(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने उपनाम प्रवीण ‘आफताब’ उपनाम से अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी ऐसी ही अप्रतिम रचना अल्फाज़ों से तो अकसर…
साहित्य एवं प्रकाशन – ☆ व्यंग्यकार ☆ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कथाओं आदि का स्फुट प्रकाशन ☆ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण ☆ बाल रचनाकार ☆ प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका और दैनिक अखबार के लिए स्तंभ लेखन ☆ दूरदर्शन में प्रसारित धारावाहिक की कुछ कड़ियों का लेखन ☆ बाल उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन ☆ अनकहे अहसास और क्षितिज की ओर काव्य संकलनों में कविताएँ प्रकाशित ☆ व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने का सुख’ प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार / अलंकरण – ☆ विशेष दिशा भारती सम्मान ☆ यश अर्चन सम्मान ☆ संचार शिरोमणि सम्मान ☆ विशिष्ठ सेवा संचार पदक
आज प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यंग्य संग्रह “ खटर पटर (खबरों की खरोच से उपजे व्यंग्य)” – की समीक्षा।
☆ पुस्तक चर्चा ☆ खटर पटर – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ समीक्षा श्री राकेश सोहम ☆
पुस्तक चर्चा
समीक्षित कृति – खटर पटर (खबरों की खरोच से उपजे व्यंग्य)
व्यंग्यकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मूल्य – रु 300
एक व्यंग्यकार इंजीनियर की सुरीली खटर पटर
(व्यंग्य संकलन- श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव)
साहित्य में व्यंग्य इन दिनों सर्वाधिक चर्चा में हैं। लगभग हर विधा का साहित्य साधक व्यंग्य में हाथ आजमा रहा है। लेकिन विवेक रंजन श्रीवास्तव व्यंग्य के लिए समर्पित इन दिनों जाना माना नाम है। उनकी सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, उनके एक के बाद एक व्यंग्य संग्रह पाठकों के बीच आ रहे हैं। वह एक अनुभवी व्यंग्यकार हैं। उन्हें व्यंग्य रचने के लिए विषयों की कमी नहीं पड़ती। उनका ताज़ा व्यंग्य संकलन ‘खतर पटर’ इस बात का सबूत है। संग्रह का शीर्षक आकर्षक है। जिंदगी की खटर पटर हो या मशीनों की, ध्यान बरबस ही खिंचा चला जाता है। विवेक रंजन जी पेशे से इंजीनियर है। मैं भी इंजिनियर हूँ, इसीलिए समझ सकता हूँ कि ‘खटर-पटर’ उनका करीबी शब्द है। वे दैनंदिनी की खबरों से भी व्यंग्य उठा लेते हैं। किताब के शीर्षक के नीचे उन्होंने स्वयं इस बात का उल्लेख कर दिया है- खबरों की खरोच से उपजे व्यंग्य।
व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव क्या है, कैसे हैं, इसकी जानकारी संग्रह के आरंभ में डॉ स्मृति शुक्ला हिंदी विभागाध्यक्ष, मानकुंवर बाई शासकीय महाविद्यालय, जबलपुर ने विस्तार से की है। संकलन के शुरूआती छः पृष्ठों पर इन दिनों के सर्वाधिक चर्चित चौबीस समकालीन व्यंग्यकारों ने विवेक रंजन के व्यंग्य के बारे में लिखा है।
इस संकलन में कुल 33 व्यंग्य रचनाएं हैं। संग्रहित व्यंग्य रचनाओं की सार्थकता इस बात से प्रमाणित हो जाती है कि इन्हें पढ़ते हुए पाठक सहज ही तात्कालिक खबरों से जुड़ जाता है और व्यंग्य के मजे लेने लगता है। ‘गाय हमारी माता है’ नामक रचना में व्यंग्य की बानगी देखिए- बिलौटा भाग रहा था और चूहे दौड़ा रहे थे। मैंने बिलौटे से पूछा, यह क्या? तुम्हें चूहे दौड़ रहे हैं! बिलौटे ने जवाब दिया, यही तो जनतंत्र है। चूहे संख्या में ज्यादा है। इसलिए उनकी चलती है। मेरा तो केवल एक वोट है। चूहों के पास संख्या बल है। एक और जोरदार व्यंग्य ‘पड़ोसी के कुत्ते’ की बानगी देखिए- कुत्ते पड़ोसी के फार्म हाउस से निकलकर आसपास के घरों में चोरी-छिपे घुस आते हैं और निर्दोष पड़ोसियों को केवल इसलिए काट खाते हैं क्योंकि वह उनकी प्रजाति के नहीं है।
लगभग सभी रचनाएं अंत में संदेश देती सी प्रतीत होती है जबकि इसकी आवश्यकता नहीं है। बावजूद इसके उनकी रचनाएं उनके द्वारा गढ़े गए नश्तर से व्यंग्य का कटाक्ष निर्मित करते हैं एवं दिशा भी देते हैं। क्या व्यंग्य में दार्शनिक भी हुआ जा सकता है? यह बड़ी कुशलता से अपनी रचना ‘फुटबॉल: दार्शनिक अंदाज’ में दिखाई देता है- हम क्रिकेट जीवी है। हमारे देश में फुटबॉल का मैच कोई भी हारे या जीते, आप मजे से पॉप कार्न खाते हुए मैच का वास्तविक आनंद ले सकते हैं। दार्शनिकता में यह निरपेक्ष आनंद ही परमानंद होता है।
चुभन और सहज हास्य व्यंग्य को सम्पूर्ण बनाते हैं। विवेक रंजन जी की हर रचना में पंच मिलता है- सूरज को जुगनू अवार्ड, क्विक मनी का एक और साधन है-दहेज, कुछ भरोसे लायक पाना हो तो भरोसा ना करिए, सरकारी संपत्ति की मालिक जनता ही होती है, पिछड़ेपन को बढ़ावा देने के लिए धीमी चाल प्रतियोगिता को राष्ट्रीय खेलों के रूप में मान्यता देनी चाहिए आदि। यहां पर प्रत्येक रचना के बारे में लिखना ठीक ना होगा वरना पढ़ने का मजा चला जाएगा। एक और बात ‘वाटर स्पोर्ट्स’ नामक व्यंग्य रचना में विवेक रंजन स्वयं को एक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। अपने बचपन से लेकर अब तक का चित्रण करते हुए सरकारी सेवाओं की व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष किया है कि सरकारी सेवाओं में योग्यता के अनुरूप काम नहीं मिलता। ‘गांधी जी आज भी बोलते हैं’ एक बहुत ही टाइट एवं सटीक लघु व्यंग्य है।
संकलन के संपादन में चूक (कुछ रचनाओं में पूर्ण विराम का प्रयोग हो गया है जबकि अधिकतर रचनाओं में फुलस्टॉप लगाया गया है। रचनाओं का अनुक्रम बदला जाता तो शायद और अच्छा होता।) को नज़रअंदाज़ कर दें तो संग्रह पठनीय और अनोखा है जबकि कीमत ₹300 मात्र है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण एवं स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा “क्षमादान ”। बरसों बाद गलती सुधार कर बेशक क्षमादान दिया जा सकता है किन्तु, वह गुजरा वक्त वापिस नहीं किया जा सकता है। फिर किसने किसे क्षमादान दिया यह भी विचारणीय है। इस भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 82 ☆
? लघुकथा – क्षमादान ?
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह मनाया जा रहा था। जगह-जगह आयोजन हो रहे थे। इसी के तहत गाँव के एक स्कूल में भाषण और महिला दिवस सम्मान समारोह रखा गया था। प्रभारी से लेकर सभी कर्मचारीगण, महिलाएँ बहुत ही उत्सुक थी।
आज के कार्यक्रम में बहुत ही गुणी और सरल सहज समाज सेविका वसुंधरा आ रही थी। उनके लिए सभी के मुँह से सदैव तारीफ ही निकलती थी। करीब 10- 12 साल से वह कहाँ से आई और कौन है इस बात को कोई नहीं जानता था।
परंतु वह सभी के दुख सुख में हमेशा भागीदारी करती थी। ‘वसुंधरा’ जैसा उनका नाम था ठीक वैसा ही उनका काम। सभी को कुछ ना कुछ देकर संतुष्ट करती। महिलाओं का विशेष ध्यान रखती थी। कठिन परिस्थितियों से जूझती- निकलती महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती।
उन्हें कहाँ से पैसा प्राप्त होता है? कोई कहता “सरकारी सहायता मिलती होगी” कोई कहता “राम जाने क्या है मामला”। खैर जितनी मुहँ उतनी बातें। ठीक समय पर वह मंच पर उपस्थित हुई। तालियों और फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। सभी बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे।
स्कूल प्रभारी ने कार्यक्रम के समाप्ति पर वसुंधरा जी को आग्रह किया कि “आज हम आपको उपहार देना चाहते हैं। आशा है आप को यह उपहार पसंद आएगा।” वसुंधरा ने “ठीक है” कहकर सोफे पर बैठे इंतजार करने लगी।
उन्होंने देखा हाथ में फूलों का सुंदर गुलदस्ता लिए जो चल कर आ रहा है वह उसका अपना पतिदेव है। जिन्होंने बरसों पहले उन्हें त्याग दिया था। माईक पर मानसिंह ने कहा “मैं हमेशा वसुंधरा को कमजोर समझता था। अपने ओहदे और काम को प्राथमिकता देते हमेशा प्रताड़ित करता रहा। मैं ही वह बदनसीब पति हूं जिसने वसुंधरा को छोटी सी गलती पर घर से ‘निकल’ कह दिया था, कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो। परंतु मैं गलत था।”
“वसुंधरा तो क्या सृष्टि में कोई भी महिला अपनी लज्जा, दया, करुणा, क्षमा की भावना लिए चुप रहती है। मौन रहकर सब कुछ कहती है परंतु मौका मिलने पर वह कुछ भी कर सकती हैं। इतिहास साक्षी है कि वह अपना अस्तित्व और गर्व स्वयं बना सकती है। आज मैं सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर इन्हें फिर से अपनाना चाहता हूं। तुम सभी को कुछ न कुछ देते आई हो, आज मुझे क्षमादान दे दो।”
वसुंधरा आवाक सभी को देख रही थी। एक कोने पर नजर गई वसुंधरा के सास-ससुर बाहें फैलाएं अपनी बहू का इंतजार कर रहे थे। तालियों के बीच निकलती वसुंधरा आज बसंत सी खिल उठी।।
लग्न झालं, पुजा झाली. आधी देवाच्या पाया पडायला गोव्याला, मग केरळ सारख्या मस्त हिरव्यागार निसर्गरम्य ठिकाणी फिरुन आलो. पण तिकडेच मी त्याच्याकडे कबूल करुन घेतले.”तू एकटा मी पण आईबाबांची एकटी मुलगी पण आपल्याला मात्र दोन किंवा तीन तरी बछडी पाहिजेत हा”तर साहेब म्हणतात, “हे इकडे सांगण्यापेक्षा गोव्याला सांगितले असतेस तर बरं झालं असतं मी देवाकडे तरी जुळं तीळं मागून घेतलं असतं. हाहाहा ” नेहमीच्या स्टाईलमध्ये हसून विषय संपवला.
आम्ही मुंबईला आलो. नेहमीचे रूटीन चालू झालं. नव्या नव्यानवलाईचे दिवस. ‘अहो ‘आईंना मला कुठे ठेवू आणि कुठे नको असे झाले होते. माझ्यासाठी कपडा, साडी, दागिना, पर्स, काय काय घेऊन येऊ लागल्या. त्यांचा चॉईस पण छान होता. आम्हाला रविवारी ह्या आत्याकडे पुढच्या रविवारी त्या काकांकडे असे कौतुकानी न्यायच्या. आज हा सण, उद्या दुसरा. नंतर श्रावण आला. मंगळागौर. आमच्याकडे सगळे जमले. रात्रभर जागवली मज्जाच मज्जा. दुस-या दिवशी रक्षाबंधन.ह्याला सख्खी बहीण नसल्यामुळे मानलेल्या. बहिणी राखी बांधायच्या त्या आल्या. ह्यांच्या चुलत, मामे, मावस बहिणी पण मंगळागौरीला आलेल्या सगळ्या राहिल्या.आमच्याकडे मज्जाच मज्जा. आता त्यांच्या लाडक्या भावाची एकुलती एक लाडकी बायको आली होती ना तिच्याशी गप्पा मारायला धमाल करायला. आज मला कळलं ह्याला सख्खी बहीण नसली तरी अशा त्याच्यावर प्रेम, माया करणाऱ्या खूप बहिणी आहेत.
मग श्रीकृष्ण जन्म, गणपती उत्सव सगळे आमच्याकडेच. त्यामुळे घर सतत भरलेले गोकुळ मला हवे असलेले. एकदा ते सणवार झाले कि सगळे आपापल्या घरी गेले कि परत आम्ही एकटेच.
वर्षभराचे सगळे सणवार आईने आणि ‘अहो ‘ आईने अगदी थाटामाटात केले. दोघीने आपापली हौस पुरवून घेतली. म्हणेपर्यंत चिमुकल्या पाहूण्याची चाहूल लागली. दोन्ही घरात माझे नको इतके लाड करण्याची परत चढाओढ सुरु झाली. मनांत विचार आला हे पण अजीर्ण होतंय. किमान आणखी एकेक अपत्य दोन्ही घरांत असते तर माझी लाडाकोडात भागीदारी झाली असती आणि ह्या अजीर्णाचा त्रास कमी झाला असता. चोरओटी झाली, डोहाळे जेवण, झाले. झोपाळ्यावरचे, चांदण्यातले वगैरे वगैरे. आणि एकदाच आमचं पहिलवहिलं कन्यारत्न जन्माला आलं. आजोबा एकदम खूष. त्याना मुलगी नव्हती ती मिळाली. पहिली बेटी धनाची पेटी वगैरे म्हणून आनंदी झाले. आजीचं मात्र तोंड एव्हढंस झाले तिला पहिला नातू हवा होता. हे म्हणतात कसे त्यांना “आई अग आज नात झाली पुढच्या वर्षी राखी बांधून घेण्यासाठी येईल कि छोटासा भाऊ. आमच्या हिला नाहीतरी घराचं गोकुळ करायचं आहे. आम्ही दोघेही एकुलते एक ना. ना तिला भाऊ बहीण, ना मला हे तिचं दुःख आहे.
आज घरी लक्ष्मीपूजनाची गडबड चालू होती. लक्ष्मीची तसवीर ठेऊन पिवळ्या शेवंतीचा हार घातला. घरातल्या प्रत्येकाने पूजेला आपले पैशाचे पाकीट ठेवले.बँकांची पासबुक्स, चांदीची नाणी, सुवर्ण अलंकार, हळदी कुंकवानं भरलेले करंडे, पाच फळांची परडी, फुले, पंचामृत, धण्याच्या अक्षता, गूळ, पेढे सर्व तयारी जय्यत झाली. आदित्य, माझा मुलगा, सोवळे नेसून, कपाळी केशरी नाम ओढून तयार झाला. नारळ पानसुपारीचा विडा ठेऊन पूजा सुरू करणार, तोच मला आठवण झाली, अरे, तो लाल मखमली बटवा ठेवायचा राहिला की…. मी कपाटातला बटवा आणला आणि पूजेला ठेवला.
रीतसर पूजा झाली. आरती झाली. लक्ष्मीची स्तोत्रे म्हणून झाली. सर्वांनी कुंकू, फुले अक्षता वाहिल्या. तीर्थप्रसाद दिला. लक्ष्मीपूजन छान झाले.
न राहवून आदित्य नं विचारले, ” आई, त्या लाल बटव्यात काय आहे?” मी म्हटलं, ” सांगेन नंतर.”
परवा सहज आदित्य ला आठवण झाली. तेव्हा मी त्याला बटवा उघडून दाखवला.
” दहा रुपयाची नोट आईनं दिलेली.” चेह-यावर प्रश्नचिन्ह घेऊन गडबडीत तो ऑफिसला गेला. पण माझ्या मनातून आज ते दहा रुपये हटेनात. रात्री अंथरूणावर पाठ टेकली तसे सर्व प्रसंग video बघावा तसे डोळ्यांसमोरून सरकू लागले.
ह्यांच्या, ( आदित्य च्या पप्पांच्या) अकाली निधनानंतर मला नोकरी करण्याशिवाय पर्याय नव्हता. दोन्ही मुलांचा सांभाळ आणि शिक्षण हे माझं पहिलं कर्तव्य होतं. सुरवातीला अगदी तुटपुंजा पगार ( रू.975/- फक्त) होता. ह्यांच्या पश्चात आलेली रक्कम हात न लावता ठेवायची, असं ठरवूनही वापरावी लागे. माझी एकूण सगळी ओढाताण आई बाबांना न सांगताच समजत असे. आईची तळमळ मला जाणवत होती. बाबा नेहमीप्रमाणे ‘ हेही दिवस जातील, धीर धर, म्हणून पाठिंबा देत होते. ” फिरते रूपयाभवती दुनिया” याचा पावलो पावली प्रत्यय येत होता.
स्वतःच्या मेरीटवर घेतलेलं शिक्षण, मेरिटवर मिळालेली नोकरी, मेहनत करून मिळवलेला पैसाच खरा, तोच आपले चारित्र्य ठरवत असतो. हे आधी बाबांचे आणि नंतर ह्यांचे संस्कार. हाता- तोंडाची जुळवणी करता करता वर्षे उलटली.
आई आजारी होती म्हणून तिला बघायला गेले होते माहेरी. तेव्हा आईनं माझ्या हातात ती पुडी दिली. उघडून बघते तर एक दहा रूपयांची जुनी नोट. काय आई तरी! क्षणभर विचार आला, आईकडे कुठून आले हे पैसे? कारण आता धाकटा भाऊ आणि भावजय सगळे व्यवहार बघत होते. तिच्या समाधानासाठी घेतले मी ते पैसे. घरी आल्यावर कपाटात ठेऊन दिले.
पुढे 15च दिवसात आईनं या जगाचा निरोप घेतला. मला तिकडं पोचेपर्यंत पाच तास गेले. आईला तशी झोपलेली बघून मी तरी कोसळलेच.
” अशी कशी गेलीस ग आई? ” माझ्यातल्या वासरानं हंबरडा फोडला.
सर्व सोपस्कार झाल्यावर दुस-याच दिवशी परतावं लागलं. दिवसाला सुद्धा जायला जमलं नाही. तिचीच शिकवण, ” कर्तव्यात चुकारपणा करायचा नाही. कर्तव्य आपुलकीने करायचे. कर्तव्य आणि आपुलकी ची सांगड जबाबदारीने घालायची.” हे तिने आयुष्य भर केले, आम्ही ही नकळत तेच शिकलो.
आई गेली. सवाष्ण असतानाच गेली. गळ्यात दोन सुवर्ण वाट्या असलेली काळ्या मण्यांची पोत, हातात दोन दोन काचेच्या बांगड्या, कपाळावर लाल कुंकू इतके अहेव लेणे आयुष्य भर लेवून अखंड सौभाग्यवती राहून गेली. तिचा पार्थिव देह हिरव्या साडीत झाकलेला होता. मुखावर डोळे दिपवून टाकणारे तेज पसरले होते. येणारे लोक आश्चर्याने बघत होते. देवीप्रमाणे नमस्कार करत होते. लोकांची गर्दी जमली होती. चेह-यावरून नजर हटत नव्हती.
इतकी वर्षे कुणाची नजर लागू नये म्हणून आम्हां मुलांवरून, नातवंडांवरून मीठमोह-या आईनं कितीतरी वेळा उतरल्या होत्या.आज मला तिची दृष्ट काढावीशी वाटली.
आई गेली. घर माणसं असून सुनं सुनं झालं. डोळ्यातलं पाणी पापण्यातून परतवत मी परतले. दुसरे दिवशी जड मनाने पुडी उघडून नोट हातात घेतली. ती देताना आई मला बोलली होती. ” बेटा, खूप अवघड डोंगर चढलीस, खूप त्रास, खूप दु:ख झेललेस. पण तोंडातून चकार शब्द काढला नाहीस. ” मी म्हटलं , ” आई तुझीच ना ग मी लेक, तुझ्याकडूनच शिकले.” तिनं माझ्या हातात पुडी दिली. जपून ठेव म्हणाली. ती नोट मी देवीसमोर ठेवली , नमस्कार केला आणि परत कपाटात ठेवली.
आईच्या जाण्याच्या दुःखानं मन आणि शरीर कमजोर आणि हळुवार झालं होतं. त्यातून बाहेर निघणं आम्हां भावंडांना जड जात होतं. महिनाच झाला जेमतेम, तोच बाबाही आम्हाला सोडून गेले. उरलासुरला आधार गेला. मातृछत्र, पाठोपाठ पितृछत्र ही हरवलं. आम्ही पार ढासळलो. मूकपणे एकमेकाला सावरू लागलो. दिवसामागून दिवस गेले. दुःखावर काळ हाच उपाय असतो.
आई गेल्यानंतर दोनच महिन्यात ध्यानी-मनी नसताना माझं प्रमोशन झालं. कमाईत थोडी सुधारणा झाली. डगमगणारी आर्थिक गाडी हळूहळू रुळावर येऊ लागली. पुढे पुढे तर कधीच आर्थिक चणचण जाणवली नाही. हा त्या दहा रुपयाच्या नोटेचा चमत्कार आणि आईचा आशीर्वाद. जाताना आई मला श्रीमंत करून गेली.
सहा फेब्रुवारी ला आईला जाऊन 13 वर्षे होतील. ती दहा रुपयांची नोट हीच आज माझी ताकद आहे आणि तीच माझी श्रीमंती.
मला आईच्या दूरदृष्टीचं कौतुक वाटतं. बदलणारी परिस्थिती सहजपणे आणि सकारात्मकतेने स्वीकारण्याचे बाळकडू मला आईने पाजले. तिच्या विचारांच्या आणि मनाच्या श्रीमंतीने मलाही खूप शिकवले. आयुष्यात पैसाअडका, दागदागिने कशाचाच हव्यास न धरता तिने अनेक आयुष्ये घडवली.
दहा रूपयांच्या रूपात आईने लक्ष्मी माझ्या हातात दिली. लक्ष्मीच्या तसबिरीकडे पहाताना मला आईचाच भास होतो.