हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संपदा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संपदा ? ?

उनके लिए

धन ही संपदा थी,

उसके लिए

सम्बंध ही धन था,

वे सम्बंधों से भी

धन कमाते रहे,

उसे जिनसे कमाना था;

उनसे भी रिश्ते बनाते रहा,

समय का लेखा-जोखा

प्रमाणित करता है;

सम्बंध कमाने वाले,

आत्मीयता से

आजीवन सिंचित रहे,

केवल अकूत सम्पत्ति भर

जुटा सकने वाले पर

सच्ची संपदा से वंचित रहे!

भाईदूज की हार्दिक शुभकामनाएँ

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 53 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 53 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

निगाहों में जो करूणा की सुखद आभा तुम्हारी है

मधुरता ओर कोमलता लिये वह सबसे न्यारी है।।

 

मुझे दिन रात जीवन में कहीं कुछ भी नहीं भाता

तुम्हारी छवि को जबसे मेरे नयनों ने निहारी है।।

 

सलोना और मनभावन तुम्हारा रूप ऐसा है

सरोवर में मुदित अरविन्द-छवि पर भी जो भारी है।।

 

झलक पाने ललक मन की कभी भी कम नहीं होती

बतायें क्या कि उलझे मन को कितनी बेकरारी है।।

 

लगन औ’ चाह दर्शन की निरंतर बढ़ती जाती है

विकलता की सघनता है, विवशता ये हमारी है।।

 

तुम्हारी कृपा की आशा औ’ अभिलाषा लिये यह मन

रंगा है तुम्हारे रॅंग में, औ’ ऑखों में खुमारी है।।

 

सुहानी चाँदनी में जब महकती रात रानी है

गगन में औ’ धरा मैं हर दिशा में खोज जारी है।।

 

उभरते ’चित्र’ मन भाये मनोगत कल्पना में नित

अनेकों रूप रख आती तुम्हारी मूर्ति प्यारी है।।    

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 2 – “इश्क़ हो गया” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है आपके साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश के अंतर्गत आपकी अगली ग़ज़ल “इश्क़ हो गया”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 2 – “इश्क़ हो गया” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

उनकी पुरज़ोर तैयारियों से उसे इश्क़ हो गया है,

अपने अरमानों के लुटेरों से उसे इश्क़ हो गया है।   

 

अब तो दुश्वारियों की  लत सी पड़ गयी है उसे,

बर्बादियों की लगातार आमद से इश्क़ हो गया है।

 

बहुत ख़ौफ़ज़दा है वह मुहब्बत जताने वालों से,

उन की बेपनाह मेहरबानियों से इश्क़ हो गया है।  

 

ग़म का लहराता समुंदर लुभाता है ख़ूब उसे,

ऊँची उठती तूफ़ानी लहरों से इश्क़ हो गया है। 

 

कौन किसके साथ चलता है ख़ुदगर्ज़ ज़माने में,

कुछ काम जब आन पड़ा तो इश्क़ हो गया है। 

 

पहाड़ों पर चढ़ने पर साँस फूल जाती है उसकी,

उसे उतरती उम्र की फिसलन से इश्क़ गया है।

 

दो झटके खा चुका है उसका नादान सा दिल,

धीमी पड़ती दिल की धड़कन से इश्क़ हो गया।

 

कब आएगी कभी न छोड़कर जाने वाली महबूबा,

“आतिश” को उसी नाज़नीन से इश्क़ हो गया है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था। उसका मंत्री बहुत बुद्धिमान था। एक बार राजा ने अपने मंत्री से प्रश्न किया – मंत्री जी! भेड़ों और कुत्तों की पैदा होने कि दर में तो कुत्ते भेड़ों से बहुत आगे हैं, लेकिन भेड़ों के झुंड के झुंड देखने में आते हैं और कुत्ते कहीं-कहीं एक आध ही नजर आते है। इसका क्या कारण हो सकता है?

मंत्री बोला – “महाराज! इस प्रश्न का उत्तर आपको कल सुबह मिल जायेगा।”

राजा के सामने उसी दिन शाम को मंत्री ने एक कोठे में बिस कुत्ते बंद करवा दिये और उनके बीच रोटियों से भरी एक टोकरी रखवा दी।”

दूसरे कोठे में बीस भेड़े बंद करवा दी और चारे की एक टोकरी उनके बीच में रखवा दी। दोनों कोठों को बाहर से बंद करवाकर,वे दोनों लौट गये।

सुबह होने पर मंत्री राजा को साथ लेकर वहां आया। उसने पहले कुत्तों वाला कोठा खुलवाया। राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बीसो कुत्ते आपस में लड़-लड़कर अपनी जान दे चुके हैं और रोटियों की टोकरी ज्यों की त्यों रखी है। कोई कुत्ता एक भी रोटी नहीं खा सका था।

इसके पश्चात मंत्री राजा के साथ भेड़ों वाले कोठे में पहुंचा। कोठा खोलने के पश्चात राजा ने देखा कि बीसो भेड़े एक दूसरे के गले पर मुंह रखकर बड़े ही आराम से सो रही थी और उनकी चारे की टोकरी एकदम खाली थी।

वास्तव में अपनी रोटी मिल बाँट कर ही खानी चाहिए और एकता में रहना चाहिए।

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (81-86)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (81-86) ॥ ☆

 

नवयुवक अज में स्व अनुराग की बात शालीनतावश तो वह कह न पाई

उर्मिल सुकेशी के रोमांचमय गात से पर किसी से भी कुछ छुप न पाई ॥ 81॥

 

तब उस घड़ी हँस सुनंदा ने परिहास में कहा – ‘‘क्यों सखि चलें और आगे ? ”

सुन इंदु ने तितिक्षापूर्ण लखकर कहा – ‘‘कहीं जाता कोई लक्ष्य पाके ?”॥ 82॥

 

फिर सुंदरी ने सुनंदा के हाथो में वरमाल कुकुम लगी यों सधा दी

कि अनुराग की मूर्ति अज के गले में यथोचित उसी के सहारे पिन्हा दी ॥ 83॥

 

उस मांगलिक माल के वक्ष लगते ही सुयोग्य वर अज ने कुछ ऐसा पाया

जैसे स्वयं इंदुमति ने ही भुजपाश दे उसको अपने गले है लगाया ॥ 84॥

 

मिली धनरहित चंद्र को चंद्रिका आत्म अनुरूप सागर को गंगा ने पाया

राजाओं के लिये असह्रय यही गीत, सहर्ष मिल सबने एक स्वर से गाया ॥ 85॥

 

प्रमुदित वर पक्ष एक ओर था प्रसन्नचित – राजागण थे उदास, हीन थे प्रभा से ।

प्रातः सरोवर में ज्यों खिलते कमल कहीं,मुरझाते कुमुद कुसुम शेष रवि – विभा से ॥ 86॥

 

छटवाँ सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ६ नोव्हेंबर – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

क्षणाक्षणाला

दिशादिशातून

आनंदाला

उधाण यावे  

स्वप्नामधल्या

परीकथेसम

जीवन अवघे

जगत राहावे

 – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? || शुभ दीपावली || ?

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ६ नोव्हेंबर –  संपादकीय  ?

मराठीतील सुप्रसिद्ध लेखक,  समीक्षक,  टीकाकार व विचारवंत श्री. श्रीकृष्ण केशव क्षीरसागर उर्फ श्रीकेक्षी यांचा आज जन्मदिवस. त्यांचा जन्म सातारा जिल्ह्यातील पाली येथे दि.  6/11/1901 ला झाला. समाज, जीवन व संस्कृती यांचे सखोल चिंतन त्यांच्या लेखनातून दिसून येते. सौंदर्यवादी, चिंतनशील, वास्तववाद, गूढवाद, नवमानवतावाद इ.  विषयांवर मूलभूत चर्चा करणारे असे त्यांचे साहित्य वेगळा ठसा उमटवून जाते. ज्ञानकोशकार केतकर यांचे ते समविचारी होते.

1940 साली त्यांची राक्षसविवाह ही पहिली कादंबरी प्रकाशित झाली. तेव्हापासूनच त्यांच्या लेखनातील वेगळेपणाची दखल घेतली गेली.

आधुनिक राष्ट्रवादी रवींदनाथ ठाकूर, उमरखय्यामची फिर्याद, टीकाविवेक, व्यक्ती आणि वाङ्मय, वादे वादे ही त्यांची समीक्षेवरील गाजलेली पुस्तके. याशिवाय तसबीर आणि तकदीर हे आत्मचरित्र, बायकांची सभा हे प्रहसन, मराठी भाषा–वाढ आणि बिघाड हे वैचारिक लेखन असे विविधांगी लेखन त्यांनी केले आहे. निवडक श्रीकेक्षी या नावाने त्यांचे निवडक साहित्य साहित्य अकादमीने संकलित केले आहे. साहित्य अकादमीने सल्लागार मंडळावर सदस्य म्हणूनही नियुक्त केले होते. महाराष्ट्र राज्य सरकारने त्यांच्या नावे समीक्षेसाठी पुरस्कार ठेवून त्यांचा सन्मान केला आहे. 1959 साली मिरज येथे झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. मराठी बरोबरच त्यांनी उर्दू शायरीचाही अभ्यास केला होता.  

1980 मध्ये त्यांचे निधन झाले.

सारस्वतकार भावे:

06/11/1871 हा विनायक लक्ष्मण तथा सारस्वतकार भावे यांचा जन्मदिवस. कोकणातील पळस्पे या गावी त्यांचा जन्म झाला तर शिक्षण बालपण व शिक्षण ठाणे येथे झाले . बी.एस.सी. पदवी संपादन केली असली तरी त्यांनी प्राचीन मराठी साहित्याचे संशोधक, इतिहासकार आणि संपादक म्हणून नाव कमावले. ‘मराठी वाड्मयाचा त्रोटक इतिहास’ चे लेखन त्यांनी ग्रंथमाला या मासिकातून केले. महाराष्ट्र कवि हे मासिक 1903 साली काढले. महानुभवपंथाच्या पोथ्या त्यांनी बाळबोधलिपीत प्रकाशित केल्या. ऐतिहासिक संशोधनासाठी ‘मराठी दप्तर’ नावाची संशोधन संस्था काढली. विद्यमान नावाचे मासिक काढले. यावरून त्यांची साहित्य व संशोधन याविषयीची धडपड दिसून येते. पण त्याना लोकप्रियता व प्रसिद्धी मिळाली ती महाराष्ट्र सारस्वत या ग्रंथामुळे. ते या ग्रंथामुळे सारस्वतकार भावे या नावाने ओळखू जाऊ लागले. याशिवाय त्यांनी नेपोलियनचे चरित्र, दासोपंतांचे गीतार्णव, नागेश कविंचे सीतेस्वयंवर यांचा लेखन व सुधारित आवृत्तीचे प्रकाशनही केले. कविकाव्यसूची, वच्छाहरण या महानुभव काव्याचे संपादन केले. ठाण्याच्या सांस्कृतिक चळवळीतील ते एक अग्रगण्य व्यक्तिमत्व होते. भारतातील पहिले मराठी पुस्तकांचे सार्वजनिक वाचनालय त्यांनीच ठाणे येथे सुरू केले. यावरून त्यांच्या कार्याची महती लक्षात येईल.

भालबा केळकर:
भालचंद्र वामन तथा भालबा केळकर हे पुण्याच्या फर्ग्युसन महाविद्यालयात रसायनशास्त्राचे प्राध्यापक होते. पण लेखन आणि अभिनय या अंगभूत गुणांमुळे त्यानी या क्षेत्रातही महत्वाचे कार्य केले. अनेक बालनाट्ये व नभोनाट्यांचे लेखन व दिग्दर्शन त्यांनी केले. शास्त्रीय विषय रंजकपणे मांडणे हे त्यांच्या बालनाट्यांचे वैशिष्ट्य होते. नंतर त्यांनी प्रोग्रेसिव्ह ड्रामॅटिक असोसिएशन ही नाट्यसंस्था काढली. या संस्थेने अनेक नाटक सादर केली. भालबांनी दिग्दर्शन व अभिनयही केला. 1961 साली प्रेमा तुझा रंग कसा हे नाटक प्रथम दिग्दर्शित केले. नंतर वेड्याचं घर उन्हात, तू वेडा कुंभार इ . नाटके पडद्यावर आणली.

ओळखीच्या म्हणी कथांच्या खाणी, क्रिकेटचा खेळ व इतर गोष्टी, गुरूवरचा माणूस, तलावातले रहस्य हे त्यांचे काही बालसाहित्य. तर प्राचीन भारतीय शास्त्रज्ञ आणि संशोधन, शेरलॉक होम्सच्या अनुवादित कथा (सहा भाग), संपूर्ण महाभारताचे आठ खड हे त्यांचे अन्य काही लेखन.

1987च्या आजच्या दिवशी त्यांचे निधन झाले. त्यांच्या स्मृतीस अभिवादन. !

भाऊ पाध्ये:
भाऊ पाध्ये यांचा आज जन्मदिवस.  आपण त्यांच्या साहित्य कर्तृत्वाविषयी दि. 30/10/21 च्या अंकात वाचले आहे. म्हणून येथे पुनरावृत्ती टाळत आहे.

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

साभार: विश्वकोश मराठी, विकीपीडिया

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भाऊबीज ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भाऊबीज  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कार्तिकात द्वितीयेला

आली आली भाऊबीज

म्हणे बहिण भावाला

जरा आसवात भीज.. . . !

 

भाऊ बहीणीचा सण

औक्षणाचा थाटमाट

आतुरल्या अंतरात

भेटवस्तू पाहे वाट. . . . !

 

दोन घास जेवूनीया

आशिर्वादी मिळे ठेव

दीपोत्सव ठरे सार्थ

आठवांचे फुटे पेव. . . . !

 

किती दिले किती नाही

हिशोबाचा नाही सण

एकमेकांसाठी केले

आयुष्याचे समर्पण. . . . !

 

अशी स्नेहमयी वात

घरोघरी  उजळावी.

मांगल्याची भाऊबीज

मनोमनी चेतवावी.. . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कधी न केली.. ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कधी न केली.. ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : पादाकुलक)

कधी न केली अशी वल्गना

सूर्यकुलाशी माझे नाते

मात्र येथल्या तमात माझे

दीपक मिणमिण तेवत होते !

 

कभिन्नकाळी रात्र परंतू

उष:कालही उजळत होता

कुणास ठावुक कसा परंतू

सूर व्यथांशी जुळला होता !

 

म्हणून स्पंदन नि:श्वासांचे

निरंत माझ्या कवनी होते

भिजुन चिंब त्या व्यथावनातुन

शब्द शब्द हे ठिपकत होते !

 

मला न कळले माझ्या देशी

कसा कधी मी उपरा झालो

नकाशातले गाव हरपले

कवनांच्या मग रानी आलो !

 

शब्दसाधना, शब्दच सिद्धी

पंचप्राण जणु शब्द जाहले

आत्मरंजनी जराजरासे

विश्वरंजनी थोडे रमले !

 

ओंजळीत या समुद्रतेचा

चुकून यावा अंश जरासा

अक्षरांस या अक्षरतेचा

चुकून व्हावा दंश जरासा !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 79 – फटाके ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 79 – फटाके ☆

हवे कशाला उगा फटाके

ध्वनी प्रदूषण वाढायला।

जीव चिमुकले,  प्राणी पक्षी

वाट मिळेना धावायला ।

 

आनंदाचा सण दिवाळी,

सारे आनंदाने गाऊ या।

मना मनातील ज्योत लावूनी,

आज माणूसकीला जागू या।

 

दीन दुखी नि अनाथ बाळा,

नित हात तयाला देऊ या।

अंधःकारी बुडत्या वाटा,

सहकार्याने उजळू या।

 

रोज धमाके करू नव्याने,

कुजट विचारा उडवू या।

ऐक्याचे भूईनळे लावूनी,

आनंद जगती वाटू या।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भाऊबीज: आठवणी दाटतात…..  ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?विविधा ?

☆ भाऊबीज: आठवणी दाटतात…..  ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ज भाऊबीज. आज बहिणीने भावाला ओवाळायचं आणि त्याच्या दीर्घायुष्यासाठी प्रार्थना करायची. ओवाळणीच्या तबकातील दिवा हे सूर्याचे प्रतीक. सूर्य हा जीवनदाता. ’तू अनेक सूर्य पहा’ असा अर्थ त्या ओवाळण्यात आहे. भाऊ-बहीण यांच्या नात्यात एक अनोखे माधुर्य आहे. या नात्याचे कौतुक करताना लोकसाहित्याने खूप खूप ओव्या रचल्या आहेत. बहिणींना आपला लाडका भाऊ अगदी जवळचा वाटतो. जणू भाऊ म्हणजे गळ्यातला ताईत.  एका ओवीत एकीनं म्हंटलयं, ‘दुबळा पाबळा का होईना, पण एक तरी भाऊ बहिणीला असावाच.  का? भाऊबीजेला एक पावलीची चोळी आणि कधीतरी, थकल्या भागल्या देह-मनाला एका रात्रीचा विसावा.’ 

भाऊ मोठा असला, तर तो बहीण आणि वडील यांच्यामधला दुवा असतो.तो मित्र असतो. सल्लागार असतो. रक्षणकर्ता असतो. धाकटा असला, तर त्याच्या खोड्याही बहिणीला आनंद देतात. तो बहिणीला आपल्या मुलासारखाच वाटतो. असेच काही-बाही विचार मनात येत होते. विचार करता करता त्यांची वावटळच झाली. या वावटळीने मला एकदम उचललं आणि बालपणीच्या अंगणात नेऊन उतरवलं. तिथे आठवणी झिम्मा खेळत होत्या. 

एक जण लगबगीने पुढे आली, ‘मी आठवते तुला?’

‘हो ग, तुला कशी विसरेन? ‘बालपणीच्या त्या निरागस वयातली, तितकीच निरागस आठवण. … आठ वर्षाची असेन मी तेव्हा. आजोळी होते मी तेव्हा. माझे मुंबईचे मामा-मामी, लता दिलीप सगळे आले होते. दिलीप माझ्या बरोबरीचा. लता आमच्यापेक्षा चार वर्षाने मोठी. तो भाऊबीजेचा दिवस होता. दिलीपने आमच्या दोघींकडून छान चोळून मोळून घेतले. आदल्या दिवशी तिळाचे वाटण केलेले होते. ते लावायला लागताच तो म्हणाला, तो चिखल मला लावू नकोस!’ त्यावर आजी म्हणाली, ‘अरे त्यामुळे शरीरावरची छिद्रे मोकळी होतात. अंग मऊ होतं.’ मगं तो काही बोलला नाही. मी वाटण जरा जास्तच खसखसून त्याला लावलं. आज महाराजांना पाण्याची बदली आयती द्यायची होती. विसण घालायचं होतं. उटणं लावायचं होतं. त्यावेळेपर्यंत मोती साबण आला नव्हता. निदान आमच्या घरात तरी. दोन बादल्या पाणी त्याला घालून झालं, तरी त्याचं ‘अजून घाल’ संपेना. एव्हाना बंबातलं गरम पाणी संपून नुकतच वरून घातलेलं गार पाणी येऊ लागलं होतं. मी म्हंटलं, ‘घालू गार पाणी?’ तशी महाराजांनी एकदाचा टॉवेल गुंडाळला. अंग पुसून नवे कपडे घातले. दादामामांनी त्याला दहा रूपयाच्या दोन नोटा दिल्या. एक मला घालायला आणि एक लताला घालायला.

मी पण आंघोळ करून जरीचं परकर –पोलकं घातलं. तशी त्याने सुरू केलं, ’सुंदर ते ध्यान । समोर उभे राही। जरी परकर घालूनिया ।। ‘आहा, काय ध्यान दिसतय?’ माझ्यावरून हात ओवाळत तो म्हणाला. मी काही चिडले नाही. त्याच्या खिशातल्या नोटेकडे बघत होते ना मी!.  मग ओवाळण्याचा कार्यक्रम झाला. लताताईच्या तबकात त्याने नोट टाकली. नंतर मी ओवाळलं. मी आपली ओवाळतेय … ओवाळतेय… ओवाळतेय. नोट काही खिशातून बाहेर येईना. मी म्हंटलं ,’टाक की लवकर. माझा हात दुखायला लागलाय.’ 

त्याने खिशावर आपला हात ठेवत म्हंटलं , ‘घे बघू घे.’ आणि तो पाटावरून उठून चक्क पळायलाच लागला. ‘म्हणाला, ‘हे पैसे माझे आहेत.’ मी म्हंटलं , ‘दादामामांनी मला ओवाळणी घालण्यासाठी तुला दिलेत.’ ‘असं? मग मला पकड आणि घे.’ मी जवळ गेले की तो पळायचा. आमची शिवाशिवीच सुरू झाली. पण मी काही त्याच्याइतकी चपळ नव्हते. शेवटी रडत रडत आजीकडे गेले.  आजीची आणि त्याची काही तरी नेत्रपल्लवी झाली. आजी खोटं खोटं त्याला रागावली. मी म्हंटलं, ‘दादांनी दिलेले पैसे द्यायचेत, तर इतका कंजूषपणा करतोयस, स्वत:चे द्यायचे झाले, तर काय करशील? बहुतेक माझ्याकडे ढुंकूनसुद्धा पाहणार नाहीस.  

‘घ्या. रडूबाई… रडूबाई रडली… आजीपुढे जाऊन रडली….’ त्याने नोट माझ्या परकराच्या  झोळात फेकून दिली. त्या दहा रुपयाचे मी काय केले हे आता आठवत नाही. मोठे छान दिवस होते ते. पुन्हा किती तरी वर्षं आम्ही भाऊबेजेला भेटलो नाही.आणि पुन्हा भेटलो, तेव्हा खूप सुजाण झालो होतो. तेव्हा, जुन्या भाऊबीजेची आठवण काढायची आणि लोट-पोट होत हसायचो.  आता हेही आठवतय, की तो मिळवायला लागला आणि आता भाऊबीजेला आम्ही प्रत्यक्ष भेटत नसलो, तरी माझ्यासाठी कधी साडी, कधी ऊंची पर्स, कधी नेकलेस, कधी भारी अत्तराच्या किंवा सेंटच्या बाटल्या असं काही ना काही भाऊबीज म्हणून येत रहातं. 

इतक्यात एक जण लाजत… संकोचत माझ्याकडे आली. ‘ मी… मी आठवते तुला.’

‘तुला कशी विसरेन? दुसर्‍याच्या कष्टाचा कळवळा येणार्‍या माझ्या भावाची आठवण तू…त्या वर्षी दिवाळीला मी माझ्या काकांकडे होते. माझी चुलत बहीण नलिनी. ती आणि मी एकाच वयाच्या. तिने खूप आग्रह केला की आमच्याकडे ये म्हणून. त्यावर्षीची माझी दिवाळी काकांकडे झाली. मला चार मोठे चुलत भाऊ. नर्कचतुर्दशीला आणि भाऊबीजेला सगळ्यांनी आम्हा दोघींकडून छान अंगमर्दन करून घेतलं. माझा दोन नंबरचा चुलतभाऊ बाबू म्हणाला , ’सगळ्यांना तेल लावून तुमचे दोघींचे हात चांगले भरून आले असतील. चला! आता तुम्ही पाटावर बसा. मी तुमच्या हाता-पायांना तेल लावतो. आम्ही म्हंटलं, ‘तू म्हणालास ना, पुष्कळ झालं, आमचं हात दुखणं कमी झालं. नाही म्हंटलं तरी दुसर्‍याच्या कष्टाचा विचार  करणारा  भाऊ आपल्या घरात आहे याचा मला आनंद झाला. अभिमान वाटला. ‘ऐसी कळवळ्याची जाती। लाभावीण करी प्रीति।‘ दुसर्‍याचा विचार करणारं त्याचं हरीण –काळीज त्या दिवशी प्रथम लक्षात आलं. मग त्याने आम्हा सर्वांना ‘सुवासिनी’ सिनेमा दाखवला. 

एवढ्यात आणखी एक जण इतरांना मागे सारत धिटाईने पुढे आली. म्हणाली, ‘तुला ‘गणेश नगरचे’ महादेवराव आठवतात की नाही?’ मी म्हटलं, ‘त्यांना कशी विसरेन? ते तर माझ्या ‘मर्मबंधातली ठेव’ आहेत. 

पुण्यात एका लग्नाच्या वेळी दादा आणि वसुधाताई यांची भेट झाली. सहज गप्पा मारता मारता तेही सांगलीचेच आहेत, असं कळलं. त्यांचं नाव महादेव आपटे. मी एकदम म्हणाले, ’मीही माहेरची आपटे.’ त्यावर ते म्हणाले, ‘अरे वा! मग तू आमची माहेरवाशीणच झालीस की! आता यायचं आमच्याकडे. गणेशनगरला. ’ मी मान डोलावली. अशा लग्नकार्यात किंवा  प्रवासात झालेल्या ओळखी आणि त्यावेळी दिलेली आश्वासनं तिथल्या तिथे विरून जातात. पण यावेळी तसं झालं नाही.  ती दोघं एक दिवस फोन करून आमच्या घरी आली आणि जाताना ‘आता तुमची पाळी’ असं बजावून गेली. दोघंही पती-पत्नी अतिथ्यशील. लाघवी. भेटेल त्याच्याशी मैत्री जोडण्याची अनावर हौस. हळूहळू मी खरोखरच त्यांच्या घरच्यासारखी झाले. त्या वर्षी त्यांनी मला भाऊबीजेला बोलावले. मी संध्याकाळी गेले. त्यानंतर राखी पौर्णिमेला काही मी गेले नाही. संकोच वाटला, की दरवेळी आपण त्यांच्याकडून ओवाळणी घेत राह्यचं, हे काही बरं नाही. दुसर्‍या दिवशी सकाळी फोन …. ‘काल वाट पहिली. तू आली नाहीस. असं चालणार नाही…’ वगैरे… वगैरे… मला माझ्या कोत्या विचारांची लाज वाटू लागली. प्रेमाचं रागवणं. त्यानंतर ही चूक मी पुन्हा केली नाही. बरं त्यांना बहीण नाही, म्हणून त्यांनी हे नातं जोडलं असंही नाही. त्यांना सख्ख्या, चुलत, मावस अशा अनेक बहिणी होत्या. शिवाय वसुधाताईंच्या बहिणीही ओवाळायला यायच्या. वसुधाताई स्वत:च ओवळणीची छान तयारी करून ठेवत. भेटलेल्या प्रत्येकाशी नातं जोडणं आणि निभावणं हा दादांचा स्वभावधर्म होता. आता दादा नाहीत. वहिनीही नाहीत. पण त्यांनी होते तोवर अगदी निरपेक्ष असं प्रेम आमच्यावर केलं. 

असंच निरपेक्ष प्रेम आमच्या दादांनी म्हणजे माझ्या मोठ्या भाऊजींनी माझ्यावर केलं. अगदी लग्न झाल्यापासून.  ते माझ्या वडलांसारखेच होते. माझे सल्लागार होते. मित्र होते. दुसर्‍यांच्या उपयोगी पडायचा त्यांचा स्वभावच होता. माझे लग्न झाल्यावर माझा भाऊ काही वर्ष भाऊबीजेला यायचा. पण पुढे दरवर्षी ते शक्य होत नसे. असंच एका वर्षी कुणीच नव्हतं ओवाळायला. आमच्या वाहिनी (माझ्या जाऊबाई) म्हणाल्या, ‘आज कुणाला तरी ओवाळल्याशिवाय राह्यचं नसतं. तू यांना ओवाळ. मग तेव्हापासून, माझे भाऊ आलेले असले, नसले, तरी आमच्या दादांना ( माझ्या मोठ्या भाऊजींना ) मी ओवाळू लागले. राखी पौर्णिमेला राखी बांधून ओवाळू लागले आणि त्यांच्या वाढदिवसाला त्यांना ओवाळून औक्षण करू लागले, ते अगदी परवा परवापर्यंत. गेल्या दोन वर्षांपूर्वी धनत्रयोदशीलाच ते गेले. तेव्हा ते ९४ वर्षांचे होते. त्यांच्यात मी माझा मोठा भाऊ, मार्गदर्शक, संरक्षक आणि सल्लागार पाहिला. 

आज अशा सगळ्या भावांच्या आठवणी काढता काढता, मनात एक हुरहूर दाटून आलीय. कालप्रवाहात सगळे वाहून गेले. मी या प्रवाहाच्या काठाशी उभी राहून म्हणते आहे, ‘गेले ते दिन गेले….’ 

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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