मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ हिरवी सजली पायवट… ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? हिरवी सजली पायवट… ! ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

वाढता तलखी मध्यांन्हीला

आले कल्पतरु मदतीला,

सावली धरून वाटेवरी

स्वागत तुमचे करण्याला !

हिरवी सजली पायवट

जाई सरळ सागरतीरी,

रमत गमत जा टोकाला

शोभा अनुपम दिसे न्यारी !

छायाचित्र – दीपक मोदगी, ठाणे.

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

२३-०२-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 10 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 10 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नीहार- नंदिनी             

आज के भ्रमण का दूसरा परिच्छेद है – मेड ऑफ द मिस्ट यानी दोतल्ले लंच या जहाज जो कह लीजिए, उसमें बैठ कर बहाव की विपरीत दिशा में जाकर झरने की बूँदों के पर्दे को छू आना। कोहरे-कन्या का स्पर्श ! चलो उस दर्शन के लिए टिकट ले लें। माथे पर चमकती धूप। (फोन पर सब पूछते रहते हैं,‘वहाँ तो खूब बर्फ गिर रही होगी। कितना मजा आ रहा होगा!’ बच्चू, यहाँ आकर मजा चखकर देखो।) ऊपर सड़क पर नदी के किनारे किनारे हम तीनों को काफी दूर पैदल चलना पड़ा। मगर रास्ते में ही –

‘अजी वो देखो -।’मैं ने श्रीमती का पुनः पाणिग्रहण किया,‘उस माताजी को देखो। हाथ में लाठी है, और साड़ी पहनी हुई हैं। साथ में जो सज्जन हैं, वे भी तो हमारे उधर के ही लगते हैं। चलो जरा देख लें बिदेसी माटी पर देसी फूल।’

उत्साह, मन में अपार हर्ष। मैं आगे बढ़ गया,‘नमस्ते भाई सा’ब। माताजी, नमस्ते। आपलोग यहाँ घूमने आये हैं? मैं हूँ बनारसी बंगाली।’

पता चला वो महोदय लाल बहादुर शास्त्रीजी के रामनगर के आगे अदलहाट के मूल निवासी हैं। अपनी माँ को नायाग्रा दिखाने ले आये हैं। साथ में उनकी पत्नी भी है। उनका भाई न्यू जर्सी में रहता है। सब इमिग्रेंट हैं। वाह! छोड़ घोंसला पंछी जब उड़ जाये, बोल परिन्दे याद देस की आये ?

‘बनारस में आप कहाँ रहते हैं?’……..बातों सिलसिला चल पड़ा।

‘क्यों माताजी,’ मैं ने पूछा,‘आप झरने के पास नीचे नहीं जाइयेगा ?’

‘अरे नहीं।’पोपले गाल हँसी से फूल गये,‘यहीं हम ठीक हैं। उधर कहीं एक किनारे बैठ जायेंगे।’

मैं भाई साहब की ओर मुखातिब हुआ,‘अरे काशी में गंगा दर्शन को जाकर क्या गुदौलिया में ही बैठे रहियेगा ? दशाश्वमेध नहीं चलियेगा ?’

‘अम्मां कैसे नीचे उतरेंगी ?’

‘कम से कम सड़क के ऊपर से ही नायाग्रा का दर्शन तो कर लीजिए। वहीं कहीं सड़क किनारे बैठ लीजिएगा।’

‘नहीं उतनी दूर अम्मां चल नहीं पायेंगी। इधर ही कहीं बैठ लेंगे।’

‘यहाँ आकर नायाग्रा दर्शन नहीं कीजिएगा, तो गंगा मैया नाराज हो जायेंगी।’ हँसते हँसते मैं अब आगे बढ़ने लगा।

साथ साथ कैमरा बंद स्मृतियां। फिर राम राम भैया, नमस्ते माताजी, अब ले इ बोली नाहीं बोले से कंठ सूखत रहल।

धूप-चाँदनी अपनी पूरी ताकत से तीव्र ‘ज्योत्सना के तीर’ चला रही थी। गला सूख रहा था। फिर लाइन। लेकिन कहीं ठकुरई नहीं, गुंडई नहीं कि – ‘अबे हमई जाब आगे। तू हमार का कर लेबे?’ हमारे देश में भी बंगाल या दक्षिण में कोई कतार तोड़ कर आगे नहीं जाता, तो फिर हमारे इलाके में ही ऐसा क्यों होता है ? दो तीन काउंटर बने हैं। हर एक के सामने लाइन शंबूक गति से आगे बढ़ रही है।

‘बिहाइंड द फॉल’ के लिए पीले रंग का पतला रेनकोट दिया गया था, यहाँ लाल रंग का मिला। प्लेन की तरह टिकट दिखाकर आगे जहाज की ओर बढ़ चले। यहाँ भी दर्शन के अंत में प्लास्टिक रिसाइक्ल करने का अनुरोध। मगर हमने जो रख लिया तो फायदा यह हुआ कि अगले दिन मेरीन लैंड में घूमते समय जब बारिश होने लगी तो वही काम आ गये।

धीरे धीरे सर्पिल गति से लाइन आगे खिसक रही है। टिकट का स्कैनिंग। एक घुमावदार रास्ते से होकर बेटी को लेकर हम जहाज पर चढ़ गये। नीचे जगह नहीं। ऊपर डेक पर चले चलो। सफेद सी गल परिन्दे लॉच के ऊपर उड़ रहे हैं। लहरों की गर्जन के साथ साथ उनकी तेज आवाज लॉच तक हो हिला दे रही है। मानो गब्बर की तरह बोल रहे हैं,‘आओ आओ ठाकुर …..!’

‘मैं गिर नहीं न जाऊँगी?’ झूम की अम्मां मुस्कुरायी।

मैं फिल्मी अंदाज में जवाब दिया,‘मैं भी साथ साथ कूद जाऊँगा।’ आजाद ने तो कुछ अलग ही कहा था, पर मैं ने फिल्मी अंदाज में डायलॉग मारा,‘जब से सुना प्यार का नाम है जिंदगी, सर पर बाँधे कफन उल्फत को ढूँढ़ता हूँ!’

शिवानी ने फिर से शिव को चेतावनी दी,‘आप रेलिंग पकड़ लीजिए।’ हाँ भाई, आखिर मेरी दिवंगत अम्मां तुमरे हाथों ही न मुझे सौंप कर वहाँ ऊपर चली गई हैं। वैसे जहाज तो हाथी के हौदे की तरह हिल रहा था। बेटी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।

मेरी साठ साल की जवानी मर्माहत हो गयी,‘मां रे, हम्में कुछछो नहीं होगा। कासी का छोरा हूँ आखिर।’

जहाज या लॉच कनाडा वाले झरने की ओर धीरे धीरे बढ़ रहा हैं। बायीं ओर यूएसए के पर्यटक नील रेनकोट पहन कर अपने लॉच पर सवार हैं। एकबार इधर वाला जहाज जाता है, तो एकबार उस तरफ का। बिहाइंड द फॉल देखने के लिए उनके रेनकोट भी पीले ही हैं।

‘आँव आँव चले आओ -।’उस तरफ पहाड़ की ढलान पर हज्जारों परिन्दे। एक साथ सब स्वागत अभिभाषण कर रहे हैं।

‘हो – हो- हो-!’ भिन्न भिन्न भाषाओं के विस्मयादिबोधक शब्द। पानी की बौछार। बच्चे खिल रहे हैं। मांयें उनको सँभाल रही हैं। ‘मेरे पास खड़े रहो। हाथ छुड़ाकर मत जाना।’

बड़ा नटखट है रे, कृष्ण कन्हैया! क्या करे यशोदा मैया ? (गीतकार : आनन्द बक्शी, फिल्म : अमर प्रेम)

आजकल तो सारे लोग अपने मोबाइल से ही फोटो खींचते रहते हैं। विरला ही कोई होगा जो कैमरा इस्तेमाल करता होगा। अरे भाई, पानी से इनके लेंस खराब नहीं न हो जायेंगे ?

देखते देखते हम पहुँच गये। नीहार-नंदिनी की छुअन। आह! तन स्निग्ध। मन प्रशांत। नायाग्रा आना सार्थक हुआ।

सामने कुछ नहीं दिख रहा है। एक पानी का पर्दा। तन मन भींग गया। कनाडा की ओर श्वेत तरंगों के झाग – जैसे हरे पानी पर किसी ने चावल का घोल बना कर उस सफेद रंग से रंगोली सजायी है। रंगोली आगे बढ़ती जा रही है। उसी के बीच डुबकी लगा रहा है एक बत्तख। फिर वह धारा प्रवाह में बह गया।

नायाग्रा के इसी रूप के आकर्षण से ही तो दुनिया के कोने कोने से लोगे खींचे चले आते हैं। भुवन मोहिनी रूप ! बाबा नागार्जुन के ‘मधुर माटी मिथिला’ के महाकवि विद्यापति ने गंगा वंदना में कहा था – बड सुख सार पाओल तुअ तीरे, छोड़इत निकट नयन बह नीरे ….!

अब हम एक चढ़ाई से आगे बढ़ते हुए ऊपर सड़क की ओर चल रहे हैं। नीहार-नंदिनी से लौटते समय देखा अंग्रेजी में लिखा है – थैंक्यू फॉर विजिटिंग! और फ्रेंच में – मेक्सी (एमईआरसीआई) द्य वोट्रे विजिट्! दर्शन के टिकट यानी बिलेट 19.95 कनाडियन डा …….. यानी रुपये में। अब छोड़ो यार!

वापसी में जो कांड हुआ, वो काफी झमेलादार रहा। धूप की भौंहें काफी टेढ़ी हो गई थीं। उधर रुपाई महाराज नायाग्रा लाइब्रेरी में बैठकर अपने लैपटॉप पर रिसर्च पेपर तैयार कर रहा था। कई बार झूम से फोन पर उसकी बात भी हो गई थी। मोबाइल पर कई बार हालाते मौजूदः यानी ताजा खबर सुनाया जा रहा था – हम अभी बिहाइंड द फॉल देखने जा रहे हैं।…….हम मेड ऑफ द मिस्ट के जहाज में बैठ गये हैं। आदि इत्यादि ……. एवं आखिर में ,‘हमलोग मूरे स्ट्रीट के पास प्रपात वाले साइड के फुटपाथ पर खड़े हैं। कहाँ मिलोगे ?’

‘मैं मेन रोड से नीचे जा रहा हूँ ….’ आदि आदि

यहाँ मुश्किल यह है कि आप जहाँ मर्जी तहाँ गाड़ी खड़ी नहीं कर सकते। अगर उस फुटपाथ पर आपका कोई इंतजार कर रहा है, तो बढ़ जाइये दो तीन कि.मी. और। फिर यू टर्न लेकर वापस आइये। हर जगह यू टर्न भी नहीं ले सकते। रथ चालन के कितने सुंदर अनुशासन।

मगर धूप में यहाँ से वहाँ दौड़ते दौड़ते मेरा ‘पैर भारी’ हो गया था। व्याथातुर। मन में खीझ। एकबार उधर जाओ। फिर मोबाइल पर,‘अरे मैं तो यहाँ हूँ। समझ क्यों नहीं रही हो? वहाँ पुलिस रुकने देगी, तो?’फिर दौड़ो उल्टे पांव। उस पर तुर्रा यह कि जब कुरुक्षेत्र के अठारहवें दिन हम जामाता से मिले तो मेरी बेटी के मत्थे ही सारा दोष मढ़ा जाने लगा। जैसे झूम ही बेवकूफ की तरह यहाँ से वहाँ भटकती रही। वाह रे समधी के पूत। बेटा होता तो मजे में गरिया लेता। मगर यहाँ तो……। तिस पर मैं ठहरा बनारसी लँगड़ा। दगाबाज घुटने के कारण हाल बेहाल।

पत्नी बार बार सावधान करती रही,‘तुम कुछ मत कहना। उन दोनों को आपस में ही मामला सलटाने दो।’

अरे भवानी आखिर मेरी है। हे प्रभु, तारनहारा !   

उसी दिन रात को फिर वापस पहुँचा नायाग्रा के पास। पानी के फुहारे में हम चारों भींगने लगे। अरे बापरे! ठंड भी लग रही है। अगले दिन रात दस बजे हम फिर आये थे। नायाग्रा का आखिरी दीदार करने। बृहस्पति वार होने के कारण उस दिन आतिशबाजी का कार्यक्रम भी था।

मगर कुछ भी कहिए दिन में नायाग्रा के भव्य रूप के आगे रात का शृंगार बनावटी लगता है। चंद्रमौलि अगर पैरों में पाजेब बाँध ले तो क्या नटराज का नृत्य और अच्छा लगेगा?

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #135 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-21 – “मौत आती है मगर नहीं आती…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मौत आती है मगर नहीं आती…”)

? ग़ज़ल # 21 – “मौत आती है मगर नहीं आती…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मौत आती है मगर नहीं आती,

ठीक से क्यूँ एक बार नहीं आती।

 

खैर मनाती  ज़िंदगी तब तक,

आहट तेरी जब तक नहीं आती।

 

दिल से दिल लगाती है बेवफ़ा,

सिर पर चढ़ क्यों नहीं आती।

 

झलक दिखा कर छुप जाती है,

रास्ता देखे महबूब नहीं आती।

 

दिन किसी तरह कट जाता है,

नीद मगर रात भर नहीं आती।

 

हो रहे सभी परेशान घर बाहर,

मुसीबत एक बारगी नहीं आती।

 

एक दिन तेरा तो पक्का ठहरा है,

काश तड़पा-तड़पा के नहीं आती।

 

आ जाए अगर एक बार ठीक से,

आतिश को फिर याद नहीं आती।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 36 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 36 ??

जगन्नाथ पुरी-

भारत के पूर्व में ओडिशा राज्य के पूर्वी समुद्री तट पर स्थित है जगन्नाथ पुरी। अनुसंधान इसे दसवीं सदी का मंदिर मानते हैं तथापि धार्मिक मान्यता इसके आदिकाल से यहाँ स्थित होने की  है। भगवान जगन्नाथ, अपने बड़े भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के साथ यहाँ विराजमान हैं। भाई-बहन की मूर्तियों वाला यह एकमात्र मंदिर है। ये मूर्तियाँ लकड़ी से बनी होती हैं। बारह वर्ष पश्चात इन्हें बदला जाता है। इन मूर्तियों के चरण नहीं हैं। भगवान जगन्नाथ और बलभद्र के हाथ तो हैं किंतु कलाई और उंगलियाँ नहीं हैं। इसके पीछे अन्याय किंवदंतियाँ हैं।

इस मंदिर को लेकर अनेक आँखों दिखती आध्यात्मिक विशेषताएँ हैं। मंदिर की ध्वजा का हवा की विपरीत दिशा में उड़ना, सिंहद्वार से अंदर पग रखते ही समुद्र का कोलाहल न सुनाई देना, मंदिर के कंगूरों पर पक्षियों का न बैठना, अक्षय रसोई की पद्धति आदि का इनमें समावेश है।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को आरंभ होने वाला जगन्नाथ पुरी का रथयात्रा उत्सव अब अंतरराष्ट्रीय आकर्षण है। ‘नंदीघोष’ नामक रथ में भगवान जगन्नाथ, ‘तालध्वज’ में बलभद्र और ‘दर्पदलन’ में देवी सुभद्रा की मूर्तियाँ आरूढ़ होती हैं। मुख्य मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक रथों को खींचकर ले जाया जाता है। सात दिनों तक भगवान द्वारा विश्राम लेने के बाद रथों को रस्सियों से खींच कर पुनः मुख्य मंदिर तक लाया जाता है। इन रथों को भक्त खींचते हैं।

ध्यान देनेवाली बात है कि भक्त, भगवान के दर्शन के लिए मंदिर जाता है। रथयात्रा में  भगवान, मंदिर से निकलकर भक्तों के बीच आते हैं। समता और लोकतंत्र की यही मूलभूत अवधारणा भी है।

जगन्नाथपुरी में आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित गोवर्धन पीठ है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ जन्म दिवस विशेष –  शिक्षाविद डॉ. अभिजात कृष्ण ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆ समन्वय-सामंजस्य के जादूगर – शिक्षाविद डॉ. अभिजात कृष्ण ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

26 मार्च को जन्म दिवस पर विशेष –

अपने विद्यार्थियों, मित्रों, परिचितों सहित अपरिचितों की सहायता को भी सदा तत्पर रहने वाले सहज-सरल प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी श्री जानकीरमण महाविद्यालय के ऊर्जावान प्राचार्य डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी की व्यस्त दिनचर्या हैरान करने वाली है । उनके महाविद्यालय सम्बन्धी दायित्वों के निर्वहन, लोगों की मदद, साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यक्रमों में योगदान और नियमित अध्ययन, चिंतन-मनन के साथ-साथ विद्वतजनों से उनकी चर्चाओं के दौर को देखकर लगता है कि आखिर ये महानुभाव भोजन और विश्राम आदि कब करते होंगे ? आश्चर्य यह कि जब भी अभिजात से मिलो वो हमेशा तनाव मुक्त और ताजगी से भरे दिखाई देते हैं । आज के दौर में कर्म और सामाजिक दायित्वों के प्रति ऐसे समर्पित-निष्ठावान अनुज पर गर्व होता है ।

शिक्षाविद, साहित्यकार, पत्रकार स्व.पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी के यशस्वी पुत्र अभिजात कृष्ण हिन्दी में स्नातकोत्तर, पुस्तकालय विज्ञान एवं विधि में स्नातक हैं । आपने “पंडित गंगा प्रसाद अग्निहोत्री के साहित्य का समग्र अनुशीलन” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है । अपनी विद्वत्ता, अध्यापन कौशल एवं प्रबंधन क्षमता के कारण अभिजात न सिर्फ अपने महाविद्यालय के विद्यार्थियों, सहयोगियों के चहेते हैं वरन नगर के अन्य महाविद्यालयों सहित विश्विद्यालय के जो भी छात्र और शिक्षक-कर्मचारी उनके संपर्क में आते हैं वे सदा के लिए उनके प्रशंसक बन जाते हैं ।

डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी द्वारा  विभिन्न महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन स्तर पर आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में लगभग दो दर्जन शोध पत्रों को प्रस्तुत किया जा चुका है जिनका प्रकाशन भी हुआ है । विविध विषयों पर लेख, विशिष्टजनों के साक्षात्कार एवं व्यक्तित्व-कृतित्व पर आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित होते रहते हैं । आपके संपादन में रचित प्रो.जवाहरलाल चौरसिया “तरुण” पर एवं प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल पर अभिनंदन ग्रंथ, आंचलिका 2013, साहित्य सहोदर, गौवंश, साक्षी, कामधेनु तथा जबलपुर जिले का साहित्य गजेटियर आदि अति महत्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते हैं । आपके संयोजन में नवीन चतुर्वेदी द्वारा आदि शंकराचार्य पर लिखित नाटक नाट्य लोक संस्था के माध्यम से संजय गर्ग के निर्देशन में रीवा, दिधौरी एवं श्रीधाम में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा चुका है । आपने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर रहे श्रीजानकी महिला बैंड की स्थापना की और श्रीजानकीरमण मंदिर के भव्य पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ करा चुके हैं । महाविद्यालय में नए उपयोगी पाठ्यक्रमों की संरचना के लिए प्रयासरत हैं । महाविद्यालय प्रांगण में छात्र-छात्राओं के साथ ही नगर के साहित्य कला जगत के लिए उपयोगी संग्रहालय एवं प्रेक्षागृह बनाना भी आपके कार्यों की प्राथमिकता में शामिल है । आपके द्वारा कालेज अवधि के उपरांत यहां का सुसज्जित वर्तमान मंच, माइक और कुर्सियों सहित नगर की सभी  साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को निःशुल्क प्रदान कर सकारात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है । योग निकेतन एवं आरोग्य मंदिर के द्वारा महाविद्यालय परिसर में प्रतिदिन निःशुल्क योग प्रशिक्षण कार्यक्रम का सफल संचालन किया जा रहा है । आपके मार्गदर्शन में महाविद्यालय की कीर्ति निरंतर बढ़ रही है । महाविद्यालय की राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई को 51 हजार रुपये का नेशनल यंग अचीवर अवार्ड प्राप्त हुआ । छात्र/छात्राओं ने विभिन्न विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किए । क्रीड़ा गतिविधियों में भी महाविद्यालय आगे है । छात्रा रागिनी मार्को को तीरंदाजी में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक मिला । आशीष सोनकर (कुश्ती), देवेंद्र मिश्रा(योग), करण गुप्ता ने बॉक्सिंग में ख्याति अर्जित की । अभिजात जी मध्यप्रदेश शासन साहित्य अकादमी के माध्यम से वर्ष 2011 से पाठक मंच का संचालन कर रहे हैं जिसका लाभ नगर के साहित्यकारों को मिल रहा है । अनेक संस्थाओं-समितियों के पदाधिकारी और सदस्य के रूप में अभिजात जी के द्वारा आयोजित कार्यक्रम सदा ही उद्देश्यपूर्ण होते हैं । शिक्षा जगत और समाज के लिए आपके योगदान पर आपको अनेक सम्मान/पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं ।

आज 26 मार्च को आपके जन्म दिवस पर सभी मित्रों, परिचितों, प्रशंसकों, विद्यार्थियों एवं ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपके स्वस्थ, सुदीर्घ, सक्रिय, यशस्वी जीवन की शुभकामनाएं । बधाई ।

– प्रतुल श्रीवास्तव

जबलपुर, मध्यप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#74 ☆ गजल – ’’कुछ याद रहे दिन वे…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कुछ याद रहे दिन वे…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 74 ☆ गजल – ’कुछ याद रहे दिन वे… ’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दिन से भी कहीं ज्यादा रातें हमें प्यारी हैं

क्योंकि ये सदा लातीं  प्रिय याद तुम्हारी हैं।

मशगूल बहुत दिन हैं, मजबूर बहुत दिन है

रातों ने ही तो दिल की दुनियाँ  ये सॅंवारी हैं।

सूरज के उजाले में परदा किया यादों ने

दिन तो रहे दुनियाँ के, रातें पै हमारी है।

कुछ याद रहे दिन वे भड़भड़ में गुजारे जो

है याद मगर रातें तनहाँ जो गुजारी हैं।

कोई ’विदग्ध’ बोले, दिन में कहाँ मिलती है ?

रातों के अँधेरों में जो मीठी खुमारी है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वसीयत… ☆ काव्य नंदिनी ☆

 ? वसीयत… ☆ काव्य नंदिनी ?

(ई- अभिव्यक्ति में कवियित्री काव्य नंदिनी जी  का हार्दिक स्वागत। हम समय समय पर आपकी भावप्रवण रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय कविता ‘वसीयत‘। ) 

 

जिंदगी एक कहानी नहीं हकीकत है

इस पर भी यह एक सच्ची और खरी खोटी नियत है

इसलिए इसमें सिर्फ मर्द और औरत की कहानी है

क्योंकि आज भी आंचल में दूध और आंखों में पानी है

सच्चाई कितनी भी अनदेखी की जाए मगर यह हकीकत है

आज भी औरत जन्म देती है नाम पिता का चलता है

सदियों से चला यह दस्तूर आज भी चलता है

समाज कितना भी आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो

बस यही एक सच्ची और खरी खोटी नियत है

कि आज भी मर्द औरत को समझता है सिर्फ अपनी वसीयत है

 

© काव्य नंदिनी

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला “स्वामी जी! मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ।”

स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा-सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा ‘‘तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।’’

आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी-खासी सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहूँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हांफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा कि  “यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ-सुथरे और बिना थके दिख रहे हो|”

तो व्यक्ति ने कहा “मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था लेकिन यह कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।”

स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा  “यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है वह ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।”

यही बात लगभग हम सब पर लागू होती है। प्रायः अधिकांश लोग हमेशा दूसरों की गलतीयों की निंदा-चर्चा करने, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या-द्वेष करने, और अपने अल्प ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करने के बजाय अहंकारग्रस्त हो कर दूसरों पर रौब झाड़ने में ही रह जाते हैं।

अंततः इसी सोच की वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं, और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है।

दूसरों से होड़ मत कीजिये, और अपनी मंजिल खुद बनाइये।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (76 – 80) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

मुनिगण आवागमन से पूर्ण है यह स्थान।

शोक पापहारी यहाँ तमसा तट स्नान।।76अ।।

 

इष्ट देव पूजन यहाँ देता मन को शांति।

सौम्य प्रकृति मन की यहाँ हरती सकल अशांति।।76ब।।

 

ऋतु ऋतु के नव पुष्प-फल पूजन हित नीवार।

मुनि कुमारियाँ करेंगी पीड़ा का परिहार।।77।।

 

अपने बल अनुरूप रख भरे घड़ों का भार।

सींच पौधों को पाओगी उनका शिशुवत प्यार।।78।।

 

अभिनंदन स्वीकारती दया भाव से साथ।

सीता आश्रम आई जहाँ मृग थे शांत सनाथ।।79।।

 

चंदा की अंतिम कला ज्यों ओषधि हित सार।

बाल्मीकि आश्रम को हुई सिय भी उसी प्रकार।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २६ मार्च – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  २६ मार्च -संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

माणिक सीताराम गोडघाटे ऊर्फ कवी ग्रेस (१० मे, १९३७ – २६ मार्च, २०१२)

दुःखसागराचा गूढप्रवासी

‘मी खरेच दूर निघालो

तू येऊ नकोस मागे

पाऊस कुठेतरी वाजे

हृदयात तुटती धागे’

असे तुम्ही म्हणालात आणि खरेच आमच्या हृदयाचे धागे तोडून अज्ञाताच्या प्रवासाला निघून गेलात.

‘जिथे असतील सुंदर मने

जिथे असेल समाधान

जिथे होतील स्वप्ने खरी

तिथे हे जीवना, मला घेऊन चल’

असं आवाहनही तुम्ही जीवनाला केलं होतं. पण तुम्ही परत  न येण्याच्या टोकापर्यंत निघून गेलात. आज त्याला बारा  वर्षं झाली. पण तुम्ही नाही असं वाटतच नाही.कारण गूढ गहन शब्दांनी बहरून आलेल्या तुमच्या कविता आमच्या मनात सतत रूंजी घालत असतात. आम्ही त्या कवितांत केव्हा हरवून जातो हे समजतही नाही आणि खर तर त्यातून बाहेर पडावसही वाटत नाही. खर सांगायचं तर

गूढ तुझ्या शब्दांची जादू

मनात माझ्या अशी उतरते

चांद्र नील किरणांच्या संगे

संध्येची जशी रजनी होते

इतक्या सहजपणे आम्ही त्यात रंगून जातो, गुंतून जातो. तुमचे शब्द, तुमच्या कल्पना, तुम्ही वापरलेली प्रतिके ही अगदी सहजासहजी समजावीत, पचनी पडावीत अशी नसतातच. पण

कळू न येतो अर्थ जरी, पण

दुःखकाजळी पसरे क्षणभर

खोल मनाच्या डोहावरती

कशी होतसे अस्फुट थरथर    

पुढची कविता वाचावी का हा प्रश्न मनात येतच नाही. पहिल्या कवितेचे शेवटचे शब्द मनाला नकळतच दुस-या कवितेकडे घेऊन जातात.खर सांगू?

सोसत नाही असले काही

तरी वाचतो पुन्हा नव्याने

डोलत असते मन धुंदीने

हलते रान जसे वा-याने

मी दुःखाचा महाकवी असे तुम्ही अभिमानाने का म्हणत होता हे तुमच्या कविता समजून घेतल्याशिवाय नाही समजणार. पण तुम्ही म्हटल्याप्रमाणे ‘मन कशात लागत नाही,अदमास कशाचा घ्यावा’ अशी अवस्था जेव्हा होते तेव्हा आठवते ती तुमची कविता. ‘नाहीच कुणी अपुले रे, प्राणांवर नभ धरणारे,’ ही एकाकी पणाची भावना अशा नेमक्या शब्दात तुमच्याशिवाय कोण व्यक्त करणार? आता तुम्ही नसताना, ‘निळाईत माझी भिजे पापणी’ हे खरं असलं तरी ‘निळ्याशार मंदार पाऊलवाटा’ आमच्या आम्हालाच शोधाव्या लागणार आहेत. कित्येक कवींच्या  कविता वाचल्या. कधी हसलो, कधी खुललो. कधी गंभीर झालो. पण

ग्रेस, तुझ्या काव्यप्रदेशी

माझे जेव्हा येणे झाले

जखम न होता कुठे कधीही

घायाळ कसे हे मन हे झाले

तुमच्या स्मृतीदिनी तुम्हाला स्मरायचं म्हणजे तरी काय करायचं ?जन्म मृत्यूची नोंद आणि मानसन्मानाची यादी तुमच्यासाठी महत्वाची नाहीच.तुमच्या शब्दांचा संग हाच तुमचा स्मृतीगंध. त्या आमच्या मनाच्या गाभा-यात नेहमीच गंधाळत राहतील. ‘गळ्यात शब्द गोठले, अशांतता दिसे घनी’ अशी अवस्था आजही असताना तुमच्या कविताच आधार असतील. म्हणून तर एवढंच म्हणावंसं वाटतं

संपत नाही जरी इथले भय

शब्दचांदणे उदंड आहे

त्या गीतांच्या स्मरणासंगे

दुःख सहज हे सरते आहे.’

दुःखे….न संपणारी

स्मृती…न संपणा-या. 🙏

☆☆☆☆☆

बाबूराव बागुल (17 जुलाई, 1930 – 26 मार्च, 2008)

दलित साहित्यात भरीव योगदान देणारे प्रतिभावंत लेखक श्री.बाबुराव बागूल यांचा जन्म नाशिक जिल्ह्यातील विहितगाव येथे झाला. बालपणा पासून विषमतेचे अनुभव घेतल्यामुळे त्यांच्या साहित्यात त्याचे प्रतिबिंब उमटलेले दिसते. शालेय जीवनापासून त्यांच्यावर आंबेडकरी विचारांचा प्रभाव पडला होता. कामगार चळवळ, अण्णाभाऊ साठे यांचेशी आलेला संपर्क, साम्यवादी विचारांचा प्रभाव, साम्यवादी साहित्याचा अभ्यास या सर्वांचा परिणाम त्यांचे व्यक्तिमत्व घडवण्यात झाला.

जातीयवादामुळे भाड्याचे घर मिळणे मुश्किल झाल्याने त्यांनी जात चोरून भाड्याचे घर घेतले. पण मनाला ते पटले नाही. त्यामुळे त्यांनी ते घर व परगावची नोकरीही सोडली. या अनुभवावरील त्यांनी लिहीलेली ‘जेव्हा मी जात चोरली होती’ ही कथा प्रचंड गाजली.  

आचार्य अत्रे यांच्या ‘नवयुग’ व युगांतर’ या नियतकालिकांमधून त्यानी कथा लिहिल्या. त्यांचे लेखन हे दलित वर्गातील नव लेखकांना प्रेरणादायी ठरत होते.

श्री.बागूल यांचे साहित्य :

कादंबरी–

      अघोरी, अपूर्वा, कोंडी, पावशा, सरदार, सूड इ.

कथासंग्रह–

      जेव्हा मी जात चोरली होती, मरण स्वस्त होत आहे

कवितासंग्रह–

       वेदाआधी तू होता

वैचारिक–

       आंबेडकर भारत

       दलित साहित्य: आजचे क्रांतीविज्ञान

सन्मान व पुरस्कार–

अध्यक्ष, पहिले विद्रोही साहित्य संमेलन, मुंबई.

जनस्थान पुरस्कार–कुसुमाग्रज प्रतिष्ठान–2007

महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार

26मार्च 2008 ला बागुलांचे नाशिक येथे निधन झाले. त्यांच्या स्मृतीस व साहित्यसेवेस अभिवादन!  🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

 

संदर्भ : विकिपीडिया.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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