हिन्दी साहित्य – रंगमंच/सिनेमा ☆ मुंबई में “का बा” के गीतकार – डॉ. सागर ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

 ☆ रंगमंच/सिनेमा ☆ मुंबई में “का बा” के गीतकार – डॉ. सागर ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

पिछले वर्ष मुंबई में “का बा” यह गीत मशहूर हुआ. यह गीत प्रसिद्ध अभिनेता मनोज बाजपेयी ने गाया और उन्हीं के उपर फिल्माया गया. यह गीत भोजपुरी भाषा में हैं. परंतु यथार्थवाद और सामाजिक संघर्ष की कहानी व्यक्त करने में स्वयं ही सक्षम हैं. सिनेमा भी साहित्य की तरह एक संरचना हैं. डाँ.सागर सिनेमा, गीत और साहित्य के इंद्रधनुष  हैं. बॉलीवुड में बलिया, उत्तरप्रदेश से आकर डा. सागर अपने गीतों मे तितलियों के रंग भरते हैं और उन्हे बेचने के लिये वे जे.एन.यु. से बॉलीवुड आ जाते है. डॉ. सागर के दादी का यह सपना उनके दिल की धड़कन बन जाता है और बॉलीवुड  पर छा जाता है, यह गीतों का सपना श्रेया घौषाल से लेकर तमाम महान गायको की आवाज से गूँजता हैं. शोरगुल की इस मायानगरी मे डॉ. सागर एक अजूबा गीतकार है. डॉ सागर का यह सफर किसी फिल्मी कहानी सें कम नही है.

साहित्य का सौंदर्य और तहजीब अगर गीतो से बरसने लगे तो सावन में भी आग लग जाती है. बंम्बई के उम्मीदों की उँची इमारतें और नंगे पांव चलने वाले रास्ते अपनी मंजिल तक पहुँच ही जाते है. मगर उनके इस पसीने में भी मजनू के मैले कुर्ते से साहिरवाली खुशबू आती है. यथार्थवाद और छायावाद के फूल कोरे कागज पर उमड़ते हैं. लोक जीवन प्रतीक और बिंबो मे जाम की तरह छलकता है. डॉ. सागर के गीत समाज के संघर्ष को किनारा देते है. सामान्य मनुष्य की आवाज को बुलंदी तक पहुँचाता है. यह हकीकत वे इस तरह अपने गीतो मे बयां करते हैं — “ख्वाबों को सच करने के लिये तितली ने सारे रंग बेच दिये”, “ख्वाबों की दुनिया मुकम्मल कहाँ है, जीने की ख्वाइशों में मरना यहाँ है”. “बॉलीवुड डायरीज” इस फिल्म ने उन्हे बतौर गीतकार एक पहचान करा दी हैं, नहीं तो बॉलीवुड में अक्सर यह कहते सुना हैं की ज्यादा गुलज़ार बनने की कोशिश मत कर. लेकिन इसका एक अर्थ यह है की बॉलीवुड सें उर्दू का प्रभाव कम करने में पंजाबी, भोजपुरी और मराठी संस्कृति तथा टॉलीवूड भी सफल रहा है. भारतीय फिल्मों पर अपनी अमिट छाप डाल रहे है. इस माहौल मे डॉ.सागरजी के गीत भोजपुरी तडका लगा रहे है. ये नया दौर है, ये नये जमाने की नयी आवाज है, ये बॉलीवुड को नयी डायरी लिखने के लिये मजबूर करेगी.

दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह हैं की बंम्बई मे का बा ! इस गीत ने एक बडा इतिहास रच दिया हैं. इस गीत को मशहुर अभिनेता मनोज वाजपेयी ने गाया है और उनके उपर चित्रित किया गया है. इस गीत ने मुंबई के जीवन को सही मायनों मे शब्दांकित किया हैं. रोटी, कपडा और मकान के चक्कर मे हम मुंबई आकर हमारा असली जीवन भी भूल जाते हैं. पैसे कमाने की इच्छा ने मुंबई हमसे क्या क्या नही छीनती? लोकल पकडने की भीड और होड में हम हमारे चेहरे भी भूलते है. यहाँ वडा पाव खाते समय गांव की रोटी आंसुओ के साथ याद आती हैं. यह करते वक्त कभी आतंकी हमले को भी सीने पर झेलना पडता है. जान जाती हैं फिर भी दूसरे दिन जिंदगी को पटरी पर लाना आवश्यक होता है. यही मुंबई है. यही अहसास डाँ.सागर फिल्मों की चकाचौंध मे भूले नही है. मुंबई का यह तथ्य इस गीत में उजागर होता हैं. मुंबई एक राक्षस की तरह हैं जो लोगों का पेट तो भरती है मगर उनके सपने निगल जाती हैं. यहाँ लोग पसीने से अपनी प्यास बुझाते हैं. मुंबई पर आज तक बहुत सारे गीत बने होंगे परंतु मुंबई का ऐसा तीखा, दिल को चुभनेवाला दर्द शायद ही कोई बयां कर पाया हैं. यह अदभुतवाद और यथार्थ का अनोखा संयोग है. यू.पी और बिहार से जो प्रवासी मजदूर है ज्यादातर उनकी यह कहानी हैं. यह कहानी आपको फुटपाथ पर और मुंबई के हर गलीं में या हर सडक पर दिखाई देगी. भूंख, प्यास बुझाने के चक्कर मे जिस्म की खरीद फरोख्त कब शुरु हो जाती है, इसका अहसास भी नहीं हो जाता. मुंबई की अपनी एक दुनियां हैं. इस दुनिया के रंग निराले हैं, किसी किसी के ही पकड में आते हैं. इसकी दिवाली अलग है तो इसकी होली भी. हाल ही में डाँ. सागर का और एक गीत मशहूर हो रहा है “बबुनी तेरे रंग में”. होली के रंग मे रंगने का यह एक नया अंदाज है. लोक जीवन के व्यवहार को पर्दे पर अंकित करने का काम बखूबी फिल्मे निभाती हैं. काव्य तथा गीत लोकजीवन का आधार होता हैं और गीत भारतीय फिल्मों का अहम् हिस्सा है. गीतो के बिना फिल्मे अधूरी होती है. वह फिल्म की आत्मा होती है. यह सुर डा. सागर के गीतो की लय है. गीत ही फिल्म की असली पहचान करा देते है. वे फिल्मों को सामर्थ्य प्रदान कराते है.

डा. सागरजी के जीवन के तीन प्रमुख पडाव है, बलिया, जे.एन.यू. और बॉलीवुड. अक्सर तीनों का प्रभाव आपके गीतों पर पडता दिखाई देता है. सितारों की तरह आकाश में झिलमिलाता है. ये गीत बॉलीवुड को प्रकाशित करते है.

डा. सागर जी का यह गीतों का सफर चलता रहे. न रुकने वाला एक कारवाँ बने यह कामना व्यक्त करती हूँ. डा. सागरजी में वह काव्य प्रतिभा है की उनके गीत इस मायानगरी को पुलकित करते रहेंगे.

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 82 ☆ उसकी खोज ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावपूर्ण रचना  “उसकी खोज….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 82 ☆ उसकी खोज…. ☆

 

दिन के उजाले में अपनी परछाई देखी,

चांद दिखा ‌अंबर‌ में और पानी में ‌छाया।

तपती दोपहरी में एक मृग मरीचिका सी,

गली गली में भी मैं उसे ढूंढ नहीं पाया ।

 

मंदिरों में खोज रहा मस्ज़िदों में झांक रहा,

गिरजों गुरद्वारों में उसे ही पुकार रहा।

देता अजान रहा और पढ़ता कुरान रहा।

घंटे घड़ियाल बजा मैं गाता रहा आरती।

 

भाग‌ रहा जीवन भर मन में अहसास लिए,

फिर भी ना‌‌ पकड़ पाया परछाई ‌भागती ।

उसको मैं जान रहा उसको ही‌ मान रहा,

कभी उसे देखा नहीं ना उससे पहचान थी।

 

अपनी आंखों‌ में दर्शन की चाह‌ लिेये,

रहा‌ हूँ भटकता मैं ढूंढ ढूंढ हार गया।

ढूंढ ढूंढ बाहर मैं थक कर निढाल हुआ,

खुद के भीतर ‌झांका तो उसे वहीं पाया ।

 

मन की आंखों से जब मैंने उसे देखा

छलक पड़े दृगबिंदु मन में वो समाया ।

अंतर्मन में ‌जब‌ होकर‌ मौन देखा,

आओ बतायें तुम्हें कहां कहां पाया।

 

सबेरे की‌ भोर में झरनों के शोर में

सागर की‌ हलचल, नदियों की‌ कलकल में।

चिड़ियों के गीत में जीवन संगीत में,

बच्चों की‌ क्रीड़ा में ‌दुखियों की ‌पीडा़ ‌में,

दीनो ईमान में सारे जहान में सारे जहान में,

डाल डाल पात पात फूलों की रंगत में,

जहां जहां नजर पड़ी उसको ही पाया।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३९॥ ☆

 

इत्य आख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा

त्वाम उत्कण्ठोच्च्वसितहृदया वीक्ष्य सम्भाव्य चैव

श्रोष्यत्य अस्मात परम अवहिता सौम्य सीमन्तिनीनां

कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः संगमात किंचिद ऊनः॥२.३९॥

 

सुन इस तरह ज्यों कि सीता पवन पुत्र

के प्रति प्रफुल्लित तुरत मुंह उठाकर

तुम्हें देखकर और सत्कार कर मित्र

होगी परम मुग्ध विष्वास पाकर

सुनेगी बडे ध्यान से सौम्य सारा

है शंका न इसमें तनिक और क्यो हो

स्वप्रिय का संदेशा परम मित्र के मुख

मिलन से न कुछ न्यून है नारियों को

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साधू ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

☆ कवितेचा उत्सव ☆ साधू ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

कल्पतरूच्या छायेखाली दिसला साधू

देवपणाचे दान मागुनी फसला साधू

कफनी अंगी जटा बांधल्या डोईवरती

परंपरांचे खूळ माजवत बनला साधू

 

चिलीम छापी घेऊन हाती भरला गांजा

झुरक्यावरती मारीत झुरके गुतला  साधू

ध्यानधारणा करून खोटी मजा मारतो

देवासंगे मारत बाता‌ बसला साधू

 

भाळावरती  नाम ओढला वैराग्याचा

जग फसल्यावर मनात त्याच्या हसला साधू

गंडवण्याला समाजातले दुवे शोधले

माणसातल्या अर्धवटांवर टपला साधू

 

शृंगाराची नामी संधी आली तेव्हा

शिष्यामधल्या मासोळीतच रमला साधू

सत्व कोठले तत्व कोठले दिसले  नाही

ढोंग माजवत आयुष्यातून उठला साधू

 

थाटमाट तर भव्यपणाचा मठात त्याच्या

बडवत डंका चौमुलखावर  फिरला साधू

मंबाजीच्या जातकुळीची ब्याद निपजली

मग लोकांनी उखळा मध्ये कुटला साधू

 

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बेलगाम सत्य ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

☆ कवितेचा उत्सव ☆ बेलगाम सत्य ☆ सौ. सुजाता काळे ☆

जगण्याच्या शर्यतीत धावत होतो,

मरणाच्या वारीस ढकलीत होतो;

कैफियत मांडली लोक दरबारी,

मी शाश्वत सत्यास तुडवित होतो.

 

केल्या कैक मैफिली सुरेल गाण्याचा,

आनंद निरागस शोधित होतो;

सुकलेले गजरे चुरगळले जेव्हा,

मी माज देहाचा उतरवित होतो.

 

हारलो स्वजनांचे चोचले पुरवित,

आभास मृगजळाचा लपवित होतो;

संपलेल्या रात्री शोधल्या पहाटे,

मी हरवलेले क्षण मोजित होतो.

 

भावुक झालो आतुरल्या नात्यात,

प्रतारणेत वेदनेच्या वाहत होतो;

नव्हतेच माझे कळल्यास जेव्हा ,

मी सत्यास बेलगाम दौडवित होतो.

© सुजाता काळे
 8/8/19

पाचगणी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

sujata.kale23@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – निशाणी ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – निशाणी ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

खूपच रात्र झाली होती. थंडीचे दिवस होते. सगळीकडे शुकशुकाट होता. बराच उंच आणि लांबलचक असणाऱ्या त्या पादचारी पुलावरून जातांना आता मला खरंच पश्चात्ताप होत होता. माझ्या बॅगेत माझ्या सरकारी ऑफिसची अडूसष्ठ हजारांची रक्कम होती. ऑफिसमधून निघायला खूप उशीर झाला होता, त्यामुळे घरी लवकरात लवकर पोहोचण्याच्या नादात या सुनसान रस्त्याने जाण्याचा मोह मी आवरू शकलो नव्हतो, कारण हा शॉर्टकट होता. इतक्या कडाक्याच्या थंडीतही माझ्या चेहऱ्यावरून घाम ओघळत होता– पण तो घाईघाईने पायऱ्या  चढत असल्यामुळे, की घाबरल्यामुळे हे सांगणं कठीण होतं. अंगातला कोटही काढून फेकून द्यावा असं वाटत होतं. त्या अवस्थेतच मी नकळत मागे वळून पाहिलं, आणि माझ्या चालण्याचा वेग आणि हृदयाची धडधड जास्तच वाढली. त्या धूसर अंधारात मला दिसलं की ओव्हरकोटसारखं काहीतरी घातलेला एक उंचापुरा माणूस त्याच पुलावरून चालत येत होता. ” बाप रे ! मेलो आता — नक्कीच हा एखादा लुटारू असणार. माझ्याकडे बरीच रोकड आहे हे नक्कीच कळलेलं असणार त्याला. देवा.. आता काय करू मी?”  माझा चालण्याचा वेग आणि भीती दोन्हीही वाढायला लागलं होतं. घाम निथळायला लागला होता…” हा पूलही किती लांबलचक आहे. या निर्मनुष्य पुलावर हा आरामात लुटेल मला. पण एकवेळ लुटलं तरी चालेल, कारण पैसे माझे नाहीत , सरकारचे आहेत. मी पोलिसात तक्रार दाखल करीन — किंवा  काहीतरी करून ऑफिसमध्ये पैसे भरून टाकीन— पण याने चाकूने भोसकून माझी आतडी बाहेर काढली तर ?– हेही शक्यच आहे. मला मारून टाकून माझ्या जवळची बॅग पळवणे हे तर जास्तच सोपं असेल त्याच्यासाठी — ठीक आहे— देवाच्या मनात जे असेल ते होईल– पुष्पाला  माझ्या जागेवर नोकरी मिळेल– पण मग मुलांचं काय? किती लहान आहेत अजून ती. त्यांचं कसं होईल? “– माझा जीव कंठाशी यायला लागला होता. जे अजून घडलेलं नाही, ते घडण्याच्या शंकेने- भीतीने माझे मन आणि विचार कुठून कुठे पोहोचले होते.

अजून तो माणूस माझ्या जवळ आल्याची चाहूल लागत नव्हती, म्हणून मनाचा हिय्या करून मी मागे वळून पाहिलं—-” अरे याच्या हातात हे काय आहे ? ओह–“. ‘ हुश्श ‘ करत मी एक मोठा श्वास घेतला. ” याच्याकडे मी नीट पाहिलच नव्हतं की –“. माझ्या जिवात जीव आला. एकदम मला खात्री पटली — हृदयाची धडधड थांबली — ” हा चोर – डाकू असू शकत नाही– शकत नाही काय– नाहीच आहे. ”

—- त्याच्या हातात टिफीन होता …. तीन चार पुडांचा जेवणाचा मोठा डबा —- ही तर कष्टकरी माणसाची निशाणी आहे — ‘ टिफीन‘. चोर लुटारू यांची नाही.

तो अजूनही माझ्या मागेच होता. पण माझ्या विचारांमधून मात्र झटदिशी खूप लांब निघून गेला होता.

 

मूळ हिंदी कथा : श्री संतोष सुपेकर

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ एक रस्ता  आ s हा, आ s हा ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

 ☆ विविधा ☆ एक रस्ता  आ s हा , आ s हा  ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

मंडळी  नमस्कार ?

आज एक वेगळा विषय मांडतोय.( जरा निवडणूक रणधुमाळीतून थोडासा बदल समजा.)

‘प्रवास’  हा  अनेकांचा आवडता विषय असतो. अनेक जण अनेक प्रकारे प्रवास करतात. कुणी रस्त्याने , कुणी रेल्वेने तर कुणी हवाई प्रवास करतात. पण असे काही मार्ग असतात की त्या खास मार्गावरून जायला प्रत्येकाला कधीच कंटाळा येत नाही.  रोजच्या कामाच्या ठिकाणी वगैरे जायचा हा मार्ग नाही बरं का ! ( तिथे तर मनात असो नसो जावंच लागतं.)

असा मार्ग, जो केव्हाही जा, कधी ही जा फक्त आनंदच देतो.

तर मंडळी, माझ्यासाठी  सारखा सारखा प्रवास करावासा वाटणारा, कधीही कंटाळवाणा न वाटणारा एक रस्ता आहे .  माझ्या घरा पासून ते मुक्कामाचे ठिकाण असा हा मार्ग साधारण १३० किमीचा आहे. आणि दोन एक महिन्यातून एकदा तरी या मार्गावरून  गेल्या शिवाय मला चैनच पडत नाही.?

हा मार्ग चार टप्य्यात मी विभागलाय .  माणसाच्या कशा साधारण चार अवस्था असतात १)बाल २) कुमार ३) तारुण्य आणि ४) वार्ध्यक्य

(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)

तशाच माझ्या मार्गाच्या ही ? ?या चार अवस्था आहेत.

साधारण ३०- ३५ किमीचे  प्रत्येक टप्पे . प्रत्येक टप्पा पार करायला लागणारा वेळ ३० मिनिटे. असा हा दोन तासाचा प्रवास.

तर घरातून निघालो की पहिला टप्पा, बाल्य: जशी लहानपणी आपली बालसुलभ भावना असते , एक आनंद , उत्साह , थोडीशी हुरहूर प्रवास कसा होईल याबाबत थोडी भिती. असा हा पहिला टप्पा.

पहिल्या टप्प्याचा काही कि.मी. शिल्लक असताना  लागणारे दोन बोगदे जणू  वडीलधारी पालक. जाणीव करून देतात की  आता लहान नाहीस, खेळ बास , मजा बास थोडा सिरिअस हो,अभ्यास वाढणार आहे , लक्ष असू दे,

मग  दुसरा टप्पा सुरु –  कुमार . थोडी जबाबदारीची जाणीव , झालेल्या चूकाातून शिकणे . गाडीच्या वेगावर नियंत्रण , ब्रेक न दाबता समोरून आरामात चालना-या गाडयांना ओलांडून पुढे कसे जायचे , मागून येऊन किरकिर कारणा-या गाडयांना पुढे सोडणे , योग्य वेळी योग्य गियर , असे करत करत  , थोडासा अॅरोगंटपणा पण वाढत्या जबाबदारीच्या जाणीवेने हा २५-३० किमीचा  अवघड वळणाचा , घाटाचा टप्पा पार करत क्षणभर विश्रांती साठी थांबणे. हा टप्पा पार करे पर्यत अनेकांच्या डोक्याला झिणझिण्या येऊन  अगदी अमृतांजन लावावे असे वाटण्यासारखी परिस्थिती.

चहा नाश्टा करून मग तिस-या टप्प्याला सुरवात करायची .

त्यामानाने हा टप्पा जास्त  सुखकारक  रस्ता,  परिसर, गाडी यावर अगदी व्यवस्थित कंट्रोल आलेला असतो. जणू जीवनात आता रुटीन सेट झाले आहे. मस्त पैकी पाचवा गिअर टाकून एका वेगात गाडी जात आहे . फक्त आपल्या समोरच्या लेन मधून हळू जाणा-या गाडयांना शिताफने चुकवून, न कळत , अलगद , न दुखावता, हाँर्नचा आवाज न करता त्यांना ओलांडून पुढे जाऊन परत आपल्या मूळ लेन मध्ये लागणे, अतिशय घाई असणा-यांना आपला वेग कमी न करता पुढे जाऊ देणे.

बस “गोल्डन टाइम ” हाच

चौथा आणि शेवटचा टप्पा  मुक्कामाचे ठिकाण घेऊन जाणारा. नाही म्हणले तरी एक दिड तासाच्या प्रवासाने थोडासा कंटाळा आलेला असतो. मुक्कामाच्या ठिकाणी पोचण्या आधी पुढे किती ट्रॅफिक जाम असेल याची चिंता  लागते, कसं होणार ? केव्हा पोहोचणार ? या विचाराने मनात काहूर माजलेले असते. जणू हा वृद्धत्व / निवृत्ती असा हा टप्पा . जे जे होईल ते ते पहावे अशी नकळत विचारसरणी करून देणारा हा टप्पा .

अंमल उदासीनपणे , वाट बघ बघत , ज्या नियोजित वेळेला पोहोचू असे वाटत असते त्या वेळे पेक्षा थोडा उशीर करून शेवटी आपण मुक्कामाला पोहोचतो

मंडळी  असा माझा हा प्रवासाचा आवडता  रस्ता आणि चार टप्पे.  कसा वाटला?

अरे हो  आता तो रस्ता कुठंला हे सांगणे ही एक फॉर्मेलीटी. कारण हा कुठला रस्ता हे

ब-याचजणांनी ओळखलं असेलच.

ज्यांनी ओळखलं नाही त्यांना सांगतो,

हा माझा आवडता रस्ता  आहे तो # मुंबई- पुणे मेगा हायवे . आणि प्रवासाचा मार्ग  बेलापूर ते कोथरूड

पहिला टप्पा-   घर ते – खालापूर टोल नाका

दुसरा टप्पा- खालापूर टोल नाका ते  – लोणावळा .

तिसरा टप्पा – लोणावळा  ते तळेगाव टोल नाका

चौथा टप्पा – तळेगाव टोल-कात्रज बाय पास – ते -कोथरूड

मंडळी पण ही मजा फक्त मुंबई – पुणेच बरं का ! परतीची

पुणे – मुंबई अशी मजा नाही. कारण एक तर पुण्याहून आम्हाला निघायलाच नको वाटतं आणि मगाशी जे बाल, कुमार,तारुण्य , वार्धक्य या अवस्था किंवा धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष असं जे म्हणलं तो मोक्ष आम्हाला परत येताना  पुण्यातील मित्रांनी दिलेल्या  बाकरवडी आणि आंबा बर्फीने केव्हाच मिळालेला असतो.

त्यामुळे आम्ही परतीचे राहिलेलोच नसतो?

मेगा हायवेवर अखंड पणे

राबणा-या  परिचित अपरिचित सर्वांना सदर लेखन समर्पित

©  श्री अमोल अनंत केळकर

०९.०४.२०१९

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग – २५) – ‘चैत मासे’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग – २५) – ‘चैत मासे’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

होळीच्या निमित्तानं ‘होरी’विषयी लिहिताना जे लिहिलं होतं कि, लोकसंगीतातील जे प्रकार शास्त्रीय संगीताच्या आधारे सजवता येऊ शकतील ते अभ्यासू संगीतज्ञांकडून ह्या गायनशैलीच्या प्रवाहात आणताना ‘उपशास्त्रीय’ संगीताची एक धारा आपोआप निर्माण झाली असावी. त्यातच ‘चैती’ हा एक प्रकार येतो. नावांतच दिसून येतं त्यानुसार नुकत्याच सुरू झालेल्या चैत्र महिन्याशीच ह्या गीतप्रकाराचं नातं जोडलेलं आहे. पूर्वीच्या काही लेखांमधे आपण पाहिल्यानुसार विविध प्रकारच्या आवाजांतून विविध भावना व्यक्त करणं ह्या मानवाच्या सहजस्फूर्त आणि निसर्गप्रेरित गोष्टींत संगीताचं मूळ दडलेलं आहे. नंतर त्याला भाषाज्ञान प्राप्त झाल्यानंतर बुद्धिमान मानवाकडून जे सृजन होत राहिलं ते लोकसंगीताचं मूळ! मात्र निसर्गाशी मानवाचं जोडलेलं असणं ह्या सगळ्यातच दिसून येतं.

सर्वच प्रकारच्या ज्ञानाच्या कक्षा रुंदावत गेल्या तसं आज आपण ‘शास्त्रीय’, ‘उपशास्त्रीय’ ‘सुगम’ इ. संगीतप्रकार, त्यांची नावं, सादरीकरण शैली वगैरे गोष्टी पद्धतशीरपणे शिकू शकतो आहोत, अभ्यासू शकतो आहोत. मात्र जेव्हां ह्याच्या निर्मितीचं मूळ शोधत जातो तेव्हां पुन्हापुन्हा एकच जाणवतं कि, क्षण साजरे करण्याची मानवी मनाची उर्मी आणि निसर्गचक्रात येणाऱ्या बदलांचा मागोवा घेत त्यानुसार मानवी मेंदूनं चतुराईनं आपलं जगणं आणखी सुंदर करत जाणं हेच हाती लागलं.

नवीन वर्षाची सुरुवातच ह्या चैत्र महिन्यानं होते. ह्यावेळी वातावरणात उल्हास जागवणारा वसंत ऋतू अवतरत असतो. त्याच्याच खुणा म्हणजे कोकिळकूजन, वृक्षवेलींना फुटणारी नवी पालवी, फुललेल्या फुलांनी बहरलेले बगिचे, मोहरलेले आम्रतरू… हे सगळं वर्णन आपल्याला चैतीच्या शब्दांमधे आढळून येतं. शिवाय बहुतांशी चैतींमधे ‘हो रामा’ असे शब्दही हमखास आढळतात. अर्थातच हा संदर्भ रामावतारानंतरचा असावा. ह्याचा संदर्भ म्हणजे ह्याच महिन्यात नवमीला असणारी प्रभु रामचंद्रांची जन्मतिथी… रामनवमी! हाही साजरा करण्यासारखा क्षण, त्यामुळंच त्याला संगीतातही सामावून घेतलं गेलं! चैत्र महिन्यातल्या वसंत ऋतूच्या उल्हसित वातावरणाला हे संदर्भ जोडले गेल्यावर ते संगीतातही प्रतिबिंबित झाले, हे चैतीच्या शब्दांतून स्पष्ट दिसतं.

क्वचित काही चैतींच्या शब्दांत कृष्णलीलांचंही वर्णनही आढळून येतं. मात्र मुख्यत्वे चैत्रातलं निसर्गवर्णन हे प्रत्येकवेळीच अंतर्भूत असल्याचं हमखास दिसून येतं. पूर्व-बिहारमधे चैती विशेष प्रचलित असल्याचं आणि ह्यातील काव्य हे मुख्यत्वे ब्रज व अवधी भाषेत असल्याचं आढळून येतं. ह्या एकूणच कालावधीला म्हणजे माघातील शुक्ल पंचमीपासून चैत्रातील वद्यपंचमीपर्यंत वसंतोत्सव मानला जातो. त्यामुळं ह्या कालावधीतील उत्सवांच्या अनुषंगाने येणाऱ्या सर्वच लोकगीतप्रकारात आपल्याला वसंतऋतूचं वर्णन आढळतं. होरी आणि चैत्री ह्या गीतांशिवाय ‘वसंतोत्सवा’वेळी गायले जाणारे आणखी काही लोकगीतप्रकारही आहेत. होळीच्यावेळी बुंदेलखंडात फाग आणि ब्रजमधे रसिया (राधा-कृष्णप्रेमावर आधारित) हे लोकगीतप्रकार आजही गायले जातात.

उत्तर भारतातील ग्रामीण भागांत वसंत व फागगीतांना चॉंचर किंवा चॉंचरी असं म्हणण्याचा प्रघात आहे. त्याचं कारण म्हणजे ह्या प्रकारची बरीचशी गीतं ही ‘चॉंचर’ किंवा ‘चॉंचरी’ तालात गायली जातात. ह्याच तालाचं आणखी एक नांव ‘दीपचंदी’ हे सध्या जास्त प्रचलित आहे. ह्या तालाचा वापर हा विशेषत: वसंत, फाग, होरी, चैती, सावन, सोहर, बधावा, घाटो, पुरबी अशा लोकगीतांमधेच आढळून येतो. पूर्वीच्या काळी चौदा आणि सोळा दोन्ही मात्रांची चॉंचरी किंवा दीपचंदी प्रचलित होती. आता ह्यापैकी चौदा मात्रांचा ताल ‘दीपचंदी’ आणि सोळा मात्रांचा ताल ‘चॉंचर’ म्हणून जास्त प्रचलित आहे. ह्या तालांत आपण बऱ्याचदा ठुमरीही ऐकली असेलच… कारण ठुमरीची उत्पत्तीही लोकसंगीतातूनच तर झाली आहे. ह्या सोळा मात्रांच्या चॉंचर तालालाच आपल्याकडं काही भागात ‘अर्धी धुमाळी’ असंही म्हटलं जातं.

एक रंजक माहिती… चॉंचर किंवा चॉंचरी हा शब्द संस्कृतमधील ‘चर’ धातूपासून उत्पन्न झालेल्या चर्चर ह्या शब्दाचं स्त्रीलिंगी रूप चर्चरी किंवा चर्चरिका ह्या शब्दांचा अपभ्रंश म्हणता येईल. चर्चरी किंवा चर्चरिका ह्या शब्दाचे हर्षध्वनी, हर्षक्रीडा, वसंतक्रीडा, अभिनयपद्धती, ताल, छंद, नृत्य इ. अनेक अर्थ होतात. ह्यानुसार एकूण वसंत ऋतूतील उल्हसित, आनंदमय वातावरणाला शोभेल असं हे नांव ह्या कालावधीत गायल्या जाणाऱ्या गीतांसाठी प्रामुख्याने वापरल्या जाणाऱ्या तालासाठीही वापरलं गेलं असावं.

ब्रज भाषेतील कृष्णभक्तीकाव्यांत गीत, नृत्य व ताल ह्या अर्थाने चर्चरी, चॉंचरी किंवा चॉंचर ह्या शब्दांचा सर्रास उल्लेख आढळून येतो. ह्यावरून असं म्हणता येईल कि, ब्रजप्रांतात चर्चरीगायन व नृत्याची परंपरा बऱ्याच जुन्या काळापासून चालत आलेली आहे.  ई.स. १४५६ मधे मेवाडच्या महाराणा कुंभाच्या पुढाकाराने संगीतराज हा ग्रंथ पूर्ण केला गेला. त्यातही गीत(प्रबंध), छंद, ताल ह्या अर्थाने चच्चरी(चर्चरी)चा उल्लेख आढळून येतो. त्यापूर्वी चौदाव्या शतकात आंध्रचे महाराज वेम ह्यांनी चर्चरीविषयी चर्चा केलेली दिसून येते. त्याआधी तेराव्या शतकातील शारंगदेवाच्या संगीत रत्नाकर ग्रंथामधेही चच्चरीप्रबंध, चच्चरीताल व चच्चरीछंदाचा उल्लेख आढळून येतो. त्याहीपूर्वी म्हणजे बाराव्या शतकात आचार्य जिनदत्त सूरी ह्यांनी रचलेले ‘चर्चरी काव्य’ ही मध्यकालीन जैन साहित्यातील महत्वाची कलाकृती मानली जाते. अगदी प्राचीन संस्कृतसाहित्यातही चर्चरी नृत्य व गीताचं वर्णन आढळून येते.

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  asawarisw@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #4 – कच-देवयानी ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  तीसरी प्रेमकथा  – कच-देवयानी )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #4 – कच-देवयानी ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

शोणितपुर अर्थात आज का सोहागपुर पौराणिक काल की एक जासूसी प्रेम कहानी का गवाह रहा है। महाभारत में यह कहानी विस्तार से वर्णित है। अंगिरस पुत्र बृहस्पति और भृगु पुत्र शुक्राचार्य आश्रमों में प्रतिद्वंदिता थी। देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य रहे हैं। शुक्राचार्य ने घोर तपस्या करके शिव से मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी इसलिए शुक्राचार्य देवासुर संग्राम में मारे गए असुरों को जीवित कर देते थे। इस कारण देवताओं को शर्मनाक पराजय का बार-बार सामना करना पड़ता था। देवताओं के राजा इंद्र और उनके गुरु बृहस्पति ने पुत्र कच को जासूस बनाकर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करने हेतु शुक्राचार्य के शोणितपुर स्थित आश्रम भेजा।

शुक्राचार्य अपने आश्रम में पुत्री देवयानी के साथ रहते थे, जहाँ असुरों का प्रवेश वर्जित था लेकिन आश्रम के बाहर असुर निष्कंटक होकर अत्याचार करते थे। कच शिष्य के रूप में विद्या प्राप्त करने के निमित्त शुक्राचार्य के शोणितपुर स्थित आश्रम पहुँचा तो असुरों ने विरोध किया परंतु आश्रम में शुक्राचार्य की शक्ति के चलते असुर कुछ न कर सके। उन्हें गुरु की ज़रूरत भी पड़ती थी इसलिए वे चुप रहे, परंतु वे कच को मारने की कोशिश में रहते थे। कच को बहुत दिन हो गए परंतु उसे संजीवनी विद्या का कोई अतापता नहीं मिल रहा था।

शीत ऋतु के बाद वसंत का आगमन होता है। पृथ्वी के स्वामी सूर्य की उत्तरायण यात्रा प्रारम्भ हो जाती है याने पृथ्वी दक्षिणी गोलार्ध को सूर्य के सामने से हटाकर उत्तरी गोलार्ध सामने लाने लगती है। उनकी तीखी किरणें ज़मीन को भेदकर पेड़-पौधों की जड़ से सृजन के बीज अंकुरित करने लगती हैं। इसी समय सतपुड़ा के आँचल में फाल्गुन मास में धरती की छाती फोड़कर चटक लाल-पीले पलाश-टेसु और सफ़ेद रंग के महुआ जंगल को रंगीला और रसीला बना देते हैं। आम्र-मंजरी और महुआ की ख़ुश्बू से एक हल्का सा नशा छाया रहता है। जंगल रूमानियत की गिरफ़्त में होता है। एक अजीब सा रसायन ख़ून में उत्तेजना भर देता है। जीव-जंतु मनुष्य सब मस्ती में सराबोर हो प्रेम के प्रदीप्त खेल के वशीभूत होकर प्रणय लीन होते हैं। जीव-जंतु का परस्पर प्रेम ही प्रकृति का अनुपम उपहार है। मनुष्य को प्रकृति के चमत्कार को निहारने, वनस्पति की सुगंध को देह में बसा लेने, पक्षियों के कलरव संगीत से मस्तिष्क झंकृत करने और वायु के महीन रेशमी स्पर्श रूपी इन्द्रिय सुख सर्वाधिक इसी मौसम में प्राप्त होते हैं। इस सुहावने मौसम को वसंत कहते हैं। कामदेव पुत्र वसंत छोटे भाई मदन के साथ मिलकर चर-अचर में उद्दीपन भर उन्हें मस्ती से सराबोर कर देते हैं।

वासंती बयार में देवयानी के हृदय में कच को लेकर प्रेमांकुर फूटने लगे तब कच ने संजीवनी विद्या प्राप्त करने के तरीक़े के बारे में सोचा। असुरों के डर से वह आश्रम की सीमा से बाहर नहीं निकलता था। जब देवयानी के हृदय में कच का वास हो गया और उसे विश्वास हो गया कि देवयानी उसे शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या के उपयोग  जीवित करा लेगी तो वह एक दिन आश्रम की गाय को जंगल में चराने ले गया। असुर देवलोक के उस प्राणी से चिढ़े बैठे थे, उन्होंने अवसर पाकर कच को मारकर नदी में बहा दिया। जब देवयानी ने गाय को अकेले लौटते देखा तो उसे समझते देर न लगी। वह नदी से कच का मृत शरीर आश्रम में लाकर अत्यंत दुखी होकर शुक्राचार्य से उसे संजीवनी विद्या द्वारा जीवित करने का अनुनय करने लगी। कच शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या से जीवित होकर फिरसे आश्रम में विद्या ग्रहण करने लगा। लेकिन जब उसे जीवित किया जा रहा था तब कच मृत अवस्था में था अतः उसे संजीवनी विद्या का पता न चल सका।

कच को यह स्पष्ट हो गया कि संजीवनी तक पहुँचने का रास्ता उसकी मृत्यु और देवयानी के प्रेम मार्ग से होकर गुज़रता है। एक दिन वह रसोई हेतु लकड़ियाँ लाने के बहाने दुबारा आश्रम से बाहर वन में गया। इस बार असुरों ने उसे मारकर नए तरीक़े से उसकी मृत देह को ठिकाने लगाने की योजना सोच रखी थी। उन्होंने कच को मारकर उसके टुकड़े करके जंगली कुत्तों को खिला दिए। जब बहुत देर तक कच नहीं आया तो देवयानी दुखी होकर पिता शुक्राचार्य से उसका पता लगाने की ज़िद करने लगी। शुक्राचार्य ने दिव्य दृष्टि से कच का शरीर कुत्तों के पेट में देखा। उन्होंने संजीवनी विद्या और मंत्रोपचार से कच को पुनः जीवित कर दिया। एक बार फिर जब उसे जीवित किया जा रहा था तब कच मृत अवस्था में था, अतः उसे संजीवनी विद्या का पता न चल सका।

देवयानी कच पर आसक्त होती जा रही थी परंतु कच को संजीवनी विद्या नहीं मिल पा रही थी। शरद ऋतु की पूर्णिमा के दिन कच देवयानी के केशों के लिए सुगंधित पुष्प लेने वन की ओर गया तो असुरों ने उसे मारकर उसकी देह को जला हड्डियों का चूर्ण मदिरा में मिला शुक्राचार्य को पिला दिया कि अब शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर ही कच बाहर जीवित निकल सकता था उस स्थिति में शुक्राचार्य की मृत्यु तय थी, अतः शुक्राचार्य स्वयं का जीवन ख़तरे में डाल कर कच को संजीवनी विद्या से जीवित न कर पाएँगे।

देवयानी पिता और प्रेमी दोनों में से किसी एक को भी खोना नहीं चाहती थी, वह बहुत दुखी हो गई। बाप बेटी ने गहन चिंतन-मनन के बाद तय किया कि शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से कच को जीवित करते हुए उसे मृत संजीवनी विद्या इस तरीक़े से सिखाएँगे कि कच जीवित होकर विद्या का उपयोग कर पाएगा। कच शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर जीवन वापस पाएगा जिसमें शुक्राचार्य की मृत्यु हो जाएगी। कच नया जीवन पाते ही संजीवनी विद्या का उपयोग गुरु शुक्राचार्य की मृत देह पर करके उन्हें जीवित कर देगा।

योजना के अनुसार कच पुनर्जीवित हुआ और शुक्राचार्य भी जीवन पा गए। कच को संजीवनी विद्या प्राप्त हो गई। तब देवयानी ने कच के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। कच अपने पिता बृहस्पति और इंद्र की आज्ञा से असुर लोक में शोणितपुर आया था। उसे देवलोक वापिस जाकर मृत संजीवनी विद्या देवताओं को देना था अतः वह असुर लोक में नहीं रुक सकता था। कच ने देवयानी और शुक्राचार्य को तर्क दिया  कि उसका नया जन्म शुक्राचार्य के पेट से होने के कारण वह और देवयानी भाई-बहन हो गए हैं इसलिए वह देवयानी से विवाह नहीं कर सकता।

जब कच ने देवयानी का प्रेम प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो देवयानी ने क्रोध में आकर उसे शाप दिया कि तुम्हारी विद्या तुम्हें फलवती नहीं  होगी। इस पर कच ने भी शाप दिया कि कोई भी ऋषिपुत्र तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा और तुम अपने पति प्रेम को तरसोगी। महाभारत में ययाति, देवयानी और उसकी सखी शर्मिष्ठा की कथा प्रसिद्ध है। देवयानी के पति ययाति शर्मिष्ठा से प्रेम करने लगे तो वह अपने पिता शुक्राचार्य के पास लौटने को मजबूर हुई थी। ऐसी अनेकों कहानियाँ सतपुड़ा के जंगलों में बसी असुरों की राजधानी शोणितपुर से जुड़ी हैं, लोक मान्यता है कि सोहागपुर के वर्तमान पुलिस थाना जिसे अंग्रेज़ों ने 1861 में बनाया, की नींव असुर राजा बांणासुर  के क़िले पर रखी हुई है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#8 – एडजेस्टमेंट ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हमने प्रतिदिन आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  की थी। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अंतिम लघुकथा  “एडजेस्टमेंट
इस प्रयोग को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से भरपूर प्रतिसाद मिला। इस प्रेरणा से हम कल से लघुकथाओं की एक नवीन श्रृंखला  “औरत ” शीर्षक से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#8 – एडजेस्टमेंट  

उस घर की बहू अलससुबह प्रतिदिन चार बजे उठकर काम से लग जाती है। सब्जी काटती है।आटा गूँथती है। फिर नाश्ते के लिए पराठे और लंच के लिए चपातियाँ।

दो सब्जियाँ, एक प्याज वाली दूसरी बिना प्याज की, दो प्रकार के चावल, एक सामान्य,  दूसरा ब्राउन। उठने पर घरवालों की चाय भी,एक शुगर वाली दूसरी बिना शुगर वाली।

दूध वाले से दूध, दूर से फेंके गये अखबार को उठाकर सही जगह रखना भी साथ में है।

किसी तरह दौड़-भाग कर आफिस पहुचकर सॉंस ले भी न पाती कि साहब का बुलावा आ जाता।

घर वाले कहते हैं – कौन सा तीर मार लेती है?  फिर घर और आफिस के बीच एडजेस्टमेंट दूसरा कौन करेगा?

फिर शादी -बयाह कर लाए किसलिए हैं?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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