हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #186 ☆ मौन : सबसे कारग़र दवा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : सबसे कारग़र दवा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 186 ☆

☆ मौन : सबसे कारग़र दवा 

‘चुप थे तो चल रही थी ज़िंदगी लाजवाब/ ख़ामोशियाँ बोलने लगीं तो मच गया बवाल’– यह है आज के जीवन का कटु यथार्थ। मौन सबसे बड़ी संजीवनी है, सौग़ात है। इसमें नव-निधियां संचित हैं, जिससे मानव को यह संदेश प्राप्त होता है कि उसे तभी बोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से श्रेष्ठ, बेहतर व उत्तम हों। जब तक मानव मौन की स्थिति में रहता है; प्रत्युत्तर नहीं देता; न ही प्रतिक्रिया व्यक्त करता है– किसी प्रकार का भी विवाद नहीं होता। संवाद की स्थिति बनी रहती है और जीवन सामान्य ढंग से ही नहीं, सर्वश्रेष्ठ ढंग से चलता रहता है…जिसका प्रत्यक्ष परिणाम हैं वे परिवार, जहां औरत कठपुतली की भांति आदेशों की अनुपालना करने को विवश होती है। वह ‘जी हां!’ के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कहती। इसके विपरीत जब उसकी चुप्पी अथवा ख़ामोशी टूटती है, तो जीवन में बवाल-सा मच जाता है अर्थात् उथल-पुथल हो जाती है।

आधुनिक युग में नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग है और वह अपनी आधी ज़मीन वापिस लेना चाहती है, जिस पर पुरुष-वर्ग वर्षों से काबिज़ था। सो! संघर्ष होना स्वाभाविक है। वह उसे अपनी धरोहर समझता था, जिसे लौटाने में उसे बहुत तकलीफ हो रही है। दूसरे शब्दों में वह उसे अपने अधिकारों का हनन समझता है। परंतु अब वह बौखला गया है, जिसका प्रमाण बढ़ती तलाक़ व दुष्कर्म व हत्याओं के रूप में देखने को मिलता है। आजकल पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक नहीं होते; प्रतिद्वंदी के रूप में व्यवहार करते भासते हैं और एक छत के नीचे रहते हुए अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। उनके मध्य व्याप्त रहता है–अजनबीपन का एहसास, जिसका खामियाज़ा बच्चों को ही नहीं; पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है। सभी एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। एकल परिवार की संख्या में इज़ाफा हो रहा है और बुज़ुर्ग वृद्धाश्रमों की ओर रुख करने को विवश हैं। यह है मौन को त्यागने का प्रतिफलन।

‘एक चुप, सौ सुख’ यह है जीवन का सार। यदि आप मौन रहते हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, तो समस्त वातावरण शांत रहता है और सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाता है। सो! आप घर-परिवार को बचा सकते हैं। इसलिए लड़कियों को जन्म से यह शिक्षा दी जाती है कि उन्हें हर स्थिति में चुप रहना है। कहना नहीं, सहना है। उनके लिए श्रेयस्कर है चुप रहना–इस घर में भी और ससुराल में भी, क्योंकि पुरुष वर्ग को न सुनने की आदत कदापि नहीं होती। उनके अहम् पर प्रहार होता है और वे बौखला उठते हैं, जिसका परिणाम भयंकर होता है। तीन तलाक़ इसी का विकृत रूप है, जिसे अब ग़ैर-कानूनी घोषित किया गया है। ग़लत लोगों से विवाद करने से बेहतर है, अच्छे लोगों से समझौता करना, क्योंकि अर्थहीन शब्द बोलने से मौन रहना बेहतर होता है। मानव को ग़लत लोगों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे मानसिक प्रदूषण बढ़ता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी बेहतर है। वैसे भी सार्थक व कम शब्दों में बात करना व उत्तर देना व्यवहार-कुशलता का प्रमाण होता है, अन्यथा दो क़रीबी दोस्त भी एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते।

‘एक्शनस स्पीक लॉउडर दैन वर्ड्स’ अर्थात् मानव के कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में बोलते हैं। इसलिए अपनी शेखी बखान करने से अच्छा है, शुभ कर्म करना, क्योंकि उनका महत्व होता है और वे बोलते हैं। सो! मानव के लिए जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाना अत्यंत कारग़र है और मौन रहना सर्वश्रेष्ठ। मानव को यथासमय व  अवसरानुकूल सार्थक ध्वनि  व उचित अंदाज़ में ही बात करनी चाहिए, ताकि जीवन व घर- परिवार में समन्वय व सामंजस्यता की स्थिति बनी रहे। मौन वह संजीवनी है, जिससे सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है और जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ लिखी कागद कारे किए… ☆ श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड ☆

श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’

? व्यंग्य – लिखी कागद कारे किए… ? श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’ ? 

वो बहुत बड़े कवि थे, उनका क़द 6 फुट 3 इंच था। उनका क़द देखकर ही किसी ने सलाह दी थी कि गुरु तुम कविता लिखो एक दिन बड़े कवि हो जाओगे। यहाँ सलाह देने वाले की मंशा पर शक़ करना व्यर्थ है, क्योंकि गलती उसकी भी नहीं थी। दरअसल उसने डॉ. हरभजन लाल ‘अच्छन’ की प्रसिद्ध रचना ‘मृगछाला’ पढ़ रखी थी और समझता था कि ऊँचा क़द ही प्रसिद्धि का एक मात्र मानक है। और रहा सवाल सलाह का…तो सलाह का तो ऐसा है कि भारत में किसी को भी, कितनी ही मात्रा में दी जा सकती है। भारत में सलाह देना, सांस लेने जैसा सामान्य है, क्योंकि हम मानते हैं कि सांस ना लेने से भारतीय व्यक्ति की, और सलाह ना देने से भारतीय समाज की मृत्यु निश्चित है। इसलिए भारत में ये काम विशेष प्रायोरिटी पर व्यापक रूप से किया जाता है। वो तो भला हो भारत सरकार का कि ओजोन लेयर के छेद की तरह बढ़ती व्यापकता के बावजूद, उसने सांस लेने और सलाह देने को GST के दायरे से बाहर रखा है। जबकि IMF ने कहा है कि इस आर्थिक सुधार को किए बिना भारत की अर्थव्यवस्था पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकती। पर चूंकि IMF ने ये बात आदेश के रूप में कही थी, सलाह के रूप में नहीं, इसलिए हमने उसे मानने से इंकार कर दिया। क्योंकि हम सलाह सुनने के आदी हैं, आदेश नहीं…After all we are a strong nation. बहरहाल उन्हें आदेश नहीं, सलाह दी गई थी। और समस्या ये थी कि उन्होंने इस सलाह को गंभीरता से लिया, फलस्वरूप वो बड़े कवि हो गए। इतने बड़े..कि प्रागैतिहासिक काल के कवि सम्मेलनों के अंत में खींचे गए समूह चित्र में, आखिरी पंक्ति में खड़े होने पर भी उनके मुखमंडल का प्रकाश साफ़ देदीप्यमान होता था। समस्या बस एक थी कि कहा जाता है कि कवि के ऊँचे होने पर उसकी कविताएं अक़्सर नीची रह जाती हैं।

इस बात को अगर वैज्ञानिक दृष्टि से समझें, तो विज्ञान कहता है कि अधिक ऊँचाई पर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है, जिससे साँस लेने में परेशानी होती है, और कभी-कभी व्यक्ति मर भी सकता है। कविता के सम्बन्ध में भी विज्ञान का यही सिद्धांत लागू होता है। दरअसल साहित्य जगत में उनका क़द इतना ऊंचा हो गया था कि उनकी रचनाएं कभी उनके क़द की ऊंचाई को प्राप्त ही नहीं कर सकीं। उनकी रचनाएं बहुत प्रयास करने पर भी उनके उदर की ऊंचाई तक आते-आते ही दम तोड़ देती थीं। दिल और दिमाग के साथ उनका कनेक्शन हो ही नहीं पाता था। आख़िर बहुत वर्षों बाद वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब वो अपनी कविताओं की ऊँचाई अपने कमर की ऊँचाई तक ही सीमित रखेंगे। कवि सम्मेलन के आयोजकों ने इस विचार का खुलकर स्वागत किया, उनका कहना था कि एक समय में, एक म्यान में..एक ही तलवार रह सकती है। या तो कवि ऊँचा हो सकता है, या उसकी कविता…दोनों का समान रूप से ऊँचा होना असंभव है।

एक वरिष्ठ कवि आयोजक ने इस बात पर विशेष बल दिया कि कवि के ऊँचा उठने के लिए कविता का नीचा होना ही इस युग की मांग है। ऊँची-ऊँची कविताओं का बोझ उठाए फिरने वाला कवि बौना ही रह जाता है। इसलिए साहित्य हित में हमें ये तय करना ही होगा कि अधिक महत्व किस चीज का है, कविता के ऊँचे होने का, या उसके जीवित रहने का..ऐसी ऊँचाई किस मतलब की जिसके लिए प्राण देने पड़ें। आख़िर गहराई भी कोई चीज है। इसलिए वर्तमान साहित्यकार ऊँचाई से अधिक गहराई को महत्व देते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय में ‘नंगा ही तो आया था, क्या घंटा लेकर जाएगा’ जैसे कालजयी, दार्शनिक गीतों को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस तरह के सरकारी प्रोत्साहन से भारतीय दर्शन और उसकी विराट दार्शनिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। और भारतीय दर्शन कहता है कि उठने की पहली शर्त है कि व्यक्ति के पास सामान कम से कम वज़न का हो। कवि के ऊँचा उठने के लिए उसकी रचनाओं का वज़न घटना अनिवार्य है। उन्होंने इस सुझाव का शब्दश: पालन किया और वे दिन-दूने और रात चौगुने ऊँचे उठते गए और उनकी रचनाएं वज़न घटते-घटते कुपोषण की हद तक पहुंच गईं। एक दिन वो अपनी ऐसी ही एक कुपोषित रचना को पढ़ रहे थे कि उन्हें इल्हाम हुआ कि उनकी रचना का वज़न इतना घट चुका है कि अब वो कुछ कह पाने में भी असमर्थ हो चुकी है। एक अनावश्यक चिंता ने उन्हें घेर लिया, और इसी चिंता के साथ वो अपने शहर के एक वरिष्ठ कवि से मिलने पहुँचे जिनका क़द उनसे भी ऊंचा था। उन्होंने अपनी रचनाओं के घटते वज़न की चिंता से वरिष्ठ कवि को अवगत कराया। सुनकर वो मुस्काए और एक बार को यूँ लगा कि लियोनार्दो-द-विंची ने मोनालिसा की वो रहस्यमय मुस्कान इन्हीं से प्रेरित होकर बनाई होगी। मुस्कान के लुप्त हो जाने पर वरिष्ठ कवि बोले, हर ऊँचे कवि के जीवन में एक दिन ऐसा आता ही है जब उसे ये चिंता आ घेरती है। मैं भी इस सबसे गुज़र चुका हूँ….’तुम भी गुज़र जाओगे’…तब ऊँचे कवि ने बहुत ऊँचे कवि से कहा आदरणीय ! मैं एक विकट समस्या से घिर गया हूँ। पहले तो मैं अपनी लिखी रचनाओं को थोड़ा-बहुत समझ भी लिया करता था, पर आज पहली बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी ही रचना को नहीं समझ सका। वो पुनः मुस्काए और बोले, ऊँचे कवि से बहुत ऊँचे कवि बनने की दिशा में ये तुम्हारा पहला कदम है। यूँही आगे बढ़ते रहो, एक दिन बहुत ऊँचे कवि बनोगे। ये जान लो कि कविता का समझ आ जाना ही उसके मामूली होने की पहली निशानी है। यदि तुम्हारी रचना को सुनकर नीचे बैठे श्रोता को ये लगने लगे कि ये तो मैं भी लिख सकता था तो तुम्हारा कवि होना बेकार है। कविता को अबूझ होना चाहिए। सहज और समझ आ जानी वाली कविता और प्रसाद में बँटने वाली पंजीरी में कोई फ़र्क नहीं होता.. बिना खाए भी उसका स्वाद बताया जा सकता है। कवि को सिर्फ़ कविता लिखने तक ही सीमित रहना चाहिए…उसे समझाने का काम हमारा नहीं है। जिसकी अटकी हो वो ख़ुद ये काम कर सकता है। तुम व्यस्त कवि हो तुम्हारे पास समय ही कहाँ है इन सब चिकल्सों में पड़ने का और फिर ये कहाँ लिखा है हर लिखी गई चीज़ का कोई मतलब भी होना चाहिए। इस आत्मज्ञान को पाकर वे धन्य हुए और उन्होंने बहुत ऊँचे कवि की चरण रज माथे से लगाई और घर लौट आए ।

आज वो स्वयं को अर्जुन की भांति समझ रहे थे, जिसे बीच युद्ध में गीता का ज्ञान मिला हो। आँखें मूंदकर उन्होंने बी.आर. चोपड़ा की महाभारत का दृश्य याद किया। कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धँसा है और वो अपना धनुष भूमि पर रखकर अपने रथ का पहिया निकाल रहा है। अर्जुन के लिए ये समय टी-ब्रेक का था पर अचानक कृष्ण बोल उठे..देख क्या रहे हो तीर चलाओ…पर वो तो निहत्था है, अर्जुन बोला। कृष्ण एक रहपटा खींच कर बोले ज़्यादा लंठई ना पेलो, जो कह रहे हैं सो करो..युद्ध में लॉजिक नहीं देखा जाता। दृश्य को याद करके वो अरुण गोविल जी की तरह मंद-मंद मुस्काए और उन्होंने अपने मन के ब्लैक बोर्ड पर डस्टर से ‘युद्ध’ को मिटा कर उसकी जगह ‘कविता’ लिख दिया।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’

shirishgontiya.blogspot.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अमूल्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अमूल्य ??

भूमंडल की

सारी संपदा हाँफने लगी,

भूतल की

हर सत्ता का दम निकला,

जिसे सबने था

बहुमूल्य समझा,

मेरा वह स्वाभिमान

अमूल्य निकला..!

© संजय भारद्वाज 

4:31 दोपहर, 2 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 65 ⇒ धुन और ध्यान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धुन और ध्यान।)  

? अभी अभी # 65 ⇒ धुन और ध्यान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो अपनी धुन में रहते हैं, उन्हें किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहता ! तो क्या धुन में रहना ध्यान नहीं ? जब किसी फिल्मी गीत की धुन तो ज़ेहन में आ जाती है, लेकिन अगर शब्द याद नहीं आते, तो बड़ी बैचेनी होने लगती है ! सीधा आसमान से संपर्क साधा जाता है, ऐसा लगता है, शब्द उतरे, अभी उतरे। कभी कभी तो शब्द आसपास मंडरा कर वापस चले जाते हैं। याददाश्त पर ज़बरदस्त ज़ोर दिया जाता है और गाने के बोल याद आ जाने पर ही राहत महसूस होती है। इस अवस्था को आप ध्यान की अवस्था भी कह सकते हैं, क्योंकि उस वक्त आपका ध्यान और कहीं नहीं रहता।

धुन और ध्यान की इसी अवस्था में ही कविता रची जाती है, ग़ज़ल तैयार होती है। संगीत की धुन कंपोज की जाती है। सारे आविष्कार और डिस्कवरी धुन और ध्यान का ही परिणाम है। जिन्हें काम प्यारा होता है, वे भी धुन के पक्के होते हैं। जब तक हाथ में लिया काम समाप्त नहीं हो जाता, मन को राहत नहीं मिलती।।

ध्यान साधना का भी अंग है।

किसी प्यारे से भजन की धुन, बांसुरी अथवा अन्य वाद्य संगीत की धुन, मन को एकाग्र करती है और ध्यान के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है। आजकल आधुनिक दफ्तर हो, या सार्वजनिक स्थल, होटल हो या रेस्त्रां, और तो और अस्पतालों में भी वातावरण में धीमी आवाज़ में संगीत बजता रहता है। मद्धम संगीत वातावरण को शांत और सौम्य बनाता है।

धुन बनती नहीं, आसमान से उतरती है ! आपने फिल्म नागिन की वह प्रसिद्ध धुन तो सुनी ही होगी ;

मन डोले , मेरा तन डोले

मेरे दिल का गया करार

रे, ये कौन बजाए बांसुरिया।

गीत के शब्द देखिए, और धुन देखिए। आप जब यह गीत सुनते हैं, तो आपका मन डोलने लगता है। लगता है, बीन की धुन सुन, अभी कोई नागिन अपने तन की सुध बुध खो बैठेगी। कैसे कैसे राग थे, जिनसे दीपक जल जाते थे, मेघ वर्षा कर देते थे।

संगीत की धुन में मन जब मगन होता है, तो गा उठता है ;

नाचे मन मोरा

मगन तिथ धा धी गी धी गी

बदरा घिर आए

रुत है भीगी भीगी

ऐसी प्यारी धुन हो, तो ध्यान तो क्या समाधि की अवस्था का अनुभव हो जाए, क्योंकि यह संगीत सीधा ऊपर से श्रोता के मन में उतरता है।

रवीन्द्र जैन धुन के पक्के थे।

वे जन्मांध थे, लेकिन प्रज्ञा चक्षु थे।

घुंघरू की तरह, बजता ही रहा हूं मैं। कभी इस पग में, कभी उस पग में, सजता ही रहा हूं मैं।।

इतना आसान नहीं होता, प्यार की धुन निकालना ! देखिए ;

सून साईबा सुन

प्यार की धुन !

मैंने तुझे चुन लिया

तू भी मुझे चुन।।

हम भी जीवन में अगर एक बार प्यार की धुन सुन लेंगे, हमारा ध्यान और कहीं नहीं भटकेगा। वही राम धुन है, वही कृष्ण धुन है। धुन से ही ध्यान है, धुन से ही समाधि है। कबीर भी कह गए हैं, कुछ लेना न देना, मगन रहना।

नारद भक्ति सूत्र में कीर्तन का महत्व बतलाया गया है। कुछ बोलों को धुन में संजोया जाता है और प्रभु की आराधना में गाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु हों या एस्कॉन के स्वामी प्रभुपाद।

नृत्य और कीर्तन ही इस युग का हरे रामा, हरे कृष्णा है। जगजीत सिंह की धुन सुनिए, मस्त हो जाइए ;

हरे रामा, हरे रामा

रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा, हरे कृष्णा

कृष्णा कृष्णा हरे हरे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #185 ☆ अपनी यही कहानी… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण कविता  अपनी यही कहानी।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 185 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – अपनी यही कहानी… ☆

तेरी मैं दिवानी

अपनी यही कहानी।

 

मिला तेरा प्यार

बीती है जवानी

 

साथ तेरा प्यारा

प्यारी है निशानी

 

जिंदगी सही है

जीवन है रवानी

 

बातें तेरी मीठी

सबको है सुनानी

 

कहते सबको सुनते

अपनी ही कहानी

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #171 ☆ “एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 171 ☆

 ☆ “एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया☆ श्री संतोष नेमा ☆

भैया सोच समझ  खें  बोलो

तुरत न मन की  बातें खोलो

बड़ो  कठिन है  जो समईया

तन्नक  मिसरी  मुंह में  घोलो

सबकी  करो   खूब  चिन्हारी

अपनों  खों  कबहुँ  ने  तोलो

जो  हांकत   थे   ढींगे   भारी

वो भी  भीतर  निकरो  पोलो

अबे   बखत  है   जागो  भैया

नाहिन  लुटिया   खुदै  डुबोलो

पीर    पराई   देख   पिघलियो

औरन  के  भी  दुख  में  रो लो

समझ सको ने  बहरूपियों खों

संतोष    है     बहुतई     भोलो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “संत कबीर पर दोहे…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

“संत कबीर पर दोहे…☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

सद्गुरु प्रखर कबीर थे, दे जग को आलोक।

परे किया अज्ञान का, फैला था जो शोक।।

ऊँचनीच के भेद को, किया सभी से दूर।

हे!कबीर गुरुदेव तुम, बने जगत के नूर।।

ढोंग और पाखंड पर, करके सतत प्रहार।

सामाजिक समरूपता, का फैलाया सार।।

हे!कबीर तुम युगपुरुष, सारे जग की शान।

मानवता का कर सृजन, किया सतत उत्थान।।

झूठ, कपट को मारकर, हरण किया अविवेक।

ढाई आखर से किए, मानव सारे नेक।।

सबके हित की बात कर, दिखलाई नव राह।

वैसा हो संसार यह, जस कबीर की चाह।।

कालजयी थे युगपुरुष,  समकालिक आवेश।

थे कबीर आवेग इक, किया नवल यह देश।।

संत खरे थे, गुरु प्रवर, कबिरा बहुत महान।

युगों-युगों तक सूर्य हे ! , पाओगे तुम मान।।

जैसे संत कबीर थे, दिखा न अब तक और ।

उनकी बातें चेतना, नव सुधार का दौर।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नाते… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

नाते…  ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

नाते सुरेख होते तोडून काय केले ?

संसार वेगळाले थाटून काय केले ?

 

धरल्या चुकून वाटा गेला निघून कोठे

उपरी घरे कुणाची जोडून काय केले?

 

आता गटातटाना आलाय ऊत भारी

वेशीत लक्तराना  टांगून काय केले?

 

नुसतेच बंड झाले झाला विकास नाही

जाती निहाय किल्ले बांधून काय केले ?

 

सत्तांध लालसांचे थैमान खूप झाले

बागी बनवून तुम्ही भांडून काय केले ?

 

जनता पिचून गेली जगणे महाग झाले

गावास शांत साध्या जाळून काय केले ?

 

बदनाम कोण होते कळले कुठे कुणाला

संकेत चौकशीचे पाळून काय केले ?

 

उरला कुठे जिव्हाळा माया मरून गेली

जनतेस सौख द्याया शोधून  काय केले ?

 

नीती कुठे पळाली संस्कार व्यर्थ झाले

असली परंपरांना तोडून काय केले?

 

बदलून वेशभूषा गुपचूप भेटताना

भेटून एकमेका झाकून काय केले?

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #178 ☆ वटपौर्णिमेचा सण… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 178 – विजय साहित्य ?

☆ वटपौर्णिमेचा सण… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

वटपौर्णिमेचा सण

दृढ करतो विश्वास

सहजीवनात दोघे

एक सूत्र ,एक ध्यास. . . . . ! १

 

वटवृक्षाच्या पारंब्या

संसाराची वंशवेल.

वटपौर्णिमेचा सण

सुखी संसाराचा मेळ.. . . . ! २

 

पौर्णिमेला चंद्रकांती

पूर्ण होई विकसित

वटपौर्णिमेचा सण

होई कांता प्रफुल्लित. . . . ! ३

 

कांत आणि कांता यांचे

नाते नाही लवचिक

वटपौर्णिमेचा सण

एक धागा प्रासंगिक. . . . ! ४

 

भावजीवनाचे नाते

वटवृक्षाचा रे घेर

वटपौर्णिमेचा सण

घाली अंतराला फेर. . . . . ! ५

 

सालंकृत होऊनीया

वटवृक्ष पूजा करू

सणवार परंपरा

मतीतार्थ ध्यानी धरू…..! ६

 

पती आहे प्राणनाथ

यम आहे प्राणहारी

वटपौर्णिमेचा सण

सौभाग्याची आहे वारी. . . . ! ७

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पर्यावरण दिनाच्या निमित्ताने… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

☆ पर्यावरण दिनाच्या निमित्ताने… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

गेल्या काही वर्षात पाच जून हा दिवस पर्यावरण दिन म्हणून शाळा शाळातून साजरा केला जातो. माझा नातू लहान असताना पर्यावरण दिनाच्या दिवशी त्याच्याबरोबर मी शाळेत गेले होते. तेव्हा तेथील वातावरण पाहून मी थक्क झाले! शाळेत प्रवेश करताक्षणी सगळीकडे हिरवाई दिसत होती. हरीत रंगाने विविध प्रकारच्या कलाकृती केलेल्या होत्या.भिंतीवर निसर्ग चित्रे लावलेली होती. मुलांना आधीच सूचना देऊन कुंड्यांमध्ये काही बिया पेरायला सांगितल्या होत्या .कोणी मोहरी,मेथी,हळीव अशा लवकर येणाऱ्या रोपांच्या बिया रूजवल्या होत्या.त्यांची छोटी छोटी रोपे उगवून आली होती.आणि प्रत्येकाला त्या सृजनाचे रूप इतके कौतुकाचे होते की मुले त्या छोट्या कुंड्या मिरवत शाळेत आली होती! वर्गा वर्गातून त्या छोट्या कुंड्या, वनस्पतींची माहिती देणारे बोर्ड तसेच पर्यावरणाचे महत्त्व दाखवणारे प्रसंग आणि ते सांगणारे छोटे विद्यार्थी असे उत्साहाने भरलेले वातावरण होते! त्या वातावरणाने मला भारावून टाकले! लहानपणापासूनच ही जागृती मुलांमध्ये निर्माण झाली तर ही वसुंधरा पुन्हा जोमाने सजेल आणि निसर्गाची वाटचाल चांगली होत राहील, असा विश्वास पर्यावरण दिनाच्या दिवशी माझ्या मनात निर्माण झाला.

घरी येताना मन सहज विचार करू लागले की पन्नास एक वर्षाखाली असा हा पर्यावरण दिन आपण करत होतो का? नाही, तेव्हा ती गरज जाणवली नाही. मनात एक कल्पना आली की, परमेश्वराने पृथ्वीला मायेने एक पांघरूण घातले आहे. त्या उबदार पांघरूणात ही सजीव सृष्टी जगत आहे. पण अलीकडे या पांघरूणाला न जुमानता मनुष्य प्राणी आपली मनमानी करीत आहे, त्यामुळे एकंदरच सजीव सृष्टीचा तोल बिघडू लागला आहे. काही सुजाण लोकांना याची जाणीव झाली आणि साधारणपणे 1973 सालापासून जागतिक पातळीवर पर्यावरणाचे महत्त्व लोकांना पटवून देण्यासाठी अमेरिकेत “पर्यावरण दिन” साजरा होऊ लागला!

पर्यावरण म्हणजे काय? ही  सजीव सृष्टी टवटवीत ठेवण्यासाठी असलेली सभोवतांची हवा, पाणी, माती आणि जमीन या सर्वांचे संतुलन ! ते जर चांगले असेल तर आपले अस्तित्व चांगले रहाणार !

आपल्याला ज्ञात असलेला मानवी जीवनाचा इतिहास अभ्यासताना असे लक्षात येते की, आदिमानवापासून ते आत्तापर्यंतच्या मानवी इतिहासात खूप बदल हळूहळू होत गेलेले आहेत. गुहेत राहणारा मानव निसर्गाशी आणि इतर प्राण्यांची जुळवून राहत होता. माणसाला मेंदू दिला असल्याने त्याने आपली प्रगती केली आणि त्यामुळे आजचा आधुनिक माणूस आपण निसर्गावर मात केली आहे असे समजतो. पूर्वी यंत्र नव्हती तेव्हा प्रत्येक काम हाताने करणे, वाहने नव्हती तेव्हा प्रवास चालत किंवा प्राण्यांच्या मदतीने करणे, गुहेमध्ये किंवा साध्या आडोश्याला घर समजून रहाणे, अन्नासाठी कंदमुळे, तृणधान्ये, फळे यांचा उपयोग करणे हे सर्व माणूस करत असे.अन्न,वस्त्र, निवारा या प्राथमिक गरजा भागल्या की बास!. पण आज या सर्व गोष्टी बदलल्या आहेत. त्यामुळे नकळत पर्यावरणावर आपण हल्ला केला आहे !

हवेचा विचार केला तर प्रदूषण ही समस्या आपणच निर्माण केली. विविध प्रकारचे कारखाने वाढले. पेट्रोल, डिझेल यासारख्या पदार्थांच्या वापर वहानात होत असल्याने हवा प्रदूषित झाली. रस्त्यांसाठी, घरांसाठी झाडे तोडणे यामुळे हवेतील गारवा कमी झाला. एकंदरच वातावरणातील उष्णता वाढू लागली. सावली देणारी, मुळाशी पाणी धरून ठेवणारी वड, पिंपळासारखी मोठी झाडे  तोडून टाकली. डोंगर उघडे बोडके दिसू लागले. या सर्वाचा परिणाम म्हणजे पर्यावरणाचा समतोल बिघडला. वेळच्यावेळी पाऊस पडेना. त्याचा परिणाम इतर सर्व ऋतूंवर आपोआपच होऊ लागला. पाणी पुरत नाही म्हणून नद्यांचे पाणी आडवणे, धरणे बांधणे यामुळे नैसर्गिक रित्या असलेले पाण्याचे स्त्रोत जमिनीखाली विस्कळीत होऊ लागले. हवा, पाणी, पाऊस, जमीन या सर्वांचा नैसर्गिक असलेला परिणाम जाऊन प्रत्येक गोष्ट अनियमितपणे वागू लागली !

माणसाला याची जाणीव लवकर होत नव्हती. घरात गारवा नाही, एसी लावा.. नळाला पाणी नाही, विकत घ्या ! चांगली हवा मिळत नसेल तर ऑक्सिजन विकत घ्या ! माणसाचा स्वार्थी स्वभाव त्याच्याच नाशाला हळूहळू कारणीभूत होऊ लागला. जगभर होणारा प्लास्टिकचा वापर जसजसा वाढू लागला तस तसे हे लक्षात आले की प्लॅस्टिक हे पर्यावरणासाठी मोठा अडथळा आहे. प्लास्टिक कुजत नाही. त्यातील घटकांचे विघटन होत नाही. प्लास्टिक मुळे नाले ,ओढे यांतून नद्यांकडे वाहत जाणाऱ्या पाण्याबरोबर प्लास्टिक ही पुढे समुद्राला जाऊन मिळते. दररोज कित्येक टन प्लास्टिक समुद्रामध्ये वाहत जाते, साठत जाते. या सर्वाचा परिणाम नकळत पर्यावरणावर होत असतो. त्यामुळे प्लास्टिकचा वापर कमी केला पाहिजे. गेल्या काही वर्षात प्लास्टिक वापरावर थोड्या प्रमाणात बंदी आली आहे, त्यामुळे नकळतच प्लास्टिकचा वापर थोडा कमी केला जात आहे.

५ जून १९७३ रोजी अमेरिकेत “पर्यावरण दिन” प्रथम साजरा केला गेला आणि आता जगभर हा दिवस पर्यावरण दिन म्हणून साजरा होतो. पर्यावरण दिनाच्या निमित्ताने माणसाचे लक्ष निसर्गाकडे वेधले जाते. जर प्रदूषण वाढत राहिले तर नकळत आपणच आपला नाश करून घेऊ याची जाणीव थोड्याफार प्रमाणात होत आहे.या दिवशी एक तरी रोप लावावे, एक तरी झाड वाढवावे आणि पर्यावरण चांगले ठेवायला मदत करावी एवढा जरी संकल्प आपण केला तर खऱ्या अर्थाने या वसुधेची आपण काळजी करतो हे दिसून येईल  !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

पुणे

मो. 8087974168 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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