English Literature – Poetry ☆ Legislations… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem  “विधान…”We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

विधान…

चाँदनी के आँचल से

चाँद को निरखते हैं,

इतने विधानों के साथ

कैसे लिखते हैं..?

सीधी-सादी कहन है मेरी

बिम्ब, प्रतीक,

उपमेय, उपमान

तुमको दिखते हैं..!

☆ Legislations… ☆ 

From Aanchal* of moonlight

You keep viewing the moon…

 

How d’you manage to write

despite so many dogmatic doctrines…

 

Oh! My stories are always simply straightforward…

 

But, the images,

reflections and symbols,

tenors and analogies

are only seen by you..!

 

 *Aanchal… the lap of saree or dupatta

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ कमाल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ कमाल ☆

नाराज़ हो मुझसे,

उसने पूछा…,

मैं हँस पड़ा,

कमाल देखिए,

वह नाराज़ हो गई मुझसे!

 

# हँसी-खुशी बीते आपका दिन।

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 9.06 बजे, 27.10.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ईमेल@अनजान-2 ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का एक अभिनव प्रयोग  ईमेल@अनजान।  अभिनव प्रयोग इसलिए क्योंकि आज पत्र  भला कौन लिखता है? इस अंक में एक लेखनुमा यात्रावृत। कृपया आत्मसात करें । )

☆ ईमेल@अनजान -2 ☆

कमल कुमार के पासवर्ड उपन्यास को पढ़ रही थी। उसमें चित्रित एक प्रसंग ने  कोरिया के उन दिनों की याद ताज़ा करा दी जब मैं सिउल में बतौर हिंदी अतिथि आचार्य के रूप में युनिर्वसीटी में हिंदी पढ़ा रही थी। पासवर्ड में लेखिका अपने चीन जाने के अनुभव को याद करते हुए लिखती हैं कि चीन में किसी समारोह में उनकोवहां के किसी प्रसिद्ध खाद्य पद्धति के अनुसार एक शेफ ने एक सारा मेमना जिसके अंदर कुछ और मांस तथासब्ज़ियां डालकर पकाया था और उसे एक मेज पर सजाया था, का उद्घाटन करने के लिए बुलाया और हाथ में चाकू देकर कहा कि इसे काटकर सभा का उद्घाटन करें। तो उन्होंने इसे अपनी भारतीय परंपरा के विरुद्ध कहकर उस मेमने को काटने के बजाए उसे कुछ पत्ते खिलाकर सभा का उद्घाटन किया जो कि अगले दिन की ब्रेकिंग न्यूज़ बना। इस प्रसंग से मेरी साउथ कोरिया की कुछ यादें ताज़ा हो गयी।

जब मैं सिउल में थी तब हम कुछ भारतीयों को एक ऐसी ही पार्टी में निमंत्रित किया गया था। एंबेसी से जुडी होने के कारण कई बार प्रतिष्ठित व्यक्तियों की पार्टी में जाने का मौका मिलता था और दक्षिण कोरिया की संस्कृति को देखने, समझने का एक अवसर प्राप्त होता था। हम कुछ भारतीयों को खास निमंत्रण दिया गया था। बहुत ही सुंदर आयोजन था। सभी कोरियन स्त्री-पुरूष अपने हनबोक (Hanbok) पारंपरिक पोशाक में सजे धजे थे। उनके मुख से शालीनता ऊमड रही थी और हॉल के दरवाज़े पर खडे होकर बडे आदर से, झुककर वह हमारा अभिवादन करते, ‘अन्योंग हासियो केसोनिम’ अर्थात् नमस्ते प्रोफेसर। और हम भी अपने भारतीय टोन में ‘कमसामिदा’ (धन्यवाद) कहकर उनका स्नेहसिक्त आदर स्वीकार रहे थे। फिर उनमें से कोई एक हमें एक्सकॉर्ट करने आती और हमें हमारी सीट तक छोडकर मुस्कुराती हुई चली जाती। उनकी छोटी-छोटी आँखें कलात्मकता से सजी हुई थीं और वे काफी बड़ी और आकर्षक लग रही थीं। पुरुष भी अपने पारपंरिक पहनावे में रुबाबदार दीख रहे थे। हॉल भी अपनी संस्कृति का परिचय दे रहा था। पारंपरिक पद्धति से स्वागत और भाषण हुए। जहाँ तक याद है किसी ने कोरियाई नृत्य भी प्रस्तुत किया था। हमारी प्रत्येक टेबल पर खाने-पीने की काफी सारी चीज़े रखी गयी थीं। कुछ तो बहुत ही स्वादीष्ट थीं और कुछ तो एकदम से फीकी। खैर, कार्यक्रम खतम हुआ और डिनर की घोषणा हुई और हम डिनर हॉल में प्रविष्ट होने के लिए उठे।

जैसे ही मैंने हॉल में प्रवेश किया मेरी आँखें कुछ पल खुली रही और क्षणार्ध में बंद भी हो गयीं। पहली डिश जो बहुत ही सलीके से रखी गयी ती वह तो बारबेक्यु पोर्क…पूरा का पूरा सुअर छील कर उलटा लटकाया गया था और नीचे से लाल लाल अंगार शान से उस उल्टे टंगे सुअर को बारबेक्यु कर रहे थे। वह अक्खा सुअर देखकर ही हमको मतली सी आ गयी थी। किंतु वह तो कोरियन डेलिकसी थी। वह देखकर तो कइयों की बाछे खिल गयी थीं।

मेरे पीछे सावित्री, मोशा और कुछ भारतीय मित्र थे। उसने पीछे से हलके से मेरा हाथ दबाया और मेरे कान में हलके से फुसफुसायी, बाप रे ये क्या है?  हमारे लायक कुछ खाने को मिल भी पाएगा या नहीं? वह शुद्ध शाकाहारी! हम जैसे तैसे आगे बढे। टेबल पर कई सारे पदार्थ बहुत ही करीने से सजाकर रखे गए थे। कोरियन लोग चीजों को कलात्मक रूप से पेश करने में अधिक कॉनशस रहते हैं। उनका चाय पीने और पीलाने का ढंग भी उनके संस्कृति का अहम हिस्सा है।

हम चारों जैसे तैसे एक कोने की टेबल पकड़ कर बैठ गए। हमने वह टेबलपसंद की थी जहाँ से ‘वह’ डेलिकसी न दीख सकें। हमारे खाने लायक जो कुछ था हमने खा लिया। डिनर खतम कर जब हम बाहर आ रहे थे तब देखा उस डेलिकसी का इत्ता सा भी नामो निशान शेष नहीं था। वहां के स्थानीय लोगों ने उसे अपने पेट में जगह दी थी और वे तृप्त होकर खुशी से लौट रहे थे।

वह प्रसंग मैं भूल ही नहीं सकती। उस डेलिकसी समेत उस कार्यक्रम की हर बात कोरियाई पारंपरिक संस्कृति की परिचायक थी। ये लोग बहुत ही स्नेहिल होते हैं। खाने पीने का शौक रखते है। किसी से मिलना है तो वे किसी रेस्तराँ या कॉफी शॉप मिलते हैं। खाना और खिलाना उनकी तहजीब का अंग है।

सुनो, ऐसे किस्सों पर तुम कैसे रिएक्ट करोगे पता नहीं। किंतु यूँ तुमसे बात करना अच्छा भी लगता है। कोविड की वजह से भी मुझे बहुत सारा समय मिला है, जिसका इस्तेमाल मैं पढने लिखने और तुमसे बात करने में बिताती हूँ। जब मैं तुम से बात करती हूँ न तो भीतर से कहीं हलकी और संपन्न भी हो जाती हूँ।

कोरिया में रहते मुझे सांस्कृतिक शॉक काफी मिले। एक दो अनुभव साझा करती हूँ।

जब मैं कोरिया पहँची तब ऑटम लगभग खतम हो रहा था। वैसे बता दूँ कि कोरिया का ऑटम देखने लायक होता है। प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में सजी होती है। पेड अपना रंग बदलने लगते हैं। सारा समा ही लुभावना होता है। वहाँ पर ऑटम फेस्ट भी मनाए जाते हैं।  योंग इन कैंपस का परिसर तो प्रकृति के रमणीय दृश्यों से लैस हैं। हां, तो जब मैं पहुँची थी तब  सर्दी आहिस्ता आहिस्ता अपने पंख फैला रही थी। वह वीक एंड था। वहाँ पहुंचकर बस चार एक दिन ही हुए थे। अपने कमरे बैठे बैठे ऊब गयी तो सोचा एक चक्कर लगा आऊँ। भारत की आदत से बस सलवार कमीज़ पहन कर मैं बाहर निकली। बस घर से कुछ दो एककिलो मीटर ही गयी थी। हमारे क्वॉर्टर से जानेवाली सडक ढलान की है, वह  पार कर मैं नुक्क्ड तक गयी, जहाँ से मुझे अपनी बिल्डिंग दिखाई दे सके ताकि रास्ता खोने की समस्या से बचा जा सके। लौटकर आयी और हमारी बिल्डिंग के आहाते में कुछ देर खडी हो गयी, यदि कोई अंग्रेजी बोलनेवाला मिल जाए तो बात कर लूँ। तभी अचानक सर्द हवा का झोंका आया और मेरे रोंगटे खडे हो गए। उस झोंके ने आनेवाले जाडे की सूचना दी थी। और ये जो कहते हैं ना Winter is approaching उसकी intensity क्या होनेवाली है,  इसका अहसास हुआ था। मैं दक्षिण की होने के कारण मुझे सर्दी का अंदाजा ही नहीं था जितना की उत्तरवालों को होता है। पर कोरिया में रहते मुझे ‘समर’ से अधिक ‘विंटर’ ही अच्छा लगता था।

हाँ तो, मेरे आने की खुशी में हमारे विभाग के संकाय सदस्यों ने एक वेलकम पार्टी रखी थी। सभी साथ मिलकर एक रेस्तारां में लंच करनेवाले थे। हम एक कोरियन रेस्तरां में गए। वहाँ सारा इंतजाम कोरियाई पद्धति से था। छोटे छोटे बैठे टेबल और नीचे मुलायम तकिए। हम सब बैठ गए। खाना परोसा जाने लगा। मेरी बगल में प्रो. सो बैठे थे। बहुत ही शालीन और हंसमुख व्यक्ति। खाना लगाया गया, सूप, उबली सब्जियाँ, किमची पता नहीं क्या क्या था। जैसे ही मेन कोर्स आया तो उन्होंने एक बाउल मेरे हाथ में दिया। उसमें कुछ था ..गरम गरम  बाफ निकल रही थी। मैंने सुंघ कर जानना चाहा कि क्या हो सकता है कि तभी उन्होंने हलके से मेरे कंधे छूकर शुद्ध हिंदी में कहा, ‘प्रतिभा जी यह गाय है’। क्या बताऊं तुमको यार, उनके ऐसा कहते ही मुझे उस बाउल में पूरी की पूरी गाय ही नज़र आने लगी। ऐसा नहीं कि हमारे देश में यह नहीं खाया जाता, पर इतना स्पष्ट उसका उच्चारण भी तो नहीं किया नहीं जाता। तुम तो जानते हो, मैं जितना हो सके नॉन वेज से परहेज ही करती हूँ। मेरा क्या हाल हुआ होगा इसका अंदाजा तुम लगा ही सकते हो।

एक बार हम छात्रों के साथ एक स्थानीय मेले में गए थे। मेला अमूमन रात को लगता है। अक्सर मेरे साथ मेरी तंजानियन दोस्त मोशा साथ रहती थी। हम दोनों अक्सर कोरियाई पर्व, उत्सव आदि का आनंद लेने साथ जाती थीं ताकि साथ भी बना रहे और सुरक्षा भी। हमारे मेलों की तरह यह मेला भी अच्छा ही था। सोशलाइज होने में मेरी सबसे बडी दिक्कत मेरे खाने पीने को लेकर होती थी। मैं चूजी नहीं हूँ पर साधा सिंपल खाना अच्छा लगता है मुझे। पता है तुम्हें। मेले जाओ और कुछ खाओ पीओ नहीं तो उसका क्या मज़ा! छात्र पूछ रहे थे, प्रोफेसर आप कुछ खाएंगी। बहुत बार पूछने पर मैंने सोचा चलो ठीक है, कुछ खा लेते हैं। और मैंने आसपास देखा कि कुछ लाने के लिए कहा जाए। देखा कि एक महिला टोकरी नुमा हांडी में मुंगफली जैसी कुछ ऊबलती हुई चीज बेच रही है। मैंने दूर से ही देखा था मुझे लगा यह खाया जा सकता है, जाडे की रात में कुछ गरम खाने से मज़ा भी आएगा। हमने बस ईशारा करके कहा कि वह लेकर आए। और वह बच्चा तुरंत खुशी से उठा और दौडकर हम दोनों के लिए छोटे छोटे बाउल में वह चीज ले आया। साथ में चम्मच भी था। चम्मच को देखकर मैं समझ गयी कि यह वह चीज नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी। हम हाथ में बाउल लेकर उठे सोचा की खाते खाते घूमेंगे। मैंने उसमें से एक मात्र वह छोटा सा टुकडा उठा लिया और मूँह में डाला, मुझे वह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा, मैंने लगभग वह थूक ही दिया। दूसरी बार मूँह में डालने का सवाल ही नहीं था। बाकी लोग बडे मज़े में खा रहे थे। फिर पता किया कि यह है क्या, नाम पता लगा ‘बंदगी’।‘ बंदगी’ … कितना सुंदर नाम है। यह तो भारतीय शब्द है। कितना सुंदर अर्थ है उसका। हाँ, यही नाम कहा था, ‘बंदगी’। मैंने दोबारा कनफर्म किया। लेकिन वह क्या है यह मुझे किसी ने नहीं कहा। हम मेले से लौटे। मैने अपना यह अनुभव अपने भारतीय कलिग से शेयर किया और बातों ही बातों में हमने हमारा यह अनुभव एक कोरियाई प्रोफसर से भी शेयर किया और उनको पूछा यह बंदगी क्या चीज है। तो उन्होंने हमें जो कहा वह सुनकर तो मैं दंग ही रह गयी। अरे, वह कैटर पीलर के अंडे है, जो कोरियाई बहुत शौक से खाते हैं। वैसे कोरियाई सुपर मार्केट में कई तरह के अंडे बहुत ही करीने से रखे देखकर मैं अचंभित होती थी। छोटे बडे,रंगीन, पता नहीं किस किस के होते हैं, किसीने मुझसे कहा था, पता नहीं कितना सच या झूठ, पर इसमें सांप के भी अंडे होते हैं। तब से अंडे खाना भी मेरे लिए दुशवार हो गया था। खान पान को लेकर तो कई सारे अनुभव हैं।

कोरिया में तीन साल कैसे बीत गए पता हीं चला। आज इतने सालों बाद वह एक सपना सा लगता है। मेरे घर मेरे छात्र आते थे, उनको भारतीय खाना खिलाने में आनंद आता था। हमने तो एक इंडियन फेस्टिवल में चाय भी सर्व की थी। हमारे इवेंट को अच्छा बनाने के लिए रंगोली डाली थी तो सारे मीडियाकर्मी दौडकर आए थे रंगोली की फोटो लेने के लिए। दिन बहुत अच्छे थे। अकेली थी मैं, पर लोगों से जुडी थी, अपनों से जुडी थी। याहू विडियों कॉल पर सबसे रुबरु होती थी। मेसेंजर पर चैट करती थी। इस प्रवास ने मुझे तकनीक से जुडकर संसार से जुडने का मंत्र सीखा दिया। और ई मेल.. उसका पहला चरण था।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-22 – आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू ”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 22 ☆

☆ आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू  ☆ 

गांधी जी के  अपनी ओर  से आज़ाद  हिन्द फौज के कैदियो के बचाव मे कोई कमी नहीं  रहने दी थी ,उनकी सलाह पर कॉंग्रेस  कार्य समिति  ने अपनी राय व्यक्त की थी कि ‘यह सही और उचित भी है कि कॉंग्रेस  आज़ाद  हिन्द फौज के सदस्यो  का मुकदमे मे बचाव  करे  और संकटग्रस्तो को सहयता दे। ‘भूलाभाई  देसाई, तेज़ बहादुर  सप्रू  और जवाहर लाल नेहरू   आज़ाद  हिन्द फौज के सैनिको के बचाव मे आगे  आए  थे।

आज़ाद हिन्द  फौज के केदियो को अतिशय गुप्तता से भारत लाया गया था।सरदार पटेल ने गांधी जी को यह  सूचना दी थी कि कुछ कैदियो  को   फौजी  अदालत  मे मुकदमा चला कर गोलो मार दी गई तब गांधीजी ऐसी कार्यवाही के कड़े विरोध मे वाइसराय लार्ड बेवेल को लिखा था  कि मैं  सुभाष बाबू द्वारा खड़ी  की गई सेना के सैनिकों पर चल  रहे मुकदमे की कार्यावही को बड़े ध्यान  से देख  रहा हूँ।  यद्पि शस्त्र बल से किए जानेवाले  किसी संरक्षण  से  मैं  सहमत नहीं  हो  सकता, फिर भी शस्त्रधारी व्यक्तिओ  द्वारा अकसर जिस वीरता  और देशभक्ति का परिचय दिया जाता हैं,उसके  प्रति मैं  अंधा नहीं हूँ।जिन लोगो  पर   मुकदमा चल  रहा है ,उनकी भारत  पूजा करता है।मैं  तो इतना ही कहूँगा कि जो कुछ किया जा  रहा है वह उचित नहीं हैं। गांधीजी  इन कैदियो के बचाव को लेकर भारत के प्रधान सेनापति जनरल आचिनलेक  से भी मिले  और उनसे  आश्वस्त करनेवाला उत्तर पाकर गांधी जी को प्रसन्नता हुई  थी।

गांधीजी सरदार पटेल के साथ इन कैदियो से  दो बार मिलने गए –एक बार काबुल लाइंस मे  और दूसरी बार लाल किले मे। बैरकों  मे चल कर  गांधी जी जनरल मोहन  सिंह से मिलने   गए। वे  आज़ाद हिन्द फौज के संस्थापक  थे  वहाँ  से गांधीजी   फौजी  अस्पताल  भी गए  और वे मेजर जेनरल चटर्जी ,मेजर जनरल लोकनाथन और कर्नल  हबिबुर्रहमान  से भी मिले

गांधीजी ने आज़ाद हिन्द फौज  के सैनिको  की बहादुरी  और भारत  की स्वतन्त्रता के खातिर मरने की उनकी  तैयारी  की खुल कर हृदय से प्रशंसा की  थी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 19 ☆ जीवन तो कुछ ऐसे बह गया ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जीवन तो कुछ ऐसे बह गया) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 19 ☆ जीवन तो कुछ ऐसे बह गया 

 

जीवन तो कुछ ऐसे बह गया,

जैसे झरने से बेतहाशा बहता पानी ||

 

कल-कल का शोर ऐसा हुआ,

कभी समझ में नही आयी जिंदगानी ||

 

बारिश का दौर भी अब थम गया,

बहते झरने का जोश भी कुछ कम कम होने लगा ||

 

सरद मौसम भी आ गया,

झरना भी अब बर्फ की मोटी चादर सा जमने लगा ||

 

फिर गर्म हवा कुछ ऐसी चली ,

कल-कल बहता झरना अब बूंद-बूंद को तरसने लगा ||

 

समझ नही पाया तुझे ए जिंदगी,

बचपन और जवानी के बाद अब बुढापा सामने दिखने लगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 70 – कोजागरी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 70 ☆

☆ कोजागरी ☆

 

ही कोजागरी  येईल  निश्चितच,

एक नवी आशा घेऊन!

मी नव्याने ओळखू लागले आहे,

तुझ्या मनातलं टिपूर चांदणं,

“अतिपरिचयात अवज्ञा”

म्हणतात तसंच झालं होतं—-

आपलं नातं!

समांतर रेषेसारखं जगत राहीलो,

एका छताखाली!

पण ही पौर्णिमा आणि

कोजागरी चा चंद्र,

घडवणार आहे नवा इतिहास….

सारी किल्मिषं निघून जातील….

त्या चांदणधारेत!

ही कोजागरी निश्चितच वेगळी आहे आपल्या दोघांसाठी!

मी बनण्याचा प्रयत्न करेन,

तुझ्या मनातल्या प्रतिमेसारखी!

पण तूही किंचीत बदलायला हवं ना?

या चांदण्या रात्रीच्या साक्षीने!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव  ☆ डोहाळे ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

☆ कवितेचा उत्सव  ☆ डोहाळे ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆ 

मावळत्या सूर्याची लालबुंद टिकली

चिकटवून गोऱ्यापान नितळ भाळी

 

चमचमत्या चांदण्या माळीन  म्हणते

लांबसडक  काळ्याभोर   कुंतली

 

हिरव्यागच्च जंगल  झाडांची मेखला

बांधून गरगरीत पोटाकमरेला

 

झुलावं झुळझुळणाऱ्या वाऱ्यासारखं

नाचावं खळखळणाऱ्या झऱ्यासारखं

 

राजा, करशील ना रे

माझे हे डोहाळे पुरे?

 

‘तू काय पृथ्वी  समजतेस स्वतःला? ‘

एक गद्य टोमणा आला

 

आणि मग तेव्हापासून

मिटूनच घेतलं मी स्वतःला

 

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

फोन नं. 9820206306.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माती सांगे कुंभाराला ☆ स्व कवी मधुकर जोशी

स्व कवी मधुकर जोशी 

☆ कवितेचा उत्सव ☆ माती सांगे कुंभाराला ☆ स्व कवी मधुकर जोशी ☆ 

माती सांगे कुंभाराला !

माती सांगे कुंभाराला पायी मज

तुडविसी

तुझाच आहे शेवट वेड्या माझ्या

पायाशी !

मला फिरविशी तू चाकावर

घट मातीचे घडवी सुंदर

लग्नमंडपी कधी असे मी कधी

शवापाशी!

वीर धुरंधर आले, गेले

पायी माझ्या इथे झोपले

कुब्जा अथवा मोहक युवती अंती

मजपाशी !

गर्वाने कां ताठ राहसी?

भाग्य कशाला उगा नासशी?

तुझ्या ललाटी अखेर लिहिले मीलन माझ्याशी!

कवितेचा

 

स्व कवी मधुकर जोशी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा – पाऊस-3 ☆ श्री आनंदहरी

☆ जीवनरंग ☆ कथा – पाऊस-3 ☆ श्री आनंदहरी ☆

बिरोबाच्या शिवाराची वाट चालता चालताच तिला सासूची आठवण झाली तसे तिला सारे आठवले.. तिच्या डोळ्यांत पाणी दाटलं.. तिने डोळ्यांना पदर लावून डोळ्यातलं पाणी टिपलं. विचारांच्या नादात ती बिरोबाच्या देवळाजवळ येऊन पोहोचली होती. देवळाजवळ येताच ती विचारातून भानावर आली. तिने क्षणभर थांबून देवासन्मुख होऊन मनोभावे देवाला हात जोडले आणि आपल्या वावराकडं गेली. पेरा चांगलाच उगवून आला होता..  पण रानात तण पण बऱ्यापैकी होतं .. तिची आई म्हणायची, ‘ ईचारा बिगार मन आन तणाबिगर रान असतंय वी कवा ? ‘  आईची आलेली आठवण तिने मनाच्या आतल्या कप्प्यात सरकवली आणि  खुरपं घेऊन भांगलायला सुरवात केली. सगळ्यांचाच भांगलणीचा घायटा असायचा. गावंदरीच्या रानात भांगलायला कुणीतरी यायचं किंवा भांगलणीचा पैरा करायला तयार असायचं पण एवढ्या लांब बिरोबाच्या शिवारात कुणी भांगलायला यायलाही तयार नसायचं. सासू होती तेंव्हा दोघीच सगळे रान भांगलून काढत असत.

तिने भांगलायला सुरवात केली. तिच्या सासूचा कामाचा झपाटा दांडगाच होता.. भांगलताना इतर बायकांची एक पात भांगलून व्हायच्या आधीच सासूची दुसरी पात निम्म्यापेक्षा जास्त भांगलून झालेली असायची.. पण तिचे कामही सासूच्या तालमीत तयार झाल्यासारखंच, सासूच्या पावलावर पाऊल ठेवल्यासारखंच होतं. दिवस मावळतीला येस्तोवर ती एकटीच भांगलत राहिली आणि मग घरी परतली होती.

दारात आली तेंव्हा सोयाबीनचा पेरा चांगलाच उगवून आल्याचे समाधान तिच्या चेहऱ्यावरुन पावसाच्या थेंबासारखं निथळत होतं. तिने दारातल्या बॅरलमधलं पाणी घेऊन हात-पाय धुतलं. तोंडावर पाणी मारून पदराने पुसलं. खाली ठेवलेल्या पाटीतील खुरपं घेतलं आणि ती गोठ्याकडे गेली. हातातलं खुरपं तिनं गोठ्यात असणाऱ्या आडमेढीच्यावर गवतात खुपसून ठेवलं. म्हशीसमोर वैरणीची  पेंडी सोडून टाकली आणि ती पाटी घेऊन सोप्यातनं मदघरात आली..हातातली पाटी भीतीकडंला असलेल्या कणगीवर ठेवली आणि सैपाकघरात जाऊन ती चुलीम्होरं बसली. चूल पेटवून त्यावर चहाचं भुगूनं ठेवलं. गुळाचा गुळमाट चहा प्याल्यावर तिला आणखीनच बरं वाटलं. चहाचे भुगूनं वैलावर सरकवून तिने चुलीवर कालवणाची डीचकी चढवली..

ती खुशीत होती पण दिवस जसजसे पुढं सरकू लागले तसतसे तिच्या मनातली खुशी फुलासारखी सुकू लागली. मनातली चिंता वाढू लागली.. उगवण चांगली झाली होती पण पावसाचा मागमूस नव्हता.. रानात चांगलं हिरवंगार दिसणारं सोयाबीन दिवसेंदिवस तिच्या मनातल्या स्वप्नांना सोबत घेऊन सुकत चालले होते. फुलोऱ्यात यायच्या आधीच पावसाच्या मायेविना उन्हानं सुकून,करपून जाणार असे वाटायला लागलं होतं. रानातल्या सोयाबीनकडे पाहिलं की तिच्या डोळ्यांत पाणी दाटून येत होतं.     ‘ उगा रानात जायाचं तरी कशापायी ?’ असे मनात येत होतं पण त्याच मनाला राहवतही नव्हते.. वारकऱ्यांच्या पावलांनी आपसूक पंढरीची वाट चालावी, तशी तिची पावलं रानची वाट चालत होती पण मनात वारकऱ्यांची ओढ, असोशी, आनंद नव्हता.

जीव जाईल आता असे वाटत असतानाच अचानक जीवाने उभारी धरावी तसे झाले. सोयाबीन पार वाळून जाईल असे वाटत असतानाच अचानक पावसाची रिमझिम आली आणि तिच्या करपलेल्या मनाने आणि रानात करपू लागलेल्या सोयाबीनने पुन्हा उभारी घेतली. पाऊस आला. अधून मधून येत राहिला. पुन्हा साऱ्या शिवरानं आणि तिच्या मनाने हिरवाई ल्याली  होती.

क्रमशः ——–  भाग 4

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ टपालाचे दिवस …. ☆ श्रीशैल चौगुले

☆ कवितेचा उत्सव ☆ टपालाचे दिवस …. ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

(ऑक्टोबर महिन्यात टपाल दिवस साजरा करण्यात येतो.त्यानिमीत्त.)

आठवणीतले क्षण एखाद्या चिमणीसारखे टिपतात आणि मग आपणास लेखणीने सांगीतल्याशिवाय मनही स्वस्थ बसत नाही.

लहान असताना जसजसे कळायला लागले तसतसी विशीष्ट व्यक्तींची ओळख डोळ्यात साठवून ओळख पटू लागली. खास करुन शिक्षक,पोलीस, व सर्वात महत्वाची व्यक्ती चटकन आकर्षून घ्यायचा तो पोस्टमन.

मला वाटते त्यावेळी जांभळा सदरा व टोपी असा काहीतरी वेश होता बहुधा. नंतर खाकी वेष व हातात कसले तरी थोडे कागद व पिशवीतही खाकी चौकोनी जाड कागद. हळूहळू त्या कागदाची ओळख टपाल म्हणून परिचीत झाली. दारात पोस्टमन आला कि हा काही क्षणाचा विशेष पाहुणाच वाटायचा. मग बहिणींची धावपळ व्हायची. कुणाचे पत्र आले हे पहाणेसाठी व माझीही लुडबूड व्हायची, बहिणींचे परकर धरुन. मग ती टपाल नावाची अद्भूत वस्तू मलाच मिळण्यासाठी रडारड घरभर. पण, ते पत्र पूर्ण वाचलेशिवाय काय माझ्या हाती लागायचे नाही.

कधी कधी तारही आल्याचे आठवते. धारवाडहून मामांचे अथवा मुंबईहून नागूकाका शिक्षक जे वडिलांचे व आमचे घरोबा शेजारी यांचे.

मग घरभर धिंगाणा चालायचा. पत्र वाचायला अथवा लिहायला येणारी व्यक्ती अथवा मुलगा हुशार समजला जायचा.

पण हे टपाल भांडण लावण्यात सर्ईरात. वाचायला व्यवस्थीत आले तर ठिक, नसता घरभर बहिण भावंडात हशा होऊन कधी कधी टपाल फाटूनही जायचे. पाठवाणार्याचे ते दुर्दैवच.

पत्ता निट असेल तरच पत्र लवकर मिळायचे. अन्यथा पोस्टमन गल्ली बोळ शोधून दोन दिवस दिरंगाईने पत्र पोचते करायचे. त्यात पत्र वेळाने आले कि,पटकन पोस्टात जाऊन दहा पैशाचे पत्र आणून ऊत्तर पाठवताना मजकूरात पहिले वाक्य ‘टपाल वेळाने मिळाले’.

पत्र लिहिताना लिहीणार्याचा भाव काय विचारता. आम्ही सगळे त्यांच्याभोवती रींगण करुन गुडघे दुमडून,गालावर हात ठेऊन गांभिर्याने टपालकडेच एकटक मंत्रमुग्ध होऊन बघत असू. मग काय लिहीणार्या बहिणीचा भाव अधिक,सरा, अंधार करू नका,हलवू नका. मग आम्ही हताश. पण टपाल पूर्ण झाले की टपालपेटीत टाकून येण्याची जबाबदारी कधी कधी माझ्यावरही यायची. मला अतिशय कटाक्ष सुचना असायच्या,’हे बघ,ते पेटीचे वरचे दार ऊघडून त्यात टाकायचे. हाताला येतय नव्हे. मी होय म्हणून थाप लावायचा. मग मुलींच्या शाळेत अथवा बस स्थानकातल्या पेटीजवळ गेलो की,अगोदर चड्डी गच्च करणार. कारण ही गडमोहीम साधी नव्हती. खांबावर चार पाय वर चढून मोठ्या कसरतीने दार ऊघडून टपाल टाकायचे. पण मोहिम फत्ते झाली कि मला पाच दहा पैशाचे बक्षिस घरी आल्यावार नक्की मिळायचे. अहाहा काय त्या टपालमेहनतीतून मिळालेल्या साखरगोळी,निलगीरी गोळीचा आस्वाद. छे ! तो आनंदच वेगळा.

टपालाची सुध्दा एक गंमत असायची. आम्ही  चव्हाणवाड्यात नवीन रहायला आलेलो. मी तिसरी चौथीच्या वर्गातला हुशार विद्यार्थीच होतो अगदी ठाम.

मग दिवसभर शेजारी चव्हाणवाड्यातच थौड्या फरकाने एक दोन वर्षाच्या अंतराने सवंगडी असलेने तिथेच खेळायला असू. मग टपाल वागैरे आले कि गलकाच गलका. मग त्यांचे घरी आमच्या तुलनेने लहान व शिक्षणानेही थोडाफार मठ्ठ असलेला चव्हाणांचेच शेजारीमित्र होते. त्याला टपाल वाचायची भारी हौस. अजून दुसरीपर्यंतच असेल पण टपालाचा आनंद विरळच.

तो कोणतेही पत्र आले कि,मामा चचो,मामी चचो,काका चचो असा मोठ्याने वाचायचा आणि वाडा हशानै गदगदून जायचा.

आणखी एक टपालाचा प्रसंग,आमच्या बहिणींची नुकतीच लग्नं झालेली. मग त्यांच्यात सरशी असायची कि,कुणाचे मिस्टर किती थोर म्हणजे भाऊंजींची लढत असायची.

मग मोठ्या बहिणीच्या हाती मधल्या बहिणीच्या भाऊजीकडून आलेले पत्र हाती आले मग त्या टपालातील दोष काढून चिडवा चिडवी सुरु. आम्ही सगळे गमतीत रमून हसू लागलो. आणि आमच्या मधल्या बहिणीचा राग अनावर होऊन अक्षरशः पळीने फेकून बहिणीला अंदाजाने भिरकावले. तिला वाटले लागणार नाही. आणि काय विचारता राव पळीचा घाव पायावर जबरदस्त बसला. बहिण बेशुध्द काही क्षण. हसता हसता सगळ्यांचे डोळे भरुन आले., मधल्या बहिणीचे तर काळीजच फुटले या टपालप्रकरणातून. तसा मारण्याचा हेतू नव्हता पण  रागाने भिरकावलेले स्वयंपाकशस्त्र. क्षणभर धावपळ. काय करायचे कुणाला काही कळेना.

यापुढे मात्र टपालातल्या दोषांची टिका टळली. आणि आम्ही चांगले टपाल लिहायला शिकलो.

एकंदरीत संदेशाचे पुष्पकविमान म्हणजे टपाल.

एक हिंदी कविता आठवाते पाठ्यपूस्तकातीलः

लेकर पिला पिला थैला

पत्र बॉंटने आता

यह है मुन्सीराम डाकीया. . . . .

डाकीया’ नावाची कविता.

अशा खूप जीवनातल्या सुख-दुःख क्षणाशी निगडीत पोस्टमन वा टपालाच्या आठवाणी. पण आजसाठी ईथेच थांबतो.

सर्वांना मानाप्रमाणे नमस्कार व. . . . गोड गोड पापा.

आपला विश्वासू

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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