श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’

? व्यंग्य – लिखी कागद कारे किए… ? श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’ ? 

वो बहुत बड़े कवि थे, उनका क़द 6 फुट 3 इंच था। उनका क़द देखकर ही किसी ने सलाह दी थी कि गुरु तुम कविता लिखो एक दिन बड़े कवि हो जाओगे। यहाँ सलाह देने वाले की मंशा पर शक़ करना व्यर्थ है, क्योंकि गलती उसकी भी नहीं थी। दरअसल उसने डॉ. हरभजन लाल ‘अच्छन’ की प्रसिद्ध रचना ‘मृगछाला’ पढ़ रखी थी और समझता था कि ऊँचा क़द ही प्रसिद्धि का एक मात्र मानक है। और रहा सवाल सलाह का…तो सलाह का तो ऐसा है कि भारत में किसी को भी, कितनी ही मात्रा में दी जा सकती है। भारत में सलाह देना, सांस लेने जैसा सामान्य है, क्योंकि हम मानते हैं कि सांस ना लेने से भारतीय व्यक्ति की, और सलाह ना देने से भारतीय समाज की मृत्यु निश्चित है। इसलिए भारत में ये काम विशेष प्रायोरिटी पर व्यापक रूप से किया जाता है। वो तो भला हो भारत सरकार का कि ओजोन लेयर के छेद की तरह बढ़ती व्यापकता के बावजूद, उसने सांस लेने और सलाह देने को GST के दायरे से बाहर रखा है। जबकि IMF ने कहा है कि इस आर्थिक सुधार को किए बिना भारत की अर्थव्यवस्था पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकती। पर चूंकि IMF ने ये बात आदेश के रूप में कही थी, सलाह के रूप में नहीं, इसलिए हमने उसे मानने से इंकार कर दिया। क्योंकि हम सलाह सुनने के आदी हैं, आदेश नहीं…After all we are a strong nation. बहरहाल उन्हें आदेश नहीं, सलाह दी गई थी। और समस्या ये थी कि उन्होंने इस सलाह को गंभीरता से लिया, फलस्वरूप वो बड़े कवि हो गए। इतने बड़े..कि प्रागैतिहासिक काल के कवि सम्मेलनों के अंत में खींचे गए समूह चित्र में, आखिरी पंक्ति में खड़े होने पर भी उनके मुखमंडल का प्रकाश साफ़ देदीप्यमान होता था। समस्या बस एक थी कि कहा जाता है कि कवि के ऊँचे होने पर उसकी कविताएं अक़्सर नीची रह जाती हैं।

इस बात को अगर वैज्ञानिक दृष्टि से समझें, तो विज्ञान कहता है कि अधिक ऊँचाई पर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है, जिससे साँस लेने में परेशानी होती है, और कभी-कभी व्यक्ति मर भी सकता है। कविता के सम्बन्ध में भी विज्ञान का यही सिद्धांत लागू होता है। दरअसल साहित्य जगत में उनका क़द इतना ऊंचा हो गया था कि उनकी रचनाएं कभी उनके क़द की ऊंचाई को प्राप्त ही नहीं कर सकीं। उनकी रचनाएं बहुत प्रयास करने पर भी उनके उदर की ऊंचाई तक आते-आते ही दम तोड़ देती थीं। दिल और दिमाग के साथ उनका कनेक्शन हो ही नहीं पाता था। आख़िर बहुत वर्षों बाद वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब वो अपनी कविताओं की ऊँचाई अपने कमर की ऊँचाई तक ही सीमित रखेंगे। कवि सम्मेलन के आयोजकों ने इस विचार का खुलकर स्वागत किया, उनका कहना था कि एक समय में, एक म्यान में..एक ही तलवार रह सकती है। या तो कवि ऊँचा हो सकता है, या उसकी कविता…दोनों का समान रूप से ऊँचा होना असंभव है।

एक वरिष्ठ कवि आयोजक ने इस बात पर विशेष बल दिया कि कवि के ऊँचा उठने के लिए कविता का नीचा होना ही इस युग की मांग है। ऊँची-ऊँची कविताओं का बोझ उठाए फिरने वाला कवि बौना ही रह जाता है। इसलिए साहित्य हित में हमें ये तय करना ही होगा कि अधिक महत्व किस चीज का है, कविता के ऊँचे होने का, या उसके जीवित रहने का..ऐसी ऊँचाई किस मतलब की जिसके लिए प्राण देने पड़ें। आख़िर गहराई भी कोई चीज है। इसलिए वर्तमान साहित्यकार ऊँचाई से अधिक गहराई को महत्व देते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय में ‘नंगा ही तो आया था, क्या घंटा लेकर जाएगा’ जैसे कालजयी, दार्शनिक गीतों को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस तरह के सरकारी प्रोत्साहन से भारतीय दर्शन और उसकी विराट दार्शनिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। और भारतीय दर्शन कहता है कि उठने की पहली शर्त है कि व्यक्ति के पास सामान कम से कम वज़न का हो। कवि के ऊँचा उठने के लिए उसकी रचनाओं का वज़न घटना अनिवार्य है। उन्होंने इस सुझाव का शब्दश: पालन किया और वे दिन-दूने और रात चौगुने ऊँचे उठते गए और उनकी रचनाएं वज़न घटते-घटते कुपोषण की हद तक पहुंच गईं। एक दिन वो अपनी ऐसी ही एक कुपोषित रचना को पढ़ रहे थे कि उन्हें इल्हाम हुआ कि उनकी रचना का वज़न इतना घट चुका है कि अब वो कुछ कह पाने में भी असमर्थ हो चुकी है। एक अनावश्यक चिंता ने उन्हें घेर लिया, और इसी चिंता के साथ वो अपने शहर के एक वरिष्ठ कवि से मिलने पहुँचे जिनका क़द उनसे भी ऊंचा था। उन्होंने अपनी रचनाओं के घटते वज़न की चिंता से वरिष्ठ कवि को अवगत कराया। सुनकर वो मुस्काए और एक बार को यूँ लगा कि लियोनार्दो-द-विंची ने मोनालिसा की वो रहस्यमय मुस्कान इन्हीं से प्रेरित होकर बनाई होगी। मुस्कान के लुप्त हो जाने पर वरिष्ठ कवि बोले, हर ऊँचे कवि के जीवन में एक दिन ऐसा आता ही है जब उसे ये चिंता आ घेरती है। मैं भी इस सबसे गुज़र चुका हूँ….’तुम भी गुज़र जाओगे’…तब ऊँचे कवि ने बहुत ऊँचे कवि से कहा आदरणीय ! मैं एक विकट समस्या से घिर गया हूँ। पहले तो मैं अपनी लिखी रचनाओं को थोड़ा-बहुत समझ भी लिया करता था, पर आज पहली बार ऐसा हुआ कि मैं अपनी ही रचना को नहीं समझ सका। वो पुनः मुस्काए और बोले, ऊँचे कवि से बहुत ऊँचे कवि बनने की दिशा में ये तुम्हारा पहला कदम है। यूँही आगे बढ़ते रहो, एक दिन बहुत ऊँचे कवि बनोगे। ये जान लो कि कविता का समझ आ जाना ही उसके मामूली होने की पहली निशानी है। यदि तुम्हारी रचना को सुनकर नीचे बैठे श्रोता को ये लगने लगे कि ये तो मैं भी लिख सकता था तो तुम्हारा कवि होना बेकार है। कविता को अबूझ होना चाहिए। सहज और समझ आ जानी वाली कविता और प्रसाद में बँटने वाली पंजीरी में कोई फ़र्क नहीं होता.. बिना खाए भी उसका स्वाद बताया जा सकता है। कवि को सिर्फ़ कविता लिखने तक ही सीमित रहना चाहिए…उसे समझाने का काम हमारा नहीं है। जिसकी अटकी हो वो ख़ुद ये काम कर सकता है। तुम व्यस्त कवि हो तुम्हारे पास समय ही कहाँ है इन सब चिकल्सों में पड़ने का और फिर ये कहाँ लिखा है हर लिखी गई चीज़ का कोई मतलब भी होना चाहिए। इस आत्मज्ञान को पाकर वे धन्य हुए और उन्होंने बहुत ऊँचे कवि की चरण रज माथे से लगाई और घर लौट आए ।

आज वो स्वयं को अर्जुन की भांति समझ रहे थे, जिसे बीच युद्ध में गीता का ज्ञान मिला हो। आँखें मूंदकर उन्होंने बी.आर. चोपड़ा की महाभारत का दृश्य याद किया। कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धँसा है और वो अपना धनुष भूमि पर रखकर अपने रथ का पहिया निकाल रहा है। अर्जुन के लिए ये समय टी-ब्रेक का था पर अचानक कृष्ण बोल उठे..देख क्या रहे हो तीर चलाओ…पर वो तो निहत्था है, अर्जुन बोला। कृष्ण एक रहपटा खींच कर बोले ज़्यादा लंठई ना पेलो, जो कह रहे हैं सो करो..युद्ध में लॉजिक नहीं देखा जाता। दृश्य को याद करके वो अरुण गोविल जी की तरह मंद-मंद मुस्काए और उन्होंने अपने मन के ब्लैक बोर्ड पर डस्टर से ‘युद्ध’ को मिटा कर उसकी जगह ‘कविता’ लिख दिया।

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© श्री शिरीष गोंटिया ‘उजड्ड’

shirishgontiya.blogspot.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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