(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।
आज से प्रस्तुत है परमपूज्य पिताजी की स्मृति में रचित श्रद्धांजलि स्वरुप एक भावप्रवण कविता “मैं पुत्र वो मेरा पिता है…”।)
कविता – “मैं पुत्र वो मेरा पिता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(पिताजी उस्ताद शंकर लाल पटवा ने 18 मार्च 2018 के दिन यमलोक प्रस्थान किया था। उनकी पुण्य तिथि पर सादर नमन )
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 32
तीर्थाटन का महत्व-
1) सभी तीर्थ जलवायु की दृष्टि से बेहद उपयोगी स्थान हैं। इन सभी स्थानों पर नदी का जल स्वास्थ्यप्रद है। अनेक प्राकृतिक लवण पाए जाते हैं जिससे जल सुपाच्य और औषधि का काम करता है। विशेषकर गंगाजल को संजीवनी यों ही नहीं कहा गया। बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, उचित रखरखाव के अभाव ने अनेक स्थानों पर तीर्थ की अवस्था पहले जैसी नहीं रहने दी है तथापि गंगा का अमृतवाहिनी स्वरूप आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।
2) तीर्थयात्रा को पदयात्रा से जोड़ने की उदात्त दृष्टि हमारे पूर्वजों की रही। आयुर्वेद इसे प्रमेह चिकित्सा कहता है। पैदल चलने से विशेषकर कमर के नीचे के अंग पुष्ट होते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। भूख अच्छी लगती है, पाचन संस्थान प्रभावी रूप से काम करता हो।
3) व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने की कुँजी है तीर्थाटन। लोकोक्ति है, ‘जिसके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई!’ तीर्थाटन में अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह के अनुभव होते हैं। अनुभव से अर्जित ज्ञान, किताबी ज्ञान से अनेक गुना प्रभावी, सच्चा और सदा स्मरण रहनेवाला होता है। इस आलेख के लेखक की एक चर्चित कविता की पंक्तियाँ हैं,
उसने पढ़ी
आदमी पर लिखी किताबें,
मैं आदमी को पढ़ता रहा!
तीर्थाटन में नये लोग मिलते हैं। यह पढ़ना-पढ़ाना जीवन को स्थायी सीख देता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 73 ☆ गजल – ’बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार☆
किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पर पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया।
गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा। उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।
अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पहले मूर्तिकार की चोटों से पत्थर काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।
पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।
मित्रो, यही बात हर इंसान के दैनिक जीवन पर भी लागू होती है, बहुत सारे लोग जो ये शिकायत रखते हैं कि वो कठिन प्रयासों के बावजूद सफल नहीं हो पाते लेकिन सच यही है कि वो आखिरी प्रयास से पहले ही थक जाते हैं। लगातार कोशिशें करते रहिये क्या पता आपका अगला प्रयास ही वो आखिरी प्रयास हो जो आपका जीवन बदल दे।
ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १९ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
विनायक लक्ष्मण छत्रे
विनायक लक्ष्मण ऊर्फ केरूनाना छत्रे (16 मे 1825 – 19 मार्च 1884) हे प्राचीन भारतीय तसेच आधुनिक गणित व खगोलशास्त्र यांचे अभ्यासक होते. विष्णुशास्त्री चिपळूणकर, लो. टिळक, गो. ग. आगरकर ह्यांचे ते गुरू होते.
त्यांचा जन्म अलिबागमधील नागाव येथे झाला. पण बालपणीच आई -वडील गेल्याने ते शिक्षणासाठी मुंबईला चुलत्यांकडे आले. त्यांच्यामुळेच असामान्य बुद्धिमत्तेच्या केरूनानांना वाचनाची गोडी व कोणत्याही प्रश्नाकडे वस्तूनिष्ठ दृष्टीने पाहण्याची सवय लागली. एल्फिन्स्टन इन्स्टिटयूटमध्ये आचार्य बाळशास्त्री जांभेकर व प्रा. आर्लिबार या व्यासंगी गुरूंकडून मिळालेल्या मूलभूत ज्ञानामुळे गणित, खगोल व पदार्थविज्ञानासारख्या कठीण शास्त्रांत त्यांना गती प्राप्त झाली. प्रगल्भ ग्रंथांचे परिशीलन करून केरूनानांनी या विषयातले प्रगत ज्ञान मिळवले.
आर्लिबर यांनी आपल्या वेधशाळेत अवघ्या सोळा वर्षांच्या केरूनानांना दरमहा 50 रु. पगारावर नेमले. तेथे दहा वर्षे केरुनानांनी जागरूकपणे हवामानशास्त्राचे शिक्षण घेतले. त्यानंतर पुणे महाविद्यालयात व अभियांत्रिकी महाविद्यालयात ते गणित व सृष्टीशास्त्र शिकवत होते. ते हंगामी प्राचार्यही होते.
केरुनानानी शालेय पातळीवर गणित व पदार्थविज्ञानावर सुबोध व मनोरंजक भाषेत क्रमिक पुस्तके लिहिली.
त्यांनी मराठीत समर्पक, सुटसुटीत व अर्थवाही शब्द योजले. उदा. केषाकर्षण, भरतीची समा वगैरे. ‘कालसाधनांची कोष्टके ‘ व ‘ग्रहसाधनांची कोष्टके’, ‘कुभ्रम निर्णय’ इत्यादी ग्रंथ त्यांनी लिहिले.
केरुनानांनी ‘ज्ञानप्रसारक सभे’पुढे हवा, भरती -ओहोटी, कालज्ञान वगैरे विषयांवर निबंध वाचले.’हवे’वर तर एकूण 17 निबंध आहेत.’पृथ्वीवर पडणारा पाऊस व सूर्यावरील डाग’ या विषयावरही एक निबंध होता.
केरुनानांना शास्त्रीय संगीत व नाटकांचीही आवड होती.
ते दिवंगत झाल्यावर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ने त्यांना ‘जर प्रो. छत्रे यांना युरोपात पद्धतशीर शिक्षण मिळाले असते, तर ते एक युगप्रवर्तक शास्त्रज्ञ म्हणून गाजले असते, ‘ अशी श्रद्धांजली वाहिली.
जनार्दन बाळाजी मोडक
जनार्दन बाळाजी मोडक (३१ डिसेंबर १८४५ – १९ मार्च १८९२ ) हे मराठी आणि संस्कृत काव्याचे चिकित्सक व संग्राहक होते. पुणे येथे बी.ए.च्या वर्गात असतानाच ते मेजर थॉमस कॅन्डी यांच्या हाताखाली भाषांतरकार म्हणून नोकरीला लागले. नंतर मोडक ठाणे शहरातील एका शाळेत शिक्षक झाले. महाराष्ट्र सारस्वतकार विनायक लक्ष्मण भावे यांच्यावर मोडकांचा मोठा प्रभाव होता.
‘विविधज्ञानविस्तार’मध्ये त्यांनी ज्योतिष, गणिताविषयी अनेक लेख लिहिले. त्यात भास्कराचार्यांच्या ‘लीलावती’चे भाषांतर, संस्कृत कवींची चरित्रे, संस्कृत काव्यातील सौंदर्य व पुस्तकपरीक्षण यांचाही समावेश होता. याखेरीज त्यांचे मराठी काव्यासंबंधीचे लेख ‘निबंधमाला’, ‘निबंधचंद्रिका’, ‘शालापत्रक’, ‘अरुणोदय’, ‘इंदुप्रकाश’ आदी मासिकांतून प्रसिद्ध झाले.’काव्येतिहाससंग्रह’ व ‘काव्यसंग्रह’ या मासिकांच्या संपादनाची जबाबदारीही त्यांनी उत्तमपणे पार पाडली. याशिवाय त्यांनी ‘जगाच्या इतिहासाचे सामान्य निरूपण’, ‘भास्कराचार्य व तत्कृत ज्योतिष ‘, ‘वेदांग ज्योतिषाचे मराठी भाषांतर ‘ ही पुस्तकेही लिहिली. या प्रकांड पंडिताचे निधन ठाण्यात वयाच्या अवघ्या सत्तेचाळीसाव्या वर्षी झाले.
केरूनाना छत्रे व जनार्दन बाळाजी मोडक या दोन पंडितांना त्यांच्या स्मृतिदिनी आदरपूर्वक श्रद्धांजली. 🙏🏻🙏🏻
सौ. गौरी गाडेकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ :साहित्य साधना कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी. विकिपीडिया
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
रशियातून अमेरिकेत स्थलांतरित झालेल्या या बाईंमुळे जागतिक महिला दिन साजरा होतो.. वाचा त्यांचं कार्य काय आहे..
थेरेसा सर्बर माल्कल!
हे नाव तुम्ही पूर्वी कधी ऐकलं आहे का? नाही? आज आपण जो जागतिक महिला दिन साजरा करत आहोत त्याचा आणि या नावाचा घनिष्ठ संबंध आहे. कसा तो आम्ही सांगतो…
मंडळी, एखादा दिवस साजरा करण्यामागे नेमके काय कारण आहे, त्याचा इतिहास काय आहे, हा पायंडा कुणी पाडला हे जाणून घेणे महत्वाचे असते. जर ही माहिती तुम्हाला असेल तर तो दिवस साजरा करण्याचा आनंद द्विगुणित होतो. आता आजच्या जागतिक महिला दिनाचेच उदाहरण घ्या ना.. सर्वांना माहीत आहे की आज महिला दिन आहे, पण याची सुरुवात थेरेसा सर्बर माल्कल या महिलेने केली हे कुणालाच माहीत नाही. दुर्दैवाने थेरेसा आज विस्मृतीत गेल्या आहेत. चला तर मग आजच्या दिवसाचे निमित्त साधून आपण त्यांची ओळख करून घेऊया…
थेरेसा यांचा जन्म १ मे १८७४ ला रशियातल्या बार नावाच्या शहरात एका ज्यू परिवारात झाला. जन्मापासूनच ज्यू विरोधी वातावरणात वाढलेल्या थेरेसा यांना आणि त्यांच्या परिवाराला रशियाच्या त्झार राजवटीत प्रचंड त्रास सहन करावा लागला. त्यामुळं अनेक कुटुंबे तिथून स्थलांतर करून अमेरिकेत गेली. त्यात थेरेसा यांचेही कुटुंब होते. १८९१ साली अमेरिकेत दाखल झाल्यावर थेरेसा यांनी इतर ज्यू लोकांप्रमाणे चरितार्थासाठी मिळेल ते काम केले. प्रथम एका बेकरीमध्ये, नंतर एका कपड्यांच्या कारखान्यात त्यांना काम मिळाले. त्यांचा मूळ स्वभाव चळवळ्या आणि बंडखोर असल्याने त्यांचे लक्ष कामगार स्त्रियांच्या प्रश्नांकडे वेधले गेले. थेरेसा फक्त प्रश्न बघून गप्प बसणाऱ्या महिला नव्हत्या… त्या प्रश्न सोडवण्यासाठी काय करता येईल याचा विचार करू लागल्या आणि त्यातूनच कामगार स्त्रियांच्या संघटनेची निर्मिती त्यांनी केली. या स्त्री संघटनेतून स्थलांतरित कामगार स्त्रियांचा आवाज उठवण्याचे काम त्या करू लागल्या.
लवकरच त्यांच्या असे लक्षात आले की, फक्त संघटना चालवून भागणार नाही. महिलांना पुरुषांच्या समान हक्क हवे असतील तर राजकारणात उतरण्याशिवाय पर्याय नाही हे त्यांनी ओळखले. आता त्यांनी कामगार स्त्रियांच्या प्रश्नांसोबतच एकंदरीत स्त्री-पुरुष समानतेवरही लक्ष केंद्रित केले. सोशालिस्ट पार्टीमध्ये प्रवेश करून त्यांनी राजकारणात शिरकाव करून घेतला. त्यावेळी सोशालिस्ट पार्टी ही एकमेव अशी पार्टी होती ज्यात महिलांना प्रवेश मिळत असे. आम्ही स्त्री-पुरुष भेदभाव करत नाही असा त्यांचं ब्रीदवाक्य होतं. यामुळेच थेरेसा सोशालिस्ट पार्टीकडे आकर्षित झाल्या होत्या. परंतु दुर्दैवाने लवकरच त्यांना सत्य समजले की पार्टीचा नारा फक्त दिखाऊ स्वरूपाचा होता. निर्णय घेण्याच्या प्रक्रियेत महिलांना नगण्य स्थान मिळत असे. थेरेसा यांनी यामुळे निराश न होता असे ठरवले की, पार्टी न सोडता आपली समांतर विचारधारा चालवून आपले ध्येय साध्य करायला हवे. त्यांनी सोशालिस्ट महिलांची एक वेगळी चळवळ सुरू केली आणि महिलांसाठी राजकारणात एक वेगळे स्वतंत्र व्यासपीठ असायला हवे असे जोरदार मत मांडले.
शेवटी सोशालिस्ट पार्टीने त्यांचे म्हणणे मान्य केले आणि अमेरिकेच्या इतिहासात प्रथमच महिलांसाठी वेगळे डिपार्टमेंट बनवण्यात आले. त्याच्या अध्यक्षपदी थेरेसा विराजमान झाल्या. मंडळी, त्या काळी ही गोष्ट अजिबात सोपी नव्हती! एक तर महिला, त्यात अमेरिकेबाहेरील स्थलांतरित कामगार… ही एका नव्या पर्वाची सुरुवात होती!
या पदावर बसून थेरेसा यांनी महिलांच्या हक्कासाठी लढा दिला. त्यातलाच एक हक्क म्हणजे महिलांना मतदानाचा अधिकार! तोपर्यंत अमेरिकेत महिलांना मतदानाचा अधिकार नव्हता. तो मिळायलाच हवा हा मुद्दा थेरेसा यांनी सर्वांसमोर मांडला आणि बरेच प्रयत्न करून त्यासाठी समर्थन मिळवले. या सोबतच महिलांचे अनेक प्रश्न त्यांनी यशस्वीपणे हाताळले. महिलांमध्ये शिक्षणाविषयी जागरूकता निर्माण केली.
थेरेसा यांनी जगाचे लक्ष महिलांच्या समस्यांकडे वेधले जावे म्हणून एक कल्पना मांडली. वर्षातला एक दिवस ‘महिला दिन’ म्हणून साजरा व्हावा हीच ती कल्पना… सोशालिस्ट पार्टीने त्यांना या बाबतीत साथ दिली आणि अमेरिकेत पहिला ‘राष्ट्रीय महिला दिन’ १९०९ साली २८ फेब्रुवारी रोजी साजरा झाला. ही कल्पना नंतर युरोपियन देशांमध्ये सुद्धा पसरली आणि नंतर जगभरात लोकप्रिय झाली. आज सर्वानुमते जगभरात एकाच दिवशी म्हणजे ८ मार्च रोजी ‘जागतिक महिला दिन’ साजरा होतोय या मागे मूळ कारण थेरेसा सर्बर माल्कल या आहेत.
थेरेसा माल्कल यांचे १७ नोव्हेंबर १९४९ मध्ये निधन झाले. एक स्थलांतर होऊन अमेरिकेत आलेली मुलगी ते अमेरिकेच्या राजकारणातील बलशाली महिला असा त्यांचा थक्क करणारा प्रवास होता. त्यांचे निधन झाल्यावर हळू हळू लोक त्यांना विसरले. आज आपण महिला दिन साजरा करतो पण थेरेसा यांचा उल्लेख कुठेही होत नाही हे दुर्दैवी सत्य आहे.
साभार फेसबुक
संग्रहिका – प्रस्तुती – सुश्री रेवती वैभव मोडक
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈