हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीवन की रीत ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण रचना जीवन की रीत । 

 ☆ कविता ☆ जीवन की रीत ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ☆ 

जो किया तुमने ठीक किया

मुस्कुराता जीवन तुम्हारा

तुमसे गिला नहीं है हमारा

दुख नहीं मुझे तुमसे मिले हादसों से

क्योंकि जीवन की रीत

अभी-अभी ही देखी है

मुस्कुराता चेहरा ठीक तुम्हारी तरह

उसकी अभी एक तस्वीर और देखी है

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.११॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.११॥ ☆

 

अक्षय्यान्तर्भवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैर

उद्गायद्भिर धनपतियशः किंनरैर यत्र सार्धम

वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्यसहाया

बद्धालापा बहिरुपवनं कामिनो निर्विशन्ति॥२.११॥

सहचर बिना एक उसे चक्रवाकी

सदृश अल्पभाषी विरह वासिनी को

समझना मेरा ही हृदय दूसरा है

पड़ी दूर मुझसे प्रिया कामिनी को

प्रलंबित विरह के दिनो को बिताती

विकल वेदना से भरी यामिनी जो

मुझे भास होता है कि वह म्लान होगी

शिशिर से मथित ज्यो पद्यनी हो

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – प्रा. रोहिणी तुकदेव  – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ सम्पादकीय निवेदन 

? प्रा. रोहिणी तुकदेव – अभिनंदन ?

थांगपत्ता-Thangpatta by Rohini Tukdev - Aakar Foundation Prakashan - BookGanga.com

प्रा. रोहिणी तुकदेव यांची नवीन कादंबरी ‘थांगपत्ता’ अगदी अलीकडेच , डॉ ताराबाई भवाळकर यांच्या हस्ते ‘ऑन लाईन’ प्रकाशित झाली आहे. त्यांचे अभिनंदन आणि पुढील वाटचालीसाठी त्यांना शुभेछा. आज वाचा, या कादंबरीविषयी त्यांनी लिहिलेले मनोगत.

? ई–अभिव्यक्तीतर्फे अभिनंदन व पुढील वाटचालीसाठी शुभेच्छा ?

 

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 94212254910

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ओवी…. ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ ओवी…. ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

जगायचे तर आनंदाने जगणे सुंदर आहे

भवसागर हा तरण्यासाठी म्हणती दुर्धर आहे

 

कर्म धर्म तर गोंदण होते जन्मासोबत भाळी

जगणे मरणे याच्या मधले जीवन अंतर आहे

 

सुरुवातीचे परावलंबन सरते उरते काही

कर्म चांगले देते किर्ती उरणे नंतर आहे

 

परावलंबन सरते तेव्हा स्वावलंबनी व्हावे

निसर्गातली अदभुत शक्ती इथे निरंतर आहे

 

विशाल जगती नवीनतेची नवी योजना मांडा

जग झुलवाया हाती तुमच्या मोठा अवसर आहे

 

प्रेम आंधळे नका म्हणू ना ते तर डोळस आहे

सुखी व्हायचे दोघा वरती सगळे निर्भर आहे

 

लळा जिव्हाळा प्रेम वाढवा माणुसकीचे नाते

तुमच्यासाठी हे जग दुसरे मायेचे घर आहे

 

दु:ख दळायला बसताना ही गीत सुखाचे गावे

संसाराची होते ओवी हेच बरोबर आहे

 

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 62 – सारे सुखाचे सोबती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 62 – सारे सुखाचे सोबती ☆

काठी सवे देते राया

हात तुज सावराया।

बेइमान दुनियेत

आज नको बावराया।

 

थकलेले गात्र सारे

भरे कापरे देहाला।

अनवाणी पावलांस

नसे अंत चटक्याला।

 

तनासवे मन लाही

आटलेली जगी ओल।

आर्त घायाळ मनाची

जखमही किती खोल।

 

मारा ऊन वाऱ्याचा रे।

जीर्ण वस्त्राला सोसेना।

थैलीतल्या संसाराला

जागा हक्काची दिसेना।

 

कृशकाय क्षीण दृष्टी

वणवाच भासे सृष्टी।

निराधार जीवनात

भंगलेली स्वप्नवृष्टी।

 

वेड्या मनास कळेना

धावे मृगजळा पाठी।

सारे सुखाचे सोबती

दुर्लभ त्या भेटीगाठी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दाखला – भाग – 2 ☆ सौ. राधिका भांडारकर

सौ. राधिका भांडारकर

 ☆ जीवनरंग ☆ दाखला – भाग – 2 ☆ सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

तानीबाईनं अलगद पिशवीतनं रेशनकार्ड काढलं. अन् त्याच्या हातात ठेवलं. आणि म्हटलं,

“दादा,मी निराधार हाय. तिथं पल्याड दूर माझं खोपटं हाय. हातपाय थकलंय्.! काम व्हत नाय.. सरकारनं कसली योजना काढली हाय म्हनावं…  महिन्याच्या महिन्याला

सहाशे रुपये देतं म्हणे सरकार.,.”

तानीबाईला जेव्हढं माहीत होतं आणि जेव्हढं बोलता येत होतं तेव्हढं ती बोलली…

टेबला जवळच्या माणसानं मग विचारलं… “कां गं? मुलं नाहीत का? सांभाळत नाहीत का ती?”

“हायत कीपण ती लांब शहरात रहातात,…मला नाही भावत तिथे. मुलं विचारत नाहीत असं काही तानीबाईला सांगवेना…

मग टेबलाजवळच्या माणसानं, रेशनकार्ड ऊघडलं… शेजारी बसलेल्या माणसाला दाखवलं. मग त्या दोघांत काही बोलणं झालं.

तानीबाईचा ताण वाढत चालला. दडपण यायला लागलं.

“हुईल का आपलं काम?

मग तिनं विचारलं,

“काय व्हं! मिळतील ना मला पैकं?

टेबलाजवळच्या माणसानं, रेशन कार्ड पाहत पाहत म्हातारीला सांगितलं, “हे कार्ड नाही चालणार आजी, यांत तुझ्या मुलाचंही नाव आहे….मोतीराम..”

तानीबाईचा आँ च झाला.

मोतीराम? माझ्या मुलांची नांवं तर भरत आणि लक्षा आहे…

“मग हा मोतीराम कोण?”

“मोतीराम माझा कुत्रा व्हता. लई गुणी. त्यानंच मला आता पावेतो सोबत केली.प ण आता तो न्हाय्.तो गेला.मरला. अन् मी ऊरले.”

हे सांगताना आताही तानीबाईच्या डोळ्यातून पाणी गळलं.

“पण आजी त्याचं नांव इथून काढावं लागेल.आणि नवं कार्ड बनवावं लागेल.”

“मग काढा की….”

“तसं नाही आजी. सरकारी नियम असतात. कागदाला कागद लागतो.मोतीराम कुत्रा होता हे तुला सिद्ध करावं

लागेल.त्याच्या मृत्युचा दाखला आणावा लागेल….”

“कुत्र्याच्या मृत्युचा दाखला? तो कुठुन आणू? मी सांगते न दादा तुला, मोतीराम कुत्रा होता अन् तो मरला…..”

“..तसं नाही चालत आजी.या रेशनकार्डावर तुझं काम नाही होणार.तुला तुझ्या एकलीच्या नावावर नवीन कार्ड

बनवावं लागेल..आणि त्यासाठी मोतीरामच्या मृत्युचा दाखला लागेल…कागदाला कागद लागतो…”

तानीबाई नवलातच पडली.

“आत्ता गो बया..!!”

टेबला जवळच्या माणसांना ती पटवतच राहीली. प्रश्न विचारत राहिली. पण त्या माणसांना तानीबाईंच्या प्रश्नाला ऊत्तर देण्यात काडीचाही रस नव्हता…ए व्हाना रांगेतली

माणसंही कटकट करायला लागली होती. तानीबाई ऊगीचच वेळ खात होती, असेच वाटले सर्वांना..

क्रमश:..

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तेजशलाका – सत्यभामा टिळक भाग-2 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले

सौ.अंजली दिलिप गोखले

☆ विविधा ☆ तेजशलाका – सत्यभामा टिळक भाग-2 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले ☆ 

समाज कार्य, शिक्षण प्रसार असे करताना त्यांनी, कुटुंबाकडे दुर्लक्ष केले असे मात्र नाही बर ! मोठ्या मुलींची लग्ने, चांगली घरे पाहून करून दिली.. त्यांच्याहून धाकटी तीन मुले शिकत होती. थोरला कॉलेजचे शिक्षण घेत होता. – – – – पण —

त्यावर्षी महाराष्ट्रावर दोन मोठ्या आपत्ती कोसळल्या. दुष्काळ आणि प्लेग. माणसे पटापटा मरत होती. दुर्दैव म्हणजे आमच्या थोरल्या लाही ही प्ले ग ची लागण झाली आणि आम्हा वर दुःखाचा डोंगर कोसळला.पण टिळक त्याही परिस्थितीत लोकांना मदत करत होते. सगळीकडे हाहाकार उडाला,पण सरकार मात्र थंड होते. घरे स्वच्छ करण्याच्या नावाखाली गोऱ्या सैनिकांनी प्रजेचे अतोनात हाल केले. छळ केला. त्याबद्दल टिळकांनी “केसरी” वृत्तपत्रात खूप कडक शब्दात लेख लिहिले. त्याचे परिणाम भलतेच होत होते. जनमानसात प्रचंड असंतोष होता अन तशातच गोर्‍या रॅन्ड साहे बां चा खून झाला. धर पकड दंड धमक्या अशाप्रकारे सामान्य जनतेचा जास्तच छळ सुरू झाला.तेव्हा टिळकांनी केसरीत अग्रलेख लिहिला, “सरकारचे डोके ठिकाणावर आहे काय? राज्य करणे म्हणजे सूड उगवणे नव्हे.” त्यामुळे त्या खु ना मागे टिळकांचा हात आहे, असा इंग्रज सरकारचा कयास होता, पक्की खात्री होती. त्यामुळे वॉरंट काढून त्यांना अटक केली गेली. खटला मुंबईला चालला. सरकारने त्यासाठी विशेष न्यायाधीश नेमला आणि त्यांना अठरा महिने सक्तमजुरीची शिक्षा ठोठावली.

या शिक्षेने मी मात्र पुरती कोसळले, मोडून गेले. यांचा काही अपराध नसताना, केवळ संशय, शंका म्हणून एका बुद्धिवान तपस्व्या ला एवढी घोर शिक्षा? मुलाच्या जाण्याचे दुःख आणि हे मोठे संकट, त्यामुळे सभोवताली घरामध्ये काय चाललंय हेच मला कळत नव्हते. जे थोडे कानावर पडत होते ते क्लेशकारक होते. एल एल बी, केसरी कार, प्राध्यापक टिळकांना तुरुंगामध्ये काथ्याकु टावा लागत होता. गुन्हेगारां बरोबर वावरावे लागत होते. जाड भाकरी आणि कांदा घातलेले कालवण खायला मिळत होते. त्यांना कांदा आवडत नसल्यामुळे कोरड्या भाकऱ्या खाव्या लागत. ऐकून माझ्याही घशाखाली घास उतरत नसे.

मात्र पुष्कळ प्रयत्न करूनही इंग्रज सरकारला त्या खुनाशी टिळकांचा संबंध जोडता आला नाही. त्यांच्यावर अन्याय होत असल्याचे मोठ्या प्रमाणावर चर्चा होऊ लागली आणि अखेर काही अटींवर, सरकारने कोणालाही कळू न देता, गुपचुप त्यांना घरी आणून सोडले. या तुरुंगवासात त्यांची तब्येत खूपच खालावली. त्यांचे 137 पाउंड वजन 113 पाउंड झाले होते. डोळे खोल गेले होते. चेहऱ्यावर तेलकट पणा आला होता त्यांच्याकडे पाहूनच पोटामध्ये ढवळून येत होते.

सुटून आल्यावर  राष्ट्र कार्यामध्ये त्यांनी पुन्हा झोकून दिले. त्यांचे वाचन, लिखाण, अधिवेशन, भाषण, प्रवास हे अव्याहतपणे सुरूच होते. त्यांची लोक मान्यता वाढत होती. “टिळक बोले आणि जनता  चाले” असे काही चालले होते.

देशातील वातावरणअधिक गरम गरम होत चालले होते. त्यातच बंगालमध्ये बॉम्बचा स्फोट झाला. “तरुणांनी हा मार्ग पत्करला हे देशाचे दुर्दैवच आहे. पण या  मुलांना या मार्गावर जायला कोणी भाग पाडले? सरकारने!या गोष्टीसाठी सरकारच जबाबदार आहे.” असे  आणि देशाचे दुर्दैव आणि हे उपाय टिकाऊ नाहीत हे दोन जळजळीत लेख केसरीमध्ये लिहिल्यावर इंग्रज सरकारने त्यांच्यावर राजद्रोहा चा खटला चालू केला. कोर्टामध्ये आपले काम टिळक स्वतः चालवत असत. तेजस्वी सूर्याला दुसर्‍या कोणाचा आधार घेण्याची जरुरी काय?

© सौ.अंजली दिलिप गोखले

मो  8482939011

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘थांगपत्ता’ ☆ प्रा. रोहिणी तुकदेव

थांगपत्ता-Thangpatta by Rohini Tukdev - Aakar Foundation Prakashan - BookGanga.com

 ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘थांगपत्ता’ ☆ प्रा. रोहिणी तुकदेव ☆ 

पुस्तक : थांगपत्ता 

पुस्तक-प्रकार : कादंबरी

लेखिका : रोहिणी तुकदेव

प्रकाशक : आकार फौंडेशन प्रकाशन

पृष्ठ संख्या : 169 (पेपर बैक)

मूल्य : रू 150

प्रा. रोहिणी तुकदेव

प्रकाशित पुस्तके

  1. साधुदास तथा गो. गो. मुजूम्दारांच्या कादंबर्या
  2. बसवेश्वर
  3. ओवी छंद : रूप आणि आविष्कार
  4. भाषिक विनिमय : तत्व आणि व्यवहार (सहकार्याने)
  5. कमला (अनुवादित कादंबरी)
  6. मराठी कदंबरीचे प्रारम्भिक वळन (संशोधन)
  7. ध्यास प्रवास ( व्यक्तिविमर्श)
  • लघुपट : ओवी : रूप आणि छंद
  • आकार फ़ाउंडेशन या मानसिक रोग्याविषयी सेवा, प्रबोधन, संशोधन करणार्या स्वयंसेवी संस्थेच्या कार्यकारी मंद मंडळाची सदस्य
  • शैक्षणिक कमतरता असलेल्या विद्यार्थ्यांच्या क्षमता विकसित करण्यासाठी प्रायोगिक प्रकलपाच्य कामात व्यस्त

मनोगत,

‘थांगपत्ता’ही ही कादंबरी प्रकाशित झाली याचा मला मनापासून आनंद झाला आहे ‘आकार फौडेंशन’ने ती अत्यंत देखण्या स्वरूपात वाचकांसमोर आणली आहे. या कादंबरीतील मध्यवर्ती व्यक्तिरेखा ‘विचलित मनोविभ्रमा’च्या (Disassociative Fugue) विकाराने ग्रस्त आणि त्रस्त आहे. पूर्वायुष्यात कोणत्यातरी असह्य अशा अनुभवाला तिला सामोरे जावे लागते. त्याचा तिच्या मनावर जबरदस्त आघात होतो. ती लज्जित अपमानित होते. झाली गोष्ट कोणाला कळू नये एवढेच नव्हे तर पुन्हा आपल्यालाही तिची आठवण राहू नये यासाठी ती गोष्ट मनाच्या आतल्या खोल कप्प्यात दाबून टाकण्याचा प्रयत्न करते. एका बाजूला हे चालू असतानाच दुसरीकडे आपल्याला नको असलेल्या गत गोष्टीपासून मुक्त होऊन,निर्भय, सर्वसामान्य जीवन जगावे अशी तिला ओढ असते. परस्परविरोधी भावनांच्या असह्य ताण तिच्या मनाचे स्थैर्य घालवून टाकतो. ती आपले नाव, गावा आणि पूर्वायुष्य विसरते आणि कुठेच स्थिरावू शकत नाही. यातूनच स्थलांतर, स्थानांतर, रूपांतर असे चक्र सुरू होते.

अमृता, गुंजा आणि माया अशी तिची तीन रूपे या कादंबरीत आहेत. या तिन्ही रूपात वावरताना तिच्या मनाची होणारी घालमेल कादंबरीत चितारली आहे.या प्रत्येक रुपात वावरताना तिच्या मनात सतत इतिहासाची धास्ती आहे. तो आपला पाठलाग करतो आहे,असे तिला वाटत राहते. तिच्या आजाराचे स्वरूप वैशिष्ट्यपूर्ण असते. पूर्वायुष्याची विस्मृती झालेली असली तरी तिची अर्जित कौशल्ये मेंदूने टिकवून ठेवलेली असतात त्यांच्या जोरावर ती आपले आयुष्य सावरायचा प्रयत्न करते. या काळात ज्या समाजात तिला जगावे, काम करावे लागते तेथील अडचणींना संकटांना,दुरिताला तोंड द्यावे लागते. त्यातून ती कशी वाट काढते याचे चित्रणही या कादंबरीत आहे.

कादंबरीचे कथानक थोडक्यात सांगता येईल…अमृता कोल्हे या जिम चालवणाऱ्या एका पस्तिशीच्या मध्यमवर्गीय गृहिणीला अचानक घेरीयेते आणि तिची स्मृती हरवते.

नवऱ्याचा डोळा चुकवून ती घराबाहेर पडते पण बलात्कारासारखे संकट तिच्यावर धडकन कोसळतं. पोलीस तिला जिव्हाळा आधारगृहात नेऊन सोडतात. तिथून ती ‘कांचन यमकनबर्डी’ या लेखिकेकडे सहाय्यक म्हणून जाते. पण तिथेही ती फार काळ राहू शकत नाही. अचानक तिथूनही बाहेर पडते. त्यानंतरही तिच्या आयुष्यात दोन स्थित्यंतरे येतात. या सर्व काळातील तिच्या जीवनप्रवासाचे चित्रण कादंबरीच्या कथानकात केलं आहे.

कादंबरीचे कथानक घटनाप्रधान असले तरी त्याचा रोख वेगळाच आहे. आपलं अस्तित्व, आपली ओळख यांचं स्वरूप नेमकं काय असतं? जीवनाची अर्थपूर्णता हि रोखठोक वस्तुस्थिती आहे की तो माणसाने आपल्या समाधानखातर निर्माण केलेला भ्रामक फुगा आहे ? संपूर्ण विश्वचक्राच्या संदर्भात माणसाचं माणूस म्हणून काही स्थान आहे का ? या प्रश्नाच्या उत्तराची वाट अमृता उर्फ गुंजा उर्फ माया हिच्या जीवनानुभवातून शोधण्याचा प्रयत्न आणि प्रयोग मी केला आहे. तो किती यशस्वी झाला आहे, हे अर्थातच वाचक ठरवतील. तो अधिकार त्यांचा आहे.

एका विचलीत मनोविभ्रमग्रस्त स्त्रीच्या रहस्यपूर्ण जीवनाचा मागोवा घेणारी तसेच तिचा भावनिक अवकाश आणि तिच्या जगण्यात गुरफटून गेलेला सामाजिक अवकाश यांच्या परस्परसंबंधातील गुंतागुंतीचा वेध घेणारी ही उत्कंठावर्धक कादंबरी वाचकांना आवडेल, त्यांना गुंतवून ठेवले ठेवेल असा मला भरवसा वाटतो.

प्रा रोहिणी तुकदेव

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 86 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 86 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है, जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व मंगल का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देख कर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना– प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! इससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उस से क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की, जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी गलतफ़हमियां व झगड़े तत्क्षण तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् क्षमा भाव सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति निर्दयता भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं, तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए, ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव समरसता का द्योतक है। सो! अपने दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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