हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – शब्दार्थ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – शब्दार्थ ??

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता था।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जान-बूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेष में थे। मुझे वेष और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 61 ☆ नवरात्र पर्व विशेष – कविता – कुष्मांडा देवी-… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवरात्र पर्व पर आपकी एक कविता – कुष्मांडा देवी”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 61 ✒️

?  नवरात्र पर्व विशेष – कविता – कुष्मांडा देवी-… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

नवरात्रि के चौथे दिन ,

कूष्मांडा की उपासना ।

विधि, मंत्र, भोग, पूजा से ,

दूर होती सभी यातना ।।

 

देवी की आठ भुजाएं ,

अष्ठभुजी कहलाती ,

धनुष, बाण ,कमल, कलश ,

चक्र – गदा – सुहाती ,

आठवें हाथ जपमाला ,

जिससे करें उपासना ।

नवरात्रि ————————- ।।

 

वाहन सिंह और निवास ,

सूर्य मंडल माना जाता ,

देवी को सूर्य देव की ,

ऊर्जा जाना जाता ,

यश,बल,आयु में वृद्धि हो,

करो मां की साधना ।

नवरात्रि ————————– ।।

 

करें स्मरण सांचे मन से ,

परिवार रहे खुशहाल ,

सुख – समृद्धि और निरोगता ,

रहे हज़ारों साल ,

मालपुए का भोग लगा ,

कपूर – गुलाब चढ़ावना ।

नवरात्रि ————————- ।।

 

बेल मूल पे चतुर्थी को ,

इत्र – मिट्टी – दही चढ़ाऐं ,

फल स्वरुप मनवांछित फल ,

“सलमा “भक्त जन पाऐं ,

जय कुष्मांडा मां कर दो,

पूर्ण सब की कामना ।

नवरात्रि ————————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 01 ☆ बेबस पड़े हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी का हार्दिक स्वागत है। आज से आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बेबस पड़े हैं…।) 

जीवन परिचय 

जन्म : 09 मई 1951 ई0। नरसिंहपुर मध्यप्रदेश।

शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर

प्रकाशित कृतियाँ : (1) ‘मन का साकेत’ गीत नवगीत संग्रह 2012 (2) ‘परिन्दे संवेदना के’ गीत नवगीत संग्रह 2015 (3) “शब्द वर्तमान” नवगीत संग्रह 2018 (4) ”रेत हुआ दिन” नवगीत संग्रह 2020 (5)”बीच बहस में” समकालीन कविताएँ 2021 (6) महाकौशल प्रान्तर की 100 प्रतिनिधि रचनाएँ संपादन ‘श्यामनारायण मिश्र’ समवेत संकलन (7) समकालीन गीतकोश-संपादन- नचिकेता (8)नवगीत का मानवतावाद-संपादन-राधेश्याम बंधु

अन्य प्रकाशन : देश के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, अनुगीत कविताओं का सतत् प्रकाशन।

सम्मान : (1) कला मंदिर भोपाल पवैया पुरस्कार (2) कादंबरी संस्था जबलपुर से सम्मानित

संप्रति : स्नातक शिक्षक केंद्रीय विद्यालय संगठन से सेवा निवृत, स्वतंत्र लेखन।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 01 ☆ बेबस पड़े हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

भीड़ से हटकर खड़े हैं

तभी तो आँखों में उनकी

किरकिरी बनकर गड़े हैं।

 

वक़्त की दीवार पर चढ़

रेत में नैया डुबाते

मिल न पाया कोई मोती

दाँव पर जीवन लगाते

 

बस नदी के घाव धोते

घाट पर बेबस पड़े हैं ।

 

हो गई संवेदनाएँ

जहर में डूबी ज़ुबान

मुखर हैं अख़बार में

लड़खड़ाते से बयान

 

 आस्थाएँ हुईं मैली

 सच के मुँह ताले जड़े हैं।

 

खेत  माटी और चिड़िया

भुखमरी झूठे सवाल

सिसकियों के घर अँधेरा

रोशनी पर है बवाल

 

रोज सूरज के भरोसे

रात से हरदम लड़े हैं।

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ शेर, बकरी और घास ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कथा  “शेर, बकरी और घास…“।)   

☆ कथा-कहानी ☆ शेर, बकरी और घास ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षकगण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टिप्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.

तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर  का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और  बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.

शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में

अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा. 

कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय को “महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी” का “सुब्रमण्यम भारती हिन्दी सेतु विशिष्ट सेवा पुरस्कार”– अभिनंदन ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

? सुश्री इन्दिरा किसलय को “महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी” का “सुब्रमण्यम भारती हिन्दी सेतु विशिष्ट सेवा पुरस्कार”– अभिनंदन ?  

“जय जय महाराष्ट्र माझा–गर्जा महाराष्ट्र माझा”– इस राज्यगीत की प्रचंड उर्जा एवं महाराष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव तथा साहित्यिक गौरव की ध्वजवाहक “महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी” द्वारा वरिष्ठ साहित्यकार “सुश्री इन्दिरा किसलय” को “राज्य स्तरीय सम्मान -जीवन गौरव पुरस्कार” के अन्तर्गत, “सुब्रमण्यम भारती हिन्दी सेतु विशिष्ट सेवा पुरस्कार”, प्रख्यात अभिनेता लेखक “आशुतोष राणा “के हस्ते प्रदान किया गया। इसमें इक्यावन हजार की राशि,स्मृति चिह्न तथा प्रशस्ति पत्र का समावेश है।

मुंबई (बांद्रा) के “रंगशारदा ऑडिटोरियम” में संपन्न इस गौरवशाली आयोजन में संपूर्ण महाराष्ट्र के विजेता शामिल रहे।

कोरोनाकाल में अकादमी की गतिविधियां स्थगित रहीं।अतः तीन वर्षों के पुरस्कार 23 मार्च 2023 के आयोजन में प्रदान किये गये।

स्वनामधन्य साहित्यकार “चित्रा मुद्गल,”सुख्यात अभिनेता आशुतोष राणा को (रामराज्य) को अखिल भारतीय जीवन गौरव पुरस्कार (एक लाख की राशि) से अलंकृत किया गया। फिल्मी गीतकार मनोज मुन्तशिर, गायक अनूप जलोटा एवं अभिनेता मनोज जोशी भी गौरवशाली पुरस्कारों से नवाज़े गये।

समग्रतः एक सौ चौबीस, पुरस्कारों में अखिल भारतीय ,राज्य स्तरीय तथा विधा पुरस्कारों ने स्थान पाया।

इस साहित्यिक अभिजात्य के साक्षी बने अनेक गणमान्य जन। खचाखच भरे हुये सभागार में अकादमी सचिव “सचिन निंबालकर” के शानदार संचालन ने सुन्दर वातावरण की रचना की। संयोजन में अकादमी के कार्याध्यक्ष “शीतलाप्रसाद दुबे जी” का संरचनात्मक सौरभ व्याप्त रहा।

अपनी शुद्ध हिन्दी के लिये चर्चित अभिनेता आशुतोष राणा ने अपनी ओजस्वी वाणी में राष्ट्रकवि दिनकर की रश्मिरथी सुनाकर महफिल लूट ली। सदन में अभूतपूर्व शौर्य का संचार कर दिया।

मध्यप्रदेश राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष- विकास दवे ने बाल साहित्य सृजन की ओर साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट किया। ऐसी लागी लगन गाकर भजन सम्राट अनूप जलोटा ने भक्ति साहित्य के कुछ पृष्ठ अनावृत्त किये। माननीय श्री शेलार ने साहित्य की महत्ता पर प्रकाश डाला। आयोजन में पधारे देशभर के लघुकथाकारों का लघुकथा पाठ हुआ। कार्यक्रम के अंत में शशि बंसल ने आभार प्रकट किया।

एक गुरुतापूर्ण सरस आयोजन ने हमेशा के लिये स्मृति में जगह बना ली।

धन्यवाद महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी।

? ई-अभिव्यक्ति की ओर से इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए सुश्री इंदिरा किसलय जी एवं सभी सम्मानित साहित्यकारों का अभिनंदन एवं हार्दिक बधाई ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विरून गेला पट सतरंगी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ विरून गेला पट सतरंगी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : पादाकुलक)

विरून गेला पट सतरंगी

सरले गारुड ऋतुगंधांचे

कळले नाही कधी आटले

कढ व्याकुळही घनांतरीचे !

 

मंद जाहले गगनदीपही

दंतकथा जणु टिपुर चांदणे

वठली झाडे , पसार पक्षी

सुने सुने वन उदासवाणे !

 

गवतावरले थेंब दवाचे

अता न हळवे पूर्वीइतुके

पूर ओसरे गडद धुक्याचा

पुनश्च डोंगर होत बोडके !

 

कधीकाळच्या निळ्या नभाची

थंड तिह्राइत साद दादही

फडफड थोडी व्याकुळ पंखी

सरता सरता सरेल तीही !

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 175 ☆ झाडे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 175 ?

💥 झाडे… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

झाडे दिसतात सर्वदूर

जाऊ तिथे जिकडे तिकडे,

माहेरच्या वाड्याभोवती,

पिंपर्णीची पाच झाडे,

त्यांच्या फांदी फांदीवर

आपसुकच जीव जडे !

 

आजोळच्या बंगल्याजवळ

 गुलमोहराचे लाल सडे

दारापुढच्याआंब्याखाली,

माझे बालपण झुले !

 

शाळेसमोर शिरीषवृक्ष,

त्याच्या आठवणी लक्ष लक्ष !

 

सासरच्या इमारतीपाशी

 पांगारा आणि सोनमोहर

खिडकीतून देत असतात,

मूक पहारा अष्टौप्रहर!

 

कितीतरी झाडे अशी

आयुष्याशी नाते जोडतात,

प्रवासात, वळणावर,

झाडे पुन्हा पुन्हा भेटतात,

निश्चल असली तरीही,

आठवणींचा झिम्मा खेळतात!

 

झाडे कधीच भांडत नाहीत

ती फक्त माया करतात,

आयुष्यभर माणसांवर

आपली गर्द छाया धरतात!

© प्रभा सोनवणे

१६ मार्च २०२३

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रंगबावरा वसंत… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? विविधा  

☆ रंगबावरा वसंत… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

आज सकाळी नेहमीसारखी फिरायला बाहेर पडले.नेहमीचा रस्ता,पण चालता चालता एकदम थांबले.माझं लक्ष बाजूच्या झाडाकडं गेलं. तर एरवी उदास वाटणाऱ्या या झाडाचा आजचा रुबाब बघितला.

हिरवट, पिवळ्या कळ्या फुलांची झुंबरे त्यावर लटकत होती. ही किमया कधी झाली असा प्रश्र्न पडला, तर शेजारचा गुलमोहर तसाच,कात टाकल्यासारखा. लाललाल लहानशा पाकळ्या आणि मध्ये शुभ्र मोती असे गुच्छ दिसू लागलेले. मला वाटलं लाजून लालेलाल झाला कि काय?

मग चटकन लक्षात आलं कि या तर ऋतुराजाच्या आगमनाच्या खुणा.

शहरी वातावरणात राहणारे आपण निसर्गाच्या या सौंदर्याच्या जादूला नक्कीच भुलतो. शिशिरातील पानगळीने,तलखीने सृष्टीचे निस्तेज उदालसेपण आता संपणार.कारण ही सृष्टी वासंतिक लावण्य लेऊन आता नववधू सारखी सजते.वसंत राजाच्या स्वागतात दंग होते.कोकिळ  आलापांवर आलाप घेत असतो.लाल चुटुक पालवी साऱ्या वृक्षवेलींवर  डुलत असते.उन्हात चमकताना जणू फुलांचे लाललाल मणी झळकत असल्यासारखे वाटते.चाफ्याच्या झाडांमधून शुभ्रधवल सौंदर्य उमलत असते.आजून जरा वेळ असतो, पण कळ्यांचे गुच्छ तर हळुहळू दिसायला लागतात.फुलझाडांची तर गंधवेडी स्पर्धाच सुरु असते.केशरी देठांची प्राजक्त फुले,जाई,जुई चमेली,मोगरा, मदनबाण,नेवाळी, सोनचाफा अगदी अहमहमिकेने गंधाची उधळण करत असतात.

या सुगंधी सौंदर्याला रंगांच्या सुरेख छटांनी बहार येते.फार कशाला घाणेरीची झुडपं.लाललाल आणि पिवळ्या,केशरी व पांढऱ्या, जांभळ्या आणि गुलाबी अशा विरुद्ध रंगांच्या छटांच्या फुलांनी लक्षवेधी ठरतात.

आपण हिला घाणेरी म्हणतो पण गुजरात,राजस्थान मध्ये या फुलांना “चुनडी”म्हणतात.त्यांचे कपडेही असेच चटकदार रंगांचे असतात.पळस,पांगारा रंगलेला असतो. हिरव्या रंगांच्या तर किती छटा.जणू त्याअनामिक चित्रकाराने मनापासून निसर्गदेवीला रंगगंधानी सजवले आहे.त्यासाठी नानाविध रंग आणि मदहोश सुगंधाच्या खाणीच खुल्या केलेल्या आहेत.

आंब्याची झाडे तर अतीव सुखातअसतात.फाल्गुनातील मोहोराचा गंध आणि त्यात लांब लांब देठांना लोंबणाऱ्या कैऱ्या उद्याचा “मधाळ ठेवा.”अगदी नारळा-पोफळीच्या झाडांना सुद्धा फुलं येतात.नखाएवढी फुलं एवढ्या मोठ्या नारळांची.

अगदी टणक पण हातात घेतली  कि त्याच्या इवल्याशा पाकळ्याही मृदू भासतात.पोफळीला फुटलेले इवल्याशा सुपाऱ्यांचे पाचूसम तकतकीत हिरवे लोंगर अगदी लोभस दिसतात.कडुलिंबाचा जांभळट पांढरा मोहोर तर गंधाने दरवळणारा. करंजाची झाडं सुद्धा नाजूक फुलांनी डंवरलेली.फणसाशिवाय हे वर्णनअपुरेहोईल.फणसाची झाडे सुद्धा टवटवीत दिसू लागतात.हळूहळू अगदी खालून वर पर्यंत इवलेसे फणस लटकलेले असतात. खरतर यादरम्यानउन्हंकडक.पणफुलायचा,गंधाळण्याचा या वृक्षलतांनी घेतलेला वसा पाहून मन थक्क होते.जांभूळही यात मागे नसतोच.

त्यातच कालपर्यंत शुकशुकाट असलेल्या झाडांवरलहान,मोठी,सुबक,बेढब,लांबोडकी,गोल घरटी दिसू लागतात.नव्या सृजनाची तयारी.वसंत ऋतू चैतन्याचा . कुणासाठी काहीतरी करण्याचा.नर पक्षी मादीला आकर्षित करण्याच्या खटपटीत.सुगरण पक्षी आपली कला घरटी बांधून प्रदर्शित करतात आणि मादीला आकर्षित करतात.काही नर पक्षी गातात, काही नाचतात. इकडं झाडं,वेली फुलोऱ्यात रंगून ऋतूराजा चे स्वागत करण्यात मश्गुल,साऱ्या सृष्टीतचहालचाली,लगबग.वसंत ऋतूचे हक्काचे महिने चैत्र, वैशाख. पण खरा तो रंगगंधानी न्हातो चैत्रात.कारण फुलांच्या, मोहोराच्या गोड सुगंधा बरोबर फळातील मधुरसही असतो.म्हणूनच हा मधुमास.निसर्गाचा मधुर आविष्कार. म्हणून तर चैत्र मास “मधुमास”होतो.

आता ऋतुपतीच्या आगमनासाठी सृष्टीचा कण न कण आतुरलेला.संयमाची सारी बंधने  निसर्ग राणी झुगारून देते.पक्षीगणांची सृजनासाठी आतुर,सहचरीची आर्जवे करणारे मधुरव, कोकिळ कंठातील मदमस्त ताना वातावरण धुंद करतात.

सजलेल्या,पुष्पालंकार ल्यायलेल्या गंधभऱ्या सृष्टीराणीच्या मोहात हा गंधवेडा,रंगबावरा वसंत पडला नाही तरच नवल.मग हा वसंतोत्सव पूर्ण वैशाख संपेपर्यंत रंगलेला असतो. निसर्गाचे हे बेबंद रुप, सौंदर्यासक्ती, कलाकारी खरंच थक्क करते.

गंधवेडा कि तू रंगबावरा|

ऋतुपती तू सदैव हसरा|

रत्युत्सुक रे मत्त मदभरा|

सृष्टीवेड्या रे जादुगारा||

 

आनंदाचा सुखमय ठेवा|

वाटत येशी तूची सर्वा|

फुलपंखी हा पर्णपिसारा|

फुलवित येशी चित्तचकोरा||

 

गंध उधळसी दाही दिशांना|

उजळत येशी दिशादिशांना|

धरतीच्या रे ह्रदय स्पंदना|

उत्सुक सारे तुझ्या दर्शना||

                

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘भय…’ – भाग – 1 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘भय…’ – भाग – 1 ☆ श्री आनंदहरी  

त्याला जाग आली तर ती शेजारी नव्हती. तो झटकन उठला. त्याने घड्याळात पाहिले. साडेचार वाजून गेले होते. ‘बाबा उठले असतील ..’ मनात विचार येऊन त्याने.बाबांची चाहूल घेण्याचा प्रयत्न केला. बाबांच्या आणि तिच्या बोलण्याचा आवाज ऐकू येत होता.  तो बाहेर आला.

“ आता मी आलेय ना बाबा ? मग आता पहाटेचा चहा मी करून देणार हं तुम्हाला.. तुम्ही नाही स्वतः करून घ्यायचा. ”

“ अगं, पण मला सवय आहे त्याची.. उगाच तुझी झोपमोड कशाला ? जा. झोप जा तू.. घेईन मी करून चहा. “

“ ते काही नाही हं …बाबा, मी असताना तुम्ही चहा करून घेतलात तर मला ते नाही हं आवडणार. आजवर तुम्ही खूप केलेत…पण आता नाही. आता तुम्ही फक्त आराम करायचा, तुमच्या आवडी-निवडी जपायच्या, छंद जोपासत राहायचे. आता कुठल्याच कामाला मी नाही हं हात लावू देणार तुम्हांला. चला, तुम्ही हॉलमध्ये जाऊन बसा बघू,  मी आणते लगेच चहा करून.. अगदी तुमच्या आवडीचा.. आलं घालून .”

‘ बरं. तू आण चहा करून..’ असं म्हणून बाबा किचन मधून बाहेर येऊन हॉलमध्ये बसले..’ किती चांगली सून मिळालीय आपल्याला.. आपण खूप नशीबवान आहोत..’ बाबांच्या मनात आले. तो हे सारे  ऐकत होता.. तो हॉल मध्ये आला.

“ अरे, तू ही उठलास? ये. “

तो हॉल मध्ये आला. बाबांच्याशेजारी बसला. ती चहा घेऊन आली तेव्हा तिने त्याच्यासाठीही चहा आणला होता.

“ तुमचा आवाज आला म्हणून तुमच्यासाठीही आणलाय चहा.. घ्या. “

ती ओठातल्या ओठात हसत त्याच्या हातात त्याचा चहाचा कप देत म्हणाली.

चहा पिऊन झाल्यावर बाबा फिरायला बाहेर पडले. 

बाबा रोज पहाटे साडेचारला उठून, सारे आवरून स्वतःचा चहा स्वतः करून घेऊन पाचला फिरायला जात असत. गेल्या कित्येक वर्षाचा त्यांचा तो नेमच होता.  आधी आईही लवकर उठायची, बाबांना तीच चहा करून द्यायची पण तिची झोप पूर्ण होत नाही हे लक्षात येताच बाबांनीच तिला लवकर उठायला मनाई केली होती..

बाबा फिरायला निघून गेले आणि ती आणि तो,  दोघेही  त्यांच्या बेडरूम मध्ये आले. त्यांच्या लग्नाला काही दिवसच झाले होते पण तिने आपल्या वागण्याने घरच्यांचीच नव्हे तर शेजार-पाजाऱ्यांचीही मनं जिंकली होती.. तोही खुश होता.

“ उद्यापासून तूही उठायचंस लवकर.. मी उठवेन तूला ..”

बेडरूममध्ये शिरताच बेडरूमचे दार लोटून आतून कडी लावत ती त्याला म्हणाली. आईबाबांसमोर, इत्तरांसमोर ती त्याला अहो s जाहो म्हणत असली तरी दोघंच असताना मात्र ती त्याला अरेतूरे करत होती आणि त्यालाही ते खूप आवडत होते.

“ अरे वा ss! पहाटे पहाटे? नेकीं और पुछ पुछ ? “

तो मिश्कीलपणे डोळा बारीक करत म्हणाला. त्यावेळी तिच्या आवाजातला कोरडा आणि हुकमी स्वर त्याच्या ध्यानातच आला नाही.

“ उगाच लाडात येऊ नकोस.. उठून तू बाबांसाठी चहा करायचा आहेस.. मी कितीही तुला ‘नको,नाही म्हणले तरीही.. ‘ तू कशाला चहा करतोयस?  आता मी आहे ना..मी करते चहा ‘ असं  म्हणलं तरीही… चहा तूच करायचा आहेस हे लक्षात ठेव. “

“ए, मी नाही हं करणार चहा..”

ती आपली मस्करी करत आहे असे वाटून तो काहीसा लाडात येऊन, काहीसा चेष्टेने म्हणाला.

“ म्हणजे ? एकच लक्षात ठेव.. तू  करणार आहेस म्हणजे करणार आहेस.. “

ती काहीशा कठोरपणे म्हणाली .तिच्यातल्या या बदलाने तो आवाक होऊन तिच्याकडे पहात असतानाच ती हसत हसत म्हणाली,

“ कायदा स्त्रियांच्या बाजूने आहे ठाऊक आहे ना..?  आत जायचं नाही ना तुला ?”

त्याने दचकून तिच्या चेहऱ्याकडे पाहिले.  ती नेहमी जशी दिसते त्याहून वेगळीच भासली त्याला. तो अंतर्बाह्य थरारला. ‘ ही अशी काय वागतेय ? हिच्याशी एवढे प्रेमाने, समजुतीने वागूनही अगदी शांतपणे धमकी काय देतेय ?.. काही वाद, भांडण झाले असते आणि रागाच्या भरात बोलली असती तरी एकवेळ ते समजून घेण्यासारखं होते पण तसे काहीच नसताना, हे काय म्हणायचं ?…’ त्याच्या मनात विचार आला. त्याला तिच्या अशा वागण्याचं काहीच कारण कळेना पण तिच्या त्या वाक्याने त्याच्या मनात भीतीने घर केलं. तो मनोमन काहीसा घाबरलाय हे तिला जाणवले.. ती स्वतःशीच हसल्यासारखं हसून त्याला म्हणाली,

“ अरे, गंमत केली तुझी..”

ती ‘गंमत’ म्हणाली असली तरी ती गंमत नाही हे त्याच्या ध्यानात आलं होतं.

” आणि आपली ही गंमत कुणाला सांगायची नाही हं ! कुणाला म्हणजे कुणालाच. तुझ्या आई-बाबांनाही नाही. राहील ना हे तुझ्या लक्षात ? “

तो तिच्या बोलण्याने, तिच्यातील बदलाने अवाक होऊन तिच्याकडे पहातच राहिला होता.

               क्रमशः…

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “प्राजक्त…” लेखक – अज्ञात ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “प्राजक्त…” लेखक – अज्ञात ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

झाडावरुन प्राजक्त ओघळतो, 

त्याचा आवाज होत नाही, 

याचा अर्थ असा नाही की त्याला इजा होत नाही’…

“प्राजक्त” किंवा “पारिजातक” 

किती नाजुक फुलं..!

कळी पूर्ण उमलली की, इतर फुलझाडांप्रमाणे फूल खुडायचीही गरज नसते. डबडबलेल्या डोळ्यांतून अश्रु ओघळावा, तसं देठातुन फूल जमिनीवर ओघळतं.

“सुख वाटावे जनात,

दुःख ठेवावे मनात”

— हे या प्राजक्ताच्या फुलांनी शिकवलं.

एवढसं आयुष्य त्या फुलांचं..!

झाडापासुन दूर होतांनाही गवगवा करीत नाहीत.

छोट्याशा नाजुक आयुष्यात आपल्याला भरभरुन आनंद देतात.

आणि केवळ आपल्यालाच नाही,  तर आपल्या कुंपणात लावलेल्या झाडाची फुलं शेजारच्यांच्या अंगणातही पडतातच की. 

खरंच…! माणसाचं आयुष्यही असंच… एवढसं… क्षणभंगुर प्राजक्तासारखं…!

कधी ओघळून जाईल माहीत नाही.

आज आहे त्यातलं भरभरुन द्यावं हेच खरं…!!                 

लेखक : अज्ञात

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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