Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 33 – Loneliness ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager, Indian Railways, Pune Division. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Loneliness.  This poem  is from her book “The Frozen Evenings”.)

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 33

☆ Loneliness ☆

 

Have your friends forsaken you?

Have your dear ones

Left you and are gone

Far far away

As overripe memories of yesterday?

Do your eyes trickle down

The pain through their tears?

Do the fond remembrances

Make your knees go weak?

Are you lonely

My dear friend?

 

You are in despairing desire

Of yourself;

Please go

And shake hands with you,

A hug might help too!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जादू ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जादू ☆

(एक रचना पर एक पाठक की प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रियास्वरूप उपजी कविता)

 

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से लजाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

कागज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या

पढ़ता रहा!

 

# कृपया घर में ही रहें। स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 9:19 बजे, 25.7.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस्ती ☆ सुश्री प्रतिभा स बिळगी “प्रीति”

सुश्री प्रतिभा स बिळगी “प्रीति”

(ई- अभिव्यक्ति में सुश्री प्रतिभा स बिळगी “प्रीति”जी का हार्दिक स्वागत है। हिंदी एवं मराठी भाषा की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर सुश्री प्रतिभा स बिळगी  “प्रीति”वर्तमान में रामय्या इन्स्टिट्यूट ऑफ बिजनेस स्टडीज , डिग्री कालेज, बैंगलोर के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं । आपका प्रथम काव्य संकलन ‘जिंदगी  की दास्तान‘ 2008 में प्रकाशित। 15 से अधिक लेख राष्ट्रीय  एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में प्रस्तुत एवं प्रकाशित।  कई रचनाएँ हिन्दी एवं मराठी भाषाओं में  राष्ट्रीय  एवं अंतरराष्ट्रीय  पत्रिकाओं में प्रकाशित।  कई प्रादेशिक/राष्ट्रीय स्तर  के पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत जिनमें प्रमुख है ‘सहोदरी  हिन्दी सम्मान‘. आज प्रस्तुत है उनकी एक अत्यंत भावपूर्ण  एवं संवेदनशील कविता  ‘बस्ती’।)

☆ बस्ती ☆

आलिशान मकानों के बीच

मैली अंधेरी एक बस्ती

जहाँ एक ओर ऐशोआराम

वहीं दूसरी ओर तड़प भूख की

 

फटे सिले कपड़े धुलने के बाद

सूखाए जाते है लकड़ियों के ढेर पर

यहाँ ईटों का रंग उड़ा हुआ है

टपकती हैं बारिश में छत भी

 

गंदगी से भरा पानी का बहता नाला

मन को बेचैन करती गंध उसकी

दिनभर की थकान के बावजूद

बस्तीवालों पर अपना असर न छोड़ पाती

 

खूंटे से बंधे जानवर

आँगन में मिट्टी से खेलते बालक

कुत्ता भी जहाँ निश्चिंत सोता

और बंटता सब में निवाला बराबर

 

एक तरफ चेहरे की झुर्रियाँ

उनके हालातों को बयान करती

वहीं चैन और सुकून से भरी

नींद भी बड़े अच्छे से आती

 

रहते है यहाँ इन्सान ही मगर

क्या यह इन्सानों की बस्ती है कहलाती  ॽ

कैसा विपर्यास, यह न्यायशीलता कैसी

एक जैसी क्यों नहीं हम सबकी बस्ती  ॽ

 

© प्रतिभा “प्रीति”

ए -307, शशांक फ्लोरेंटो, संभ्रम कॉलेज के पास, अम्बा भवानी टेम्पल रोड, एम एस पाल्या 560097 (बैंगलोर), मोo- 8123100406

ईमेल :- [email protected]

Please share your Post !

Shares

सूचनाएँ/Information ☆ प्रत्येक बच्चों के लिए ऑन लाइन  चित्रकला प्रतियोगिता (16 से 18 अप्रैल 2020) ☆ डॉ मिली भाटिया

सूचनाएँ/Information 

प्रेप कक्षा से 12 वीं कक्षा तक के बच्चों के लिए  ऑन लाइन  चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित 16 अप्रैल से 18 अप्रैल 2020 तक 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

पालक गण अपने बच्चों की रचनाएँ / कृतियां व्हाट्सप्प पर 9414940513 पर प्रेषित कर सकते हैं । 

संपर्क – डॉ मिली भाटिया, कोटा

9414940513

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 23 ☆ हर कहानी है नई  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर एवं सार्थक कविता  “हर कहानी है नई .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 23 ☆

☆ हर कहानी है नई  ☆

 

फूल बनकर मुस्कराती

हर कहानी है नई

चाँद-से मुखड़े बनाती

हर कहानी है नई

 

बह रहीं शीतल हवाएँ

कर रहीं जीवन अमर

पर्वतों की गोद से ही

झर रहे झरने सुघर

वाणियों में रस मिलाता

बोल करता है प्रखर

 

चाँदनी रातें लुटातीं

हर कहानी है नई

 

तेज बनकर सूर्य का

ऊष्मा बिखेरे हर दिवस में

शाक ,फल में स्वाद भरता

हर तरफ ऐश्वर्य यश में

सृष्टि का सम्पूर्ण स्वामी

हैं सभी आधीन वश में

 

नीरजा नदियाँ बहातीं

हर कहानी है नई ।

 

शाश्वत है शांति सुख है

और फैला है पवन में

सृष्टि का है वह नियामक

इंद्रियों-सा  जीव-तन में

जन्म देता वृद्धि करता

वह मिले हर सुमन कण में

 

बुलबुलों के गीत गाती

हर कहानी है नई

 

है धरा सिंगार पूरित

बस रही है हर कड़ी में

हीर,पन्ना मोतियों-सी

दिख रही पारस मणी में

टिमटिमाते हैं सितारे

सप्त ऋषियों की लड़ी में

 

पर्वतों-सी सिर उठाती

हर कहानी है नई

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 43 ☆ करोना का रोना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 43 ☆ 

☆ करोना का रोना 

हमारे पडोस में चीनू जी रहते थे, एक बार उनके घर में एक सांप घुस आया था. श्रीमती चीनू  ने सांप देखा और बदहवास जोर से चिल्लाईं. उनकी चीख सुनकर हम पडोसी उनके घर भागे. सांप गार्डेन से लगे कमरे में सरक कर आ गया था. त्वरित बुद्धि का प्रयोग कर मैंने उस कमरे के तीनो दरवाजे खींचकर बंद कर दिये. यह देखा कि किसी दरवाजे में कहीं कोई सेंध तो नही है. फिर गार्डेन की तरफ की खिड़की से देखते हुये सांप पर नजर रखने के काम पर चीनू जी को पहरे में लगा दिया.  चूंकि हमारी कालोनी ठेठ खेतों के बीच थी,इसलिये जब तब  घरों में सांप निकलते रहते थे. अतः एक मित्र के पास सांप पकड़ने वाले का नम्बर भी था, उन्होंने तुरंत फोन करके उसे बुला लिया. सांप पकड़ने वाले के आने में देर हो रही थी, तब तक मिसेज चीनू हम सब के लिये चाय बना लाईं. कुछ देर में  सांप पकड़ने वाला आ ही गया, और घंटे दो घंटे की मशक्कत के बाद सांप पकड़ लिया गया. सब लोगों ने चैन की सांस ली.

पत्नी जी को करोना के देश में घुस आने वाली वर्तमान समस्या सरल तरीके से समझाने के लिये मैं उन्हें बता रहा था कि चीनू जी के घर सांप घुस आने वाली घटना की सिमली थोड़े बृहद स्वरूप में की जा सकती है. जिस तरह हमने चीनू जी के  ड्राइंग रूम के सारे दरवाजे बंद कर दिये थे, जिससे सांप जहां है उसी  कमरे में ही सीमित रहे, वहां से बाहर न निकल सके, उसी तरह देश के जिन क्षेत्रो में करोना जा छिपा है, उन हिस्सों को सील किये जाने को ही कम्पलीट लॉकडाउन कहा जा सकता है. सांप पकड़ने वाले की तुलना करोना से निपटने वाली हमारी चिकित्सकीय टीम से की जा सकती है. हां थोड़ा अंतर यह है कि चीनू जी के घर पर घुसा सांप तो दिखता था यह करोना खुली आंखो दिखता नही है. बिटिया ने हस्तक्षेप किया अरे पापा आप भी कैसी सिमली कर रहे हैं, सांप तो जीव होता है, जबकि करोना कोई जीव नही विषाणु है,वायरस मतलब प्रोटीन के कवर में डी एन ए मात्र है. मैं बेटी के जूलाजिकल ज्ञान पर गर्व करता इससे पहले पत्नी ने हस्तक्षेप किया. अरे आप भी क्या बात कर रहे हैं, आस्तीन में छिपे सांप तो देश में डाक्टर्स और करोना वारियर्स पर पथराव कर रहे हैं, थूक रहे हैं. टी वी की गरमा गरम बहसों में करोना की चिंता कई रूपों में हो रही है. किसी प्रवक्ता की चिंता जनवादी है, तो किसी समूचे चैनल को ही राष्ट्रवादी चिंता है. किसी पार्टी को न्यायवादी चिंता सता रही है. तो किसी जमात की चिंता धर्मवादी चिंता है. अपने जैसे विश्ववादी, बुद्धिवादी चिंता कर के खुश हैं. नेता जी वोट वाली, प्रचारवादी प्रभुत्व वाली,पक्ष विपक्ष की निंदा वाली चिंता किये जा रहे हैं. चिकित्सकीय चिंता वैज्ञानिको की शोधात्मक चिंता है. प्रशासनिक चिंता ने धारा १४४ और कर्फ्यू के बीच लॉकडाउन की एक नई अलिखित धारा बना दी है. कोई बतलायेगा कि अपने देश में लोगों को उनके हित के लिये भी लाठी से क्यों हकालना पड़ता है ? एक पंडाल में दो, ढ़ाई हजार  लोगों के इकट्ठा होकर कोई धार्मिक समारोह करने से बेहतर नहीं है क्या कि एक देश में 135 करोड़ लोग करोना के खात्मे के मिशन से एकजुट होवें और बिना निराशा के  बंद रहकर नई जिंदगी के रास्ते खोलने में सरकार व समाज की मदद करें. सब कुछ विलोम हो गया है. सोशल डिस्टेंसिग के चलते पत्नी छै बाई छै के पलंग के एक छोर पर सो रही है तो पति दूसरे छोर पर. सारी दुनियां में एक साथ जीवन की चिंता के सम्मुख इकानामी की चिंता बहुत गौंण हो गई है. मैं तो रोज कमाने खाने वाले गरीब की दृष्टि से यह सोच रहा हूं कि छोटे कस्बे गांवों  जहाँ संक्रमण शून्य है, वहां का आंतरिक लॉक डाउन समाप्त किया जा सकता है,  हां वहां से अन्य नगरों को आवागमन शत प्रतिशत प्रतिबंधित रखा जावे. करोना के निवारण के बाद  सहयोग के विश्व विधान का सूत्रपात हो, क्योंकि करोना ने हमें बता दिया है कि बड़े बड़े परमाणु बम और सेनायें एक वायरस को रोक नही पातीं, उसे रोकने के लिये सामुदायिक समभाव परस्पर सद्भावना और उत्साह जरूरी होता है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 14 ☆ जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें …..।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 14 ☆

☆ जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें …..

सब कुछ तुरंत हो ये सोच बिना सोचे काम करने पर मजबूर करती है । जल्दी का काम शैतान का होता है इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर सुखीराम जी पचास बसंत पूरे कर चुके हैं । उनके खाते में यदि कोई उपलब्धि है तो बस वो उम्मीद का टोकरा ;  जिसे सिर पर लादे सकारात्मक भाव से ये कहते हुए घूम रहे हैं कि जब घूरे के दिन फिरते हैं तो मेरे क्यों नहीं फिरेंगे ?

मजे की बात ये है कि ऐसे लोग बड़े भावुक होते हैं सो सुखीराम जी भी इनसे अलग कैसे हो सकते थे । भावुक लोगों के पास कुछ हो न हो रिश्तेदारों की फौज बड़ी  लम्बी होती है , जो समय-समय पर सलाह देने का कार्य करती है । जिस सलाह को बहुमत मिला समझो वो आचरण में लागू हो गयी । एक के पीछे एक चलने की परंपरा आदि काल से ही निर्बाध रूप से चलती चली जा रही है । कोई न कोई इसका अगुआ बन भेड़चाल का पालन अवश्य करता और कराता है । इस चाल का फायदा ये होता है कि चाल- चलन पर प्रश्न उठाने वाला कोई बचता ही नहीं ,सभी पंक्तिबद्ध होकर  चलते जाते हैं अनंत को खोजते हुए । इसका परिणाम क्या होगा इससे किसी को कोई लेना – देना नहीं रहता उन्हें तो बस पीछा करना रहता है ।

इनकी अगली विशेषता ये होती है कि बातें करने में इनका कोई सानी नहीं होता । हवाई किले बनाना तो इनके बाएँ हाथ का कार्य होता है । और इसका प्रयोग ताउम्र बाखूबी करते हैं । मददगार का ठप्पा लगाकर न जाने कितने लोगों की मदद स्वयं लेकर अपने आपको आगे बढ़ाते रहने की कला में तो मानो पी एच डी ही हासिल की होती है । प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि संसार के सबसे सुखी व्यक्ति का रिकार्ड इनके ही नाम होगा परन्तु शीघ्र ही कार्यव्यवहार सारी पोल पट्टी खोल कर रख देता है ।

जब तक सुखीराम जी की इच्छापूर्ति होती रहती है तब तक इस धरती में उन्हें स्वर्ग नजर आता है जैसे ही  बाधा खड़ी हुई तो  नर्क का बेड़ागर्क करते हुए बड़ी खूबसूरती से बच निकलते हैं । इन्हें तो बस सुख की रोटी ही तोड़नी है बाकी लोग भाड़ में जाएँ या कहीं और इनसे कोई लेना देना नहीं रहता । स्वार्थसिद्धि का गुणगान गाते हुए सुखीराम जी जीवन के सुख अनवरत भोगते ही जा रहे हैं ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 44 – बलि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बलि । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 44 ☆

☆ लघुकथा –  बलि ☆

 

शहर से आई रीना अपनी ताई रामेश्वरी बाई की बातें सुन कर चिढ़ पड़ी, ‘‘ ताई जी ! आप भी किस की आलोचना करने लगी. कोई बकरे की बलि दे या हाथी की, हमें क्या करना है ? हम उन के वहां कौन से खाने जा रहे है. हम ठहरे शाकाहारी लोग.’’

‘‘ पर बिटिया जीव हत्या तो पाप है ना,’’ रामेश्वरी बाई अपनी बेटी के सिर से जूंए निकाल कर दोनों अंगूठे के नाख्ून के बीच मारते हुए बोली,‘‘ चाहे वह हाथी की बलि दो या बकरे की…..या फिर मुर्गे की.

“इस से क्या फर्क पड़ता है.’’

रीना को ताई की यह बात जमी नहीं. वह शहर से आई थी जहां कोई किसी से कोई मतलब नहीं रखता है. दूसरा, वह विज्ञान की छात्रा थी जानती थी कि जो जीव जन्म लेता है वह मरता है. वह आज मरे या कल, इस से क्या फर्क पड़ता है इसलिए उसे इस पर बहस करना फिजूल लग रहा था.

‘‘काहे फर्क नहीं पड़ता है बिटिया.’’ रामेश्वरी बाई अपने जूएं निकालने का कार्य करते हुए बोली,‘‘ कोई जीव हत्या करे और हम मूक दर्शक बन कर बैठे रहे. यह हम से नहीं होगा ?’’

यह सुन कर रीना को हंसी आ गई.

‘‘ताईजी, आप भी तो अब तक 22 जीवों की बलि दे चुकी है,’’ यह कहते हुए रीना ने मरी हुई, पानी में तैरती जूएं की कटोरी ताईजी के आगे कर के दिखाई‘‘ जीव चाहे मुर्गी हो जूंए, हत्या तो हत्या होती है.’’

यह सुन कर रामेश्वरी बाई आवाक रह गई. उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना.

 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – आलेख ☆ कवी‌ संजीव यांची जयंती…..त्या प्रित्यर्थ त्यांच्या काव्याचा घेतलेला आढावा…….. भाग – 1 ☆डॉ. रवींद्र वेदपाठक

डॉ. रवींद्र वेदपाठक

(प्रस्तुत है डॉ रवीन्द्र वेदपाठक जी का मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार  स्व कृष्ण गंगाधर दीक्षित जो कि कवी संजीव उपनाम से  प्रसिद्ध हैं  के  व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सारगर्भित मराठी आलेख  कवी‌ संजीव यांची जयंती…..त्या प्रित्यर्थ त्यांच्या काव्याचा घेतलेला आढावा……..। आदरणीय कवी संजीव जी का जन्म 12 अप्रैल को सोलापुर के वांगी गांव में हुआ था। मराठी साहित्य के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज की लम्बाई को देखते हुए इसे दो भागों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। आज प्रस्तुत है इस आलेख का प्रथम भाग। कृपया इसे गम्भीरतापूर्वक पढ़ें एवं आत्मसात करें। )

☆  कवी‌ संजीव यांची जयंती….. त्या प्रित्यर्थ त्यांच्या काव्याचा घेतलेला आढावा…….. 

मराठी साहित्यातील काव्य क्षेत्रात अनेकांनी आपला ठसा उमटवला आहे. आद्य कवी केशवसुतांपासून ते अगदी आजपर्यंत अनेकांनी आपल्या दर्जेदार काव्याची निर्मिती करून वाचकांना जणू भुरळच घातली आहे. या काव्य क्षेत्रात आपल्या लीलया लेखणीने मुशाफिरी करून कवितेबरोबरच *लावणी, अभंग, शायरी इ. प्रकार निर्माण करून काव्यगगनात ध्रुवता-याप्रमाणे अढळ झालेले थोर गीतकार म्हणजे संजीव!*

*कृष्ण गंगाधर दीक्षित* यांचा जन्म दि. १२ एप्रिल १९१४ रोजी दक्षिण सोलापुरातील वांगी या गावात झाला. बालपणीचं त्यांचे पितृछत्र हरपल्यामुळे ते त्यांच्या चुलत्यांच्या घरी वाढले. त्यांचे *प्राथमिक शिक्षण सोलापूर महानगरपालिकेच्या शाळा क्र. १ येथे १९२१ ते १९२५ या काळात झाले.* पुढे मॅट्रिक झाल्यावर, मुंबई येथील पूर्वीचे बॉम्बे स्कूल ऑफ आर्ट म्हणजे आताचे सर जे. जे. कलामहाविद्यालय, येथे कलाशिक्षणाकरिता त्यांनी प्रवेश घेतला.

१९३९ साली त्यांनी *जी. डी. आर्ट* ही पदवी संपादन केली. ते व्यवसायाने *छायाचित्रकार व मूर्तिकार होते.* त्यांची अनेक तैलचित्रे, व्यक्तिचित्रे, पुतळे प्रसिद्ध आहेत. सोलापूर शहरातील व जिल्ह्यातील अनेक ठिकाणी त्यांनी साकारलेले पुतळे बसवले आहेत. काही काळ त्यांनी सोलापूर महानगरपालिकेच्या मुलींच्या शाळेत *कला शिक्षक* म्हणून नोकरी केली. पूर्वीच्या काळी *छायाचित्रकाराचा* व्यवसाय म्हणजे एकेकाळी रोजचेच हातावर पोट असे; पण संजीव काव्याच्या नादात असत.

*कै. तात्यासाहेब श्रोत्रीय* हे त्यांचे काव्य क्षेत्रातील गुरू. त्यांनी संजीवना काव्यशास्त्राचे पाठ दिले व वृत्तछंदाची गोडी निर्माण केली. संजीवांनी *प्रथम गणेशोत्सवातील मेळयासाठी गाणी लिहिली. तसेच गद्य-पद्य संवादही लिहिले.*

*॥ माझा राजबन्सी राणा॥*

*॥ कोणी धुंडून पहाना॥*

१९३० साली लिहिलेले त्यांचे हे पहिले गीत. त्या काळातील *सुप्रसिद्ध गायिका मेहबूबजान* यांनी या गीताला स्वरसाज चढवून हे गीत लोकप्रिय केले. या गीतच्या अनेक *ध्वनिमुद्रिका* निघून त्या घरोघरी पोहोचल्या.

त्यानंतर

*१९३५ साली ‘दिलरुबा’* हा त्यांचा *पहिला काव्यसंग्रह* त्यांनी स्वत:च प्रकाशित केला.

या काव्यसंग्रहाला *औंध संस्थानचे राजे भगवानराव पंतप्रतिनिधी यांची प्रस्तावना आहे.*

या काव्यसंग्रहात एकंदर *४४ कविता* आहेत. कवी संजीव शारदेला अभिवादन करताना म्हणतात,

*विश्वमोहिनी ! हंसवाहने!*

*सुकाव्य संजीवने ! शारदे ॥*

*संजीवाची असोत तुजला ! अनंत अभिवादने॥*

याचप्रमाणे त्यांचे *प्रियंवदा (१९६२), माणूस (१९७५), अत्तराचा फाया (१९७९), गझल गुलाब (१९८०), रंगबहार (१९८३), आघात (१९८६) देवाचिये द्वारी (१९८६) हे काव्यसंग्रह प्रसिद्ध आहेत.*

त्यांच्या *‘दिलरुबा’ या काव्यसंग्रहातील ‘गोफणीवाली’* ही सुंदर कविता –

*॥ ही नार सुंदर सदा हासरी लाजरी नजर॥*

*॥ होईल पाहता हिला कुणाची नजर॥*

कवितेतील गोफणीवाली ही *निर्दोष आणि आनंदायक* आहे. यातील *शब्द आणि कल्पना* यांचा सुंदर मिलाफ झाल्यामुळे या कवितेवरून गोफणीवालीचे चित्र कोणत्याही चित्रकाराला सहज काढता येईल.

*१९३५ साली आलेल्या दिलरुबा* नंतर दुसरा कविता संग्रह रसिकांच्या हातात येण्यासाठी जवळ जवळ *२५-२६ वर्षे वाट पहावी लागली* व रसिकांना मिळाला *प्रियवंदा* हा संग्रह…. संजीवांची अप्रतिम विचारशक्ती व कल्पनाशक्ती या संग्रहात अवतरली आहे….

जाता जाता कवी सांगुन जातात

*हसण्यापेक्षा कधी कधी*

*रडणे मला प्यारे आहे*

*वसंताहुन ठिबकणारी*

*आषाढाला धार आहे…..*

वसंताचा निसर्ग, आषाढाचा पाऊस  या दोन्हीतील सुक्ष्म फरक कवीने खुप रितीने मांडला आहे….

त्याच जोडीला *प्रियवंदा मध्ये शृंगाराचे वर्णन* करताना संजीव सांगतात…

*वितळू ये चल आपण दोघे, पार्थिवतेचे होवो पाणी*

*या पाण्याला अलग कराया, जगात नाही समर्थ कोणी…….*

अशा प्रकारच्या रचना हा कवी *संजीवांचा प्रांत..* या कविता लिहीताना कवी संजीव एक वेगळेच व्यक्तीमत्त्व होवुन जातात

त्यांच्या ‘प्रियंवदा’ या काव्यसंग्रहात एकूण *१६५ कविता आहेत.*

*”माणुस १९७५ साली प्रकाशित केला…..”* त्याला अभिप्राय  आहे थोर विचारवंत *तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी,* तर *”माणुस ला प्रस्तावना दिली ती कवी संजीवांचे मित्र मा. माजी मुख्यमंत्री सुशीलकुमार शिंदे”*  यांनी.

*१९७५ साली यामध्ये सुशिलकुमार शिंदे* लिहीतात कवी संजीव यांच्या कवितांचा मी शालेय जीवनापासुनच चाहता आहे, आणि त्यानंतर त्यांच्या सहवासात घालवलेल्या काही चागल्या क्षणांचा माझ्यावर परिणाम झाला आहे…. या *”माणुस संग्रहात”* कवी संजीवांनी मानवी जीवनाच्या लक्षवेधी जीवनाची विविध मनोहारी रुपे व त्यांच्या *आत्म्याच्या आक्रंदनाचे प्रखर अविष्कार*  मांडले आहेत. जो एक प्रकारचा चटका लावुन जातो…..

यामध्ये *ज्ञानेश्वर महाराजांच्या पालखी* बद्दल ते लिहीतात….

*’ की हा जो जयजयकार होतो आहे, तो  माझ्याहुन महान कविचा आहे…. पण त्याची आणी माझी जात एकच आहे….” कवीची.*

गणेशाला कवी संजीव लिहीतात….

*व्यासांचा तु लेखणिक झालास*

*मला तुला कारकुनु करायचे नाही*

*तु देव आहेस देवच रहा*

*आशिर्वाद देशील न देशील*

*किमान आमचे कौतुक तरी पहा….,*

तर *माया या मुक्तछंद कवितेत* थोडक्यात ते घराचे घरपण सांगुन जातात…

*अंगठा तुटतो चांभार म्हणतो*

*माया कमी आहे, शिवता येत नाही खिळाच ठोकतो*

*शिंपी म्हणतो, झंपरला कापड कमी पडते*

*कापडात माया कमी पडते, याचं सुरकचं शिवतो*

*लाकडात माया कमी पडते,*

*सुतार म्हणतो आकार लहान करतो*

*दगडात माया कमी पडते*

*तेव्हा गवंडी चुना सिमेंट भरतो*

*आणी अशी ही माया आतड्याची कातड्याची कमी पडते*

*तेव्हा घराचा चिरा चिरा निखळतो.*

*जानेवारी १९७९ साली तमाशा कला कलावंत विकास मंदिर मुंबई* या संस्थेने तमाशा कलावंतांसाठी नवे साहित्य उपलब्ध व्हावे, त्यांना *वग, लावण्या, गणगौळण, फार्स इ.* साठी साहित्य मिळावे या हेतूने काव्य लेखन स्पर्धा घेतली होती, त्या स्पर्धेतुन जास्त साहित्य मिळाले नाही परंतू  त्यातून *कवी संजीव यांनी तमाशा कलावंतांसाठी लेखन करायचे ठरवले आणी त्यातुन जन्म झाला अत्तराचा फाया या लावणी संग्रहाचा.*

जवळ जवळ *४५ लावण्यांचा हा अप्रतिम दर्जेदार लावणी संग्रह,* राम जोशी यांच्या सोलापुरातच लावणीने पुन्हा मुळ धरले…..

*अत्तराचा फाया* या संग्रहात..

*हिरव्या मिरचीला पांढरी लसणी गं*

*मी कुटायला बसले चटणी……!!*

*लवंगी मिरची घाटावरची*

*पहिली तोड ही आहे वरची*

*आहे तिखट नाही मी अळणी*

*हिरव्या मिरचीला पांढरी लसणी गं*

*मी कुटायला बसले चटणी…..!!*

*ठेचुन ठेचुन ठेचा केला*

*कुटून कुटून मऊ किती झाला*

*असा आणावा लागतो वटणी…..!!*

अशा लावण्यांनी तमाशा कलावंतांसाठी व तमाशा रसिकांसाठी साहित्याचे दालन उघडे केले..

संजीवांनी लिहिलेल्या विपुल *लावण्यात रसाळ ढंग, मार्मिक आणि नेमकी अचूक शब्दरचना, कुशल अशी वजनदार लेखणी, काव्याला आवश्यक असणारे ओजमाधुर्य, प्रासादिक रचना आणि सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे प्रभावी रसाविष्कार आणि गेय शब्दांची सुयोग्य गुंफण* हे गुण त्यांच्या लिखाणात प्रामुख्याने आढळतात.

१९८० साली आलेला काव्यसंग्रह *गझलगुलाब,*

याच गझल गुलाब मधील एक शेर आपण सर्वजण पहात आहात…

*यात्रा तुझी नी माझी आनंद वर्धनाची*

*गोवर्धना धराया किमया करांगुलीची*

या गझल गुलाब मध्ये  *गुलाबी गझल* येणे हो ओघानेच येते…. यात कवी संजीव लिहीतात……

*आज सखी न्हाऊन आली उजळण्याची उजळणी*

*रम्य ऋतू रत्नांकितेची आजा आली पर्वणी*

*अलक पुलकी गंधविणा    स्वैरली वीणावती*

*साज विसकटला तरी ही    मुक्त कच ती वारूणी*

*वारुळातुन नाग आले स्वर्ण चंपक अंगणी*

*गंध दंशित अष्टअंगी भारली सौदामिनी*

*स्पर्श गंधे वायू पेटे  परिसरला मंत्रुनी*

*आणि या आमंत्रणाला संपलो स्विकारुनी….*

आणी त्याच *गुलाबी गझल बरोबर, माऊली, तांडव, शोध* अशा वेगळ्या गझलही वाचायला मिळतात,

*कृष्णार्पण या गझल* मध्ये कवी संजीवांचे शब्द थेट मनाला भिडतात…

*भोगलेले सोसलेले  सर्व तुजला अर्पिले*

*म्हणुनी कृष्णार्पण स्वहस्ते  उदक आता सोडीले*

*ना धरेची ना नभाची     क्षितीज रेषा राहीले*

*घेवुनी रेषाच साऱ्या     आकृती मी जाहले*

*आकृतीला प्रकृतीचे     सर्व काही लाभले*

*भोगलेले…….*

*कधी फुलावे कधी गळावे   पुष्पिता मी वंचीता*

*मी व्रतस्था म्हणुनी कोणा    फुल नाही वाहीले*

*उधळिलेल्या अक्षतांना      शुभ सुमंगल गायीले*

*भोगलेले…….*

*अक्षतेची अक्षता मी    तशीच तबकी राहीले*

*त्या रित्या तबकांत आता  काय शिल्लक राहीले *

*राहीले मी फक्त शिल्लक  आणी प्रभुची पाऊले….*

 

त्यांच्या कविता या *उच्च दर्जाच्या* आहेत. त्यांच्या कवितेत *ईश्वरविषयक, सामाजिक भान, जीवनाविषयक चिंतन प्रकट करणारे गुण आढळतात.*

तसेच त्यांनी

*स्त्री जीवनातील बारकाव्याचे सूक्ष्म निरीक्षण होते.* स्त्री जन्माची चित्रविचित्र कहाणी ही तिच्यातील संमिश्र भावभावनांनी भरलेली एक अमर कहाणीच आहे.

*॥ धार दुधाची डोळयात एका॥*

*॥ डोळयात एका पाणी॥*

या त्यांच्या शब्दातून जणू जगन्माताच बोलते आहे, असे वाटते.

……. क्रमशः भाग 2 —–

 

© ® डॉ. रवींद्र वेदपाठक

कवी, लेखक, प्रकाशक

सूर्यगंध प्रकाशन, पुणे

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 42 – शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक अत्यंत भावप्रवण कविता   शब्द पक्षी…!।  यह सत्य है कि जब तक शब्द पक्षी कागज पर न उतर जाये तब तक साहित्यकार छटपटाता ही रहता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #42 ☆ 

☆ शब्द पक्षी…!  ☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द पानावर

मुक्त विहार करत नाहीत तोपर्यंत

आणि ..

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता ,चलबिचल

हुरहुर अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

 

…©सुजित कदम

मो.७२७६२८२६२६

Please share your Post !

Shares