English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 143 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 143 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 143) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 143 ?

☆☆☆☆☆

हमने तो शिद्दत से सज़दे

किये थे तेरे दर पे,

क्या  ख़बर  थी कि हर

बुत ख़ुदा नहीं होता…

☆☆ 

I kept worshipping at your

doorstep with great devotion,

Never did I know that

not every idol is the God…

☆☆☆☆☆

कसमों के, वादों के बहुत देख

लिए हमने अय्यारी भरे रंग

है क्या कोई इतना अपना जो

अँधेरों को गले लगा बैठे मेरे संग..!

☆☆☆ 

I’ve seen many a shade and

colours of oath and promise

Is there anyone who could be

embracing me sans disguise..!

☆☆☆☆☆

न जाने किस बात का गुरूर है उस मगरूर को,

हंस कर हर बात मेरी उड़ा देता है वो

बड़ी मशक्कतों से सुलझाते हैं हम खुद को, मगर

रोज़ एक नई मुश्किल में डाल देता है वो…!

☆☆☆ 

Knoweth not what arrogance that egoist has,

He laughs off at my every advice sarcastically

I resolve my problems with great difficulty, but

Every day he puts me in a new a trouble…!

☆☆☆☆☆

टिके हैं यकीन के धागों

पर जो रिश्ते,

भूल कर भी उन्हें कभी

उलझने मत देना…!

☆☆☆ 

Relationship that rests on

the thread of faith and trust

Don’t ever let them get

entangled even by mistake…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 194 – पौधे लगाएँ, पेड़ बचाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 194 ☆ पौधे लगाएँ, पेड़ बचाएँ ?

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! ख़ैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोज़ाना अपने साथियों का कत्लेआम  देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के साथ ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट।

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, जून माह है। पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। काग़ज़ों पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ जैसे ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों  पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पौधे लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 67 ⇒ मोटा अनाज  || MILLETS ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी # 67 ⇒ मोटा अनाज  || MILLETS ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

रोटी से इंसान का पेट भरता है। पेट तो जानवर भी भर लेते हैं, लेकिन इंसान एक समझदार प्राणी है। वह घास फूस नहीं खाता, उसकी अपनी रुचि है, अपनी पसंद है, वह जरूरत और हैसियत के अनुसार अपने भोजन का चुनाव करता है, जिसमें देश, काल, परिस्थिति और पर्यावरण का भी अपना योगदान होता है।

जिस तरह इस सृष्टि में जड़ और चेतन की ही तरह जीव और वनस्पति का भी अस्तित्व है, आहार भी मुख्य रूप से शाकाहार और मांसाहार में वर्गीकृत किया जा सकता है। तीन चरों से मिलकर बना यह चराचर जगत, जलचर, नभचर और थलचर के रूप में विराजमान है। जीव के आहार की परिभाषा कम से कम और स्पष्ट शब्दों में इस तरह की गई है, जीव: जीवस्य भोजनम्।।

पेड़ पौधे, वनस्पति, फल, फूल, अनाज, सभी जीव ही तो हैं, निर्जीव नहीं, यहां तक कि हमारी माता और गऊ माता के दूध में भी एनिमल फैट मौजूद है। फिर भी एक लकीर है, जो शाकाहार और मांसाहार को अलग करती है। यह एक वृहद विषय है जिसका हमारे मोटे अनाज से कहीं दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है।

स्पष्ट शब्दों में कहें जो जैसे गाय भैंस चारा खाती है, हम संसारी जीव मोटा अनाज खाते हैं। भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार कहीं चावल की पैदावार अधिक है तो कहीं अन्य तरह के अनाज की। ।

आहार संवाद का विषय है, विवाद का नहीं ! किसान जो बोएगा, वही तो खाएगा। एक मजदूर को जितनी मजदूरी मिलेगी, उसमें ही तो वह अपना और अपने परिवार का पेट पालेगा। युद्ध जैसी त्रासदी और अकाल, बाढ़ और जलजले जैसी परिस्थिति में भूख महत्वपूर्ण होती है, पौष्टिक भोजन नहीं।

शेर घास नहीं खाता, कोस्टल एरिया में चावल और जल तुरई ही उनका प्रमुख भोजन है। बड़ा सांभर और इडली डोसा खाने वाला एक मद्रासी व्यक्ति कितनी रोटी खाएगा। कभी पंजाबी लस्सी पीजिए, मलाई मार के। ।

हमने एक समय में लाल गेहूं भी खाया है और आज मोटे अनाज पर जगह जगह परिसंवाद हो रहे हैं, जन जागरण का माहौल है। गांव में किसने ज्वार, बाजरा, और मक्के की रोटी नहीं खाई। लेकिन शहर में आकर मालवी, शरबती गेहूं ऐसा मुंह लगा कि घर घर अन्नपूर्णा आटे ने अपनी पहचान बना ली। ।

भोजन में बढ़ती केमिकल फर्टिलाइजर की मात्रा ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया और संतुलित आहार और भोजन की गुणवत्ता पर अधिक जोर दिया जाने लगा। एकाएक भोजन से टाटा का नमक और शकर गायब होने लगी। तेल घी और मिर्च मसालों की तो शामत ही आ गई। मत पूछिए फिर बाजार में चाट पकौड़ी और कचोरी समोसे कौन खाता है।

मोटे तौर पर मोटा अनाज आठ प्रकार का होता है जिसमें ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, चीना, कोदो, कुटकी और कुट्टू का आटा प्रमुख है। हमने तो इनमें से सिर्फ ज्वार बाजरे का नाम ही सुना है। रागी आजकल अधिक प्रचलन में है। कुट्टू का आटा, हमारे लिए फलाहार का विकल्प है। ।

आप जैसे ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होते हैं, सस्ती खाद्य सामग्री आसमान छूने लगती है।

उपेक्षित ज्वार बाजरे की आजकल चांदी है। ब्राउन राइस और ब्राउन राइस अलग भाव खा रहे हैं।

आप अगर ऑर्गेनिक हो सकें तो हो ही जाएं, स्वास्थ्य की कीमत पर, कोई महंगा सौदा नहीं है।

कभी मोटा अनाज गरीबों के नसीब में होता था, आज हम भी नसीब वाले हैं कि इतनी न्यूट्रीशनल वैल्यू वाला मोटा अनाज हमारी पहुंच में है और उधर बेचारा गरीबी रेखा से नीचे वाला आदमी, उसे तो सरकार के मुफ्त राशन से ही अपने पेट की आग बुझानी है। ज्यादा भावुक होने की आवश्यकता नहीं, अपना स्वास्थ्य सुधारें, स्वाद पर नहीं, गुणवत्ता पर जाएं। जान है तो जहान है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ The Grey Lights# 02 – “Behind the Bars…” ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

? The Grey Lights# 02 ?

☆ – “Behind the Bars…” – ☆ Shri Ashish Mulay 

Do not put her behind the bars

for her heart may begin to beat

and when it begins to beat

your beliefs will dance to it

 

behind the bars she may find

find herself stretching beyond bars

and when she finds herself

you will not have place to hide

 

do not set her bar so high

So high that she might touch it

and when she touches it

your soul will feel it

 

who knows when her heart beats

she may create a world

world on that side of bars

only to cage you in your own…

 

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 141 ☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 141 ☆ 

☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

काव्य समीक्षा

शब्द अब नहीं रहे शब्द(काव्य संग्रह)

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

प्रथम संस्करण २०२२

पृष्ठ -१०४

मूल्य २५०/-

आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९

पाथेय प्रकाशन जबलपुर

शब्द अब नहीं रहे शब्द :  अर्थ खो हुए निशब्द – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

*

[, काव्य संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, प्रथम संस्करण २०२२, पृष्ठ १०४, मूल्य २५०/-, आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]

*

 कविता क्या है?

 

कविता है

आत्मानुभूत सत्य की

सौ टंच खरी शब्दाभिव्यक्ति।

 

कविता है

मन-दर्पण में

देश और समाज को 

गत और आगत को

सत और असत को

निरख-परखकर

कवि-दृष्टि से

मूल्यांकित कार

सत-शिव-सुंदर को तलाशना।

 

कविता है

कल और कल के

दो किनारों के बीच

बहते वर्तमान की

सलिल-धार का 

आलोड़न-विलोड़न।

 

कविता है

‘स्व’ में ‘सर्व’ की अनुभूति

‘खंड’ से ‘अखंड’ की प्रतीति

‘क्षर’ से ‘अक्षर’ आराधना

शब्द की शब्द से

निशब्द साधना।

*

कवि है

अपनी रचना सृष्टि का

स्वयंभू परम ब्रह्म

‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’।

 

कवि चाहे तो

जले को जिला दे।

पल भर में  

शुभ को अमृत

अशुभ को गरल पिला दे।

किंतु

बलिहारी इस समय की

अनय को अभय की

लालिमा पर

कालिमा की जय की।

 

कवि की ठिठकी कलम

जानती ही नहीं

मानती भी है कि

‘शब्द अब नहीं रहे शब्द।’

 

शब्द हो गए हैं

सत्ता का अहंकार

पद का प्रतिकार    

अनधिकारी का अधिकार

घृणा और द्वेष का प्रचार

सबल का अनाचार

निर्बल का हाहाकार।

 

समय आ गया है

कवि को देश-समाज-विश्व का

भविष्य उज्जवल गढ़ने के लिए

कहना ही होगा शब्द से 

‘उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत’

उठो, जागो, बोध पाओ और दो

तुम महज शब्द ही नहीं हो

यूं ही ‘शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।’३  

*

‘बचाव कैसे?’४

किसका-किससे?

क्या किसी के पास है

इस कालिया के काटे का मंत्र?

आखिर कब तक चलेगा 

यह ‘अधिनायकवादी प्रजातन्त्र?’१५

‘जहाँ प्रतिष्ठा हो गई है अंडरगारमेंट

किसी के लिए उतरी हुई कमीज।‘१६

‘जिंदगी कतार हो गई’ १७

‘मूर्तियाँ चुप हैं’ १८

लेकिन ‘पूछता है यक्ष’१९ प्रश्न

मौन और भौंचक है

‘खंडित मूर्तियों का देश।’१९

*

हम आदमी नहीं हैं

हम हैं ‘ग्रेनाइट की चट्टानें’२०

‘देखती है संतान

फिर कैसे हो संस्कारवान?’२१

मुझ कवि को

‘अपने बुद्धिजीवी होने पर

घिन आती है।‘२३

‘कैसे हो गए हैं लोग?

बनकर रह गए हैं

अर्थहीन संख्याएँ।२४

*

रिश्ता

मेरा और तुम्हारा

गूंगे के गुड़ की तरह।२६

‘मैं भी सन्ना सकता हूँ पत्थर२८

तुम भी भुना सकते हो अवसर,

लेकिन दोस्त!

कोई उम्मीद मत करो

नाउम्मीद करने-होने के लिए। २९ 

तुमने 

शब्दों को आकार दे दिया  

और मैं

शब्दों को चबाता रहा। ३०

किस्से कहता-

‘मैं भी जमीन तोड़ता हूँ,

मैं कलम चलाता हूँ।३१

*

मैं

शब्दों को नहीं करता व्यर्थ।

उनमें भरता हूँ नित्य नए अर्थ।

मैं कवि हूँ

जानता हूँ

‘जब रेखा खिंचती है३२

देश और दिलों के बीच

कोई नहीं रहता नगीच।

रेखा विस्तार है बिंदु का

रेखा संसार है सिंधु का

बिंदु का स्वामी है कलाकार।‘३३ 

चाहो तो पूछ लो

‘ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार?’

 समयसाक्षी कवि जानता है

‘भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस में

वे खड़े हैं सबसे आगे

जो थामे हैं भ्रष्टाचार की वल्गा।

वे लगा रहे हैं सत्य के पोस्टर

जो झूठ के कर्मकांडी हैं।३६

*

लड़कियाँ चला रही हैं

मोटर, गाड़ी, ट्रक, एंजिन

और हवाई जहाज।

वे कर रही हैं अंतरिक्ष की यात्रा,

चढ़ रही हैं राजनीति की पायदान

कर रही हैं व्यापार-व्यवसाय

और पुरुष?

आश्वस्त हैं अपने उदारवाद पर।३७

क्या उन्हें मालूम है कि

वे बनते जा रहे हैं स्टेपनी?

उनकी शख्सियत

होती जा रही है नामाकूल फनी। 

मैं कवि हूँ,

मेरी कविता कल्पना नहीं

जमीनी सचाई है।  

प्रमाण?

पेश हैं कुछ शब्द चित्र

देखिए-समझिए मित्र!

ये मेरी ही नहीं

हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे और

ख़ास-उल-खास की

जिंदगी के सफे हैं। 

 

‘जी में आया 

उसे गाली देकर

धक्के मारकर निकाल दूँ

मगर मैंने कहा- आइए! बैठिए।४४  

 

वे कौन थे

वे कहाँ गए

वे जो

धरती को माँ

और आकाश को पिता कहते थे

 

दिल्ली में

राष्ट्रपति भवन है,

मेरे शहर में

गुरंदी बाजार है।४७ 

 

कलम चलते-चलते सोचती है

काश! मैं

अख्तियार कर सकती

बंदूक की शक्ल।

 

मेरे शब्द

हो गए हैं व्यर्थ।

तुम नहीं समझ पाए

उनका अर्थ। ५२

 

आज का सपना

कल हकीकत में तब्दील होगा

जरूर होगा।५३

 

हे दलों के दलदल से घिरे देश!

तुम्हारी जय हो। 

ओ अतीत के देश

ओ भविष्य के देश

तुम्हारी जय हो।

*

ये कविताएँ

सिर्फ कविताएँ नहीं हैं,

ये जिंदगी के

जीवंत दस्तावेज हैं। 

ये आम आदमी की

जद्दोजहद के साक्षी हैं।

इनमें रची-बसी हैं

साँसें और सपने

पराए और अपने

इनके शब्द शब्द से

झाँकता है आदमी। 

ये ख़बरदार करती हैं कि

होते जा रहे हैं

अर्थ खोकर निशब्द,

शब्द अब नहीं रहे शब्द।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ साहित्यिक गोष्ठियों का सिलसिला ☆

साहित्यिक गोष्ठियों का अलग अलग शहरों में सिलसिला जारी है जिससे संवाद और विचार विमर्श होने से लेखक अपनी रचना को और खूबसूरत बना सकते हैं। ये गोष्ठियां अपने ही खर्च और कोशिश से की जाती हैं। मुझे हरियाणा में कैथल की साहित्य सभा की गोष्ठियों का सफर याद है जो चालीस वर्ष से ऊपर होने जा रहा है। जालंधर में पंकस अकादमी पिछले छब्बीस वर्ष से वार्षिक साहित्यिक समारोह व सम्मान देती आ रही है। इसी प्रकार गाजियाबाद में कथा रंग संस्था प्रतिमाह कथा गोष्ठी का आयोजन करती है तो इलाहाबाद में कहकशां भी ऐसे आयोजन करती रहती है। शिमला में हिमालय मंच और परिवर्तन संस्थायें सक्रिय हैं। पंचकूला के पास साहित्य संगम संस्था चल रही है। इस तरह अनेक शहरों में अनेक संस्थायें साहित्य को गोष्ठियों के माध्यम से आगे बढ़ा रही हैं ।

डाॅ अजय शर्मा की औपन्यासिक यात्रा : त्रिवेणी साहित्य अकादमी, जालंधर के तत्वावधान में डॉ अजय शर्मा के उपन्यास ‘शंख में समंदर‘ पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। डा. अजय शर्मा वर्तमान में पंजाब के ही नहीं भारत के प्रमुख उपन्यासकारों में से एक हैं। डॉ तरसेम गुजराल ने उनकी रचना प्रक्रिया पर विस्तारपूर्वक जानकारी दी और उनकी औपन्यासिक यात्रा की यात्रा के बारे में प्रकाश डालते हुए कहा, यह एक प्रयोगधर्मा उपन्यास है। प्रो. सरला भारद्वाज ने शिल्प विधा की मौजूदा स्थितियों की व्याख्या का उल्लेख करते हुए कहा, डा अजय ने इस उपन्यास में सभी विधाओं का प्रयोग करते हुए एक नई परंपरा को जन्म दिया है। डा विनोद शर्मा ने उपन्यास के नए कलेवर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उपन्यास पर चर्चा की। इस तरह की गोष्ठियों का आयोजन गीता डोगरा ने शुरू किया है। उन्होंने बताया कि डाॅ अजय शर्मा पंजाब के ऐसे साहित्यकार हैं जो देश, काल परिस्थिति के अनुरूप लिखते हैं। प्रो. बलवेन्द्र सिंह,  प्रो. रमण शर्मा, रीतू कलसी , डाॅ कुलविंद्र कौर , कैलाश भारद्वाज और लुधियाना से आई सीमा भाटिया ने भी उपन्यास पर अपने विचार रखे ।

सृजन कुंज सेवा संस्थान  : श्रीगंगानगर ( राजस्थान) में सन् 2014 से सृजन कुंज सेवा संस्थान सक्रिय है जो प्रतिमाह ‘लेखक से मिलिये’ कार्यक्रम का आयोजन करता है। अब तक इसके सौ से ऊपर आयोजन हो चुके हैं। इसके साथ ही साहित्य कुंज नाम से पत्रिका प्रकाशन भी किया जा रहा है। इसके संयोजक डाॅ कृष्ण कुमार आशु ने बताया कि प्रतिवर्ष विविध विधाओं में नौ पुरस्कार भी दिये जाते हैं। लेखक से मिलिये कार्यक्रम में किसी भी लेखक को रिपीट नहीं किया जाता। यह संस्था साहित्य की अनुपम सेवा कर रही है। इसके लिये डाॅ कृष्ण कुमार आशु को सलाम तो बनता है ।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बंगला… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बंगला ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

मला वाटते नको बंगला

बाग बगीचा रहावयाला

मनी असू दे विस्तृत जागा

ह्या अवघ्या विश्वाला

 

आरसपानी निर्मळ मन हे

परोपकारासाठी झटावे

हात धरुनी दुबळ्याचा हो

दीप होउनी पुढे चलावे

 

नको भुकेले कोणी रहाया

घास भुकेल्या मुखी भरवावा

एक दाणा मिळून खावा

मनोमनी आनंद भरावा

 

गंध दरवळू दे सुमनांचा

कधी नसावा विकल्प हेवा

मनाच्या या बंगल्यात

सदैव मोद नांदावा

 

परमेशाचे धाम मन हे

सदैव राहो शुद्ध आचरण

दया क्षमा शांती वसू दे

मन आत्म्यासी समर्पण

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ज्येष्ठ… ☆ सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ज्येष्ठ… ☆ सुश्री शोभना आगाशे ☆

वैशाख लाही निवू लागली

ज्येष्ठाची  लगबग सुरू जाहली

 

जांभुळ पिकल्या झाडाखाली

निळी, जांभळी माती सजली

 

आम्रतरूवर जमुनि पक्षी

सोनकेशरी सांडत नक्षी

 

सुगंध मोगरा सांज धुंद करी

मात त्यावरी मृद् गंध परि करी

 

रवीतापाने दग्ध धरित्री

शांतविण्या ये वळीव रात्री

 

धसमुसळा हा, रीत रांगडी

औटघडीचा असे सवंगडी

 

तप्त तनुला शांत जरी करी

अंतरंगा तो स्पर्श नच करी

 

अंतर्बाह्य तृप्ती तियेची

करील हळुवार धार मृगाची

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रेम… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ प्रेम… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

प्रेमाला उपमा नाही हे देवाघरचे लेणे — खरंच किती भावार्थ लपला आहे नाही या गाण्यात…प्रेम ही ईश्वरी देणगी आहे.. प्रेम हे ठरवून कधीच होत नाही.. प्रत्येक व्यक्ती कधीना कधी कोणावर ना कोणावर प्रेम करतेच नाही का..

कुणीतरी आपल्यासाठी आपल्याला आवडतं म्हणून काही करणं म्हणजे प्रेम असतं. प्रेम हे केवळ व्यक्तीवर  असतं ? तर नाही.. ते भावनेवर असतं त्याच्या/ तिच्या अस्तित्वावर असतं.. त्याच्या / तिच्या  सहवासात असतं… प्रेम हे दिसण्यात असतं ? तर  ते  नजरेत असतं. जगायला लावणाऱ्या उमेदीत असतं. प्रेम निर्बंध असतं..त्याला वय , विचारांचं बंधन कधीच नसतं. जेंव्हा एखादी व्यक्ती प्रेमात पडते तेव्हा अख्खं जग सुंदर दिसू लागतं…त्याचे संदर्भ मनातल्या मंजुषेशी जुळलेले असतात…ते एक अनामिक नातं भावनांच्या मनस्वी लाटा वाहवणार असतं…एक हुरहूर,ओढ आणि तेवढीच धडधड वाढविणारही असतं. कांहीही नसताना खूप कांही जपणार आणि जोपासणार असतं. अश्या अनामिक नात्याची उत्कटता शब्दांत व्यक्त करताचं येत नाही…

प्रेम सहवासाने वाढते.. ते कृतीतून  स्पर्शातून व्यक्त होते.. प्रेमामुळे तर आपुलकी स्नेह निर्माण होतो.

सर्वोच्च प्रेमाची परिणीती म्हणजे त्याग…

आपल्या प्रिय गोष्टीचा त्याग करणे हे ही एक प्रकारचे प्रेमच असते. नाही का..! शेकडो मैल केलेला प्रवास म्हणजे प्रेमाची परिसीमाच नाही काय?.. प्रेम ही एक सर्वोच्च शक्ती आहे. प्रेमामुळेच विविध महाकाव्यांची निर्मित झाली.. 

प्रेम हे  पहाटेच्या धुक्यात असते… रातराणीच्या सुगंधात असते..खळखळ वाहणाऱ्या निर्झरात असते.. तर प्रेम पहाटेच्या मंद झुळकीत ही असते बरे.. इतकं नाही तर दूरदूर जाणाऱ्या रस्त्यात सुद्धा प्रेम असते… प्रेम गालावरच्या खळीत असते…झुकलेल्या नजरेत असते…ओथंबलेल्या अश्रूत ही असते.. शीतल चांदण्यात,  आठवणींच्या गाण्यात, चिंचेच्या बनात, निळ्याशार तळ्यात..दोन ओळींची चिठ्ठीसुद्धा प्रेम असतं..घट्ट घट्ट मिठीत सुद्धा असते. 

गुणगुणाऱ्या भुंग्याला पाहून लाजणाऱ्या फुलात ही प्रेम असते.

सृष्टीच्या प्रत्येक रचनेत चराचरात … निसर्गात प्रेम असते आणि आहे…

विरह हा प्रेमाचा खरा साक्षीदार …वाट पाहण्यातील आतुरता, हुरहुर, ती ओढ, ती न संपणारी प्रतीक्षा.. वेळ किती हळूहळू जातोय असं वाटणारी ती जीवघेणी अवस्था. …तो किंवा ती कधी येईल ? ही वाटण्यातील अधीरता, तो किंवा ती आपल्याला फसवणार तर नाही ना ? अशी मनात येणारी दृष्ट शंका. ..किती किती भावना नाही का? 

मी तिच्यावर /त्याच्यावर प्रेम करावे. त्याला /तिला अजिबात जाणीव नसू नये. .मी निष्ठापूर्वक प्रेम करावे त्याची उपेक्षा व्हावी. ..त्यामुळे झालेले दुःख मला प्राणापेक्षा प्रिय आहे. ही कधी संपत नाही अशी गोष्ट आहे नि न संपणारी रात्र आहे. .फक्त आणि फक्तच ज्योत बनून तेवत रहाणे हेच तर खऱ्या प्रेमाचे भाग्यदेय आहे नाही का? ….

पण खेदाची बाब ही आहे की प्रेम या सर्वोच्च भावनेचा, त्याच्या पवित्रतेचा अर्थच लोकांना अद्याप समजलेला नाही.. नसावा त्यामुळे तर विकृती कडे पाऊले उचलली जात आहेत  प्रेमात वासनेला मुळीच स्थान नसते तर तिथे हळूवार नाजूक स्पर्श हवा असतो. दोन जीवांच्या अत्युच्च प्रेमामुळेच तर सृष्टीची निर्मिती झाली आहे. अशक्य ते शक्य करण्याची ताकद प्रेमात असते नुसते मनच नाही तर जगही प्रेमामुळे जिंकता येते. 

प्रेम म्हणजे स्वतः जगणं आणि दुसऱ्याला जगवण आहे… प्रेमाचा परिसस्पर्श ज्याला होतो त्याचे सारे आयुष्य उजळून निघते..म्हणूनच याला देवाघरचे लेणे असे संबोधले आहे…

प्रेम हृदयातील एक भावना.. कुणाला कळलेली.. कुणाला कळून न कळलेली.. कुणी पहिल्याच भेटीत उघड केलेली.. तर कुणी आयुष्यभर लपवलेली… कुणी गंमत करण्यासाठी वापरलेली.. तर कुणाची गंमत झालेली.. कुणाचे आयुष्य उभारणारी.. तर कुणाला आयुष्यातुन उठवणारी….. . फक्त एक भावना…!!

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गोडवा… लेखिका – सुश्री प्राजक्ता राजदेरकर ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:शाम सोनावणे ☆

श्री मेघ:श्याम सोनावणे

? जीवनरंग ?

☆ गोडवा… लेखिका – सुश्री प्राजक्ता राजदेरकर ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:शाम सोनावणे ☆

“ऐकलं का, रमेशला यायला जरा उशीर लागणार आहे, तो ट्रॅफिकमध्ये अडकलाय, या.. इथे बसून वाट बघू..”

“मी जरा माझ्या फुलवाल्या मैत्रिणींना भेटून येऊ का?”

“या.. आणि सावकाश जा बरं..” असं आजींना सांगत आजोबा शेजारी असणाऱ्या दुकानाबाहेर ठेवलेल्या खुर्चीवर बसायला गेले.. “बसू ना गं ताई मी इथे.. चालेल ना..”

“बसा ना आजोबा, खरंतर आतच बसा, बाहेर ऊन यायला लागलंय.. अन् आता तशी फारशी वर्दळ नाहीये, तुम्ही अगदी सहज बसू शकाल आत.. या बसा..”

गावात देवीच्या मंदिराच्या बाजूलाच मानसीचे बुटीक होते. हे आजी आजोबा प्रत्येक मंगळवारी नेमाने येत असत मंदिरात. त्यांचा ऑटो दुकानासमोर थांबत असे हिच्या.  प्रत्येकवेळी आपसूकच नजर जात असे तिची ऑटोतून सावकाश उतरणाऱ्या आजी आजोबांवर.

साधारण साडेचारच्या दरम्यान येत असत ते प्रत्येक मंगळवारी. म्हणजे गेल्या तीन चार महिन्यापासून तरी त्यांना पाहत आली होती मानसी. आधी आजोबा उतरत, सावकाश हात धरून आजीला उतरवत.. हळुवारपणे चालत दोघेही मंदिरात जात, अर्ध्या पाऊण तासाने परत येत. हा असा सिक्वेन्स कायम होता त्यांचा, प्रत्येकवेळी. 

साधारण पंच्यायशी ते नव्वद दरम्यान वय असेल दोघांचेही. पण दोघेही अगदी काटक.. आजोबा उंच होते आजीपेक्षा.. पांढरा शुभ्र सदरा, धोतर, डोक्यावर काळी टोपी, हातात काठी.. आजोबांकडे बघूनच त्यांच्यातील व्यवस्थितपणाची जाणीव होत असे. 

आजोबांच्या तुलनेत आजी तशा ठेंगण्याच.. छानसं काठपदरी सुती नऊवारी पातळ नेसणाऱ्या, केसांचा सुपारी एवढा अंबाडा घालणाऱ्या.. ठसठशीत कुंकू लावणाऱ्या.. आजोबा अलवारपणे हाताला धरून घेऊन जात आजींना.. मानसीला फार आवडत असे त्यांना बघायला..

मागच्या मंगळवारी आजी आजोबा मंदिरात आले नाहीत ..  मानसीला जरा चुकल्यासारखेच वाटले. खरंतर त्यांच्याशी प्रत्यक्ष बोलण्याची वेळ आली नव्हती कधी, आज ती ही संधी सोडणार नव्हती.. फार प्रसन्न वाटायचं तिला त्या दोघांना बघितलं की. “आजोबा, मागच्या मंगळवारी दिसला नाहीत..”

“अगं, जरा बरं वाटत नव्हतं मला.. आता काय हे चालायचंच…  नव्वदी पार झालीये माझी….”

“अरे वा..मस्तच की. पण वाटत नाही बरं.. आणि आजींचं काय वय..”

“ती सत्त्यायशीची.. सत्तर वर्षे सोबत आहोत एकमेकांच्या आम्ही..”

असं सांगतांना अभिमान झळकत होता आजोबांच्या चेहऱ्यावर..

“काय सांगताय, किती गोड.. आणि दर मंगळवारी या मंदिरात येण्याचा नेम आहे वाटतं आजींचा.. मी गेले अनेक महिने तुम्हाला मंगळवारीच बघतेय मंदिरात येताना..”

यावर काहीसं मिश्किल हसत आजोबा म्हणाले, “तिचा नाही गं, माझाच नेम आहे तो.. पण तिच्यासाठी..”

“म्हणजे..?”

“सांगतो.. ती एक गंमतच आहे.. सांगतो थांब..” असं म्हणून आजोबा उठले, दुकानाबाहेर डोकावून बघितलं. आजी अजूनही त्यांच्या फुलवाल्या मैत्रिणींशी गप्पा मारत होत्या, याची खातरजमा करून घेतली त्यांनी….. 

“सुगरण आहे गं ती फार, अजूनही स्वयंपाक करते, लोकांना खाऊ घालण्याची प्रचंड आवड.. तितकीच स्वतः वेगवेगळं खाण्याची आवड.. त्यात गोड म्हणजे तर विक पॉइंट.. गुळाम्बा, साखरांबा, सुधारस, शिकरण.. काही ना काही रोज जेवणात लागतं. कणकेचा शिरा तर असा करते ना…. 

पण काय करणार.. आता या सगळ्यांवर बंधनं आली. मधुमेह झालाय तिला, रक्तातली साखर अचानक खूप वाढली.. सगळं एकदम बंद झालं गं.. जेवण अगदीच कमी झालं तिचं तेंव्हापासून… 

त्या दिवशी शिराच केला होता तिने. देवाला नैवेद्य दाखवल्यानंतर पट्टकन एक घास तोंडात टाकला.. नेमकं हेच आमच्या नातसुनेनं पाहिलं आणि सगळ्यांसमोर म्हणाली तिला, ‘आजी नका गोड खाऊ, त्रास होईल तुम्हाला..’ 

तीही काळजीपोटी बोलली गं, पण हिला खूप ओशाळाल्यासारखं झालं, एखाद्याला आपली चोरी पकडल्यावर होईल तसं.. खूप खजील झाली गं ती.. आपण गुन्हाच केलाय असं वाटलं तिला.. खरंतर गुन्हा वगैरे नव्हताच तो….मग मी ही शक्कल लढवली, तो धनाशेठ मिठाईवाला.. बालपणीचा मित्र आहे माझा.. आम्ही दर मंगळवारी मंदिरात येतो.. तिथून त्याच्या दुकानात जातो.. मग ती खाते तिच्या आवडीच्या एकदोन मिठाया.. काय समाधान असतं त्यावेळी तिच्या चेहऱ्यावर..”

“अहो पण आजोबा.. हे धोकादायक आहे ना त्यांच्यासाठी.. त्यांची खूप शुगर वाढली तर उगाच कॉम्प्लिकेशन्स होतील ना..”

“कळतं गं मला पण हे सगळं.. पण तुला खरं सांगू.. आता आमच्यासारख्याचे काय, सात गेले अन पाच राहिले.. कधीही बोलावणं येऊ शकतं आम्हाला… आम्हा म्हाताऱ्यांना वयाच्या सायंकाळी फक्त दोन गोष्टींची आस असते, एक म्हणजे ‘घरातल्या प्रत्येकाला या वयात सुद्धा आपण तितकेच हवे आहोत’ ही जाणीव अन दुसरं म्हणजे ‘पोटापेक्षाही मनाला तृप्त करणारं अन्न..’ हे दोन्ही असेल तरच पुढचा मार्ग सुकर होतो गं.. 

एवढी सत्तर वर्षे फारच समाधानाने घालवली आहेत आम्ही एकमेकांसोबत.. मला आमची यापुढचीही असली नसली सगळी वर्षं समाधानात जायला हवी आहेत.. ती समाधानी नसेल तर मी तरी सुखात कसा राहू सांग..”

“बरं एक गंमत तर मी तुला सांगितलीच नाही, मी म्हणालो ना हा धनाशेठ दोस्त आहे माझा, तो तिला आवडणाऱ्या मिठाया ते शुगर फ्री का काय असतं ना त्यात बनवतो, काही गुळातही बनवतो.. अर्थात हे आमच्या सौ. च्या लक्षात येत असेलच म्हणा.. हाडाची सुगरण आहे ना ती.. पण तसं काही बोलून दाखवत नाही कधी.. कधीकधी मीच सांगतो त्याला, तिला सगळं खऱ्याखुऱ्या साखरेतलं खाऊ घालायला.. मग त्या दिवशी आम्ही बागेत दोन फेऱ्या जास्ती मारतो..” 

असं बोलताना आजोबा अगदी डोळ्यांच्या कोपऱ्यापर्यंत हसले, तितक्यात ऑटोवाला रमेश आल्याचे लक्षात आले त्यांच्या, दुरून हळूहळू चालत आजीही येत होत्या. 

मानसीचा निरोप घेत ते म्हणाले, “माझं हे सिक्रेट सांगू नकोस हं कोणाला.. म्हणजे मी घरी मुलांना सांगितलंय, धनाशेठला अन बबनला माहित्ये, अन आता तुला.. मला तिच्या चेहऱ्यावरचा गोडवा असाच कायम टिकायला हवाय.. चल निघतो.. भेटू पुढल्या मंगळवारी..”

असं म्हणून आजोबा निघाले, आजींना त्यांनी हाताला धरून ऑटोत बसवलं.. वळताना पुन्हा एकदा मानसीला हात दाखवला. त्यांच्या नात्यातला अन त्या दोघांच्याही चेहऱ्यावरचा गोडवा तिला अगदीच सुखावून गेला…

लेखिका : सुश्री प्राजक्ता राजदेरकर

प्रस्तुती : मेघ:शाम सोनावणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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