हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 100 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 100 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (1)

पांडे रोबैं रोटी खौं, पांडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं।

शाब्दिक अर्थ :- विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है।

कोपरा नदी के किनारे बसे खेजरा गाँव में सजीवन पाँडे अपनी पत्नी रुकमणी व पुत्र भोला के साथ शिव  मंदिर के बाड़े में छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे। सजीवन पाँडे बड़े भुनसारे उठते, झाड़े जाते, नित्य क्रिया से फुरसत हो कोपरा नदी में 5-6 डुबकी लगा स्नान करते। स्नान के पूर्व अपनी  धोती को धोकर सुखाने के लिए बगराना न भूलते। ऐसा नहीं था की सजीवन पाँडे के पास इकलौती धोती थी, उनके पास धोती, कुर्ता और गमछा एक और सेट था, जिसे वे बड़ा संभालकर रखते और जब कभी कोई बड़ा जजमान उन्हे कथा पूजन में बुलाता तो इन कपड़ों को पहन माथे पर बड़ा सा त्रिपुंड टीका लगाकर, काँख में पोथी पत्रा दबाकर बड़े ठाट से जजमानी करने जाते। जजमानी में जाते वक्त उनकी इच्छा होती की जजमान दान दक्षिणा में एक सदरी दे दे तो उनका कपड़ों का सेट पोरा हो जाय। लोधी पटेलों और काछियों की इस गरीब बसाहट में उनकी इच्छा न तो भगवान ही सुनते और न ही जजमान। यदाकदा सजीवन पाँडे अपने साथ पंडिताइन व एकलौते पुत्र भोला को भी ले जाते। पंडिताइन तो अपने बक्से में  से बड़ी सहेज कर रखी गई साफ सुथरी साड़ी निकाल कर पहन लेती।  पंडिताइन के जीवन में यही अवसर होता जब वे नारी श्रंगार का संपूर्ण सुख भोगती, साड़ी को पेटीकोट पोलका के साथ पहनती और माथे पर टिकली बिंदी पैरों में महावर लगाती। इस पूरे श्रंगार से पंडिताइन का गोरा मुख चमक उठता और सजीवन पाँडे भी उनके रूप की प्रशंसा कर उठते पर यह कहते हुये कि भोला की अम्मा तुम्हें कोई सुख न दे पाया उनकी आँखे गीली हो जाती गला रूँध जाता। ऐसे में पंडिताइन ही सजीवन पाँडे को ढाढ़स बँधाती और कहती भोला के दद्दा चिंता ना करों हमारे दिन भी बहुरेंगे, शंकर भगवान कृपा करेंगे, आखिर बारा बरस में घूरे के दिन भी फिरत हैंगे। अम्मा दद्दा तो साज सँवर जाते पर  भोला  के भाग में चड्डी बनियान ही थी उस दिन सुबह सबरे से अम्मा भोला के कपड़े उतार बड़े जतन से धोती और सूखा देती तब तक  भोला नंग धड़ंग रहते और घर से बाहर न निकलते। उगारे भोला कुटिया के एक कोने में बैठे बिसुरते रहते। जाने के ठीक पहले उन्हे भी नहला धुलाकर चड्डी बनियान में सुसज्जित कर दिया जाता। कुलमिलाकर शिवालय के शंकरजी की पिंडी की सेवा व आसपास के गाँवों की जजमानी से सजीवन पाँडे की घर ग्रहस्ती चल रही थी या कहें कि घिसट रही थी  और उन पर यह कहावत कि “पाँडे रोबैं रोटी खौं, पाँडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं” (विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है) तो फिट ही बैठती।

समय चक्र चलता रहा, भोला पाँडे इन्ही विपन्न परिस्थितियों में, अपने बाप सजीवन पाँडे की पंडिताई में सहायता करते हुये, हिन्दी व संस्कृत का अल्प ज्ञान ले, किशोर हो चले। गाँव में कोई स्कूल न था और हटा अथवा दमोह जहाँ पढ़ाने लिखाने की अच्छी व्यवस्था थी वहाँ भोला को भेज पाने की न तो सजीवन पांडे की आर्थिक हैसियत थी और न ही कोई जजमान या रिश्तेदार का घर जहाँ भोला को रख अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया जा सके। उनकी उम्र कोई 14-15 वर्ष रही होगी कि सजीवन पाँडे को पुत्र के ब्याह की चिंता होने लगी। घर में तो भारी विपन्नता थी अत: पंडिताइन ने भोला का ब्याह तय करने में पति को सलाह देते हुये कहा कि भोला के दद्दा लरका को ब्याव ऐसी जागा करिओ जो कुलीन घर के होयं और खात पियत मैं अपनी बरोबरी के होयं। हमाइ बऊ कैत हती कै “सुत ऐसे घर ब्याहिए, जो समता में होय। खान पान बेहार में मिलता –जुलता होय।।“ सजीवन पाँडे को पत्नी की सलाह भा गई और साथ ही उन्हे  पास ही के गाँव इमलिया  के एक उच्च कुल के गरीब  ब्राह्मण व अपने बाल सखा राम मिलन तिवारी की याद आई। फिर क्या था बजाय संदेसन खेती करने के सजीवन पांडे अपने मित्र से मिलने इमलिया चले गए और उनकी कन्या से अपने पुत्र के विवाह की चर्चा  घुमा फिरा कर छेड  घर वापस आ गये। राम मिलन तिवारी  अपने बाल सखा का मंतव्य न समझ सके पर उनकी धर्मपत्नी जो ओट में बैठी दोनों मित्रों की बात सुन रही थी सब समझ गई। सजीवन पाँडे के वापस जाते ही उसने राम मिलन तिवारी से उनके मित्र के घर आने का कारण बताया और पुत्री के विवाह की चर्चा आगे बढ़ाने ज़ोर डाला। दोनों मित्र एक बार फिर मिले और भोला पाण्डेय का ब्याह तय कर दिया। राम मिलन तिवारी  बड़े कुलीन ब्राह्मण थे अत: उनके घर लक्ष्मी कभी कभार ही आती, लेकिन गाँव के लोगों ने इमलिया के इस सुदामा पर बड़ी कृपा करी और लड़की का ब्याह भोला पाँडे से करवाने पूरी सहायता करी। लोधी पटेलों ने  अन्न चुन्न दे दिया तो काछी सब्जी भाजी लेता आया। बजाजी ने दो चार जोड़ी  कपड़ा लत्ता की व्यवस्था कर दी तो कचेर ने टिकली बिंदी चूड़ी और श्रंगार का समान दे दिया। गाँव भर के युवा बारात के सेवा टहल के लिए आगे आए। राम मिलन तिवारी मौड़ी के ब्याह में कुछ खास दहेज न दे पाये बस किसी तरह नेंग- दस्तूर पूरे कर दिये। सजीवन पाँडे भी यारी दोस्ती के फेर में पड़ गए और पंडिताइन के लाख समझाने- बुझाने पर भी अपने मित्र से कुछ माँग न सके। ब्याह की भावरें पड़ी, बारातियों ने पंगत में पूरी, सुहारी, आलू की रसीली सब्जी में डुबो डुबोकर खाये और पचमेर की जगह केवल लड्डू बर्फी का आनंद लिया। सब्जी में आलू के टुकड़े ढूंढने से मिलते पर बारातियों ने उफ्फ न करी, हाँ । पत्तल की भोजन सामग्री खतम होती कि उसके पहले ही दोनों में गौरस परस दिया गया फिर क्या था बारात में आए पंडित रिश्तेदारों और खेजरा के अन्य ग्रामीणों  ने चार चार पूरी मींजकर गौरस में डाली और 5 मिनिट में ही उसे सफाचट कर गए। पंगत को भोजन का आनंद लेते देख राम मिलन तिवारी  बड़े प्रसन्न हुये और हुलफुलाहट में पूछ बैठे और कुछ महराज। उनका इतना कहना था कि पंगत में से आवाज आई दो-दो पूरी शक्कर के साथ और हो जाती तो सोने में सुहागा हो जाता। चिंतित राम सजीवन कुछ कहते  या पंगत में बिलोरा होता उसके पहले ही इमलिया के घिनहा बनिया बोल पड़े जो आज्ञा महराज और धीरे से बाहर निकल अपनी दुकान से एक बोरी शक्कर उठा लाये। फिर क्या था इधर पंगत शक्कर  के साथ दो दो  पूरी और उदरस्त कर रही थी कि चुन्नु नाई ने यह बोलते हुये पंगत समाप्त करने की सोची “समदी माँगे दान दायजौ, लरका माँगै जोय.सबै बाराती जो चहें अच्छी पंगत होय॥“ उधर राम मिलन आखों मे कृतज्ञता का भाव लिए घिनहा बनिया की ओर ताक रहे थे और मन  ही मन सोच रहे थे कि लड़की को अच्छा वर मिला तो लड़के को सुंदर कन्या मिली बराती भी गाँव वालों के सहयोग से अच्छी पंगत पा गए बस समधी ही दान दहेज से वंचित रह गए। पर उनके बस में दान दहेज देना न था। घर की विपन्नता में दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाता यही बहुत था। वे बारबार बांदकपुर के भोले शंकर जागेशवरनाथ और हटा की चंडी माता का सुमरन कर रहे थे कि सजीवन पाण्डेय उनके पास विदा लेने आ पहुँचे। अश्रुपूरित आखों से राममिलन तिवारी ने अपने बाल सखा की ओर देखा और फिर नए समधी और दामाद भोला पांडे  को साष्टांग दंडवत कर प्रणाम किया। रुँधे गले से उनके मुख से बस इतना ही निकला कि महराज हमाई स्थिति से आप परचित हो कोनौ कमी रै गई होय और अनुआ होय  तो क्षिमा करियों। इतना कह वे अपनी गरीबी के  दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रो पड़े। सजीवन पांडे ने समधी को गले लगाया और दुरागमन की बात आगे कभी करने की कह विदा ली।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #23 – ☆ कथा – कहानी # 23 – असहमत और पुलिस अंकल : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆ ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ  में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 23 – असहमत और पुलिस अंकल : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुलिस इंस्पेक्टर जॉनी जनार्दन, असहमत के पिताजी के न केवल सहपाठी थे, बल्कि गहरे दोस्त भी थे और हैं भी.जब तक उनकी पोस्टिंग, असहमत और उनके शहर में रही, असहमत के लिये मौज़ा ही मौजा़ वाली स्थिति रही बस एक कष्ट के अलावा. और ये कष्ट था उनकी धुप्पल खाने का. अब आप यह भी जानना चाहेंगे कि ये धुप्पल किस चिड़िया का नाम है और पुलिसकर्मियों से इसका क्या संबंध है. दर असल ये असहमत की पीठ पर लगाया जाने वाला पुलिस अंकल का स्नेहसिक्त प्रसाद है जो पुलिसिया हाथ की कठोरता के कारण असहमत को जोर से लगता था. इसका, असहमत के फेल होने, गल्ती करने या अवज्ञा करने से कोई संबंध नहीं था. ऐसा भी नहीं है कि ये प्रणाम नहीं करने से मिलता था, बल्कि ये प्रणाम के बाद मिलने वाला पुलसिया प्रसाद था जो बैकबोन को हलहला देता था. पर बदले में असहमत भी इसका पूरा फायदा उठाता था, अपने हमउम्रों पर धौंस जमाने में. उसकी दिली तमन्ना थी कि जानी जनार्दन अंकल की पुलसिया मोटरसाइकिल पर वो भी उनके साथ बैठकर शहर घूमे ताकि नहीं जानने वाले भी जान जायें कि इस असहमत रूपी नारियल को कभी फोड़ना नहीं है. ये तो पुलिस थाने के परिसर में बने मंदिर में चढ़ा नारियल है जो भगवान को पूरी तरह से समर्पित कर दिया गया है. इसका प्रसाद नहीं बंटता बल्कि उनका ज़रूर (प्रसाद) बंटता है जो ऐसा सोचते भी हैं. जब भी जॉनी पुलिस अंकल घर आते उनकी चाय पानी की व्यवस्था असहमत की जिम्मेदारी होती और यहां “चाय पानी” का मतलब सिर्फ पहले पानी और फिर कम शक्कर वाली चाय उपलब्ध कराना ही था, दूसरी वाली चाय पानी इंस्पेक्टर साहब स्वयं बाहर से करने के मामले में आत्मनिर्भर थे.

जब तक पुलिस अंकल की पोस्टिंग शहर में रही, “चाचू तो हैं कोतवाल, अब डर काहे का” वाली हैसियत और औकात बनी रही. पहचान के लोग डराये नहीं जाते बल्कि अपने आप डरते थे और लिहाज करते थे. यहाँ लिहाज़ का मतलब धृष्टता पर होने वाली ठुकाई को विलंबित याने सुअवसर आने पर इस्तेमाल करना था क्योंकि चंद दिनों की चांदनी के बाद अंधेरी रात का फायदा भले ही असहमत उठा ले पर सबेरा होने पर बचना मुश्किल हो ही जाना है आखिर वो दुर्योधन का बहनोई जयद्रथ तो है नहीं. असहमत जानता था कि पुलिस अंकल के ट्रांसफर हो जाने के बाद ये सारे दुष्ट कौरव और पीड़ित पांडव भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी होने के सपने देख रहे हैं. अतः असहमत ने ऐसे लोगों की लिस्ट बनाना शुरु कर दिया जो आगे चलकर उसके लिये खतरा बन सकते थे. लिस्ट असहमत की फोकट का सिक्का जमाने की आदत के कारण थोड़ी लंबी जरूर थी पर योजनाबद्ध तरीके से कम की जा सकती थी जिसका प्लान तैयार था.

कहानी जारी रहेगी….

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (26 – 30) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

दिन बीते, निखरे नयन, मुख छवि हुई कुछ पीत।

गर्भलक्षिणी सिया प्रति और बढ़ी पति-प्रीति।।26।।

 

तन्वी कृष्ण पयोधरा सीता को ले राम।

लगे पूछने रहसि में इच्छा समित ललाम।।27।।

 

सीता ने तब की प्रकट ऋषि-आश्रम की चाह।

लखने फिर नीवार, मुनि-कन्या, सरित-प्रवाह।।28।।

 

करने इच्छा पूर्ति का आश्वसन दे राम।

लगे निरखने नगर-छवि, साकेत की अभिराम।।29।।

 

मुझे मुदित यह देख सब मार्ग, विपणि, और लोग।

सरयू जल में नहाते स्वस्थ, समृद्ध निरोग।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १६ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  १६ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

गणेश दामोदर (बाबाराव) सावरकर

गणेश दामोदर ऊर्फ बाबाराव सावरकर (13 जून 1879 -16 मार्च 1945)हे भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील महत्त्वपूर्ण व्यक्तिमत्त्व.

स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर यांचे हे सर्वांत मोठे बंधू.

घरच्या परिस्थितीमुळे व कुटुंबाच्या जबाबदारीमुळे त्यांना मॅट्रिकपर्यंत जाता आले नाही. पण त्यांनी योगविद्या, वैद्यक, फलज्योतिष, शरीर सामुद्रिक, हस्त सामुद्रिक, मंत्रशास्त्र, वेदांत या शास्त्रांचा, त्याचप्रमाणे इतिहास, राजकारण, राज्यशासन, भाषा, सैन्यव्यवहार, धर्म, तत्त्वज्ञान, चरित्रे, संघटनशास्त्र,कला वगैरे अनेक विषयांचा सखोल अभ्यास केला.

‘राष्ट्रमीमांसा व हिंदुस्थानचे राष्ट्रस्वरूप’, ‘धर्म कशाला हवा?’, ‘हिंदुराष्ट्र -पूर्वी -आता – पुढे’, ‘ख्रिस्तपरिचय’ वगैरे अनेक पुस्तके त्यांनी लिहिली. ‘वीर बैरागी’ हा मूळ हिंदी भाषेतील पुस्तकाचा त्यांनी केलेला मराठी अनुवाद आहे. याशिवाय त्यांनी वेळोवेळी विविध विषयांवर लिहिलेले लेखही वेगवेगळ्या नियतकालिकांत प्रसिद्ध झाले.

1946साली त्यांनी लिहिलेल्या ‘ख्रिस्त परिचय अर्थात ख्रिस्ताचे हिंदुत्व’या पुस्तकात त्यांनी ‘येशू ख्रिस्त हे तामिळी हिंदू – विश्वकर्मा ब्राह्मण होते. ख्रिश्चन धर्म हा हिंदू धर्माचाच एक भाग आहे,’असे विचार मांडले होते.26.02.2016 रोजी हे पुस्तक पुनःप्रकाशित करण्यात आले.’ऑल इंडिया ट्रू ख्रिश्चन कौन्सिल’ या संस्थेने या पुस्तकाविरुद्ध मुंबई हायकोर्टात धाव घेऊन पुस्तकाची प्रत्येक प्रत जप्त करण्याची मागणी केली आहे.

स्वातंत्र्य चळवळीतील त्यांच्या क्रांतिकार्यामुळे त्यांना अंदमान येथे काळ्या पाण्याची व सश्रम कारावासाची शिक्षा ठोठावण्यात आली.1911 ते 1921 या काळात त्यांना मरण यातना भोगाव्या लागल्या. 1921मध्ये त्यांची अंदमानहून सुटका होऊन त्यांना भारतातील विविध तुरुंगांत पाठवण्यात आले. त्यांची तब्येत खूपच बिघडल्याने 1922 साली त्यांची शिक्षा संपवण्यात आली. पण नंतरही क्रांतिकार्य सुरू असतानाच 16 मार्च 1945 रोजी सांगली येथे त्यांचे निधन झाले.

ज्ञानेश्वर महादेव कुलकर्णी

ऍडवोकेट ज्ञानेश्वर महादेव कुलकर्णी (13 जून 1930 -16 मार्च 2013) हे पुण्यातील एक नामवंत वकील, इतिहासाचे गाढे अभ्यासक असे विद्वान गृहस्थ होते.

‘A New Perspective To The Language Of Indus Script’,’रोमन आणि देवनागरी लिप्यांची जननी :सिंधू लिपी ‘, ‘सिंधू संस्कृती’, ‘हडप्पा संस्कृती? नव्हे, महाभारतकालीन हिंदू राज्येच!’ इत्यादी अनेक मराठी व इंग्रजी ऐतिहासिक पुस्तके, त्याचप्रमाणे ‘श्रीपाद श्रीवल्लभ ‘ हे दत्त संप्रदायावरील पुस्तक, तसेच ‘अजिंक्य’ हे 81 व्या वर्षीही असणाऱ्या स्वतःच्या सुदृढ प्रकृती चे रहस्य सांगणारे पुस्तक, तसंच ‘आकाशगंगा’ व ‘ ऋतुराज’ हे कालिदासाच्या ग्रंथांचे अनुवाद वगैरे विविध विषयांवरील विविध पुस्तके त्यांनी लिहिली.

16 मार्च 2013 रोजी त्यांचे निधन झाले. पण शेवटपर्यंत त्यांची वकिली चालू होती.

 

गणेश दामोदर तथा बाबाराव सावरकर आणि ज्ञानेश्वर महादेव कुलकर्णी यांना त्यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त आदरपूर्वक श्रद्धांजली. ??

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी. विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री प्रभा सोनवणे – काव्य जीवन गौरव पुरस्कार – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

💐 अ भि नं द न💐

आपल्या समुहातील ज्येष्ठ लेखिका व कवयित्री सुश्री प्रभाताई सोनवणे यांना ‘रंगत संगत प्रतिष्ठान’ तर्फे काव्य जीवन गौरव पुरस्कार नुकताच प्रदान करण्यात आला आहे.

💐 ई-अभिव्यक्ती समुहातर्फे प्रभाताईंचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील लेखनासाठी शुभेच्छा 💐

 

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हायकू….. ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी ☆

श्री बिपीन कुलकर्णी

? कवितेच्या उत्सव ?

☆ हायकू … ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी ☆ 

 

1. सूर्य प्रतापी ,

तेज अवतरले …

सार्थक झाले |

 

( छत्रपतींना मानाचा मुजरा )

 

2. विठू माउली …

हृदयात वसली …

वारी फळली ||

 

(आषाढी एकादशी निमित्ते )

 

3. विखारी मन ,

हतबल साबण …

नामाचे स्नान ||

 

बिपीन कुलकर्णी

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 123 ☆ होळी एक सण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 123 ?

☆ होळी एक सण… ☆

होळी एक सण–

रंगाचा,

 

लहानपणी असते अपूर्वाई,

भिजवण्याची, भिजवून घेण्याची!

लाल, हिरवे,निळे, गहिरे रंग—

माखवलेलं अंग,

चित्र विचित्र सोंगं—

फिरत असायची गल्लो गल्ली !

 

आदल्या दिवशीची पेटलेली होळी,

पुरणपोळी, पापड,कुरडई, भजी,

अग्नीत सोडून दिलेला नैवेद्य,

नारळ,पैसे —-

इडापिडा टळो….साप विंचू पळो!

हुताशनी पौर्णिमेचा उत्सव….

शिव्या…बोंबा…आणि

ज्वाळा..धूर….एक खदखद….

 

होळी ला पोळी आणि धुलवडीला नळी….अर्थात मटणाची….

 सारं कसं साचेबंद…

तेच तेच…तसंच तसंच…

किती दिवस??किती दिवस??

 

 उद्याची होळी वेगळी असेल जरा…

धगधगतील मनाच्या दाही दिशा….उजळून निघेल कोपरा..

कोपरा..

 

नको होळी…लाकडं जाळून केलेली…

नकोच रंग…पाण्याचा अपव्यय करणारे ….

खुसखुशीत पुरणपोळी…तुपाची धार…सारंच सुग्रास!

 

एक साजूक स्वप्न—–

रंगाचा सोहळा डोळे भरून पहाण्याचा…

हिरवी पाने, पिवळा सोनमोहोर, लालचुटूक, पांगारा आणि गुलमोहर, निळा गोकर्ण, पांढरे, भगवे, गुलाबी बोगनवेल…

फुललेत रस्तोरस्ती….

तेच माखून घ्यावेत मनावर आणि

निःसंग पणे साजरा करावा वसंतोत्सव!

होळी एक सण…रंगाचा!

 करूया साजरा न जाळता न भिजता!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ निसर्ग पाहू,आस्वादक होऊ ☆ श्री ओंकार कुंभार ☆

?  विविधा ?

☆ निसर्ग पाहू,आस्वादक होऊ ☆ श्री ओंकार कुंभार ☆ 

सजगतेने निसर्ग पाहू.

निसर्गाचे आस्वादक होऊ.

एका बाजूला उन्हाळ्याचा दाह वाढत आहे आणि दुसरीकडे याच कालावधीत निसर्गात सुंदर अशी फुले फुलली आहेत. आपण आपल्या माना वर करून सजगतेने इकडे तिकडे पहायला हवे बस्स.

सुरुवातीला दिसू लागला तो निलमोहोर . सुंदर गडद निळसर असे झुबके संपूर्ण झाडावर पसरलेले आपणाला पहायला मिळतात. निलमोहराची मोहिनीच आपल्यावर झाल्याशिवाय राहत नाही. पाहातच रहावे असे वाटते.

त्यानंतर दिसू लागला तो पळस . आहाहा…

हाताची बोटे एकत्र करून वरती केल्याप्रमाणे याचा आकार. तशी जाडसर पाने असलेली भरपूर फुले. पानच नसतं या कालावधीत पळसाला. इतरवेळी उघडा बोडका वाटणारा पळस उन्हाळ्याची चाहूल लागताच आग लागावी तसा बहरतो. जंगलात पळसाची अगदीच कुठेकुठे झाडे असतील तर संपूर्ण झाडाला आग लागल्यासारखा भास होतो. म्हणून याला Flame of the Forest संबोधले जाते. पळसात पण विविधता आढळते. पळसाला पाने तीनच. असे म्हंटले जाते. पळसाच्या पानांच्या जेवणासाठी पत्रावळ्या केल्या जातात. काही ठिकाणी पळस गर्द लाल चुटुक, तर काही अबोली, फिकट लालसर, तर पिवळाही काही ठिकाणी. पळस फुलल्यावर पक्ष्यांना एक छान मेजवानीच असते. पळसावर विविध प्रकारचे पक्षी मधुपानासाठी आलेली आपणाला पहायला मिळतात. त्यातल्या त्यात सूर्यपक्षी, साळुंखी,मैना आणि बुलबुल जास्तीत जास्त काळ पळसाचा आस्वाद घेताना आढळतात. पळसही दिसायला देखणा दिसतो. झाडाखाली पळस फुलांचा सडा पडलेला पहायला मिळतो.

याच कालावधीत काटेसावर ही फुलते. पळसासारखेच इतर मोसमात रुक्ष असणारे हे झाड उन्हाळा जवळ येताच सुंदर फिकट लाल वा गुलाबी वा केशरी फुलांनी बहरते. याला कमी पण सुंदर फुले लागतात. हाताची बोटे वर करून पसरल्याप्रमाणे याचा आकार असतो. यातही विविधता आढळते. ही फुलेही सुंदर, डोळ्यांना आनंद देणारी वाटतात. काटेसावर फुलांच्या मकरंदाचा आस्वादही अनेक पक्षी घेतात.

यानंतर वर्षातून दोनवेळा बहरणारा सोनमोहोर ही आपले लक्ष वेधून घेतोच. याचे झाड मात्र मोठे असते आणि भरपूर पिवळाई या कालावधीत या झाडाला आलेली असते. या कालावधीत झाडाखाली पिवळा सडाच पडलेला असतो. हेही झाड रखरखत्या उन्हात डोळ्याना छान आनंद देणारे असते.

जरा उशिरा फुलणारा गुलमोहर . यातही विविध प्रकार पहायला मिळतात. काही गुलमोहोर लालभडक, तर काही फिकट लालसर, तर काही फिकट गुलाबी. तर काही अबोलीच्या जवळ जाणारी रंगसंगती असते. काही गुलमोहर वर्षभर उघडे बोडके असतात, काही वर्षभर हिरवळ धारण करतात. पण जसा उन्हाळा जवळ येईल तसे झाडाला शेंगा लागायला सुरुवात होते. नंतर हळूहळू शेंगा फुटून लाल फुलांचा बहर झाडभर पसरतो. काही पूर्ण झाडे लाल भडक दिसायला लागतात, तर काहींवर थोडी हिरवी पालवी आणि गुलमोहराची लालिमा पसरलेली दिसते. खरच विविध प्रकारचा गुलमोहोर अबालवृद्धांचे मन मोहून टाकतो.

याच कालावधीत उशीरा फुलणारे आणखी एक सुंदर झाड म्हणजे बहावा ( गोल्डन शाँवर ). याही झाडाला कुसुमसंभार येण्यापूर्वी लांबुळक्या शेंगा लागतात आणि काही कालावधी नंतर शुभ्र पिवळी फुले लागायला सुरुवात होते. पाहतापाहता काही दिवसातच शुभ्र पिवळ्या फुलांनी संपूर्ण झाड लगडते. याचे गोल्डन शाँवर हे नाव समर्पक आहे. कारण, झाडभर शुभ्र पिवळे झुबके लोंबत असतात. या झाडावरही भरपूर पक्षी मधुपानासाठी येतात. विशेषकरून भरपूर प्रमाणात विविध प्रकारचे भुंगे मधुपानाचा आस्वाद घेताना दिसतात. काय अप्रतिम नजारा असतो. आहाहा…

पाहतच रहावे असे वाटते.

रात्रीच्या जेवणानंतर शतपावली करायला बाहेर पडावे आणि कोठूनतरी रातराणी चा सुगंध दरवळावा. सुगंध नाकात शिरताच एक क्षणभर समाधीच लागते. काय तो मोहक मंद सुगंध.     वाSSह.

 

© ओंकार कुंभार

📱9921108879

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ नाट्यछटा ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ नाट्यछटा ☆ श्री आनंदहरी ☆

” आलिया भोगासी असावे सादर !….”

(रेडिओवर गाणे लागले आहे, नवरा नको ग बाई मला दादला नको ग बाई…गाणे बंद करते )

अगदी खरं आहे बाई तुझे.. नवरा नको ग बाई मला दादला नको ग बाई.. अगदी असंच वाटतं बघ..

काय म्हणालात ‘ असं का गं ?’ काय सांगायचं तुम्हांला ? अहो, आमच्या ह्यांशी संसार करणे म्हणजे सोपी का गोष्ट आहे..

“अहो,  एक काम धड करतील तर शपथ..साधे कपडे धुवायला टाकताना कपडे सरळ सुद्धा करणार नाहीत.. जीव अगदी मेटाकुटीला येतो हो !…हा संसाराचा गाडा ओढायचा ओढायचा म्हणजे किती ओढायचा एकटीने.. (कपडे उचलण्याचा,सरळ करण्याचा अभिनय )

दोन दिवस वाण सामान आणण्यासाठी यांच्या कानी-कपाळी ओरडतेय.. पण ऐकू जाईल तर शप्पत ! आले आपले हात हालवत.. विचारलं तर म्हणतात कसं ?. अगं ऑफिसमध्ये काम जास्त होतं .. गडबडीत विसरलो… बरं झालं बाई, आज ऑफिसला जातानाच वाणसामानासाठी हातात पिशव्या दिल्या यांच्या ते… पिशव्या पाहून तरी आठवणीनं आणतील सामान..

अहो, वाणसामानाचं दुकान का जवळ आहे ? आणि घरातलं सारं आवरून परत इतक्या लांब जायचं म्हणजे खूप वेळ जातो हो.. दुपारची झोप सुद्धा मिळत नाही.. तशी मी दुपारी झोपत नाहीच म्हणा.. ? अहो ,वेळच कुठं मिळतो ? सारं आवरेपर्यंत बारा तरी वाजतातच.. ती ही धुण्याभांड्याची सखू वेळेवर आली तरच हं … पण स्वैपाकाच्या काकू  मात्र अगदी वक्तशीर हो .. सकाळी सात म्हणजे सात.. अगदी घड्याळ लावून घ्यावं त्या आल्या की.. काय करणार हो ? एवढ्या सकाळी स्वैपाक आवरवाच लागतो.. ऑफिसला जाताना यांना डबा द्यायचा असतो ना ..  हे अगदी नऊच्या ठोक्याला जातात ऑफिसला..  ते ऑफिसला गेले की सखूची वाट बघत बसायचं.. नुसता वैताग येतो हो.. बाईसाहेब कधी दहाला उगवणार तर कधी अकराला.. वेळेचं काही भानच नाही तिला ..वर तिला काही बोलायची पंचाईत..  म्हणतात ना ‘फट म्हणता ब्रह्महत्या..’ तशातली गत व्हायची.  अहो, काम सोडून गेली तर दुसरी कुठून बघू..? मोकळा वेळ असा मिळतोच कितीसा मला ?  त्यात पुन्हा दुसरी कामवाली शोधत बसायचं म्हणजे.. ? माझा काही जीव आहे की नाही.. सखू आली की झाडलोट करणार, मग कपडे धुणार.. भांडी घासून झाली की निघाल्या राणीसाहेब तरातरा.. एखादं जादाचं काम सांगावं तर म्हणते कशी..

‘ केलं असतं हो पण वाडकरांकडे उशीर होतो कामाला.. आणि वाडकर वहिनी किती कजाग आहेत ते तुम्हांला माहितीच आहे..

जरा उशीर झाला की लगेच बडबडायला सुरवात करतात … ‘

सगळे खोटे..  मी काही वाडकर वहिनींना ओळखत नाही होय ? हीच मेली कामचुकार.. हिलाच काम करायचं नसतं ..मला काही कळत नाही होय..? पण बोलणार कसं ? 

सखू गेली की जरा आडवं व्हावं म्हणून आडवे व्हायला जावं तर.. डोळे मिटतायत, न मिटतायत तोवर घड्याळात चार वाजतात.

तुम्हाला सांगते, ही घड्याळे पण एवढी आगाऊ असतात.. आपण जरा विसावा घ्यावा म्हणलं की पळतात पुढं पुढं.. अगदी वाघ मागे लागल्यासारखी ! स्त्री द्वेष्टी मेली. जाऊद्या.. आता उठलं तर पाहिजेच.

पण आता काय करावं बरं ? हं ! रंजनाला कॉल च करते , रंजना म्हणजे माझी मैत्रीण हो ! 

(मोबाईल वर कॉल लावते)

अं ss उचलत कसा नाही.. झोपली असेल .  दुसरे काय ? पुन्हा लावून बघते ? (परत कॉल लावते )

“हॅलो ss!”

काय म्हणालीस , कामात आहेस? नंतर करतेस?

कामात आहे म्हणून कट केला हो तिने ..

अहो, कामात कसली ? घरात इकडची काडी तिकडे करत नाही.  धुणे भांडी, स्वैपाक , झाडलोट सगळ्याला बायका आहेत कामाला , उरले सुरले सासूबाई करतात अजून… नटमोगरी मेली.. परवा परेरांची लेक गेली कुणाचा तरी हात धरून पळून … तेंव्हा दहादा फोन करीत होती.. चौकशी करायला.. तिला कुणाच्या उखाळ्या पाखाळ्या काढायच्या असल्या की बरा वेळ असतो.. आणि आत्ता…? जाऊद्या …

आले वाटतं, चहा टाकते .. आमच्या ह्यांना की नाही,  आल्या आल्या हातात चहाचा कप लागतो..  आयता ..स्वतःहून कधी करून घेतील.. मला देतील .. पण नाव नाही. अहो घरात कशाला हात लावतील तर शपथ..!  नुसता वैताग येतो हो.. एखाद्यानं करायचे करायचे म्हणजे किती करायचे.. पण यांना त्याचं काही आहे का?

“अहो, आणलंत का सामान..?  काय म्हणताय? विसरलात ? अहो पिशव्या दिल्या होत्या ना आठवणीसाठी.. त्या कशासाठी दिल्या ते ही विसरलात की काय ?  बरे झाले बाई, नोकरीवर जायचे, घरी यायचे विसरत नाही ते..  आपल्याला घर आहे बायको आहे हे विसरत नाही ते काही कमी आहे का. ?

“काय म्हणालात ? काम जास्त होते..निघेपर्यंत दुकाने बंद झाली ? “

तुम्हांला सांगत्ये नुसती कारणं हो एखादं काम सांगितली की..काम कुठलं हो.. बसायचं मित्रांसोबत चकाट्या पिटत.. मला का कळत नाही होय? आणि नेमकं  काम सांगितलं की बरं यांच्या ऑफिसातील काम वाढतं ? कामचुकार मेले.. नुसता वैताग येतो हो .. पण करणार काय ? पदरी पडले आणि..

.. बघा बघा, दुसऱ्यांचे नवरे घरात कित्ती कामं कर असतात ते आणि आमचे हे ध्यान..

कधी कधी वाटतं बिन लग्नाची राहिले असते तरी बरं झाले असतं.. पण असला नवरा.. नको नको ग बाई !

काय म्हणालात? अगं बाई ,ऐकू गेलं वाटतं… बोलणं…” हो हो  अहो मी आहे म्हणून.. दुसरी तिसरी कुणी असती तर कधीच सोडून गेली असती हो…पण काय करणार ? लग्न केलयं ना तुमच्याशी…

ऐकू येतंय म्हणलं मला..

हो हो .. पण तुमचे कसले भोग हो ..? भोग तर माझे आहेत…

अहो, लग्न केलंय ना मग  भोगतेय आता..भोगायलाच हवं..

आता बोलून तरी काय उपयोग आहे ? ..म्हणतातच ना…

आलिया भोगासी असावे सादर ..!

◆◆◆◆◆

© श्री आनंदहरी

अद्वैत, मंत्रीनगर, इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099/9422373433

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २० – भाग १ – कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २० – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ✈️

सिंगापूर आणि थायलंड हे देश आपल्या परिचयाचे आहेत. बँकॉक म्हणजे थायलंडच्या राजधानीला अनेकांनी भेट दिली असेल. थायलंडला जोडून आग्नेय दिशेला  कंबोडिया नावाचा एक छोटासा देश आहे. बँकॉकला विमान बदलून आम्ही कंबोडियाच्या सियाम रीप या आंतरराष्ट्रीय विमानतळावर उतरलो.

कंबोडियाचे आधीचे नाव कांपुचिया तर प्राचीन नाव कंबुज असे होते. इसवी सन ९७४ मधील तिथल्या एका संस्कृत शिलालेखाप्रमाणे दक्षिण भारतातील एका राजाने कंबोडियाच्या नागा राजकन्येशी विवाह केला होता. सियाम रीपपासून जवळच अंगकोर नावाचे ठिकाण आहे. अंगकोर ही त्यावेळी कंबोडियाची राजधानी होती. अंगकोर येथे १८०० वर्षांपूर्वी बांधलेला हिंदू देवालयांचा एक शिल्पसमूह  ७७ चौरस किलोमीटर एवढ्या प्रचंड परिसरात आहे. इथल्या अद्वितीय शिल्पकलेवर तामिळनाडूतील चोला शैलीचा तसेच ओरिसा शैलीचा प्रभाव जाणवतो.सॅ॑डस्टोन, विटा व लाल- पिवळा कोबा वापरून उभारलेले हे शिल्पांचे महाकाव्य जगातील सर्वात मोठे धार्मिक शिल्पकाम समजले जाते.

प्राचीन काळापासून इथे खमेर संस्कृती नांदत आहे व आजही इथले ९०% लोक खमेर वंशाचे आहेत. त्यांची लिपी व भाषा खमेर आहे. कंबोडियावर अनेक शतके व्हिएतनाम, थायलंड, चीन, जपान, फ्रान्स अशा अनेक देशांनी राज्य केले. सोळाव्या शतकात धाडसी युरोपीयन प्रवाशांना इथल्या जंगलात फिरत असताना अंगकोर इथल्या शिल्पसमूहाचा अकस्मात शोध लागला.

अंगकोर वाट ( मंदिर )हे बरेचसे सुस्थितीत असलेले प्रमुख देवालय आहे. राजा सूर्यवर्मन (द्वितीय ) याच्या कारकिर्दीमध्ये हे देवालय १२ व्या शतकाच्या पूर्वार्धात बांधण्यात आले. या अतिशय भव्य, देखण्या मंदिराला पाच गोपुरे आहेत. यातील मधले उंच गोपूर हे मेरू पर्वताचे प्रतीक मानले जाते. ही मेरू पर्वताची पाच शिखरे मध्यवर्ती मानून साऱ्या विश्वाची प्रतीकात्मक स्वरूपात उभारणी होईल अशा पद्धतीने पुढील प्रत्येक राजाने इथले बांधकाम केले आहे.  मंदिराभोवतालचे तळे सागराचे प्रतीक मानले जाते. गुलाबी कमळांनी भरलेल्या तळ्यात मंदिराचे देखणे प्रतिबिंब पाहून मंदिर प्रांगणातील उंच, दगडी पायऱ्या चढायला सुरुवात केली.

जगातील सर्वात मोठी श्रीविष्णूची आठ हात असलेली भव्य मूर्ती इथे आहे. शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण केलेल्या, खांद्यावरून सिल्कचे सोवळे पांघरलेल्या या मूर्तीची आजही पूजा केली जाते. परंतु या मूर्तीचे मस्तक आता भगवान बुद्धाचे आहे.खमेर संस्कृतीमध्ये हिंदू व बौद्ध या दोन्ही धर्मांचा प्रभाव होता. श्री विष्णूचे मूळ मस्तक आता म्युझियम मध्ये आहे.

या मंदिराच्या दोन्ही बाजूच्या लांबलचक ओवऱ्या त्यावरील सलग, उठावदार, प्रमाणबद्ध कोरीव कामामुळे जगप्रसिद्ध आहेत.  ६०० मीटर लांब व दोन मीटर उंच असलेल्या या दगडी पॅनलवर रामायण व महाभारत यातील अनेक प्रसंग अत्यंत बारकाईने कोरलेले आहेत. कुरुक्षेत्रावर लढणारे कौरव-पांडव, त्यांचे प्रचंड सैन्य, हत्ती, घोडे, रथ व त्यावरील योद्धे, बाणाच्या शय्येवर झोपलेले भीष्म,बाणाने वेध घेणारे द्रोणाचार्य , भूमीत रुतलेले रथाचे चाक वर काढणारा कर्ण, अर्जुनाच्या रथाचे सारथ्य करणारा श्रीकृष्ण, हत्तीवरून लढणारा भीम व त्याच्या ढालीवरील राहूचे तोंड असे अनेकानेक प्रसंग कोरलेले आहेत.

पायाला बांधलेल्या उखळीसकट रांगणारा कृष्ण, कृष्णाने करंगळीवर उचललेल्या गोवर्धन पर्वताखाली आश्रय घेणारे गुराखी व गाई, आपल्या वीस हातांनी कैलास पर्वत हलविणारा रावण,  शंकराला बाण मारणारा कामदेव, कामदेवाच्या मृत्यूनंतर रडणारी रती, वाली व सुग्रीव युद्ध, वासुकी नागाची दोरी करून समुद्रमंथन करणारे  देव-दानव, त्या समुद्रातून वर आलेले मासे, मगरी, कासवे ,आकाशातील सूर्य- चंद्र, कूर्मावतारातील विष्णूने तोलून धरलेला मंदार पर्वत अशा अनेक शिल्पाकृती पाहून आपण विस्मयचकित होतो.

दुसऱ्या बाजूच्या पॅनेलवर सूर्यवर्मन राजाची शाही मिरवणूक आहे. यात प्रधान, सेनापती, हत्ती, घोडे, रथ,  बासरी , ढोलकी व गॉ॑ग वाजविणारे वादक दाखविले आहेत. त्या पुढील पॅनलवर हिंदू पुराणातील स्वर्ग-नरक, देव-देवता, रेड्यावरील यमराज दाखविले आहेत. या सबंध मंदिरात मिळून जवळजवळ  १८०० अप्सरांचे पूर्णाकृती शिल्प आहे. त्यांच्या केशरचना, नृत्यमुद्रा, भावमुद्रा, दागिने, वस्त्रे पाहण्यासाठी जगभरचे कलाकार आवर्जून कंबोडियाला येतात.  विविध ठिकाणी शंकर, मारुती, गणपती यांच्या छोट्या मूर्ती आहेत. हे गणपती दोन हातांचे, सडपातळ व सोंड पुढे वाकलेली असे आहेत. जिथे गणपतीला चार हात आहेत तिथे मागील दोन हातात कमळ, चक्र आहे.

वास्तुशास्त्राचा अजोड नमुना म्हणून वाखाणलेल्या या देवालयाचे एकावर एक तीन मजले आहेत. लांबलचक कॅरिडॉर्स व उंच जिने यांनी ते एकमेकांना जोडलेले आहेत. दुसऱ्या मजल्यावर जाताना भगवान बुद्धाचे उभे व बसलेले वेगवेगळ्या मुद्रांमधील अनेक पुतळे आहेत. गॅलरीच्या दोन्ही बाजूच्या खांबांवर नागाची शिल्पे आहेत. तिसऱ्या मजल्यावर जाण्यासाठी पाच मजले उंच शिडी चढून जावे लागते. तेथील गच्चीवरून या मंदिराची रचना व आजूबाजूचा भव्य परिसर न्याहाळता येतो. मंदिराच्या गॅलऱ्यांचे दगडी खांब एखाद्या लेथवर केल्यासारखे गुळगुळीत, सुरेख वळणावळणांचे आहेत. वास्तुशास्त्राचा उत्तम नमुना असलेले, भव्य पण प्रमाणबद्ध रचना असलेले, असंख्य रेखीव शिल्पाकृती असलेले हे महाकाव्य भारावून टाकणारे असेच आहे.

अंगकोर थोम ( शहर ) येथील गुलाबी कमळांच्या तळ्यावरील छोटा पूल ओलांडला की रस्त्याच्या एका बाजूला देव तर दुसऱ्या बाजूला दानव सात फण्यांच्या नागाचे लांबलचक जाड अंग धरुन समुद्रमंथन करताना दिसतात. या नगरीचे प्रवेशद्वार २३ मीटर्स म्हणजे जवळजवळ सात मजले उंच आहे. त्यावर चारी दिशांना तोंडे असलेली एक भव्य मूर्ती आहे. प्रवेशद्वाराशी दोन्ही बाजूंना तीन मस्तके असलेला इंद्राचा ऐरावत आहे. हत्ती सोंडेने कमळे तोडीत आहेत. त्यांच्या सोंडा प्रवेशद्वाराचे खांब झाले आहेत. अशी पाच प्रवेशद्वारे असलेल्या या शहराचा बराचसा भाग आता जंगलांनी व्यापला आहे. आठ मीटर उंच व प्रत्येक बाजू तीन किलोमीटर लांब अशी भक्कम , लाल कोब्याची संरक्षक भिंत या शहराभोवती उभारण्यात आली होती. यातील फक्त दक्षिणेकडील भाग सुस्थितीत आहे.

प्रत्येक कोपऱ्यात उंच देवालय तसेच लोकेश्वर बुद्धाची देवळे आहेत. मुख्य देवालय तीन पातळ्यांवर असून त्यावर ५४ उंच मनोरे आहेत. प्रत्येक मनोर्‍यावर राजाच्या चेहऱ्याशी साम्य असलेले चार हसरे चेहरे आहेत. फणा उभारलेले नाग, गर्जना करणारे सिंह आहेत. सहा दरवाजे असलेल्या लायब्ररीसारख्या बिल्डिंग बऱ्याच ठिकाणी आहेत. त्यावरील पट्टिकांवर कमळे, देवता असे कोरले आहे. एक आरोग्य शाळा ( हॉस्पिटल ) आहे. एके ठिकाणी नागाच्या वेटोळ्यावर बसलेली, चेहर्‍याभोवती नागाचा फणा असलेली, बारा फूट उंचीची भगवान बुद्धाची पद्मासनात बसलेली मूर्ती आहे.उंच चौथऱ्यांच्या खालील बाजूला अप्सरा, चायनीज व खमेर सैनिक, वादक, प्राण्यांची शिकार, शिवलिंग, आई व मूल, बाळाचा जन्म, मार्केटमध्ये भाजी-फळे विकणाऱ्या स्त्रिया, माकडे, कोंबड्यांची झुंज, मोठा मासा, गरुडावरील विष्णू, नौकाविहार करणाऱ्या स्त्रिया अशी अनेक शिल्पे आहेत. एका चौथऱ्यावर खाली हत्तींची रांग तर एके ठिकाणी मानवी धडाला सिंहाचे तोंड, गरुडाचे तोंड कोरलेली अनेक शिल्पे आहेत. अगदी खालच्या पातळीवर पाताळातील नागदेवता,जलचर आहेत. एके ठिकाणी हाताचा अंगठा नसलेला व लिंग नसलेला एक राजा कोरला आहे. त्याला ‘लेपर किंग’ असे म्हणतात. राजा जयवर्मन सातवा व राजा जयवर्मन आठवा यांच्या कारकिर्दीमध्ये हे शहर उभारले गेले.

कंबोडिया_ भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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