(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. हमने अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी की अतिसुन्दर मौलिक रचना ” Anguish of the Tree!” कल के अंक में प्रकाशित की है। आज प्रस्तुत है इसी कविता का हिंदी अनुवाद “पेड़ की व्यथा!” )
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘तिलस्म ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 23 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ तिलस्म ☆
वो तब भी था उसके साथ जब था वह कोसों कोसों दूर
था वह दुनियाँ की किसी खुशनुमा महफ़िल में
हो रही थी जब फ़ला फ़ला बातें फ़ला फ़ला शख़्स की
तब भी भीतर छुप किसी कोनें से वह कर रहा था उससे गुफ़्तगू
( ई- अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी का हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।
अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। आज प्रस्तुत है इस काव्य संग्रह की एक भावपूर्ण रचना “स्वप्नपाकळ्या” जो मात्र कविता ही नहीं अपितु, इस पुस्तक का आत्मकथ्य भी है ।)
(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई आँखों के सपने”
(अब तक आपने पढ़ा —- पगली का विवाह हुआ, ससुराल आई, सुहागरात को नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी, कालांतर में एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जहरीली शराब पीकर पति मरा, नक्सली आतंकी हिंसा की ज्वाला ने पुत्र गौतम की बलि ले ली, पगली बिछोह की पीड़ा सह नही सकी। वह सचमुच ही पागलपन की शिकार हो दर दर भटक रही थी। तभी अचानक घटी एक घटना ने उसका हृदय विदीर्ण कर दिया। वह दर्द तथा पीड़ा से कराह उठी। अब आगे पढ़े——-)
गोविन्द एक नाम एक व्यक्तित्व जिसकी पहचान औरों से अलग, गोरा चिट्टा रंग घुंघराले काले बाल, चेहरे पर हल्की मूछें, मोतीयों सी चमकती दंत मुक्तावली, चेहरे पे मोहक मुस्कान। हर दुखी इंसान के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना उसे लाखों की भीड़ में अलग पहचान दिलाती थी। वह जब माँ के पेट में था, तभी उसके सैनिक पिता सन् 1965 के भारत पाक युद्ध में सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गये।
उन्होंने मरते मरते अपने रण कौशल से दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये। दुश्मन की कई अग्रिम चौकियों को पूरी तरह तबाह कर दिया था।
जब तिरंगे में लिपटी उस बहादुर जवान की लाश घर आई, तो सारा गाँव जवार उसके घर इकठ्ठा हो गया था। गोविन्द की माँ पछाड़ खाकर गिर पड़ी थी पति के शव के उपर। उस अमर शहीद को बिदाई देने सारा क्षेत्र उमड़ पड़ा था। हर आंख नम थी, सभी ने अपनी भीगी पलकों से उस शहीद जवान को अन्तिम बिदाई दी थी।
उन आखिरी पलों में सभी सामाजिक मिथकों को तोड़ते हुये गोविन्द की माँ ने पति के शव को मुखाग्नि दी थी।
उस समय स्थानीय प्रशासन तथा जन प्रतिनिधियों ने भरपूर मदद का आश्वासन दे वाहवाही भी लूटी थी। लेकिन समय बीतते लोग भूलते चले गये।
उस शहीद की बेवा के साथ किये वादे को, उसको मिलने वाली सारी सरकारी सहायता नियमों कानून के मकड़जाल तथा भ्रष्टाचार के चंगुल में फंस कर रह गई।
अब वह बेवा अकेले ही मौत सी जिन्दगी का बोझ अपने सिर पर ढोने को विवश थी। क्या करती वह, जब पति गुजरा था तो उस वक्त वह गर्भ से थी।
उन्ही विपरीत परिस्थितियों में गोविन्द नें अपनी माँ की कोख से जन्म लिया था। उसके भविष्य को ले उस माँ ने अपनी आँखों में बहुत सारे सुनहरे सपनें सजाये थे। उस गरीबी में भी बडे़ अरमानों से अपने लाल को पाला था। लेकिन जब गोविन्द पांच बरस का हुआ, तभी उसकी माँ दवा के अभाव में टी बी की बीमारी से एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर मर गई। विधाता ने अब गोविन्द के सिर से माँ का साया भी छीन लिया था। नन्हा गोविन्द इस दुनियाँ में अकेला हो गया था।
ऐसे में उसका अगला ठिकाना बुआ का घर ही बना था। गोविन्द के प्रति उसकी बुआ के हृदय में दया तथा करूणा का भाव था, लेकिन वह अपने पति के ब्यवहार से दुखी तथा क्षुब्ध थी, गोविन्द का बुआ के घर आना उसके फूफा को रास नही आया था। उसे ऐसा लगा जैसे उसके आने से बच्चों के प्रति उसकी माँ की ममता बट रही हो।
वह बर्दाश्त नही कर पा रहा था गोविन्द का अपने परिवार के साथ रहना। इस प्रकार दिन बीतते बीतते गोविन्द बारह बरस का हो गया।
अब घर में गोविन्द एक घरेलू नौकर बन कर रह गया था। लेकिन वह तो किसी और ही मिट्टी का बना था। पढ़ाई लिखाई के प्रति उसमें अदम्य इछा शक्ति तथा जिज्ञासा थी। वह बुआ के लड़कों को रोज तैयार हो स्कूल जाते देखता तो उसका मन भी मचल उठता स्कूल जाने के लिए। लेकिन अपने फूफा की डांट खा चुप हो जाता। एक दिन खेल खेल में ही बुआ के बच्चों के साथ उसका झगड़ा हुआ।
उस दिन उसकी खूब जम कर पिटाई हुई थी। इसी कारण गोविन्द नें अपनी बुआ का घर रात के अन्धेरे में छोड़ दिया था तथा सड़कों पर भटकने के लिए मजबूर हो गया था।
Surya namaskara is a well-known and vital technique within the yogic repertoire. It is a practice which has been handed down from the sages of vedic times. Surya means ‘sun’ and namaskara means ‘salutation’.
It is a technique of solar vitalization, a series of exercises which recharge us like a battery, enabling us to live more fully and joyfully with dynamism and skill in action.
Surya namaskara is a series of twelve physical postures. These alternate backward and forward bending asanas flex and stretch the spinal column and limbs through their maximum range. The series gives such a profound stretch to the whole body that few other forms of exercise can be compared with it.
It is almost a complete sadhana in itself, containing asana, pranayama and meditational techniques within the main structure of the pracntice. It also has the depth and completeness of a spiritual practice.
Surya namaskara can be easily integrated into our daily lives as it requires only five to fifteen minutes’ practice daily to obtain beneficial results remarkably quickly.
Reference- SURYA NAMASKARA – A TECHNIQUE OF SOLAR VITALIZATION BY SWAMI SATYANANDA SARASWATI
Caution: This is only a demonstration to facilitate practice of the asanas. It must be supplemented by a thorough study of each of the asanas. Careful attention must be paid to the contra indications in respect of each one of the asanas. It is advisable to practice under the guidance of a yoga teacher.
Our Fundamentals:
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
दशम अध्याय
(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।30।।
सब पक्षियों में हूँ गरूड पशुओं मध्य मृगेन्द्र
दैत्यों में प्रहलाद हूँ गणकों में कालेन्द्र।।30।।
भावार्थ : मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय (क्षण, घड़ी, दिन, पक्ष, मास आदि में जो समय है वह मैं हूँ) हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ।।30।।
And, I am Prahlad among the demons; among the reckoners I am time; among beasts I am their king, the lion; and Garuda among birds.।।30।।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री गणेश गनीके विचार “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #4 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” – श्री गणेश गनी ☆
कुछ बड़े कहलाए जाने वाले कवियों ने आगे ऐसी परम्परा स्थापित करने की कोशिश की या नहीं की, पर एक रास्ता जरूर बन गया, जिसपर चलने वाले चन्द युवा भी हैं। ये लोग स्त्रियों पर ऐसी शर्मसार करने वाली कविताएं लिख रहे हैं कि जिन्हें आप अश्लीलता की श्रेणी में ही रख सकते हैं। हद तो तब होती है जब ऐसी फूहड़ कविताओं को पुरस्कार दिए जाते हैं। कुछ आलोचक इनका भरपूर समर्थन भी करते हैं।
हालांकि कुछ ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अपनी भाषा और शिल्प से दैहिक कविता को भी कुछ यूं बांधा है कि पढ़ते हुए शर्म नहीं बल्कि स्त्री के प्रति सम्मान बढ़ता ही है। शताब्दी राय की ए लड़की कविता और दोपदी सिंघार की पेटीकोट कविता कुछ ऐसी ही कविताएं हैं। ऐसे समय में स्त्री और देह पर लिखने वाले कुछ शानदार कवि भी हैं, जिनसे आश्वस्त हुआ जा सकता है। विवेक चतुर्वेदी की यह कविता देखें-
लड़की दौड़ती है तो
थोड़ी तेज हो जाती है
धरती की चाल
औरत टाँक रही है
बच्चे के अँगरखे पर
सुनहरा गोट…
और गर्म हो चली है
सूरज की आग
बुढ़िया ढार रही है
तुलसी के बिरवे पर जल
तो और हरे हो चले हैं
सारे जंगल…
पेट में बच्चा लिए
प्राग इतिहास की
गुफा में बैठी औरत
बस ..बाहर देख रही है
और खेत के खेत सुनहरे
गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं…।।
ऐसा नहीं है कि अच्छी कविताओं का अकाल पड़ा है। अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे। खराब व्यक्ति तो सब कुछ खराब कर देता है, फिर कविता क्या है उसके लिए। कवि कह रहा है, सुनो-
अंधेरी रात के कुफ्र में
जब रौशन नमाज़ से गूंजा चाँद
दुआओं सा मैं तुझे याद करता हूँ।
प्रेम पर हर कवि लिखता है। ख़ासकर नया नया कवि तो प्रेम कविताएं ही लिखता है। भले ही प्रेम पर उसकी समझ सिफ़र ही क्यों न हो। विवेक की यह प्रेम कविता बंधन जैसा एहसास नहीं करवाती, न ही कोई शर्त लगाती है । प्रेम तो आपसी समझ की वो ऊंचाई है, जिससे आगे केवल आज़ादी है। यह केवल वफ़ादारी और कुर्बानी ही नहीं है बल्कि विश्वास की पराकाष्ठा भी है-
तुमने लगाया था
जो मेरे साथ
एक आम का पेड़
तुम्हारा होना उस पेड़ में
आम की मिठास बनके
बौरा गया है
आज आसाढ़ की पहली बारिश में भीगकर
ये आम का पेड़ लहालोट हो गया है
एक कोयल ने अभी अभी
कहा है अलविदा
अब वो बसेरा करेगी
जब पीले फागुन सी
बौर आएगी अगले बरस
हम अपनी जड़ों के जूते
मिट्टी में सनाए
खड़े रहेंगे बरसों बरस
मैं अपने छाल होने के खुरदरेपन से तुम्हारी थकी देह सहलाता रहूँगा
पर सो न जाना तुम
कभी रस हो जाएंगे फल
ठिठुरती ठंड में सुलगकर आँच हो जाएंगी टहनियां
छाँव हो जाएंगी हरी
पत्तियाँ
कभी सूखकर ये
पतझड़ की आंधियों में उड़ेंगी
उनके साथ हम भी तो
मीलों दूर जाएंगे
गोधूलि… तक हम कितनी दूर जाएंगे
तुमने लगाया था जो मेरे साथ एक आम का पेड़..।
विवेक की एक और प्रेम कविता यहां देखी जा सकती है। एक संवेदनशील कवि अपनी स्मृतियों में जीता है, जीना भी चाहिए, क्या बुराई है। नॉस्टेल्जिया तब तक कविता में अच्छा लगता है, जब तक उसके साथ एक ऐसा रिश्ता बना रहे कि जिसमें बेचारपन न हो-
तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने
खूँटी पर टाँग रखा है
तुम चाहो उतारो उसे या
वहीं रहे टँगा… छिन जाए
जब भी देखता हूँ
चाहता हूँ उसे उतार दूँ
पर टूटने लगता है अरझ कर
एक एक सूत
दर्द भरी टीस के साथ
और नहीं तोड़ सकता
मैं एक भी सूत
जो साथ हमने काता है
तुम्हारे साथ…।।
चुप रहना कितना मुश्किल है, यह साधना जैसा है, जिसे हर कोई नहीं साध सकता। चुप्पी खूबसूरत होती है, शांत होती है, अहिंसक होती है। हमें दोस्तों की चुप्पी हमेशा याद रहती है। कई बार इसे तोड़ना भी पड़ता है, ज़रूरी है चीखना कई जगह, कई बार चुप नहीं रहा जाता, परन्तु चुप का अपना स्वाद है-
किसी रोज़
नदी के निर्जन घाट पर
चुप…बैठे रहेंगे साथी
उस शाम
तुम नहीं कहोगी
…शांत है ये जल
मैं नहीं कहूँगा
…अच्छा है इस शाम यहाँ होना
नदी की धार को
पैरों से छूता
एक पंछी
हू तू तू…बोलता
उड़ जाएगा
हम.. कुछ भी न कहेंगे
बहुत सा जो खूबसूरत
मिट रहा है
इस दुनिया से
चुप…उनमें से एक है साथी ।।
कवि कभी कभी कविता के माध्यम से अपना दृष्टिकोण भी बता डालता है। यह आवश्यक भी है कि वास्तव में एक कवि की सोच क्या है-
नहीं जाता अब सुबह
मन्नतों से ऊबे
अहम से ऐंठे
पथरीले देवों के घर
उठता हूँ आँगन बुहारता हूँ
नेह की खुरपी से
कुछ बच्चों के लिए
इक भोर उगाता हूँ।।
विवेक छोटी छोटी कविताओं के माध्यम से अधिक खुलते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि लम्बी कविता ही लिखी जाए। लम्बी कविता यदि एक कुशल कवि लिखे तो बात ज़्यादा बन सकती है। छोटी कविता भी बहुत मुश्किल है बनाना। एक अर्थपूर्ण छोटी कविता लिखने के लिए भी कुशलता ही चाहिए-
आज रात
चाँद के पीछे भागता
एक छोटा सा तारा
नहीं है शुक्र
झूलाघर से मचला
बच्चा है
कामकाजी औरत है
चाँद
जिसे दफ्तर पहुंचना है
दफ्तर खेत है
औरत जहाँ दो रोटी
उगाती है।।
सबसे कठिन काम है बच्चों के मनोविज्ञान पर लिखना। इधर बहुत चूक होने की संभावना रहती है। विवेक ने अपने बचपन को याद रख कर कुछ कड़ियों को जोड़ा है जो सीधे बचपन के आंगन ले जाती हैं। बच्चा वो सब सोचता है, जिसे सोचना बड़ों की औकात ही नहीं है-
बच्चा सोचता है…
फूली हुई रोटी से हों दिन
या फिर दिन हों नर्म भात से
सेमल की रूई से हों हल्के
रसीले हों संतरे की गोली से
क्यों न हों लड्डू से गोल
दिन हों नई बुश्शर्ट से रंगीन
बच्चा सोचता है
आएंगे ये दिन…
जब परदेस से बाबू आएंगे
पर क्या… बाबू आएंगे?
विवेक की एक और कविता देखें बचपन की पड़ताल करती हुई-
बरस गया है
आसाढ़ का पहला बादल
हरी पत्तियाँ जो पेड़ में ही
गुम हो गई थीं
फिर निकल आई हैं
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोट कर
खेलने लगे हैं
दरकने लगा है
आँगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से
अँकुए फूटने लगे हैं
कहाँ हो तुम …।
विवेक की कविताओं में प्रेम, लोकधर्मिता, प्रतिबद्धता आदि विविधताएं हैं। कविताएं ताज़गी से भरपूर और असरदार हैं। बिम्बों और रूपकों का प्रयोग कविताओं को बेहतर बनाता है-
सबके जीवन में उगता है
धार्मिकता का क्षण
एक बच्चे के लिए
चुराते हुए गुड़ …. खेलते सितोलिया
होते हुए बारिश में लहालोट
कहें कि पूरा बचपन ही
रुका हुआ क्षण है धार्मिकता का
एक युवा सांड़ के लिए है सम्भोग में
एक अँकुए के लिए फोड़ते हुए मिट्टी
एक पिता के लिए आता है
धार्मिकता का क्षण
जब बड़े हो रहे बेटे को
थमा देता है अपना स्कूटर
एक लड़के के लिए
जब सुलगाता है वो पहली सिगरेट
लड़की के लिए, छत पर
सहसा उतर आई एक
रंगीन पतंग के साथ…
माँ के लिए आज भी राह देखने
और गर्म रोटी में बचा है
धार्मिकता का क्षण।
विवेक चतुर्वेदी की कविताएं साधारण भाषा और शिल्प में लिखी अच्छी कविताएं हैं, जिन्हें पढ़कर एक तसल्ली मिलती है मन को को। कवि अपने आसपास की चीज़ों से संबंध बनाते हुए जीवन की आशाओं को यहीं खोजता है। वो आशावादी है, बच्चों, फूलों, धरती आदि को प्रेम करने वाला कवि है।
(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.
Captain Praveen Raghuvanshi ji is not only proficient in Hindi and English, but also has a lot of interference in Urdu and Sanskrit. We are pleased to present his original creation “Anguish of the Tree!” for our enlightened readers. Also, he made available the Hindi Version of his poem “पेड़ की व्यथा!” which you can read in tomorrow’s (Sunday) issue.)
☆ Anguish of the Tree! ☆
Some people have come
to cut the tree,
But, the biting sun forces them
to take refuge under its shade!
Exclaims the tree: Why to cut me
I would have died
Just like that only,
Had no one sat under my shade!
How’d they know
the effect of scorching sun,
Who always live
under the coolest of shade!
How’d would they know
the extent of sufferings
Who have never lived in the devastated villages..!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष – भाषा ☆
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है महाशिवरात्रि पर्व पर विशेष सामायिक आलेख “हिन्दू खगोल-विज्ञान”। )
ब्रह्माण्ड में ग्रहों की कोई गति और हलचल हमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं से प्रभावित करती है । हम जानते हैं कि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति पृथ्वी पर एक वर्ष के लिए जिम्मेदार है और यदि हम इस गति को छह हिस्सों में विभाजित करते हैं तो यह वसंत, ग्रीष्मकालीन, मानसून, शरद ऋतु, पूर्व-शीतकालीन और शीतकालीन जैसे पृथ्वी पर मौसम को परिभाषित करता है । इसमें दो-दो विषुव (equinox) और अयनांत (solstice) भी सम्मलित हैं । पृथ्वी पर हमारे सौर मंडल के ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन हमेशाएक ही प्रकार का नहीं होता है क्योंकि विभिन्न ग्रहों की गति और हमारी धरती के आंदोलन की गति भिन्न भिन्न होती है । विशेष रूप से ऊर्जा के प्रवाह को जानने के लिए हमें ब्रह्माण्ड में सूर्य की स्थिति, नक्षत्रों में चंद्रमा की स्थिति, चंद्रमा की तिथि, जिसकी गणना चंद्रमा के उतार चढ़ाव या शुक्ल और कृष्ण पक्षों के चक्रों से की जाती है, और अन्य कई पहलुओं को ध्यान में रखना पड़ता है । हर समय इन ऊर्जायों के सभी संयोजन समान नहीं होते हैं । कभी-कभी कुछ अच्छे होते हैं, और अन्य बुरे, और इसी तरह । आपको पता होगा ही कि सूर्य की ऊर्जा के कारण पृथ्वी पर जीवन संभव है, सूर्य के बिना पृथ्वी पर कोई जीवन संभव नहीं हो सकता है । जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि हमारे वातावरण में जीवन की मूल इकाई, प्राण आयन मुख्य रूप से सूर्य से ही उत्पन्न होते हैं, और चंद्रमा के चक्र समुद्र के ज्वार- भाटा, व्यक्ति के मस्तिष्क और स्त्रियों के मासिक धर्म चक्र पर प्रभाव डालते हैं । मंगल गृह हमारी शारीरिक क्षमता और क्रोध के लिए ज़िम्मेदार होता है, और इसी तरह अन्य ग्रहों की ऊर्जा हमारे शरीर, मस्तिष्क हमारे रहन सहन और जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव डालती है ।
अयनांत अयनांत/अयनान्त (अंग्रेज़ी:सोलस्टिस) एक खगोलय घटना है जो वर्ष में दो बार घटित होती है जब सूर्य खगोलीय गोले में खगोलीय मध्य रेखा के सापेक्ष अपनी उच्चतम अथवा निम्नतम अवस्था में भ्रमण करता है । विषुव और अयनान्त मिलकर एक ऋतु का निर्माण करते हैं । इन्हें हम संक्रान्ति तथा सम्पात इन संज्ञाओं से भी जानते हैं । विभिन्न सभ्यताओं में अयनान्त को ग्रीष्मकाल और शीतकाल की शुरुआत अथवा मध्य बिन्दु माना जाता है । 21 जून को दोपहर को जब सूर्य कर्क रेखा पर सिर के ठीक ऊपर रहता है, इसे उत्तर अयनान्त या कर्क संक्रांति कहते हैं । इस समय उत्तरी गोलार्ध में सर्वाधिक लम्बे दिन होते हैं और ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है । मार्च और सितम्बर में जब दिन और रात्रि दोनों 12-12 घण्टों के होते हैं तब उसे विषुवदिन कहते हैं।
तो हम कह सकते हैं कि ब्रह्मांड इकाइयों के कुछ संयोजनों के दौरान प्रकृति हमें एकाग्रता, ध्यान, प्रार्थना इत्यादि करने में सहायता करती है अन्य में, हम प्रकृति के साथ स्वयं का सामंजस्य बनाकर शारीरिक रूप से अधिक आसानी से कार्य कर सकते हैं आदि आदि । तो कुछ संयोजन एक तरह का कार्य प्रारम्भ करने के लिए अच्छे होते हैं और अन्य किसी और प्रकार के कार्य के लिए । पूरे वर्ष में पाँच प्रसिद्ध रातें आती हैं जिसमें विशाल मात्रा में ब्रह्मांड की ऊर्जा पृथ्वी पर बहती है । अब यह व्यक्ति से व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस ऊर्जा को अपने आप के लिए या किसी और के लिए उसका उपयोग अच्छे तौर पर कर सकता है या दूसरों के लिए बुराई के तौर पर, जैसे कुछ तांत्रिक अनुष्ठानों में किया जाता है । इसके अतरिक्त कुछ रातें ऐसी भी होती है जो 3-4 वर्षो में एक बार या 10-20 वर्षो में एक बार एवं कुछ तो सदियों में एक बार या युगों में एक बार आती हैं । ये सब हमारे सौर मंडल में उपस्थित ग्रहों, नक्षत्रों और कुछ हमारे सौर मंडल के बाहर के पिंडो आदि की सापेक्ष गति और अन्य कई कारणों से होता है ।
ये पाँच विशेष रातें पाँच महत्वपूर्ण हिन्दु पर्वों की रात्रि हैं जो महाशिवरात्रि से शुरू होती हैं और उसके पश्चात होली, जन्माष्टमी, कालरात्रि और पाँचवी और तांत्रवाद के लिए सबसे खास रात्रि वह रात्रि है जो दिवाली के पूर्व मध्यरात्रि से शुरू होती है जिसे नरकचतुर्दशी या छोटी दिवाली या काली चौदस या भूत चौदस भी कहा जाता है । अर्थात वह समय, जो दिवाली रात्रि विशेष समय पूर्व, दिवाली रात्रि या नरक चतुरादाशी रात्रि 12:00 बजे से सुबह दिवाली की सुबह ब्रह्ममुहूर्त तक होता है ।
कालरात्रि नवरात्रि समारोहों की नौ रातों के दौरान माँ कालरात्रि की परंपरागत रूप से पूजा की जाती है । विशेष रूप से नवरात्र पूजा (हिंदू प्रार्थना अनुष्ठान) का सातवां दिन उन्हें समर्पित है और उन्हें माता देवी का भयंकर रूप माना जाता है, उसकी उपस्थिति स्वयं भय का आह्वान करती है । माना जाता है कि देवी का यह रूप सभी दानव इकाइयों, भूत, आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं का विनाशक माना जाता है, जो इस रात्रि उनके आने के स्मरण मात्र से भी भागते हैं ।
नरकचतुर्दशी यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है । मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है । विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो कर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं । शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है । इस रात्रि दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं । एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंधी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था । इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजायी जाती है इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति (अर्थ : केलि, क्रीड़ा, विराम) देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे । उन्होंने जाने-अनजाने में भी कभी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए । यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आये हो क्योंकि आपके यहाँ आने का अर्थ है कि मुझे नर्क जाना होगा । आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है । पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है । दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे एक वर्ष का और समय दे दे । यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी । राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुँचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है । ऋषि बोले हे राजन आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणो को भोजन करवा कर उनसे अपने हुए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें । राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया । इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ । उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है । स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है । इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है ।
नरक चतुर्दशी (काली चौदस, रूप चौदस, छोटी दीवाली या नरक निवारण चतुर्दशी के रूप में भी जाना जाता है) हिंदू कैलेंडर अश्विन महीने की विक्रम संवत में और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (चौदहवें दिन) पर होती है । यह दीपावली के पाँच दिवसीय महोत्सव का दूसरा दिन है । भूत चतुर्दशी चंद्रमा की बढ़ती अवधि के दौरान अंधकार पक्ष या कृष्ण पक्ष के 14 वें दिन पर हर बंगाली परिवार में मनाया जाता है और यह पूर्णिमा की रात्रि से पहले होता है । यह सामान्य रूप से अश्विन या कार्तिक के महीने में 14 दिन या चतुर्दशी पर होता है ।
ब्रह्ममुहूर्त सूर्योदय के डेढ़ घण्टा पहले का मुहूर्त, ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है । सही-सही कहा जाय तो सूर्योदय के 2 मुहूर्त पहले, या सूर्योदय के 4 घटिका पहले का मुहूर्त । 1 मुहूर्त की अवधि 48 मिनट होती है । अतः सूर्योदय के 96 मिनट पूर्व का समय ब्रह्म मुहूर्त होता है । इस समय संपूर्ण वातावरण शांतिमय और निर्मल होता है । देवी-देवता इस काल में विचरण कर रहे होते हैं । सत्व गुणों की प्रधानता रहती है । प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है । जल्दी उठने में सौंदर्य, बल, विद्या और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । यह समय ग्रंथ रचना के लिए उत्तम माना गया है । वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायुमंडल प्रदूषणरहित होता है । इसी समय वायुमंडल में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है । शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है । ऐसे समय में शहर की सफाई निषेध है । आयुर्वेद के अनुसार इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है । ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है । यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि रात्रि को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है । सुबह ऑक्सिजन का स्तर भी ज्यादा होता है जो मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करता है जिसके चलते अध्ययन बातें स्मृति कोष में आसानी से चली जाती है ।
अगर हम बारीकी से विश्लेषण करे, महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुन के महीने में आता है ।
फाल्गुन हिंदू कैलेंडर का एक महीना है । भारत के राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष का बारहवां महीना है, और ग्रेगोरियन कैलेंडर में फरवरी/मार्च के साथ मेल खाता है । चंद्र-सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष के एक ही समय में नए चंद्रमा या पूर्णिमा पर शुरू हो सकता है, और वर्ष का बारहवां महीना होता है । हालांकि, गुजरात में, कार्तिक वर्ष का पहला महीना है, और इसलिए फाल्गुन गुजरातियों के लिए पाँचवें महीने के रूप में आता है । होली (15वी तिथि या पूर्णिमा शुक्ल पक्ष फाल्गुन) और महाशिवरात्रि (14वी तिथि कृष्ण पक्ष फाल्गुन) की छुट्टियां इस महीने में मनाई जाती हैं । सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन सूर्य के मीन राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है, और सौर वर्ष, या वसंत का बारहवां महीना होता है । यह वह समय है जब भारत में बहुत गर्म या ठंडा मौसम नहीं होताहै ।
महा शिवरात्रि कृष्णपक्ष की 14वीं तिथि या चंद्रमा के घटने के चक्र में चौदवें दिन मनाया जाता है। वैज्ञानिक रूप से कृष्ण पक्ष के चंद्रमा की चतुर्दशी पर, चंद्रमा की पृथ्वी को ऊर्जा देने की क्षमता बहुत कम हो जाती है (जो की उसके अगले दिन अमावस्या को पूर्ण समाप्त हो जाती है), इसलिए मन की अभिव्यक्ति भी कम हो जाती है, एक व्यक्ति का मस्तिष्क परेशान हो जाता है, और किसी भी विचार से कई मानसिक तनाव हो सकते हैं ।
तो अच्छे विचारों के साथ एक खाली मस्तिष्क भरने के लिए या हमारे मन पर प्रक्षेपित चंद्रमा की ऊर्जा को नए और ताजे रूप से स्थापित करने के लिए सब को महा शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । महा शिवरात्रि से पहले, सूर्य देव (सूर्य के देवता), भी उत्तरायण तक पहुँच चुके होते हैं अर्थात यह मौसम बदलने का समय भी होता है ।
उत्तरायण सूर्य की एक दशा है । ‘उत्तरायण’ (= उत्तर + अयन) का शाब्दिक अर्थ है – ‘उत्तर में गमन’ । दिन के समय सूर्य के उच्चतम बिंदु को यदि दैनिक तौर पर देखा जाये तो वह बिंदु हर दिन उत्तर की ओर बढ़ता हुआ दिखेगा । उत्तरायण की दशा में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन लम्बे होते जाते हैं और रातें छोटी । उत्तरायण का आरंभ 21 या 22 दिसम्बर होता है । यह अंतर इसलिए है क्योंकि विषुवों के पूर्ववर्ती होने के कारण अयनकाल प्रति वर्ष 50 चाप सेकंड (arcseconds) की दर से लगातार प्रसंस्करण कर रहे हैं, यानी यह अंतर नाक्षत्रिक (sidereal) और उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों के बीच का अंतर है । सूर्य सिद्धांत बारह राशियों में से चार की सीमाओं को चार अयनांत कालिक (solstitial) और विषुव (equinoctial) बिंदुओं से जोड़कर इस अंतर को पूरा करता है । यह दशा 21 जून तक रहती है । उसके बाद पुनः दिन छोटे और रात्रि लम्बी होती जाती है । उत्तरायण का पूरक दक्षिणायन है, यानी नाक्षत्रिक राशि चक्र के अनुसार कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति के बीच की अवधि और उष्णकटिबंधीय राशि चक्र के अनुसार ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अयनांत के बीच की अवधि ।
तो यह शुभ समय होता है वसंत का स्वागत करने के लिए । वसंत जो खुशी और उत्तेजना के साथ मस्तिष्क को भरता है, महा शिवरात्रि पर भी सबसे शुभ समय ‘निशिता काल’ (अर्थ : हिंदू अर्धरात्रि का समय) है, जिसमें धरती पर सभी ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन उनके कुंडली ग्रह की स्थिति के बावजूद पृथ्वी के सभी मानवों के लिए सकारात्मक होता है । महा शिवरात्रि पर आध्यात्मिक ऊर्जा के संयोजन की व्याख्या करने के लिए, यह फाल्गुन महीने में पड़ता है, जो कि सूर्य के स्थान परिवर्तन का समय होता है और वह उत्तरायन में प्रवेश कर चूका होता है इस समय सर्दी का मौसम समाप्त हो जाता है । फाल्गुन नाम ‘उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र’ पर आधारित है, जिसके स्वामी सूर्य देव हैं, जिसमें मोक्ष, आयुर्वेदिक दोष वात, जाति योद्धा, गुणवत्ता स्थिर, गण मानव, दिशा पूर्व की प्रेरणा होती है । महा शिवरात्रि चंद्रमा के घटने के चक्र के 14 वें दिन पर आता है, इसके एकदम बाद अमावस्या (जिसमे चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर नहीं दिखाई देता) होती है । तो चंद्रमा के घटने की 14वी तिथि वह समय होता है जब चंद्रमा के चक्र की ऊर्जा का अंतिम भाग उसकी ऊर्जा के दूसरे भाग द्वारा परिवर्तित होने वाला होता है ।