भावार्थ : परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।।16।।
But, to those whose ignorance is destroyed by knowledge of the Self, like the sun, knowledge reveals the Supreme (Brahman). ।।16।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कविता “छोटी ज़िंदगी”। )
साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
We present an English Version of this poem with the title ?✍ Creativity ✍?published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi ji for this beautiful translation.)
(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ” सृजन ” published in today’s ?✍ संजय दृष्टि – सृजन ✍?. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi ji for this beautiful translation. )
Initially, we thought to begin a weekly column of Capt. Pravin Raghuwanshi ji’s English Translations. Later on, we found that we will not be able to give justice by limiting his vivid literary work in periodical columns. So, we will try to publish his work whenever we will have an opportunity to do so. We are extremely thankful to Capt Pravin ji for giving this liberty to e-abhivyakti.
?✍ Creativity ✍?
Some stood fast with the power of money,
Others through the power of their contacts,
Time cemented this transactional barter for eternity,
While the utter crazy pauper like me held on to creativity…
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे। अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 1 ☆
कुत्ते की वफादारी और कटखनापन जब अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा शक्ति के साथ इंसानो पर अधिरोपित किया जाता है तो व्यंग्य उत्पन्न होता है. मुझे स्मरण है कि इसी तरह का एक प्रयोग जबलपुर के विजय जी ने “सांड कैसे कैसे” व्यंग्य संग्रह में किया था, उन्होने सांडो के व्यवहार को समाज में ढ़ूंढ़ निकालने का अनूठा प्रयोग किया था. पाकिस्तान के आतंकियो पर मैंने भी “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान…” एवं “मेरे पड़ोसी के कुत्ते” लिखे, जिसकी बहुत चर्चा व्यंग्य जगत में रही है. कुत्तों का साहित्य में वर्णन बहुत पुराना है, युधिष्टर के साथ उनका कुत्ता भी स्वर्ग तक पहुंच चुका है. काका हाथरसी ने लिखा था..
पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ
भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज
बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता
देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता
कहँ ‘काका’ कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला
पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला
हाल ही पडोसी के एक मौलाना ने बाकायदा नेशनल टेलीविजन पर देश के आवारा कुत्तो को सजा धजा कर दूसरे देशों को मांस निर्यात करने का बेहतरीन प्लान किसी तथाकथित किताब के रिफरेंस से भी एप्रूव कर उनके वजीरे आजम को सुझाया है, जिसे वे उनके देश की गरीबी दूर करने का नायाब फार्मूला बता रहे हैं. मुझे लगता है शोले में बसंती को कुत्ते के सामने नाचने से मना क्या किया गया, कुत्तों ने इसे पर्सनली ले लिया और उनकी वफादारी, खुंखारी में तब्दील हो गई. मैं अनेक लोगो को जानता हूं जिनके कुत्ते उनके परिवार के सदस्य से हैं.सोनी जी स्वयं एक डाग लवर हैं, उन्हीं के शब्दों में वे कुत्तेदार हैं, एक दो नही उन्होने सिरीज में राकी ही पाले हैं. एक अधिकारी के रूप में उन्होनें समाज, सरकार को कुछ ऊपर से, कुछ बेहतर तरीके से देखा समझा भी है. एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी अनुभूतियों का लोकव्यापीकरण करने में वे बहुत सफल हुये हैं. कुत्ते के इर्द गिर्द बुने विषयों पर अलग अलग पृष्ठभूमि पर लिखे गये सभी चौंतीस व्यंग्य भले ही अलग अलग कालखण्ड में लिखे गये हैं किन्तु वे सब किताब को प्रासंगिक रूप से समृद्ध बना रहे हैं. यदि निरंतरता में एक ताने बाने एक ही फेब्रिक में ये व्यंग्य लिखे गये होते तो इस किताब में एक बढ़िया उपन्यास बनने की सारी संभावनायें थीं. आशा है सुदर्शन जी सेवानिवृति के बाद कुत्ते पर केंद्रित एक उपन्यास व्यंग्य जगत को देंगे, जिसका संभावित नाम उनके कुत्तों पर “राकी” ही होगा.
धैर्य की पाठशाला शीर्षक भी उन्हें कुत्तापालन और धैर्य कर देना था तो सारे व्यंग्य लेखो के शीर्षको में भी कुत्ता उपस्थित हो जाता. जेनेरेशन गैप इन कुत्तापालन, कम्फर्ट जोन व डागी,कुत्ताजन चार्टर, डोडो का पाटी संस्कार, आदि शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं कि सोनी जी को आम आदमी की अंग्रेजी मिक्स्ड भाषा से परहेज नही है. उनकी व्यंग्यों में संस्मरण सा प्रवाह है. यूं तो सभी व्यंग्य प्रभावी हैं, गांधी मार्ग का कुत्ता, कुत्ता चिंतन, एक कुत्ते की आत्मकथा, उदारीकरण के दौर में कुत्ता आदि बढ़िया बन पड़े व्यंग्य हैं. किताब पठनीय है, श्वान प्रेमियो को भेंट करने योग्य है. न्यूयार्क में मुझे एक्सक्लूजिव डाग एसेसरीज एन्ड युटीलिटीज का सोरूम दिखा था “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ” अंग्रेजी अनुवाद के साथ वहां रखे जाने योग्य मजेदार व्यंग्य संग्रह लगता है.
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । आप मराठी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता “माथी पत्थर”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 13 ☆
भावार्थ : सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।।15।।
The Lord accepts neither the demerit nor even the merit of any; knowledge is enveloped by ignorance, thereby beings are deluded. ।।15।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “मेहंदी”। यह रंग बिरंगा जीवन जीने का दूसरा अवसर नहीं मिलता, जिसे जीने का सबको बराबर हक है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से समाज को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए बधाई ।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 13 ☆
☆ मेहंदी ☆
कंचन अपने माता-पिता की इकलौती संतान । गोरा रंग और सुंदरता के कारण उसका नाम कंचन रखा गया। कंचन के पिताजी की रंगो और मेहंदी की छोटी सी दुकान । उन रंगों से खेलना कंचन को बहुत भाता था। हमेशा मेहंदी से हाथ रचाई रखना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गई थी। बहुत शौकीन सजने संवरने की।
समय बीतता गया, कंचन बड़ी हुई। घर में शादी की बात चलने लगी। कंचन जो अब तक मेहंदी – महावर लगा रही थी। अब उसके माथे मांग सिंदूर लगने जा रहा था।
शादी बहुत ही साधारण तौर पर हुई क्योंकि कंचन के पिताजी ज्यादा खर्च करने के लायक नहीं थे। कंचन के रूप- गुण के कारण ससुराल वाले उनका भी खर्चा उठाने के लिए तैयार हो गए। बस और क्या चाहिए। कंचन शादी विदा होकर अपने ससुराल पहुंच गई। पर उसके मन में बार-बार शंका हो रही थी कि आखिर क्यों इतना एहसान किया जा रहा है।
ससुराल पहुंचने पर कंचन को धीरे-धीरे पता चला कि उसका अपना पति बहुत ही बीमार रहता है। डॉक्टर ने उसे जवाब दे दिया है। पर कंचन बेचारी क्या करती। दूसरे दिन ही पति की बीमारी शुरू हुई और मौत हो गई।
कंचन मौन मूक से देखती रही। अभी तो उसने ठीक से पति को देखा भी नहीं और विधवा हो गई।
खैर सब अपने कर्मो का फल है ऐसा सब कहने लगे। परंतु कंचन समझ ना पा रही थी कि इसमें उसका क्या कसूर।
दूसरे ही दिन से कंचन को सफेद साड़ी दे दिया गया। जिस कंचन को सब रंगों से इतना लगाव था वह तो पूरी सफेद बन चुकी।
महीने भर बाद माता-पिता जी ले गए अपनी बिटिया को अपने घर। जैसे खुशियां उनके घर से कोसों दूर चली गई है। कंचन अब अपनी दुकान पर भी नहीं बैठती थी। गुमसुम से एक जगह बैठी मिलती। बस अपने आप में खोई हुई। पास में ही कंचन के साथ पढ़ाई करने वाला लड़का कौशल पढ़ाई कर बाहर नौकरी पर चला गया था। जो कंचन को बहुत प्यार करता था। इसका पता उसे तब चला जब वह फिर लौट कर अपने घर आया हुआ था।
एक दिन पिताजी किसी काम से शहर से बाहर गए थे। कंचन की माँ अपने घर का काम कर रही थी। और कंचन दुकान पर बैठी, सफेद साड़ी में। उसी समय वह आया और लाल रंग और मेहंदी देने को कहा। पर कंचन ने मना कर दिया की वह रंगों को हाथ नहीं लगाएगी। कौशल ने फिर कहा “मुझे लाल रंग चाहिए।” कंचन ने गुस्से से कहा “तो फिर खुद ले लो और लगा लो।” बस कौशल को तो इसी की प्रतीक्षा थी। उसने लाल रंग निकाला और कंचन की सफेद साड़ी को सर से पांव तक लाल कर दिया। “ये क्या किया?” कंचन घबराहट से उठ खड़ी हुई।
माँ पीछे से मंद-मंद मुस्कुराते हुए बाहर आई और कौशल से बोली “ले जा मेरी कंचन को, मेहंदी महावर और लाल सिंदूर लगा कर। मेरी कंचन को रंगों से बहुत प्यार है।”
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की दसवीं कड़ी में उनकी दो लघु कवितायें “गरीबासन” तथा “कोशिश ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)