हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 182 ☆ “पेपर लीक मामले में डील…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “पेपर लीक मामले में डील…”।)

☆ व्यंग्य # 182 ☆ “पेपर लीक मामले में डील…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पेपर लीक होने के बढ़ते मामले चिंता का विषय बने हुए हैं। इसके कारण कई मुख्यमंत्री और कुछ बड़े लोग बैकफुट पर आ जाते हैं। गांव के टपकती पाठशाला में उनकी पढ़ाई हुई थी, उन्होंने बचपन में पाठशाला के रिसते खपरों से लीकेज की कला सीख ली थी। पढ़ाई पूरी करके ‘लीकेज की राजनीति’ विषय में उनकी पीएचडी भी पूरी हो गई थी, इसलिए वे लीकेज की राजनीति से घबराते नहीं थे और प्रजातंत्र में लीकेज की राजनीति को प्राकृतिक विपदा जैसा मानते थे। हर पार्टी में लीकेज पकड़ने वालों का बड़ा महत्व होता है, तो चूंकि ये लीकेज की राजनीति के डाक्टरेट थे इसलिए इनकी पार्टी में इनके अच्छे जलवे थे। ‘लीक’ से हटकर अपनी अलग तरह की राजनीतिक चाल चलने में वे माहिर भी थे।

उनके दिन तब फिरे जब पूरे माहौल में लीकेज बबंडर बनके छा गया। परीक्षाओं के समय पर्चा लीक होने का मौसम गरमाया, डाटा लीक होने के किस्सों ने लोगों का मन भरमाया, शहरों में पाईप लाईन लीकेज की घटनाओं से हाहाकार मचा, चुनाव की तारीख लीक होने से मीडिया गरमाया। जब लीकेज की समस्या विकराल रूप लेने लगी तो उनकी पूछ परख ज्यादा बढ़ गई। प्रजातंत्र में लीकेज विषय पर की गई पीएचडी के जलवे और बढ़ गए और उन्हें गोपनीय विभाग (लीकेज अनुभाग) का मंत्री का पद मिल गया। केन्द्र में महत्वपूर्ण पद जिसमें पिछली सरकार के लूपहोल, रिसाव, लीकेज को ढूंढने का काम था और ताजे लीकेज घटनाक्रम में तीखी नजर रखनी थी।

दिनों दिन लीकेज विभाग का महत्व बढ़ने लगा। मंत्री जी लीकेज की राजनीति के खिलाड़ी बन गए थे। परीक्षाओं के पेपर धड़ाधड़ लीक करा दिए गए। जब पत्रकारों ने मंत्री जी से पर्चा लीक होने संबंधी सवाल किये तो मंत्री जी ने पत्रकारों को टालने के लिए तरह-तरह के न समझ आने वाले जवाबों की बरसात कर दी।  कहने लगे – लीकेज का प्रॉब्लम सब जगह संक्रामक बीमारी की तरह फैल गया है, आपको याद नहीं है क्या अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डाटा लीकेज का मामला। आनलाईन लीकेज से डरकर चीन ने आनलाईन हंसी पर रोक लगा दी है। जहां तक परीक्षा के पेपर लीक होने का मामला है तो आप लोग कहेंगे तो अब वाटरप्रूफ पेपर छपवाने के आदेश कर देते हैं। मंत्री जी ने सोशल मीडिया पर लीक हो रहे मामलों पर चिंता व्यक्त की और मीडिया वालों से सहयोग की अपील की। प्रजातंत्र में टपका की समस्या पर गहन विचार विमर्श करते हुए पत्रकारों को बताया कि पिछली सरकार के लीकेज इतने अधिक पकड़ में आये हैं कि रिसाव रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। पिछली सरकार के पीडब्ल्यूडी विभाग की गड़बड़ी और भ्रष्टाचार से सरकारी क्वार्टरों में टपका, सीपेज, लीकेज के केस ज्यादा दर्ज हुए हैं।

नगर निगमों की पाइप लाइन में रोज बढ़ते लीकेज की समस्या पर विपक्ष जिम्मेदार है विपक्षी लोग नहीं चाहते कि जनता को रोज पानी मिले।

मीडिया वालों से हाथ जोड़कर मंत्री जी ने निवेदन किया कि हमारी पार्टी और हमारे मंत्री टपके और लीकेज की राजनीति नहीं करते, क्योंकि हमारे पास पर्याप्त जांच एजेंसियां और कोर्ट के खास लोग हैं, इसलिए जो हुआ तो हुआ आप लोग लीकेज वाली बात से संबंधित सवाल अब हमसे न पूछें नहीं तो आप सबकी आंखों में लीकेज की समस्या बढ़ सकती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 124 ☆ # डरना छोड़ो… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# डरना छोड़ो#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 124 ☆

☆ # डरना छोड़ो… # ☆ 

तुम सूरज की तपिश से डरकर

कब तक छुपोगे छांवों में

यह पत्थर भी तप जायेंगे

तब आग भर देंगे तुम्हारे पावों में

तुम छालों से भरे पांवों को

जब धरती पर रखने जाओगे

इन रिसते हुए घावों पर

मरहम कहां से लाओगे

यह घाव भर जाये तो भी

टीस सदा बनी रहेगी पांवों में

चाहे धूप रहे यां छांव रहे

चलते-चलते उभर आयेगी राहों में

तुम जख्म, दर्द को लक्ष्य की तरफ मोड़ो

पथरीली चट्टानों पर दम-खम से दौड़ो

फूल ही फूल होंगे तुम्हारी राहों में

यूं डर डर कर जीने की आदत छोड़ो

जो जालिमों से डर जाये

वो बुजदिल है

जो ज़ुल्म करे असहायों पर

वो संगदिल है

सबको साथ लेके चले

वो हरदिल है

जो लूटे निर्धनों को

वो तंगदिल है

डर को छोड़ो तूफानों से लड़ जाओ

हिम्मत से सैलाबों में आगे बढ़ जाओ

लहरें तुम्हे किनारे पर पहुंचा देगी

एक बार नया इतिहास

तुम मिलकर गढ़ जाओ /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दुःख… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ दु:ख… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : पादाकुलक)

चिरते छाती आभाळाची

लखलख तलवारीची धारा

कधि दुःखाची अक्षय ज्योती

दे तिमिरावर मौन पहारा !

 

     बाण कुणाचा?रुतला कोठे ?

     स्थलकालाचे चाले मंथन

     यज्ञ संपला उरे तरीही

     समिधांचे रे ज्वलंत क्रंदन !

 

परदु:खांची जळते नगरी

तरी वाजवी कुणि सारंगी

कुणि करुणाकर पसरुन बाहू

गगन फाटके ह्रदयी घेई !

 

     दुःख भुकेचे न् दास्याचे

     खोल जखम ही भळभळणारी

     भविष्यातले सूचक तांडव

     मिणमिण पणती थरथरणारी !

 

नवीन दृष्टी नवीन सृष्टी

दुःख विलक्षण दुःख चिरंतन

मातीमधल्या भग्न नभाचे

असेच चाले शाश्वत चिंतन !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 126 ☆ वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 126 ? 

☆ वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

नारे फक्त लावल्या गेले 

वन मात्र उद्वस्त झाले..०१

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे…

अभंग सुरेख रचला

आशय भंग झाला..०२

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

झाडांबद्दलची माया 

शब्द गेले वाया..०३

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वड चिंच आंबा जांभूळ

झाडे तुटली, तुटले पिंपळ..०४

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

संत तुकारामांची रचना 

सहज पहा व्यक्त भावना..०५

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

तरी झाडांची तोड झाली

अति प्रगती, होत गेली..०६

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

निसर्ग वक्रदृष्टी पडली 

पाणवठे लीलया सुकली..०७

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

पाट्या रंगवल्या गेल्या 

कार्यक्रमात वापरल्या..०८

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वृक्षारोपण झाले

रोपटे तडफडून सुकले.. ०९

 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

सांगणे इतुकेच आता 

कोपली धरणीमाता..१०

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मोहोर फाल्गुनीचा ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ मोहोर फाल्गुनीचा ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

संपत न्याहरी करून उठतच होता आणि त्याचा मोबाईल वाजला. सुनंदाचा त्याच्या मोठी बहीणीचा फोन होता मिरजेहून. ‘संपत, अरं उद्या होळीला येतंय मी घरला, सांगलीला. तुझ्या दाजींचं जरा तिकडं काम हाय आणि लेकरांना पण दोन दिवस सुट्टी! म्हणलं चला मामाकडे जाऊ होळीला.’

‘ बरं बरं या की! आमी वाट बघतो मंग!’ असं म्हणून संपतनं फोन ठेवला. एवढ्या सकाळी कोणाचा फोन म्हणून आईनं विचारलंच.’ ताई आणि दाजी येतात इथं उद्या होळीला, लेकरांसंगट! दाजींचं काय काम हाय म्हणं इकडं ‘, सांगताना नाराजीची एक आठी

संपतच्या कपाळावर नकळत उमटलीच.’ पोरांना बी सुट्ट्या हायेत दोन दिस. ‘

‘ अग, शालू, सारजा, सुनंदा येतेय ग उद्या होळीला! हौसाबाईंनी आपल्या दोन्ही सुनांना आवाज दिला.

‘येऊ द्या की ‘, असं सासूला म्हणताना,

‘पुरणा-वरणाचा बेत कराय लागणार ‘, दोघी जावांची नेत्रपल्लवी झाली. ‘

खरंतर सुनंदा एकुलती एक लाडकी बहिण! दोन्ही वहिन्यादेखील, माहेरवाशिणीचं कोण कौतुक करायच्या. पण आता परिस्थितीच अशी झाली होती.

हौसाबाईंना तीन मुलं! थोरला शंकर, मग सुनंदा आणि धाकटा संपत. सुनंदाचं सासर मिरजेला. तिच्या घरी भरपूर शेतीवाडी होती. हळदीचा व्यापार जोरात होता. त्यांच्या मसाला कांडायच्या दोन गिरण्यापण होत्या. जावई सुभाष, एकुलता एक मुलगा, त्यामुळे पैशाला तोटा नव्हता. मंगेश आणि मीना, बारा आणि दहा वर्षांची दोन लेकरं आणि सासू-सासरे अशी मोजकी माणसं घरात!

हौसाबाईंच्या नवऱ्याचं बबनरावांचं चार वर्षांपूर्वी  निधन झालं. कोणाच्यातरी पिसाळलेल्या खोंडानं धडक दिली. त्याचं शिंग छातीत खुपसलं. घाव वर्मी लागला. औषधोपचारात खूप पैसा खर्च झाला. मुंबईच्या मोठ्या इस्पितळात नेऊन शस्त्रक्रिया केली. पण कश्याचा उपयोगच झाला नाही.

शंकर आणि संपत घरची शेती बघायचे. सलग दोन वर्षे अवकाळी पाऊस आणि गारपीट… कापसाच्या शेतीची पार वाट लागली. हातातोंडाशी गाठ पडणं मुश्किल झालं. हे कमीच होतं म्हणून की काय कोरोनाच्या पहिल्या लाटेत शंकर सापडला. होता नव्हता तो सर्व पैसा पणाला लागला. शंकर काही वाचला नाही.

संपतच्या डोक्यावर कर्जाचा डोंगर उभा राहिला.

नवरा आणि मुलगा, दोघांच्या पाठोपाठ झालेल्या मृत्यूने हौसाबाई अगदी खचून गेली होती. जमेल तसं थोडंफार काम रेटत होती.

कोरोनामुळे सगळीच दाणादाण उडाली होती. मजूर नाही, त्यात हवामानही लहरी. उत्पन्न जवळजवळ शून्य आणि घरात सात माणसं! हौसाबाई, शंकरची बायको सारजा, पंधरा वर्षांची मुलगी सुनिता, संपत,त्याची बायको शालू आणि मुलगा श्रीपती! २ एकर जमीन पतपेढीकडे गहाण पडली, कर्जाचे हप्ते भरणंही कठीण झालेलं.

दहावी पास झालेली सुनिता पैश्याअभावी पुढचं शिक्षण घेऊ शकत नव्हती. आईसोबत परसदारी भाजीपाला पिकवून ती घरखर्चाला थोडा हातभार लावत होती. श्रीपती सातवीत शिकत होता. शालू घरकाम सांभाळून, आजकाल साडीच्या फाॅलबिडिंगचं काम करून चार पैसे जोडत होती.

या परिस्थितीत सणवार कसे साजरे करणार? म्हणून सुनंदाताईंच्या येण्याचा म्हणावा तसा आनंद कोणालाच झाला नव्हता. शिवाय माहेरवाशीण  म्हटलं की तिला साडीचोळी, जावयाला कपडा, मुलांना काही-बाही घेणं आलंच.सुनंदाताईचा स्वभावही थोडा चिकित्सक! त्यामुळे त्यांना आवडेल अशी साडीही भारीतलीच घ्यायला हवी. सणासुदीला पाहुणे म्हणजे जेवायला चार पदार्थ करायला हवेत. हा जास्तीचा  खर्च आत्ता या कुटुंबाला झेपणारा नव्हताच. तरी बरं जावई बुवांनी कोणत्या महाराजांची दिक्षा घेतल्यामुळे,  शाकाहारी होते.

हौसाबाईंनाही या परिस्थितीची जाणीव होतीच. मग शालू आणि सारजाबरोबर बातचीत करून, शालूच्या माहेरहून भाऊबीजेला आलेला संपतसाठीचा सदरा जावयाला द्यायचं ठरलं. बाजारातल्या चोरडिया मारवाड्याकडून साडी उधारीवर आणायचं ठरलं. शालू त्यांच्याकडूनच फाॅलबिडिंगचं काम आणायची. पुरणपोळीच्या सामानासाठी किराणा उधारीवर आणावा लागणार होता. कसंतरी जुगाड करायचं झालं!

दुसर्‍या दिवशी संध्याकाळी शालू-सारजा पुरणपोळ्या करत असतानाच सुनंदाताई आणि कुटुंबीय अवतरले. होळीची पूजा, नैवेद्य होऊन जेवणंही

हसत-खेळत पार पडली. रात्री उशिरापर्यंत गप्पा-गोष्टी रंगल्या.पोरं एकमेकांत गुरफटली. सकाळी नाश्ता करून जावई कामासाठी रवाना झाले.

मग दोन्ही सुना आपल्या रोजच्या कामात गुंतल्या. माय-लेकीचं हितगुज सुरू झालं.  दिराच्या उपचारासाठी शालूने आपलं स्त्रीधन सुद्धा गहाण ठेवलं होतं, घेलाशेठ सावकाराकडे. सारजाने आपले मोजके दोन -चार डाग होते, ते पण विकले होते. आडवळणाने हौसाबाईनी लेकीला परिस्थिती सांगण्याचा प्रयत्न केला. पण तिच्या कानात  ते शिरलं की नाही कोण जाणे!

दुपारची जेवणं झाली. जावई आले की निघायची गडबड होईल म्हणून शालूनं लगेच नणंदेची ओटी भरली.साडी दिली. मुलांना मिठाईचा पुडा दिला. इतक्यात जावई पण आले. तशी सुनंदाने आपली साडी हातात घेऊन निरखली आणि ती आईला म्हणाली, ‘ मला काही हा रंग आवडला नाही बाई!चल  शालू, आपण ही साडी बदलून आणूया का? ह्यांच्याबरोबर गाडीतून जाऊन येऊ पटकन!’ बिचारी शालू काय बोलणार?  संपतही गेला बरोबर.

चोरडियांच्या दुकान खूप मोठं होतं. सुनंदाने ती साडी परत केली. आणि त्याऐवजी आणखी चार साड्या खरेदी केल्या. शालू आणि संपतचं धाबं दणाणलं होतं. पण सुनंदाताईंचं तिकडे लक्षच नव्हतं. त्यांनी आपल्या यजमानांना खुणेनंच विचारलं, ‘का हो ह्या घेऊ ना? .’ तुला पाहिजे तेवढ्या  घे की! तुम्ही बघा निवांत साड्या , आम्ही दोघं जरा एका ठिकाणी जाऊन येतो. ‘असं म्हणून संपतला घेऊन सुभाषराव बाहेर पडले सुद्धा! मग ते येईपर्यंत सुनंदाताईंनी मुलांच्या विभागातही थोडी खरेदी केली. चोरडिया ओळखीचे असल्याने,’ हिशोबाचं नंतर पाहू’, असं शालूला  म्हणाले. मग या दोघी दुकानाबाहेर आल्या आणि ते दोघंही गाडी घेऊन पोचलेच. मंडळी घरी परतली. हौसाबाई आणि सारजा माजघरात लवंडल्या होत्या, त्या उठून बसल्या. मुलंही माजघरात आली. शालू चहा ठेवायला आत जाणार तोच सुनंदाने तिला थांबवलं आणि जवळ बसवलं. पहिले आईला आणि दोन्ही वहिन्यांना एक एक साडी तिनं हातात ठेवली. मुलांना कपडे दिले. तेवढ्यात सुभाषराव आपली बॅग घेऊन तिथे आले. त्यातून एक मिठाईच्या खोक्यासारखा दिसणारा खोका काढून, त्यांनी शालूच्या हातात दिला. ‘अग, उघडून बघ तरी’, असं त्यांनी म्हटलं तसं तिनं संपतकडे तो उघडायला दिला. त्या खोक्यामध्ये शालूचे, घेलाशेठकडे गहाण ठेवलेले दागिने होते. सगळेजण चकित होऊन बघू लागले. सुभाषराव म्हणाले, ‘ सासूबाई , मुली आता कायद्यानं बापाच्या संपत्तीत वाटा मागतात. भावाकडून हक्काने माहेरपण वसूल करतात. मंग माहेरच्या मोठ्या खर्चाची , कर्जाची जिम्मेवारी पण त्यांनी घ्यायाला नको का?’ ‘मला यांनी हे समजावलं आणि  पटलंबी! माझे भाऊ-वहिनी चिंतेत, हलाखीत जगत असताना, मला  माझी ही वाटणीदेखील घेयाला पाहिजेच की!आईकडून  समदं समजल्यावर मी फोन केला होता यांना! म्हणून घरी  येतानाच हे घेलाशेठचे पैशे देऊन आले आणि चोरडियांचं बिल ऑन लाईन दिलंय यांनी!

 हौसाबाईनी लेकीला मिठी मारली. त्यांचे डोळे आनंदाश्रूंनी भरले होते. संपत, सुभाषरावांच्या पायाशी वाकला होता. शालू आणि सारजाचे डोळेही तुडुंब भरले होते.

मंगेशने बाबांचा मोबाईल पळवून, होळीचे हे मनोहारी रंग पटापट फोटोत कैद केले होते आणि तो आता आपल्या भावंडांसोबत सेल्फी घेण्यात दंग होता.

(ही कथा आवडल्यास लेखिकेच्या नावासह आणि कोणताही बदल न करता सामाईक करू शकता.)

© सुश्री प्रणिता खंडकर

दिनांक.. ०६/०३/२०२३.

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845 ईमेल [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पतंग… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

सौ. सुचित्रा पवार

??

☆ पतंग… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

निळ्या आकाशात पतंग उंच उंच का भरारी घेतो माहित आहे ? त्याचा विश्वास असतो दोर पकडलेल्या त्या हातांवर !  त्याला माहित असतं की हे हात जोपर्यंत माझी ढील सैल करत नाहीत तोपर्यंत मी वर वर लहरत जाईन .. आकाशाला स्पर्श करेन .. वाऱ्याशी स्पर्धा करेन अन जमलेच तर ते खुणावणारे तारेही स्पर्शेन … एवढासा पतंग किती उच्च स्वप्ने पहातो केवळ त्या दोर पकडलेल्या हातांवर अन उंच उंच उडत राहतो !

माणसाचे ही असेच असते आपल्या माणसांच्या, कुटुंबांच्या भक्कम पाठिंब्यावर, विश्वासावर तो आनंदाने पळतो, मोठी मोठी स्वप्ने पहातो, ती पूर्णत्वास नेतो, केवळ या अदृश्य चिवट नाते बंधावर … जोपर्यँत हा विश्वास असतो बंधाचा, आधाराचा तोपर्यंत तो प्रचंड आत्मविश्वासाने संकटे, अडचणी आनंदाने झेलतो.

आपलाही अदृश्य दोर कधी असतो भाऊ, कधी मित्र, कधी मैत्रीण, सहचर, बहीण, पती, पत्नी बनून दृढ  विश्वासाचा दोर मजबूत पकडत असतात आणि आपण आनंदाने जीवनाच्या विशाल अथांग आकाशात उंच उंच लहरतो ….आनंदी पतंग होऊन …

© सौ.सुचित्रा पवार 

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-2…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-2…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

(संत श्री ज्ञानदेव महाराजांनी योगीराज चांगदेवांच्या कोर्‍या पत्राला दिलेलं उत्तर म्हणजे चांगदेव पासष्टी. संत ज्ञानदेवांच्या काळचं प्राकृत म्हणजेच मराठी आजच्या संदर्भात, सर्वसामान्य लोकांना कळायला अवघड आहे. म्हणून सुश्री शोभना आगाशे यांनी सध्या प्रचलित असलेल्या मराठीत या चांगदेव पासष्टीचं केलेलं रूपांतर प्रस्तुत करीत आहोत.)

जगती जे अणुरेणू

तसेच हो परमाणू

पृथ्वीचे परि पृथ्वीपण

नच झाकिती ते कण कण

विश्वाचा अविष्कार

झाकत ना त्या निराकार॥६॥

 

क्षयवृद्धीच्या कळा

चंद्रास ग्रासती सोळा

चंद्र परि नच हरपे

दीपरूपे वन्ही तपे॥७॥

 

तसाच विश्वी तोच असे

दृश्य तोच द्रष्टा असे॥८॥

 

लुगडे केवळ रूप असे

अंतरी सारे सूत असे

जसे मृद् भांडे रूप मात्र

मृत्तिका केवळ तेच पात्र॥९॥

 

द्रष्टा दृश्य यांचे परे

परमात्मतत्व असे खरे

अविद्ये कारणे मात्र असे

द्रष्टा दृश्य रूपे भासे॥१०॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ मला आवडलेली बोधकथा… भाग -1 ☆ प्रस्तुती : सुश्री माधुरी परांजपे ☆

? वाचताना वेचलेले ?

मला आवडलेली बोधकथा… भाग -1 ☆ प्रस्तुती : सुश्री माधुरी परांजपे ☆

एका जुन्या इमारतीत त्या वैद्याचे घर होते. घराच्या मागच्या भागात त्याने संसार थाटला होता आणि पुढच्या भागात दवाखाना. त्याच्या पत्नीची सवय होती कि, दवाखाना उघडण्यापूर्वी संसाराला लागणारी, त्या दिवसाच्या सामानाची एक चिठ्ठी, ती दवाखान्यात ठेवत असे. पूजाअर्चा करून वैद्य महाराज दवाखान्यात येत आणि भगवंताचे नाव घेऊन ती चिठ्ठी उघडत. पत्नीने ज्या गोष्टी त्यात लिहिल्या आहेत, त्यांच्यासमोर ते त्या वस्तूंचे भाव लिहीत असत आणि त्याचा हिशेब करत असत. 

नंतर मग परमात्म्याची प्रार्थना करून म्हणत, “हे दयाघना भगवंता, मी केवळ तुझ्याच आदेशानुसार, तुझी भक्ती सोडून, इथे या दुनियादारीच्या चक्रात येऊन बसलो आहे.” वैद्यजी कधीच आपल्या तोंडाने रोग्याला फ़ी मागत नसत. कुणी द्यायचे तर कुणी नाही, परंतु एक बाब निश्चित होती, कि त्या दिवसाच्या सामानाचा लावलेल्या हिशेबाची रक्कम पूर्ण झाली की, नंतर आलेल्यांकडून ते काहीच फी घेत नसत, मग तो येणारा रोगी कितीही पात्र आणि श्रीमंत असो. 

एक दिवस वैद्याने दवाखाना उघडला. गादीवर बसून परमात्म्याचे स्मरण करून पैशाचा हिशेब लावण्यासाठी चिठ्ठी उघडली आणि ते अवाक झाले, एकटक बघतच राहिले. काही क्षण त्यांचे मन भरकटले, डोळ्यासमोर तारे चमकायला लागले. परंतु दुसऱ्याच क्षणी त्यानी आपल्या मनावर नियंत्रण मिळवले. गव्हाचे पीठ, तेल-तूप-मीठ, तांदूळ-डाळ या सामानानंतर पत्नीने शेवटी लिहिले होते, “मुलीचे लग्न येत्या २० तारखेला आहे, तिच्या लग्नाला, हुंड्याला लागणारे सामान”.

काही वेळ विचार करून बाकी सगळ्या सामानांची किंमत लिहून लग्नाला लागणाऱ्या सामानासमोर त्यांनी लिहिले, “हे काम भगवंताचे आहे, तो जाणे आणि त्याचे काम जाणे.” 

नेहेमीप्रमाणे काही रोगी आले, त्यांना वैद्यांनी औषधी दिली. या दरम्यान एक मोठीशी कार त्यांच्या दवाखान्यासमोर येऊन थांबली. वैद्यांनी काही खास लक्ष दिले नाही, कित्येक कार त्यांच्याकडे येत असत. आधी आलेले रोगी औषधी घेऊन चालले, गेले. तो सूटा-बुटातला साहेब कारमधून बाहेर आला आणि नमस्कार म्हणत बेंचवर बसला. वैद्य म्हणाले, “आपल्याला जर औषधी पाहिजे असेल तर आपण इकडे स्टूल वर या म्हणजे मी आपली नाड़ी परीक्षा करू शकेन आणि कुणा इतरांसाठी औषधी हवी असेल तर रोगाचे, स्थितीचे वर्णन करा.”

ते साहेब म्हणू लागले, ” वैद्यजी, तुम्ही मला ओळखले नाही का? माझे नाव कृष्णलाल आहे. आणि आपण तरी कसे ओळखणार, कारण मी १५-१६ वर्षानंतर आपल्याकडे आलो आहे. आपल्याला मी आपल्या मागच्या मुलाखतीबद्दल सांगतो, म्हणजे सारे काही समजून येईल. जेव्हा मी पहिल्यांदा आलो होतो ना तेव्हा मी स्वतःहून आलो नव्हतो, खरे तर ती ईश्वरी योजनाच होती. ईश्वराला माझ्यावर कृपा करण्याची इच्छा झाली होती, कारण त्याला माझे घर आबाद करायचे होते, माझ्या जीवनात भरभरून सुख आणायचे होते. आणि आपली ती पहिली भेट आठवली की, आज देखील ईश्वराच्या त्या साहजिक कृपेच्या प्रसंग आठवणीने, मी विनम्र होतो, नतमस्तक होतो, नि:शब्द होतो. “

“ झाले असे होते की, मी आपल्या पैतृकांच्या घरी जात होतो. अगदी आपल्या दवाखान्याच्या समोर माझी कार पंक्चर झाली. ड्रायव्हर कारचे चाक काढून पंक्चर काढायला गेला. आपण बघितले की, मी उन्हामध्ये कारजवळ उभा आहे. आपण माझ्याजवळ आलात आणि दवाखान्याकडे बोट दाखवून आत यायला विनंती केली, इथे खुर्चीमध्ये सावलीत बस म्हणून म्हणालात. आंधळ्याला काय दोन डोळेच पाहिजे असतात, मी खुर्चीमध्ये येऊन बसलो. आपण मला यथोचित गूळ-पाणी देऊन तृप्त केले. का कोण जाणे पण ड्रायव्हरने देखील काही जास्तच वेळ घेतला होता. दुपार झाली होती. एक छोटीशी मुलगी आपल्या गादीपाशी उभी होती आणि म्हणत होती, “चला ना बाबा, मला भूक लागली आहे.” आपण तिला म्हणत होता, ‘ बाळा थोडा धीर धर,, जाऊयातच आपण. ‘ “ 

“ मी हा विचार केला की इतक्या वेळचा आपल्याजवळ बसलो आहे आणि माझ्यामुळे आपण जेवायला देखील जाऊ शकत नाहीत. म्हणून काहीतरी औषधी विकत घेऊन टाकू, म्हणजे माझ्या बसण्याचा भार हलका होईल, काही उद्देश प्राप्त होईल.  मी आपल्याला बोलता बोलता म्हणालो, “वैद्य महाराज, मागच्या ५ – ६ वर्षांपासून मी इंग्लंडमध्ये राहतो, व्यवसाय करतो तिथे. इंग्लंडला जाण्यापूर्वीच माझे लग्न झाले आहे, पण संतती-सुखापासून मात्र अजून वंचित आहे. इथे भारतात देखील बरेच इलाज केले, तिथे इंग्लंडमध्ये देखील दाखवले, पण पदरी निराशाच पडली आहे. “ 

“आपण म्हणालात, ” भगवंतापासून निराश होऊ नका, तो अत्यंत दयाळू आहे, तो खूप मोठा दाता आहे. आपण म्हणालात, लक्षात ठेवा त्याच्या कोषागारात कशाचीही कमी नाही. कशाचीही आस तो पूर्ण करतो. संतती, धन-दौलत, इज्जत, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, सारे काही त्याच्याच हातात आहे. ते कुणा वैद्य किंवा  डॉक्टरच्या हातात नसते. ते कोणत्या औषधाने मिळत नाही. जे काही व्हायचे असते ते सारे भगवंताच्या आदेशाने होत असते. संतती जरी द्यायची असेल तरी दाता तोच आहे.” –  आजदेखील तो प्रसंग जशाच्या तसाच माझ्या नजरेसमोर आहे. माझ्याशी हे सारे बोलत असताना, आपण एकीकडे औषधाच्या पुड्या बांधत होतात. सगळ्या औषधी आपण दोन भागात विभाजित करून, दोन वेगवेगळ्या पाकिटात टाकल्या, आणि मला विचारून एका पाकिटावर माझे नाव टाकले, आणि दुसऱ्यावर माझ्या पत्नीचे. माझ्या हातात ते सुपूर्द करून औषधी घेण्याची विधी आपण समजावलीत.” 

– क्रमशः भाग पहिला. 

संग्राहिका – सुश्री माधुरी परांजपे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #187 ☆ कहानी – निमंत्रण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित प्रत्येक पात्रों के चरित्र को सजीव चित्रित करती कहानी  निमंत्रण। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 187 ☆

☆ कहानी ☆ निमंत्रण

(लेखक के कथा-संग्रह ‘जादू-टोना’ से)

रुकमनी चाची रोज़ शाम की तरह अपने दुआरे बैठीं नलके पर से पानी लेकर लौटतीं पड़ोसिनों से बतकहाव कर रही हैं। उनकी नातिनें दो-तीन बार पानी के बर्तन लेकर आ चुकी हैं। यह काम उन्हीं के जिम्मे है। रुकमनी चाची अब यह सब काम नहीं करतीं। बस इस टाइम दुआरे पर आकर जरूर बैठ जाती हैं ताकि पड़ोसिनों से आराम से बतकहाव हो सके। बात करने के लिए चटकती  जीभ को चैन मिल जाता है। अड़ोस- पड़ोस की सारी जानकारी वहीं बैठे-बैठे मिल जाती है।

लेकिन आज रुकमनी चाची का मन थिर नहीं है। बात सुनते सुनते मन भटक जाता है। बात का छोर टूट जाता है। फिर सुध लौटती है तो पूछती हैं, ‘हाँ, तो क्या बताया दमोह वाली के आदमी के बारे में? ज्यादा नसा-पत्ती करने लगा है? क्या कहें, सब बिगड़ती के लच्छन हैं।’

रुकमनी चाची की उद्विग्नता का कारण यह है कि दस-बारह दिन बाद उनकी भतीजी सुषमा के बड़े बेटे की शादी है, लेकिन उन्हें अभी तक कोई सूचना नहीं मिली है। सुषमा उनकी बड़ी बहन की बेटी है, जो अब नहीं हैं। सुषमा के पति का सिविल लाइंस में बड़ा बंगला है। वे एस.पी. के पद पर हैं। रुकमनी चाची लोगों को बताते नहीं थकतीं कि एस.पी. साहब उनके दामाद हैं, भले ही उनकी गाड़ी रुकमनी चाची के दरवाजे पर साल दो साल में कभी दिखायी पड़ती है। रुकमनी चाची पड़ोसियों को सफाई देती हैं— ‘पुलिस में हैं तो फुरसत कहाँ मिलती है? दिन रात की भागदौड़  है। अब ऐसे में सुसमा गिरस्ती सँभाले कि हमारे पास आकर बैठे।’

लेकिन जैसे जैसे दिन गुज़रते जाते हैं, उनकी बेचैनी बढ़ती जाती है। निमंत्रन अभी तक क्यों नहीं आया? नहीं बुलाएँगे क्या? सोचते सोचते हाथ का काम रुक जाता है। दरवाज़े पर कान लगा रहता है। कोई खटका होते ही पहुँचती हैं कि कोई निमंत्रन लेकर तो नहीं आया।

उन्हें पता है कि एस.पी. साहब और उनके   बेटे उनके परिवार को पसन्द नहीं करते। कल्चर का फर्क है, आर्थिक स्थिति का भी। कभी कोई अवसर-काज हुआ तो सुषमा अकेली आकर खानापूरी कर जाती है। एस.पी. साहब बड़ी मुश्किल से दर्शन देते हैं।

रुकमनी चाची के पति शमशेर सिंह लंबे समय तक एक पुराने जागीरदार के यहाँ ‘केयरटेकर’ थे। तब उनका रुतबा देखते बनता था। वैसे तो काली टोपी पहनते थे, लेकिन कभी-कभी तुर्रेदार साफा बाँधते थे। कभी कोई खास मौका हो तो ‘बिरजिस’ (ब्रीचेज़) पहनते थे, साथ में चमचमाते जूते। तब उनकी मूँछें हमेशा ग्यारह बज कर पाँच बजाती थीं। फिर धीरे-धीरे जागीरदार साहब की खुद की मूँछें ढीली हो गयीं और ‘केयरटेकर’ साहब की मूँछें सवा नौ से घटते-घटते सात-पच्चीस पर आ गयीं। पुरानी यादों के नाम पर अलमारी में रखी धुँधली तस्वीरें ही रह गयी हैं, जिनमें शमशेर सिंह पुराने जागीरदार साहब के साथ विभिन्न मुद्राओं में दिखायी पड़ते हैं।

शमशेर सिंह अच्छे दिनों में घर में अपना रौब गालिब करने में लगे रहे। बड़े लोगों की संगत में उन्होंने बड़े लोगों की बहुत सी आदतें ग्रहण कर ली थीं। परिवार पर हुकुम चलाना वे अपना अधिकार समझते थे। उनका सोचना था कि उनकी उपस्थिति में परिवार में अदब और कायदे का वातावरण होना चाहिए और फालतू की चूँ- चपड़ नहीं होना चाहिए। परिवार के लोग उनके सामने भीगी बिल्ली बने रहें तो उन्हें बड़ा सुख मिलता था। रोज़ शाम को वे अकेले या किसी मित्र के साथ बोतल खोल कर बैठ जाते थे और उस वक्त घरवालों का सिर्फ यह कर्तव्य होता था कि वे गरज कर जिस चीज़ की फरमाइश करें वह तुरन्त हाज़िर कर दी जाए। अपनी दुनिया में मस्त रहने के कारण उन्होंने कभी बच्चों की पढ़ाई- लिखाई की तरफ ध्यान नहीं दिया। अब दिन पलटने के साथ उनका रौब भरभरा गया था। परिवार के द्वारा उपेक्षित वे अपने कोने में मौन बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते रहते थे।

परिवार में अपनी ही चलाने वाले शमशेर सिंह ने सात संतानें पैदा की थीं। उन्हें इस बात का गर्व था कि इनमें से छः लड़के थे, बस एक पता नहीं कैसे लड़की हो गयी। पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान न देने के कारण सब छोटी मोटी नौकरियाँ या काम कर अपना गुज़र कर रहे थे। लेकिन शमशेर सिंह को इसका कोई मलाल नहीं था। उनका दृढ़ मत था कि सब अपना अपना प्रारब्ध लिखा कर लाते हैं और जो कुछ होता है प्रारब्ध के अनुसार होता है। उसमें कोई रत्ती भर फेरबदल नहीं कर सकता।

अब जैसे-जैसे सुषमा के बेटे की शादी की तारीख नज़दीक आती जाती है, रुकमनी चाची की धुकुर-पुकुर बढ़ती जाती है। क्या सचमुच नहीं बुलाएँगे? वे जानती हैं कि एस.पी. साहब उनके नाम पर मुँह बिचकाते हैं। कहते हैं, ‘शी इज़ ए वेरी टॉकेटिव लेडी।’ उनके बेटे भी रुकमनी चाची से कन्नी काटते हैं। कारण यह है कि वे  कभी उनके घर जाती हैं तो दुनिया भर की रामायण लेकर बैठ जाती हैं। ऐसे लोगों के किस्से सुनाएँगीं जो मर-खप गये या जिन्हें कोई जानता नहीं। कोई रोग-दोष का ज़िक्र कर दे तो देसी नुस्खों से लेकर टोने-टोटके तक सब बता देंगीं। उनका टेप जो चालू होता है तो रुकने का नाम नहीं लेता। इसीलिए उनके पास बैठने वाले बिरले होते हैं। सब फटाफट पाँव छू कर दाहिने बायें हो जाते हैं। जो पाँव न छुए उसे रुकमनी चाची टेर कर बुलाती हैं और फिर पाँव आगे बढ़ा देती हैं।

रुकमनी चाची कई रिश्तेदारों को फोन करके पूछ चुकी हैं कि उनको निमंत्रन-पत्र मिला या नहीं। कोई कह देता है कि उसके पास भी नहीं पहुँचा तो उन्हें ढाढ़स हो जाता है। जब कोई बताता है कि उसके पास पहुँच गया तो उनका मन खिन्न हो जाता है। फिर बड़ी देर तक उनका मन किसी काम में नहीं लगता।

चैन नहीं पड़ता तो बेटों से पूछती हैं, ‘कहीं अरुन वरुन मिले क्या?’ अरुण वरुण सुषमा के बेटे हैं।

जवाब मिलता है, ‘नहीं मिले।’

चाची पूछती हैं, ‘कभी वहाँ जाना नहीं हुआ?’

बेटे कहते हैं, ‘किसलिए जाना है? वहाँ क्या काम?’

रुकमनी चाची चुप हो जाती हैं। बेटे सच कहते हैं। कोई और रिश्तेदार होता तो काम-धाम के लिए उन्हें बुला लेता, लेकिन एस.पी. साहब को आदमियों की क्या कमी? बिना बुलाये लोग दौड़ते फिर रहे होंगे।

रुकमनी चाची का मन मथता रहता है। ब्याह-शादी में नहीं जाएँगीं तो कैसे चलेगा? दूर-दूर के नाते-रिश्तेदार जुटेंगे। सब का हालचाल मिलेगा। एक बार बिछुड़े तो पता नहीं दुबारा मिलना हो या न हो। उन जैसे बहुत से पके आम हैं। कब टपक जाएँ पता नहीं। एक आदमी आएगा तो उससे दस आदमियों की खबर मिलेगी। लोग यहाँ तक आएँ और उनसे भेंट न हो, यह तो बहुत गलत बात होगी। लेकिन यह सुसमा मरी निमंत्रन- पत्र नहीं भेजेगी तो कैसे जाएँगीं?

बेटे उनकी हालत देखकर चुटकी लेते हैं— ‘नहीं आया न निमंत्रन पत्र? सुसमा बिटिया के बड़े गुन गाती रहती थीं।’

रुकमनी चाची आहत होकर कहती हैं, ‘नहीं बुलाते तो न बुलाएँ। हमें क्या फरक पड़ता है? वे पैसे वाले हैं तो अपने घर में बैठे रहें। घर के सयानों को नहीं बुलाएँगे तो चार आदमी उन्हीं को कहेंगे।’

लेकिन जब शादी के तीन चार दिन ही बचे तो रुकमनी चाची का धीरज टूट गया। एक दिन चुपचाप रिक्शा करके सुषमा के घर पहुँच गयीं। अन्दर पहुँचीं तो सुषमा ने पाँव छुए। चाची उदासीनता का अभिनय करके बोलीं, ‘इधर बजार गयी थी। बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं था। सोचा हाल-चाल पूछ लें।’

सुषमा बोली, ‘मौसी, शादी में सब लोग आइएगा।’

रुकमनी चाची व्यंग्य से बोलीं, ‘आ जाएँगे। निमंत्रन तो मिला नहीं।’

सुषमा का मुँह उतर गया। उसने छोटे बेटे वरुण को आवाज़ दी। वरुण ने रुकमनी चाची को देखकर दाँतों में जीभ दबायी।

सुषमा ने पूछा, ‘मौसी का कार्ड नहीं पहुँचाया?’

वरुण बोला, ‘आठ दस कार्ड रह गये हैं। उधर जाना नहीं हुआ। आज पहुँच जाएँगे।’

चाची उम्मीद से उसकी तरफ देखकर  बोलीं, ‘पक्का पहुँचाओगे या फिर भूल जाओगे?’

वरुण कान छू कर बोला, ‘आज पक्का। हंड्रेड परसेंट।’

रुकमनी चाची सुषमा से बोलीं, ‘मैं तो यहीं ले लेती, लेकिन घर में सब लोगों को अच्छा नहीं लगेगा।’

कार्ड पहुँचने का आश्वासन पाकर चाची खुश हो गयीं। चिन्ता मिट गयी। चलने लगीं तो एक बार फिर वरुण से बोलीं, ‘कितनी देर में आओगे?’

वरुण बोला, ‘आप चलिए। मैं पीछे-पीछे पहुँचता हूँ।’

रुकमनी चाची रिक्शे पर बैठ कर चल दीं। मन मगन था। अब वे कल्पना में डूबी थीं कि शादी में कौन-कौन मिलेगा और क्या-क्या बातें होंगी। बस एक चिन्ता उन्हें रह रह कर सता रही थी कि कहीं घर वालों को यह पता न लग जाए कि वे निमंत्रन-पत्र की जानकारी लेने सुषमा के घर पहुँची थीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 134 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 134 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 134) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 134 ?

☆☆☆☆☆

Sound Sleep

सो जाते हैं फुटपाथ पर

एक अखबार बिछकर…

क्या देखा है कभी किसी मजदूर

को नींद की गोली खाते…!

☆ ☆

They fall asleep by spreading

a newspaper on the pavement,

Have you ever seen any labourer

taking any pills to sleep…?

☆☆☆☆☆

Murderous Shores

ताउम्र सीखते रहे हम

लहरों से लड़ने का हुनर,

पर हमे कहाँ पता था कि

किनारे भी कातिल निकलेंगे…!

☆ ☆

All our life we kept learning the

skills of fighting the waves,

But never knew that the shores

Would also be the assassin…!

☆☆☆☆☆

New Wounds ☆

काफी दिनों से कोई

नया जख्म नहीं मिला…

अरे, जरा पता तो करो

सारे “अपने” हैं कहाँ?

☆ ☆

No new wounds have been

caused for a long time…

Try finding out, where have

all the “own” people gone?

☆☆☆☆☆

☆ Strange Anguish 

चाँद आज भी शबाब पर है

चाँदनी भी ग़ज़ब की है

लेकिन आज भी बिन तेरे

दिल में कसक अजब सी है…!

☆ ☆ 

Even the moon is in its full bloom

Even moonlight is also awesome,

But even today there’s a strange

anguish in my heart without you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares