हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पड़ोस ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ कथा कहानी ☆ पड़ोस ☆ श्री कमलेश भारतीय☆ 

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी  की आज ही पूरी हुई ताज़ा कहानी  जिसे उन्होंने  ‘पाठक मंच’ पर आज ही साझा किया है, उस कहानी को हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं।  संभवतः यह प्रयोग डिजिटल माध्यम में ही संभव है। )

पड़ोस का मकान बिक गया।

यह कोई ऐसी बड़ी बात तो नहीं पर मन बहुत उदास। क्यों? अरे यार। तुम भी। यहां देश का पता नहीं क्या क्या बिक गया और तब तो विचलित नहीं हुए। पड़ोस का एक छोटा सा मकान बिक गया और रोने को हो आए? हद है। देश में क्या क्या नहीं बिक रहा और इस छोटे से, बेढब से मकान के बिक जाने पर आंखों में आंसू? लानत है।

लगभग चौबीस साल पहले इस शहर में आया था ट्रांस्फर होकर। तब किरायेदार था, फिर खरीद लिया यही मकान और अपने देस को छोड़ कर यहीं का होकर रह गया। परदेस को अपना देस मान इससे लगाव कर लिया, दिल लगा लिया। यह पड़ोसी अपने से लगने लगे।

पड़ोस के इस घर में दो भाई और उनके प्यारे प्यारे बच्चे रहते थे। यों दो भाइयों की बात तो ऐसे कर रहा हूं जैसे विभाजन के बाद भारत पाकिस्तान की बात हो। नहीं यार। इतनी दूर की उड़ान क्यों? पर यह सच जरूर कि जमाने की हवा के मुताबिक दोनों भाई अलग अलग रहते थे। मैना सी एक प्यारी सी बच्ची घर आंगन में फुदकती और चहकती रहती। शांति और सौहार्द्र की तरह। और कभी कभी लड़ने झगड़ने की आवाजें भी आतीं जैसे भारत पाक में छिटपुट लड़ाइयां बाॅर्डर  पर होती रहती हैं। यह लड़ाई मां को रखने को लेकर होती। मां बेचारी दोनों बेटों में बंटी रहती। ऐसी कीमती न थी कि दोनों में से कोई उसे रखने को राजी होता पर आंगन एक था और मां एक थी। किसी को तो रखनी ही पड़ती। मां बूढ़ी हो चुकी थी और चलने फिरने से लाचार भी। वाॅकर लेकर चलती और कभी कभी हमारे आंगन में भी आ जाती, छोटी सी पोती के सहारे के साथ। अपना दुख दर्द बयान कर जाती। मुझे संभालते नहीं, बल्र्कि रखना ही नहीं चाहते। क्या करूं? कहां जाऊं? बोझ सी लगती हूं दोनों बेटों को। बहुओं की चिख चिख मुझे लेकर ही होती है। बेचारे सच्चे हैं क्योंकि छोटे छोटे काम धंधे हैं और बच्चे हैं। ऐसे में मेरी दाल रोटी भी भारी लगे तो क्यों न लगे? वैसे मैं स्वेटर बुन लेती हूं। आप बुनवा लो तो कुछ मेरी रोटी भारी न लगे। खैर। हम भी अपनी मां खो चुके थे। परदेस में वह मां जैसी लगने लगी और जरूरत न होते हुए भी कुछ स्वेटर बनवा लिए। मां के चेहरे पर खुशी आ जाती। जब वे मेरा नाप देखने को अधबुना स्वेटर छाती से लगातीं तो लगता कि मां ने गले से लगा लिया हो। मेरी मां भी वैसे क्रोशिया बुन लेती थीं और सौगात में बना बना कर ऐसी चीज़ें देती रहती थीं। वैसे हमारे घर की कहानी भी इससे अलग कहां थी? हम तीन भाई थे और मां किसके पास रहे, यह समस्या रहती थी। तीनों अलग अलग शहरों में और दूर दूर। मां की समस्या यह कि वे अपना पुश्तैनी घर छोड़ने को तैयार नहीं थीं। वे जब मेरे पास आतीं तो ये दोनों मांएं अपने अपने बच्चों के व्यवहार पर खूब बतियातीं। जब मेरी मां इस दुनिया में नहीं रही तब पड़ोस वाली मां बहुत प्यारी और अपनी सी लगने लगी।

खैर। पड़ोस के दोनों बेटे छोटे छोटे काम धंधे करते और कभी बेरोजगारी भी काटते और फिर कहीं नये काम पे लग जाते। सुबह सवेरे शेव करते समय दोनों घरों के साथ लगती छोटी सी दीवार पर शीशा टिका एक बेटा जब शेव करने लगता तो बातचीत भी हो जाती और वह कुछ न कुछ नयी जानकारियां देता रहता। कैसे महंगाई डायन उन्हें डरा रही थी। बच्चे धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। ज्यादा पढ़ाने की हिम्मत न थी। फिर भी लड़की को पढ़ा रहे थे ताकि उसे ठीक से घरबार मिले। कभी किसी आसपास के शहर में भी काम करने जाते। ऐसे में एक बेटा बीमार हुआ और बड़े अस्पताल में भर्ती किया गया। सुबह वही शेव करने के समय पर मुलाकात न होने पर पता चला। हम पति पत्नी ने पड़ोसी का फर्ज निभाते शाम को अस्पताल जाकर खोज खबर लेने की सोची। गये भी और यह भी सोचा कि कुछ मदद की जाये। हमने दबी जुबान से कही यह बात उनकी पत्नी को लेकिन इतनी स्वाभिमानी कि मदद मंजूर ही नहीं की। यहां तक कह दिया कि जब ठीक हो जाएं और लौटा सको तो लौटा देना, फिलहाल रख लो। वह खुद्दार स्त्री नही मानी तो हमारे मन में उसी प्रति इज्जत और बढ़ गयी । इंसान पैसे की कमी से भी टूटता नहीं। यह खुद्दारी बहुत खुश कर गयी।

……….

उस खुद्दार औरत का नाम गुड्डी था। वह जिस भी हाल में थी, उसी में खुश रहती। जैसा भी पुराना घर था, उसे साफ सुथरा रखती। सुबह सवेरे  उठकर बुहारती और आंगन धो लेती।   एक छोटी सी क्यारी में लगाये फूल पौधो को पानी देती। फिर पति के काम पर चले जाने के बाद सिलाई मशीन चलाती रहती ताकि कुछ पैसे कमा सके।

कुछ घर छोड़कर जब एक ठीक ठाक से घर की महिला ने क्रैच खोला तो गुड्डी को सहायिका की जगह रख लिया। इस तरह गुड्डी के सिलाई मशीन चलाने की आवाज़ कम हो गयी।

हर आदमी छोटा हो या बड़ा सीखता है और कुछ काम बढ़ाना चाहता है। लगभग एक सात तक क्रैच में रहने के बाद गुड्डी ऊब गयी या सारी बारीकी समझ गयी और उसने वहां काम छोड़ दिया। इधर हमारे घर एक काम वाली आई तो उसकी नन्ही सी बच्ची कहां रहे? सो गुड्डी ने मौके पर चौका मारा और उस बच्ची को संभालने का जिम्मा ले लिया यानी अपना क्रैच खोलने का सपना देखा। कुछ माह वही इकलौती बच्ची उसके क्रैच की शान बनी रही। गुड्डी उसे कागज़ पर लिखना पढ़ना भी सिखाती। कुछ माह बाद जब वह कामवाली हमारा काम छोड़ गयी तो गुड्डी का क्रैच भी बंद हो गया और उसकी सिलाई मशीन फिर चलने लगी।

……….

अपने क्रैच का सपना टूटने के बाद गुड्डी ने एक और काम करने की सोची। जैसे उसके घर के सामने वाली खट्टर आंटी किट्टी के बहाने कमेटी निकालती थी और इन दिनों उसने वह काम बंद कर रखा था। इसी काम को गुड्डी ने शुरू करने का फैसला लिया और बाकायदा एक छोटी सी मीटिंग आसपास के घरों की महिलाओं की बुलाई अपने छोटे से आंगन में। सभी आईं और वह महिला भी आई जो इस काम को छोड चुकी थी। फैसला हो गया कि कमेटी चलेगी पर गुड्डी अपनी औकात जानती थी। इसलिए किट्टी नहीं होगी। चाय का एक प्याला जरूर अपनी ओर से पिला देने का वादा किया जिसे सबने खुशी खुशी मान लिया।

इस तरह मुश्किल से दो माह गुजरे होगे कि कमेटी और किट्टी का एकसाथ काम छोड़ चुकी तजुर्बेकार महिला ने अपना हिस्सा वापस मांग लिया। गुड्डी ने पूछा तो कहने लगी -मज़ा कोई नहीं। न कोई गेम, न खाना पीना। फिर क्या करना इस किट्टी और कमेटी का? इस तरह उस औरत ने गुड्डी की छोटी सी कोशिश को तारपीडो कर दिया। बड़ी मुश्किल से बाकी महिलाओं को मना कर गुड्डी ने एक साल निकाला और फिर इस काम से भी तौबा कर ली। क्या पड़ोस इतनी मदद भी न कर सका कि एक छोटा सा सपना पूरा कर लेने देता? सोचता रहा पर मेरे सोचने से क्या होता? छोटे आदमी के सपने बड़े लोग अक्सर तोड़ देते हैं। गुड्डी ने फिर सिलाई मशीन के साथ अपना सफर शुरू किया।

……….

स्वच्छता अभियान को लेकर आस पड़ोस बड़ा फिक्रमंद रहता। यानी जरा सा कूड़ा कचरा देखा नहीं तो हाय तौबा शुरू हो जाती। सब ऐसे जाहिर करते जैसे उनसे बेहतर कोई स्वच्छता प्रेमी नहीं। फिर भी गुड्ढी के घर की दीवार के आसपास कूड़े के ढेर लगे रहते। बेचारी कुछ दिन बर्दाश्त करती रही। आखिर संकोच छोड़ सामने आई और उसने दीवार पर लिख कर लगा दिया -यहां कूड़ा फेंकना मना है। अब बताओ अपने समाज में कौन परवाह करता है ऐसे नोटिसों की? यहां तो कितने नोटिस अपना ही मज़ाक उड़ाते दिखते हैं। सो वही हश्र गुड्डी के नोटिस का हुआ। इस पर गुड्डी ने कमर कसी और नज़र रखने लगी कि कौन कूड़ा फेंकने आता है चोरी चोरी। हंगामा कर दिया मासूम सी दिखने वाली गुड्डी ने। जरा लिहाज नहीं किया किसी का और इस तरह गुड्डी ने साबित किया कि चाहे छोटे वर्ग के लोग हों वे लेकिन अपने हक की लड़ाई लड़ सकते हैं। यह गुड्डी का एक नया चेहरा सामने आया था।

……….

समय बीतता गया। पड़ोस के परिवार के बच्चे बड़े होने लगे और अपने बड़ों की तरह घर के हालात देख कर पढ़ाई छोड़ कर दुकानों पर सेल्समेन लग गये। गुड्डी का बेटा अभी छोटा था और वह हमारे दोहिते की उम्र का था। दोनों में दोस्ती हो गयी। हमारा दोहिता और वह एक दूसरे के फैन बन गये। न उसे कुछ सुहाता अपने दोस्त के बिना और न हमारे दोहिते को कुछ अच्छा लगता अपने दोस्त के बिना। वे ड्राइंग रूम में बैठे कैरम बोर्ड खेलते रहते और उनकी हंसी सारे घर में खुशबू की तरह फैलती रहती।

दीवाली आई तो कुछ दिन पहले से हमारा दोहिता अपनी मां के पीछे पड़ा  रहता कि पटाखे लेकर दो। बेटी उसे लेकर बाजार जाती और पटाखे ला देती। अब दोहिते को तो साथ चाहिए था पड़ोस वाले दोस्त का। वह सकुचाता हुआ आता और वैसे ही सकुचाता चला जाता। पटाखे छोड़ने में कोई उत्साह न दिखाता। तब दोहिते ने पूछ ही लिया-नितिन। क्या बात है तुम्हें पटाखे छोड़ने की खुशी नहीं होती?

-होती है पर मेरे पास पैसे नहीं कि खरीद सकूं। दूसरे के पैसे के पटाखे छोड़ने में कैसी खुशी?

यह बात दोहिते आर्यन अपनी मां को बताई और कहा-मम्मी। आप नितिन को भी पटाखे ले दो न।

सच। इस बात से जो पड़ोस के बीच एक आर्थिक खाई थी उसे दोहिते व नितिन की दोस्ती ने उजागर कर दिया। सबसे बड़ी बात कि दीवाली पर नितिन घर से ही नहीं निकला।

……….

आखिर गुड्डी के जेठ और पति ने यह पार्टी मकान बेचने का फैसला कर लिया। निकलते निकलते बात मुझ तक आई। मैं गुड्डी के पति से मिला और पूछा कि क्या बात हुई? हमारा पड़ोस या यह मोहल्ला अच्छा नहीं रहा?

-नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।

-फिर?

-हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं। बेटी तो ब्याह दी। तब आप भी आए थे लेकिन बेटों की शादियों के बाद इस छोटे से घर में बहुएं रहेंगी कहां?

-अरे

– तो बनवा लेना एक दो कमरे।

-नहीं जी। इतनी हिम्मत कहां? मुश्किल से दिल रोटी चला रहे हैं।यह क्या कम है।

-मकान बेच दोगे तो किराया कहां से भर दोगे?

-जी नहीं। मकान इस एरिये में महंगा बिकेगा क्योंकि पाॅश और शरीरों का एरिया है। हम किसी बस्ती मे कम पैसों में अपने अपने नये बड़े मकान ले लेंगे।

मैं एकदम चौंका। और सहज ही किसान से मजदूर बन जाने की नौबत कैसे आती है, यह बात समझ आई। ये लोग बच्चों के भविष्य की खातिर एक पाॅश एरिये को छोड़ कर किसी छोटी सी बस्ती में रहने के गये। जहां अगली पीढी का क्या होगा? कौन देखता और सोचता है …..

मैं खाली मकान के लिए दो बूंद आंसुओं से जैसे श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ…..

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समानता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – समानता ?

यह अनपढ़,

वह कथित लिखी पढ़ी,

यह निरक्षर,

वह अक्षरों की समझवाली,

यह नीचे जमीन पर,

वह बैठी कुर्सी पर,

यह एक स्त्री,

वह एक स्त्री,

इसकी आँखों से

शराबी पति से मिली पिटाई

नदिया-सी प्रवाहित होती,

उसकी आँखों में

‘एटिकेटेड’ पति की

अपमानस्पद झिड़की,

की बूंद बूंद एकत्रित होती,

दोनों ने एक दूसरे को देखा,

संवेदना को

एक ही धरातल पर अनुभव किया,

बीज-सा पनपा मौन का अनुवाद

और अब, उनके बीच वटवृक्ष-सा

फैला पड़ा था मुख्य संवाद!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 38 ☆ पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा”.)

☆ किसलय की कलम से # 38 ☆

☆ पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर कसता अवांछित शिकंजा ☆

देश-काल-संस्कृति के अनुरूप पत्रकारिता के गुण, धर्म और कार्यशैली में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसलिए वर्तमान एवं पूर्ववर्ती पत्रकारिता की तुलनात्मक समीक्षा औचित्यहीन होगी।

पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं, अच्छाई- बुराई एवं दैनिक गतिविधियों का प्रकाशन कर समाज को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना है। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं तथा उनकी मूलभावनाओं से अवगत कराना पत्रकारिता का एक अंग है। हमारे आसपास घटित घटनाओं, विशेष अवसरों , विभिन्न परिस्थितियों के साथ ही आसन्न विपत्तियों में सम्पादकीय आलेखों के माध्यम से सचेतक का अहम कार्य भी पत्रकारिता का माना जाता है। वर्षा, ग्रीष्म और शरद की परवाह किए बिना विस्तृत जानकारी के साथ समाचारों का प्रस्तुतिकरण इनकी ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा का ही परिणाम है जो हम रोज देखते और पढ़ते आ रहे हैं। अखबारों के माध्यम से उठाई गई आवाज पर हमारा समाज चिंतन-मनन करता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। विश्व के महानतम परिवर्तन इसके उदाहरण हैं।

वर्तमान पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से हम-आप सभी परिचित हैं। यदि खाली डेस्क पर बैठकर समाचारों का लेखन होता तो उनमें न ही प्रमाणिकता होती और न ही जीवन्तता। दर्द, खुशी और वास्तविकता का एहसास भी नहीं होता। प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की अभिव्यक्ति ही अपने अखबार के प्रति सामाजिक विश्वास पैदा कराती है।

इन सबके बावजूद आज के पत्रकार को शासकीय-अशासकीय उच्चाधिकारियों, नेताओं और दबंगों के दबाव में काम करने हेतु बाध्य किया जाता है, जो कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार पर शिकंजा कसने जैसा है। सामाजिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों की वास्तविक जानकारी के अभाव में खोखले समाचारों से अखबार नहीं चला करते। पत्रकारों का सहयोग न करना, वास्तविकता को प्रकाशित न होने देने के लिए दबाव बनाना, आयोजनों में प्रवेश की अनुमति न देना अथवा अड़ंगे लगाना तथा पत्रकारों से अभद्रता करने जैसी वारदातें भी दर्ज होने लगी हैं। पत्रकारिता पर आघात और अपमान का यह खेल अनेक क्षेत्रों में चलन का रूप ले रहा है। आज दबंगों के दबदबे से सहमे पत्रकार स्वयं को असहाय महसूस करते हैं। दूसरों के लिए आवाज उठाने वाले स्वयं के लिए आन्दोलन, अनशन, बहिष्कार अथवा अन्याय के विरुद्ध मोर्चा खोलने को बाध्य होने लगेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? हमारे संविधान ने प्रत्येक भारतीय को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। इस पर अंकुश लगाना अथवा दबाव डालना निश्चित रूप से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन ही है।

इन परिस्थितियों में अब जनतंत्र के सिपहसालारों को चिंतन कर ऐसे प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, जिससे कोई भी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर अवांछित शिकंजा कसने की हिमाकत न करे, अन्यथा इनकी मनमर्जी देश को अवनति के रसातल में पहुँचाकर छोड़ेगी।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 85 ☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 85 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

पिया मिलन की राह में,

रोज करें  शृंगार।

अब तक वो आया नहीं,

ना चिट्ठी ना तार ।।

 

उसको अब लगने लगा,

अब जीना  दुश्वार।

तुझ बिन अब जीवन नहीं,

करना है अभिसार।।

 

छबि बसंत की दिख रही,

आया है त्यौहार।

फूलों से अब सज रहा,

हर घर बंदनवार।।

 

प्रभु अब तो तुम जान लो,

नहीं सहेंगे पीर।

धीरज अब मुझमें नहीं,

बदलो अब तकदीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 75 ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सारे रिश्तों की धुरी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष रचना  “सारे रिश्तों की धुरी। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 75 ☆

☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सारे रिश्तों की धुरी ☆

नारी से दुनिया बनी, नारी जग का मूल

हर घर की वो लक्ष्मी, दें आदर अनुकूल

 

चले सभी को साथ ले, सहज सरल स्वभाव

रखती कभी न बे-बजह, कोई भी दुर्भाव

 

सीता, दुर्गा, कालका, नारी रूप अनूप

राधा, मीरा, द्रोपदी, अलग-अलग बहु रूप

 

नारी बिन संभव नहीं, उन्नत सकल समाज

समझें मत अबला कभी, करती सारे काज

 

सारे रिश्तों की धुरी, उसका हृदय विशाल

माँ-बेटी भाभी बहन, बन पत्नी ससुराल

 

प्रेम, त्याग, ममता, दया, करुणा करे अपार

धीरज,-धरम न छोड़ती, उसकी जय-जय कार

 

रिश्तों की ताकत वही, रखती दिल में प्यार

जीवन में “संतोष” रख, आँचल चाँद-सितार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१०॥ ☆

 

यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजोच्च्वासितालिङ्गितानाम

अङ्गग्लानिं सुरतजनितां तन्तुजालावलम्बाः

त्वत्संरोधापगमविशदश चन्द्रपादैर निशीथे

व्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश चन्द्रकान्ताः॥२.१०॥

 

छरहरी , भरे देह की , पूर्ण यौवन

रदनपंक्ति जिसकी गँसी कुंद कलि सी

पके बिंब फल से  , अधर सुगढ़ जिसके

चकित वनमृगी सी , सरल दृष्टि जिसकी

गहन नाभि , कटि क्षीण , औ” पीन स्तन

नितंबिनि , विनम्रा , अलसगामिनी जो

दिखे युवतियों बीच ऐसी कोई ज्यों

विधाता की मानो प्रथम नारि कृति हो

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शांतादुर्गा.. ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ? शांतादुर्गा.. ? सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆ 

शांतादुर्गा पाठीराखी आई

हाकेसरशी धावून  येई

संकट दूर पळूनी जाई

शांतादुर्गा तीच माझी आई !

 

नेसे शालू रंगीत  नऊवार

शोभे नानाअलंकार त्यावर

रंगीत फुलेमाळा सभोवार

रुप दिसे ते राजस सुंदर!

 

जसे गाईचे वासरु

शेळीचे छोटे कोकरू

शांताईचे मी लेकरू

घाली मायेची पाखरू !

 

नाम घेता तिचे  हो मुखी

जीवन हो आनंदी सुखी

न राही कोणी कष्टी दु:खी

शांतादुर्गा ती पाठीराखी!

 

© सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

फोन  नं. 8425933533

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 – विजय साहित्य – भगवन शंकर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 – विजय साहित्य – भगवान शंकर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

भस्म विलेपित

देव महादेव शिव

रौद्ररूपी निव

अंगीकार ….!

 

शिवलिंग रूप

दुध, जल, अभिषेक

भक्तीभाव  नेक

पुजनात….!

 

उमा महेश्वर

त्याचा त्रिलोकी स्विकार

स्मशान संचार

उद्धारक….!

 

शिव लिलामृत

करा श्रवण पठण

शिवाचे मनन

लवलाही …..!

 

गणेशाचे पिता

निलकंठ शोभे नाम

कैलासाचे धाम

शिवलोक……!

 

त्रिशूल डमरू

सवे नंदी शिवगण

त्रिनेत्री सुमन

शंकरासी ….!

 

मार्त॔ड भैरव

अवतारी शिवाचेच रूप

सृजन स्वरूप

ओंकारात…..!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ प्रमोशन- भाग-5 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

☆ जीवनरंग ☆ प्रमोशन- भाग-5 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

आरती जरा थांबली. दोन घोट पाणी पिऊन तिने पुन्हा बोलायला सुरुवात केली.

“खरं तर हा माझा एकटीचाच प्रश्न नाहीय, आई. हा सगळ्या स्त्रीजातीचाच प्रश्न आहे. त्यात पुन्हा भारतीय कुटुंबपद्धती पुरुषप्रधान असल्यामुळे स्त्रीला नेहमीच नमतं घ्यावं लागलं आहे. बऱ्याच प्रांतातल्या बहुसंख्य उच्चवर्गीय स्त्रिया अगदी पुरुषांच्या बरोबरीने शिकतात. पण लग्नानंतर मात्र ‘आमच्यात बायकांनी नोकरी केलेली चालत नाही ‘असं अभिमानाने सांगत ‘चूल आणि मूल ‘करत बसतात. किती स्त्रीशक्ती वाया जातेय अशानं.”

“तू म्हणतेयस ना, आरती, ते मला पटतंय. तरीपण बायकोने नवऱ्याच्या पुढे जाणं हेही विचित्र वाटतं.”

“कारण लहानपणापासून आपल्या मनावर तसंच बिंबवलं गेलंय. नवरा बायकोपेक्षा उंच हवा,जास्त शिकलेला हवा, त्याचा पगार तिच्यापेक्षा जास्त हवा….”

“मग त्यात काय चूक आहे?”आईंनी विचारलं.

“चूक विचारधारणेची आहे, आई. पूर्वी अर्थार्जन पुरुषाने करायचं आणि स्त्रीने घर सांभाळायचं, अशी कामाची समान वाटणी होती. नंतर स्त्री नोकरी करायला लागली. सुरुवातीला तिला विरोध झालाच ना? विशेषतः नवऱ्याचा इगो आणि समाजाचंही ‘बायकोची कमाई खातो’ वगैरे वगैरे. हळूहळू स्त्रीचं नोकरी करणं समाजाच्या, विशेषतःमराठी समाजाच्या पचनी पडलं. आता तर ‘नोकरीवालीच बायको पाहिजे’ अशी अवस्था आलीय.हल्लीहल्ली नवऱ्यापेक्षा जास्त पगार असलेली बायको पत्करायचीही मानसिक तयारी झाली. इथपर्यंत ठीक होतं. कारण अर्थार्जन,म्हणजे पैसे मिळवणं, हाच स्त्रीच्या नोकरीचा एकमेव हेतू होता.”

“मग दुसरं काय असणार?” आईंना प्रश्न पडला.

“आता मुली शिकतात. अगदी पुरुषांच्या बरोबरीने एमबीए, डॉक्टर, इंजिनियर होतात. त्यांनाही पुरुषांसारखं स्वतःला प्रूव्ह करावंसं वाटणारच ना? त्यांच्याही कर्तबगारीचं चीज व्हायला हवं ना? हा सुरुवातीचा काळ असल्याने माझ्यासारखीला या सगळ्या प्रश्नांना तोंड द्यावं लागतंय. आणखी काही वर्षांनी या गोष्टी सगळ्यांच्याच अंगवळणी पडतील.”

तिने घड्याळाकडे बघितलं.

“बापरे! आई, किती वाजले बघा. मी आपली बडबडतच बसले. तुम्हाला त्रास व्हायचा उगीच जागरणाचा. चला. झोपायला जाऊया.”

दुसऱ्या दिवशीची सकाळ उजाडली, ती आशेचे किरण घेऊनच.

उठल्याउठल्याच आईंनी आरतीला सांगितलं, “हे बघ. रात्री बराच वेळ झोप येईना. तुझ्या बोलण्यावर नीट विचार केला. अगदी उलटसुलट विचार केला आणि तुझे सगळे मुद्दे पटले मला. तू जा इंटरव्ह्युला. समरला प्रमोशन मिळो, न मिळो.त्याच्याशी तुझ्या प्रमोशनचा संबंध नाही. तू आणि मी त्यालाही पटवून देऊया हे सगळं. दुसरं म्हणजे मुलांची अजिबात काळजी करू नकोस. आम्ही आहोत. अगदी ट्रान्सफर झाली तरीही.”

आरती तृप्त झाली.. तिच्यातल्या स्त्रीशक्तीने घातलेली साद आईंची दाद मिळवून गेली होती.

समाप्त 

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दाखला – भाग – 1 ☆ सौ. राधिका भांडारकर

सौ. राधिका भांडारकर

☆ जीवनरंग ☆ दाखला – भाग – 1 ☆ सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

…….सकाळपासून तानीबाईची लगबग चालू होती…

“लवकर लवकर आवराया हवं.”

नळाला पाणी आलं, तसं पटकन् अंग तोंड धुतलं.

रात्रीची खरकटी भांडी घासली. लुगडं धुतलं. झाडपूस केली. रात्रीचं कोरडं बेसन ऊरलं होतं. एक भाकर थापली अन् खाऊन घेतलं. एकटा जीव. शरीर थकलंय्. पण जगणं आहेच ना?

कालच तांबड्या येऊन गेला. म्हणत होता, “म्हातारे काळजी नको करू. रेशनकार्ड हायना तुझ्याकडे?

मग ग्रामपंचायतीत जा… तिथे दाखव. तू निराधार आहेस.

म्हातारी आहेस.. तुला महिन्याच्या महिन्याला पैकं मिळेल.

नवं सरकार चांगलं आहे. गरीबांचं वाली हाय. निराधार, म्हातार्‍यांसाठी कसलीसी योजना हाय म्हणे… तुला महिन्याला सहाशे रुपये मिळतील… रग्गड हाय की.. तुला रोजचा घास मिळेल. औषधपाण्यालाही दिडक्या राहतील….. ग्रामपंचायत फार लांब नव्हती.. तरी पायीपायी जायाचं.. म्हणून ऊन्हं चढायच्या आत निघाया हवं… रात्रीच तिनं झोपण्यापूर्वी रेशनकार्ड शोधून ठेवलं होतं

तिला ना लिहीता येत होतं ना वाचता….

खूप वर्षापूर्वी कधीतरी असंच, कुणा पक्ष्याच्या कार्यकर्त्याने काढून दिलं होतं. त्यांत काय लिहीलं होतं, तेही तानीबाईला माहीत नव्हतं… त्या कार्यकर्त्याने तिला विचारले होते,

“म्हातारे, कोणकोण राहातं घरात?”

तानीबाईने सांगितले  होते,  “मी अन् मोतीराम…..”

निघताना लुगड्याच्या केळ्यात तिनं एक छोटंसं कापडी पाकीट ठेवलं. त्यात काही सुटी नाणी होती.

चहापाण्यापुरती…… एका कापडी पिशवीत तिनं रेशनकार्ड गुंडाळलं आणि ते हातात घट्ट धरुन ती निघाली…

रस्त्यांत एक दोन जण भेटले.

“कुठं निघालीस गं म्हातारे…?” म्हणून चौकशीही केली. ऊत्तर न देता ती चालतच राह्यली.

ग्रामपंचायतीत ती पोहचली तेव्हां तिला तिथे गर्दी दिसली. बरीच रांग होती. एकदोन डोकी ओळखीचीही होती. पण तानी बाईला कुणाशीच बोलायचं नव्हतं….

एक छोटं टेबल होतं… भींतीवर गांधीजींचा फोटो होता.

आणखीही कुणाकुणाचे फोटो होते. काहीबाही लिहीलेलंही होतं… टेबलापाशी दोन माणसंही बसली होती. आणि ते समोरच्या चोपडीत काही लिहुन घेत होते.

रांगेतला एकेक माणूस पुढे सरकत होता… प्रत्येकाचं वेगळं काम… वेगळी कागदपत्रं…

तानीबाई गपगुमान रांगेत उभी राहिली. तिचा नंबर आल्यावर टेबलाजवळच्या माणसानं विचारलं,

“बोला आजी…..”

क्रमश:….

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares