हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #184 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मूर्खों के पांच लक्षण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 184 ☆

☆ मूर्खों के पांच लक्षण 

‘मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर।’ वाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है; भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई अटपटी बात करता है; अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है; अपनी विद्वत्ता का बखान करता है; बात-बात पर अकारण क्रोधित  होता है तथा दूसरों की पगड़ी उछालने में पल-भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, क्योंकि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान अथवा तवज्जो नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। वैसे नास्तिक व्यक्ति भी परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं रखता और वह स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा अथवा दया का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर… परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं– ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, श्रद्धेय हैं, उपास्य हैं।

गर्व, घमण्ड व अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो भौतिक व आध्यात्मिक विकास में बाधक है। वास्तव में अहं गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का, जो मानव की नस-नस में व्याप्त है, परंतु वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में इसे अतिशयोक्ति भी कहा जाता है। इसका दूसरा भयावह पक्ष यह है कि जो आपके पास है, उसके कारण आप अहंनिष्ठ होकर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखाते हैं; उनकी भावनाओं को रौंदते हुए, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं– जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसे सही राह दिखाने की चेष्टा करता है; जीवन के सत्य व कटु यथार्थ से परिचित कराना चाहता है; उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है–वह उस पर ज़ुल्म ढाने से गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, तो वह उसके प्राण लेकर सूक़ून पाता है। इसलिए  वह अपने अहंभाव के कारण आजीवन सत्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक़ पर रख व सीमाओं को लांघकर अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अप-शब्द कहता है, गाली -गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है– बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराज़ू में रखकर तोलिए और यदि वह उस कसौटी पर ख़रा उतरता है–तो उचित है; वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए, क्योंकि वे शब्द-बाण कभी भी आपके गले की फांस बन सकते है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से वे जन्म लेते हैं; अस्तित्व में आते हैं। सो! इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल होता है, जो बड़ी से बड़ी आपदा का सब कुछ जानते हुए भी आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है; एक ही लाठी से हांकता है; सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्दकोश के दायरे से बाहर रहता है।

परशुराम का क्रोध में अपनी माता की हत्या कर देना, तो सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भीषण व भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ अथवा ज़िद का प्रणेता है क्रोध। बाल-हठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे किसी पल, कुछ भी करने व किसी वस्तु को पाने का हठ कर लेते हैं; जिसे पूरा करना असंभव होता है। परंतु उन्हें बात बदल कर,व अन्य वस्तु देकर बहलाया जा सकता है। सो! इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बाल-मन तो कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह पूरे समाज को  विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं होती, क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है, लाख प्रयास करने पर भी वह टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत तक को अपने हाथों जला अथवा नष्ट कर तमाशा देखता है और उस स्थिति में स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है, क्योंकि उसके सुंदर स्वप्न जल कर राख हो चुके होते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल-भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान

स्वीकारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान् इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं-तुष्टि ही नहीं, अहं-पुष्टि हेतु क्रोध के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय-कृत्यों तक का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट’ अर्थात् बॉस अथवा मालिक सदैव ठीक होता है तथा कोई ग़लत काम कर ही नहीं सकता अर्थात् ग़लत शब्द उसके शब्दकोश की सीमा से बाहर रहता है। वह निष्ठुर प्राणी कभी भी अनहोनी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती ही नहीं।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान ग़लतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं, जो स्थायी भावों के साथ-साथ, समय-समय पर प्रकट होते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी जीवन में इन्हें धारण कर लेता है अथवा अपना लेता है… उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है तथा उन सबको अपना विरोधी स्वीकारते हुए, अपना पक्ष रखने का अवसर व अधिकार ही कहां प्रदान करता है? अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे-रटाए चंद वाक्यों का प्रयोग; वह हिटलर की भांति किसी भी अवसर पर धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्न-चित्त रहता है; सदैव अपनी-अपनी हांकता है तथा किसी को बोलने अथवा अपना पक्ष रखने का अवसर ही प्रदान नहीं करता। परंतु चंद लम्हों में लोग उसकी फ़ितरत को समझ जाते हैं तथा उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं। वे उससे निज़ात पा लेना चाहते हैं, ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला उच्चरित कोई वाक्य, कहीं उन सबके लिए बवाल व भविष्य में जी का जंजाल न बन जाए। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक-तुल्य बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है; जिसे सहर्ष स्वीकारना व अनुमोदन करना–उनकी नियति बन जाती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘Compulsion…’ ☆ English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Ms. Indira Kislay’s Hindi poem “~ विश्व विवशता दिवस ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

? ~ Compulsion… ??

[1]

Fish can’t show

her tears

and the sea

can’t see it…

This is a helplessness..!

[2]

Whether it’s

cloudy or not

or raining or not

some frogs have to croak

This is a compulsion..!

[3]

Ther’s a nexus

between the water

and the officialdom

Some people try to

douse the forest fire

with the words only…

This also is a compulsion..!

[4]

Rats want

to bell the cat

but in the dream only

This too is a compulsion..!

[5]

Thorns may be like this 

or like that

But, under the feet

of hypocrites

They’re never laid

like the flowers…

They both have their

own compulsions..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्वार्थ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – स्वार्थ ??

सारा जीवन

जो मरता रहा

स्वार्थ के पीछे,

ज़रा पूछना उससे,

अपनी मृत्यु पर

स्वार्थ जियेगा कैसे?

© संजय भारद्वाज 

सुबह 10:37 बजे,24.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #183 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 183 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

ग्रीष्म काल की तपन का, अब होता आभास।

झुलस रहे देखो सभी, बस वर्षा की आस।।

धरती तपती ताप से, पंछी हैं बेहाल।

सूखे है जल कूप अब, बुरा हुआ है हाल।।

गर्मी जब से आ गई, नहीं मिली है ठांव।

गांव-गांव सब सूखते, गायब होती छांव।।

जितनी बढ़ती तपन हैं, सूरज खेले दांव।

धीरे-धीरे बढ़ रहे, वर्षा के अब पांव।।

धरती कहे आकाश से, तपन बहुत है आज।

बरसो घन अब आज तुम, हे बादल सरताज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माखी और गुड़”।)  

? अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गुड़ और मक्खी का साथ बहुत पुराना है, बस यह मानिए, जब से हमने हमारे गुरुकुल में पोथी बांचना शुरू किया, तब से ही इस गूंगे के गुड़ और ढाई आखर की मक्खी का प्रेम, हम देखते चले आ रहे हैं। इन्हें आपस में लाने का यह पवित्र कार्य संत कबीरदास जी ने कुछ इस तरह से किया ;

माखी गुड़ में गड़ी रहै

पंख रह्यौ लिपटाय ;

हाथ मलै और सिर धुने

लालच बुरी बलाय।

हमारे कबीर साहब के दोहों में उलटबासी होती थी, और उनकी सीख, साखी कहलाती थी। सुनो भाई साधो, उनका तकिया कलाम था! भाई, सिर्फ सुनो ही नहीं, उसको साधो भी, जीवन में, अमल में भी लाओ। ।

गुड़ मीठा है, इसमें गुड़ का कोई दोष नहीं, मक्खी को भी मीठा पसंद है और हमें भी! मीठा किसे पसंद नहीं। तो क्या इसमें मक्खी के पंख का दोष है। अगर उसके पंख नहीं होते, तो शायद वह भी चींटियों की तरह, गुड़ का पहाड़ अपने मजदूरों की सहायता से अपने घर में ले जाती। ।

ईश्वर ने प्राणियों के पंख उड़ने के लिए बनाए हैं, लेकिन कबीर साहब कब गलत कहते हैं, लालच बुरी बलाय। मक्खी का क्या है, उसे गुड़ और गोबर में कहां भेद करना आता है। वह तो उल्टे, जहां बैठती है, वहीं अंडे दे देती है। नाली से उड़कर आएगी और हलवाई के थाल पर बैठ जाएगी। बर्फी का सब रस, गुड़ गोबर हुआ कि नहीं।

कबीर साहब की सीख हमें तब समझ में नहीं आई, तो अब क्या आएगी। हमारे भी पंख हैं, अरमानों के, हमारे भी सपने हैं, पैसे का भी लोभ है और जमीन जायदाद औलाद का भी।

मत कहिए लालच, उसे कुछ और नाम दे दीजिए। ।

लालच से मीठा कोई गुड़ नहीं। हमसे तो मीठा ही कंट्रोल नहीं होता, बिना पंख के, केवल हमारी रसना ही हमें यहां वहां उलझाती रहती है, ललचाती रहती है। यह तो इतनी चतुर है कि मीठा बोलकर भी जहर घोलने में माहिर है।

माखी ही हमारे लिए कबीर की साखी है। भगवान दत्तात्रेय ने इसीलिए कीट, पतंगों तक को अपना गुरु माना। कबीर साहब के शब्द ही इसीलिए गुरु ग्रंथ साहब के सबद बन प्रकट हुए हैं। संत का सत्संग ना सही, सबद ही काफी है। अपने जीवन से लालच को मक्खी की तरह निकाल फेंके। शब्दों का लालच तो देखिए, प्रकट होने से बाज नहीं आ रहे। हम नहीं सुधरेंगे। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #169 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 169 ☆

☆ “संतोष के दोहे …☆ श्री संतोष नेमा ☆

(विधा:-  कुंडलिया छंद,  विधान:-1 दोहा (13-11) 2 रोला (11-13))

गरमी में जो रख रहे, पशु-पक्षी का ध्यान

रखें सकोरा जल सहित, धन्य वही इंसान। 

धन्य वही इंसान, समझते जो पर पीड़ा

रख ओरों का मान, बनो मत बिच्छू कीड़ा।

कहते कवि “संतोष”, बनें हम सच्चे धरमी

खोजें खुद में दोष, रखें शांत मन गरमी। 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माटी कहे कुम्हार से… ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

☆ कविता ☆ माटी कहे कुम्हार से…   ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

मैं भी माटी का बना हुआ

तू भी माटी से बना हुआ

 

मैं भट्टी की आंच में पका हुआ

तू जीवन संघर्ष से तपा हुआ

 

मैं प्यासे की प्यास बुझाता हुआ

तू अपनों की आस लगाता हुआ

 

मैं भी इंसानों की प्रतिक्षा में

तू भी उनकी राह तकता हुआ

 

मैं हर रंग, रूप और आकार में

तू अनुभव के स्वरूप साकार में

 

बस तुझमें मुझमें इतना अंतर

मैं चोट लगी तो टूट जाऊंगा

तू चोट लेकर और पक जाएगा।।।।

 

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सौ अंजली दिलीप गोखले आणि श्री दीपक तांबोळी – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ अंजली दिलीप गोखले

💐 अ भि नं द न 💐

आपल्या समूहातील प्रतिभावंत लेखिका सौ अंजली दिलीप गोखले यांना त्यांच्या “ भवसागरी तराया  या कथा संग्रहासाठी “ मासिक सारांश साहित्य पुरस्कार – २०२३ “ हा नामांकित पुरस्कार प्राप्त झालं आहे.

त्याबद्दल सुश्री अंजली गोखले यांचे आपल्या सर्वांतर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन, आणि पुढील अशाच यशस्वी साहित्यिक वाटचालीसाठी असंख्य हार्दिक शुभेच्छा.💐 

पुरस्कार-प्राप्त कथासंग्रह 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्री दीपक तांबोळी

💐 अ भि नं द न 💐

आपल्या समूहात नव्यानेच सामील झालेले प्रसिद्ध लेखक श्री दीपक तांबोळी यांनाही, त्यांच्या अशी माणसं अशा गोष्टी“ या कथासंग्रहासाठी “मासिक सारांश साहित्य पुरस्कार – २०२३“ हा नामांकित पुरस्कार प्राप्त झाला आहे.

या पुरस्काराबद्दल श्री. दीपक तांबोळी यांचे आपल्या समूहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन, आणि साहित्यक्षेत्रातील पुढील अशाच यशस्वी वाटचालीसाठी असंख्य हार्दिक शुभेच्छा.💐

यापुढे त्यांचे दर्जेदार लेखन आपल्याला नेहेमीच वाचायला मिळेल याची खात्री आहे.

पुरस्कारप्राप्त कथासंग्रह

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ धनाचे  श्लोक ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

😅 🤠 धनाचे  श्लोक ! 😎 😅 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

(सध्याच्या जगात बोकाळलेल्या, “माझं काय?” अशी मनोवृत्ती झालेल्या जनांसाठी धन जोडण्याचे, आणखी काही जगनमान्य आणि सोपे उपाय !)

सदा सर्वदा योग धनाचा घडावा रे

त्या कारणे खिसा मानवा भरावा रे

 

उपेक्षु नको तू येणाऱ्या संधी रे

आलेल्या संधीचे सोने कर तू रे

 

जुगार लॉटरी नको खेळू तू रे

लॉटरी सेंटर चालवावया घे रे

 

खेळणारे सारे विकती घरे दारे

चालका घरी लक्ष्मी पाणी भरे

 

नवा सोपा धंदा तुज सांगतो रे

भाई गल्लीतला तू आता बन रे

 

मग उघडतील राजकारणाची दारे

देवून खोटी वचने निवडून ये रे

 

राजकारण म्हणजे कुबेर कुरणे

तेथे तुवा आहे मनसोक्त चरणे

 

हो यथावकाश शिक्षणसम्राट रे

सात पिढ्यांची मग सोय होय रे

 

दुजा सोपा धंदा तुज सांगतो रे

होऊन बुवा छान मठ बांध तू रे

 

आता स्वर्ग सुखं पायी लोळती रे

नाही पडणार कसली ददात रे

 

‘दामदासे’ रचिली ही रचना रे

एखादा नुस्का यातला वापर रे

 

धन मिळतां नको विसरू या दामदासा रे

मज पोचव मला माझा हिस्सा रे

 

 धनकवी दामदास !

 

© प्रमोद वामन वर्तक

११-०२-२०२३

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #176 ☆ सरस्वती स्तवन… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 176 – विजय साहित्य ?

☆ सरस्वती स्तवन… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

मयुरवाहिनी,पद्ममालिनी, देवी शारदा नमो नमो

हंस वाहिनी, विद्यावती तू, भुवनेश्वरी नमो नमो.  ||धृ.||

शास्त्ररूपीणी,त्रिकालज्ञायै, चंद्रवदनी तीव्रा भामा

सुरवन्दिता,सुरपुजिता, पद्मनिलया, विद्या सौम्या

विन्धयवासिनी सौदामिनी तू,पद्मलोचना नमो नमो  ||१.||

महाकारायै,पुस्तक धृता, विमला विश्वा वरप्रदा

महोत्सहायै,महाबलायै, दिव्यांगा, वैष्णवी,श्रीप्रदा

सौदामिनी तू,सुवासिनी तू,कामरूपायै नमो नमो ||२.||

सावित्री,सुरसा,गोमती तू, महामायायै रमा परा

शिवानुजायै, सीता सुरसा, शुभदा कांता, चित्रांबरा

विशालाक्षी तू,त्रिकालज्ञायै,धुम्रलोचनी नमो नमो ||३.||

गोविंदा, गोमती,नीलभुजा, शिवानुजायै, महाश्रया

श्वेतसनायै, सुधामुर्ती तू, कला संपदा, सुराश्रया

जटिला,चण्डिका,पद्माक्षी तू,ज्ञानरूपायै नमो नमो ||४.||

शिवात्मकायै,सरस्वती तू, चतुरानन कलाधारा

निरंजना तू,महाभद्रायै,वीणावादिनी, स्वरधारा

साहित्यकलेची,स्वरदेवी, सृजनप्रिया नमो नमो||५.||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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