हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -10 – बिनसर वन अभ्यारण”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ 

बिनसर वन अभ्यारण, अल्मोड़ा जिले में स्थित है । एक ऊंची पहाड़ी चोटी में हरे भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल लगभग 200 प्रजातियों की वनस्पतियों और 150 किस्म के पक्षियों का घर है । स्थानीय भाषा में इस पहाड़ी को झांडी ढार  कहते हैं लेकिन बिनसर का अर्थ है नव प्रभात और इस पहाड़ी से सुबह सबरे नंदा देवी पर्वत शिखर में सूर्योदय देखना अनोखा अनुभव प्रदान करता है । सूर्य की प्रथम किरण जब नंदा देवी पर पड़ती है तो 300 किलोमीटर की यह पर्वतमाला गुलाबी रंग से सरोबार हो उठती है और फिर ज्यों ज्यों सूर्य की रश्मियाँ अपने यौवन की ओर बढ़ती हैं तो पूरी पर्वत श्रंखला रजत हो उठती है । यद्दपि हमने पिछली बार कौसानी से सूर्योदय के समय गुलाबी होते हिम शिखर के दर्शन किये थे पर इस सौभाग्य से हम बिनसर में तीन दिन तक रुकने के बाद भी वंचित ही रहे । प्रकृति के एक अन्य रूप, जल शक्ति के प्रतीक वरुण देवता ने धुंध और बादलों का ऐसा जाल बिछाया कि हिम शिखर का दिखना तो दूर , हिमालय की निचली पहाड़ियां भी लुकाछिपी का खेल खेलती रही । इस ऊँची पहाड़ी पर कुमायूं विकास मंडल ने एक सुन्दर होटल का निर्माण किया है । मेरी पुत्री को इंटरनेट के माध्यम से कुछ कार्य करना था और वाई-फाई की आशा में हम इस होटल के प्रबंधक से मिले । उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया । हमारे ड्राइवर महाशय होटल का एक चक्कर लगा आये और उनसे हमें पता चला कि यहाँ से हिम दर्शन हो रहे हैं, फिर क्या था हम होटल द्वारा निर्मित व्यू पॉइंट की ओर चले गए और वहाँ से हिमालय को निहारते रहे । बर्फ की श्वेत चादर से ढका  नंदा देवी पर्वत माला की चोटियों हमें  रुक रुक कर दिखने लगी । जब कभी बादलों के बीच से सूर्य देव अपनी छटा इन चोटियों पर बिखेरते तो अचानक ही हिम शिखर चांदी जैसा चमकने लगता । हम इस अद्भुत दृश्य को निहार ही रहे थे कि होटल प्रबंधक ने हमारे लिए गर्मागर्म चाय भिजवा दी । चाय की ट्रे लिए बेयरे ने हमारे अनुरोध को अनमने ढंग से स्वीकार करते हुए त्रिशूल से लेकर नेपाल तक फैली हिम चोटियों की दिशा बताई और साथ ही यह सूचना भी दी की मुख्य  शिखर बादलों की ओट में छिपे हुए हैं यह सब कुछ पर्वत माला का निचला हिस्सा है । लेकिन हमें इस सूचना से कोई सरोकार न था हम तो चाय की चुस्कियों के साथ हिमालय को निहारते रहे । कोई आधे घंटे में पुत्री ने  भी अपना काम निपटा लिया और हम सब बिनसर वन अभ्यारण में ट्रेकिंग के लिए निकल गए । मौसम खराब होने के कारण पर्यटक भी नहीं थे और गाइड भी गायब थे । मैंने वनस्पति शास्त्र के अपने अल्प ज्ञान का प्रयोग कर कुछ वनस्पतियों जैसे देवदार, चीड़, ओक आदि की पहचान की तो वाहन चालक ने हमें बांज, उतीस, बुरांश  के पेड़ दिखाए । देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे, हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। संस्कृत साहित्य में इसका बड़ा गुणगान किया गया है और इसका प्रयोग  औषधि व यज्ञादि में होता है । ओक या सिल्वर ओक की खासियत यह है कि इसके पत्ते खाँचेदार होते हैं। पेड़ की पहचान इसके पत्तों और फलों से होती है। सिल्वर ओक की लकड़ी सुन्दर होती  है और उससे बने फर्नीचर उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। एक समय जहाजों के बनाने में इस्सका काष्ठ ही प्रयुक्त होता था। बुरांश, जिसे हमारे वाहन चालक ने पहचाना,  हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का उपयोग कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। हमें ऐसी जानकारी थी कि बिनसर वन्य जीव अभयारण्य में तेंदुआ पाया जाता है। इसके अलावा हिरण और चीतल तो आसानी से दिखाई दे जाते हैं। पर अभ्यारण्य में एक भी पशु नहीं दिखा हाँ लौटते वक्त एक लंगूर अवश्य दिख गया । यहां 150 से भी ज्यादा तरह के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल सबसे प्रसिद्ध है पर इन विभिन्न पक्षियों की  मधुर आवाज तो हमें सुनाई दी पर दर्शन किसी के न हुए ।  इस दो किलोमीटर की ट्रेकिंग का अंत जीरो प्वाइंट पर होता है । यह इस पहाड़ी की  सबसे उंचा शिखर है और यहाँ से हिम शिखर के दर्शन होते हैं ।  अधिक सर्दी पड़ने पर यहाँ बर्फबारी भी हो जाती है ।

जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे तो एक पुरानी कोठरी पर मेरी निगाह पड गई । पत्थरों  से निर्मित    यह जल स्त्रोत 120 वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोदार कैम्पा योजना के तहत अभी कोई दो बर्ष पहले किया गया था । सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। यह  नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था। नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।नौला की छत चौड़े किस्म के पत्थरों  से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है।  हमारे वाहन चालक ने हमें बताया कि शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए अब लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆ कांटों भरी डाल ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘कांटों भरी डाल। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆

कांटों भरी डाल

 

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

बेशक कांटों भरी चुभन हूँ,

मगर सबके लिए खुशबू भरा अहसास हूँ ||

नहीं आती मुझे दुनियादारी,

गलती हो जाए कभी तो अपनी गलती तुरंत मानता हूँ ||

सबको खुश रखना मेरे बस की बात नहीं,

मगर सबको खुश रखने की कोशिश पूरी करता हूँ ||

मैं कोई मजबूत ड़ोर नहीं,

कच्चा धागा हूँ थोड़ा सा खींचने से ही टूट जाता हूँ ||

प्यार सबका पाने को आतुर हूँ,

धागा बन सबको माला में पिरोये रखने की तमन्ना रखता हूँ ||

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३५॥ ☆

 

वामश चास्याः कररुहपदैर मुच्यमानो मदीयैर

मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या

संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहमानां

यास्यत्य ऊरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश चलत्वम॥२.३५॥

मम नखक्षतो से लिखित दीर्घ परिचित

मुक्ताओ की माल दुर्देव मारे

इस आ पडी विरह की दुख घडी मे

रसनाभरण आदि जिसने उतारे

जंघा मृदुल वाम मम हस्त तल ने

दुलारा जिसे रति विरति पर हमारे

शीलत सुखद तरूण कदली सुदृश गौर

होगी स्फुरति पहुंचने पर तुम्हारे

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 92 ☆ सावळ बाधा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 92 ☆

☆ सावळ बाधा ☆ 

(वृत्त-वररमणी)

हे गोविंदा तुझ्याच साठी जन्म घेतला नवा कितीदा या भूमीवरती

अवचित आले भान असे की,तशीच आहे विरहवेदना याही जन्मांती

 

वादळवेडी अभिसाराची प्रतिमा आहे तुझ्या प्रीतिच्या डोहामधली मी

अनंत वेळा तुझीच झाले,घरदाराला सोडुन सारे कोळुन प्यालेली

 

या देहाच्या किती कामना, अभिलाषा की म्हणू मागण्या तारूण्याच्या या

पिसे लागले तुझे जिवाला या संसारी चित्त रमेना जळते ही काया

 

श्रीरंगा मी तुझीच राधा जन्मोजन्मी एकच बाधा श्यामल रंगाची

तुझे सावळे रूप मनोहर पुरुषोत्तम तू माझा ईश्वर व्याख्या प्रेमाची

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तू हरवलीस…. ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तू हरवलीस…. ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

स्वयंपाक करताना

कविते, नको मनात येवू

लेकरं माझी

जाणार आहेत शाळेत जेवून

तुला लिहित बसले तर

कसं होणार काम?

मी म्हणते जरा तू थांब

 

आॅफिस मध्ये आहे

फाईलींचा ढिग

काम करता करता

जाईन मी वाकून

तिथ तू आलीस तर

काम कसं होणार

पगार नाही मिळाला तर

घर कसं चालणार

कविते तू इथ नको  येवू

 

संध्याकाळी घरी

जाण्यांची घाई

चिमणी पाखरं माझी

वाट बघतात बाई

अंमलेल्या मनात तूला कुठं ठेवू

कविते तू आता नको येवू

 

दिवसभराच्या कामाने

कंटाळा आला भारी

निद्रादेवीच्या कुशीत

शिरली स्वारी

दुसऱ्या दिवशीच्या

कामाची यादी समोर आली

कविते तू  कुठं ग  हरवलीस?

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 3 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

☆ जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 3 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆

सत्येन…. हो, त्याच्याशी बोलल्याशिवाय मनाची घालमेल कमी होणार नाही, हे ज्योतीला अनुभवातून माहित होते. म्हणुन तिने लगेचच फोन करुन त्याला सांजवातमध्ये येण्यास सांगितले. डोळे झाकून ती शांत बसुन राहिली. ज्योती अस्वस्थ आहे हे मायाने ओळखले.

“ज्योतीताई, बरे वाटत नाही? कॉफी आणु का? नाहीतर खोलीत जाऊन जरा विश्रांती घेता? कामांचे काय हो ,ती करु नंतर.”

“नाही, नाही, नको मला काहीच. I am ok,”

दोन मिनीटे थांबुन…. मनात काहीतरी नक्की करुन. ज्योतीच पुढे म्हणाली, “हे बघ माया,… तु खोलीत जाऊन त्या अनुराधा जोशींना  सामान आवरायला सांग,. नाही,  तुच मदत कर त्यांना. अन् हो, रेखा आली की त्यांना ईकडे च घेऊन ये”

“ठीक आहे” म्हणुन माया निघाली. म्हणजे त्यांना ठेवुन घ्यायचे नसावे असा विचार माया च्या मनात आला.

स्वातीताईच्या कानावर घालुया, तिला काय वाटते ते पण बघुया. असा विचार करुन ज्योतीने स्वातीला फोन लावले. अन् बराच वेळ बोलणे झाले.

“हो ताई…. माझ्या तरी मनात तसे आहे, खुप धीर वाटला तुझ्याशी बोलुन.  हं,हं, सत्येन आला वाटते, रात्री निवांत बोलुयाच, काय होते ते” म्हणुन फोन ठेवला.

अचानक तातडीने का बोलावले या संभ्रमात सत्येन होता. पाठोपाठ रेखा आणि सुरेशही आले. रेखाने…. गेल्या २, ४ दिवसातील सर्व घटना थोडक्यात सांगितल्या.

नंदन तब्येत बरी रहात नसल्यामुळे इथला सर्व व्यवसाय बंद करुन कायमचा अमेरिकेला  मुलाकडे जाणार आहे. त्याची बायको, मुलगा आणि सून सगळ्यांचाच अनुआईला तिकडे नेण्यास विरोध, अगदी कडाडून विरोध.

म्हणुन २५ लाख रु, डिपॉझिट देऊन त्याने तिची व्यवस्था ईथे करायचे ठरवले,. सर्व बंगले, घरेही विकुन टाकली.

ज्योतीच्या मनात आले, बाबांची कोट्यावधी ची इस्टेट. आपल्याला काही नाहीच. पण त्याच्या बायकोला, जिच्यामुळे हे मिळाले त्या सख्ख्या आईला फक्त २५ लाख रु, तेही डिपॉझिट. देणगी नाही, एखादे छोटेसे हक्काचे घर तरी ठेवायचे तिला. चिड आली त्याच्या स्वार्थी वृत्तीची. खरे तर सत्येन आणि स्वातीताईकडे मिस्टर यांचा विरोध म्हणुन कोर्टकचेरी केली नाही, आपलाही हक्क आहेच ना बाबांच्या इस्टेटीत.

“रेखा, ज्यो…. तुला माहित आहेच, सांजवातला पैशाची गरज कायमच असते. पण, तरीही त्यांच्या ईथे रहाण्याने तुला मानसिक त्रास होणार, ताण येणार म्हणुन आपण त्यांना नाही म्हणणार आहोत.”

संस्थेची पैशाची गरज महत्वाची आहे, ही संधी सोडुन नये, फारतर ज्योती सांजवातमधुन बाहेर पडेल, असे सत्येन मत.

पण पैसा नंतरही मिळेल पण ज्योती सारखी कार्यकर्ती, founder member गमवायची नाही, त्यांची सोय आपणच दुसरीकडे करून देऊ. असा सुरेश आणि रेखाचाच युक्तिवाद. यावरही बरीच उलट सुलट चर्चा झाली.

ज्योतीचा कशातच सहभाग नव्हता.

शेवटी रेखा तिच्याजवळ जाऊन “ज्यो… खरंच सांग तुला काय वाटते? तुझ्या मनात काय आहे?”

डोळ्यात आलेले पाणी पुसुन, ज्योती अगदी शांतपणे म्हणाली “सत्येन, आपल्या लग्नाच्या

आधीपासुन सर्व निर्णय आपण दोघांनी मिळुन घेतले, किंवा एकमेकांच्या निर्णयाला पाठिंबा दिला. मला वाटते, आजही तसाच तुझ्याकडून मिळेल. रेखा, सुरेश, मला वाटते, अनुआईला ईथे ठेवू नये”  ज्योतीने एकदा सगळ्यांकडे बघितले.

“अनुआईला, आमच्या घरीच कायमचे रहायला घेऊन जावे”, सर्वजण तिच्याकडे अवाक होऊन पाहु लागले. पण तिने आपले बोलणे ठामपणे पुढे चालु ठेवले.

“केवळ लहरींखातर किंवा नंदुदादावर मनात करायची म्हणुन मी हा निर्णय घेत नाही, अनुआईवर आतापर्यंत झालेले अन्याय, तिची मानसिक कुचंबणा, तिच्या डायरीतुन वाचली होती, प्रत्यक्षात बघत होते, पण तेंव्हा काही करु शकत नव्हते, नवविधासाठी काम करतांना, ईतर सर्व बायकांना मदत करतांना हे मला कायम टोचतो असे की माझ्याच घरातील अन्याय  मी काही करु शकत नाही, अन् आता संधी मिळते आहे, मी अनुआईला सन्मानाने जगण्यासाठी माझ्या घरी नेणार, माझ्या बाबांनी तिची घेतलेली जबाबदारी, मी स्वीकारणार”

पुढची फाईल बंद करुन बाजुला सारुन ज्योतीने जणु सांगितले की तिचा निर्णय झाला आहे, पक्का झाला आहे. “मघाशी, स्वातीताईशी बोलले, तिचाही पाठिंबा आहे.”

सत्येन, तिच्याजवळ जाऊन, “ज्यो, I am really proud of you, आणि माझ्यावर विश्वास ठेवुन, होकार समजलास, Thanx”

रेखा, सुरेशकडे बघुन, “सुरेश, तु म्हणतोस ते बरोबर आहे, पैसा आपण कुठूनही मिळवू नंतर .पण आता मात्र, तो चेक नंदनला परत देऊन टाका. आम्हाला अनुआईंसाठी एक पैसा ही नको त्यातला.”

तेवढ्यात मागुन, “नाही, नंदनला तो चेक परत द्यायचा नाही, त्याचा या पैशावर काहीही अधिकार नाही.” अनुआई दारातून आत येत म्हणाली.

“अनुआई, अनुआई…” म्हणत ज्योतीने धावत जाऊन मिठी मारली.

तिला जवळ घेत, “ज्यो… ज्यो.. खरंच कौतुक वाटते तुझे अन् सत्येन म्हणतात तसा अभिमानही. तुझा, तुझ्या विचारांचा, आणि तुझ्या या कार्याचाही. पैसे नंदन ने दिलेत कबुल आहे. पण ते आहेत माझ्या नवर्याचे. माझ्या मुलींच्या वडिलांचे, त्यांचाही तेवढाच हक्क आहे त्यावर. माझ्या मुलीच्या कामासाठी, सांजवात प्रकाशमान होण्यासाठीच तो वापरायचा. डिपॉझिट नाही तर, देणगी आहे ही.”

सर्वचजण तिच्याकडे बघु लागले, रेखा काहीतरी बोलणार, तेवढ्यात अनुआई “मायाबरोबर सामानाची आवरा आवर करुन मघाशीच बाहेर येऊन बसले, विझायच्या मार्गावर असलेल्या या दिव्याला आणखी कुठल्या वादळात जावे लागणार, आता उरलेल्या आयुष्याला अजुन कोणत्या बदला ला सामोरे जावे लागणार.. या विचाराने, उदास, निराश झाले होते. पण तुमचे सगळे बोलणे कानावर पडले. ज्योचे किती आणि कसे आभार मानू तेच समजत नाही.”

अनुआईच्या डोळ्यांतील पाणी पुसत, “नाही, अनुआई, नाही, लेकीचे आभार मानतात चा कधी?”

रेखाही पुढे होऊन “आणि… अनुआई. विझायच्या मार्गावरचा दिवा म्हणु नका हं. उलट आतापर्यंत वादळवार्याला तोंड देणारी तुमची जीवनज्योत आता मानाने, शांतपणे… तेवत रहाणार आहे ज्योच्या घरात सांजवात म्हणुन”

कथा समाप्त

©  सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ साराची भूतदया☆ श्री गौतम कांबळे

(सारा व तिची ताई)

☆विविधा ? साराची भूतदया ? श्री गौतम कांबळे ☆

एक पाच वर्षाची खूप प्रेमळ गोंडस मुलगी. तिचं बोलणं ऐकत राहावं असं. कल्याणमधील खडकपाडा येथे वसंत व्हिला रस्त्यावर वृंदावन पॅराडाइज या आलिशान वस्तीत राहते. तिच्यासाठी आणलेला खाऊ; मग ते साधे चॅाकलेट असूदे, प्रत्येकाला हवं का? म्हणून विचारल्याशिवाय खात नाही. गंमत म्हणून कुणी हवं म्हणालं तर त्याला देण्यात तिला आनंदच वाटतो.

खेळत असतानाही तिचं सगळीकडं बारीक लक्ष असतं. घरात आजी, आजोबा, आई वडील व मोठी बहीण सुहानी असं छोटं कुटुंब. सारा आजोबाना आप्पा म्हणते. एका अपघातात आप्पांच्या लहान मेंदूला इजा झालेली. त्यामुळे त्यांचा शरीरावर ताबा राहत नाही. आधाराशिवाय उठले तर तोल जाऊन पडण्याचा धोका असतो.  चुकून आप्पा उठलेच तर सगळ्यात अगोदर लक्ष असतं ते साराचंच. मग काय, आप्पा उठले, आप्पा उठले असा दंगा करून सगळ्याना सावध करते.

वृंदावन पॅराडाइजमध्ये तीन विंग्ज आहेत. मध्ये मोठे ग्राउंड आहे. बाजूला क्लब हाऊस व छोटासा स्विमिंग टॅंक आहे. त्या ठिकाणी एखादा छोटा कार्यक्रम असला की समोरच्या ग्राउंडवर मंडप घालून केला जातो. असाच एक कार्यक्रम होता. मंडपवाले मंडप घालण्यात व्यस्त होते. सारा, सुहानी आणि त्यांचे दोन मित्र तेथे खेळत होते.

त्याच इमारतीवर जिथं जागा मिळेल तिथं काही कबुतरेही आहेत. त्यातील एक कबुतर मंडपाच्या आधारासाठी लावलेल्या बा़ंबूवर येऊन बसले. आजारी असल्यासारखे दिसत होते. थकलेलं वाटत होतं. खेळत असलेल्या साराचं लक्ष त्याच्याकडं गेलं.

तिथंच साराच्या वडीलांचे मामा व आणखी दोघे खुर्च्या टाकून बसले होते. सारानंच आणून दिलेले पाणी पीत होते.

“मामा, त्या कबुतरालाही तहान लागलीय. त्याला पाणी हवंय.” कबुतराला पाहून सारा म्हणाली.

“मग दे ना आणून.” असं मामा म्हणाले आणि सगळ्यानी हसण्यावारी नेलं.

साराही खेळण्यात दंग झाली असं सर्वांना वाटलं. पण तीचं लक्ष त्या कबुतराकडं होतं.

अचानक सारा “ओ सिक्युरिटी काका, ओ सिक्यूरिटी काका इकडे या” अशा हाका मारू लागली. तिला कुणी काहीतरी काम सांगीतलं असेल असं वाटून बसलेल्यानी ऐकून सोडून दिलं. सारा स्विमिंग टॅंक कडं गेली. सिक्युरिटी काका पण गेटवरून हलले नाही.

पुन्हा तशीच हाका मारत सारा आली. आता मात्र ती चिडलेली दिसत होती.

“सिक्यूरिटी काका लवकर या ना. तुम्ही काय कबुतराला मरून देणार आहात काय?” असं सारा वैतागून म्हणताच सिक्यूरिटी काका धावत गेले तर त्याना ते कबुतर स्विमिंग टॅंकमध्ये पडलेले दिसले. कोरोनामुळे कोणी पोहत नसल्याने त्यात पाणी थोडे कमी होते. तहानेनं व्याकुळ झालेल्या त्या जीवाने पाण्यासाठी टॅंकमध्ये झेप घेतली होती पण बाहेर यायला त्याला किनारा सापडत नव्हता. आणि त्याला पायऱ्याही नव्हत्या.

सिक्यूरिटी काकानी कचरा काढण्याच्या जाळीने कबुतराला अलगद बाहेर काढले आणि साराच्या चेहऱ्यावर हसू खुलले. एका पक्ष्याचा जीव वाचवल्याचे समाधान तिच्या डोळ्यात दिसत होतं.

©  श्री गौतम कांबळे

सांगली

९४२१२२२८३४

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शोध शांततेचा ….. ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी

सौ. दीपा नारायण पुजारी

☆ विविधा ☆ शोध शांततेचा ….. ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

अलीकडं घरी आम्ही दोघेच असतो.हे सकाळी दवाखान्यात जातात.  त्यानंतर साधारणपणे मी एकटीच असते.त्यामुळे माझ्या दुपारवर कोणाचाही हक्क नसतो. आजही मी एकटीच दिवाणवर लोळत पडले होते. दाराची बेल वाजली. कोण बाई एवढ्या ऊन्हाचं? असं म्हणत मी दार उघडलं. दारात एक तरुणी उभी होती.

‘हाय’ ती घुसलीच घरात.

माझ्या कपाळावरील आठ्या बघून सुध्दा ती हसत हसत गळ्यातच पडली.

‘कोण तू?’ मी घुश्शातच विचारलं. (खरंतर अगोचर म्हणायचं होतं. पण जीभ आवरली.)

तोपर्यंत ती बया हातपाय पसरुन सोफ्यावर पसरलीही!

मोठ्यानं हसून म्हणाली, ‘बघ, विसरलीस ना मला?’

‘छे बाई, काय ते गडगडाटी हसणं? असं का हसतं कुणी?’

आत्तापर्यंत माझं निरीक्षण पूर्ण झालं होतं.

उंच, शेलाटी, जाड- जाड दोन लांब वेण्या; त्याही पुढं घेतलेल्या! बॉटल ग्रीन बेलबॉटम, डबल कॉलरचा लाईट पिस्ता कलरचा थोडा ढगळा टॉप,

कानात छोटे छोटे स्पिनर्सवाल्या डुलणाऱ्या रिंग्ज. . . . . ‌ .   अं . . . अं. . . . अं. . ही तर. .

‘बरोब्बर अगं मी तूच. . ती. .  ती कॉलेजमधली दीपा’.

टाळीसाठी लहानसा हात पुढं आला. मीही टाळी दिली.

‘काय हा अवतार दीपा? साडी, टिकली, बांगड्या,.. . ‘

या वाक्याकडं  दुर्लक्ष करून स्वयंपाकघरात जाता जाता मी विचारलं. . . ‘कॉफी?’

‘पळ्ळेल. . . ‘

आता मी ही हसत हसत आत वळले.

ती केंव्हाच ओट्यावर चढून पाय हलवत बसली.

‘हे काय नेसकॅफे? ब्र्यू नाही? ‘

‘नाही गं, ह्यांना ब्र्यू नाही आवडत.’

‘हो क्का? ‘

मग ओट्यावर बसूनच कॉफी चे घुटके घेत भरपूर गप्पा झाल्या.

कॉलेजच्या दीपाला मी निरखत राहिले. मला ती न्याहाळत होती. अल्लड, अवखळ, निरागस, दीपा. ठाम पण शांत दीपा. साधी, सरळ तरीही मैत्रिणींच्या घोळक्यात राहणारी, डोळ्यात सुंदर, निरामय, साधीशी स्वप्नं. . .

तेव्हढ्यात करकचून ब्रेक लागल्याचा आवाज आला. लोकांचा गलका ऐकू येऊ लागला. आरडाओरडा, गाड्यांच्या हॉर्नचे कानठळ्या बसवणारे आवाज. . . . दोघींनीही कानावर हात ठेवले. ती तर कपाळावर आठ्यांच जाळं घेऊन, हातात डोकं खुपसून बसली.काही वेळानंतर आवाज थोडे कमी झाले.

‘काय ग, असल्या कोलाहलात कुठं घेतलंस घर?’

‘विसरलीस तुला हवं होतं शांत, रमणीय परिसरात छोटंसं घर. कुठं आलीस तू? ‘

‘हं. हे डॉक्टर आहेत ना! मध्यवर्ती ठिकाणी बरं पडत त्यांच्या व्यवसायासाठी.’ मी पुटपुटले.

‘एवढ्या कलकाटात! बापरे!!. कल्पनाच करवत नाही.

‘सोप्पं जातं त्यांना. खाली दवाखाना वर घर.मुलांनाही शाळा-कॉलेज जवळ. भाजी मार्केट दोन मिनिटांवर.’

‘काय म्हणतेयस ऐकूही येत नाही नीट.’

‘असू दे ग.’

‘काय? क्क क्क काय….? रस्त्यावरचे आवाज पुन्हा वाढले बघ. धन्य आहेस बाई तू. तूच बैस इथं तुझं घर सांभाळत. मी कलटी घेते.’ बाय बाय. करत ती निघूनही गेली. मी दीपा..  दीssपा.. अशा हाका मारत राहिले.

पण ती कधीच जीना उतरुन पळाली.

मी मात्र सोफ्यात विचार करत बसले. बरोब्बर बोलली ती. तेच तर स्वप्न होतं. लहान असलं तरी चालेल, घर हवं शांत वसाहतीत, गर्दी पासून दूर.. खरंच राहूनच गेलं…

कितीदा बोलूनही दाखवलं ह्यांना की एखाद्या कमी वर्दळीच्या जागी घर होतं मनात माझं, स्वप्नातलं, इवलंसं. इथला रस्ता सकाळी सहा वाजल्यापासूनच बोलू लागतो. गाड्यांची खडखड, हॉर्न ची पीं पीं, सायलेन्सर काढलेल्या बाईक्सचा कर्णकर्कश आवाज. या सगळ्यात पक्ष्यांची किलबिल ऐकू येतच नाही. हलक्याशा झुळूकीनं डोलणाऱ्या पानांची सळसळ वाऱ्यावर विरुन जाते. रेडिओ टीव्ही मोठ्या आवाजात कोकलत असतील तरच कान वेधतात. हा वर्दळीचा रस्ता रात्री बारा वाजेपर्यंत वहात असतो. कर्णकटू सूरात वेडेवाकडे आलाप? गात असतो. ओरडत असतो. मनातलं शांतता वाटणारं घर दूर राहिलंय. हरवून गेलंय. बांधायचंच राहून गेलं… राहूनच गेलं.

 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

मो.नं. ९६६५६६९१४८

Email:  deepapujari@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 78 ☆ औरत ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “औरत। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 78 ☆

☆ औरत ☆
तस्लीम करो उस औरत की

जिसने तुम्हें जनम दिया

इबादत करो उस औरत की

जिसने तुम्हें संग दिया

मोहब्बत करो उस बेटी को

जिसने तुम्हारा नाम किया

दुआ करो उस औरत के लिए

जो तुम्हारे साथ काम किया

देखो जब कोई भी औरत को तो सोचो

किन-किन पहाड़ों को उसने लांघा है

कैसे तिनके-तिनके को इकठ्ठा कर

उसने अपने जीवन को बांधा है

 

आरज़ू नहीं कि तुम साथ चलो-

बहुत है तुम्हारा याद करना ही!

देखो, उसे – उसे कोई गुमान नहीं!

 

अभी तो इस औरत को पर खोलना है,

 

‘गर तुम्हारी आँखों में सुकून होगा-

गुरुर होगा उसे अपनी उड़ान पर भी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अमीरी  [2] पैकेज ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “अमीरी “एवं “पैकेज”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अमीरी  [2] पैकेज ☆

[1]

अमीरी 

एक लग्ज़री कार—नकदी— जेवर- अच्छा फर्नीचर, अमीर घराने में लड़की ब्याहने में करोड़ सवा करोड़ तो लगेंगे —इतना तो कर सकेंगे न?

दलाल हो क्या जो लड़का पार्टी का गुणगान कर रहे हो ?

मुझे वर नहीं खरीदना है, कितना कमीशन तय हुआ था?

लड़की के पिता ने अमीरी ठुकरा दी।

 

[2]

पैकेज  

‘सुनती हो, लड़का विदेश में है। अठारह लाख का पैकेज है,कहो तो बात चलाऊं’?

‘हमारी लड़की का चौबीस का है, पच्चीस का हो तभी बताना, अभी तो न न न है।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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