हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 69 ☆ तिनकों सा बहना… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तिनकों सा बहना…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 69 ☆ तिनकों सा बहना… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रूखी-सूखी

एक नदी का

तट बनकर रहना

यही नियति है

सदा बाढ़ में

तिनकों सा बहना।

*

क्या गंगाजल

पाप-पुण्य की

धो पाया गठरी

भाग्य लिखी है

बस अभाव की

एक अदद कथरी

*

करनी-कथनी

के मरुथल में

प्यास लिए फिरना।

*

अधुनातन की

भाग-दौड़ में

हुए स्वयं से दूर

सच के मारे

झूठ ओढ़कर

जीने को मजबूर

*

ऊबड़-खाबड़

पगडंडी पर

सड़कों का सपना।

*

धर्म-कर्म के

पाखंडों में

खोज रहे तिनका

उमर कर रही

लेखा-जोखा

एक-एक दिन का

*

समय निरंतर

कहता रहता

नहीं कहीं रुकना।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बीज ? ?

वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।

अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।

अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 73 ☆ तख़्त का तज मोह सच को देखिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “तख़्त का तज मोह सच को देखिए“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 73 ☆

✍ तख़्त का तज मोह सच को देखिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सीट कम हों भय हुआ सच बात है

मौन संसद रह रहा सच बात है

सौ से ऊपर मर गए सत्संग में

हाथरस मक़तल बना सच बात है

 *

ढोंग से पर्दा हटेगा कब तलक

हादसों का सिलसिला सच बात है

 *

फुलरई मथुरा या सिरसा जोधपुर

दर्द अपना कह दिया सच बात है

 *

मुख्य आरोपी न मुलजिम नामजद

आसरा है धर्म का सच बात है

 *

हो रही तफ्तीश कैसी कुछ बता

झूठ हावी हो गया सच बात है

 *

सिरफिरों की फौज आई सामने

राज्य शासन तक झुका सच बात है

 *

सत्य हैं आरोप झूठे सन्त पर

क्यों तू झुठलाने लगा सच बात है

 *

तख़्त का तज मोह सच को देखिए

जाति गत ये दबदबा सच बात है

 *

अय अरुण बाबा बनो तो है मजा

छंद का छोड़ो नशा सच बात है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 465 ⇒ अखबार की रद्दी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अखबार की रद्दी।)

?अभी अभी # 465 ⇒ अखबार की रद्दी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो पढ़ने से करे प्यार, वो अखबार से कैसे करे इंकार। करते होंगे कुछ लोग उठते ही भगवान का स्मरण, लेकिन आपको सुबह जगाने वाला एक तो अखबार होता है, और दूसरा गर्मागर्म चाय का एक प्याला। चाय अगर तन को ताजगी देती है तो अखबार की ताजा खबरें नींद उड़ा देती हैं। जिस रोज अखबार में कुछ पढ़ने लायक नहीं होता, चाय तक बेस्वाद हो जाती है। चटपटी खबरें चुस्की लेकर पढ़ी जाती हैं। जहां इमोशन है, वहां मोशन है। गर्मागर्म चाय और मसालेदार खबरें। कहीं कहीं तो अखबार भी नित्य कर्म का साक्षी बन जाता है।

चाय पी जाती है, और अखबार चाटा जाता है।

चाय की तलब तो खैर रह रहकर उठ सकती है, लेकिन पूरा चाटने के बाद फिर अखबार को मुंह नहीं लगाया जाता। लेकिन अगर आप लेखक हैं और आपकी कोई रचना किसी अखबार में प्रकाशित हुई है, तो वह प्रति आपके लिए अनमोल हो जाती है। ।

एक आम पाठक के लिए पढ़ा हुआ अखबार किसी काम का नहीं होता। एक गोद के बच्चे की तरह वह घर के सदस्यों के हाथों में घूमा करता है। सबसे पहले पिताजी अखबार पढ़ते थे, हम बच्चों को तो मानो जूठन ही नसीब होती थी।

अखबार को रद्दी होने में ज्यादा समय नहीं लगता।

घर की महिलाएं सबसे आखिर में उन्हें, कपड़ों की तरह, तह करके सहेज कर रखती हैं, सिलसिलेवार तारीखवार। क्या पता किस दिन, किस तारीख का अखबार तलब कर लिया जाए। ।

वैसे रद्दी अखबार इतना रद्दी भी नहीं होता। उसकी भी कई उपयोगिता होती है। पूरियों और पकौड़ों का तेल भी यही रद्दी अखबार सोखता है। अलमारियों और पुराने मकानों की ताक में अखबार ही तो बिछाया जाता था। बच्चों के घर में अखबार के कई उपयोग हुआ करते हैं।

फिर आती है एक दिन बारी, सलीके से सहेजी गई इस रद्दी की विदाई की। रद्दी वाला और अटाला वाला टू इन वन होता है। उसकी निगाह रद्दी के अलावा घर की अन्य पुरानी चीजों पर ही होती है। घर कितना भी साफ सुथरा हो, एक जगह गैर जरूरी सामान, खाली डब्बा, खाली बोतल जमा हो ही जाते हैं। ।

फिर होता है रद्दी का मोल भाव। बाजार के सौदे में जहां हर चीज का भाव कम करवाया जाता है, यहां रद्दी की मानो बोली लगाई जा रही हो। जब रद्दी वाला टस से मस नहीं होता, तो रद्दी की तारीफ शुरू हो जाती है। देखो कितनी बढ़िया रद्दी है, एक जैसी, बिना कटी फटी। लेकिन रद्दी वाला नहीं पसीजता। माता जी रद्दी है, कोई सोना नहीं। रद्दी के भाव ही बिकेगी।

रद्दी का बाजार भाव और आस पड़ोस का भाव तक जान लिया जाता है। इधर रद्दी की तारीफ पर तारीफ से रद्दी वाला अपना धैर्य खो बैठता है और कह उठता है, आपका तो अखबार ही रद्दी है, आप लोग कैसे पढ़ लेते हो। रद्दी में बिक रहा है, यही गनीमत है। ।

मैं अखबार नहीं पढ़ता, पत्नी की पसंद का अखबार है, वह आहत हो जाती है। मैं समझाता हूं, देखो जिद मत करो, जो मिल रहा है, ले लो। वह भरे मन से अपने प्रिय अखबार की रद्दी को विदा करती है। भले ही अखबार रद्दी हो, पत्नी की पसंद का है, गनीमत है, रद्दी के भाव तो बिक रहा है। पसंद अपनी अपनी, अखबार अपना अपना..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… बलात्कार घृणित कृत्य ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशित। गीत कलश (छंद गीत) और निर्विकार पथ (मत्तसवैया) प्रकाशाधीन। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 350 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… बलात्कार घृणित कृत्य ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

बलात्कार होता घृणित, कृत्य करें जो लोग।

हृदय वेदना नित्य ही, आहत करता भोग।।

*

बलात्कार पीड़ा घनी, छलनी कर हृद भाव।

अंतस लूटे चैन को, देते मन पर घाव।।

*

हीन भावना का जनम, महिला भोगे नित्य।

मानव की हिंसक प्रवृति, हवस कराती कृत्य।।

*

जीवन कुकर्म से घृणित, तन-मन देता चोट।

कैसा यह संबंध यह, हृदय भाव दे घोट।।

*

बना देश कानून भी, रोके कहाँ समाज।

संस्कृति अरु संस्कार को, मिटा दिया है आज।।

*

शिक्षा बचपन की गलत, जीवन कर बर्बाद।

बेटे बेटी भेद ही, दिया हवस को साद।।

*

नारी सहमति बिन सदा, जो बनता संभोग।

उत्पीड़न दें यातना, पले मानसिक रोग।।

*

भारतीय कानून में, नियम काल का खंड।

यौन क्रिया दुष्कर्म को, मिले बड़ा ही दंड।।

*

करे योगिता प्रार्थना, रक्षक बनना आप।

कृष्ण कहा दे चीर अब, बढ़े द्रौपदी शाप।।

*

दुर्गा काली रूप ले, दानव वध कर रोज।

शक्ति दिखा अंतस छुपी, हृदय जगाना ओज।।

*

नहीं द्रोपदी अब बनों, कैसी सहना पीर।

बनों कृष्ण भी आज तुम, तुम्हें बचाना चीर।।

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश मो –8435157848

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्यारी हिन्दी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कविता ?

☆  प्यारी हिंदी☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

बहुत ही मधूर है हमारी हिंदी भाषा ,

हिंदी है भारत की राष्ट्रभाषा,

*

जबसे सिखी हिंदी मैंने,

अपने स्कूल के दिनों में,

मातृभाषा नही है फिर भी,

छा गयी दिल और दिमाग पर।

*

रेडिओ सिलोन के गीतों में सुनी,

सुनी आमीन सायानी जी की बातों में,

पढ़ी मुन्शी प्रेमचंद के पाठ में,

और सुभद्राकुमारी चौहान की कविता में,

गुलशन नंदा के उपन्यासों में….

राजेंद्र यादव के ‘सारा आकाश’ में।

*

देखी हिंदी अनगिनत फिल्मों में,

कवी प्रदीप,

नीरज, आनंद बक्षी, योगेश,

माया गोविंद के गीतों में  से,

उतर गयी सीधे दिल में।

*

हिंदी है बहुत ही मीठी,

हिंदी का अलग है लहजा,

मेरी प्यारी हिंदी, मुझको,

तेरा वह अंदाज दे जा…

© प्रभा सोनवणे

१६ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 117 – नौकरी फुटबाल नहीं है ! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  नौकरी फुटबाल नहीं है!“

☆ कथा-कहानी # 117 –  नौकरी फुटबाल नहीं है!  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नौकरी और इससे जुड़े परिवार की निर्भरता के प्रति हम सभी संवेदनशील होते हैं तो जब दुर्भावना रहित हुई गलतियों के प्रकरण हमारे सामने आते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच ही रखते हैं और भरसक अपनी ओर से पूरी मदद करने की कोशिश करते हैं, शायद यही इंसानियत है. ईश्वर ऐसे मौके प्रायः सभी को देता है जिसमें वे भी कुछ अंश तक मदद कर सकते हैं.

एक शाखा में जहां लगभग हर दो महीने में RBI से केश रेमीटेंस ट्रेन द्वारा आता रहता था. रिजर्व बैंक एक साथ रूट की कई शाखाओं के रेमीटेंस भेजा करता था और हरेक के साथ एक रिजर्व बैंक का कर्मचारी रहता था जिसका काम उस शाखा तक रेमीटेंस के साथ जाना, अपने सामने ब्रांच में उसे रखवाना और फाइनली 8-10 दिन अपने सामने काउंटिग करवाकर शाखा प्रबंधक से प्रमाण पत्र प्राप्तकर वापस लौटना होता था. आ रहे खजाने को रिसीव करने के लिये पुलिस सुरक्षा बल के साथ रेल्वे स्टेशन पर वह ब्रांच अपने अधिकारी को भेजती थी. एक पोतदार का ससुराल बीच के किसी स्टेशन पर पड़ता था तो वे अपने साथी को जो कि उनकी यूनियन का लीडर भी था, अपनी जिम्मेदारी सौंपकर एक दिन पहले निकल लिये. दूसरे दिन उनको वही ट्रेन पकड़ लेनी थी जो रेमीटेंस लेकर जा रही थी. पर ससुराल में खातिरदारी करवाने के चक्कर में ट्रेन आगे निकल गई और उस स्टेशन में दोनों शाखाओं का रेमीटेंस, रिजर्व बैंक के उन यूनियन लीडर महाशय ने उतरवा लिया. अगली ट्रेन से दामाद जी दौड़ते भागते पहुंचे. मामला तो पक्का नौकरी लेने वाला बन गया था पर उस शाखा के स्टॉफ के हृदय में दया और मानवीयता ने वरीयता ली और उनके लिये बाकायदा ट्रक और गार्ड की व्यवस्था कर उनके साथ उनका रेमीटेंस उस शाखा में भेजा गया जहाँ के लिये आया था. इस तरह उनकी नौकरी भी बची और शायद जीवन भर के लिये सबक भी मिला कि नौकरी फुटबाल नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 38 – मित्रता…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 38 – मित्रता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जय और अनुराग मित्र दोनों खेलते खेलते थक गए और कुछ बातें करने लगे, बातें करते-करते वे लोग आगे निकल गये।

अनुराग हम कहाँ आ गए यह तो कुछ अलग सी जगह लग रही है?

अब घर कैसे पहुंचेंगे ?

ये सब तुम्हारे कारण हुआ, और दोनों के बीच झगड़ा हो गया । जय ने अनुराग को जोर से थप्पड़ मार दिया फिर इस बात को सड़क के किनारे फूल तोड़ कर के अनुराग ने फूलों से जय का नाम लिख दिया।

थोड़ा आगे निकलने के बाद उन दोनों को बहुत जोर से प्यास लगी, आगे चलने के बाद एक नदी दिखाई दी दोनों ने पानी पिया और अनुराग ने कहा चलो?

हम लोग स्नान करते हैं?

जय को तैरना नहीं आता था वह किनारे नहाने लगा फिसल गया और डूबने लगा अनुराग ने उसे बचा लिया । तभी वहां पर एक पुलिस वाला दिखाई दिया।

उसने कहा- “अरे लड़कों तुम लोग कहां भटक रहे हो?

उन्होंने कहा बताया कि हम रास्ता भूल गए हैं।

उसने उन्हें उनके घर में अपनी गाड़ी में बिठा कर छोड़ दिया।

दोनों ने कहा थैंक यू अंकल

पुलिस वालों ने कहा – ऐसे कहीं अकेले मत घूमना।

दोनों के घर आमने-सामने थे। पुलिस वाले ने उनके माता-पिता को पूरी घटना बताई।

वे दोनों अपने घर जाते एक दूसरे को ध्यान से देखते रहे, सच्ची मित्रता आंखों में दिख रही थी…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हुरहूर  / तगमग… ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ आला श्रावण श्रावण / वेध माहेराचे… श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“वेध माहेराचे” या आधीच्या कवितेत म्हटल्याप्रमाणे, नव्या नवरीला श्रावणात माहेरी जाण्याचे वेध तर लागतात पण एकदा माहेरी आल्यावर नवऱ्याची आठवण पण छळायला लागते ! तर तिच्या मनांतले विचार कसे असतील ते सांगायचा प्रयत्न खालील कवितेत केला आहे.

☆ हु र हू र ! ☆

*

नाही उतरली अंगाची 

ओली हळद अजून,

आले धावत माहेरी 

साजरा करण्या श्रावण !

*

भेटता माहेरवाशिणी 

आनंद झाला मनांतून,

तरी पहिला तो स्पर्श 

जाईना माझ्या मनांतून !

*

रमले जरी सणावारात 

भान चित्ताचे तिकडे,

शरीरी जरी इकडे 

मन मिठीत त्या पडे !

*

सख्या साऱ्या करती 

माझीच थट्टा मस्करी,

मी मग हासून वरवर 

विरह झाकतसे उरी ! 

*

आता संपताच श्रावण 

जाईन म्हणते सासराला,

जाण्या मिठीत रायाच्या 

जीव माझा आसुसला !

जीव माझा आसुसला !

मागच्या कवितेत नवी नवरी श्रावणात माहेरी आली, तरी तिचं मन नवऱ्याकडे कसं धावत असतं याच वर्णन केलं होतं. तिच्याप्रमाणे तिच्या नवऱ्याचे मनांत सुद्धा काय विचार असतील, ते खालील कवितेत मांडण्याचा प्रयत्न केला आहे.

 

☆ त ग म ग ! ☆

*

तुझं पहिलं माहेरपण 

करी जीव कासावीस,

रात खाया येई खास 

जाई कसाबसा दिस !

*

सणवारात गं तुझा 

जात असेलही वेळ,

इथं आठवात तुझ्या 

नाही सरत गं काळ !

*

येते का गं माहेराला 

तुला माझी आठवण,

का झुरतो मी उगाच 

डोळी आणुनिया प्राण ?

*

वेळी अवेळी गं होतो 

मज तुझाच गं भास,

येता श्रावणाची सर 

लागे भेटीची गं आस !

*

नको लांबवू माहेरपण

जीव होतो गं व्याकुळ,

जसं उजाड वाटे कृष्णा 

राधेविण ते गोकुळ !

राधेविण ते गोकुळ !

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – pradnyavartak3@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “निर्भयाचे नाव काय ?” ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? विविधा ?

☆ निर्भयाचे नाव काय ? ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

उत्सुकता सर्वच जीवांचे वैशिष्ट्य आहे. नाक नावाचा अवयव हा श्वास घेण्यास दिला गेला असला तरी खुपसण्यास जास्त वापरला जातो. आपले झाकून ठेवताना दुसऱ्याचे वाकून पाहण्यासाठी डोळे आहेतच. तोंड तर free to air वृत्तवाहिनी! बघ्यांचे डोळे म्हणजे सीसीटिव्ही… खरं तर शी!शी! टीव्ही!

जंगलात झाडांच्या फांद्या उभ्या कापण्याचे काम करीत असलेल्या कारागिरांचे काम एक माकड पहात होते… आणि ते लोक नेमकं काय करत आहेत? याची त्याला उत्सुकता होतीच. पण एवढ्यावरच त्याने थांबले पाहिजे होते. करवतीने फांदीच्या मध्ये काप घेत असताना जर कापणे मध्येच थांबवले तर करवत लाकडाच्या दाबाखाली येऊन अडकून बसते आणि मग ती निरुपयोगी ठरते. म्हणून ती काढून घेण्याआधी कापलेल्या भागाच्या आत लाकडाचा एक उभट तुकडा ठेवला जातो.. त्याला पाचर म्हणतात! कारागीर जेवण करण्यास निघून जाताना त्यांनी ही पाचर नीट मारली होती… पण ती काढली तर काय होईल? हा प्रश्न माकडाला सतावत होता. त्याने ती पाचर काढण्याचा प्रयत्न केला.. ती निघालीही… पण त्याची शेपटी कापलेल्या झाडाच्या मध्ये अडकली… आणि मग कारागिरांनी माकडास बेदम झोडपून काढले! ही गोष्ट तशी लोकांच्या माहितीची आहे!

गोष्ट राहू द्या… कारण ते तर माकड होते! पण माणसांना कायदा ठावूक नसावा हे फार झाले! 

एकतर हल्ली फेसबुक हे बातमीपत्र बनले आहे. स्वयंघोषित बातमीदार बऱ्याच लोकांना आधीच माहीत झालेल्या सबसे तेज बातम्या सांगण्या, दाखवण्यात धन्यता मानतात!

कोलकाता येथील महिला डॉक्टरवर आलेला प्रसंग शत्रूवर ही येऊ नये. मुळात बलात्कार हा खुनापेक्षाही गंभीर गुन्हा आहे. यात पीडित व्यक्ती सर्वाधिक त्रास सहन करते. त्यामागे आपली सामाजिक मानसिकता मोठी भूमिका बजावते. गुन्हेगार उजळ तोंडाने आणि पीडित तोंड झाकून फिरतात.. असे दृश्य आहे. उपचार म्हणून पोलिस गुन्हेगारांची थोबाडं पिशव्यांनी झाकण्याचा प्रयत्न करतात हे ही खरे. पण ते चेहरे लोकांनी आधीच पाहून ठेवलेले आणि कॅमेऱ्यात कैद करून ठेवलेले असतात. पण हे चेहरे झाकण्यामागे न्यायालयीन प्रक्रियेतला एक महत्वाचा उद्देश दडलेला असतो.

बलात्कार, लैंगिक अत्याचार सारख्या खटल्यातील सुनावण्या in camera अर्थात अतिशय मोजक्या व्यक्तींच्या उपस्थितीत घेतल्या जातात. पण हल्ली लोकांना सर्वच on camera पाहिजे असते! अपघात, हल्ले, आत्महत्या यांत dead झालेल्या लोकांची live चलतचित्रे जास्त पसंत केली जातात. यात खूप पैसे मिळत असल्याने हे प्रदर्शन विशेष लक्ष देऊन केले जाते!

एका तथाकथित शैक्षणिक चित्रपटात बलात्कार शब्दाच्या मदतीने विनोद निर्मितीचा चमत्कार खूप गाजला. पण तो चित्रपट गाजत असताना आणि आजवरही त्यातील बलात्कार – चमत्कार शब्दाच्या वापराबाबत, त्याच्या दुष्परिणामांबाबत कसे कुणाला काही वाटले नाही, याचे आश्चर्य वाटते! लहान मुले या दृश्याचा आनंद घेत असताना पाहणं ही खूप दुःखाची बाब म्हणावी लागेल!

खूप काम पडल्यावर एका सुमार अभिनेत्याने मला माझ्यावर सामूहिक बलात्कार झाल्यासारखे वाटते! अशी प्रतिक्रिया देणे सुद्धा अनेकांच्या कानांतून सुटून गेले! अनेक चित्रपटात बलात्काराच्या प्रसंगात उत्तम अभिनय करणाऱ्या एका ज्येष्ठ अभिनेत्याने सुद्धा ” मी आताच दोन बलात्कार करून आलो.. असे वाक्य फेकून मित्रमंडळींना हसवले होते, असे ऐकिवात आहे. यातून बलात्कार शब्दास एक सहजपणा प्राप्त होत जातो, हे समाजाच्या मानसास कधी समजेल? …. हाच समाज The Rape of the lock नावाच्या इंग्रजी नाटकाच्या मुखपृष्ठावरील rape हा शब्द वाचून तुमच्याकडे तुम्ही अश्लील वाचता आहात, अशा नजरेने पाहू शकतो! असो.

बलात्कार पीडितेचे नाव, छायाचित्र इत्यादी माहिती प्रसिद्ध करू नये, असा न्यायालयाचा आदेश असताना काही अज्ञानी लोक नेमके असेच का करत सुटलेत? हा कायदेभंग केल्यास तुरुंगवास आणि दंडाची तरतूद आहे, याचे अज्ञान हा बचाव ठरणार नाही, हे लक्षात घेतले पाहिजे. त्यापेक्षाही सदर पीडित आपलीच कुणी सख्खी असती तर आपण अशी प्रसिद्धी दिली असती का? हाही विचार व्हावा! उलट कायद्याच्या तरतुदींना अधीन राहून गुन्हेगारांच्या कृत्यांना, अर्थात त्यांची भलावण होणार नाही अशा पद्धतीने प्रसिद्धी देण्याचं जमते का ते पाहावे! यात मग.. त्याचा गुन्हा कुठे सिद्ध झालाय अजून? असे cross जाण्याची गरज नाही!

जिचा काहीच गुन्हा नाही तिला जिवंतपणी आणि मरणानंतर शिक्षा का देता?

आणि माननीय न्यायालयाने याबाबतीत वेळोवेळी तसा आदेश दिलेला असतानाही लोकांनी असेच वागावे, याला काही अर्थ?

काही वर्षांपूर्वी एक मोठी अभिनेत्री इमारतीवरून पडून गतप्राण झाली होती.. त्यात तिचे शरीर अनावृत होते… ते ‘ पाहण्या ‘ साठी मुंबईमध्ये हजारो लोक जमले होते! 

काय झाकून ठेवायचे आणि काय वाकून बघायचे यातील विवेक कुणी कुणाला शिकवावा? हाच प्रश्न आहे!

बाकी एक महिला जिवानिशी गेली… तिच्या प्रकरणात कोलकात्यात जो हैदोस सुरू आहे.. ते पाहून डोळे, कान आणि मनाचे दरवाजे बंद करून बसावे, असे वाटते!

… ती मेली आणि तिला मारणारे अजून काही वर्षे जगणार आहेत, व्यवस्था त्यांना जगवणार आहे हे चित्र भयावह आहे.. की हेच आपले प्राक्तन आहे, न कळे!

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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