २०२४  🪔

🪔 दिव्यांची दिवाळी 🪔 आणि जोडीला शब्दांची रांगोळी…🪔🪔

आनंददायी श्रावणमास आला आला म्हणता म्हणता सृष्टीला भरपूर पावसाची भेट देऊन परतूनही गेला. आता लवकरच बाप्पा वाजतगाजत येतील आणि जल्लोषाची .. उत्साहाची आणि आशीर्वादांचीही बरसात करून जातील….  मग येईल प्रसन्न आणि प्रफुल्लित वातावरणाची शिंपण करणारा शारदोत्सव ….    … आणि नकळत चाहूल लागेल दीपोत्सवाची !  वर्षभर वाट पाहायला लावणारा …. मुक्तहस्ते तेजाची उधळण करणारा दीपोत्सव …… दिवाळी. 

दिवाळी ! अंधारातून प्रकाशाकडे जाण्यास प्रवृत्त करणारे प्रकाशपर्व ! सुगंधी उटणे, अभ्यंगस्नान, सर्व आप्तेष्टांच्या संपू नयेत असं वाटणाऱ्या भेटीगाठी, फराळाने भरलेली ताटे… आनंद आणि फक्त आनंदच.  आणि या आनंदात स्वीट-डिश प्रमाणे हवीहवीशी भर घालणारे.. एकूणच दिवाळीच्या या आनंदात मोलाची भर घालणारे साहित्य-समृद्ध दिवाळी अंक. 

आपला ई अभिव्यक्ती परिवारही या आनंदात मौलिक भर घालायला सज्ज आहेच. तर मग लागा तयारीला. … तुमच्या उत्तमोत्तम ‘ अक्षर कलाकृती ‘ पाठवा आमच्याकडे आणि सगळे मिळून सजवू या  ई-अभिव्यक्तीचा “ दिवाळी विशेषांक. २०२४ ”. या विशेषांकासाठी उत्तम लेख, कथा, कविता, रसग्रहण, पुस्तक परिचय, मनमंजुषा, इंद्रधनुष्य, चित्रकाव्य, प्रतिमेच्या पलीकडले…. यातल्या कुठल्याही एका सदरासाठी आपलं उत्तमोत्तम साहित्य पाठवा…. फक्त वेळेत पाठवा.   

यावर्षी कुठल्याही सदरासाठीचे साहित्य पाठवायचं आहे फक्त संपादिका मंजुषा मुळे यांच्याकडे. ( मोबा. नं. ९८२२८४६७६२ )  महत्त्वाचे म्हणजे प्रत्येकाने कोणत्याही एकाच साहित्य प्रकारासाठी साहित्य पाठवावे,  आणि ते पाठवतांना ‘ दिवाळी अंकासाठी साहित्य ’ असा उल्लेख आवर्जून करायला विसरु नये. तसेच आपल्या साहित्याखाली स्वतःचे नाव आणि मोबाईल नंबर आठवणीने लिहावा. सर्व प्रकारच्या गद्य लेखनासाठी शब्द मर्यादा आहे २००० शब्दांची…. केवळ २००० शब्द. 

दिवाळी अंकासाठी साहित्य पाठवण्याची अंतिम तारीख आहे दि. २८ सप्टेंबर २०२४. या तारखेनंतर आलेले साहित्य या अंकासाठी स्वीकारले जाणार नाही याची सर्वांनी निश्चित नोंद घ्यावी. अर्थात उशिरा आलेले किंवा पृष्ठ-मर्यादेमुळे नाईलाजाने दिवाळी अंकासाठी स्वीकारता न आलेले साहित्य आपल्या दैनंदिन अंकात खात्रीने प्रकाशित केले जाईल हे निश्चितपणे लक्षात असू द्यावे. 

वाट पाहात आहोत आपल्या दर्जेदार साहित्याची … फक्त दि. २८ सप्टेंबर २०२४ पर्यंतच. त्यामुळे त्वरा करा. चला, सणांच्या सोहळ्यांबरोबरच आपण साजरा करू हा  ‘ अक्षर सोहळा ‘ही  …  या दिवाळी अंकाच्या रुपानं !

लक्षात असू द्या — कोणत्याही स्वरूपातले प्रत्येकी एकच साहित्य …  आणि तेही २८ सप्टेंबरपर्यंतच ! पाठवायचे फक्त मंजुषा मुळे यांच्या व्हाट्सअप वर …. मोबा. नं. ९८२२८४६७६२ यावर. 🙏 

 संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्रावणमासी… ☆ सुश्री अरुणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरुणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ श्रावणमासी ☆ सुश्री अरुणा मुल्हेरकर ☆

(वृत्त~मनोरमा ~गालगागा गालगागा)

श्रावणाचा मास आला

या धरेला मोद झाला

*

लेवुनी ती गर्द वसने

ठाकलेली हर्षवदने

*

चिंब झाली पावसाने

साज ल्याली या उन्हाने

*

रत्न ही बघ भासताती

या पृथेच्या शालुवरती

*

सोनचाफा गेंद फुलले

केतकीचे पर्ण डुलले

*

गंध पसरे आसमंती

उल्हसीता ही मधुमती

*

इंद्रधनुचे रंग गगनी

रंगमय ही खास धरणी

*

पाहताना रूप सुंदर

मोहवी मन हे खरोखर

© सुश्री अरुणा मुल्हेरकर 

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊस… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

अल्प परिचय 

वय ७१
कथा कविता लेखनाचा छंद.
एकत्र कुटुंब. प्रायव्हेट कंपनीत सेल्समन होतो. २०११ ला निवृत्त झालो.

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पाऊस … ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

गरजतात ढग

बरसतात सरी

अवनीच्या गाली

आली बघ लाली..

*

लपंडाव चाले

रवी अन् कुट्ट मेघांचा

हार जीत नसते

खेळ ऊन सावल्यांचा..

*

नेसून शालू हिरवा 

नदीचा तिज किनार

लाजून चूर धरित्री 

नाचे जणू नवनार..

*

गंधाळलेला वारा

रिमझिम ती झड 

नवपरिणीत जणू

लपे झाडाआड…

*

मनमोर नाचे

हर्षित होऊन 

नको जाऊस रे गड्या

तू तर माझा साजण..

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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