(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की। आप मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आज प्रस्तुत है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर श्री दिव्यांशु शेखर जी की विशेष कविता “स्त्री तुम हो” )
☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – स्त्री तुम हो☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साहित्य की अन्य विधाओं में भी उनका विशेष दखल है। आज प्रस्तुत है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह विशेष कविता “सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना”। )
☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना☆
(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई आँखों के सपने”
(अब तक आपने पढ़ा —- अभी तक आप ने पगली के जीवन की पूर्वाध की कथा पढ़ी, अब उसके जीवन की उत्तरार्ध की कथाओं का अवलोकन करे, आपको पता चल जायेगा। कि किन घटनाओं ने पगली को पगली से पगली माई बना सामाजिक सम्मान के शीर्ष पर स्थापित कर दिया, उस कड़ी में पगली भले ही दुर्गा माई, लक्ष्मी माई सरस्वती माई का स्थान ग्रहण न कर पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी तो बन ही गई। आगे पढ़ें —-)
दोपहर का समय बीत चला था, भगवान भास्कर चमकते हुए अस्ताचल गामी हो चले थे। पगली अपनी बेखुदी में अस्फुट स्वरों में मन ही मन कुछ बुदबुदाती हुइ आगे बढ़ी चली जा रही थी। उसी समय पास में चल रही प्रायमरी पाठशाला में बच्चों का अवकाश हुआ था।
पगली को पास से गुजरते देख शरारती बच्चों की एक टोली पगली के पीछे पड़ गई थी। वे उसे पगली पगली कह चिढ़ाते जा रहे थे। सहसा पगली आवेशित हो चीख पडी़। उसने बच्चों को दौड़ा भी लिया था। शरारती बच्चों ने उसपर पत्थरों की बौछार कर थी। उन पत्थरों से चोटिल पगली जमीन पर गिर पड़ी थी।
उसी समय राह गुजरते कुछ लोगों नें बच्चों को ललकारा तो वे गधे की सींग की तरह वहाँ से गायब हो गये।
पगली परकटी पंछी की तरह गिर कर चोटिल हो छटपटा उठी थी। दर्द और पीड़ा से बुरा हाल था उसका। कुछ समय बाद वह उठ कर धीरे धीरे चलती हुई अपने अंजान गंतव्य की तरफ बढ़ चली थी। उसे बुखार हो आया था। दर्द और पीड़ा सेबुरा हाल था उसका। उसके बदन के पोर पोर दर्द से टूट रहे थे।
उस दिन उस क्षेत्र में एन सीसी की एक बटालियन पगली के गाँव में कैम्प कर रही थी। उस बटालियन का एक सक्रिय सदस्य गोविन्द भी था। वह कैम्प के सामाजिक कार्यों मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था। जाड़े का मौसम था। धीरे धीरे चलती हुई सनसनाती ठंढी हवा शरीर में चुभन का एहसास करा रही थी। आकाश काले बादलों से आच्छादित था। आकाश में काले बादलों का डेरा था। आवाजाही तथा लुका छिपा का क्रम जारी था। ऐसा लग रहा था जैसे बादल अब बरसे तब बरसे।
उस दिन ग्राम प्रधान के अहाते में ही पूरी बटालिय रूकी हुइ थी। आज प्रधान ने सारे कैडेट्स तथा अधिकारियों के सम्मान में भोज का आयोजन किया था। वातावरण में भातिभांति के पकने वाले पकवानों की सुगंध घुली हुई थी। जो भोजन बनाने वालों के विशिष्ट कला का परिचय दे रही थी।
कैडेट्स की कठोर दिनचर्या तथा चले सफाई अभियान की मेहनत ने थका कर रख दिया था। शाम के समय टोलियों में बटे कैडेट्स अपने पसंद के कार्यो में लग गये थे। कोइ समय बिताने के लिए ताश के पत्ते फेट रहा था, तो कोइ अंत्याक्षरी खेल रहा था।
वही पर अधिकारी गांव के विकास का खाका खींच रहे थे, कही लोक परंपराओं में व्याप्त कुरितियों के पक्ष विपक्ष में गर्मागर्म बहस जारी थी।
इन सबके बीच सबसे अलग दिखने वाले व्यक्तित्व का मालिक गोविन्द अहाते के कोने में खड़े बरगद के नीचे चबूतरे पर बैठा ना जाने किस उधेड़ बुन में खोया हुआ अकेला बैठा था। ना जाने क्यों उसे रह रह कर अपनी माँ की याद आ रही थी, जो उसे बेचैनी भरा एहसास दे रही थी। उसका मन व्याकुल था। अंधेरा हो चला था, चिन्तन मे खोये उसके स्मृति पटल पर अंकित माँ की छबि तैरती तो अनायास उसकी आँखों को भिगो जाती।
वह उस दरख़्त के नीचे अपने ही ख्यालों में गुमसुम खोया था कि उस नीरव वातावरण को चीरती हुई करूणा से ओतप्रोत एक आवाज (अरे मोरे ललवा कंहा छोड़ि के परईले रे) उसके कर्ण पटल से टकराई थी।
उस आवाज में छिपी पीड़ा लाचारी, तथा बेबसी के एहसास ने गोविन्द के भावुकता भरे हृदय को आंदोलित कर दिया। अब अनायास ही गोविन्द के पांव उस दर्दभरी आवाज की दिशा मेंबढ़ चले थे। घने अंधेरे को चीरता वह उसी दिशा में बढा जा रहा था। उसे खेत की मेड़ पर एक इंसानी छाया दोनों हाथ उपर उठाये दुआ मांगने के अंदाज में बैठी दिखी थी। जो बार बार अपनी करूण आवाज में अपने जिगर के टुकड़े को पुकार रही थी, जो इस दुनियाँ में था ही नही, उसकी आवाज में बस जमानेभर का दर्द समाया था। वह दर्द पीड़ा, बेबसी से कराह रही थी।
अचानक गोविन्द को सामने देख पगली का मन ऐसे मचल उठा जैसे कोई छोटा बच्चा खिलौने की चाह में मचलता है। गोविन्द भी खुद को रोक नहीं पाया था और माई माई कहते कहते हुए पगली के पावों से जा लिपटा था। पगली ने जब गोविन्द का स्नेहिल स्पर्श पाया अपनी दुख तथ
पीड़ा के पल भूलकर उसे बाहों में भर अपने गले लगा लिया था। उसके माथे को बेतहासा चूमती चली गई थी, उसे लगा जैसे उसका बिछड़ा गौतम ही
उससे गले आ मिला हो, उसकी ममता आंखों के रास्ते सावन भादों की बूंदे बन। बरस पड़ी थी। उन मां बेटों का मिलन देख उनके मिलन के साक्षी आकाश की आंखों से भी मानो करूणा बरस रही थी। अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी। गोविन्द पगली का हाथ थामे तेज गति से ग्राम प्रधान के अहाते की तरफ बढ़ा चला जा
रहा था।
( ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है होली के अवसर पर उनकी कविता “होळीचा रंग “.)
(दिनांक २३-०२-२०२०ला राज्यस्तरीय साहित्य व संस्कृती महोत्सव २०२०चे कवि कट्टा मंचाचे अध्यक्ष पद स्विकारतांना , कविंना प्रमाणपत्र व सन्मानचिन्ह प्रदान करतांना श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे)
(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में सहायता की है। आप आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)
☆ कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #12 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
(हम प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )
आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.
Our Fundamentals:
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
एकादश अध्याय
( विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना )
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ।। 2।।
सुनी आपसे विश्व के जन्म – मरण की बात
कमलनयन ! माहात्म्य भी जो शाश्वत अवदात ।। 2।।
भावार्थ : क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है।। 2।।
The origin and the destruction of beings verily have been heard by me in detail from Thee, O lotus-eyed Lord, and also Thy inexhaustible greatness!।। 2।।
☆ ई-अभिव्यक्ति को अपार स्नेह / प्रतिसाद के लिए आभार ☆ रिश्तों / संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित ☆
प्रिय मित्रों,
आज के संवाद के माध्यम से मुझे पुनः आपसे विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ है।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ई-अभिव्यक्ति वेबसाइट को मिला 1,51,900+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद’। पुनः आपके साथ संवाद करना निश्चित ही मेरे लिए गौरव के क्षण हैं। इस अकल्पनीय प्रतिसाद एवं इन क्षणों के आप ही भागीदार हैं। यदि आप सब का सहयोग नहीं मिलता तो मैं इस मंच पर इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ देने में स्वयं को असमर्थ पाता। मैं नतमस्तक हूँ ,आपके अपार स्नेह के लिए। आप सबका हृदयतल से आभार।
ये रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं, जो हमें पृथ्वी के किसी भी कोने में बसे जाने अनजाने लोगों से आपस में अदृश्य सूत्रों से जोड़ देते हैं। अब मेरा और आपका ही रिश्ता ले लीजिये। आप में से कई लोगों से न तो मैं व्यक्तिगत रूप से मिला हूँ और न ही आप मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिले हैं किन्तु, स्नेह का एक बंधन है जो हमें बांधे रखता है। आप में से कई मेरे अनुज/अनुजा, अग्रज/अग्रजा, मित्र, परम आदरणीय /आदरणीया, गुरुवर और मातृ पितृ सदृश्य तक बन गए हैं। ये अदृश्य सम्बन्ध मुझमें ऊर्जा का संचार करते हैं। मेरा सदैव प्रयास रहता है और ईश्वर से कामना करता हूँ कि मैं अपनी इस सम्बन्ध को आजीवन निभाऊं। और आपसे भी अपेक्षा रखता हूँ कि मेरे प्रति यह स्नेह ऐसा ही बना रहेगा।
मेरा और आपका सम्बन्ध मात्र रचनाओं के आदान प्रदान तक ही सीमित नहीं है, इस सम्बन्ध में हमारी संवेदनाएं भी जुडी हुई हैं। संभवतः संवेदनहीन सम्बन्ध कभी सार्थक नहीं होते। हाल ही में मैंने कर्नल अखिल साह जी एवं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर’ जी द्वारा रचित दो रचनाएँ ‘माँ’ शीर्षक से प्रकाशित की थी, जो अत्यंत संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी हैं और उन्हें पाठकों का भरपूर स्नेह / प्रतिसाद मिला। मेरे पास ऐसे ही “पिता” से सम्बंधित रचनाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो शीघ्र प्रकाश्य हैं। इन रचनाओं ने ह्रदय को झकझोर दिया। इसके बाद संबंधों पर इतनी सुन्दर रचनाएँ आने लगीं जिसकी मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। श्री विवेक चतुर्वेदी जी की नवीन पुस्तक “स्त्रियां घर लौटती हैं’ पर विभिन्न लेखक लेखिकाओं की समीक्षाएं और टिप्पणियां सम्पादित करते समय पढ़ कर विस्मित हूँ । यह पुस्तक हिंदी साहित्य के क्षितिज पर नए आयाम गढ़ रही है। आज प्रकाशित श्री संजय भारद्वाज जी की मानवीय संबंधों पर आधारित समसामयिक रचना “आमरण” हमें विचार करने हेतु प्रेरित करती है।
मैंने ऊपर जिन संबंधों की चर्चा की है उनमें रक्त संबंधों के अतिरिक्त भी ऐसे कई सम्बन्ध हैं जिन पर अति सुन्दर साहित्य रचा गया है। मेरा मानना है कि कोई भी साहित्य जो आज तक रचा गया है उसका आधार कोई सम्बन्ध या रिश्ता न हो ऐसा शायद ही संभव हो । कई सम्बन्ध ऐसे होते हैं जिनके बारे में हम भावनात्मक रूप से लिख देते हैं किन्तु वे सम्बन्ध परिपेक्ष्य में रहते हैं ।
☆ रिश्तों / संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित ☆
ई-अभिव्यक्ति साहित्य में सकारात्मक नए प्रयोग करने के लिए कटिबद्ध है। मेरे उपरोक्त विचारों से आप निश्चित रूप से सहमत होंगे। इस पूरी प्रक्रिया में मन में एक विचार आया कि क्यों न आपसे रिश्तों या संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित की जाएँ और अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा की जाएँ ।
वैसे तो पारिवारिक रिश्तों की एक लम्बी फेहरिश्त है जिनमें प्रपौत्र- प्रपौत्री से लेकर परनाना-परनानी, परदादा-परदादी तक जिनसे हम हर दिन रूबरू होते रहते हैं । वैसे तो संबंधों की लम्बी फेहरिश्त असीमित है। कुछ सम्बन्ध और रिश्ते जो इस समय मेरे मस्तिष्क में आ रहे हैं आपसे उदाहरणार्थ साझा करने का प्रयास करता हूँ। इससे परे भी आपके मस्तिष्क में कई सम्बन्धो होंगे जो हम साझा करना चाहेंगे ।
पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, मित्र, पड़ौसी तो सामान्य हैं ही। आज जब इंसानियत तार तार हो रही है ऐसे में मानवीय सम्बन्ध, हमारा राष्ट्र से सम्बन्ध, प्रकृति एवं पर्यावरण से सम्बन्ध, पालतू एवं अन्य जानवरों से सम्बन्ध, थर्ड जेंडर जो कभी कभार हमसे रूबरू होते हैं उनसे सम्बन्ध, समाज में बमुश्किल स्वीकार्य रिश्ते (लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक) और ऐसे बहुत सारे सम्बन्ध और रिश्ते जो आपके विचारों में आ रहे हैं और मेरे विचारों में नहीं आ पा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि कोई भी और कैसा भी सम्बन्ध या रिश्ता।
तो फिर देर किस बात की कलम / कम्प्यूटर कीबोर्ड पर शुरू हो जाइये और भेज दीजिये किसी भी संबंध / रिश्ते पर आधारित अपनी हिंदी/मराठी /अंग्रेजी में रचना (कविता /लघुकथा /आलेख) अधिकतम 500-750 शब्दों में । ई-अभिव्यक्ति को किसी भी रूप में प्रकाशित करने की स्वतंत्रता की आपकी अनुमति के साथ रचना पर कॉपीराइट आपका। हाँ रचना प्रेषित करते समय इस मंच के मूलमंत्र जो डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी के आशीर्वचन में व्याप्त है का अवश्य ध्यान रखें।
सन्दर्भ : अभिव्यक्ति
संकेतों के सेतु पर, साधे काम तुरन्त ।
दीर्घवायी हो जयी हो, कर्मठ प्रिय हेमन्त ।।
काम तुम्हारा कठिन है, बहुत कठिन अभिव्यक्ति।
बंद तिजोरी सा यहाँ, दिखता है हर व्यक्ति ।।
मनोवृत्ति हो निर्मला, प्रकट निर्मल भाव।
यदि शब्दों का असंयम, हो विपरीत प्रभाव।।
सजग नागरिक की तरह, जाहिर हो अभिव्यक्ति।
सर्वोपरि है देशहित, बड़ा न कोई व्यक्ति ।।
– डॉ राजकुमार “सुमित्र”
आपसे अनुरोध है कि हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को यदि हम अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी से साझा करें तो उन्हें निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। इस प्रयास में हमने कई वरिष्ठतम साहित्यिक विभूतियों से चर्चा की है एवं व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर ससम्मान आलेख समय समय पर प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के कार्यों को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की दसवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री अर्चित ओझा जी (अंग्रेजी भाषा में ख्यात बुक रिव्युअर) की अंग्रेजी भाषा में समीक्षा का श्री संजय उपाध्याय जी द्वारा हिंदी अनुवाद“स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में” ।)
आप श्री अर्चित ओझा जी की ई- अभिव्यक्ति में प्रकाशित अंग्रेजी समीक्षा निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं।
☆ पुस्तक विमर्श #10 – स्त्रियां घर लौटती हैं’ …#अर्चित ओझा की दृष्टि में ☆
#अर्चित ओझा – अंग्रेजी भाषा में ख्यात बुक रिव्युअर
अंग्रेजी पुस्तकों के देश में #प्रथम वरीयता प्राप्त और अमेज़न के आंकड़ों के अनुसार #’गुडरीड्स’ में सबसे अधिक #लोकप्रिय बुक रिव्युअर… पहली बार कर रहे हैं किसी हिन्दी पुस्तक पर बात..
आज स्मृति में लौटते हुए मैं अपने स्कूल के दिनों में वापस जाता हूं तो मुझे याद आता है बुधवार की सुबह का इंतजार, क्योंकि उस दिन हिन्दी के अखबार में कविताएं पढ़ने मिलती थीं और मैं अखबार लेकर देर तक बैठा रहता था, उन कविताओं में शब्दों का जो संयोजन होता था वह कैसा अनूठा आनंद देता था, और मुझे इस बात पर हैरत होती थी कि कैसे बस शब्दों का खेल किसी चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकता है और वे शब्द अपने आप में कितने सशक्त और लुभावने हो जाते हैं उनके लिये जो साहित्य के रास्ते शांति और आनंद की खोज करने में समर्थ हैं।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ वैसे-वैसे वह सब पीछे छूटता गया, आज जब हम जीवन में आगे बढ़ने के लिये लगातार लगभग दौड़ रहे हैं तब उसमें वह शांति के अंतराल कम होते जा रहे हैं और होता यह है कि हम रोज हमारे आस पास घटने वाली ऐसी बहुत सी बातों को छोड़ देते हैं जो हमारे चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकती थीं और फिर शायद हम बूढ़े होने लगते हैं फिर कभी हमें महसूस होता है कि काश हम उन अंतरालों में रुके होते।
‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ जैसी पुस्तकें आपको एक विराम देती हैं जिसमें आप बहुत कुछ वह देख पाते हैं जो अनदेखा रह गया है। इस पुस्तक की कविताओं को पढ़ने के मानी हैं एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाना जहां आपको सूरजमुखी, आम, जामुन, तुलसी और बरसात के बाद की मिट्टी की सुगंध अनुभव होती है। अब आप भीतर से वह बच्चे हो जाते हैं जो उल्लास से भरे हुए स्कूल से घर लौटते हैं और उन सब त्यौहारों को मनाते हैं जिन्हें मनाना उम्र के इस पड़ाव में भूला जा चुका है। गुनगुनी धूप में सुस्ताते हैं, पतंग उड़ाते हैं, दोस्तों के साथ ऐसे दौड़ लगा सकते हैं कि धरती भी तेज चलने लगती है, वो एक समय होता है जिसमें मौसम आते हैं और उनका आना महसूस होता है, बरसात आती है, गर्मी आती है, ठण्ड आती है और ठण्ड के साथ लिपटा हुआ एक कम्बल का अहसास भी आता है।
इन कविताओं में पिता के आंसू का नमक छरछराता है जब उसकी बेटियां बिदा हो रही हैं, मां से बात होती है जो दिन रात खटकर अपना घर संजोती है वो समय खनखनाता है जिसमें पड़ोसियों से खूब बात होती थी, यहां घूमते हुए मेला घूमते हैं और घूमते घूमते इतने छोटे से बच्चे हो जाते हैं कि उन खिलौनों के लिये जिद करें जो कि हाथ तो आएंगे पर बस अभी टूटकर बिखर जाएंगे। दोस्तों के साथ बात-बेबात हंसते हैं, बिना टिकट लगाए खत भेज देते हैं, आधी रात को उठकर चांद देखते हैं और ये भी देखते हैं कि कोई हमें देखता तो नहीं। गली में पैदा हुए कुत्तों से राग लगा लेते हैं और वे कहीं चले जाते हैं तो फूट-फूटकर रोते हैं।
‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ की कविताएं पढ़ना एक तरह से उस क्वारेपन को उस बचपन को फिर से जीना है जहां कुछ भी छूट जाने की पीड़ा या व्यथा नहीं है, इन कविताओं में कई ऐसी जगहें हैं जो अपनी सरलता और सहजता से हाथ पकड़कर खींच लेती हैं।
इस संग्रह में छप्पन कविताएं हैं और कहना नहीं होगा कि सबका अपना-अपना एक अलहदा किस्म का कलेवर है, इनमें से किसी को रखना और किसी को छोड़ना ये बेहद मुश्किल भरा है पर फिर भी कुछ कविताएं और उनके हिस्से एक गूंज की तरह मेरे साथ रह गए हैं।
पुस्तक की शीर्षक कविता के नाम के साथ कुछ कविताओं के अंशों का मैं अंग्रेजी अनुवाद कर रहा हूं ताकि बहुत समय से मुझे अंग्रेजी में पढ़ने वाले इस विलक्षण कवि के अद्भुत सृजन लोक की भव्यता को निहार सकें। मुझे ये भरोसा है कि ये कविताएं मेरे अनुवाद के बावजूद अपनी अर्थवत्ता को नहीं खोएंगी।
स्त्रियां घर लौटती हैं
…घर भी एक बच्चा है स्त्री के लिये
जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है
Women Return their Homes: A home too, is a child for a woman, that grows a little more, every day.
पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां
फेंकी गई खीज या ऊब से
मेज या सोच से गिराई गई,
गिरकर भी बची रही उनकी नोंक
पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया
उन्हें उठाकर फिर से चलाया गया
The domestic women have been treated like pencils: Thrown with anger and boredom, dropped down from the desk and mentality, a bit of nib got saved, but the lead inside is broken, still they were picked up and employed for selfish purposes again and again.
कहां हो तुम
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोटकर खेलने लगे हैं
दरकने लगा है आंगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से अंकुए फूटने लगे हैं,
कहां हो तुम
Where are you: The kids who were locked inside their homes are now playing in the mud, rolling and laughing, a tuft of grass has started growing through a crack in the concrete, where are you?
टाइपिस्ट
मैंने कहा हिम्मत, और उसने एक बार लिखा हिम्मत
फिर एक बार हिम्मत और
सारा पेज उसकी हिम्मत से भर गया
Typist:
I said “Courage”, and she wrote it once, I said “courage” again, and the whole page got filled with that one word!
पिता
कितने कितने बर्फीले तूफान तुम्हारे देह को छूकर गुजरे पर हमको छू न सके, तुम हिमालय थे पिता
Dad: All your life, many icy storms went through you, and you did not let any of them touch us. Dad, you were Himalayan.
मुझे यह गहरा विश्वास हो चला है कि विश्व साहित्य में हिन्दी कविता ही एक ऐसी विधा है जिसका पूरा भाव हम श्रोता या पाठक के स्तर पर ग्रहण नहीं कर सकते हिन्दी कविता कुछ ऐसा गाती है जो भिन्न भिन्न पाठकों पर वैसा भिन्न भिन्न काम करती है जैसा उन्होंने जीवन जिया है या देखा है। मैने एक रूसी कवियित्री की कविता पढ़ी थी जिसमें वो कहती हैं कि वे हिन्दी से कितना प्यार करती हैं और स्त्रियां घर लौटती हैं पढ़ते हुए मैं समझ पाया हूं कि वो हिन्दी को क्यों इतना प्यार करती होंगी।
मैं इस पुस्तक ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ की प्रकृति और सामर्थ्य की इसीलिये सराहना करता हूं कि ये कविताएं हृदय को स्पंदन और ऊष्मा देकर रोमांचित करती हैं और इससे भी अधिक ये कि मैं इन कविताओं के प्रति गहरी कृतज्ञता अनुभव करता हूं कि इसने मेरे भीतर के दृष्टा को फिर से जागृत कर दिया।
शीर्षक कविता ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ कवि के गहरे और आंतरिक अवलोकन के लिये लगभग स्तब्ध कर देती हैं, इन कविताओं में सब है, धरती बचाने की जिद, मौसम की खुशनुमा आहटें, मित्रता, प्रेम, घर, मातृत्व की गरिमा, स्त्री की सबलता का स्वर इन्हें पढ़ता हूं और फिर फिर पढ़ता हूं और नये नये अर्थ और व्यंजनाएं ध्वनित होते हैं, काश मैं अच्छा अनुवादक होता तो इनका अंग्रेजी अनुवाद करता ताकि अंग्रेजी के पाठक भी उस आनंद का अनुभव कर पाते जो इन कविताओं में निहित है।
यदि आप मेरी तरह हिन्दी कविता के इर्द गिर्द न रह सके हों, तो ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ आपको अपनी जड़ों की ओर लौटा ले जाएगी, और यदि आप हिन्दी में पढ़ ही रहे हैं तो यह संग्रह आपके इस विश्वास को सबल करेगा कि हिन्दी साहित्य का भविष्य समर्थ हाथों में है।
– अर्चित ओझा
(मूल अंग्रेजी भाष्य का श्री संजय उपाध्याय जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा श्री संजय भारद्वाज जी की कविता “ अंत्येष्टि ” का अंग्रेजी भावानुवाद “Funerals?” ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का अवसर एक संयोग है।
भावनुवादों में ऐसे प्रयोगों के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं।
आइए…हम लोग भी इस कविता के मूल हिंदी रचना के साथ-साथ अंग्रेजी में भी आत्मसात करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से कैप्टन प्रवीण रघुवंशीजी को परिचित कराएँ।
]☆ श्री संजय भरद्वाज जी की मूल रचना – अंत्येष्टि ☆
उसने जलाया
इसने दफनाया,
उसने कुएँ में लटकाया
इसने नदी में बहाया,
आत्मा की शांति के
शीर्षक तले
अपनी-अपनी
संतुष्टि की कवायदें…!
संजय भारद्वाज
(कवितासंग्रह *मैं नहीं लिखता कविता* से)
☆ English Version of Poem of Shri Sanjay Bhardwaj ☆